शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

अहोरात्र

 

   *हमारा भारत - श्रेष्ठ भारत !!*

   भारतीय ज्योतिष में एक शब्द होता है, अहोरात्र ...अर्थात एक दिन और एक रात यानि कि 24 घण्टे । इस अहोरात्र में से अपभ्रंश (किसी शब्द का बिगड़ा हुआ रूप) होकर के शब्द बना - होरा।  जो कि अहोरात्र में से अ और त्र के हटने से बना । एक दिन में 24 होरा होती थीं और ये वो समय होता था, जिसमें पृथ्वी 15 डिग्री घूम जाती है । इस प्रकार 24 होरा में पृथ्वी 360 अंश घूम जाती है। इसी होरा, यानि कि पृथ्वी के घूमने के समय के अध्ययन को ज्योतिष में 'होराशास्त्र' कहते हैं ।
अभिनंदन शर्मा जी कल रात को फ़िल्म देख रहे थे, पाइरेट्स ऑफ केरेबियन, पांचवां भाग । उसमें एक शब्द आया - होरोलॉजिस्ट ।उन्होंने  गूगल किया तो पता चला कि समय के अध्ययन करने वाले को, घण्टे के अध्ययन करने वाले को और घड़ियों का अध्ययन (समय) करने वाले को होरोलॉजिस्ट कहते हैं । ये होरोलॉजिस्ट शब्द कहाँ से आया, अब ये आपको बताने की आवश्यकता नहीं है । पर इसी होरा से एक शब्द और निकल कर आया, जो होरा के अपभ्रंश से बना और वो है - hour यानि 1 घण्टे का समय।  एक दिन में 24 pहोरा होती हैं और एक दिन में 24 घण्टे होते हैं ।  हमारे यहां होरा, अर्थात जितने समय मे पृथ्वी 15 अंश घूम जाये पर अंग्रेजों का hour यदि अलग और स्वतंत्र टर्म है तो कोई बताये कि 1 घण्टे का समय किस आधार पर लिया गया ? और पश्चिमी विज्ञान द्वारा, 1 दिन में 24 घंटे होने का क्या आधार है ?

ज्यादा विज्ञान विज्ञान न किया करें, सारा पश्चिमी विज्ञान, भारतीय विज्ञान के पेट से ही निकल कर गया है । बस फर्क इतना है कि उन्होंने पूरी दुनिया पर राज किया सो हर देश के विज्ञान को जल्दी कॉपी कर पाये और सब देशों को लूटा सो मशीनों पर इन्वेस्ट कर पाये। इसलिये भारतीय विज्ञान को कमजोर और पुरातन समझने की भूल न करें ।

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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

मुफ्त मुफ्त मुफ्त

 

कुमार सतीश जी बतलाते है कि जब मैं बच्चा था तो मम्मी मुझे डराने के लिए कहती थी.... गर्मी के दोपहर में बाहर खेलने मत जाया करो...
क्योंकि, बाहर में लकडसुंघा घूमते रहते हैं.

वो तुम्हें .... किसी गिफ्ट (चॉकलेट आदि) का लालच देकर तुम्हें एक लकड़ी सुंघा कर बेहोश कर देंगे और फिर बोरे में भर कर लेकर भाग जाएंगे.

तो.... उस समय मेरे मन में लकडसुंघा की जो काल्पनिक छवि उभरती थी.... वो होती थी कि...

एक बूढ़ा आदमी अपने एक कंधे पर बोरा/बड़ा सा झोला टांगा हुआ है और वो बच्चों को गिफ्ट बांट रहा है.

समझ लो कि... ठीक अपने संता भैया की ही छवि उभरती थी.

ये तो बहुत बाद में पता लगा कि.... ये लकडसुंघा करके कोई नहीं होता है और वो मम्मी सिर्फ हमें डराने के लिए ही बोलती थी...!

साथ में ये भी पता चला कि.... भले ही लकडसुंघा एक काल्पनिक पात्र है... लेकिन, समाज में फ्रॉड तो होता ही है.

जैसे कि...
अभी हाल फिलहाल में ही ऑनलाइन फ्रॉड की घटनाओं में काफी वृद्धि देखने को मिल रही है.

फ्रॉड भी ऐसा ऐसा कि सर घूम जाए.

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उदाहरण के लिए ...

हम सब जानते हैं कि.... किसी को अपने बैंक का डिटेल , क्रेडिट/डेबिट कार्ड का नंबर , पासवर्ड आदि नहीं देना चाहिए क्योंकि वो ऑनलाइन फ्रॉड होता है.

लेकिन, अब फ्रॉड का एक नया चलन आया है.

जिसमें... एक आदमी आपके घर कोई पार्सल डिलीवरी देने को आता है...!

लेकिन, चूँकि... आपने ऐसा कोई आर्डर नहीं किया होता है तो आप वो पार्सल डिलीवरी देने से मना कर देते हैं.

फिर, वो डिलीवरी बॉय कहता है कि... सर, अगर आप पार्सल नहीं लेना चाहते हैं तो फिर इस आर्डर को कैंसिल करना होगा.

लेकिन, जब आपने आर्डर ही नहीं किया है तो भला आप उसे कैंसिल कैसे करेंगे.

फिर, डिलीवरी बॉय खुद अपने मोबाइल से आर्डर कैंसिल करने का एक उपक्रम करता है और उस प्रोसेस को पूरा करने के लिए आपके मोबाइल में आया OTP मांगता है.

असल में वो पासवर्ड ... किसी आर्डर कैंसिलेशन का नहीं बल्कि आपके बैंक के ट्रांसेजक्शन को कंप्लीट करने का OTP होता है.

इसीलिए, इधर आपने उसे वो OTP दिया और उधर आपके बैंक एकाउंट से पैसा निकाल लिया जाता है.

तथा... ऐसे फ्रॉड सिर्फ आजकल नहीं हो रहे हैं बल्कि आज से पहले भी जब ऑनलाइन का जमाना नहीं था तो ऐसे फ्रॉड देखने को आते थे कि आपको एक भारी सा पार्सल आ जाता था (TO PAY के रूप में)

आप उसे किसी का भेजा हुआ गिफ्ट समझ कर वो पार्सल छुड़वा लेते थे.

बाद में पार्सल खोलने पर पता लगता था कि अरे यार.... आपको तो चूसिया बनाया गया है... क्योंकि, पार्सल के नाम पर ईंट-पत्थर या लकड़ी के टुकड़े भेज कर आपसे मोटी रकम वसूल कर ली गई है..!

तो, कहने का मतलब है कि.... धोखाधड़ी कोई नई बात नहीं बल्कि जब से इंसानों में बुद्धि का विकास हुआ है... धोखाधड़ी तब से चली आ रही है.

क्योंकि... गिफ्ट के नाम पर धोखाधड़ी करना एक बहुत पुरानी समस्या है.

अंतर सिर्फ ये है कि.... गिफ्ट के नाम पर हाल फिलहाल में धोखाधड़ी पैसों की जाती है..

जबकि, पहले ये धोखाधड़ी ... संता भैया द्वारा मजहब की... की जाती थी.

महजब की धोखाधड़ी का मतलब ये है कि.... पार्सल के रूप में आप को पैकेट में कंकड़-पत्थर वाला मजहब पकड़ा दिया जाता था... और, आपसे आपके शुद्ध स्वर्णिम धर्म को ले लिया जाता था.

खैर...

चूँकि... पार्सल और OTP के द्वारा धोखाधड़ी की ये परंपरा बेहद पुरानी है.

इसीलिए.... ऐसे कोई भी लोग ... जो आपको मुफ्त में गिफ्ट दे अथवा गिफ्ट देने का लालच दे कि.... "हम आएंगे और तुम्हारे लिए गिफ्ट लाएंगे" से बेहद सावधान रहने की जरूरत है.

क्योंकि, उस तथाकथित मुफ्त की कीमत.... आपके धर्म से लेकर, परंपरा और सभ्यता-संस्कृति तक हो सकती है.

इसीलिए... जागरूक रहें.. सुरक्षित रहें... एवं, डंडा थैरेपी से ऐसे मुफ्त के गिफ्टिये का इलाज करते रहें...!

क्योंकि, लकडसुंघा भले ही काल्पनिक हो...
लेकिन, फ्री गिफ्ट के नाम पर धोखाधड़ी करते दिखते ये सब कोई कल्पना नहीं है.

सोमवार, 19 दिसंबर 2022

बहुमूल्य रत्न

 

*चिंतन की धारा.....*

 
परिचित पंकज झा जी के एक प्रसंग प्रस्तुतिकरण ने मन मोह लिया, थोड़े में बहुत कह दिया , चिंतन को दिशा देने वाला !!
उन्होंने बताया - मेरा थोड़ा-बहुत विश्वास ज्योतिष विद्या में है। स्वर्णिम समय था  यह विद्या सीखने का, पर चूक गए ।  वर्तमनातः इससे जुड़ा एक सुंदर प्रसंग।

एक विद्वान मित्र हैं अपने। हर विधा के विधायक अर्थात् पारंगत। शायद ही कोई विषय हो जिस पर वे साधिकार बात नहीं करते हों। मूलतः पेशातः वे पत्रकार ही हैं। तो पिछले दिनों जिज्ञासावश अपन ने भी अपने जन्म से संबंधित विवरण उन्हें भेज दिया। देर रात फोन आया। उन्होंने अनेक विश्लेषण के उपरांत दो उपाय बताये।

पहला - मां समान किसी स्त्री की सेवा सम्पूर्ण भक्ति भाव से करें। वे प्रसन्न होंगी तो अधिक और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। दूसरा - नीलम समान ‘नीली’ छः रत्ती मध्यमा अंगुली में धारण करना है। इन उपायों के बाद और कुछ करने की आवश्यकता नहीं।

अपन ने पूछा उनसे कि ‘नीलम समान’ का मंतव्य तो समझा कि वह अपेक्षाकृत काफी सस्ता और सुलभ होगा तो असली नहीं भी पहनें तो चलेगा। साथ ही इस जेम्स के कुछ दुष्प्रभाव भी संभावित होते हैं इसलिए ‘प्रतिकृति’ पहनना प्रथमतः उचित। किंतु …

किंतु क्या मां समान के बजाय ‘माँ’ ही हों तो कोई समस्या है? क्या यहां भी ‘नीलम-नीली’ विषय प्रासंगिक है? उन्होंने कहा कि बिल्कुल नहीं! कदापि नहीं। कथमपि नहीं। क्वचिदपि ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि एकल परिवार के इस युग में क्योंकि यह अंडरस्टुड है कि ‘मां-पिता’ के संग नहीं होंगे, इसलिए मां समान स्त्री की पूजा को कहा। अन्यथा मां की पूजा हो, फिर और क्या चाहिये भला? फिर तो नीलम-नीली झंझट की भी आवश्यकता अधिक नहीं। शनि फिर क्या बिगाड़ सकते किसी जातक का भला? आदि अनादि।

मुझे स्मरण हो आया रामायण का प्रसंग। स्वायंभुव मनु और सतरूपा ने भगवान विष्णु की तपस्या की। प्रसन्न होने पर भगवान से यह मांगा कि ‘उन्हीं के समान’ पुत्र हो दंपत्ति को। राजीव नयन ने कहा  - आपु सरिस खोजौं कहँ जाई, नृप तव तनय होब मैं आई! अर्थात् अपने समान मैं कहां खोजने जाऊंगा भला, मैं स्वयं आपके पुत्र के रूप में आऊंगा।

आगे की कथा तो मानवता जानती ही है। श्रीराम का जन्म और मर्यादा की पुनर्स्थापना तक का प्रसंग….. हालांकि पुत्रों के कुपुत्र होने की तो अब श्रृंखला है, पर क्वचिदपि कुमाता न भवति की शास्त्रोक्त आश्वासन आज तक निरंतर और अनवरत कायम है। तो मां समान खोजने के बजाय माँ ही हों तो क्या सर्वोत्तम नहीं होगा? है न?

बड़ी संख्या में समाज में ऐसे ज्योतिषियों की आवश्यकता है जो ऐसे उपाय अवश्य बतायें जातक को कि ग्रह शांति चाहिये तो नीलम भले न पहन पायें, सोने में नीली भी पहनना छोड़ दें… पर मातृ सेवा मात्रानाम नीलम धारण फल लभेत!  🙏
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रविवार, 18 दिसंबर 2022

सही सोच

 

साक्षात्कार चल रहा था !

नोकरी बड़ी अच्छी और अच्छे वेतन वाली थी साक्षात्कार में कई युवक आये हुए थे !

सभी युवक अच्छे पढ़े लिखे एवं सुसंस्कृत थे !

चपरासी ने आकर पहले युवक को आवाज लगाई !

युवक अपनी फ़ाइल ले कर चेम्बर में घुसा और बोला में आई कमिंग सर ?

