उर्मिला 13
यदि महाराज दशरथ केवल राजा होते तो अपने एक बाण से ताड़का जैसी बलशाली राक्षसी का वध करने वाले राम की सुरक्षा को लेकर चिंतित नहीं होते, पर वे राम के पिता भी थे। वह पिता, जो अपने बच्चों को सदैव बच्चा ही समझता रहता है।
महाराज दशरथ के सामने अनेक दुविधाएं थीं। राम जैसे योग्य राजकुमार को राज्य से निष्कासित करना अयोध्या एक राजा के रूप में उनकी पराजय थी, तो अपने हृदय के टुकड़े को वनवास देना एक पिता के रूप में उनकी हार थी। अपनी एक पत्नी के जिद्द के आगे झुक कर शेष दो पत्नियों के दुख का कारण बनना एक पति के रूप में उन्हें तोड़ रहा था, तो जीवन के अंतिम चरण में प्रिय पुत्र के वियोग की आशंका उन्हें किसी बड़े अपराध का दण्ड लग रही थी। अपनी युवावस्था में देवताओं का सहयोग करने की सामर्थ्य रखने वाला योद्धा आज परिस्थितियों के आगे विवश हो कर बच्चों की भांति बिलख रहा था। वे रानी कौशल्या के कक्ष में निढाल से पड़े थे।
तापस वेश में राम आये। उनके पीछे सिया और सबसे पीछे लक्ष्मण। तीनों ने उनके चरण छुए और जाने की आज्ञा मांगी। महाराज दशरथ कुछ बोल नहीं रहे थे। देर तक चुपचाप देखते रहने के बाद बोले- तुम्हारे विवाह के दिन मैंने महाराज जनक को वचन दिया था राम, कि "आज से आपकी बेटियां मेरी बेटियां हैं।" और मेरी यह बेटी मेरे जीवित रहते ही वल्कल वस्त्र पहन कर वन जा रही है? मेरे जीवित रहने का कोई एक कारण भी शेष है अब?
"आपके आशीष की छाया में सिया वन में भी सुखी रहेंगी पिताश्री! आप चिन्ता न करें, आपका राम उन्हें कोई कष्ट नहीं होने देगा। आप हमारी चिन्ता न करें, चौदह वर्ष पश्चात हम इसी तरह खुशी खुशी आ कर आपसे पुनः आशीष प्राप्त करेंगे। आप हमें आज्ञा दें।
दशरथ ने कोई उत्तर नहीं दिया। राम ने बहुत सी बातें कहीं, समझाईं, पर वे जैसे कुछ भी सुन नहीं रहे थे। तीनों ने माता कौसल्या के भी चरण छुए और कक्ष से निकल गए। बाहर मंत्री सुमंत रथ ले कर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
राजा दशरथ ने अपनी ओर से अंतिम उपाय कर लिया था। सुमंत को कहा गया था कि राम को वन में घुमा कर किसी भी तरह वापस बुला लाना है। इस तरह कैकई की वनवास की मांग भी पूरी हो जाएगी और अयोध्या से उसके राम अलग भी नहीं होंगे।
राम का रथ अयोध्या की सड़कों से निकला तो धीरे धीरे अयोध्यावासी भी उनके साथ चलने लगे। रथ के पीछे भीड़ बढ़ती गयी। लग रहा था जैसे समूची अयोध्या ही वन जाने के लिए निकल पड़ी हो। परिस्थितियों ने उन्हें अयोध्या की सत्ता और राम में से किसी एक को चुनने के लिए विवश किया था, यह लोक का अपना चयन था कि हमें राम के पीछे चलना है।
रथ जब अयोध्या नगर की सीमा पर पहुँच गया तो राम ने रथ रुकवाया। पीछे चल रही भीड़ भी थम गई। राम को अपनी ओर मुड़ते देख कर अयोध्यावासी चिल्लाये- हमें स्वयं से दूर न कीजिये युवराज! हमें आपही के साथ रहना है। आप जहाँ रहेंगे, हम वहीं अपनी नई अयोध्या बसा लेंगे। हम अपने राम को नहीं छोड़ सकते..."
राम हाथ जोड़ कर मुस्कुराए और कहा, "सुनिये! मुझपर विश्वास है आपको?"
भीड़ चिल्लाई- हमें केवल और केवल अपने राम पर ही विश्वास है।
"तो विश्वास रखिये! आज से लेकर सृष्टि के अंत तक यह भारत भूमि राम की ही रहेगी। जो राम का होगा वही इस देश का होगा, और जो इस देश से जुड़ेगा वह स्वतः राम का हो जाएगा। मेरे देश की विपत्ति के समय में आप उसका साथ न छोड़ें, यहाँ रह कर भी आप सदैव राम के हृदय में रहेंगे। मैं वचन देता हूँ, चौदह वर्ष पश्चात आपसे पुनः मिलूंगा और हम साथ मिल कर नवयुग का निर्माण करेंगे।" राम ने यह बात कुछ इस तरह कही कि किसी की ओर से आपत्ति नहीं हुई। कौन था जो राम पर अविश्वास करता?
भीड़ ने वहीं भूमि पर माथा टेक लिया। रथ आगे बढ़ चला।
उधर अयोध्या के महल में घनघोर उदासी पसरी हुई थी। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। सब निढाल पड़े हुए थे। महाराज दशरथ के हृदय में बस एक आशा का दीपक जल रहा था कि कहीं सुमंत राम को समझाने में सफल हो जाएं और उन्हें वापस लौटा लाएं।
तीसरे दिन मंत्री सुमंत वापस राजधानी लौटे। महाराज के कक्ष में गए। उन्हें देखते ही दशरथ हड़बड़ा कर उठे और कहा- कहाँ है मेरा राम? वह वापस लौट आया न? बोलो सुमंत, राम लौट आया न?
सुमंत ने सर झुका कर कहा- क्षमा करें महाराज। मैं उन्हें रोक न सका, वे चले गए।
राजा दशरथ ने पूरी शक्ति लगा कर मुट्ठी बांधी ओर एक जोर का मुक्का अपनी छाती पर मारा, जोर से राम का नाम लेकर चिल्लाये और धड़ाम से गिर गए।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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