शनिवार, 22 जुलाई 2023

उर्मिला 31

 

उर्मिला 31

यूँ तो उदासी समूची अयोध्या का भाग्य हो गयी थी, पर उसका प्रभाव सबसे अधिक कैकई पर दिखता था। कभी अपने युग की सबसे सुन्दर स्त्री रहीं कैकई का रूप ऐसा हो गया था कि उन्हें देख कर भय होता था।
कैकई को सबने क्षमा कर दिया था। जाते जाते पति ने क्षमा कर दिया, राम के मन में उनके प्रति बसी श्रद्धा कभी कम हुई ही नहीं थी, पर अब उनके आदेश से भरत और शत्रुघ्न ने भी क्षमा कर दिया था। कौसल्या और सुमित्रा से भी उन्हें क्षमा मिल चुकी थी। पर कैकई स्वयं को क्षमा नहीं कर सकी थीं। उन्हें हर क्षण लगता था कि अयोध्या की पीड़ा का मूल कारण वे ही हैं।
   किसी भी व्यक्ति के अपराध का सर्वश्रेष्ठ आकलन वह स्वयं ही कर पाता है। कैकई के अपराध को परिवारजन क्षमा कर चुके थे, क्योंकि वे उन्हें प्रेम करते थे। कैकई के सम्बंध में सोचते समय उनके ऊपर अपनत्व का मोह प्रभावी रहता था, इसी मोह ने कैकई को क्षमा दिलवाई थी। पर अपने सम्बन्ध में सोचते समय कैकई स्वयं के प्रति मोह से मुक्त रहती थीं। इसी के कारण वे स्वयं को क्षमा नहीं कर पाती थीं।
    एक प्रश्न हो सकता है कि वर्ष भर पूर्व तक पुत्रमोह के दलदल में आकंठ डूबी रानी कैकई एकाएक मुक्त कैसे हो गईं? वस्तुतः किसी विशेष मोह में फंसे सज्जन मनुष्य का मोह केवल गुरु के ज्ञान से ही नहीं टूटता, बल्कि अपनों का तिरस्कार भी उसका मोहभङ्ग कर देता है। कैकई सौभाग्यशाली थीं कि उनका तिरस्कार उसी व्यक्ति ने किया जिसके लिए उनके मन में मोह भरा था। भरत के तिरस्कार ने उनके मन को शुद्ध कर दिया था, सो अब उन्हें अपना अपराध स्पष्ट दिख रहा था और मन में ग्लानि भरी हुई थी।
    उर्मिला अब अधिकांश समय उन्ही के कक्ष में व्यतीत कर रही थीं। समय कभी कभी ऐसा संयोग बनाता है कि एक साथ कई लोगों का प्रायश्चित पूरा होता है। कैकई द्वारा महाराज से दो वर मांगे जाने के समय लक्ष्मण ने उनपर क्रोध किया और कठोर शब्द कहे थे, उर्मिला आज कैकई की सेवा में लगी रह कर जाने अनजाने पति की भूल का प्रायश्चित कर रही थीं।
     पति पत्नी का प्रेम केवल शृंगारिक संवादों से सिद्ध नहीं होता, वह अन्य रूपों में भी उभर कर आता है। पति के कर्तव्यों को निभाती पत्नी, या पत्नी की भूल का प्रायश्चित करता पति वस्तुतः अपना प्रेम ही निभा रहे होते हैं। उर्मिला द्वारा कैकई की सेवा उनके प्रेम का भी साक्ष्य थी।
      उर्मिला स्वयं भी पति के वियोग में थीं, यह वियोग उनके हृदय को भी पीड़ा से भर चुका था, पर वे अपनी पीड़ा को दायित्वों का बोझ से दबाने का प्रयास कर रही थीं और इसमें सफल भी हो रही थीं। वियोग के क्षणों को काटने का यही सर्वश्रेष्ठ ढंग है।
      उधर माता कौसल्या की सेवा में लगी मांडवी की भी कुछ ऐसी ही दशा थी। उन्होंने भी अपना समूचा समय जैसे माता के नाम कर दिया था। उनके पास अब इतना अवकाश नहीं था कि पति के बारे में देर तक सोच सकें।
     माताओं का दुख समाप्त हो सकने वाला नहीं था। उनके हृदय की आग चौदह वर्ष तक निरंतर धधकते रहने वाली थी। हां, बहुओं की सेवा इस अग्नि पर शीतल फुहार जैसी थी।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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