साक्षात्कार लेने वाले ने कहा "यस" थैंक यू कहकर युवक अंदर चला गया और सामने वाली कुर्सी पर बेठ गया !

साक्षात्कार लेने वाले उसकी फ़ाइल देखीं वैरी गुड कह पुछा :

"एक बात बताइये आप कही जा रहे है
आपकी कार टू सीटर है!
आगे चलने पर एक बस स्टैंड पर आपने देखा कि तीन व्यक्ति बस के इंतजार में खड़े है!

उन में से एक वृद्धा जो कि करीब ९० वर्ष की है
तथा बीमार है अगर उसे अस्पताल नहीं पहुचाया गया तो इलाज न मिल सकने के कारण मर भी सकती है!

दूसरा आपका एक बहुत ही पक्का मित्र है जिसने आपकी एक समय बहुत मदद कि थी
जिसके कारण आप आज का दिन देख रहे है!

तीसरा इंसान एक बहुत ही खूबसूरत युवती है जिसे आप बेहद प्रेम करते है जो आपकी ड्रीम गर्ल है

अब आप उन तीनो में से किसे लिफ्ट देंगे आपकी कार में केवल एक ही व्यक्ति आ सकता है !

युवक ने एक पल सोचा फिर जवाब दिया" सर में अपनी ड्रीम गर्ल को लिफ्ट दूंगा "

साक्षात्कार लेने वाले पुछा क्या ये ना इंसाफी नहीं है ?

युवक बोला नो सर वृद्धा तो आज नहीं तो कल मर जायेगी।

दोस्त को में फिर भी मिल सकता हूँ पर अगर मेरी ड्रीम गर्ल एक बार चली गई तो फिर में उससे दुबारा कभी नहीं मिल सकूंगा !

साक्षात्कार लेने वाले ने मुस्कुरा कर कहा वेरी गुड में तुम्हारी साफ साफ बात सुन कर प्रभावित हुआ अब आप जा सकते है !

थैंक यू कहकर युवक बाहर निकल गया !

साक्षात्कार लेने वाले ने दूसरे प्रत्याशी को बुलाने के लिए चपरासी को कहा!

साक्षात्कार लेने वाले ने सभी प्रत्याशिओं से उपरोक्त प्रश्न को पुछा विभिन्न प्रत्याशियों ने विभिन्न उत्तर दिए !

किसी ने वृद्धा को लिफ्ट देने किसी ने दोस्त को लिफ्ट देने कि बात कही !

जब एक प्रत्याशी से ये ही प्रश्न पुछा तो उसने उत्तर दिया

"सर में अपनी कार कि चाबी अपने दोस्त को दूंगा और उससे कहूंगा कि वो मेरी कार में वृद्धा को लेकर उसे अस्पताल छोड़ता हुआ अपने घर चला जाये !

में उससे अपनी कार बाद में ले लूंगा और स्वयं अपनी ड्रीम गर्ल के साथ बस में बैठ क़र चला जाऊँगा !

साक्षत्कार करने वाले ने उठ क़र उस से हाथ मिलाया और कहा यू आर सलेक्टेड!
थैंक यू सर कह क़र युवक मुस्कुराता हुआ बाहर आ गया !

साक्षत्कार समाप्त हो   चुका था !
~~

जीवन में अपने कर्म , अपनी कार्यस्थली को सहेजते हुवे भी पारिवारिक दायित्व के साथ समाज - राष्ट्र के कर्तव्यों का पालन होता रहे, ऐसी सोच विकसित करते रहें, सहजता से सकारात्मक होते रहें । 

