सोमवार, 31 जुलाई 2023

डिप्रेशन का ऑपरेशन

 

चिन्तन की धारा

डिप्रेशन का ऑपरेशन
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मेरे पड़ोस ने एक पंडित जी के दो पोते है।

पांडित जी के बेटे का जिक्र इस लिए नही किया, क्योंकि उसके विषय में ज्यादा जानकारी नहीं है। पंडित जी के नाम से ही वो मंदिर का नाम मशहूर था जिसमे पंडित जी सेवा देते थे।

तो पंडित जी का छोटा पोता, मेरा जानने वाला था। जान पहचान जायदा भी नही थी कम भी नहीं, बस राम राम भाई राम राम वाली थी। कारण हम दोनो हम उम्र थे, तो बचपन के कभी कभार एक दूसरे के महोल्ले में खेलने चले जाते थे।

उसका कद भी  मेरे बराबर 6 फूट। अच्छा खासा मजबूत बदन रौबीला चरित्र था 

पंडित जी का बड़ा पोता,  मुझ से लगभग पांच या सात साल बड़ा है। जब हम छोटे थे तब ही सुना था की पंडित जी के बड़े पोते का एक्सीडेंट हो गया।  शायद बस में चढ़ते वक्त पांव फिसल गया था।

इस बात को 25 से वर्ष के आस पास हो गए होंगे।

एक्सीडेंट में जान बच गई, लेकिन शरीर में काफी ज्यादा नुकसान हुआ। उसकी चाल ऐसी बन गई के क्या बताऊं।  ना घुटना मुड़ता है ना कुल्हा।

आप को अगर जानना वो कैसे चलता है। तो यूं समझे की आप टांगो को V शेप के तान दे। और बिना घुटना मोडे बिना कूल्हे से कदम आगे बढ़ाए,  चल एक देखे। सिर्फ कमर से दाए बाएं कर के आगे बढ़ना है।

खैर इस लडके ने खाने कमाने के लिए और क्या क्या किया ये तो पता नही। लेकिन मेरे होशो हवास में इसने, चाय की एक रेहड़ी लगाई थी। जिसे लगाते हुए आज 20 साल के आस पास हो गए होंगे।

आज उसी रेहड़ी लगाने और कमाने से इस आदमी ने, सुना है अपनी बेटी की शादी कर दी और बेटा पढ़ा लिखा लिया।

सुबह कई बार इसे देखता हूं, उसी मंदिर के द्वार पर सिर झुका कर धन्यवाद की मुद्रा में,  जिस मंदिर के पंडित जी इनके दादा जी थे।

माथे पर छोटा सा तिलक, हाथ में चाय की केतली, और गिलासों का गुच्छा लिए बाजार में अक्सर उसी बत्तख जैसी चाल से चाय पहुंचाता दिख जाता है आज भी।

चेहरे पर ना कोई दीनता है, ना असमर्थता। बस एक धन्यवाद देखता हूं। की जो है बहुत है।

मैं कई बार जब जीवन मे हारा बेसहारा या असहाय महसूस करता था, और ईश्वर के प्रति भी आवेश से भर गया होता था।  तो जैसे ही इसे देखता था, सारा डिप्रेशन विप्रेषण दूर हो जाता था की, अगर ये दो रोटी कमा खा सकता है और मेहनत कर सकता है तो मैं क्यों नही।

लोग कहते है हमे डिप्रेशन है। हमे एंजाइटी है। हमे फलाना है ढिकाना है।

वास्तव में ये वो लोग हैं जिनके पास इतनी लग्जरी है की, ऐसा बोल पा रहे है । उनके पास इतने साधन और संपन्नता है की  इतना समय सोशल मिडिया पर देकर अपने डिप्रेशन से बचने के तरीकों पर आप रिसर्च कर सकते है।

वास्तव में सिवाय मनुष्य के कोई जीव जंतु डिप्रेशन में नही जा रहा। क्योंकि उसके पास फुरसत ही नही है उदास होने की।

मधुमक्खी को तीन दिन की लाइफ में अगली पीढ़ी के लिए शहद इकट्ठा करना है।
मच्छर को एक दिवसीय जीवन यात्रा में आपका खून चूसना है।
पक्षियों को सुबह उठते ही उस दिन के लिए दाना चुगना है और दस तरह के शिकारियों से जान बचानी है।
गली के कुत्ते को आपकी एक रोटी के लिए रात भर जाग कर भौंकना है।

किसी जीव के पास अस्तित्व की लड़ाई से इतना अवकाश ही नही है की उसे विषाद सुझे।

पूरी सृष्टि में केवल एक मानव ही है, जिसके पास जितना साधन और सुविधाएं आती गई उतना उदासीन और विषाद से भरता चला गया।

और हां वो छोटा पोता जो छोटा पोता था जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया था वो छह फुट लम्बा देह से भीम समान, कुछ भी कर सकने में सक्षम शरीर वाला व्यक्ति आज वह इस दुनिया में नहीं है उसने सुसाइड कर लिया था।

क्योंकि मेरे जानने तक ना उसकी शादी हुई थी ना ही उसने कोई काम धंधा जोड़ा था। बस अलाने फलाने रसूखदार का चमचा बना घूमता रहा था।

एक लक्ष्य रहित, अनियमित जीवन शैली, आपको सिवाय विषाद, अस्वस्थता और मृत्यु के कुछ नही देती।  - कुलदीप वर्मा

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रविवार, 30 जुलाई 2023

कहानी - इंतजार की कला

 

कहानी

एक गाँव में एक कारीगर रहता था.......वह शरीर और दिमाग से बहुत मजबूत था........

उस कारीगर ने शहर अपनी कला से काफी पैसा एकत्रित किया और अपने गाँव लौट चला......

जब वहाँ का काम खत्म हुआ तो लौटते वक्त शाम हो गई.........बस ने तो गाँव के बाहर उतार दिया.........उसने काम के मिले पैसों की एक पोटली बगल में दबा ली और ठंड से बचने के लिए शॉल ओढ़ लिया........

वह चुपचाप सुनसान रास्ते से घर की और रवाना हुआ...........कुछ दूर जाने के बाद अचानक उसे एक लुटेरे ने रोक लिया........

लुटेरा शरीर से तो कारीगर से कमजोर ही था, पर उसकी कमजोरी को उसकी बंदूक ने ढंक रखा था..........

जब कारीगर ने उसे सामने देखा तो लुटेरा बोला, "जो कुछ भी तुम्हारे पास है, सभी मुझे दे दो, नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूँगा....

यह सुनकर कारीगर ने पोटली उस लुटेरे को थमा दी और बोला, "ठीक है, यह रुपये तुम रख लो, मगर मैं घर पहुँच कर अपने परिवार को क्या कहूँगा......वह तो यही समझेंगें कि मैंने पैसे जुए में उड़ा दिए होंगे......

तुम एक काम करो, अपनी बंदूक की गोली से मेरी टोपी में एक छेद कर दो ताकि मेरे परिवार को लूट का यकीन हो जाए.....

लुटेरे ने बड़ी शान से बंदूक से गोली चलाकर टोपी में छेद कर दिया...अब लुटेरा जाने लगा तो कारीगर बोला, "एक काम और कर दो, जिससे मेरे परिवार को यकीन हो जाए कि लुटेरों के गैंग ने मिलकर मुझे लूटा है...... वरना मेरा परिवार मुझे कायर ही समझेगा.......तुम इस शॉल में भी चार-पाँच छेद कर दो.......लुटेरे ने खुशी-खुशी शॉल में भी कई गोलियाँ चलाकर छेद कर दिए.......

इसके बाद कारीगर ने अपना कोट भी निकाल दिया और बोला, "इसमें भी एक-दो छेद कर दो ताकि सभी गॉंव वालों को यकीन हो जाए कि मैंने बहुत संघर्ष किया था........

इस पर लुटेरा बोला, "बस कर अब.....इस बंदूक में गोलियाँ भी खत्म हो गई हैं......

यह सुनते ही कारीगर आगे बढ़ा और लुटेरे को दबोच लिया और बोला, "मैं भी तो यही चाहता था......तुम्हारी ताकत सिर्फ यह बंदूक थी....अब यह भी खाली है..... अब तुम्हारा कोई जोर मुझ पर नहीं चल सकता है....चुपचाप मेरी पोटली मुझे वापस दे दो, वरना..."

यह सुनते ही लुटेरे के होश उड़ गए और उसने तुरंत ही पोटली कारीगर को वापिस दे दी और अपनी जान बचाकर वहाँ से भाग गया...........

कारीगर की ताकत तब काम आई जब उसने अपनी विवेक शक्ति का सही ढंग से उपयोग किया............

इंतजार कीजिये गोलियां खत्म होने का ।।

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शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

बात धूल की

 

बातों बातों में - बात ज्ञान की - विज्ञान की

धूल से जुड़े कुछ रोचक तथ्य....
●DUST TO DUST●

    क्या आप जानते हैं कि आपके शरीर के प्रत्येक वर्ग सेंटीमीटर हिस्से से हर घण्टे लगभग 1000 स्किन सेल्स झडती हैं। अब एक एडल्ट व्यक्ति के शरीर का एवरेज सरफेस एरिया अगर 2 वर्ग मीटर माना जाए तो इसका अर्थ यह है कि हर घण्टे लगभग 2 करोड़ कोशिकाएं आपके शरीर का साथ छोड़ कर वातावरण में विलीन हो जाती हैं, एक साल में यह आंकड़ा 180 अरब के पार हो जाता है। अर्थात, हर साल, आपके शरीर से मुक्त होने वाली बेजान कोशिकाओं की संख्या मिल्की वे आकाशगंगा में मौजूद सितारों की कुल संख्या से भी कहीं अधिक है। अपने घर के रोशनदान से आती प्रकाश की लहर पर लहराते तंतुओं से युक्त धूल को देखिए। इस धूल का आधे से ज्यादा हिस्सा आपके शरीर की कोशिकाओं से आया है।
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इन्ही बेजान कोशिकाओं को खा कर डस्ट माइट नामक सूक्ष्मजीवी पलते हैं, जिनका आकार एक चींटी से भी 10 छोटा होता है। इन्हें नंगी आंखों से देख पाना भले ही आपके लिए संभव न हो पर आपके बेडशीट पर इस समय एक करोड़ से ज्यादा डस्ट माइट मौजूद हैं, जो आपके या आपके पालतू जीवों के शरीर से झड़ने वाली कोशिकाओं पर जीवित रहते हैं, प्रजनन करते हैं, कभी-कभी आपको खुजली या एलर्जी प्रदान करते हैं और खुशी-खुशी आपके बेडशीट या आपके घर की धूल को ही अपना समूचा ब्रह्मांड समझ जीवित रहते हैं।
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आपके घर की धूल में आपके और आपके पालतू जानवरों के शरीर की बेजान कोशिकाएं, डैंड्रफ तो होते ही हैं। इसके अतिरिक्त इस धूल में उद्योगों से रिलीज होने वाला सीमेंट पाउडर, चट्टानों के घिसने से उत्पन्न हुई मिट्टी, रेत, ज्वालामुखियों से निकली हुई राख, कोयले के अवशेष समेत वस्त्रों के रेशे इत्यादि भी पाए जाते हैं। फिंगरप्रिंट की ही तरह हम सबके घर की धूल में एक यूनिक पैटर्न पाया जाता है। भविष्य में उम्मीद है कि घटनास्थल की धूल मात्र का विश्लेषण कर फोरेंसिक एक्सपर्ट्स बहुत से अनसुलझे केसेस की गुत्थियां सुलझा सकेंगे। है न कमाल की बात? बहरहाल, उससे भी ज्यादा कमाल की बात यह है कि इस सिर्फ इस लोक की ही नहीं, बल्कि पृथ्वी से परे मौजूद लोकों के अवशेष भी इस धूल में शामिल हैं।
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हमारे सूर्य से कहीं अधिक भारी एक सितारा अपने जीवनकाल के अंत में अपने केंद्र में भारी तत्वों - ऑक्सीजन, कार्बन से लेकर लोहे तक - का निर्माण करता है। सूर्य की आयु खत्म होने पर वह एक सुपरनोवा बन जाता है और एक प्रचंड विस्फोट के साथ उसकी कोर में बने ये आर्गेनिक तत्व ब्रह्मांड में दूर-दूर तक छितर जाते हैं और धूल के बादल बन कर अंतरिक्ष में परवाज करते रहते हैं। मिल्की वे आकाशगंगा के केंद्र का चक्कर लगाती पृथ्वी अक्सर इन बादलों के बीच से होकर गुजरती है और इन बादलों में मौजूद दुर्लभ तत्व पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करते रहते हैं।
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हो सकता है कि शायद पृथ्वी के शुरुआती दिनों में जीवन निर्माण के लिए आवश्यक ऑर्गेनिक तत्व ऐसे ही किसी धूल के बादल से पृथ्वी पर पहुंचे हों। और उन तत्वों ने पृथ्वी पर जीवन की प्रक्रिया को आरंभ किया हो। आज भी हर साल 40000 टन ऐसी धूल पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करती रहती है। अधिकतम 10 वर्षों में ये धूल सेटल होकर पृथ्वी के कोरियोलिस इफ़ेक्ट के कारण वातावरण में अच्छे से घुलमिल जाती है और अक्सर इस सोलर धूल का एक ठीक-ठाक हिस्सा आपके घर में प्रवेश कर आपके घर की धूल का हिस्सा बन जाता है।
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अपने घर की धूल को हथेली से उठाइए और इस धूल को ध्यान से देखिए।
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इस धूल में पृथ्वीलोक भी है, और द्युलोक भी...
इसमें दैनिक जीवन का भी अंश है, और सार्वजनिक जीवन का भी...
इसी धूल में जीवन भी है, और जैविक मृतांश भी...
सूक्ष्म से लेकर विराट ब्रह्मांड तक के अवशेष इस धूल के रूप में आपकी मुट्ठी में कैद हैं।
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धूल से प्रारंभ हुआ जीवन एक दिन धूल में ही मिल जाएगा।
Life is nothing but a cycle of - DUST TO DUST.
.- झकझकिया

