शनिवार, 1 जुलाई 2023

उर्मिला 28

 

उर्मिला 28
     महाराज जनक भरत के साथ ही अयोध्या आ गए थे। सम्बन्धियों का कर्तव्य होता है कि विपरीत परिस्थियों में सम्बन्धी का सहारा बनें। उनतक अपनी संवेदना, शुभकामना और भरोसा पहुचाएं। राजा जनक तो यूँ भी धर्म और ज्ञान पर निरंतर चलते रहने वाले विमर्शों की प्राचीन परम्परा वाली मिथिला के राजा थे, वे इस विपरीत परिस्थिति में उस अयोध्या राजकुल को कैसे अकेला छोड़ देते जहां उन्होंने अपनी प्राणप्रिय कन्याएं ब्याही थीं।
    प्राचीन परम्परा के अनुसार बेटी का गाँव उसके पिता के लिए तीर्थ समान होता है। वह श्रद्धा के कारण वहाँ का जल तक ग्रहण नहीं करता और वहां के पशु-पक्षियों तक को प्रणाम करता चलता है। राजा जनक भी यहाँ अधिक समय तक नहीं रह सकते थे। वे सबसे पहले मांडवी के पास गए और बड़े प्रेम से कहा, "कुछ दिनों के लिए जनकपुर चली चलो पुत्री! अपनी माता के साथ रहोगी तो मन लग जायेगा।"
    मांडवी ने शीश झुका कर कहा, "इस दुर्दिन में मन को कहीं और लगाना अधर्म है तात! आत्मग्लानि के भारी बोझ तले दबे मेरे पति के लिए यह चौदह वर्ष कितने कठिन होंगे यह मैं जानती हूं। मुझे यहीं रहने दीजिये। इस परिवार की सेवा में अपना सर्वस्व खपा कर शायद मैं उनकी ग्लानि कुछ कम कर सकूँ। मेरा तप ही उस दुखी मनुष्य का एकमात्र सम्बल है। मैं स्वप्न में भी अयोध्या नहीं छोड़ सकूंगी तात! जनकपुर तो अब चौदह वर्ष बाद ही आना होगा..."
     महाराज जनक मन ही मन प्रसन्न ही हुए। उन्हें अपनी बेटियों से यही आशा थी। वे मांडवी से विदा लेकर उर्मिला के पास पहुँचे और उनसे भी वही आग्रह किया।
     विवाह के बाद बेटियों का पिता से व्यवहार अत्यंत सहज हो जाता है। जो बच्चियां आदर के कारण पिता से अधिक बात नहीं करतीं, विवाह के बाद वे भी पिता से स्नेहपूर्वक झगड़ लेती हैं। कभी पिता के समक्ष शीश भी न उठाने वाली उर्मिला ने पिता के मुख पर दृष्टि गड़ा कर पूछा, "यह क्या उचित होगा पिताश्री?"
     राजा जनक सहसा कुछ बोल न सके। फिर धीरे से कहा, "चलो! माताओं के पास तनिक शांति मिलेगी। फिर चली आना।"
     "मुझे अभी इसी अशांत परिवार में शांति ढूंढनी है पिताश्री! इस परिवार के अधिकांश व्यक्ति निर्दोष होने के बाद भी ग्लानि और अपराधबोध से भरे हुए हैं। माता कैकई और दीदी मांडवी उसी अपराधबोध के साथ घुट रही हैं। माता कौशल्या का जीवन तो यूँ ही पीड़ा से भरा हुआ है। सदैव परिवार की सेवा में ही स्वयं को खपा देने वाली मेरी माँ सुमित्रा अपने परिवार को टूटते देख कर अलग विलख रही हैं और पुत्र के वनवास से अलग... इस परिवार के पास केवल अश्रु बचे हैं! इस अवसाद के अंधेरे से भरे कुटुंब में आशा का दीपक मुझे ही जलाना होगा पिताश्री। अभी यही मेरा परम कर्तव्य है।
      राजा जनक के लिए यह प्रसन्नता का ही विषय था। वे उर्मिला को आशीष दे कर श्रुतिकीर्ति के पास पहुँचे और कहा, "तुम्हारी अन्य बहनों ने जनकपुर चलने से मना कर दिया पुत्री! उनका कहना ठीक भी है। वे परिवार में अपने पतियों के भी कर्तव्य को स्वयं ही पूरा कर रही हैं। पर तुम्हारे पति तो परिवार के साथ ही हैं न! तुम तो चल ही सकती हो। चलो जनकपुर! हमें भी सन्तोष मिलेगा।"
      श्रुतिकीर्ति ने शीश झुका कर कहा, "नहीं तात! यह सम्भव नहीं। मेरी बहनों के पति उनके साथ नहीं हैं यह केवल उनका ही नहीं इस पूरे कुटुंब का दुर्भाग्य है। यदि इस समय मेरी झोली में थोड़ा सा सौभाग्य बचा हुआ है तो क्या मेरा उसपर प्रसन्न होना और अपने सुखों का प्रदर्शन करना उचित होगा? मैं तो एक डेग चलते हुए भी सोचती हूँ कि कहीं मेरे व्यवहार से उन्हें चोट न पहुँचे। यह विपत्ति हम सब की साझी विपत्ति है, इससे निकलने के लिए हमें साझा प्रयत्न ही करना होगा। आप चलें, हम तो अब जनकपुर तभी आएंगे जब अयोध्या सुखी होगी..."
     राजा जनक कुछ कह न सके। वे सबसे मिल कर जनकपुर के लिए निकल गए। राजमहल के प्रांगण से बाहर निकले तो एक बार मुड़ कर पीछे देखा और श्रद्धा से प्रणाम कर लिया मन्दिर को! मन ही मन कहा, "कोई भय नहीं! मेरी बेटियां अयोध्या को खंडित नहीं होने देंगी। अयोध्या चौदह क्या, चौदह करोड़ वर्षों बाद भी अपनी दिव्यता नहीं खो सकती..."
क्रमशः    (पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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