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शनिवार, 17 दिसंबर 2022

अमर सिंह राठौड़

 कथा में प्रेरणा हो, सुखद है । पर ऐतिहासिक प्रेरक प्रसंग हो, तो अपने स्वर्णिम इतिहास पर गर्वित होने, सबक लेने के कारण बन जाते हैं । हमारा गौरवशाली अतीत हमारी आंखों में उतर आए, सीना चौड़ा होने की बातें हों, तो कौन भारतीय भला प्रेरित न हो !!

~~~

मुग़ल बादशाह शाहजहाँ लाल किले में तख्त-ए-ताऊस पर बैठा हुआ था ।

दरबार का अपना सम्मोहन होता है और इस सम्मोहन को राजपूत वीर अमर सिंह राठौड़ ने अपनी पद चापों से भंग कर दिया । अमर सिंह राठौड़ शाहजहां के तख्त की तरफ आगे बढ़ रहे थे । तभी मुगलों के सेनापति सलावत खां ने उन्हें रोक दिया ।


सलावत खां - ठहर जाओ अमर सिंह जी, आप 8 दिन की छुट्टी पर गए थे और आज 16वें दिन तशरीफ़ लाए हैं ।


अमर सिंह - मैं राजा हूँ । मेरे पास रियासत है, फौज है, मैं किसी का गुलाम नहीं ।


सलावत खां - आप राजा थे ।अब सिर्फ आप हमारे सेनापति हैं, आप मेरे मातहत हैं । आप पर जुर्माना लगाया जाता है । शाम तक जुर्माने के सात लाख रुपए भिजवा दीजिएगा ।


अमर सिंह - अगर मैं जुर्माना ना दूँ  !!


सलावत खां- (तख्त की तरफ देखते हुए) हुज़ूर, ये काफि़र आपके सामने हुकूम उदूली कर रहा है ।


अमर सिंह के कानों ने काफि़र शब्द सुना । उनका हाथ तलवार की मूंठ पर गया, तलवार बिजली की तरह निकली और सलावत खां की गर्दन पर गिरी ।


मुगलों के सेनापति सलावत खां का सिर जमीन पर आ गिरा । अकड़ कर बैठा सलावत खां का धड़ धम्म से नीचे गिर गया । दरबार में हड़कंप मच गया । वज़ीर फ़ौरन हरकत में आया और शाहजहां का हाथ पकड़कर उन्हें सीधे तख्त-ए-ताऊस के पीछे मौजूद कोठरीनुमा कमरे में ले गया । उसी कमरे में दुबक कर वहां मौजूद खिड़की की दरार से वज़ीर और बादशाह दरबार का मंज़र देखने लगे ।


दरबार की हिफ़ाज़त में तैनात ढाई सौ सिपाहियों का पूरा दस्ता अमर सिंह पर टूट पड़ा था । देखते ही देखते अमर सिंह ने शेर की तरह सारे भेड़ियों का सफ़ाया कर दिया ।


बादशाह - हमारी 300 की फौज का सफ़ाया हो गया्, या खुदा ।


वज़ीर - जी जहाँपनाह ।


बादशाह - अमर सिंह बहुत बहादुर है, उसे किसी तरह समझा बुझाकर ले आओ । कहना, हमने माफ किया ।


वज़ीर - जी जहाँपनाह ।


हुजूर, लेकिन आँखों पर यक़ीन नहीं होता । समझ में नहीं आता, अगर हिंदू इतना बहादुर है तो फिर गुलाम कैसे हो गया ?


बादशाह - सवाल वाजिब है, जवाब कल पता चल जाएगा ।


अगले दिन फिर बादशाह का दरबार सजा ।


शाहजहां - अमर सिंह का कुछ पता चला ।


वजीर- नहीं जहाँपनाह, अमर सिंह के पास जाने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता है।


शाहजहां - क्या कोई नहीं है जो अमर सिंह को यहां ला सके ?


दरबार में अफ़ग़ानी, ईरानी, तुर्की, बड़े बड़े रुस्तम -ए- जमां मौजूद थे, लेकिन कल अमर सिंह के शौर्य को देखकर सबकी हिम्मत जवाब दे रही थी।


आखिर में एक राजपूत वीर आगे बढ़ा, नाम था अर्जुन सिंह।


अर्जुन सिंह - हुज़ूर आप हुक्म दें, मैं अभी अमर सिंह को ले आता हूँ।


बादशाह ने वज़ीर को अपने पास बुलाया और कान में कहा, यही तुम्हारे कल के सवाल का जवाब है।


हिंदू बहादुर है लेकिन वह इसीलिए गुलाम हुआ। देखो, यही वजह है।


अर्जुन सिंह अमर सिंह के रिश्तेदार थे। अर्जुन सिंह ने अमर सिंह को धोखा देकर उनकी हत्या कर दी। अमर सिंह नहीं रहे लेकिन उनका स्वाभिमान इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में प्रकाशित है। इतिहास में ऐसी बहुत सी कथाएँ हैं जिनसे सबक़ लेना आज भी बाकी है ।


*~शाहजहाँ के दरबारी, इतिहासकार और यात्री अब्दुल हमीद लाहौरी की किताब बादशाहनामा से ली गईं ऐतिहासिक कथा।*




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DND

 *सामान्य जानकारियां...*


क्या आप भी अनचाहे कॉल्स से परेशान हैं? क्या आपके नंबर DND में रजिस्टर होने के बावजूद भी आपके नंबर पर कमर्शियल कॉल्स आते हैं? यदि हां तो आज ही TRAI DND की सरकारी App को डाउनलोड करें, यह UCC (Unwanted Commercial Calls) को रिपोर्ट करने का अब तक की सबसे आसान तरीका है, जैसे  कॉल रिसीव कीजिए (रिसीव करना अनिवार्य है यदि आप छुटकारा चाहते हैं तो) और तुरंत TRAI DND App खोल कर उसमे कॉल्स में जा कर बस एक क्लिक पर रिपोर्ट दर्ज करवा दीजिए, SMS के लिए भी ठीक वैसा ही करना है, जैसे ही आप कॉल्स या एसएमएस पर क्लिक करेंगे आपको कॉल्स और एसएमएस की लिस्ट मिल जायेगी, जिसे रिपोर्ट करना है कर दीजिए 


नितिन जी के फोन पर DND होने के बावजूद अचानक UCC आने लगे, GM तक को हड़का दिया, लीगल नोटिस भी भेज दिया लेकिन कोई फायदा नही हुआ, लेकिन जैसे ही इस एप्प पर रिपोर्ट करना शुरू किया सिर्फ 3 दिन में सन्नाटा छा गया, अब कोई UCC नही आता, शानदार एप्प है, आप सब भी इस्तेमाल कीजिए । गलत app download ना कर लें इसलिए app के SS साथ में लगा रहा हूं ।

सोमवार, 12 दिसंबर 2022

जब तक हैं जां

 एक बार दिल्ली से गोवा की उड़ान में एक सरदारजी मिले। साथ में उनकी सरदारनी भी थीं। 

सरदारजी की उम्र करीब 80 साल रही होगी। मैंने पूछा नहीं लेकिन सरदारनी भी 75 पार ही रही होंगी। उम्र के सहज प्रभाव को छोड़ दें, तो दोनों फिट थे।

सरदारनी खिड़की की ओर बैठी थीं, सरदारजी बीच में और सबसे किनारे वाली सीट मेरी थी।

उड़ान भरने के साथ ही सरदारनी ने कुछ खाने का सामान निकाला और सरदारजी की ओर किया। सरदार जी कांपते हाथों से धीरे-धीरे खाने लगे।

सरदार जी ने कोई जूस लिया था। खाना खाने के बाद जब उन्होंने जूस की बोतल के ढक्कन को खोलना शुरू किया तो ढक्कन खुले ही नहीं। सरदारजी कांपते हाथों से उसे खोलने की कोशिश कर रहे थे।

मैं लगातार उनकी ओर देख रहा था। मुझे लगा कि ढक्कन खोलने में उन्हें मुश्किल आ रही है तो मैंने कहा कि लाइए, मैं खोल देता हूं।

सरदारजी ने मेरी ओर देखा, फिर मुस्कुराते हुए कहने लगे कि बेटा ढक्कन तो मुझे ही खोलना होगा।

मैंने कुछ पूछा नहीं, लेकिन सवाल भरी निगाहों से उनकी ओर देखा।

सरदारजी ने कहा, बेटाजी, आज तो आप खोल देंगे। लेकिन अगली बार कौन खोलेगा? इसलिए मुझे खुद खोलना आना चाहिए। सरदारनी भी सरदारजी की ओर देख रही थीं। जूस की बोतल का ढक्कन उनसे भी नहीं खुला था। पर सरदारजी लगे रहे और बहुत बार कोशिश करके उन्होंने ढक्कन खोल ही दिया। दोनों आराम से जूस पी रहे थे।

कल मुझे दिल्ली से गोवा की उड़ान में ज़िंदगी का एक सबक मिला।

सरदारजी ने मुझे बताया कि उन्होंने ये नियम बना रखा है कि अपना हर काम वो खुद करेंगे। घर में बच्चे हैं, भरा पूरा परिवार है। सब साथ ही रहते हैं। पर अपनी रोज़ की ज़रूरत के लिए सरदारजी सिर्फ सरदारनी की मदद लेते हैं, बाकी किसी की नहीं। वो दोनों एक दूसरे की ज़रूरतों को समझते हैं।

सरदारजी ने मुझसे कहा कि जितना संभव हो, अपना काम खुद करना चाहिए। एक बार अगर काम करना छोड़ दूंगा, दूसरों पर निर्भर होऊंगा, तो समझो बेटा कि बिस्तर पर ही पड़ जाऊंगा। फिर मन हमेशा यही कहेगा कि ये काम इससे करा लूं, वो काम उससे। फिर तो चलने के लिए भी दूसरों का सहारा लेना पड़ेगा। अभी चलने में पांव कांपते हैं, खाने में भी हाथ कांपते हैं, पर जब तक आत्मनिर्भर रह सको, रहना चाहिए।

हम गोवा जा रहे हैं, दो दिन वहीं रहेंगे। हम महीने में एक दो बार ऐसे ही घूमने निकल जाते हैं। बेटे-बहू कहते हैं कि अकेले मुश्किल होगी, पर उन्हें कौन समझाए कि मुश्किल तो तब होगी, जब हम घूमना-फिरना बंद करके खुद को घर में कैद कर लेंगे। पूरी ज़िंदगी खूब काम किया। अब सब बेटों को दे कर अपने लिए महीने के पैसे तय कर रखे हैं और हम दोनों उसी में आराम से घूमते हैं।

जहां जाना होता है एजेंट टिकट बुक करा देते हैं, एयरपोर्ट पर टैक्सी आ जाती है, होटल में कोई तकलीफ होनी नहीं है। स्वास्थ्य एकदम ठीक है। कभी-कभी जूस की बोतल ही नहीं खुलती। पर थोड़ा दम लगाता हूं तो वो भी खुल ही जाती है।

तय किया था कि इस बार की उड़ान में लैपटॉप पर एक पूरी फिल्म देख लूंगा। पर यहां तो मैं जीवन की फिल्म देख रहा था। एक ऐसी फिल्म जिसमें जीवन जीने का संदेश छिपा था।

“जब तक हो सके, आत्मनिर्भर होना चाहिए।”...



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रविवार, 11 दिसंबर 2022

उर्मिला ११

 

उर्मिला 11

राम कक्ष से निकलने के लिए उठे तो देखा, पिता ने उनका उत्तरीय पकड़ लिया था। वे उनकी ओर मुड़े तो बोले- "न जाओ राम! इस कुलघातिनी के कारण मुझे न त्यागो पुत्र!"
    राम फिर पिता के चरणों मे बैठ गए। कहा, "माता को दोष न दें पिताश्री! नियति ने जो तय किया है, हम उसे बदल नहीं सकते। और आपका प्रिय राम यदि आपके एक वचन का निर्वाह भी नहीं कर सके तो धिक्कार है उसके होने पर... मुझे जाना ही होगा।"
   "नहीं पुत्र! तुम चले गए तो मेरा क्या होगा? इस अयोध्या का क्या होगा? इस बृद्धावस्था में पुत्र का वियोग नहीं सह सकूंगा मैं! मुझ पर दया करो राम, मत जाओ..."
    "मैं यदि वन नहीं गया तो भविष्य यही कहेगा कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ अपने पुत्र को इस योग्य भी नहीं बना सके कि वह पिता की प्रतिष्ठा का मूल्य समझ सकता। आपकी प्रतिष्ठा के लिए राम असंख्य बार अपने प्राणों की आहुति दे सकता है, यह वनवास तो अत्यंत सहज है पिताश्री। आप चिंतित न हों, और मुझे आज्ञा दें।"
    मैं तुम्हे आज्ञा नहीं दे सकता प्रिय! तुम्हारा बनवास तुम्हारे पिता की इच्छा नहीं है, बल्कि इस मतिशून्य कैकई का षड्यंत्र है। तुम्हारा जाना आवश्यक नहीं है।"
    " माता को दिए गए आपके वचन का मूल्य मैं खूब समझता हूँ पिताश्री! वह पूर्ण होना ही चाहिये। यदि अयोध्या का युवराज ही पिता के वचन की अवहेलना करने लगे, तो सामान्य जन सम्बन्धों का सम्मान करना ही भूल जाएंगे। इस संस्कृति का नाश हो जाएगा पिताश्री! मेरा वनवास इस युग के लिए आवश्यक है, मुझे जाने दीजिये।"
    "तुम चले गए तो यह राजकुल बिखर जाएगा पुत्र! यह परिवार इस भीषण विपत्ति को सह नहीं पायेगा। चौदह वर्ष बाद जब तुम लौटोगे तो यहाँ उदास खंडहरों के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। मत जाओ पुत्र, मत जाओ..."
    "कठोर होइये पिताश्री! आप अयोध्यानरेश हैं। आपके समान तपस्वी सम्राट के पुत्र को यदि लम्बी वन यात्रा करनी पड़ रही है, तो यह यात्रा अशुभ के लिए नहीं बल्कि शुभ के लिए ही होगी। सज्जनों के समक्ष आने वाली विपत्ति वस्तुतः किसी अन्य बड़ी उपलब्धि के द्वार खोलने आती है। कौन जाने, नियति इस बहाने कौन सा धर्म काज कराना चाहती है! और इस परिवार को बांध कर रखने के लिए आप हैं, मेरा भरत है, मेरी माताएं हैं... मुझे स्वयं से अधिक अपने प्रिय अनुजों पर भरोसा है पिताश्री, वे मेरी अनुपस्थिति में अयोध्या को थाम लेंगे। कुछ नहीं बिखरेगा, सब बना रहेगा!"
      दशरथ समझ गए कि राम नहीं मानेंगे। उनकी आंखें लगातार बह रही थीं। वे चुप हो गए। राम ने उनके चरणों में शीश नवाया, फिर माता कैकई के पैर पड़े और कक्ष से निकल गए।