रविवार, 23 जुलाई 2023

आजाद

 

महान क्रांतिकारी चंद्र शेखर आजाद जन्म जयंती पर श्री देवांशु द्वारा सुंदर आलेख ...
अनन्य आजाद

   चंद्रशेखर आज़ाद कहा करते थे कि किसी भी शहर, कसबे की धूप और हवा मुझे खतरे के संकेत देने लगती है और तब मैं वहाॅं से निकल जाता हूॅं! सच ही कहते थे वह। कई बार तो वह पुलिसवालों के पास से यूं गुज़र जाते जैसे हवा हमें छूकर गुजर जाती है। काकोरी काण्ड के बाद और अपने बलिदान से पूर्व के छह वर्षों में वह अंग्रेजों के साथ एक अबूझ दुस्साहस से खेलते रहे। हॅंसते भी रहे कि तुम मुझे नहीं छू सकते! आज़ाद अक्सर कहा करते थे कि उनकी बमतुल बुखारा(माउजर) जब तक उनके पास है तब तक उन्हें कोई जीवित नहीं पकड़ सकता! पंद्रह गोलियाॅं पुलिसवालों पर दागूंगा और सोलहवीं से अपनी खोपड़ी उड़ा लूंगा!

उन्हें अपने अंत का कोई दृढ़ विश्वास था। वह जानते थे कि मृत्यु स्वयं उनके ही हाथों से आएगी। कोई बर्तानवी जीते-जी उन्हें छू न सकेगा । साढ़े चौबीस वर्ष की आयु में वह इस संसार से विदा हुए। पंद्रह वर्ष की कच्ची उम्र में नंगी देह पर पच्चीस कोड़े खाए। बहुत छोटी आयु से अत्यंत विद्रोही रहे आज़ाद को उन कोड़ों की चोट ने बहुत तपाया था। आत्मा उनकी बेचैन, व्याकुल हो उठी थी। कोड़ों की मार सहने के बाद उनके भीतर कोई अखण्ड ज्वाला धधकती रही। आज़ाद की सान्द्र ऑंखों में वह ताप दिखाई देता है। यद्यपि करुणा उन ऑंखों का मूल स्वर है।

किसी फिरंगी को अत्याचार करते हुए देखकर वह खौल उठते। एक बार वाराणसी रेलवे स्टेशन पर विलायती सिपाही ने सिगरेट पीकर धुआं एक भारतीय महिला के मुॅंह पर छोड़ दिया। उस समय आज़ाद वहीं खड़े थे। उन्हें कुछ साथियों के साथ गुप्त अभियान पर जाना था। फिरंगी को भारतीय महिला के मुॅंह पर धुआं छोड़ते देखकर वह अपनी वर्तमान दशा भुला बैठे। उन्होंने सिपाही को धर कर पटक दिया। स्टेशन पर अफरातफरी मच गई। लोग खींचते रहे लेकिन आज़ाद का बाहुकण्टक छुड़ाए न छूटा। जब लोगों को लगा कि विलायती मारा जाएगा तब बड़ी प्रार्थना, चीख चिल्लाहट के बाद आजाद ने उसे छोड़ा।

जब कभी साथी क्रांतिकारी उनसे विवाह की बात छेड़ते तो वह हॅंसकर अपनी बमतुल बुखारा दिखलाते कि विवाह तो इससे कर चुका हूॅं। हाॅं, एक आध बार उन्होंने यह भी कहा था कि जीवनसाथी हो तो ऐसी कि बंदूक में गोलियाॅं भर भर कर देती रहे और मैं अंग्रेजों को उड़ाता रहूॅं।

चंद्रशेखर आज़ाद अपने दल में सबसे साधारण और सबसे अनन्य व्यक्तित्व के क्रांतिकारी थे। वह जिस अंध देहात की पृष्ठभूमि, विकट दरिद्रता को भोगकर आए थे, वह किसी दूसरे महान क्रांतिकारी के हिस्से में नहीं आयी। उनका अध्ययन बहुत कम था। कहने को थोड़ी संस्कृत की पढ़ाई की थी, जिसे नगण्य ही माना जाना चाहिए। परन्तु प्रत्युत्पन्नमति खूब थी उनमें। रणनीति बनाना, विकट परिस्थितियों में बच निकलना, संकट आने पर तुरंत निर्णय लेना, घोर कष्ट सह लेना, अन्याय का प्रतिकार करना, नेतृत्व करना, खतरे को आगे बढ़कर अपने सीने पर झेल जाना यह सब उन्हें अद्वितीय और महान बनाता था।

भगतसिंह से वह इस अर्थ में भिन्न थे कि उन्हें फाॅंसी पर झूलना स्वीकार नहीं था। फाॅंसी पर झूलना उन्हें पौरुष का अपमान लगता था। वह मानते थे कि अंतिम साॅंस तक भिड़े रहेंगे। और जब लगेगा कि अब लड़ नहीं सकते तो खुद को उड़ा लेंगे। कोई गोरा सिपाही जीते-जी उन्हें छू न सकेगा। अल्फ्रेड पार्क में अस्सी पुलिस वालों का कमांडर नौट बावर ने आज़ाद को ब्रेवहार्ट कहा था। वह उनके निशानेबाजी और अदम्य साहस को देखकर दंग रह गया था। आजाद के मरणोपरांत उनका माउजर अपने साथ इंग्लैंड ले गया। वह माउजर सत्तर के दशक में यूपी सरकार के अथक प्रयास के बाद भारत लाया जा सका।

अधिकांश साथी क्रांतिकारियों ने मरणोपरांत जब दो महान योद्धाओं का आकलन किया तो स्वयं ही यह कहने को विवश हुए कि आजाद में जो ताप, दबाव और सेनापतित्व था वह किसी और में नहीं था। उनके ही साथियों ने आज़ाद के क्रांतिकारी व्यक्तित्व को भगत सिंह से महत्तर बताया। वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें लठैत, गोला बम वाला बनाकर रख दिया। जिसके दो कारण स्पष्ट हैं। पहला यह कि वे अंग्रेजी जानने वाले वामपंथी नहीं थे और दूसरा यह कि उनकी नंगी देह पर पवित्र सूत्र बॅंधा रहता था यद्यपि वह जनेऊ पहने रखने के विशेष आग्रही नहीं थे।
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कहानी - स्वाद आ गया

 

कहानी
"स्वाद आ गया....

बिरजू भैया.....अब छोले भटूरे में पहले जैसी बात नहीं रही.....ग्राहक ने आज फिर से बिरजू को पैसे देते हुए टोक ही दिया । बिरजू बस उस ग्राहक को दुकान से जाते हुए देख रहा था की उसे अपने स्वर्गीय पिता की बात याद आ रही थी....बेटा हमारी दुकानदारी स्वाद की है, याद रखना जिसदिन खाने में से स्वाद चला गया समझो दुकान की बरकत खत्म.....पहले पहले उसकी बनाएं छोले भटूरे की लोग प्रशंसा करते नहीं थकते थे ,दुकान पर भीड़ लगी रहती थी, मगर अब इक्का दुक्का लोग ही....बीते दिनों उसने देखा कि बाजार की गली में चलते फिरते एक चौदह पंद्रह साल का लड़का साइकिल पर कड़ाही में गर्मागर्म छोले भटूरे बेच रहा है उसके पास लोगों की भीड़ लगी हुई थी और उनमें कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो कभी उसके परमानेंट ग्राहक हुआ करते थे ये देखकर बिरजू के तनबदन में आग लग गई अच्छा तो ये है मेरी दुकानदारी ठप्प करने वाला । तभी कहूं पहले तो लोग मेरे हाथों की बने छोले भटूरे की तारीफ करते थे मगर अब.... लेकिन लोगों की भीड़ देखकर बिरजू ने उस दिन चुप रहने में ही भलाई समझी ।बेकार में लोग उसपर हंसेंगे ,कहेंगे कि एक पिद्दी से लड़के से हार गया। मगर ऐसे में यह रोज का किस्सा बनता देखकर बिरजू ने एक दिन गुस्से में उस लड़के को जोर से डांट लगाई....अबे ओए ....भाग यहां से मेरी दुकान के आगे दिखाई दिया तो याद रखना अच्छा नहीं होगा....
बाबूजी....मे आपकी दुकान के आगे नहीं खड़ा होता, में तो चलते हुए....
चुप ....और उसने एक पुलिसकर्मी से उसकी शिकायत कर दी देखो साहब ये यहां खड़े होकर लोगों की भीड़ लगवा देता है बाद में किसी की जेब कटेगी तो आपको सुनने को मिलेगा...ये सुनकर पुलिसकर्मी ने भी उस लड़के को डांट लगाते हुए कहा वहां से निकल जाने को कहा.... इसके बाद वह लड़का बिरजू की दुकान के आसपास कम ही नजर आता था मगर अब भी ग्राहकों के मुंह से ये सुनने को मिलता देखकर बिरजू दुखी हो रहा था कि वह क्या करे कैसे लोगों को वहीं स्वाद वापस से छोले भटूरे में लाकर दे.... इसके लिए वह दो तीन कारीगरों को बदलकर भी देख चुका था ,मगर अब तक कोई फायदा नहीं हुआ था उसे रातों को नींद नहीं आती ।
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एक दिन सुबह सवेरे जाने कैसे उसकी आंख लग गई उसे अपने पिता दिखाई दिए .... बिरजू उसने रोते हुए कह रहा था... बाबूजी में आपकी दुकान नहीं चला पाया मेरे हाथों में पहले जैसा स्वाद नहीं रहा पता नहीं आप ने इतने सालों तक कैसे वहीं स्वाद को बरकरार रखा
पगले .... स्वाद क्या है....समर्पण प्यार और मेहनत....
मगर तू ना तो किसी चीज में समर्पित है ना प्यार कर रहा है और ना मेहनत...
नहीं बाबूजी मैं तो बराबर....
देख .... ऊपर वाले ने सबके पेट भरने का इंतजाम किया है और तू है की किसी गरीब बच्चे को परेशान कर रहा है बजाय अपने धंधे को अच्छे से चलाने के उससे ईर्ष्या कर उसके धंधे को बर्बाद करने मे लगा है बेटा मेहनत अपने काम में करनी होती है प्यार अपने काम से करना चाहिए और इसके लिए खुद को समर्पित करना होता है मगर तू बस दूसरे को दोषी बनाकर खुद बचना चाह रहा है तो हाथों में स्वाद कैसे रहेगा....बिरजू हड़बड़ा कर उठ गया ओह ... सपना था मगर बाबूजी मुझसे क्या कहना चाहते थे समझ नहीं आया....
उसदिन बिरजू दुकान पर पहुंचा मन लगाकर मेहनत की मगर आज भी नतीजा पहले जैसा ही था दुकान बंद करके हिसाब किताब लगाया तो कुछ अधिक फायदा नहीं हुआ था वह निराश होकर वापस घर जाने के लिए बस स्टैंड की और बढ़ चला बस स्टैंड पर अचानक उसकी नज़र उस लड़के पर पड़ी जो साइकिल पर छोले भटूरे बेचा करता था...ये यहां....कया कर रहा है
छोड़ ना मुझे क्या...सोचकर बिरजू ने एकबार नजर घुमा ली मगर फिर अकस्मात उसकी नजर फिर से उसी लड़के की और चली गई बिरजू ने देखा तो उसे लगा कि वो लड़का रो रहा है पता नहीं कैसे उसके कदम उस लड़के की और बढ़ गये .... यहां ऐसे क्यों बैठे हो आज भटूरे की ठेली नहीं लगाई क्या.... और साइकिल ... साइकिल कहां है
आवाज सुनकर लडके ने सिर उठाया उसकी आँखें अभी भी आँसुओ से भीगी थी
अरे क्या हुआ तुम रो क्यों रहे हो ...कुछ बोलोगे...
बाबूजी....अब मैं आपकी दुकान के बाहर क्या कहीं भी छोले भटूरे नहीं बेच पाऊंगा
कयुं.... क्या मतलब...
में वहां झुग्गी बस्ती में किराए पर रहता हूं बाबूजी कल दिन में जब छोले भटूरे के लिए समान लाने के लिए थोड़े पैसे लेकर बाजार गया था तो पीछे से किसी ने मेरी साइकिल समान पैसे सब चोरी कर लिए .... झुग्गी मालिक को किराया देना था मगर अब....उसने मेरी एक नहीं सुनी और मुझे झुग्गी से निकाल दिया कल शाम से यही बस स्टैंड पर बैठकर सोच रहा हूं कि अब कैसे काम करुंगा यहां कोई भी मुझे नहीं जानता जो मुझे उधार....गांव भी वापस क्या मुंह लेकर जाऊं मां और छोटी बहन को क्या मुंह दिखाऊंगा बड़े अरमानों के साथ यहां आया था और अब... दिल करता है यही अपनी जान दे दूं .... कहकर वह रो पड़ा
एक लगाऊंगा अगर मरने की बात की तो....ये बुजदिल लोग सोचते हैं...कभी सोचा है तेरे बाद तेरी मां और छोटी बहन का क्या होगा तू उनकी उम्मीद है समझा....
तो आप ही बोलो बाबूजी में क्या करुं
अच्छा सुन .... तू छोले भटूरे बड़े अच्छे और स्वादिष्ट बनाता है मेरे साथ काम करेगा ....
देख दोनों साथ काम करेंगे तो कमाई भी बढ़ेगी में और मेरी पत्नी दो लोग रहते है किराए के एक मकान में तू भी साथ रह लियो पर तेरी तनख्वाह से मकान के किराये और खाने पीने का पैसा कटेगा.....बोल मंजूर है
बिरजू की बात सुनकर वह लड़का उसे हैरानी से देखने लगा ...
ऐसे क्या देख रहा है....
देख रहा हूं मां सच कहती थी जब सब रास्ते बंद हो जाते हैं तो ईश्वर रुप बदलकर जरुरतमंदों की मदद करने जरुर आते हैं कहकर वह बिरजू से बच्चों की भांति लिपट गया
चल ... पहले कुछ खा लें फिर घर चलेंगे कहकर बिरजू ने उसे पास की दुकान से ब्रेड पकोड़े लेकर दिए
बाबूजी मुझे ये भी बनाने आते हैं आप देखना कल से हमारी दुकान पर छोले भटूरे के साथ साथ पकौड़े भी मिलेंगे और लोग स्वाद से अपनी अंगुलियों को चाटते रह जाएंगे... लड़के की बात सुनकर बिरजू भी मुस्कुरा उठा
आखिरकार उसे अब पूर्ण विश्वास था कि अब फिर से लोग उसकी दुकान पर आकर कहेंगे ...स्वाद आ गया

