शनिवार, 14 जनवरी 2023

उर्मिला 14

 

उर्मिला 14
     सुमंत युवराज राम के न लौटने का समाचार दे कर चले गए थे। अयोध्या का वह निष्ठावान प्रधानमंत्री जानता था कि इस घोर विपत्तिकाल में उसे अपने साथ साथ महाराज के दायित्वों का भी निर्वहन करना है। उस महाविद्वान व्यक्ति को यह ज्ञात था कि यदि मंत्री पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों पर डटा रहे तो राष्ट्र बड़ी से बड़ी महामारी से भी सुरक्षित निकल आता है।
      महाराज के कक्ष में उनके साथ उनकी दो पत्नियां और तीनों पुत्रवधुएँ थीं। कैकई के हृदय में उत्पन्न हुए लोभ ने अनायास ही उन्हें शेष परिवार से अलग कर दिया था। मनुष्य समझ नहीं पाता, पर उसका लोभ सबसे पहले उन्हें अपनों से ही दूर करता है।
     राम सिया और लक्ष्मण के वन गमन का दुख उनके हृदय को भी चीर रहा था, पर अतिविह्वल महाराज को देख कर उन्होंने अपनी आंखों को समझा लिया था। सभी मिल कर महाराज को सांत्वना दे रहे थे। कौसल्या बार बार कह रही थीं- "आपके दो पुत्र तो अब भी आपके साथ हैं महाराज! आप की तीन बहुएं आपके साथ हैं। सम्भालिए स्वयं को, और संभालिये इस राज्य को!"
      महाराज ने एक बार सर उठा कर उनकी ओर देखा, फिर सर झुका लिया। जैसे कह रहे हों- मुझे न स्वयं की चिन्ता है न अयोध्या की। मुझे तो केवल और केवल अपने राम की चिन्ता है।
       सुमित्रा उनके भाव समझ गईं। कहा, "राम और लक्ष्मण की व्यर्थ चिन्ता न कीजिये महाराज, इस संसार की कोई भी शक्ति उनका अहित नहीं कर सकती। जो अपने एक बाण से ताड़का जस राक्षसी का अंत कर सकता है उसे कैसा भय? उनकी ओर से आप निश्चिन्त रहें।"
     दशरथ की आंखों से लगातार अश्रु बह रहे थे। वे अब भी भूमि पर ही पड़े हुए थे। उन्होंने कौसल्या की बात पर कोई उत्तर नहीं दिया। कक्ष में फिर शान्ति पसर गयी। माता के षड्यंत्र से आहत माण्डवी अपराधबोध से दबी चुपचाप सर झुकाए बैठी थीं। बोलीं उर्मिला! कहा, "नियति ने हम सभी के भाग्य में वियोग ही दिया है पिताश्री! पर वे लोग जिन्होंने राज का सुख छोड़ कर वनवास की पीड़ा चुनी है, हमें उनके तप का तो सम्मान करना होगा न! उठिए महाराज, आप उन महान पुत्रों के पिता हैं जिन्होंने आपकी प्रतिष्ठा के लिए छन भर में ही अपने सारे अधिकार त्याग दिए। उठिए और सम्भालिए अयोध्या को, ताकि चौदह वर्ष बाद जब वे लौटे तो हम कह सकें कि हमने तुम्हारी थाती सम्भाल कर रखी है। हम कह सकें कि, देखिये! आपकी अयोध्या उतनी ही सुन्दर है, जैसी आप छोड़ गए थे। उठिए पिताश्री! यह हमें ही करना होगा।"
      दशरथ अब बोले! कहा, "उसने स्वयं को बहुत बड़ा सिद्ध कर दिया पुत्री! उसने पिता के सम्मान के लिए बिना कोई प्रश्न किये वनवास स्वीकार कर लिया। वह गया तो उसकी पत्नी भी दुख भोगने चुपचाप चली गयी। साथ ही लक्ष्मण भी बड़े भाई की सेवा के लिए चला गया। सचमुच वे बहुत महान हैं उर्मिला, बहुत महान! वह युग-युगांतर तक इस सभ्यता का महानायक होगा! पर सोचो, मैं तो उनका पिता हूँ न? मेरा भी तो उनके प्रति कुछ दायित्व बनता है?"
      उर्मिला आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगीं। दशरथ के मुख पर मुस्कान तैर उठी। बोले, " उसने मेरी प्रतिष्ठा के लिए राज्य का त्याग किया है, क्या मैं उसकी प्रतिष्ठा के लिए प्राण भी नहीं त्याग सकता? मुझे मरना होगा उर्मिला! दशरथ को पुरुषोत्तम राम के पिता होने की मर्यादा निभानी ही होगी। वे मेरे प्रेम में वन गए, मैं उनके प्रेम में स्वर्ग जाऊंगा। मेरे दिन पूरे हुए महारानी कौसल्या, अब मुझे चलना होगा।"
       सभी घबड़ा उठे, पर दशरथ के मुख पर अब सन्तोष था। कहने लगे- "भयभीत मत होवो!मेरा पुत्र सृष्टि के अंत तक देवता के रूप में पूजा जागेगा। उसकी तपस्या व्यर्थ नहीं जाएगी, संसार उससे प्रेरणा लेगा और जीवन के गुण सीखेगा। वह नर नहीं है, नारायण है। पर मुझे अब चलना होगा... राम के युग में दशरथ की कथा यहीं समाप्त होती है।"
       स्त्रियां चीख उठीं, पर दशरथ की विह्वलता समाप्त हो गयी थी। वे अब उन्हें सांत्वना दे रहे थे।
क्रमशः

(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
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