      राम को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा करनी थी, सो वे अपने सभी बड़ों से मिल कर आशीर्वाद लेने लगे। वे जानते थे, माता-पिता के सम्मान के लिए स्वीकार की गई विपत्ति भी संतान का अहित नहीं करती, बल्कि अंततः लाभ ही देती है। वे यह भी जानते थे कि जबतक कोई युवराज सामान्य नागरिक की भांति अपने समूचे देश का भ्रमण न कर ले, वह कभी भी अच्छा शासक नहीं बन सकता। लोक का नायक बनने के लिए पहले लोक को ढंग से समझना पड़ता है, उसका हिस्सा बनना पड़ता है। राम अपनी उसी यात्रा पर निकल रहे थे।
       राम जब अपने कक्ष में पहुँचे तो सिया ने पूछा, "विवाह का पहला वचन स्मरण है प्रभु? तनिक बताइये तो, क्या था?"
      "स्मरण है सिया! यही कि अपने जीवन के समस्त धर्मकार्यों में मैं तुम्हे अपने साथ रखूंगा। तुम्हारे बिना कोई अनुष्ठान नहीं करूंगा।"
     "फिर इस तीर्थयात्रा में अकेले कैसे निकल रहे हैं प्रभु? यह तप क्या अकेले ही करेंगे?" सिया के अधरों पर एक शांत मुस्कान पसरी थी।
      राम भी मुस्कुरा उठे। कहा, "आपके बिना तो कोई यात्रा सम्भव नहीं देवी। चलिये, चौदह वर्ष की इस महायात्रा के कँटीले पथ पर अपने चरणों के रक्त से सभ्यता के सूत्र लिखते हैं। पीड़ा के पथ पर जबतक सिया संगीनी न हों तबतक किसी राम की यात्रा पूरी नहीं होती।"
     दोनों मुस्कुरा उठे। उस मुस्कान में प्रेम था, केवल प्रेम...

क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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सोमवार, 5 दिसंबर 2022

संघर्ष ही जीवन

 

चिन्तन की धारा
गिद्ध की प्रजाति का एक पक्षी है । वह अंडे देने के लिए किसी ऊंचे पर्वत की चोटी पर चला जाता है। जोड़ा वहीं अंडे देता है, मादा अंडों को सेती है, और एक दिन बच्चे अंडा तोड़ कर बाहर निकलते हैं। उसके अगले दिन सारे बच्चे घोसले से निकलते और नीचे गिर पड़ते हैं। एक दिन के बच्चे हजारों फिट की ऊंचाई से गिरते हैं। नर-मादा इस समय सिवाय चुपचाप देखते रहने के और कुछ नहीं कर सकते, वे बस देखते रहते हैं।
    बच्चे पत्थरों से टकराते हुए गिरते हैं। कुछ ऊपर ही टकरा कर मर जाते हैं, कुछ नीचे गिर कर मर जाते हैं। उन्ही में से कुछ होते हैं जो एक दो बार टकराने के बाद पंखों पर जोर लगाते हैं और नीचे पहुँचने के पहले पंख फड़फड़ा कर स्वयं को रोक लेते हैं। बस वे ही बच जाते हैं। बचने वालों की संख्या दस में से अधिकतम दो ही होती है।
    अब आप उस पक्षी के जीवन का संघर्ष देखिये! जन्म लेने के बाद उनके दस में से आठ बच्चे उनके सामने दुर्घटना का शिकार हो कर मर जाते हैं, पर उनकी प्रजाति बीस प्रतिशत जीवन दर के बावजूद करोड़ों वर्षों से जी रही है। संघर्ष इसको कहते हैं।
     एक और मजेदार उदाहरण है। जंगल का राजा कहे जाने वाला शेर शिकार के लिए किए गए अपने 75% आक्रमणों में असफल हो जाता है। मतलब वह सौ में 75 बार फेल होता है। अब आप इससे अपने जीवन की तुलना कीजिये, क्या हम 75% फेल्योर झेल पाते हैं? नहीं! इतनी असफलता तो मनुष्य को अवसाद में धकेल देती है। पर शेर अवसाद में नहीं जाता है। वह 25% मार्क्स के साथ ही जंगल का राजा है।
     इसी घटना को दूसरे एंगल से देखिये! शेर अपने 75% आक्रमणों में असफल हो जाता है, इसका सीधा अर्थ है कि हिरण 75% हमलों में खुद को बचा ले जाते हैं। जंगल का सबसे मासूम पशु शेर जैसे बर्बर और प्रबल शत्रु को बार बार पराजित करता है और तभी लाखों वर्षों से जी रहा है। उसका शत्रु केवल शेर ही नहीं है, बल्कि बाघ, चीता, तेंदुआ आदि पशुओं के अलावे मनुष्य भी उसका शत्रु है और सब उसे मारना ही चाहते हैं। फिर भी वह बना हुआ है। कैसे?
      वह जी रहा है, क्योंकि वह जीना चाहता है। हिरणों का झुंड रोज ही अपने सामने अपने कुछ साथियों को मार दिए जाते देखते हैं, पर हार नहीं मानते। वे दुख भरी कविताएं नहीं लिखते, हिरनवाद का रोना नहीं रोते। वे अवसाद में नहीं जाते, पर लड़ना नहीं छोड़ते। उन्हें पूरे जीवन में एक क्षण के लिए भी मनुष्य की तरह चादर तान कर सोने का सौभाग्य नहीं मिलता, बल्कि वे हर क्षण मृत्यु से संघर्ष करते हैं। यह संघर्ष ही उनकी रक्षा कर रहा है।
      जंगल में स्वतंत्र जी रहे हर पशु का जीवन आज के मनुष्य से हजार गुना कठिन और संघर्षपूर्ण है। मनुष्य के सामने बस अधिक पैसा कमाने का संघर्ष है, पर शेष जातियां जीवित रहने का संघर्ष करती हैं। फिर भी वे मस्त जी रहे होते हैं, और हममें से अधिकांश अपनी स्थिति से असंतुष्ट हो कर रो रहे हैं।
      अच्छी खासी स्थिति में जी रहा व्यक्ति अपने शानदार कमरे में बैठ कर वाट्सप पर अपनी जाति या सम्प्रदाय के लिए मैसेज छोड़ता है कि "हम खत्म हो जाएंगे"। और उसी की तरह का दूसरा सम्पन्न मनुष्य झट से इसे सच मान कर उसपर रोने वाली इमोजी लगा देता है। दोनों को लगता है कि यही संघर्ष है। वे समझ ही नहीं पाते कि यह संघर्ष नहीं, अवसाद है।
      मनुष्य को अभी पशुओं से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।
https://youtu.be/H1S6UCX4RAA

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रविवार, 4 दिसंबर 2022

अनहद आकुलता

 

एक पंडी जी थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि वे भगवान के साक्षात दर्शन किया करते थे।

एक बार मांगते खाते पंडी जी का डेरा किसी गांव में हुआ। गांव के जमींदार बहुत सम्पन्न थे और अब भगवदभजन में अपना मन लगाना चाहते थे, तो गांव के सिवान पर डेरा डाले पंडी जी के पास पहुंचे और बोले...

"हमको भी भक्ति करनी है। लोग कहते हैं कि आप भगवान को साक्षात देखते हैं तो हमको भी देखना है।"

पंडी जी कथा वाचन करते रहते, जमींदार साब के प्रश्न को अनसुना करते हुए। कई दिन बीत गए। डेरा उठाने का समय हो चला था, बहता पानी रमता जोगी। जमींदार साब फिर से पहुंच गए कि भगवान देखना है।

पंडी जी ने एक क्षण सोचा विचारा और जमींदार साब को लेकर बगल में बह रही नदी की ओर बढ़ गए। कमर भर पानी में पहुंच कर पंडी जी ने कहा, "डुबकी मारिए, और जब तक सांस हो, पानी में ही डूबे रहिए।"

जमींदार साब ने अपने भरसक प्रयास किया लेकिन सांस की वायु खतम हो जाने के बाद पानी में से खड़े होने लगे।

यह देखते ही पंडी जी ने लपक कर जमींदार साब की गुद्दी (गरदन का पीछे वाला भाग) दबोची, और चांप दिया पानी में फिर से।

जमींदार साब लगे छटपटाने। जब सांस ही नहीं रह गई थी तो कोई भी छटपटाता। एक दम जब जान जाने की आकुलता उत्पन्न हो गई तो पंडी जी ने छोड़ दिया।

बाहर आने पर जब सांस व्यवस्थित हुई तब पंडी जी ने पूछा, "अभी किस चीज की इच्छा हो रही थी आपको?"

"सांस लेने की।"

"ऐसे समय तुम्हें घर बंगला गाड़ी कोई सांस के बदले में दे रहा हो तो?"

"पगला गए हैं का पंडी जी? उस समय सांस के अलावा कोई और क्या चाहेगा?"

तब पंडी जी ने गम्भीर स्वर में कहा, "जब ऐसी ही आकुलता हमें केवल भगवान के लिए होगी तो भगवान स्वयं भागे चले आयेंगे। वे आपकी धीमी से धीमी पुकार भी सुन लेंगे, जैसे गजराज की पुकार पर उसको ग्राह से बचाने नंगे पैर ही श्रीकृष्ण भाग चले थे।"

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शनिवार, 3 दिसंबर 2022

उर्मिला १०

 

उर्मिला १०
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अयोध्या के राजकुल में नियति आग लगाने में सफल हो गयी थी। कैकई की कुलघाती योजना की थोड़ी सी जानकारी मिलते ही चारों बहुएं सन्न रह गयी थीं। इस विकट परिस्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए, यह उन्हें नहीं सूझ रहा था सो उन्होंने मौन साध लिया था। परिस्थिति जब अपने वश में नहीं हो तो मौन साध लेना ही उचित होता है।
    अगले दिन तक आग समूचे अंतः पुर में पसर गयी थी। कैकई ने भरत का राज्याभिषेक और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा था। राजा दशरथ निढाल पड़े थे। रानी कौशल्या अपने कक्ष में पड़ी रो रही थीं। हर ओर उदासी पसरी हुई थी, हर आंख भीगी हुई थी।
    इस दुख और उद्विग्नता की घड़ी में कुछ सुन्दर था तो यह कि राजकुल की स्त्रियों ने स्वयं को नियंत्रित रखा था। कहीं कोई आरोप प्रत्यारोप नहीं लग रहे थे, कहीं कोई दोषारोपण नहीं हो रहा था।
     अपराधबोध से भरी माण्डवी कभी सीता के पास जातीं तो कभी माता कौशल्या के पास, पर उन्हें कहीं शांति नहीं मिलती थी। सीता उन्हें बार बार शांत रहने को कहतीं पर उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। व्यग्र माण्डवी उर्मिला के पास गईं और कहा, "मैं क्या करूँ उर्मिला? मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा।"
      उर्मिला ने शालीनता से कहा, "आप इतनी अधिक व्यग्र क्यों हैं दाय! बड़े पाहुन को सबसे अधिक प्रेम करने वाली माता कैकई ही यदि उन्हें वन भेजने पर अड़ी हैं, इसका अर्थ यह है कि वे कुछ कर नहीं रहीं बल्कि नियति ही उनसे यह करा रही है। पर इसमें आपका क्या दोष?"

- तुम समझ नहीं रही उर्मिला! इस विपत्ति के क्षण में मन होता है कि सिया दाय के साथ खड़ी रहूँ, बड़ी माँ के साथ रहूँ, पर नहीं रह पाती। मुझे माता कैकई के साथ भी रहना होता है। मैं जानती हूँ कि वे गलत हैं, फिर भी वे मेरी माँ हैं। मैं क्या करूँ उर्मिला?"

- नियति क्या खेल खेलने जा रही है यह मुझे नहीं पता दाय! पर इतना अवश्य समझ रही हूँ माता कैकई सबसे अधिक स्वयं का अहित कर रही हैं। समय का कोई भी षड्यंत्र न चार भाइयों के बीच दरार डाल सकेगा, ना ही चारों बहनों के हृदय दूर होंगे। यदि कोई दूर होगा तो माता कैकई दूर होंगी। सबसे अधिक संवेदना की आवश्यकता उन्हें ही है। आप उन्ही के साथ रहें दाय!"
- पर कहीं सिया दाय या बड़ी मॉं के मन में हमारे लिए..."
- उनके सम्बन्ध में ऐसा सोचना भी पाप है दाय! इस विपत्ति काल में सबसे आवश्यक यही है कि हम विश्वास बनाये रखें। सभी समझ रहे हैं कि यह माता कैकई का नहीं नियति का खेल है। किसी के अंदर माता कैकई को लेकर बुरे भाव नहीं हैं। आप उन्ही की सेवा में रहें।"
      माण्डवी का मन तनिक शांत हुआ। वे अपने कक्ष की ओर गईं।
      राज काज में व्यस्त युवराज राम जब संध्याकाल में अनुज संग अंतः पुर में लौटे तो उन्हें इस प्रपंच की जानकारी मिली। वे भागे भागे कोप भवन की ओर गए और पलंग पर निढाल पड़े पिता के चरणों में बैठ गए।
      कठोर हो चुकी कैकई ने राम के समक्ष भी अपनी मांग दुहराई तो मुस्कुरा उठे राम ने कहा, "तो इसके लिए पिताश्री को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी माता! क्या राम ने कभी आपके आदेश की अवहेलना की है जो आज कर देगा। बताइये, मुझे कब वन को निकलना होगा?"
      कैकई जानती थीं कि राम उनकी इस अनर्थकारी मांग को भी सहजता से मांग लेंगे। पर मनुष्य के हिस्से में कुछ अभागे क्षण ऐसे भी आते हैं जो उसके समूचे जीवन पर भारी पड़ जाते हैं। कैकई के जीवन में अभी वे ही अभागे दिन चल रहे थे। फिर भी वे राम के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकीं। कुछ क्षण बाद राम ने ही कहा- मैं कल ही वनवास के लिए निकल पडूंगा माता। भरोसा रखियेगा, आपका राम वन में भी रघुकुल की मर्यादा का पूर्ण निर्वहन करेगा।