शनिवार, 22 जुलाई 2023

उर्मिला 31

 

उर्मिला 31

यूँ तो उदासी समूची अयोध्या का भाग्य हो गयी थी, पर उसका प्रभाव सबसे अधिक कैकई पर दिखता था। कभी अपने युग की सबसे सुन्दर स्त्री रहीं कैकई का रूप ऐसा हो गया था कि उन्हें देख कर भय होता था।
कैकई को सबने क्षमा कर दिया था। जाते जाते पति ने क्षमा कर दिया, राम के मन में उनके प्रति बसी श्रद्धा कभी कम हुई ही नहीं थी, पर अब उनके आदेश से भरत और शत्रुघ्न ने भी क्षमा कर दिया था। कौसल्या और सुमित्रा से भी उन्हें क्षमा मिल चुकी थी। पर कैकई स्वयं को क्षमा नहीं कर सकी थीं। उन्हें हर क्षण लगता था कि अयोध्या की पीड़ा का मूल कारण वे ही हैं।
   किसी भी व्यक्ति के अपराध का सर्वश्रेष्ठ आकलन वह स्वयं ही कर पाता है। कैकई के अपराध को परिवारजन क्षमा कर चुके थे, क्योंकि वे उन्हें प्रेम करते थे। कैकई के सम्बंध में सोचते समय उनके ऊपर अपनत्व का मोह प्रभावी रहता था, इसी मोह ने कैकई को क्षमा दिलवाई थी। पर अपने सम्बन्ध में सोचते समय कैकई स्वयं के प्रति मोह से मुक्त रहती थीं। इसी के कारण वे स्वयं को क्षमा नहीं कर पाती थीं।
    एक प्रश्न हो सकता है कि वर्ष भर पूर्व तक पुत्रमोह के दलदल में आकंठ डूबी रानी कैकई एकाएक मुक्त कैसे हो गईं? वस्तुतः किसी विशेष मोह में फंसे सज्जन मनुष्य का मोह केवल गुरु के ज्ञान से ही नहीं टूटता, बल्कि अपनों का तिरस्कार भी उसका मोहभङ्ग कर देता है। कैकई सौभाग्यशाली थीं कि उनका तिरस्कार उसी व्यक्ति ने किया जिसके लिए उनके मन में मोह भरा था। भरत के तिरस्कार ने उनके मन को शुद्ध कर दिया था, सो अब उन्हें अपना अपराध स्पष्ट दिख रहा था और मन में ग्लानि भरी हुई थी।
    उर्मिला अब अधिकांश समय उन्ही के कक्ष में व्यतीत कर रही थीं। समय कभी कभी ऐसा संयोग बनाता है कि एक साथ कई लोगों का प्रायश्चित पूरा होता है। कैकई द्वारा महाराज से दो वर मांगे जाने के समय लक्ष्मण ने उनपर क्रोध किया और कठोर शब्द कहे थे, उर्मिला आज कैकई की सेवा में लगी रह कर जाने अनजाने पति की भूल का प्रायश्चित कर रही थीं।
     पति पत्नी का प्रेम केवल शृंगारिक संवादों से सिद्ध नहीं होता, वह अन्य रूपों में भी उभर कर आता है। पति के कर्तव्यों को निभाती पत्नी, या पत्नी की भूल का प्रायश्चित करता पति वस्तुतः अपना प्रेम ही निभा रहे होते हैं। उर्मिला द्वारा कैकई की सेवा उनके प्रेम का भी साक्ष्य थी।
      उर्मिला स्वयं भी पति के वियोग में थीं, यह वियोग उनके हृदय को भी पीड़ा से भर चुका था, पर वे अपनी पीड़ा को दायित्वों का बोझ से दबाने का प्रयास कर रही थीं और इसमें सफल भी हो रही थीं। वियोग के क्षणों को काटने का यही सर्वश्रेष्ठ ढंग है।
      उधर माता कौसल्या की सेवा में लगी मांडवी की भी कुछ ऐसी ही दशा थी। उन्होंने भी अपना समूचा समय जैसे माता के नाम कर दिया था। उनके पास अब इतना अवकाश नहीं था कि पति के बारे में देर तक सोच सकें।
     माताओं का दुख समाप्त हो सकने वाला नहीं था। उनके हृदय की आग चौदह वर्ष तक निरंतर धधकते रहने वाली थी। हां, बहुओं की सेवा इस अग्नि पर शीतल फुहार जैसी थी।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

अंतरिक्ष

 

बातों बातों में - बातें ज्ञान की, विज्ञान की  ...

●ELEMENTS: Historical & Comic Perspectives●
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सन 1624 में फ्रेंच वैज्ञानिक एचियन डे क्लेव को प्रचलित मत विरोधी बातें करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था। एचियन की बातें न तो पवित्र ग्रंथों के विरोध में थीं। न ही उन्होंने मनुष्य के ईश्वर के प्रिय पुत्र होने अथवा पृथ्वी के ब्रह्मांड के केंद्र होने पर कोई सवाल उठाया था। उनका अपराध यह विश्वास करना था कि संसार प्राथमिक रूप से दो तत्वों - पृथ्वी और जल - तथा अन्य तीन उपतत्वों - मरकरी, सल्फर और नमक - से मिलकर बना है। यह अपराध क्यों था, यह जानने के लिए हमें समय में 2 हजार वर्ष पीछे जाना होगा।
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प्राचीनकाल से ही जब से मनुष्य ने होश संभाला, तब से ही वह ब्रह्मांड के मूल ढांचे को समझने का प्रयास कर रहा है। प्राचीन लोगों ने विश्व को कुछ मूल तत्वों से निर्मित माना। प्राचीन देवता मरडूक पृथ्वी को जल से निकाल कर लाया था, अंतः उससे प्रभावित मायलीटस के थेलिस ने संसार के जल से बने होने की बात की। बाद में आये एनेक्सीमीन ने दुनिया को वायु से निर्मित होना बताया तो हेराक्लिट्स का अनुमान था कि अग्नि तत्व ने ही इस संसार मे प्राण फूंके हैं।
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अरस्तू के आते-आते संसार के मूलभूत तत्वों की संख्या 4 हुई - अग्नि, वायु, पृथ्वी और जल। भारतीयों के पंचतत्वों में आकाश को भी एक तत्व समझा गया। वहीं ग्रीस में डेमोक्रिट्स और पूर्व में ऋषि कणाद जैसे कुछ ऐसे भी बिरले हुए, जिन्होंने सभी प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध जा कर समस्त जगत के सूक्ष्म कणों से बने होने की संभावना जताई।
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यहां एक सवाल उठता है कि मूलभूत तत्वों की खोज का औचित्य ही क्या है? लकड़ी को लकड़ी, जल को जल, लोहे को लोहा समझ लो तो कौन सा सूर्य की गति रूक जाएगी और धरा पर अंधकार छा जाएगा? इसका उत्तर यह है कि लकड़ी जल कर राख बन जाती है, पानी भाप बन जाता है, धातु गल कर अपना आकार बदल देती है, भोजन पेट मे जा कर कुछ और ही रूप धारण कर लेता है। वस्तुओं के रूप बदलने की यह प्रवृत्ति ही यह सोचने के लिए बाध्य करती है कि सभी चीजें किसी मूलभूत तत्व से बनी हैं, जो तत्व बाहरी कारणों जैसे - सुखाना, गीला करना, गर्म करना, ठंडा करना - से अपना रूप बदल देते हैं। अरस्तू की 4 तत्वों की यह फिलॉसफी सर्वमान्य थी, साथ ही साथ, अरस्तू राजशाही के प्रिय थे। यही कारण है कि 2 हजार वर्ष बीतने के बावजूद अरस्तू विरोधी बातें करना भी पश्चिम में एक प्रकार से प्रभु निंदा के समकक्ष ही रखा जाता था।
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आज हम जानते हैं कि अगर आपके केंद्र में एक प्रोटॉन है तो आपका नाम हाइड्रोजन है, दो प्रोटॉन हैं तो आप हीलियम हैं, 8 प्रोटॉन - ऑक्सीजन, 16 प्रोटॉन - सल्फर.... इस तरह मात्र प्रोटॉन की संख्या बढ़ाने मात्र से आप प्राकृतिक रूप से कुल 92 तत्वों को प्राप्त कर सकते हैं।
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तो तत्त्वों की कुल संख्या कितनी हुई? कई लोग कहते हैं कि तत्व तो 118 हैं, और तत्वों की खोज चल रही है। मेरी मानेंगे, तो तत्वों की संख्या 100 से ऊपर होना असंभव है और प्रयोगशाला में नित नये तत्वों को बनाने की कवायद एक खामखाह की एक्सरसाइज के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं।
इसकी वजह यह है कि प्रोटॉन पॉजिटिव चार्ज होने के कारण एक-दूसरे से दूर भागते हैं। फिर भी स्ट्रांग फ़ोर्स नाम का एक मूलभूत बल उन्हें आपस में चिपका कर रखता है। यहां आपको बता दूँ कि स्ट्रांग फ़ोर्स इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फ़ोर्स के मुकाबले 100 गुना शक्तिशाली है। अर्थात, इसका अर्थ यह भी है कि स्ट्रांग फ़ोर्स 100 से ज्यादा प्रोटॉन को एकसाथ जोड़ कर नहीं रख सकती। इसलिए प्रकृति में 100 से अधिक प्रोटॉन वाले तत्व होना खामखाह की बात है। लैब में 100 प्रोटॉन से अधिक मात्रा वाले तत्व बेहद क्षणिक समय के लिए बनते हैं पर उनका स्टेबल रह पाना असंभव है।
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प्रकृति में पाए जाने वाले 92 तत्वों में मात्र 4 - कार्बन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन - ही हैं जिनका आपके शरीर के निर्माण में 95% योगदान है। डीएनए में पाया जाने वाला फास्फोरस ले लीजिए, प्रोटीन निर्माण में प्रयुक्त सल्फर जोड़ लीजिये, रक्त में मौजूद आयरन, कोशिकाओं में बिजली दौड़ाते सोडियम-पोटेशियम, क्लोरोफिल को अंजाम देते मैग्नीशियम इत्यादि छोटे-छोटे योगदान देते तत्वों को भी जोड़ लिया जाए तो आपका शरीर कुल 26 तत्वों से निर्मित है।
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वैसे आपको बता दूँ कि हाइड्रोजन-हीलियम को छोड़ कर आपके शरीर के अन्य सभी भारी तत्वों का निर्माण किसी सितारे के भीतर हुआ था। सिर्फ सूर्य ही वो एकलौती मशीन है जो प्रोटॉनों को प्रोटॉन से टकरा कर जोड़ते हुए नये तत्वों को जन्म देते हैं और अपनी आयु पूरी होने के बाद... सुपरनोवा बन कर... अपने भीतर के पदार्थों को ब्रह्मांड में दूर-दूर तक छितरा देते हैं। समय के साथ इन पदार्थों से बने गैसीय बादल फिर एक बार सितारों और ग्रहों को जन्म देते हैं और जीवनचक्र दोहराया जाता है। सूर्य, पृथ्वी, ग्रहों समेत हम सबका जन्म ऐसे ही किसी मृत सितारे की राख से हुआ है।
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सुदूर अंतरिक्ष मे टिमटिमाते इन तारों को देखिए। ऐसा ही कोई सितारा था, जिसके विनाश पर आपके सृजन की पटकथा लिखी गयी। एटॉमिक लेवल पर हम सब कुछ और नहीं.... सितारों की धूल मात्र हैं।
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In a literal sense...You are made of Stardust.
Feel big !!!
- झकझकिया द्वारा

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सोमवार, 17 जुलाई 2023

आदतें

 

चिन्तन की धारा -
आदतें , जो हमें वैसा ही बनाती है, जैसा चाहें...
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एक सेठ जी की मैंने जीवनी सुनी है जो सच्ची घटना पर आधारित है.....

