*चिन्तन की धारा....*
गाड़ी में चलिए या बस में। हर जगह लिखा रहता है कि ये महिला की सीट है। ये बुजुर्ग की सीट है। ये विकलांग की सीट है। आदि आदि ।
मेरा मानना है कि ये भारतीय तरीका नहीं है। ये ईसाई तरीका है। ईसाई मानसिकता ये मानती है कि मनुष्य में कोई सोच समझ नहीं होती। उसे सब कुछ बताना होता है वरना वह तो अन्याय ही करेगा।
भारत में यह भार हम मनुष्य पर छोड़ देते हैं। हम मनुष्य को मूर्ख नहीं मानते। हम मानते हैं कि उसमें तो इतनी समझ होगी ही कि स्त्री, वृद्ध और विकलांग को देखकर उन्हें अपनी सीट ऑफर कर देगा। इसके लिए हम कहीं कुछ लिखते नहीं बल्कि मनुष्य को ही इस तरह से तैयार करते हैं कि उसे लिखकर बताना न पड़े।
लिखकर बताने में सबसे बड़ा संकट टकराव का पैदा होता है। एक दूसरे का अधिकार बोध टकराता है और मनुष्य से मनुष्य के बीच में संघर्ष निर्मित होता है।
हमारी अधिकांश परंपराओं का आधार मनुष्य के समन्वय पर केन्द्रित हैं। जबकि आधुनिकता के नाम पर जो कुछ लाया जा रहा है वह अधिकार और संघर्ष पर केन्द्रित है।
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Ram
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