     राम कक्ष से निकलने के लिए उठे तो देखा, पिता ने उनका उत्तरीय पकड़ लिया था। वे उनकी ओर मुड़े तो बोले- "न जाओ राम! इस कुलघातिनी के कारण मुझे न त्यागो पुत्र!"
क्रमशः
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बुधवार, 30 नवंबर 2022

पीली सरसों

 

प्रयास रहेगा कि  *बुधवार स्वास्थ्य चर्चा*  पर छोटी छोटी बात होती रहे। धीरे धीरे अपनी आदतों में सुधार हो, कुछ सामान्य जानकारियों का ज्ञान हो - इसी विश्वास के साथ ।
राजीव कुमार जी बताते है -
1.कल पीली सरसों का तेल खुद बैठ कर निकलवाया गया वह भी कच्ची घानी से और traditional कोल्हू से ,जो धीरे धीरे घूमता है । धीरे धीरे घूमने के कारण तेल की गुणवत्ता उच्च स्तर की होती है । कच्ची घानी के कोल्हू में इमली के गुटके लगे होते हैं ।  आजकल बड़ी कंपनियों का तेल कोल्हू से नहीं निकलता । एक बड़ी कंपनी अडानी wilmar अपनी बोतलों पर कच्ची घानी का तेल लिख कर India के पढ़े लिखे बेवकूफों को अनपढ़ भी सिद्ध कर रही है ।

2. 90 रुपये किलो पीली सरसों ,8 रुपये किलो निकलवाई देकर 1 लीटर तेल 170 रुपये पड़ गया । खल 34 रुपये किलो बिक जाती है । खल कोहलू वाला ही ले लेता है । शुद्ध सरसों के तेल को आप कई महीनों तक store कर सकतें है  । एक बार मे कम से कम छह महीने का तेल निकलवा लेना चाहिये । काली सरसों 68 रुपये किलो है ।
3. खास बात यह रही कि शुद्ध  सरसों का तेल आंखों में से पानी निकाल देता है । निकालने वाले को  कम से कम पांच बार आंख धोनी पड़ीं । बाजार में मिलने वाले ब्रांडेड ,non ब्रांडेड तेल में मिलावट के कारण यह गुण समाप्त हो जाता है ।
4.  दूसरा शुद्ध सरसों के तेल की बोतल के आर पार सूरज की रोशनी भी नहीं निकल सकती । जबकि बाजार में मिलने वाले तेल चमकदार और पारदर्शी होते है क्योंकि ब्लीचिंग करने के लिये acid आदि डाले जातें हैं ।
5. बाजार में मिलने वाले ब्रांडेड  / unbranded सरसों के बहुत सस्ते पाम आयल और रिफाइन्ड आयल की मिलों से निकलने वाले waste material की मिलावट होती है ।
6. हमारे शहर में एक बहुत बड़ी रिफाइन्ड तेल की कंपनी है जो लगभग सब कंपनियों को तेल सप्लाई करती है उनका अपना बड़ा ब्रांड है । जिसको बेचने के लिये जापान के कोई सड़क छाप डॉक्टर से heart oil का सर्टिफिकेट ले लिया गया है । वह अपने घर के लिये पीली सरसों का तेल प्रयोग करतें हैं ।
7. पीली सरसों का तेल सही में heart oil है । हमारे एक मित्र को heart attack आ गया था । hero heart  से stunt डालवा कर आया है । डॉक्टर ने पर्ची पर पीली सरसों का तेल लिख कर दिया है ।  एक बार stunt पड़ गया तो 2-3 लाख तो गया पानी में । इतने का पूरी जिंदगी भर का तेल आ जायेगा ।
8. कोल्हू वाले से और मार्किट में रिसर्च करके पता लगा कि आजकल बड़े लोग पीली सरसों का तेल खुद निकलवा रहें हैं । यह कंपनियों वाला तेल तो केवल अब गरीब गुरवा ही प्रयोग कर रहा है । सरसों के तेल के साथ साथ ,नारियल , तिल ,असली ,बादाम आदि का तेल बड़े लोग खुद निकलवा रहे हैं । 10 साल में बहुत बड़ा बदलाव होगा ।
*ताज़ा खाएं - लोकल अपनाएं !!*

प्रेरणा पाथेय कम्यूनिटी ग्रुप से जोड़ने के लिए नीचे के किसी एक लिंक से जुड़ने का आग्रह रखें ।।
लाभ -
●स्वतः डिलीट नहीं होंगी पोस्ट ।
●अनर्गल , बुरी नियत वालों से बचाव । क्योंकि
किसी भी अन्य को आपका कॉन्टेक्ट ही नहीं दिखेगा

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रविवार, 27 नवंबर 2022

कम्फर्ट जोन

 


                                  
                           
*एक विद्वान किसी गाँव से गुजर रहा था,*
*उसे याद आया, उसके बचपन का मित्र इस गावँ में है, सोचा मिला जाए*।

*मित्र के घर पहुचा, लेकिन देखा, मित्र गरीबी व दरिद्रता में रह रहा है, साथ मे दो नौजवान भाई भी है।*

*बात करते करते शाम हो गयी, विद्वान ने देखा, मित्र के दोनों भाइयों ने घर के पीछे आंगन में फली के पेड़ से कुछ फलियां तोड़ी, और घर के बाहर बेचकर चंद पैसे कमाए और दाल आटा खरीद कर लाये।*

*मात्रा कम थी, तीन भाई व विद्वान के लिए भोजन कम पड़ता,*
*एक ने उपवास का बहाना बनाया,*
*एक ने खराब पेट का।*
*केवल मित्र, विद्वान के साथ भोजन ग्रहण करने बैठा।*
*रात हुई,*
*विद्वान उलझन में कि मित्र की दरिद्रता कैसे दूर की जाए?, नींद नही आई,*
*चुपके से उठा, एक कुल्हाड़ी ली और आंगन में जाकर फली का पेड़ काट डाला और रातों रात भाग गया।*

*सुबह होते ही भीड़ जमा हुई, विद्वान की निंदा हरएक ने की, कि तीन भाइयों की रोजी रोटी का एकमात्र सहारा, विद्वान ने एक झटके में खत्म कर डाला, कैसा निर्दयी मित्र था?*
*तीनो भाइयों की आंखों में आंसू थे।*

*2-3 बरस बीत गए,*
*विद्वान को फिर उसी गांव की तरफ से गुजरना था, डरते डरते उसने गांव में कदम रखा, पिटने के लिए भी तैयार था,*
*वो धीरे से मित्र के घर के सामने पहुचा, लेकिन वहां पर मित्र की *झोपड़ी की जगह कोठी नज़र आयी,*
*इतने में तीनो भाई भी बाहर आ गए,* *अपने विद्वान मित्र को देखते ही, रोते हुए उसके पैरों पर गिर पड़े।*
*बोले यदि तुमने उस दिन फली का पेड़ न काटा होता तो हम आज हम इतने समृद्ध न हो पाते*
*हमने मेहनत न की होती, अब हम लोगो को समझ मे आया कि तुमने उस रात फली का पेड़ क्यो काटा था।*

*जब तक हम सहारे के सहारे रहते है, तब तक हम आत्मनिर्भर होकर प्रगति नही कर सकते।*
*जब भी सहारा मिलता है तो हम आलस्य में दरिद्रता अपना लेते है।*
*दूसरा, हम तब तक कुछ नही करते* *जब तक कि हमारे सामने नितांत* *आवश्यकता नही होती, जब तक* *हमारे चारों ओर अंधेरा नही छा जाता*

*जीवन के हर क्षेत्र में इस तरह के फली के पेड़ लगे होते है। आवश्यकता है इन पेड़ों को एक झटके में काट देने की। प्रगति का इक ही रास्ता आत्मनिर्भरता।*
*हम सभी को सफल जीवन  जीने के लिए अपने सुविधा क्षेत्र ( कंफर्ट जोन) से बाहर निकलना ही होगा। इस तरह से ही काफी लोगो ने अपने जीवन में बड़ी बड़ी सफलताएं अर्जित की हैं।*

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शनिवार, 26 नवंबर 2022

उर्मिला 9

 

उर्मिला 9
     अयोध्या स्वर्ग की भाँति सज गयी थी। वहाँ का तृण तृण राममय था। राम को राजा बनते देखने की लालसा हर व्यक्ति में थी। हर व्यक्ति रामराज्य को जी लेना चाहता था।
      महिलाएं रोज आंगन के साथ साथ समूचे द्वार को गोरब-मिट्टी से लीप कर पवित्र कर देतीं।पुरुष-स्त्री दिन भर सजे सँवरे रहते। संध्या होते ही हर घर की चौखट, तुलसीचौरा, द्वार पर दीपकों की लड़ियाँ जगमगा जातीं।
     अंतःपुर में भी आनन्द पसरा हुआ था। तीनों माताएं अपने प्रिय राम को अयोध्यानरेश के रूप में देखने के लिए ब्याकुल थीं। उनकी हर वार्ता राज्याभिषेक से शुरू होती और वहीं पर समाप्त होती थी।
      जनक पुत्रियों के मध्य भी सदैव इसी आयोजन के सम्बंध में चर्चा हुआ करती थी। भरत और शत्रुघ्न तो भरत के ननिहाल गए थे, पर लक्ष्मण सदैव उत्साहित रहते थे। वे कभी पत्नी के साथ अपनी खुशियां बांटते तो कभी भाभियों सीता या माण्डवी को दरबार की खबरें बता रहे होते थे। पूरे राजमहल में बस दो लोग थे जो अब भी अतिउत्साह से इतर सामान्य भाव के साथ रह रहे थे। वे थे सिया और राम! वे बातें सुनते और मुस्कुरा उठते।
     और फिर एक दिन! संध्या के समय वाटिका में बैठी सीता और उर्मिला के पास माण्डवी दौड़ी हुई आईं। उनकी आँखों में जल और चेहरे पर चिन्ता झलक रही थी। स्वर कांप रहा था, पग लड़खड़ा रहे थे। रोती माण्डवी ने कहा, "अनर्थ होने वाला है दाय! अयोध्या का नाश होने वाला है।"
      सिया उठीं और माण्डवी को गले लगा लिया। उनकी पीठ थपथपाते हुए बोलीं- समय के हर निर्णय का कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है माण्डवी, कुछ भी अनर्थ नहीं होता। क्या हुआ बहन? इतनी भयभीत क्यों हो?"
       "उस बूढ़ी दासी ने सब नाश कर दिया। उसने माता को भड़काया और माता भइया को वनवास भेजने के लिए कोप भवन में चली गईं। वे मेरे आर्य को अयोध्यानरेश बनाना चाहते हैं।" माण्डवी का स्वर टूट रहा था।
       सिया चुप रहीं। कुछ न कहा, बस माण्डवी की पीठ थपथपाती रहीं। माण्डवी ने ही फिर कहा, "माता अन्याय कर रही हैं। मैं आर्य को जानती हूँ, उन्हें राज्य का लोभ नहीं। राज्य भइया का है, और उनके स्थान पर राजा बनने का घिनौना विचार आर्य के मन को छू भी नहीं पायेगा। माता को कोई रोके दाय, अन्यथा सबकुछ तहस नहस हो जाएगा।"
      उर्मिला आश्चर्य में डूबी खड़ी हो गयी थीं। सिया ने दोनों को अपनी भुजाओं में भर लिया और कहा, "हम इस कुल की सबसे छोटी सदस्य हैं माण्डवी। हम पिताश्री और माताओं के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। पर स्मरण रहे, कुछ भी हो जाय हम कुल को एकत्र रखेंगे। हम कुछ टूटने नहीं देंगे। यही हमारा धर्म है..."
      सिया उर्मिला की ओर घूमीं और कहा, "तुम सुन रही हो न उर्मिला? कुछ भी हो जाय, यह परिवार नहीं बिखरना चाहिये। राजनीति की कालकोठरी में हो रही सम्बन्धों की परीक्षा में चारो भाई कितने सफल होते हैं यह वे ही जानें, पर आंगन की परीक्षा में हम चारों को सफल होना ही होगा। घर स्त्रियों का होता है, और वे ठान ले तो उन्हें ईश्वर भी नहीं तोड़ सकता।"
     "हम चार कब थीं दाय! हम एक ही हैं। हम तीनों कभी आपकी इच्छा के विरुद्ध नहीं होंगी।" उर्मिला समझ नहीं पा रही थीं कि क्या कहें। सिया ने कहा, "समय किसे कब कहाँ खड़ा करेगा यह हमें नहीं पता उर्मिला, पर यह तय रहे कि हम जहां भी होंगे परिवार के साथ होंगे। घर के पुरुष अगर टूट भी गए तो स्त्रियाँ उन्हें दुबारा बांध सकती है, पर स्त्रियां टूट जांय तो पुरुष घर को कभी बांध नहीं पाते। हमें घर को टूटने नहीं देना है।"
      "क्या होने वाला है दाय? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है।" उर्मिला की घबराहट कम नहीं हो रही थी।
      "क्या होगा, यह हमारे हिस्से का प्रश्न नहीं है उर्मिला! हमें बस यह प्रण लेना होगा कि कुछ भी हो जाय, महाराज जनक की बेटियां सब सम्भाल लेंगी। हम अयोध्या की प्रतिष्ठा धूमिल नहीं होने देंगी।"
      तीनों ने एक दूसरे को मजबूती से पकड़ लिया था। यह जनकपुर का संस्कार था।
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रविवार, 20 नवंबर 2022

घर परिवार



पति मुस्कुराता हुआ अपने मोबाइल पर फटाफट उँगलियां दौड़ा रहा था! उसकी पत्नी बहुत देर से उसके पास बैठी खामोशी से देख रही थी, जो उसकी रोज़ की आदत हो गई थी और जब भी कोई बात अपने पति से करती तो जवाब ‘हाँ’ ‘हूँ’ में ही होता या नपे-तुले शब्दों में!
“किससे चैटिंग कर रहे हो?”
“फेसबुक फ्रेंड से।”
“मिले हो कभी अपने इस फ़्रेण्ड से?”
“नहीं”
“फिर भी इतने मुस्कुराते हुए चैटिंग करते हो?”
“और क्या करूँ बताओ?”