एक मामूली से व्यापारी की संतान थे, जब शादी हुई तो पिता ने कुछ पैसे दिए और कहा कि अब मुझसे कोई  मतलब मत रखना ,ये लो पैसा और इतने से पैसे से व्यापार करो और अपना परिवार पालो....

न ही मुझे तुमसे कोई पैसा चाहिए और ना ही तुम बार बार मेरी तरफ देखना......पैसे इतने थे जिससे नमक का व्यापार आसानी से चल सकता था , उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से नमक और मसाले के व्यापार में अच्छा मुनाफा कमाया फिर कपड़े के व्यापार में उतर गए......धीरे धीरे मुनाफा बढ़ता गया और  व्यापार भी बढ़ता गया।
मुनाफे से कई स्थानों पर सस्ती जमींने ले रखी थी जो 15 साल बाद सोने के भाव की हो गयी पर उन्होंने जमीन को कभी भी बेचा नहीं......

अपने परिवार को उन्होंने एक आदत लगा रखी थी ,जैसे कि मंगलवार और बृहस्पतिवार को ऐसी कोई चीज घर में नहीं बनेगी जिसमें लहसून प्याज़ पड़ता हो, शनिवार को शाम को खिचड़ी ही बनेगी और हफ्ते में एक दिन  गरीबों वाला भोजन जिसमें सिर्फ नमक तेल अचार रोटी होगी, इस दिन वो परिवार के साथ ही भोजन किया करते थे और बताते थे कि भगवान का एहसान मानो कि हमें यह भी नसीब हो रहा है अन्यथा कई ऐसे हैं जिनके घर मे रोटी तक नसीब नहीं होती......

ठहरिए.....!! ऐसा वो कंजूसी वश नहीं कर रहे थे बल्कि स्वयं और स्वयं के परिवार को परिस्थितियों से लड़ने के काबिल बना रहे थे  क्योंकि हफ्ते के अन्य दिन तो पकवान बन ही रहे थे  अर्थात ये समझिए कि भगवान राम का वन जाना उन्हें इस बात के लिए भी तैयार कर रहा है कि सिर्फ राजमहल के सुख नहीं ,वनों के संघर्ष को भी सह सकने की क्षमता होनी चाहिए। सभी को पता है अमीरी गरीबी का आना जाना लगा रहता है,राजा से रंक और रंक से राजा बनाने का इतिहास है समय के पास....

सनातन में भोजन से लेकर दिनचर्या को इसीलिए सशक्त बनाया गया है ताकि आप हर परिस्थिति से लड़ सको,एकायक समस्या आने पर बौखला ना उठो..... धन,दौलत ,शौहरत सब समय का दिया हुआ उपहार है ,कब वापस मांग ले कोई पता नहीं....

सेठ जी की इस दिनचर्या का असर यह भी था कि उनके घर में बडी तोंद लिए कोई व्यक्ति नहीं था और ना ही बेवजह की कोई बीमारी थी, सभी स्वस्थ्य थे।

समय ने पलटा खाया और उन्हीं के जीवित रहते ,उन्हीं की आंखों के सामने व्यापार में ऐसा घाटा लगातार होता गया कि लगभग सब नष्ट हो गया। उनके बच्चे अब व्यापार चला रहे थे सभी उदास थे पर घर में किसी को यह शिकायत नहीं थी कि AC क्यों नहीं चल रहा ....मैं ये खाना नहीं खाऊंगा वो खाना नहीं खाऊंगा.... ऐसा नाटक करने वाला कोई नहीं था क्योंकि हफ्ते का एक दिन और दो दिन बिना लहसून प्याज़ के खाने ने उन्हें हफ्ते भर साधारण भोजन करने में भी आनंद दे रहा था......सुख की लत नहीं थी इसलिए गया भी तो कोई खास असर नहीं पड़ा....

सेठ जी बूढ़े हो चुके थे,बच्चों का संघर्ष देख रहे थे फिर अंत मे उन्होंने सभी बच्चों को बुलाया और बताया कि इन इन स्थानों पर मैंने  जो जमीनें ले रखी थी उन्हें बेच दो....आज वो इतने दाम की हैं कि व्यापार पुनः दौड़ पड़ेंगे लेकिन ध्यान रहे जब मुनाफा आने लगे तो पुनः जैसे मैंने जमीनें ली थी उससे कहीं अधिक तुम तीनो भाईयों को लेना है.......मुझे वापसी में पुनः अपनी जमीनें चाहिए....

फिर क्या था एक वक्त के बाद उनके बच्चों ने व्यापार को पुनः सही दिशा दे दी और अपना सबसे सुरक्षित बैंक यानी पहले से अधिक जमीनें फिर खरीद ली, ताकि आपत्ति काल मे सहायक हों.... -शचि ✍️

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रविवार, 16 जुलाई 2023

कहानी - शिक्षा

 

कहानी

सन्तोष मिश्रा जी के यहाँ पहला लड़का हुआ तो पत्नी ने कहा, "बच्चे को गुरुकुल में शिक्षा दिलवाते है, मैं सोच रही हूँ कि गुरुकुल में शिक्षा देकर उसे धर्म ज्ञाता पंडित योगी बनाऊंगी।"

सन्तोष जी ने पत्नी से कहा, "पाण्डित्य पूर्ण योगी बना कर इसे भूखा मारना है क्या !! मैं इसे बड़ा अफसर बनाऊंगा ताकि दुनिया में एक कामयाबी वाला इंसान बने।।"

संतोष जी सरकारी बैंक में मैनेजर के पद पर थे ! पत्नी धार्मिक थी और इच्छा थी कि बेटा पाण्डित्य पूर्ण योगी बने, लेकिन सन्तोष जी नहीं माने।

दूसरा लड़का हुआ पत्नी ने जिद की, सन्तोष जी इस बार भी ना माने, तीसरा लड़का हुआ पत्नी ने फिर जिद की, लेकिन सन्तोष जी एक ही रट लगाते रहे, "कहां से खाएगा, कैसे गुजारा करेगा, और नही माने।"

चौथा लड़का हुआ, इस बार पत्नी की जिद के आगे सन्तोष जी हार गए , और अंततः उन्होंने गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दिलवाने के लिए वही भेज ही दिया ।
अब धीरे धीरे समय का चक्र घूमा, अब वो दिन आ गया जब बच्चे अपने पैरों पे मजबूती से खड़े हो गए, पहले तीनों लड़कों ने मेहनत करके सरकारी नौकरियां हासिल कर ली, पहला डॉक्टर, दूसरा बैंक मैनेजर, तीसरा एक गोवरमेंट कंपनी मेें जॉब करने लगा।

एक दिन की बात है सन्तोष जी पत्नी से बोले, "अरे भाग्यवान ! देखा, मेरे तीनो होनहार बेटे सरकारी पदों पे हो गए न, अच्छी कमाई भी कर रहे है, तीनो की जिंदगी तो अब सेट हो गयी, कोई चिंता नही रहेगी अब इन तीनो को। लेकिन अफसोस मेरा सबसे छोटा बेटा गुुुरुकुल का आचार्य बन कर घर घर यज्ञ करवा रहा है, प्रवचन कर रहा है ! जितना वह छ: महीने में कमाएगा उतना मेरा एक बेटा एक महीने में कमा लेगा, अरे भाग्यवान ! तुमने अपनी मर्जी करवा कर बड़ी गलती की , तुम्हे भी आज इस पर पश्चाताप होता होगा , मुझे मालूम है, लेकिन तुम बोलती नही हो"।।

पत्नी ने कहा, "हम मे से कोई एक गलत है, और ये आज दूध का दूध पानी का पानी हो जाना चाहिए, चलो अब हम परीक्षा ले लेते है चारों की, कौन गलत है कौन सही पता चल जाएगा .

दूसरे दिन शाम के वक्त पत्नी ने बाल बिखरा , अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ कर और चेहरे पर एक दो नाखून के निशान मार कर आंगन मे बैठ गई और पतिदेव को अंदर कमरे मे छिपा दिया ..!!
बड़ा बेटा आया पूछा, "मम्मी क्या हुआ ?"
माँ ने जवाब दिया, "तुम्हारे पापा ने मारा है !"
पहला बेटा :- "बुड्ढा, सठिया गया है क्या ? कहां है ? बुलाओतो जरा।।"
माँ ने कहा, "नही है , बाहर गए है !"
पहला बेटा - "आए तो मुझे बुला लेना , मैं कमरे मे हूँ, मेरा खाना निकाल दो मुझे भूख लगी है !"
ये कहकर कमरे मे चला गया।
दूसरा बेटा आया पूछा तो माँ ने वही जवाब दिया,
दूसरा बेटा : "क्या पगला गए है इस बुढ़ापे मे , उनसे कहना चुपचाप अपनी बची खुची गुजार ले, आए तो मुझे बुला लेना और मैं खाना खाकर आया हूँ सोना है मुझे, अगर आये तो मुझे अभी मत जगाना, सुबह खबर लेता हूँ उनकी ।।",
ये कह कर वो भी अपने कमरे मे चला गया ।

तीसरा बेटा आया पूछा तो आगबबूला हो गया, "इस बुढ़ापे मे अपनी औलादो के हाथ से मार खाने वाले काम कर रहे है ! इसने तो मर्यादा की सारी हदें पार कर दीं।"
यह कर वह भी अपने कमरे मे चला गया ।।
संतोष जी अंदर बैठे बैठे सारी बाते सुन रहे थे, ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो, और उसके आंसू नही रुक रहे थे, किस तरह इन बच्चो के लिए दिन रात मेहनत करके पाला पोसा, उनको बड़ा आदमी बनाया, जिसकी तमाम गलतियों को मैंने नजरअंदाज करके आगे बढ़ाया ! और ये ऐसा बर्ताव , अब तो बर्दाश्त ही नहीं हो रहा.....

इतने मे चौथा बेटा घर मे ओम् ओम् ओम् करते हुए अंदर आया।।
माँ को इस हाल मे देखा तो भागते हुए आया, पूछा, तो माँ ने अब गंदे गंदे शब्दो मे अपने पति को बुरा भला कहा तो चौथे बेटे ने माँ का हाथ पकड़ कर समझाया कि "माँ आप पिताजी की प्राण हो, वो आपके बिना अधूरे हैं,---अगर पिता जी ने आपको कुछ कह दिया तो क्या हुआ, मैंने पिता जी को आज तक आपसे बत्तमीजी से बात करते हुए नही देखा, वो आपसे हमेशा प्रेम से बाते करते थे, जिन्होंने इतनी सारी खुशिया दी, आज नाराजगी से पेश आए तो क्या हुआ, हो सकता है आज उनको किसी बात को लेकर चिंता रही हो, हो ना हो माँ ! आप से कही गलती जरूर हुई होगी, अरे माँ ! पिता जी आपका कितना ख्याल रखते है, याद है न आपको, छ: साल पहले जब आपका स्वास्थ्य ठीक नही था,  तो पिता जी ने कितने दिनों तक आपकी सेवा कीे थी, वही भोजन बनाते थे, घर का सारा काम करते थे, कपड़े धोते थे, तब आपने फोन करके मुझे सूचना दी थी कि मैं संसार की सबसे भाग्यशाली औरत हूँ, तुम्हारे पिता जी मेरा बहुत ख्याल करते हैं।"
इतना सुनते ही मां बेटे को गले लगाकर फफक फफक कर रोने लगी, सन्तोष जी आँखो मे आंसू लिए सामने खड़े थे। 
"अब बताइये क्या कहेंगे आप मेरे फैसले पर", पत्नी ने संतोष जी से पूछा।
सन्तोष जी ने तुरन्त अपने बेटे को गले लगा लिया, !
सन्तोष जी की धर्मपत्नी ने कहा, "ये शिक्षा इंग्लिश मीडियम स्कूलो मे नही दी जाती। माँ-बाप से कैसे पेश आना है, कैसे उनकी सेवा करनी है। ये तो गुरुकुल ही सिखा सकते हैं जहाँ वेद गीता रामायण जैसे ग्रन्थ पढाये जाते हैैं संस्कार दिये जाते हैं।
अब सन्तोष जी को एहसास हुआ- जिन बच्चो पर लाखो खर्च करके डिग्रीया दिलाई वे सब जाली निकले ,  असल में ज्ञानी तो वो सब बच्चे है, जिन्होंने जमीन पर बैठ कर पढ़ा है, मैं कितना बड़ा नासमझ था, फिर दिल से एक आवाज निकलती है, काश मैंने चारो बेटो को गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दी होती

