सोमवार, 16 जनवरी 2023

चिन्तन

 

चिन्तन की धारा ...
अपने हिन्दू धर्म की मूल प्रकृति ये है कि वो अलग-अलग मत, वाद, संप्रदाय और पंथों को एक साथ एकात्मता के हिन्दू धागे में सहेज कर रखता है। किसी को उसकी मान्यता के लिए कभी बहिष्कृत नहीं करता, किसी से ये नहीं कहता कि तुम यही मानो या तुम ये नहीं मानो और न ही किसी को ये कहता है कि तुम जो मान रहे हो वो सही नहीं है।

हमारे यहाँ जब आप अतीत में जायेंगे तो कम से कम सोलह दर्शन प्रचलित रहें जिसमें वैदिक और अवैदिक दर्शन दोनों थे।

मध्यकाल में अलग-अलग भक्ति-धाराएं जन्मी जिनमें कोई सगुण का उपासक था, कोई निर्गुण का, कोई राम और कृष्ण को अवतार मानते हुए उनकी बाल-लीलाओं पर न्योछावर होता था तो कोई कहता था कि ‘वो जिह्वा जल जाये जो ये कहती है कि ईश्वर अवतार लेता है।’ इसके बाद आर्य समाज जन्मा जो कहता था कि ईश्वर को मूर्ति और चित्र में तलाशना मूर्खता है तो लगभग उसी दौर में महान मूर्तिपूजक रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं का भी प्रचार-प्रसार हो रहा था। हिन्दू समाज ने इनमें से किसी में भी विभेद नहीं किया।

यह हमारा राष्ट्रीय भाव था जो नीचे आते -आते इस तरह हो गया कि एक हिन्दू परिवार में भी एक व्यक्ति आर्यसमाजी हो सकता है, दूसरा सनातनी मूर्तिपूजक हो सकता है, तीसरा सिख हो सकता है तो हो सकता है कि चौथा नास्तिक हो। ये भी हो सकता है कि घर में जो मूर्तिपूजक हैं उनमें एक शक्ति का उपासक है तो दूसरा शैव या वैष्णव है। इसीलिए गदर पार्टी के क्रांतिकारी लाला हरदयाल कहते थे- “यदि एक हिन्दू सनातन धर्म छोड़कर आर्य समाजी बन जाए या देव समाज छोड़कर राधास्वामी पंथ में सम्मिलित हो जाए या सिख संप्रदाय में चला जाए तो राष्ट्रीय-राज-मर्मज्ञ की दृष्टि से कोई हानि नहीं।"

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मैं हिन्दू हूँ तो वेदों को मानूँगा, पुराणों को मानूँगा पर कोई मुझसे ये नहीं कह सकता कि तुम त्रिपिटकों को या गुरुग्रंथ साहिब जी को छोड़ दो या उनको न मानो। इसी तरह जब हमारे यहाँ नए पंथ जन्में तो उनके प्रवर्तकों में से किसी ने भी ये नहीं कहा कि आगम, त्रिपिटक या आदिग्रंथ को स्वीकार करते हो तो रामायण और महाभारत को उठाकर फेंक दो। बंगाल में रामकृष्ण परमहंस को ठाकुर कहते हुए उनकी प्रतिमा का पूजन शुरू हुआ पर उनमें से किसी ने भी काली माँ की पूजा करनी बंद नहीं की। किसी सनातनी परिवार की बिटिया किसी बौद्ध, सिख या जैन के घर में गई तो किसी ने भी ये नहीं कहा कि उसका मतांतरण हुआ है। इसी तरह अगर कोई सिख लड़की या जैन लड़की हिन्दू परिवार में आती है तो कोई नहीं कहता कि उसने धर्म बदल लिया है। मैं हिन्दू हूँ और मंदिर में जाता हूँ पर अगर मुझे गुम्फा, गुरुद्वारे या जैन मंदिरों में भी जाना पड़ा तो भी कभी ये नहीं लगता कि ये पूजा और उपासना स्थल मेरे नहीं हैं।