“कुछ नहीं, फेसबुक पे आपकी महिला मित्र भी बहुत -सी होंगी ना?”
“हूँ”
उँगलियों को हल्का -सा विराम दे मुस्कुराते हुए पति ने हुंकार भरी!
“उनसे भी यूहीं मुस्कुराते हुए चैटिंग करते हो, क्या आप सभी को भली-भांति जानते हो?”
पत्नी ने मासूमियत भरा प्रश्न पर प्रश्न किया!
“भली-भांति तो नहीं मगर रोजाना चैटिंग होते-होते बहुत कुछ हम आपस में एक दूसरे को जानने लगते हैं और बातें ऐसी होने लगती हैं कि मानो बरसों से जानते हो और मुस्कुराहट होठों पे आ ही जाती है, अपने -से लगने लग जाते हैं फिर ये!”
“हूँ और पास बैठे पराये -से!” पत्नी हुंकार सी भरने के बाद बुदबुदाई!
“अभी मजे़दार टॉपिक चल रहा है हमारे ग्रुप में! अरे, अभी तुमने क्या कहा था, ध्यान नहीं दे पाया! बोलो ना फिर से, अरे, यार किस सोच डूब गईं।”
पति मुस्कुराता हुआ तेज़ी से मोबाइल पर अपनी उँगलियाँ चलाता। हुआ एक नज़र पत्नी पे डाल बोला!
“किसी सोच में नहीं! सुनो, बस मेरी एक इच्छा पूरी करोगो?”
पत्नी टकटकी लगाए बोली!
“क्या अब तक तुम्हारी कोई अधूरी इच्छा रखी है मैंने? खैर, बोलो क्या चाहिए?”
“मेरा मतलब ये नहीं था, मेरी हर इच्छाएँ आपने पूरी की हैं मगर ये बहुत ही अहम है!”
“ऐसी बात तो बोलो क्या इच्छा?”
“एंड्रॉयड मोबाइल”
“मोबाइल! बस इनती- सी बात, ओके डन! मगर क्या करोगी बताना चाहोगी?” पति चोंक कर बोला!

पत्नी ने भीगी पलकों से प्रत्युत्तर दिया! “और कुछ नहीं, चैटिंग के ज़रिये आप मुझसे भी खुलकर बातें तो करोगे!”
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इस चर्चा का मक़सद यही है की आज के  डिजिटल युग मे इंसान इतना व्यस्त हो गया है की वो अपनी निजी ज़िंदगी को भी समय नही देता है ।  पहले आप अपने परिवार को समय दो क्यूँकि डिजिटल जैसे - मोबाइल फेसबुक इंस्टाग्राम वग़ैरह से ज्यादा आपका परिवार है  ।


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शनिवार, 19 नवंबर 2022

उर्मिला 8

 

उर्मिला 8

बारात अयोध्या लौटी। महीनों तक अयोध्या के नगर जन अपने राजकुमारों के विवाह का उत्सव मनाते रहे।
    राजा दशरथ राम विवाह के बाद से ही बदल से गये थे। किसी भी पिता को सर्वाधिक आनन्द अपने पुत्र की गृहस्थी बसते देखने में आता है। उसे लगता है जैसे उसने अपनी यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा पास कर ली। आगे की यात्रा में सांसारिक संकटों के रोड़े उसके कमजोर हो रहे पैरों को चोटिल नहीं करेंगे, बल्कि उन्हें अपनी ठोकर से उड़ा देने के लिए उसके पुत्र के बलशाली पैर अब आगे चल रहे होंगे।
     अत्यधिक खुशी या संतुष्टि अपने साथ वैराग्य ले कर आती है। राजा दशरथ के जीवन में भी अब वैराग्य उतर रहा था। उन्होंने लम्बे समय तक निर्विघ्न शासन किया था, वे सदैव अपनी प्रजा का आशीष पाने में भी सफल रहे थे। अपनी युवा अवस्था में संसार के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में स्थान बना चुके राजा दशरथ के पास अब राम लक्ष्मण जैसे तेजस्वी योद्धा पुत्र थे। उन्हें अब और किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं थी। वे पूर्ण हो चुके थे। इसी पूर्णता के भाव के साथ एक दिन उन्होंने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ को बुलाया और कहा- "इस राजमुकुट के भार से मुझे मुक्त करें भगवन! मेरी यात्रा पूर्ण हो गयी। मेरी अयोध्या को सौंप दीजिये अपने गुरुकुल का वह सर्वश्रेष्ठ अस्त्र, जिसे भविष्य में पुरुषोत्तम होना है।"
     महर्षि वशिष्ठ ने एक गहरी सांस ली। मुस्कुराए, और कहा- "अवश्य राजन! युग परिवर्तन का समय आ गया। चलिये! रघुकुल की तपस्या यहाँ से प्रारम्भ होती है।"
     राजा दशरथ कुलगुरु की बात समझ न सके, पर वे संतुष्ट थे। जो स्वयं राम के पिता थे, उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका क्यों होती भला...?
     उधर अंतः पुर में आनन्द पसरा हुआ था। तीनों माताओं ने अपनी चारों पुत्रवधुओं को जैसे हृदय में रख लिया था। सिया, राम से जुड़ कर आई थीं, सो वे सबकी दुलारी थीं। वे सदैव माताओं के दुलार की छाया में होती थीं। कभी कौशल्या उनके बाल बना रही होतीं, तो कभी कैकई उन्हें अपने हाथों से उन्हें स्वादिष्ट भोजन करा रही होतीं थीं। माता कैकई उन्हें सबसे अधिक प्रेम करती थीं। माता सुमित्रा का तो जन्म ही परिवार में प्रेम बाँटने और और कुल की सेवा करने के लिए हुआ था। वे सभी बधुओं पर प्रेम बरसाती रहती थीं।
     उर्मिला को कौशल्या का सर्वाधिक स्नेह प्राप्त था। वे सदैव उनकी सेवा में लगी रहती थीं। माता कौशल्या बड़े प्रेम से उनसे मिथिला की कहानियां सुनती रहतीं।
     माण्डवी और श्रुतिकीर्ति भी बड़ों की सेवा में लगी रहती थीं। चारों बहनों का आपसी स्नेह अयोध्या में और भी प्रगाढ़ हो गया था।
      संध्या का समय था, चारों बहनें अन्तःपुर की वाटिका में बैठी आपस में बातें कर रही थीं, तभी एक दासी दौड़ी हुई आयी और कहा- "जानती हैं! महाराज, युवराज का राज्याभिषेक की योजना बना रहे हैं। प्रसन्न हो जाइए, सम्भव है कल परसो तक राजकुमार राम के राज्याभिषेक का दिन निश्चित हो जाय।"
     सचमुच चारों प्रसन्न हो उठीं। श्रुतिकीर्ति ने सिया को चिढ़ाते हुए सर झुका कर कहा, "प्रणाम महारानी! दासी का अभिवादन स्वीकार करें..."
     सिया ने मुस्कुराते हुए उसके माथे पर चपत लगाई और कहा, "धत! कोई महारानी और कोई दासी नहीं होगा रे! जैसे अबतक जीये हैं वैसे ही आगे जिएंगे। हमारा धर्म है परिवार को बांध कर रखना, हम वही करेंगे।"
     पीछे से उर्मिला ने कहा, "नहीं सिया दाय! आप अयोध्या की महारानी हो रही हैं। आप पाहुन के साथ मिल कर देश को बांधिए, परिवार को बांध कर रखने का दायित्व मेरा रहा। भरोसा रखियेगा, इस तप में आपकी बहन कभी नहीं टूटेगी।"
     सिया मुस्कुरा उठीं। वे जानती थीं, उर्मिला का कठोर तप खंडित नहीं होने वाला था।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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सोमवार, 14 नवंबर 2022

आज़ाद करना

 एक पचपन की औरत आयी अपने बेटे, बहु और पति के साथ। समस्या थी, सास-बहू का कलह जो अब बहु को अवसाद में डाल रहा था। बेटा एकलौता था और ना तो घर छोड़ माँ से ही अलग हो पा रहा था नाही अपनी पत्नी के दुख को सम्भाल पा रहा था। पिता का धैर्य भी अब जवाब दे चुका था। 


उस औरत ने बताया कि कैसे बहु तमाम ऐसी चीजें करती है जो उनके जमाने में औरतें कभी नहीं किया करती थी। वे तमाम चीजें थी- बहु का  जीन्स पहनना, फ़िल्म देखने जाना, ट्रेकिंग ट्रिप बनाना और ऐसी ही एक हजार एक टुच्ची बातें जो अभी के जमाने में पली-बढ़ी हर सामान्य लड़की करती है। बेटा पर भी बीवी की ऐसी हर बात को पूरा समर्थन देने का इल्जाम था। पति पर बहु की इन हरक़तों पर ध्यान ना देने का इल्जाम था। अतः पूरा परिवार ही  औरत के नजर में दोषी था इस बदले समीकरण के लिये। 


बेटे और पिता चाह रहे थे कि दोनों तरफ से कुछ compromise हो जाये तो गाड़ी किसी तरह आगे बढ़, इसीलिये family counselling की मांग की । पर psychologist ने साफ मना कर दिया और बोला अगली बार वह औरत अकेली आएगी।औरत ने विरोध किया कि हरयाणा से दिल्ली तक उसे अकेले ऐसे-कैसे बुलाया जा सकता है। डॉक्टरी चक्कर में तो साथ होना ही चाहिये लोगों को। वहाँ भी नहीं तो कम से कम  कार चलाने के लिए तो पुरुष चाहिए ही होगा। पर Psychologist ने एक नहीं सुनी। हालांकि बेटे को अलग से बता दिया गया था कि अगर माँ का डिसीजन ना बदले तो वह साथ लेकर आ जाये। 


पर वह औरत अकेली आयी। बेटे ने जबरदस्ती भेजा, बस से। दूसरे सेशन में भी सिर्फ मन का गुब्बार निकालती रही। कैसे उनकी जिंदगी सास-ससुर की सेवा में बीती और कैसे अब बहु उसका एक चौथाई भी नहीं करती जितना उन्होंने किया था। बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं है अब उस बेचारी के लिये। फिर उस काउंसलर ने उसे कुछ होमवर्क दिया, अगली बार आने से पहले फ़िल्म देखने जाना, अपने लिये एक मोबाइल खरीदना( उसके पास नहीं थी, नाही उसे जरूरत लगी कभी), और अपने पसंदीदा गानों की एक लिस्ट डाउनलोड करना खुद से।


 जब घर पहुंची तो बेटा इस लिस्ट को देखकर चिढ़ गया। उसकी बीवी दुःखी थी और यहाँ psychologist उसकी परम्परावादी घर बैठने वाली मां को फ़िल्म देखने भेज रही थी। पर उसने भी साथ दिया, मन मार कर ही सही। अगले सप्ताह काउंसलिंग के साथ फिर कुछ ऐसे ही होमवर्क मिले। कुछ सेशन बाद परिवार को बुलाया गया। लड़ाइयां अपने आप कम होती जा रही थी। 


सास को कई होमवर्क में बहु ने मदद किया था, पुरूषों के पास समय के अभाव की वजह से अगली फ़िल्म दोनों साथ देखने गए थे और काउंसलर के कहे अनुसार पार्लर भी। 


 हालांकि काउंसलिंग में और भी कई बातें थी, भावनाओं को समझना और उन्हें सम्भालना भी हुआ, पर बदलाव की मुख्य वजह यह थी कि पहली बार यह औरत वो चीजे कर पायी जो उसने अपनी सास की डर से कभी नहीं किया था। उसकी सास तो मर गयी पर परम्पराओ का जकड़न साथ रहा, अब यही जकड़न वह बहु पर लादना चाहती थी।लेकिन ज्यादा ध्यान से देखे तो दुःख बहु की हरकतों का नहीं था, दुःख था अपनी आजादी ना पाने का। मां को हमेशा किचन में देखने का आदि बेटा भी कभी नहीं पूछा फ़िल्म देखने चलने के लिये नाही पति ने कभी कहा जाओ सहेलियों के साथ कोई ट्रिप बनाओ। और सच कहा जाए तो उस औरत के दिमाग में भी कभी नहीं आया कि उसकी जिंदगी भी किसी अलग गति से अलग रास्ते पर चल सकती है। पर जब एक बार वह अपनी आजादी पाने लगी तो बहु की आजादी देखकर बुरा लगना भी बंद हो गया। काउंसलर ने सास-बहू के समीकरण के बजाय सास की जिंदगी पर ध्यान दिया, उसकी हॉबी ढूंढी, उसके सपनो पर बात की। 


इन दिनों वह औरत बहु के साथ शिमला जाने के प्लान को लेकर बहुत excited है।


पर ऐसी कहानियाँ तो हर घर में है। अक्सर जब हम पुरानी पीढ़ी के कठोरता की शिकायत करते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि यह वह पीढ़ी थी जिसके अस्तित्व की रचना ही मानो जिम्मेदारी निभाने के लिये हुई। हम चाहते हैं वो हमारी आजादी समझे पर कभी कोशिश नहीं करते उन्हें ज्यादा आजाद करने की। पर कोई इंसान जो हमेशा अपने सपनों से समझौता करता रहा हो, उसे दूसरे की आजादी भी क्यों अच्छी लगेगी??


इसीलिये बेहतर है,नयी पीढ़ी को समझौता करने के बजाय पुरानी पीढ़ी की कुछ जिम्मेदारियाँ  छीन लेनी चाहिये, उन्हें भी आजाद कर देना चाहिये।


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रविवार, 13 नवंबर 2022

चाण्डाल मन

 एक संत एक छोटे से आश्रम का संचालन करते थे। एक दिन पास के रास्ते से एक राहगीर को रोककर अंदर ले आए और शिष्यों के सामने उससे प्रश्न किया कि यदि तुम्हें सोने की अशर्फियों की थैली रास्ते में पड़ी मिल जाए तो तुम क्या करोगे 

वह आदमी बोला - "तत्क्षण उसके मालिक का पता लगाकर उसे वापस कर दूंगा अन्यथा राजकोष में जमा करा दूंगा।" 


संत हंसे और राहगीर को विदा कर शिष्यों से बोले -" यह आदमी मूर्ख है।" 