स्कूलों में अगर संस्कार और उदारता की दीक्षा नही दी जा रही है,तो बो स्कूल नही केवल धंधा और व्यापार के केंद्र हैं

*मातृमान पितृमान आचार्यावान् पुरुषो वेद:।।🙏🏼*
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शनिवार, 15 जुलाई 2023

उर्मिला 30

 

उर्मिला 30
     संध्या का समय था। गहन उदासी में डूब चुकी अयोध्या के राजमहल में तीन बहनें एक साथ बैठी थीं, पर उनके बीच कोई संवाद नहीं हो रहा था। एक साथ होने के बाद भी सभी एक दूसरे से आँख मिलाने में डरते थे। अयोध्या आने के समय से ही चारों जनक कुमारियों ने यह नियम बनाया था कुछ देर के लिए साथ अवश्य ही बैठना है। सिया के वन जाने के बाद अधूरे मन से ही सही, उन्होंने इस नियम को कभी भंग नहीं होने दिया था।
      उसी क्षण माता सुमित्रा कक्ष में आईं। माता सुमित्रा सभी बहुओं की सबसे प्रिय सास थीं। कठोरता उनके स्वभाव में ही नहीं थी, बहुओं को सचमुच उन्होंने नन्ही बच्चियों की तरह ही प्यार दिया था।
      माता को देख कर तीनो के मुख पर थोड़ी सी प्रसन्नता झलक उठी। तीनों ने संग ही उन्हें प्रणाम किया। मन भर आशीष देने के बाद माँ ने कहा, "अच्छा हुआ तो तुम तीनों साथ ही मिल गयी पुत्रियों! मुझे तुम तीनों से कुछ आवश्यक बातें करनी हैं।"
      तीनों निकट आ गईं और हाथ जोड़ कर कहा, "आदेश कीजिये माता!"
      माता सुमित्रा पहले मांडवी की ओर मुड़ीं। कहा, "तुम अब से राजमाता कौसल्या की सेवा में रहो पुत्री! मैं जानती हूँ उस दुखियारी के मन में कैकई के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है, फिर भी... जबतक सीता-राम नहीं आते तबतक तुम्ही उनकी सेवा में लगी रहो। यह तुम्हारा ही दायित्व है।
    मांडवी ने शीश झुका कर स्वीकार किया। सुमित्रा फिर बोलीं- उनकी दृष्टि से कभी ओझल न होना पुत्री! चौदह वर्षों तक इसे एक तपस्या समझ कर पालन करना और इस कार्य में कभी किसी का सहयोग मत लेना। यह मत समझना कि तुम यह सब कौसल्या या राम के लिए कर रही हो, तुम यह सब स्वयं और अपने पति के लिए कर रही हो। यही तुम दोनों का धर्म है..."
    मांडवी जैसे यही चाहती भी थीं, वे संतुष्ट हुईं। सुमित्रा अब उर्मिला और श्रुतिकीर्ति की ओर मुड़ीं। कहा, " जानती हो उर्मिला! मैंने अपने जीवन में कभी कोई इच्छा नहीं रखी। अपना समूचा जीवन परिवार की सेवा में लगा दिया। यही संस्कार मैंने अपने बेटों को दिया और यही अपेक्षा मुझे तुम दोनों से भी है। दीदी कौसल्या ज्येष्ठ महारानी थीं, तो उनके पुत्र का राजा बनना मेरी भी सदैव की इच्छा रही। बहन कैकई महाराज की प्रिय रानी थीं, तो उनके पुत्र भरत का युवराज बनना उचित था। मैंने अपने दोनों पुत्रों को राम भरत की सेवा में दे दिया, इसी में उन दोनों की पूर्णता है। तुमसे भी मैं यही चाहती हूं उर्मिला की तुम माता कैकई की सेवा में रहो। ग्लानि में डूबी उस अभागन को एक सम्बल की आवश्यकता सबसे अधिक है, और वह तुम ही हो सकती हो।"
     उनका कहना ही बहुओं के लिए ईश्वर का आदेश था। अस्वीकार का कोई प्रश्न ही नहीं था। माता फिर बोलीं, "उसकी ग्लानि को दूर करने का प्रयत्न करते रहना बेटी! उसे भरोसा दिलाना कि वह अपराधिनी नहीं है। नियति के खेल में वह भी एक पात्र भर है..."
     उर्मिला ने शीश झुका कर कहा, "जो आज्ञा माता! फिर आपकी सेवा श्रुति का सौभाग्य रही। आप निश्चिन्त रहें, हम सब दोनों माताओं के दुख को कम करने का हर सम्भव प्रयास करेंगी।
     "नहीं पुत्री! मुझे सेवा की आवश्यकता नहीं। श्रुति को तुम अपने साथ रखो, वह शत्रुघ्न की सलाह से अन्य आवश्यक कार्य करेगी। चारों राजकुमारों में कोई भी राजमहल में उपस्थित नहीं रहता, सो समूचे राजमहल की व्यवस्था देखनी होगी उसे... उसे यही करने दो।" सुमित्रा ने जैसे आदेश सुना दिया।
    सुमित्रा चली गईं। बहुओं ने अपना दायित्व सम्भाल लिया। वे पहले भी सेवा में लगी रहती थीं, पर अब विशेष ध्यान रखती थीं। विपत्ति के दिन मनुष्य के चरित्र की परीक्षा लेने आते हैं, अयोध्या की देवियां उस परीक्षा के लिए सज्ज हो गयी थीं।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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बुधवार, 12 जुलाई 2023

हर हर महादेव

 

   *हर हर महादेव !!!!*


    महादेव को समर्पण,  सेवा व एकाकार होने का सर्वथा अनुकूल समय सावन महीने की शुभकामनाएं !!
     समयानुकूल चर्चा - लिंग का सामान्यतः अर्थ प्रतीक कहा जाता रहा है । राजशेखर जी तिवारी ने सुंदर व्याख्या व दृष्टिकोण दिया है, आप भी ज्ञान गंगा में डुबकी लगा ही लीजिए ....

लिंग का अर्थ संस्कृत भाषा में कभी भी किसी रूप में भी नर के मूत्रेंद्रिय के रूप में नहीं किया गया था । उसे शिश्न ही कहा गया है ।

शिश्न से लिंग का डारविनीकरण एक बेहूदा और निकृष्ट
सोच है ।  लिंग , स्त्रीलिंग के लिये भी उपयुक्त हुआ है और नपुंसक लिंग के लिये भी अतः लिंग को केवल शिश्न का पर्यायवाची बनाना एकदम दुर्बल चिंतन है ।

सांख्य दर्शन जिसमें स्पष्ट रूप से कहा है कि अग्नि कहाँ है ? जहां पर अग्नि का चिन्ह हो अर्थात् धुआँ हो ।  कहावत भी है कि बिना आग के धुआ नहीं निकलता ।

धुए को संस्कृत भाषा में अग्नि का लिंग अर्थात् चिन्ह या सूचक कहेंगे ।
( ईश्वर कृष्ण की सांख्य कारिका में अनुमान  के दो स्वरूप बताये गये हैं। लिंग-पूर्वक और लिंगी पूर्वक !
इसको उदाहरण से समझे ..
किसी पहाड़ पर धुआ देख कर आग का अनुमान करना !
यहाँ धुंआ कार्य हैं ..और आग कारण ! धुंआ लिंग है..आग लिंगी ! इस ये लिंग अनुमान का उदाहरण हैं !
इसी को उल्टा कर दे ..आग को देख कर धुंये का अनुमान करना ! ये लिंगी पूर्वक अनुमान का उदाहरण हैं !
लिंग का सामान्य अर्थ प्रतीक ही होता हैं !
ये कुछ महानुभाव ..जब सनातन ग्रंथो जैसे शिव पुराण का अंग्रेजी में अनुवाद करने लगे ..तो उन्होंने लिंग का अनुवाद Panis  कर दिया! )

सनातन हिन्दू धर्म के सभी दर्शनों में चिन्ह और सूचनाओं पर जब विमर्श किया गया है उसे “ लिंग परामर्श “ ही कहते हैं।

लिंग का दूसरा सबसे बड़ा उपयोग “ अनुमान “ के अर्थ में किया गया है । 

सांख्य दर्शन में जहां जहां अनुमान लगाया गया है उसे भी लिंग परामर्श ही कहा गया है । यहाँ तक कि सांख्योक्त प्रकृति को भी लिंग कहा गया है ।

शिव की मूर्ति जगत का कारण मानी गयी है अतः वह भी लिंग कहलाती है । प्रकृति को “ योनि “ और जगत के कारण को “ लिंग “ कहा गया है ।

व्याकरण ( नैरूक्त ) कहता है जो सबका आलिंगन करे और जिसमें सब कुछ लीन हो जाये उसे लिंग कहते है । ध्यान दें जिसमें सबकुछ लीन हो जाये और जो सबका आलिंगन कर सके वह परमात्मा ही हो सकता है ।

और गीता में भी भगवान ने प्रकृति के लिये ही “ योनि “ शब्द का प्रयोग किया है ।

अब आते हैं पश्चिमी ( और कुछ धूर्त भारतीय भी ) शिश्नीकरण पर ..

पश्चिमी सोच वासनाओं से उपर उठ ही नहीं पायी है और उठी भी है तो fertility ( उपजाऊपने ) पर जाकर अटक गयी है उससे उपर नहीं उठ पायी ।

ध्यान दें । सनातन हिन्दू धर्म में किये गये यज्ञ या कर्मकांड जिससे संतान उत्पन्न हो यह अंतिम लक्ष्य नहीं था वह गृहस्थाश्रम का एक महत्वपूर्ण अंग था ।

अब आपको आधुनिक फ़्रांस की यात्रा पर लेकर चलते हैं जो कि बड़का वैज्ञानिक सोच वाला देश माना जाता है ।

संलग्न  चित्र फ़्रांस के एक पत्रकार विक्टर नोयर का है , (ज़मीन पर लेटे हुवे स्टेच्यू ) जिसकी हत्या नेपालियन बोनापार्ट के भतीजे के समयकाल में कर दी गयी थी । उसकी कांसे की स्टैचू बनी ..

आधुनिक फ़्रेंच स्त्रियाँ बच्चे पैदा करने के लिये या अपनी सेक्स लाइफ़ को बढ़ाने के लिये इसके स्टैचू पर चढ़कर बेहूदी हरकतें करती हैं ..

यही है दुर्बल चिंतन और पतनोन्मुख कार्य ..

मनुष्य सदैव से परोक्ष शक्तियों पर विश्वास करता रहा है । मनुष्य का मन बिना कोई आकृति बनाये सोच भी नहीं सकता ..मूर्ति पूजा जहां एक विज्ञान है वहीं यदि इसे दुर्बल कर दिया जाये तो एक विकृत रूप उभरने लगता है । जैसे मुर्दे पर चादर इत्यादि ।

सनातन हिन्दू धर्म ने प्रत्यक्ष से परोक्ष और परोक्ष पर ले जाकर पटक नहीं दिया , हम मनुष्य को वापस साक्षात अपरोक्ष पर लेकर आये ..

और किताबी तथा तथाकथित आधुनिक अंततः ७२ हूर या विक्टर नोयेर पर जाकर अटक गये ।

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सोमवार, 10 जुलाई 2023

व्यवहार बोलता है

 

चिन्तन की धारा
नयी पौध से दो बात।

जब भी आप पहली बार अपने/अपनी मित्र को जानने समझने के लिए मिलें, डेट पर जाएं तो दो बातों का ध्यान अवश्य रखें। आपके/आपकी मित्र का सारा चरित्र शायद उन दो बातों से प्रकट हो जायेगा।

पहला - वह ऑर्डर लेने आये कर्मचारी से कैसा व्यवहार करता है। अगर वह ‘छोटू’ के साथ उतने तमीज से पेश आए जितना वह अपने किसी वरिष्ठ के साथ पेश आता है, तो समझिये कि आपकी तलाश पूरी हो गयी।

अपने से बड़ों से, बॉस से, ताकतवर से तो सभी को सभ्यता से पेश आना ही होता है। वह विवशता है व्यक्ति की। ‘स्वभाव’ तो वह है, जो आप छोटों के साथ, कमजोरों के साथ बरतते हैं।

और दूसरी महत्वूपुर्ण बात - आप गौर करें कृपया कि वह प्लेट में खाना छोड़ता तो नहीं है! खाना बर्बाद तो नहीं करता है?

