उर्मिला 30
संध्या का समय था। गहन उदासी में डूब चुकी अयोध्या के राजमहल में तीन बहनें एक साथ बैठी थीं, पर उनके बीच कोई संवाद नहीं हो रहा था। एक साथ होने के बाद भी सभी एक दूसरे से आँख मिलाने में डरते थे। अयोध्या आने के समय से ही चारों जनक कुमारियों ने यह नियम बनाया था कुछ देर के लिए साथ अवश्य ही बैठना है। सिया के वन जाने के बाद अधूरे मन से ही सही, उन्होंने इस नियम को कभी भंग नहीं होने दिया था।
उसी क्षण माता सुमित्रा कक्ष में आईं। माता सुमित्रा सभी बहुओं की सबसे प्रिय सास थीं। कठोरता उनके स्वभाव में ही नहीं थी, बहुओं को सचमुच उन्होंने नन्ही बच्चियों की तरह ही प्यार दिया था।
माता को देख कर तीनो के मुख पर थोड़ी सी प्रसन्नता झलक उठी। तीनों ने संग ही उन्हें प्रणाम किया। मन भर आशीष देने के बाद माँ ने कहा, "अच्छा हुआ तो तुम तीनों साथ ही मिल गयी पुत्रियों! मुझे तुम तीनों से कुछ आवश्यक बातें करनी हैं।"
तीनों निकट आ गईं और हाथ जोड़ कर कहा, "आदेश कीजिये माता!"
माता सुमित्रा पहले मांडवी की ओर मुड़ीं। कहा, "तुम अब से राजमाता कौसल्या की सेवा में रहो पुत्री! मैं जानती हूँ उस दुखियारी के मन में कैकई के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है, फिर भी... जबतक सीता-राम नहीं आते तबतक तुम्ही उनकी सेवा में लगी रहो। यह तुम्हारा ही दायित्व है।
मांडवी ने शीश झुका कर स्वीकार किया। सुमित्रा फिर बोलीं- उनकी दृष्टि से कभी ओझल न होना पुत्री! चौदह वर्षों तक इसे एक तपस्या समझ कर पालन करना और इस कार्य में कभी किसी का सहयोग मत लेना। यह मत समझना कि तुम यह सब कौसल्या या राम के लिए कर रही हो, तुम यह सब स्वयं और अपने पति के लिए कर रही हो। यही तुम दोनों का धर्म है..."
मांडवी जैसे यही चाहती भी थीं, वे संतुष्ट हुईं। सुमित्रा अब उर्मिला और श्रुतिकीर्ति की ओर मुड़ीं। कहा, " जानती हो उर्मिला! मैंने अपने जीवन में कभी कोई इच्छा नहीं रखी। अपना समूचा जीवन परिवार की सेवा में लगा दिया। यही संस्कार मैंने अपने बेटों को दिया और यही अपेक्षा मुझे तुम दोनों से भी है। दीदी कौसल्या ज्येष्ठ महारानी थीं, तो उनके पुत्र का राजा बनना मेरी भी सदैव की इच्छा रही। बहन कैकई महाराज की प्रिय रानी थीं, तो उनके पुत्र भरत का युवराज बनना उचित था। मैंने अपने दोनों पुत्रों को राम भरत की सेवा में दे दिया, इसी में उन दोनों की पूर्णता है। तुमसे भी मैं यही चाहती हूं उर्मिला की तुम माता कैकई की सेवा में रहो। ग्लानि में डूबी उस अभागन को एक सम्बल की आवश्यकता सबसे अधिक है, और वह तुम ही हो सकती हो।"
उनका कहना ही बहुओं के लिए ईश्वर का आदेश था। अस्वीकार का कोई प्रश्न ही नहीं था। माता फिर बोलीं, "उसकी ग्लानि को दूर करने का प्रयत्न करते रहना बेटी! उसे भरोसा दिलाना कि वह अपराधिनी नहीं है। नियति के खेल में वह भी एक पात्र भर है..."
उर्मिला ने शीश झुका कर कहा, "जो आज्ञा माता! फिर आपकी सेवा श्रुति का सौभाग्य रही। आप निश्चिन्त रहें, हम सब दोनों माताओं के दुख को कम करने का हर सम्भव प्रयास करेंगी।
"नहीं पुत्री! मुझे सेवा की आवश्यकता नहीं। श्रुति को तुम अपने साथ रखो, वह शत्रुघ्न की सलाह से अन्य आवश्यक कार्य करेगी। चारों राजकुमारों में कोई भी राजमहल में उपस्थित नहीं रहता, सो समूचे राजमहल की व्यवस्था देखनी होगी उसे... उसे यही करने दो।" सुमित्रा ने जैसे आदेश सुना दिया।
सुमित्रा चली गईं। बहुओं ने अपना दायित्व सम्भाल लिया। वे पहले भी सेवा में लगी रहती थीं, पर अब विशेष ध्यान रखती थीं। विपत्ति के दिन मनुष्य के चरित्र की परीक्षा लेने आते हैं, अयोध्या की देवियां उस परीक्षा के लिए सज्ज हो गयी थीं।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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