शिष्य बड़े हैरान कि गुरुजी क्या कह रहे हैं ? इस आदमी ने ठीक ही तो कहा है तथा सभी को ही यह सिखाया गया है कि ऐसे किसी परायी वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए।

           

थोड़ी देर बाद फिर संत किसी दूसरे को रोककर अंदर ले आए और उससे भी वही प्रश्न दोहरा दिया। 


उस दूसरे राहगीर ने उत्तर दिया कि क्या मुझे निरा मूर्ख समझ रखा है ?, जो स्वर्ण मुद्राएं पड़ी मिलें और मैं लौटाने के लिए मालिक को खोजता फिरूं? तुमने मुझे समझा क्या है ?

           

वह राहगीर जब चला गया तो संत ने कहा -" यह व्यक्ति शैतान है। 


शिष्य बड़े हैरान हुए कि पहला मूर्ख और दूसरा शैतान, फिर गुरुजी चाहते क्या हैं ?

           

अबकी बार संत तीसरे राहगीर को  अंदर ले आए और वही प्रश्न दोहराया।

           

राहगीर ने बड़ी सज्जनता से उत्तर दिया--" महाराज! अभी तो कहना बड़ा मुश्किल है।इस  *चाण्डाल मन का क्या भरोसा,*  कब धोखा दे जाए ?  एक क्षण की खबर नहीं। यदि परमात्मा की कृपा रही और सद्बुद्धि बनी रही तो लौटा दूंगा।"


             संत बोले -


*" यह आदमी सच्चा है। इसने अपनी डोर परमात्मा को सौंप रखी है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा कभी गलत निर्णय नहीं होता।*


*ज्येष्ठ पांडव, सूर्यपुत्र कर्ण कर्म, धर्म का ज्ञाता, क्या कारण था की अपने छोटे भाई अर्जुन से हार गया जबकि कर्म और धर्म दोनों में वो अर्जुन के समकक्ष व श्रेष्ठ था। कारण था कि अर्जुन ने अपनी घर से निकलने से पहले ही अपनी जीवन रथ की डोरी,भगवान श्री कृष्ण के हाथ में दे रखी थी..!!*

  

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शनिवार, 12 नवंबर 2022

उर्मिला 7

उर्मिला 7

      भगवान परशुराम को आते देख कर वृद्ध राजा दशरथ का हृदय कांप उठा। उन्होंने कातर भाव से देखा महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र की ओर, जैसे कह रहे हों- इस ईश्वरीय कोप से हमारी रक्षा करें ऋषिगण...
      भगवान विष्णु ने परशुरामावतार सत्ताधारियों की निरंकुशता को समाप्त करने के लिए लिया था। सुदूर पश्चिम के बर्बर प्रदेशों से आने वाले राक्षसों के आक्रमण और कुछ समय तक आर्यवर्त में भी उनकी सत्ता स्थापित होने के कारण कुछ क्षत्रियों पर भी उनका प्रभाव पड़ा था और वे आततायी हो गए थे। भगवान परशुराम ने ऐसे क्षत्रियों को बार बार दंडित किया था। पर रघुकुल के शासक सदैव प्रजावत्सल होते आये थे, सो उनके साथ उनका कोई संघर्ष नहीं हुआ था।
       भगवान विष्णु का अंश होने के कारण भगवान परशुराम यह भी जानते थे कि अगला अवतार भी इसी कुल में जन्म लेगा, सो अगले युगनायक की पहचान कर उसका मार्ग प्रशस्त करना भी उनका दायित्व था।
       भगवान परशुराम के स्वागत के लिए महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र आगे बढ़े, और उनका यथोचित सम्मान किया। पर आगंतुक की इस सम्मान में कोई रुचि नहीं थी। उनकी दृष्टि जिसे ढूंढ रही थी, उसे देखते ही वे आगे बढ़े और उनतक पहुँच कर पूछा, "राम आप ही हैं?"
      राम के मुख पर दैवीय शान्ति थी। कहा, "जी भगवन!"
-शिव धनुष आपने ही तोड़ा है?
-जी प्रभु!
-फिर तो आप यह भी जानते होंगे कि मैं क्यों आया हूँ?
-जी भगवन!
- तो लीजिये भगवान विष्णु का यह महान धनुष, जो युगों से मेरे पास पड़ा शायद आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा है। इसपर प्रत्यंचा चढ़ाइए और सिद्ध कीजिये की आप ही राम हैं।
     भगवान परशुराम ने अपने कन्धे से एक अद्भुत धनुष उतारा और राम की ओर बढ़ा दिया। राजा दशरथ के साथ समस्त अयोध्या निवाशी आश्चर्य में डूबे इस महान दृश्य को चुपचाप देख रहे थे। पर दो लोग थे, जिनके मुख पर आश्चर्य नहीं, प्रसन्नता पसरी हुई थी। वे थे महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र!
      राम मुस्कुराए। भगवान परशुराम के हाथों से धनुष लिया और क्षण भर में प्रत्यंचा चढ़ा दी। फिर बाण चढ़ा कर बोले, "कहिये भगवन! इस बाण से किसका नाश करूँ?"
      भगवान परशुराम अठ्ठाहस कर उठे। उन्हें इस तरह हँसते हुए कभी न देखा गया था। बोले, "इस बाण को छोड़ने की आवश्यकता ही नहीं राम। आपके बाण चढ़ाते ही मेरी समस्त अर्जित शक्तियां आपकी हो गयी हैं और मैं शक्तिहीन हो गया हूँ। इसे उतार लें और मुझे महेंद्र पर्वत पहुँचाने की कृपा करें, क्योंकि इसी के साथ मेरी तीव्र गति से कहीं भी चले जाने की शक्ति भी समाप्त हो गयी है। यह आपका युग है राम! और जबतक आप हैं, तबतक मैं महेंद्र पर्वत पर ही तपस्यारत रहूंगा।"
       राम के चेहरे की मुस्कान बनी रही। पूर्व की भांति ही कहा, "जो आज्ञा भगवन!"
       भगवान परशुराम अब महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र की ओर मुड़े, और मुस्कुराते हुए कहा, "बधाई हो ऋषिगण!"
       उस युग के तीन महान तपस्वी एक साथ हँस उठे, जिसका रहस्य सिवाय राम के और कोई न समझ सका। महर्षि वशिष्ठ ने कहा, "रघुकुल को आपके आशीष की आवश्यकता है भगवन! कृपया सबको कृतार्थ करें।"
       राजा दशरथ, राम चारों भाई और चारों वधुएँ निकट आ गयी थीं और सभी हाथ जोड़ कर खड़े थे। परशुराम बोले, "राम को क्या आशीष दूँ, वे तो राम ही हैं। पूरे कुल को आशीष देता हूँ, कि परस्पर प्रेम बना रहे।" इतना कह कर परशुराम वधुओं के निकट चले गए और फिर कहा, "एक दूसरे पर विश्वास और समर्पण बनाये रखना पुत्रियों! तुम्हारे कुल को इसकी बहुत आवश्यकता है। सिया तो समूचे संसार के लिए लक्ष्मी स्वरूपा है, पर रघुकुल की लक्ष्मी तुम हो उर्मिला! सदैव स्मरण रखना, रघुकुल की प्रतिष्ठा तुम्हारी तपस्या से भी तय होगी..."
     सबको आशीर्वाद दे कर परशुराम पुनः महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र की ओर मुड़े। तीनों ऋषियों में कुछ वार्ता हुई, जिसे कोई न सुन सका। इसी के साथ परशुराम अपने धाम को लौट चले।
     बारात अयोध्या की ओर बढ़ चली।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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गुरुवार, 10 नवंबर 2022

मम राष्ट्र


अभी श्री अजीत प्रताप सिंह  की चर्चा देख रहा था , सुंदर लगी । आप भी आनंदित हों, राष्ट्र प्रथम के विचारों को जिएं, यही भावना !!

अमेरिका एक विशिष्ट राष्ट्र है। उसकी हर बात निराली है।

आपको पता है कि सारी दुनिया कुछ भी नापने के लिए अब मिटरी प्रणाली का इस्तेमाल करती है। आप दस किलोमीटर चलते हैं, चार किलोग्राम दाल खरीदते हैं, गर्मी में आपके शहर का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस होता है।

पर अमेरिका में दूरी माइल्स में तय होती है, सामान पाउंड्स में तौला जाता है, और तापमान फारेनहाइट में लिया जाता है।

सारी दुनिया ग्राम, मीटर, सेल्सियस पर चलती है और अमेरिका पाउंड, माइल्स और फारेनहाइट में। कोई दिक्कत नहीं। पर कितनी अजीब और विशिष्ट बात है कि अमेरिकन्स को दुनिया के साथ दिखने की कोई फिक्र नहीं। और वे आपकी तरह बनने की कोशिश भी नहीं करते। आप जब उनसे बात करेंगे तो आप ही को उनकी तरह बनना होगा, उनके सिस्टम के हिसाब से चीजों को बताना होगा।

दुनिया में हर मुद्रा का अपना नाम है। अमेरिका में डॉलर चलता है। कई अन्य देशों की मुद्राओं का नाम भी डॉलर है। पर रुतबा है कि आप जब भी डॉलर कहेंगे तो उसे बाई-डिफॉल्ट USD, यूनाइटेड स्टेट्स डॉलर ही समझा जाएगा। रुपया भी कई देशों की मुद्रा है, पर रुपया को बाई-डिफॉल्ट INR, इंडियन रूपी नहीं समझा जाता।

हम हजार, लाख, करोड़ में बात करते हैं, और आज तक सामान्य भारतीय को मिलियन, बिलियन, ट्रिलियन समझने में दिक्कत होती है। कम से कम मुझे तो होती है।

यह धमक है। यह उनकी ब्रांडिंग है कि वे अपना सिस्टम उपयोग करेंगे, और आपको उनके सिस्टम को अपने सिस्टम में कन्वर्ट कर समझना होगा।

अमेरिकन नागरिक दुनिया भर में बोली जाने वाली इंग्लिश के लिए कहते हैं कि वॉव, क्या एक्सेंट हैं। आई लव योर एक्सेंट। अमूमन ब्रिटिश एक्सेंट की तारीफ करते हैं और ऑस्ट्रेलियाई एक्सेंट का मजाक उड़ाते हैं। और पलट कर आप कह दो कि आपका एक्सेंट भी कमाल का है तो माथा सिकोड़ लेंगे कि हमारा कोई एक्सेंट नहीं है। उन्हें लगता है कि उनकी इंग्लिश बाई डिफॉल्ट है।

कुछ महिने पहले मेरी अरुण से बात हो रही थी। अरुण आर्थिक मामलों का जानकार है। मुझे जब अर्थ सम्बंधित कोई बात समझ नहीं आती, तब उसकी शरण में चला जाता हूँ। वह प्रैक्टिकल बातें करता है और मैं ऐसी ही भावनात्मक। आज भारत दुनिया का एक दमदार मुल्क बनता दिख रहा है। वह मुझे वास्तविक स्थिति समझा रहा था। बातों-बातों में मैंने कहा कि ताकत होनी चाहिए और दिखनी भी चाहिए।

जब तक हम दूसरे देशों के पैमानों पर अपनी बात रखते रहेंगे, मुझे नहीं लगता कि हम अपने आत्मविश्वास को दिखा पाएंगे।

अभी कुछ ही दिन पहले भारतीय परिवहन मंत्री ऑस्ट्रेलिया में बोल रहे थे। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि वे बेलौस होकर ऑस्ट्रेलियाई श्रोताओं के सम्मुख लाख और करोड़ में बात कर रहे थे। जैसे कह रहे हों कि हम तो ऐसे ही बोलेंगे, आपको समझना हो तो खुद हिसाब कर लो।

अभी परसों ही विदेश मंत्री रशिया में थे। कॉन्फ्रेंस में 'मिडिल ईस्ट' पर एक सवाल पूछा गया। वे उत्तर देते हुए बोले कि 'नार्थ एशिया' जिसे आप 'मिडिल ईस्ट' कह रहे हैं ... ... ...

यह दिखाता है कि भारत अपनी धमक दिखा रहा है। जैसे अमेरिका हर चीज में अमेरिकीपन दिखाता है, छोटी-छोटी चीजों में अब इंडियननेस की खुशबू आने लगी है।

आप क्रिकेट देखते होंगे। पाकिस्तानी या कोई भी मुस्लिम खिलाड़ी जब बोलेगा तो 'इंशाल्लाह', 'अल्लाह का शुक्र है' इत्यादि बातें करेगा। इसमें कोई गलती नहीं। कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। यह ब्रांडिंग है। आप देखिए कि यह ब्रांडिंग इतनी कारगर है कि रेडिकल मजहबी कैसा भी पापकृत्य कर लें, कोई इनके खिलाफ खुलकर नहीं बोल पाता। बल्कि इनके साथ विशिष्ट व्यवहार होता है, जैसे ये बाकी इंसानों से अलग हैं।

अभी कुछ दिन पहले गलत तरीके से विराट कोहली के कमरे का वीडियो वायरल हो गया। उस वीडियो में दिखा कि एक तौलिए पर हनुमान सहित कुछ मूर्तियां रखी हैं। अगर यह वीडियो सही है तो माना जा सकता है कि विराट ईश्वर में आस्था रखते हैं। अब सोचिए कि बाउंड्री पर विराट कोई कैच पकड़ लें और अपने जगतप्रसिद्ध उत्साह में 'बजरंगबली की जय' चिल्ला दें। सूर्य कुमार यादव ट्रॉफी लेते समय 'सब महादेव की कृपा है' बोल दें। सारे खिलाड़ी टैटुओं के भार से दबे पड़े हैं, उनमें से एक टैटू ॐ का हो, या आदियोगी बने हों।

इंडियननेस की ब्रांडिंग हर जगह होनी चाहिए।

भारत एक विशिष्ट राष्ट्र है। विशिष्टता बात-व्यवहार में दिखनी चाहिए।

बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
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रविवार, 6 नवंबर 2022

दर्पण

 

*एक व्यक्ति ने अपने गुरु से पूछा-  मेरे कर्मचारी, मेरी पत्नी,मेरे बच्चे और सभी लोग मतलबी हैं।  कोई भी सही नहीं हैं क्या करूँ ?*