इस सृष्टि में कुछ अत्यधिक चुनिन्दे महत्वपूर्ण वरदानों में से ‘अन्न’ एक है। अगर कोई प्लेट में खाना छोड़े, तो ऐसे व्यक्ति को भरोसे लायक कभी मत समझिये। जो इस महान अन्न का अनादर कर सकता है, उसे सम्मान किसी का भी करना नहीं आता होगा। अगर वह किसी का सम्मान करता/करती दिखे, तो वह स्वाभाविक नहीं अपितु परिस्थितिजन्य होगा।

जानता हूं कि इतना सामान्यीकरण नहीं हो सकता मानव व्यवहार का। यह भी जानता हूं कि दस-बीस आदमी होते हैं एक आदमी में। फिर भी एक मापदंड तो आप इन दोनों आधारों को मान ही सकते हैं।

अन्यों के लिए मात्र ही नहीं, वरन् स्वयं को जांचने-आंकने की कसौटी भी आप इसे मान सकते हैं। मजदूरों, स्वयं से कम हैसियत वालों से आप कैसे पेश आते हैं? क्या आप भी अपनी थाली में जूठन छोड़ते हैं?

बताइयेगा या स्वयं से तो अवश्य पूछियेगा एक बार। पूछेंगे  न ?

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रविवार, 9 जुलाई 2023

मनीआर्डर

 

कहानी

"अम्मा!.आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है।"
डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते अपनी साईकिल रोक दी। अपने आंखों पर चढ़े चश्मे को उतार आंचल से साफ कर वापस पहनती अम्मा की बूढ़ी आंखों में अचानक एक चमक सी आ गई..
"बेटा!.पहले जरा बात करवा दो।"
अम्मा ने उम्मीद भरी निगाहों से उसकी ओर देखा लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा..
"अम्मा!. इतना टाइम नहीं रहता है मेरे पास कि,. हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूं।"
डाकिए ने अम्मा को अपनी जल्दबाजी बताना चाहा लेकिन अम्मा उससे चिरौरी करने लगी..
"बेटा!.बस थोड़ी देर की ही तो बात है।"
"अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!"
यह कहते हुए वह डाकिया रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा..
"लो अम्मा!.बात कर लो लेकिन ज्यादा बात मत करना,.पैसे कटते हैं।"
उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।
"पूरे हजार रुपए हैं अम्मा!"
यह कहते हुए उस डाकिया ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए।
रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया..
"अब क्या हुआ अम्मा?"
"यह सौ रुपए रख लो बेटा!"
"क्यों अम्मा?" उसे आश्चर्य हुआ।
"हर महीने रुपए पहुंचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो,.कुछ तो खर्चा होता होगा ना!"
"अरे नहीं अम्मा!.रहने दीजिए।"
वह लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहां से वापस जाने को मुड़ गया।
अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।
वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहां से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..
उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक चेहरा सामने खड़ा था।
मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह हैरान हुआ..
"भाई साहब आप यहां कैसे?. आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना?"
"मैं यहां किसी से मिलने आया था!.लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है।"
रामप्रवेश की निगाहें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई..
"जी पूछिए भाई साहब!"
"भाई!.आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं?"
"मैंने क्या किया है भाई साहब?"
रामप्रवेश के सवालिया निगाहों का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया।
"हर महीने आप इस अम्मा को भी अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए भी रुपए देते हैं!.ऐसा क्यों?"
रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिया थोड़ी देर के लिए सकपका गया!.
मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो लेकिन अगले ही पल उसने सफाई दी..
"मैं रुपए इन्हें नहीं!.अपनी अम्मा को देता हूंँ।"

"मैं समझा नहीं?"
उस डाकिया की बात सुनकर रामप्रवेश हैरान हुआ लेकिन डाकिया आगे बताने लगा...
"इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी।"
उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश को जिज्ञासा हुई..
"कैसे चिट्ठी?.क्या लिखा था उस चिट्ठी में?"
"संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई!. अब वह नहीं रहा।"
"फिर क्या हुआ भाई?"
रामप्रवेश की जिज्ञासा दुगनी हो गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी की..
"हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई!.मैं हर महीने अपनी तरफ से इनका मनीआर्डर ले आता हूंँ।"
"लेकिन यह तो आपकी अम्मा नहीं है ना?"
"मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी अम्मा को!. लेकिन अब मेरी अम्मा भी कहां रही।" यह कहते हुए उस डाकिया की आंखें भर आई।

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शनिवार, 8 जुलाई 2023

उर्मिला 29

 

उर्मिला 29

    वियोग प्रेम के लिए संजीवनी समान होता है। साथ के दिन सहज होते हैं, उल्लास से भरे हुए होते हैं। प्रेम होता है, प्रेम से भरी बातें होती हैं, परिहास भी होता है और सहज मनमुटाव भी होते हैं। दुख आएं भी तो बांट लेने के लिए सबसे विश्वसनीय साथी सङ्ग होता है। और सबसे महत्वपूर्ण वस्तु होती है प्रिय को सामने देखते रहने की निश्चिन्तता।
    वियोग के दिनों में न प्रेम भरी बातें होती हैं, न परिहास, न विवाद... न आंखों के आगे साथी होता है, न दुखों में लिपट कर रो उठने के लिए उसका शरीर... तब जो कुछ बचता है वह शुद्ध प्रेम होता है।
    यह सहज मानवीय स्वभाव है कि हमारी जो वस्तु हमारे पास न हो, हमें उसी की सर्वाधिक आवश्यकता पड़ती है। प्रिय यदि साथ हो तो कई कई दिन उससे बात करने का भी मन नहीं होता, पर वही जब दूर चला जाय तो मन बार बार उसी की ओर खिंचा चला जाता है। वह पास होता है तो हृदय के एक हिस्से पर उसका अधिकार होता है, पर दूर जाते ही वह हृदय पर छा जाता है। हृदय में उसके अतिरिक्त किसी अन्य के लिए कोई स्थान नहीं बचता।
    उर्मिला की भी वही दशा थी। राजा दशरथ जैसे स्नेह देने वाले श्वसुर, सुमित्रा जैसी भोली सास, और लक्ष्मण सा तेजस्वी पति पाने के बाद उस बालिका ने कभी न सोचा था कि जीवन में वियोग के इतने कठिन दिन भी आएंगे। पर जीवन व्यक्ति की इच्छानुसार ही चले, यह कहाँ होता है?
     मिथिला की वह पवित्र भूमि जिसने संसार को प्रेम, त्याग और धर्म की शिक्षा दी, उसी पवित्र माटी की पुत्री उर्मिला को लगा जैसे उसे इन तीनों विषयों की परीक्षा देनी है। उसने स्वयं को इस परीक्षा के लिए सज्ज कर लिया था।
    स्त्रियां अपने दुख के दिन रो कर काट लेती हैं। रोना उनके भारी मन को हल्का कर देता है।उर्मिला का दुर्भाग्य यह था कि अश्रुओं के महासागर में डूब चुके अयोध्या राजमहल में उसे स्वयं के अश्रुओं को रोक लेना था। उन्होंने अपने लिए तय किया था कि वे अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं करेंगी।
    उर्मिला के पति अब अज्ञात वन में थे। किसी ऐसे स्थान पर, जहां से किसी सन्देस के आने की आशा नहीं थी। विपत्तियों से भरे गहन वन का जीवन और चौदह वर्ष के पहाड़ से दिन, इन दिनों में उर्मिला के पास लक्ष्मण से जुड़ा कुछ था तो उनकी चिन्ता थी।
    लक्ष्मण और उर्मिला की दशा में एक समानता थी। लक्ष्मण उनके साथ थे जिनकी सेवा का उन्होंने व्रत लिया था, और उर्मिला उनके साथ थीं जिनकी सेवा का उन्होंने व्रत लिया था। पर उन दोनों की दशा में एक असमानता भी थी। लक्ष्मण अपने भइया-भाभी की सेवा कर के ही पूर्ण प्रसन्न रह सकते थे, पर उर्मिला अपने परिवार की सेवा में रत रहने के बाद भी पूर्ण प्रसन्न नहीं हो सकती थीं। उर्मिला का मन लक्ष्मण की ओर लगा हुआ था।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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गुरुवार, 6 जुलाई 2023

1975 की चर्चा 3

 

1975 की चर्चा - Part 3

उत्तावर दिल्ली से अस्सी किलोमीटर दूर एक मेवाती मुस्लिम्स का एक गांव है। १९७६ में एक रात तीन बजे अचानक पूरे गांव को घोड़े पर सवार पुलिस ने घेर लिया और अन्नोउंस हुआ - १५ साल से बड़े मर्द बस स्टैंड मैन रोड पर जमा हो। चार सौ के ऊपर लोग जब वहां इक्कठे हुए - पुलिस ने पूरे गांव की तलाशी , लूटमार और आगजनी करी। एक दिन में पूरे गांव के सब आदमियों का ऑपरेशन कर दिया गया। इसी तरह मुज़्ज़फरनगर में दंगा शुरू हो गया जब पुलिस और प्रशासन ने जबरजस्ती करनी शुरू की। लोकल कांग्रेस नेताओ ने जब हाई कमांड को फ़ोन किया तो उन्हें डांट डपट कर चुप करा दिया गया । यहाँ का डीएम सीधा संजय के कण्ट्रोल में था और लोकल नेताओ आदि का उस पर कोई प्रभाव ना था। डेली का छह हज़ार का टारगेट लिए इस डीएम ने किसी को ना बक्शा - रिक्शा वाले से लेकर रोड पर रेहड़ी लगाने वालो तक को ऑपरेट करवा दिया। ये सीधे लोगो के वाहन उठवा लेता था - लौटने के एवज में नसबंदी करवा कर छोड़ता। ७५ साल के बूढ़े से लेकर १५ साल के लड़को तक को नहीं छोड़ा । जब लोगो ने मिल कर डीएम आवास पर धावा बोला तो जबाब में पुलिस ने आंसू गैस , गोली और लाठीचार्ज किया - कई लोग मरे और जख्मी हुए । ७५ पुलिस वाले तक जख्मी बताये गए। विपक्ष ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से जाँच की मांग रखी लेकिन ये दंगे सुल्तान पुर से मेरठ से गोरखपुर तक फ़ैल चुके थे। mp up बिहार , बंगाल सब जगह से दंगे की खबर आ रही थी - लोग या तो दंगो में मर रहे थे या नसबंदी के दौरान लापरवाही से।

हरयाणा में सबसे ज्यादा लोगो को झेलना पड़ा क्यूंकि चौधरी बंसीलाल ने बहुत सख्ती से प्रोग्राम लागू करवाया था - हरयाणा टॉप पर था आंकड़ों में। ताज्जुब की बात थी जम्मू कश्मीर के शेख अब्दुल्लाह इस रेस में बहुत बहुत पीछे थे - ना के बराबर आंकड़े और शेख को डांटने वाला भी कोई ना था। सुल्ताना का दोजना हाउस में सबसे ज्यादा लोग ऑपरेशन की लापरवाही से मरे - कोई पांच सौ मौत बताता कोई हज़ार , जितने मुँह उतनी बाते । लेकिन सुल्ताना पर कोई ऊँगली तक नहीं उठा पाया । विपक्ष संसद से लापता था क्यूंकि आपातकाल में लोग धड़ाधड़ गिरफ्तार हो रहे थे तो आम जनता की कहने वाला भी कोई ना था। इस टाइम इंदिरा ने एक नया एलान किया -हर राज्य अपने हिसाब से नसबंदी लागू करवाए - तो सब ये राज्य के cm ड्राफ्ट पेश करने में लग गए और सबसे पहले महाराष्ट्र ने कानून बनाया नसबंदी के लिए। cm थे sb चवण । कानून था - ५५ तक के आदमी और ४५ तक की औरत को कानूनन नसबंदी करवानी पड़ेगी तीसरे बालक के होने के छह महीने के अंदर । एक बार फिर पढ़िए ये कानून और सोचिये। नहीं किया तो दो साल की क़ैद !! इस से पहले ये राष्ट्रपति से पारित होता , आपातकाल समाप्त हो गया और नया चुनाव अन्नोउंस हो गया ।

किस्से और दर्दनाक कहानिया और भी बहुत है लेकिन पोस्ट को अब समापन के ओर ले जाना जरुरी है । ये प्रोग्राम 270 दिन तक चला था और सब नियम कानून ताक पर रख दिए गए थे। जनता पार्टी की सरकार में अनेको जाँच कमिटी बनी इसके लिए लेकिन कुछ नहीं हुआ।

चुनाव प्रचार के दौरान जब बंसीलाल जी हरियाणा में घुमते तो युवक अपनी धोती खोल कर खड़े हो जाते थे। कई लोगो ने घर के बहार नोटिस चिपका दिया - वही वोट मांगने आये जिसके पास नसबंदी का सर्टिफिकेट हो। ये नल और कनेक्शन वाला चुटकुला भी इसी चुनाव में से निकला था और वो सब नारे भी। एक सवाल उठता है - नसबंदी से हिन्दू और मुस्लिम पर क्या असर पड़ा ? सीधा कोई उत्तर नहीं है - लेकिन जो लोग सरकारी नौकरी वाले थे - वो ज़्यदातर बहुसंख्यक थे और उन्होंने शराफत से नसबंदी करवाई - वही से डेमोग्राफिक्स बदलने शुरू हुए थे। अल्पसंख्यक ने इतनी आसानी से हार नहीं मानी थी इस प्रोग्राम में।

अंत में - जब इंदिरा चुनाव हार गयी तो उन्हें भनक पड़ी कि कई सत्ताधारी लोग संजय की नसबंदी करवाने पर तुले है तुर्कमान गेट पर। तो वो सीधे jp नारायण के पास पहुंची गुहार लगाने और jp ने सब लोगो को शांत किया। ये बात अलग है - कि महज ढाई साल बाद जनता ने इंदिरा और संजय को बम्पर जीत के साथ फिर सत्ता दे दी थी। इस बार संजय के पास सांसद की कुर्सी भी थी - लेकिन आयु नहीं बची थी। यदि आयु होती - तो आज भारत की क्या तस्वीर होती ?