मैं लगभग प्रतिदिन गुरुबाणी सुनता हूं तो उसे सुनते हुए कोई भी मेरे घर में नहीं कहता कि ये बाणी उसकी अपनी नहीं है और तुमको ये नहीं सुननी चाहिए।

इसका अर्थ ये है कि भारत भूमि के अंदर जन्मे विभिन्न मत-पंथ और संप्रदायों की मान्यताएं आपस में कितनी भी भिन्न क्यों न हो, उनके अंदर कुछ न कुछ तो सांझा अवश्य है जो सभी हिन्दू धर्म के सभी पंथों की धमनियों में समान रूप से प्रवाहित है। हमको ये पहचानना है कि ये योजक तत्व क्या है जो हिन्दू धर्म के अंदर के हरेक मत-मतान्तर में समान है और साँझा है।

सभी को एकात्मता के हिन्दू धागे में पिरोकर रखने वाला ये योजक तत्व है हम सबका ये विश्वास जो कहता है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने ढ़ंग से ईश्वर के किसी भी रूप की उपासना कर सकता है अथवा अगर ईश्वर को नहीं मानना चाहे तो उसकी मर्जी।” हम यानि हिन्दू धर्म के अंदर के तमाम मत-पंथ तो इतने उदार हैं कि हमें किसी की भी महत्ता और अस्तित्व को स्वीकार करने में कभी कोई समस्या ही नहीं होती। हम तो ये मानते हैं कि हरेक पंथ का जन्म किसी न किसी विशेष परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप हुआ है और इसलिए वो अवांछित नहीं है। अगर किसी पंथ में कुछ अलग दिखता भी है तो उसका कारण केवल इतना है कि उस पंथ पर उन परिस्थितियों की छाप है जो उसके बनने के समय थी।

इसी सोच के चलते हिन्दू धर्म के अंदर का कोई भी मत-पंथ कट्टर नहीं हुआ। (अगर कोई हुआ भी तो उसे समग्र समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया)। उन्होंने ये जरूर कहा होगा कि उनका रास्ता अच्छा है पर ये कभी नहीं कहा कि वो और केवल उसका रास्ता ही सही और श्रेष्ठ है और ईश्वर की अनुभूति और साक्षात्कार केवल उनके रास्ते चलकर ही हो सकता है।

लाला हरदयाल ने कहा था- “हिन्दू धर्म में बहुत से पंथ और संप्रदाय हैं और उनके अलग-अलग प्रकार हैं। कोई अद्वैत को मानता है, कोई द्वैत को ही स्तुत्य समझता है। कोई आत्मा को सर्वव्यापी मानता है तो कोई इसका विरोधी है। परंतु हमारे राष्ट्र में सदियों से पूरी धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता रही है। इसी कारण इतने विभिन्न धार्मिक विचार प्रचलित हैं। मानव मस्तिष्क को किसी सिद्धांत के पिंजरे में कानून की सहायता से बंद नहीं किया जा सकता। जिन राष्ट्रों ने धार्मिक सहिष्णुता का उच्च सिद्धांत नहीं सीखा है, वे जरा-जरा से मतभेद के कारण सदाचारी और नेक आदमियों को जीवित जला देते हैं या पत्थरों से मार डालते हैं परन्तु हमारी हिन्दू सभ्यता ऐसे पापों से मुक्त रही है।”

हिंदू भारत की एकसूत्रता, एकबद्धता, एकात्मता और आपसी स्नेह के मूल में यही योजक साँझा तत्व है; जिसने अलग-अलग मत-पंथों यहाँ तक कि नास्तिक विचार वाले को भी सदियों से आपस में हिन्दू धर्म के अंदर जोड़ रखा है।

गर्व करिए इस पर  ।।

(अभिजीत सिंह जी की  पुस्तक  - इनसाइड_द_हिंदू_मॉल का एक अंश)

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