रविवार, 1 जनवरी 2023

उर्मिला 12

 

उर्मिला 12

उर्मिला अपने कक्ष में अनमनी सी थीं, तभी वहाँ लक्ष्मण आये। उनके मुख पर क्रोध और निराशा के मिले जुले भाव थे। कहा, "आपने सुना उर्मिला! भइया वन जा रहे हैं, और उनके साथ भाभी भी जा रही हैं।
उर्मिला ने आश्चर्य से देखा उनकी ओर, फिर कहा, "मुझे भी यही आशा थी। सिया दाय को पाहुन के साथ जाना ही चाहिये था आर्य! यही उनका धर्म है।"
    "पर मैं क्या करूँ उर्मिला, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। मन होता है कि इस षड्यंत्र के विरुद्ध विद्रोह कर दूँ। अयोध्या का एक एक व्यक्ति अपने राम के लिए उठ खड़ा होगा उर्मिला, इस पिशाचिनी की एक न चलेगी। पर भइया ही नहीं मान रहे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा..."
     "कोई सज्जन व्यक्ति अपराध करता दिखे तो उसपर क्रोध नहीं, दया करनी चाहिये आर्य! माता कैकई को तो नियति मार ही रही है, अब कम से कम उनके पुत्र तो उन्हें अपशब्द न कहें। समय रघुकुल की परीक्षा ले रहा है, यह स्वयं को साधने का समय है। शांत होइये और पाहुन का अनुशरण कीजिये।" उर्मिला के मुख पर शान्ति थी।
     "तुमने ठीक कहा उर्मिला! मुझे भइया का ही अनुशरण करना चाहिये। मैं भी यही सोच रहा था। मैं भी उनके साथ ही वन जाऊंगा। पर तुम उर्मिला?"
      "मेरे लिए आप जो आदेश करें नाथ!"
      "मैं कुछ समझ नहीं पा रहा उर्मिला! मैं बस इतना जानता हूँ कि जहां मेरे भइया हों, वहीं होना मेरा धर्म है। पर आपके लिए क्या कहूँ, यह नहीं सूझ रहा। आपही बताइये न! आपको क्या आदेश दूँ?" लक्ष्मण विचलित थे।
       " मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ। आपकी अनुपस्थिति में आपके समस्त कार्यों का दायित्व मेरा है। सच तो यह है कि पाहुन के वन जाने के बाद इस टूटे हुए कुल को सबसे अधिक आपकी आवश्यकता होगी, पर आप भी जा रहे हैं। आप सब के जाने के बाद ना माण्डवी दाय अपराधबोध से मुक्त हो सकेंगी, न छोटे पाहुन स्वयं को क्षमा कर सकेंगे। छोटी माँ के हिस्से तिरस्कार आएगा और बड़ी माँ मंझली माँ के हिस्से लम्बी प्रतीक्षा की पीड़ा आएगी। इस पीड़ित परिवार को चौदह वर्ष तक थाम कर रखना स्वयं में बहुत बड़ी तपस्या होगी। यदि आप आदेश करें तो मैं यही करूंगी।" उर्मिला के मुख पर आत्मविश्वास चमक रहा था।
       "आपने मुझे बहुत बड़े संकट से निकाल दिया उर्मिला! मैं सदैव आपका ऋणी रहूंगा। यह परिवार आपके जिम्मे रहा प्रिये! मैं भइया की सेवा में चलता हूँ।"
       लखन कह कर बाहर निकलने के लिए तेजी से मुड़े, पर दो डेग चल कर ही रुक गए। उनकी आंखें भर आईं। मुड़ कर देखा तो उर्मिला की आंखों से अश्रु बहे जा रहे थे। वे बैठ गए। कुछ पल बाद कहा, "अब तो चौदह वर्ष बाद मिलेंगे उर्मिला! क्या कहूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा।"
      "कुछ न कहिये आर्य! और अगले चौदह वर्षों के लिए भूल जाइए कि आपकी कोई पत्नी भी है। क्षण भर को भी ध्यान पाहुन के चरणों से विचलित न हो। मुझे भूल कर भइया-भाभी की सेवा में लगे रहना आपके हिस्से की तपस्या है और हर क्षण आपको याद रख कर इस परिवार की सेवा मेरी तपस्या। यदि हम सफल हुए तो चौदह वर्षों बाद इस परिवार के हिस्से में आनन्द के क्षण अवश्य आएंगे।"
      "तो चलूँ? मेरा घर संभालना उर्मिला!" लक्ष्मण की आंखें बहने लगी थीं।
      "सुनिये! अपने अश्रु मुझे दे जाइये। मैं स्त्री हूँ, आपके हिस्से का भी मैं ही रो लुंगी।" उर्मिला ने अपने आँचल के कोर से पति की आँख पोंछी और कहा, "जा रहे हैं तो मुस्कुरा कर जाइये प्रिय! ताकि आपकी अनुपस्थिति में आपका मुस्कुराता मुख ही मेरी आँखों मे बसा रहे। भरोसा रखिये, आपकी उर्मिला सब सम्भाल लेगी।"
      लक्ष्मण क्या ही मुस्कुराते, बस पत्नी को गले लगा लिया।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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