ये पूरा प्रकरण लगभग आठ किताबो के पढ़ने के बाद संक्षेप में लिखा है - गुहा जैसे लेखकों ने इस काण्ड को चार लाइन में समेट दिया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। कुछ जगह थोड़ा विवरण मौजूद है लेकिन एक जगह सब डिटेल फिर भी नहीं मिलती।
पूरे प्रकरण का मतलब समझे जनाब? -Mann Jee

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मंगलवार, 4 जुलाई 2023

इंदिरी बचाओ पार्ट 1

 

इंदिरी बचाओ - सेव योर पेनिस ::Part 1

आज़ाद भारत के गुमनाम किस्से शृंखला की पांचवी कड़ी में पेश है आपातकाल के दौरान नसबंदी काण्ड। हालांकि ये किस्सा गुमनाम नहीं है , लेकिन इस काण्ड की डिटेल बहुत गजब की है और पब्लिक डोमेन में इतनी आसानी से नहीं मिलती।

एक सस्ता चुटकुला कुछ इस प्रकार है - नसबंदी वाले एक गांव में पहुंचे जहां वो पिछले साल ही नसबंदी कर चुके थे । गांव वालों ने उन्हें दौड़ा लिया , कहा - कनेक्शन तो पहले ही काट दिया , अब क्या नल उखाड़ने आये हो ? चुटकुला भद्दा जरूर है , लेकिन यही सच्चाई थी आपातकाल के समय लगे नसबंदी प्रोग्राम की। थोड़ा और पीछे यदि इतिहास में जाओ , तो नाज़ी पार्टी के सत्ता में आने के बाद हिटलर ने चार लाख लोगों की नसबंदी करवाई थी जो अनुवांशिक रूप से कमजोर थे। हिटलर का कहना था - ऐसे लोगों की आने वाली नस्ल को आने का कोई हक़ नहीं क्यूंकि वो एक मजबूत जर्मन रेस बनाना चाहता था। संजय गाँधी ने आपातकाल के दौरान लगभग साठ लाख लोगों की नसबंदी करवाई थी -सीधा साधा सूत्र - वो हिटलर से पंद्रह गुना बड़ा तानाशाह था।

भारत की जनसख्यां साल दर साल बढ़ती आयी है , आज़ादी के बाद से। इस में कोई संशय नहीं है। आज़ादी के समय भारत की आबादी लगभग बत्तीस करोड़ थी और भारत की पहली हेल्थ मंत्री थी राजकुमारी अमृत कौर जी। उन्होंने एक अमेरिकन डॉक्टर अब्राहम स्टोन की ईजाद - rhythm मेथड को भारत में सौ महिलाओ में एक एक्सपेरिमेंट के रूप में लागू किया - इसमें एक रंग बिरंगा नेकलेस इन महिलाओं को दिया गया और कहा - हरे बीड का मतलब सुरक्षित और लाल बीड का मतलब खतरा - इस प्रकार इन्हें गर्भाधान से बचने के लिए ट्रेनिंग दी गयी। इन्हें केवल बीड को देखना था और बड़े सीधे रूल फॉलो करने थे। लेकिन कुछ समय बाद पाया गया इन महिलाओ ने वो नेकलेस बच्चो को दे दिए खेलने के लिए क्यूंकि वो गहने नहीं थे। इन सौ में से पचास महिलाये कुछ महीनो में ही गर्भवती पायी गयी। ये आज़ाद भारत का पहला कदम था आबादी कण्ट्रोल करने का। इस बाद अगले तीस सालो में कोई तरक्की नहीं हुई इस दिशा में। IMF , वर्ल्ड बैंक , दुसरे पश्चिमी देशो ने जब जब भारत को कोई मदद थी - आर्थिक , अनाज आदि की तो हर बार इंटरनेशनल लेवल से पापुलेशन कण्ट्रोल का प्रेशर आया । हर पांच वर्षीय योजना में इसके लिए प्रावधान और पैसा था - लेकिन वो छु मंतर हो जाता था। तो जब आपातकाल लगा तो इंदिरा गाँधी पर इसका प्रेशर तो था ही , ऊपर से बर्थ कण्ट्रोल का भी अलग प्रेशर था । स्टेज सज चूका था संजय गाँधी की एक और सनक का । मारुती का काम तो टॉय टॉय फिस्स था ही , तो खाली दिमाग शैतान का घर । संजय ने नसबंदी करवाने की ठानी - वो भी बगैर हेल्थ मिनिस्ट्री के पूछे बिना ।

संजय को ना तो कार बनानी आती थी - तो कार बनाने की कोशिश की , नसबंदी कैसे लागू करे - वो भी नहीं ज्ञात था ; लेकिन वो भी किया। और ऐसा किया कि उसके बाद किसी सरकार में हिम्मत नहीं रही बर्थ कण्ट्रोल प्रोग्राम को सख्ती से लागू करे। फल स्वरुप आज हम एक सौ बत्तीस करोड़ हो चुके है और आगे बढ़ेंगे। अब बाकी बर्थ कण्ट्रोल के तरीके उस समय बड़े अलग थे - संयुक्त परिवार में रहना , ग्रामीण परिवेश में ये सब बातें सत्तर के दशक में बहुत अलग थी। तो केवल एक ही इलाज था - नसबंदी। ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। हालांकि इंदिरा के सब सलाहकारों का मानना था ये बहुत बुरा कदम है क्यूंकि आबादी से ही कृषि वृद्धि होगी आदि आदि। नसबंदी की जगह आर्थिक विस्तार करना चाहिए - लेकिन संजय के दिमाग में सनक घर चुकी थी। संजय ने इस काम का बीड़ा उठाया और एक प्रोग्राम बनाया - लोकल नसबंदी : तीन मिनट का ऑपरेशन , लोकल anesthesia के द्वारा , बिना एक खून की बूँद के। अब जनता में नसबंदी को लेकर कुछ भ्रांतिया फैली थी जैसे - नसबंदी के बाद आदमी इच्छुक नहीं रहता , मर्दानगी समाप्त हो जाती है आदि आदि। यहाँ तक महिलाये भी यही सोचती थी। एक ऐसे देश में , जहां पुरुष होना एक बहुत बड़ा एडवांटेज हो , वहां ऐसी बातें मायने रखती है । लोग कहते - नसबंदी के बाद आदमी लकड़ी बन जाएगा , हर वक़्त थका थका रहेगा , औरतें उस से चौका-बासन करवाएंगी आदि। संजय के पास इन सब बातो से निबटने का समय ना था। हेल्थ मिनिस्ट्री के अनुसार ये काम दो साल के दौरान धीरे धीरे करना चाहिए लेकिन इन सब को दरकिनार कर संजय ने मोर्चा खोल दिया।

कहानी है थोड़ी लम्बी और थोड़ी दिलचस्प। तो ये हुआ पहला पार्ट । जारी रहेगी । क्रमश:

अंत में :
अगली किश्तों में पढ़िए : नसबंदी के तीन दलाल - इंदिरा ,संजय और बंसीलाल ;

संजय की मम्मी बड़ी निकम्मी ;

ज़मीन गयी चकबंदी में , मकान गया हदबंदी में , दरवज्जे पर खड़ी औरत चिल्लाये - मेरा मरद गया नसबंदी में !
Mann Jee

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सोमवार, 3 जुलाई 2023

बातें '75 की

 

चिन्तन की धारा

फिलहाल विदेश बस रहे एक परिचित हैं , FB पर Mann Jee नाम से उनकी पोस्ट उपलब्ध है । वे लगातार सत्य अनावर्ण करते रहते हैं । उन्हें पढ़ना ही चाहिए...
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हम भारतवासी झूठे इतिहास को पढ़ने को अभिशप्त है। इस में कोई राय नहीं है। केवल ४८ साल पहले हुए कांड मसलन मारुति और नसबंदी के बारे में जनता को बहुत कम जानकारी है या ग़लत जानकारी है। लोगों को आज भी लगता है नसबंदी अच्छी थी लागू करने वाला देवता था बस ढंग से हो नहीं पायी। समझाना ज़रूरी है कोई भी नेता देवता नहीं हुआ। एक दो अपवाद के तौर पर छोड़ दीजिए। सब नेता एक जैसे है- किसी भी पार्टी के क्यों ना हो- किसी भी युग के क्यों ना हो।

सोचने वाली बात है- पचास साठ साल पहले का इतिहास ही जब इतना डिस्टॉर्टेड और साफ़ नहीं है- तो पाँच सौ साल पहले का इतिहास किस तरह पढ़ाया जा रहा होगा। सोचने वाली बात है क्यों बाहर से आये लुटेरों को महिमामण्डित किया गया। सोचने वाली बात ये है क्यों पवित्र परिवार के सब लोगो को भारत रत्न दिया गया जबकि वे कुछ और ही थे।क्यों आज राष्ट्रवादी सरकार आने के नौ वर्ष बाद भी एक लाइन नहीं बदली गई। साफ़ कहता हूँ - हम सब ग़लत पढ़ने के लिए अभिशप्त है- श्रापित है।

इंटरनेट के इस युग में जब सब जानकारी आराम से उपलब्ध है- सब यात्रियों के रोजनामचे, दरबारियों के अनुवाद हुए नामा सब कुछ उपलब्ध है तो देर किस बात की! देश में इतिहास के शोधार्थियों की कमी है? मुझ जैसा औसत बुद्धि वाला आदमी जिसे ढंग से हिन्दी लिखनी नहीं आती- जिसने इतिहास की फॉर्मल पढ़ाई नहीं की- ये काम करने का माद्दा जुटा सकता है तो क्या सरकार कमेटी बना ये काम बड़े स्केल पर नहीं कर सकती। कर सकती है किंतु होगा नहीं- कारण- हम अभिशप्त है ।

लोगों को मृत्युं , निर्धनता, रूग्णता आदि का श्राप मिलता है- हम देशवासियों को श्राप मिला है- ग़लत इतिहास जानने का- अपने महान पूर्वजों की महिमा ढंग से ना जानने का। श्राप मिला है- देश के लुटेरों को महान पढ़ने का। यही कड़वी सच्चाई है।

इस पटल पर अपने पढ़े हुए कुछ तथ्य पेश कर रहा हूँ। मुग़ल सीरीज की सफलता के बाद आशा ना थी इमरजेंसी सीरीज इतनी हाथोंहाथ ली जाएगी। आगे नसबंदी सीरीज और अनेक अनसुने कहानी आदि है जो पहले नहीं पोस्ट किए है। सब कुछ तथ्य आधारित। जुड़े रहिए यदि सत्य जानने का शौक़ है।इतना लिखा हुआ तैयार है कि रोज़ चार पाँच पोस्ट दागी जा सकती है। इमरजेंसी रपट के छः किरदार कवर किए है। शेष है वो सीरीज भी।

अंत में- पढ़ने में आता है कि संजय ने हनुमान जी के नाम पर मारुति कार नहीं बनाई थी। जिस प्रकार अर्चना एक्सप्रेस पूजा अर्चना पर नहीं किसी और के नाम पर चली ट्रेन है- कुछ उसी प्रकार। नेता लोग इतने धार्मिक नहीं है कि ऐसे इरादों के साथ नामकरण कर दें। हाँ जनता अवश्य धार्मिक और भोली है।
नेक्स्ट- नसबंदी सीरीज! Stay tuned!

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रविवार, 2 जुलाई 2023

काया का मोह

 

कहानी

पहले समय की वेश्याओं के अंदर भी नैतिक बल होता था । वह अपने कर्तव्यों और समाज के प्रति योगदान का पूरा निर्वहन करती थी ।

एक बहुत ही सुंदर गणिका थी । राजा का मन उस पर मोहित हो गया । उस राजा के स्वयं की पत्नी और बच्चे थे लेकिन मन की चंचलता ने उसे अपना दास बना रखा था ।

हालांकि वह राजा भी धर्मनिष्ठ था , ज्ञानी था , सब कुछ था , लेकिन माया बड़ी बलवती होती है , एक क्षण का कुसंग भी अजामिल जैसे  जितेंद्रिय और तपोनिष्ठ का पतन करा कर उसे पापियों का ऐसा सरदार बना दे जिसकी मिसालें दी जाएं , तो यह राजा तो राजा था, जिसके पास सुख भोग ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं थी ।
ऐसा व्यक्ति इन सब चीजों में आसक्त हो जाये तो आश्चर्य कैसा !!

तो क्या हुआ कि वह राजा उस गणिका की सुंदरता पर मोहित हो गया और उसको प्राप्त करने के लिए उसने उस गणिका के पास संदेशा भिजवा दिया ।

गणिका भी भले देह व्यापार में थी लेकिन थी वह भी ज्ञानी ही। 

उसने देखा कि राजा मेरे मोह पाश में और मेरे शारीरिक सुंदरता को देखकर अपना नैतिक कर्तव्य भूल रहा है ।
अगर राजा अपने कर्तव्य से च्युत हो जाएगा तो देश की प्रजा और राज्य के संचालन में बाधा आएगी। 
राज्य के संचालन में बाधा आएगी तो शत्रु देश आक्रमण कर देगा और राज्य में अनैतिकता फैल जाएगी जिससे वर्ण संकर संतानें पैदा होंगी और सब विनष्ट ।

राजा का किसी गणिका के मोह पाश में बंधना पूरी प्रजा के नैतिक मूल्यों का ह्रास था ।  क्योंकि प्रजा में यह संदेश जाएगा कि जब राजा ही ऐसा अनैतिक कृत्य कर रहा है तो हम तो साधारण लोग हैं , हम कर सकते हैं । जिससे परिवार में विखंडन बढ़ेगा , स्त्रियाँ पति के दूसरी तरफ लगने के कारण दूषित और चरित्रहीन हो जाएंगी । और स्त्री पुरुष दोनों के चरित्र हीन होने से वर्ण संकर संतानें पैदा होंगी जो समाज और देश के लिए घातक होगा ।

इतनी दूरदर्शी और उच्च विचारों की वह वेश्या थी । 

उसने राजा को संदेश भिजवा दिया कि वह राजा को प्राप्त हो जाएगी लेकिन उसे 3 दिन का समय चाहिए । 3 दिन के पश्चात आकर राजा उसकी असीम सुंदरता का और सुंदर शरीर का भोग कर सकता है ।

राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली। 

3 दिन के पश्चात राजा सज धज कर उस गणिका के पास मन में उसकी सुंदरता को धारण कर उसके पास जाता है ।

गणिका की परिचायिका ने राजा को उसके कमरे में जाने को कहा ।

राजा के मन में बहुत सारे लड्डू फुट रहे थे ।

जब वह अंदर गया तो पूरा कमरा एक अज़ीब से दुर्गंध से भरा हुआ था । वह नाक पर हाथ रखे कमरे में घुसा तो देखता है कि एक स्त्री बहुत ही जीर्ण अवस्था में बिस्तर पर लेटी है ।

राजा को संबोधन कर उस स्त्री ने जब अपने पास बुलाया तब राजा को पता लगा कि यह वही अद्वितीय सुंदरी गणिका है। 

जब वह उसके पास जाता है तो उसका चेहरा देखकर दंग रह जाता है ।

बालों में रूक्षता , निस्तेज आँखें , रसीले होंठ सूखे हुए से , गालों की गोलाई और गुलाबीपन को पीले और शुष्कता ने ढक लिया था,  मांसल की जगह अत्यंत ढीले स्तन , हाथों की उँगलियों तक में भयावहता और रुक्षता ।

यह देखकर राजा अचानक से पीछे हटा ।

राजा ने कहा कि तुम तो अद्वितीय सुंदरी थी , मैं तो तुम्हारी सुंदरता को भोगने आया था , पर यह तुम्हें क्या हो गया ??? कहाँ गयी तुम्हारी सब सुंदरता ???

उस गणिका ने कहा कि महाराज मेरी सुंदरता मेरे पास ही बगल में रखी है ।  और उसने इशारे से एक स्वर्ण मटका दिखाया और कहा कि मेरी सुंदरता उसमें भरी पड़ी है ।

राजा चकित होकर उस मटके के पास गया और मटके का ढक्कन उठाता है । उठाते ही उसे भयानक उल्टियाँ होनी शुरू हो गयी और वह नाक पर हाथ रखकर वहीं गिर पड़ा ।

क्रोध के मारे उसने गणिका को देखा कि यह कैसा मजाक है ???

तो गणिका ने कहा महाराज यह मजाक नहीं , बल्कि यही सत्य है ।

उस मटके में मेरी सभी सुंदरता "विष्ठा" के रूप में भरी पड़ी हुई है ।
यही विष्ठा ही मेरी सुंदरता है ।

उसने राजा को समझाया कि मात्र तीन दिन के अंदर मैंने अपनी सभी सुंदरता "जमालगोटा" के माध्यम से निकाल निकाल कर इस मटके में आपके लिए भर दिया है। 

और यही सत्य है कि इसी के कारण मनुष्य सुंदर लगता है ।

मैंने अपने शरीर में कुछ नहीं किया , एकमात्र अपने शरीर के 3 दिन के मल को इकट्ठा किया है ताकि आपको दिखा सकूँ कि यह स्त्री का देह या यह मानव देह कुछ नहीं मल मूत्र का पिटारा है ।

इसी मल के कारण मेरी सुंदरता थी । आज जब सभी मल मैंने बाहर निकाल दिया तो मैं आपके राज्य की सबसे बदसूरत स्त्री के रूप में आ गयी ।

इसलिए हे राजन ! इस रूप पर मोहित न होकर अपने कर्तव्य से कर्तव्यच्युत न हो । यह सब धोखा है , छलावा है ,  थोड़े समय के सुख का झूठा आभास है ।

आप साधारण पुरुषों की तरह न बनें । आप राजा हैं और आपका दायित्व और कर्तव्य दूसरों की अपेक्षा कहीं बढ़कर है। 

जैसे जैसे आप आचरण करेंगे ,आप को देखकर प्रजा भी वैसा ही आचरण करने लगती है ।

इसलिए अपने कर्तव्यों को पहचान कर तत्व दर्शन करें और एकमात्र भगवान की सुंदरता पर ही मोहित हों जिससे आपका कल्याण हो और आपको देखकर अन्य लोग भी अपना कल्याण करें ।

राजा को तुरंत चटकना लगी और वह उस वेश्या के पैरों पर गिर पड़ा । उसने कहा कि तुमने मेरी बुद्धि पर पड़ा माया का पर्दा अपने तत्व ज्ञान से स्वतः हटा दिया है । आज से तुम मेरी गुरु हुई ।

फिर राजा अपने सामाजिक कर्तव्य को निभाते हुए हुए स्व कल्याण के निमित्त लग गया और उसने अपना कल्याण किया ।

सार यही है कि सब मोह माया है ।

जिस सुंदरता को देखकर आप लार चुवाते हैं , उसी सुंदरता को कुत्ते और मांसाहारी जीव भोजन के अलावा कुछ नहीं समझते ।

जो सुख और आनंद आपको रसगुल्ले में आता है , वही सुख एक गाय को हरी घास में आता है ,सुवर को विष्ठा चाटने में आता है ,गुबरैले को गोबर में आता है । कहीं सुख नहीं है ।

जो सुख राजा को अपने कामदेव के समान सुंदर पुत्र को चिपटाने में आता है , वही सुख एक दरिद्र स्त्री को अपने काना कुबड़े पुत्र को चिपटाने में आता है ।

इसीलिए तत्व जान कर एकमात्र :- भज गोविंदं भज गोविंदं गोविंदं भज मूढ़मते " . -  श्वेताभ पाठक

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शनिवार, 1 जुलाई 2023

उर्मिला 28

 

उर्मिला 28
     महाराज जनक भरत के साथ ही अयोध्या आ गए थे। सम्बन्धियों का कर्तव्य होता है कि विपरीत परिस्थियों में सम्बन्धी का सहारा बनें। उनतक अपनी संवेदना, शुभकामना और भरोसा पहुचाएं। राजा जनक तो यूँ भी धर्म और ज्ञान पर निरंतर चलते रहने वाले विमर्शों की प्राचीन परम्परा वाली मिथिला के राजा थे, वे इस विपरीत परिस्थिति में उस अयोध्या राजकुल को कैसे अकेला छोड़ देते जहां उन्होंने अपनी प्राणप्रिय कन्याएं ब्याही थीं।
    प्राचीन परम्परा के अनुसार बेटी का गाँव उसके पिता के लिए तीर्थ समान होता है। वह श्रद्धा के कारण वहाँ का जल तक ग्रहण नहीं करता और वहां के पशु-पक्षियों तक को प्रणाम करता चलता है। राजा जनक भी यहाँ अधिक समय तक नहीं रह सकते थे। वे सबसे पहले मांडवी के पास गए और बड़े प्रेम से कहा, "कुछ दिनों के लिए जनकपुर चली चलो पुत्री! अपनी माता के साथ रहोगी तो मन लग जायेगा।"
    मांडवी ने शीश झुका कर कहा, "इस दुर्दिन में मन को कहीं और लगाना अधर्म है तात! आत्मग्लानि के भारी बोझ तले दबे मेरे पति के लिए यह चौदह वर्ष कितने कठिन होंगे यह मैं जानती हूं। मुझे यहीं रहने दीजिये। इस परिवार की सेवा में अपना सर्वस्व खपा कर शायद मैं उनकी ग्लानि कुछ कम कर सकूँ। मेरा तप ही उस दुखी मनुष्य का एकमात्र सम्बल है। मैं स्वप्न में भी अयोध्या नहीं छोड़ सकूंगी तात! जनकपुर तो अब चौदह वर्ष बाद ही आना होगा..."
     महाराज जनक मन ही मन प्रसन्न ही हुए। उन्हें अपनी बेटियों से यही आशा थी। वे मांडवी से विदा लेकर उर्मिला के पास पहुँचे और उनसे भी वही आग्रह किया।
     विवाह के बाद बेटियों का पिता से व्यवहार अत्यंत सहज हो जाता है। जो बच्चियां आदर के कारण पिता से अधिक बात नहीं करतीं, विवाह के बाद वे भी पिता से स्नेहपूर्वक झगड़ लेती हैं। कभी पिता के समक्ष शीश भी न उठाने वाली उर्मिला ने पिता के मुख पर दृष्टि गड़ा कर पूछा, "यह क्या उचित होगा पिताश्री?"
     राजा जनक सहसा कुछ बोल न सके। फिर धीरे से कहा, "चलो! माताओं के पास तनिक शांति मिलेगी। फिर चली आना।"
     "मुझे अभी इसी अशांत परिवार में शांति ढूंढनी है पिताश्री! इस परिवार के अधिकांश व्यक्ति निर्दोष होने के बाद भी ग्लानि और अपराधबोध से भरे हुए हैं। माता कैकई और दीदी मांडवी उसी अपराधबोध के साथ घुट रही हैं। माता कौशल्या का जीवन तो यूँ ही पीड़ा से भरा हुआ है। सदैव परिवार की सेवा में ही स्वयं को खपा देने वाली मेरी माँ सुमित्रा अपने परिवार को टूटते देख कर अलग विलख रही हैं और पुत्र के वनवास से अलग... इस परिवार के पास केवल अश्रु बचे हैं! इस अवसाद के अंधेरे से भरे कुटुंब में आशा का दीपक मुझे ही जलाना होगा पिताश्री। अभी यही मेरा परम कर्तव्य है।
      राजा जनक के लिए यह प्रसन्नता का ही विषय था। वे उर्मिला को आशीष दे कर श्रुतिकीर्ति के पास पहुँचे और कहा, "तुम्हारी अन्य बहनों ने जनकपुर चलने से मना कर दिया पुत्री! उनका कहना ठीक भी है। वे परिवार में अपने पतियों के भी कर्तव्य को स्वयं ही पूरा कर रही हैं। पर तुम्हारे पति तो परिवार के साथ ही हैं न! तुम तो चल ही सकती हो। चलो जनकपुर! हमें भी सन्तोष मिलेगा।"
      श्रुतिकीर्ति ने शीश झुका कर कहा, "नहीं तात! यह सम्भव नहीं। मेरी बहनों के पति उनके साथ नहीं हैं यह केवल उनका ही नहीं इस पूरे कुटुंब का दुर्भाग्य है। यदि इस समय मेरी झोली में थोड़ा सा सौभाग्य बचा हुआ है तो क्या मेरा उसपर प्रसन्न होना और अपने सुखों का प्रदर्शन करना उचित होगा? मैं तो एक डेग चलते हुए भी सोचती हूँ कि कहीं मेरे व्यवहार से उन्हें चोट न पहुँचे। यह विपत्ति हम सब की साझी विपत्ति है, इससे निकलने के लिए हमें साझा प्रयत्न ही करना होगा। आप चलें, हम तो अब जनकपुर तभी आएंगे जब अयोध्या सुखी होगी..."
     राजा जनक कुछ कह न सके। वे सबसे मिल कर जनकपुर के लिए निकल गए। राजमहल के प्रांगण से बाहर निकले तो एक बार मुड़ कर पीछे देखा और श्रद्धा से प्रणाम कर लिया मन्दिर को! मन ही मन कहा, "कोई भय नहीं! मेरी बेटियां अयोध्या को खंडित नहीं होने देंगी। अयोध्या चौदह क्या, चौदह करोड़ वर्षों बाद भी अपनी दिव्यता नहीं खो सकती..."
क्रमशः    (पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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