*गुरु थोडा मुस्कुराये और उसे एक कहानी सुनाई।*

*एक गाँव में एक विशेष कमरा था जिसमे 100 शीशे लगे थे।एक छोटी लड़की उस कमरे में गई और खेलने लगी।उसने देखा 100 बच्चे उसके साथ खेल रहे हैं और वो उन प्रतिबिम्ब बच्चो के साथ खुश रहने लगी।जैसे ही वो अपने हाथ से ताली बजाती सभी बच्चे उसके साथ ताली बजाते।उसने सोचा यह दुनिया की सबसे अच्छी जगह है और यहां बार बार आना चाहेगी।*
*थोड़ी देर बाद इसी जगह पर एक उदास आदमी कहीं से आया। उसने अपने चारो तरफ हजारों दु:ख से भरे चेहरे देखे।वह बहुत दु:खी हुआ। उसने हाथ उठा कर सभी को धक्का लगाकर हटाना चाहा तो उसने देखा सैंकड़ो हाथ उसे धक्का मार रहे है।उसने कहा यह दुनिया की सबसे खराब जगह है वह यहां दोबारा कभी नहीं आएगा और उसने वो जगह छोड़ दी।*
*इसी तरह यह दुनिया एक कमरा है जिसमें हजारों शीशे लगे है।जो कुछ भी हमारे अंदर भरा होता है वो ही प्रकृति हमें लौटा देती है।अपने मन और दिल को साफ़ रखें तब यह दुनिया आपके लिए स्वर्ग की तरह ही है।*

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शनिवार, 5 नवंबर 2022

उर्मिला 6

 उर्मिला 6


जनकपुर के राजपरिवार ने अपनी चारों राजकुमारियों का विवाह संपन्न करा लिया। 

        पिता के बटवारे में बेटियों के हिस्से आंगन आता है। जब आंगन में बेटी के विवाह का मण्डप बनता है, उसी क्षण वह आंगन बेटी का हो जाता है। विवाह के बाद वर के पिता कन्या के पिता से थोड़ा धन लेकर मण्डप का बंधन खोल वह आंगन लौटा तो देते हैं, पर सच यही है कि पिता अपना आंगन ले नहीं पाता। आंगन सदा बेटियों का ही होता है। घर के आंगन पर बेटियों का अधिकार होने का अर्थ समझ रहे हैं न? अपने घर में भी स्मरण रखियेगा इस बात को... उस दिन राजा जनक के राजमहल के आंगन पर ही नहीं, जनकपुर के हर आंगन पर सिया का अधिकार हो गया। वह आज भी है...

       राजा ने बेटियों को भरपूर कन्या धन दिया। लाखों गायें, अकूत स्वर्ण, असंख्य दासियाँ... अब विदा की बेला थी। अपनी अंजुरी में अक्षत भर कर पीछे फेंकती बेटियां आगे बढ़ी, जैसे आशीष देती जा रही हों कि मेरे जाने के बाद भी इस घर में अन्न-धन बरसता रहे, यह घर हमेशा सुखी रहे। वे बढ़ीं अपने नए संसार की ओर! उनकी आंखों से बहते अश्रु उस आंगन को पवित्र कर रहे थे। उनकी सिसकियां कह रही थीं, "पिता! तुम्हारी सारी कठोरता को क्षमा करते हैं। तुम्हारी हर डांट क्षमा... हमारे पोषण में हुई तुम्हारी हर चूक क्षमा..."

      माताओं ने बेटियों के आँचल में बांध दिया खोइछां! थोड़े चावल, हल्दी, दूभ और थोड़ा सा धन... ईश्वर से यह प्रार्थना करते हुए, कि तेरे घर में कभी अन्न की कमी न हो! तेरे जीवन में हल्दी का रंग सदैव उतरा रहे, तेरा वंश दूभ की तरह बढ़ता रहे, तेरे घर में धन की वर्षा होती रहे। और साथ ही यह बताते हुए, कि याद रखना! इस घर का सारा अन्न, सारा धन, सारी समृद्धि तुम्हारी भी है, तुम्हारे लिए हम सदैव सबकुछ लेकर खड़े रहेंगे।

      जनकपुर की चारों बेटियां विदा हुईं तो सारा जनकपुर रोया। पर ये सिया के मोह में निकले अश्रु नहीं थे, ये सभ्यता के आंसू थे। गाँव के सबसे निर्धन कुल की बेटी के विदा होते समय गाँव की हवेली भी वैसे ही रोती है, जैसे गाँव की राजकुमारी के विदा होते समय गाँव का सबसे दरिद्र बुजुर्ग रोता है। बेटियां किसी के आंगन में जन्में, पर होती सारे गाँव की हैं। सिया उर्मिला केवल जनक की नहीं, जनकपुर की बेटी थीं।

      राजा दशरथ पहले ही जनकपुर के राजमहल से निकल कर जनवासे चले गए थे। परम्परा है कि ससुर मायके से विदा होती बहुओं का रोना नहीं सुनता। शायद उस नन्हे पौधे को उसकी मिट्टी से उखाड़ने के पाप से बचने के लिए... उसका धर्म यह है कि जब पौधा उसकी मिट्टी में रोपा जाय, तो वह माली दिन रात उसे पानी दे, खाद दे... अपने बच्चों की नई गृहस्थी को ठीक से सँवार देना ही उसका धर्म है।

      चारों वधुएँ अपने नए कुटुंब के संग पतिलोक को चलीं। जनकपुर में महीनों तक छक कर खाने के बाद अयोध्या की प्रजा समधियाने से मिले उपहारों को लेकर गदगद हुई अयोध्या लौट चली।

    समय ध्यान से देख रहा था उन चार महान बालिकाओं को, जिन्हें भविष्य में जीवन के अलग अलग मोर्चों पर बड़े कठिन युद्ध लड़ने थे। समय देख रहा था उन चार बालकों को भी, जिनके हिस्से उसने हजार परम्पराओं को एक सूत्र में बांध कर एक नए राष्ट्र के गठन की जिम्मेवारी दी थी।

     बारात जनकपुर की सीमा से जैसे ही बाहर निकली, एकाएक तेज आँधी चलने लगी। हाथी भड़कने लगे, रथ डगमगाने लगे, धूल से समूचा आकाश काला हो गया। अचानक सबने देखा, धूल के अंधेरे से एक विराट तेजस्वी मूर्ति निकल कर चली आ रही थी। निकट आने पर सबने पहचाना, वे पिछले युग के राम थे, परशु-राम।

क्रमशः

(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी  सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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च्यवनप्राश

सर्दियां आ रही हैं। ऐसे में खांसी जुखाम आदि कई तरह की शारीरिक परेशानियां सर्दियों में रहती है।

बहुत सारे लोग सर्दियों में चवनप्राश खाते हैं। जो यह बड़ी-बड़ी कंपनियां करोड़ों रुपए देकर अपनी-अपनी कंपनियों के चवनप्राश का विज्ञापन करवाती हैं। उनकी गुणवत्ता भी नाममात्र भी की होती है।

अतः  सलाह है कि सर्दियों में धूतपापेश्वर कंपनी का श्यामला चवनप्राश का ही प्रयोग करें। इसकी क्वालिटी बाकी कंपनियों के चवनप्राश से बहुत ही बढ़िया है।

अगर भविष्य में होने वाली कई तरह की शारीरिक परेशानियों  से बचना चाहते हैं और अपने आप को शारीरिक रूप से मजबूत रखना चाहते हैं तो इसमें 1 ग्राम स्वर्ण भस्म मिला लें।

अगर किसी को आंखों से संबंधित किसी भी तरह की समस्या है तो इसमें 5 ग्राम मोती पिष्टी मिला ले। आंखों की समस्याओं से संबंधित लाभ अवश्य मिलेगा।

स्वर्ण भस्म और मोती पिष्टी मिलाने का तरीका।

चवनप्राश आमतौर पर सख्त होता है, तो इसमें स्वर्ण भस्म और मोती पिष्टी मिलाने के लिए, चवनप्राश को एक बर्तन में निकाल ले। जिस बर्तन में चवनप्राश निकाला है उससे बड़ा बर्तन ले और उसमें पानी डाल ले। फिर चवनप्राश वाले बर्तन को पानी वाले बर्तन के अंदर रखकर पानी को धीमी आंच से गैस पर गरम करें।

थोड़ी ही देर में चवनप्राश भी लिक्विड फॉर्म में आ जाएगा। अब इसके अंदर स्वर्ण भस्म और मोती पिष्टी (अगर आपको आंखों से संबंधित समस्या है तो) डाल कर अच्छे से फेंट लें।

थोड़ा सा ठंडा होने के बाद चवनप्राश को वापिस उसी डिब्बे में वापिस डाल दें जिसमें से निकाला था और पूरा ठंडा होने दें।

चवनप्राश के सेवन की विधि-

हर रोज रात को सोने से पहले एक चम्मच चवनप्राश गुनगुने दूध के साथ ले। लगातार दो या 3 महीने लेने के बाद भविष्य में शरीर में होने वाली काफी समस्याओं और आंखों से संबंधित बीमारियों से कुछ हद तक छुटकारा मिलेगा

नोट: स्वर्ण भस्म और मोती पिष्टी भी धूतपापेश्वर कंपनी की लेने की कोशिश करें, नहीं मिले तो डाबर या ऊंझा की ले लें।

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सोमवार, 31 अक्टूबर 2022

चिन्तन की धारा

चिन्तन की धारा

पिछले दिन के गड्ढे,,

एक बात कह रहा हूँ,,मान लो बीस आदमियों को अलग अलग कोई मार्ग जिसपर पत्थर पड़े हैं वह साफ करने के लिए दिया गया है,, न किसी का दबाव न कोई डर भय, अपनी मर्जी अपनी  स्वतंत्रता से पत्थर हटाने हैं,दो पांच जन ने दिनभर धींगा मस्ती की,, दूसरे जो मेहनत कर रहे थे उनपर  कटाक्ष किए,,अरे क्यों मरे जा रहे हो,, धीरे धीरे करो,, कल हो जाएगा, परसों हो जाएगा क्या चिंता है,,
कुछ ने मार्ग पर निशान लगाए और अपने हिस्से के पत्थर बीनने शुरू कर दिए,, जब शाम हुई तो किसी ने शुरू ही नहीं किया था,, किसी ने निशान लगा दिए थे,, किसी ने आधा रास्ता साफ कर लिया था,, एकाध ऐसा भी था जो आधे से आगे ले गया था साफ करता करता,,

रात हुई खा पीकर सो गए,,अगले दिन फिर आए वहां,,तो जिनका जितना काम हुआ था उससे आगे शुरू किया,,तीसरे दिन जब कार्य फिर से शुरू हुआ तो किसी का मात्र एक फिट पत्थर हटाने बचे थे जो घण्टेभर में पूर्ण हो गया,,किसी का आधा बचा था तो वह मेहनत से लगा रहा,, किसी ने शुरू ही नहीं किया था वह कुढ़ रहा था और पत्थर हटाने के लिए निशान लगा रहा था,,

मान लो वह रात्रि जब वे सोए और सुबह उठे ऐसा होता कि पिछले दिन का सबकुछ  भूल गए होते,,तब क्या होता?? ज्यादा संभावना है कि लड़ते,, पक्षपात का उलाहना देते,,कहते कि उसको तो काम हुआ हुआ जैसा मिल गया, दूसरे का भी आधा हो रक्खा है,, और मेरे से नया रास्ता साफ करवाया जा रहा है,, यह अन्याय है,,

लेकिन वहां उनको कोई काम बांटने वाला और दिनभर निगरानी रखने वाला कोई हो तो वह बता देगा कि कल तुमने इतना ही किया था यह देखो cctv फुटेज या रजिस्टर में उपस्थिति या अन्य कुछ,,
अब कहानी में थोड़ा ट्विस्ट है,, वह अधिकारी   खुशामदखोर होता,, तो निक्कमे नाकारा लोग जिन्होंने कल मेहनत नहीं कि थी वे उसके लिए बियर की केन ले आते, जेब में कुछ माल रख देते,, कह देते कि आप ही माई बाप हैं,आप करें सो होई,,वह  निक्कमो को जो कार्य पूरा होने वाला था उसपर बैठा देता और मेहनती को डांट डपटकर नया काम फिर से शुरू करने के लिए बाध्य करता,,

और चाहे यह कुछ भी हो लेकिन न्याय तो नहीं ही कहलायेगा,,इसलिए कर्म करने की व्यवस्था,, कितना कब क्यों कैसे करना है इसकी स्वतंत्रता परमात्मा ने मनुष्य को दी है,, लेकिन फल की व्यवस्था अपने हाथ रक्खी है, इसलिए परमात्मा का एक विशेषण  न्यायकारी है,,वह कोई सरकारी अफसर नहीं या तुम्हारा कोई भाई भतीजावादी नहीं,,, न वह कोई खुशामदखोर है,,वह न्याय करता है,,

  मृत्यु एक ऐसी ही कालरात्रि है,, जब हम यह जीवन छोड़कर दूसरे जीवन में जाते हैं,, लेकिन फर्क इतना है कि अगले जन्म अगले जीवन हमें कुछ याद नहीं रहता,, पिछले जन्म पिछले जीवन हमने कितना कार्य किया था कैसे किया था क्या किया था पता ही नहीं,,

तो वह परमपिता हमें वापस हमारे उसी काम पर लगा देता है जो हम कल  अधूरा छोड़कर सोए थे,,इसलिए जहां हैं जिस अवस्था में हैं उसका रोना छोड़कर नित्य दिए गए कार्य की पूर्णता की और कदम बढ़ाते रहने चाहिए,,

बात तो बिल्कुल आसान है,,सुखी जीवन का मंत्र तो यही है,, बाकी  सिद्धांतो के जितने जाल खड़े करने हैं करते रहो,, खुद ही उलझोगे,, हमें तो ईश्वरीय  विधान में पूर्ण आस्था है,, कोई शिकायत नहीं,, पूरी ऊर्जा से पूरे  उत्साह से पूरे मनोयोग से अपने बचे कार्य को पूरा करने में लगे हैं बिना शिकायत,, आप भी बिना शिकायत , पूरे मनोयोग से , पूरी ऊर्जा से अपने कार्य करने की आदतें बनाएं !!

अहा कैसा शुभ दिन शुभ घड़ी है।   -स्वामी सूर्यदेव की प्रेरणा ।

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रविवार, 30 अक्टूबर 2022

उर्मिला 5

 उर्मिला 5


      विवाह के समय निभाई जाने वाली विधियों में कुछ शास्त्रीय विधियां होती हैं, और कुछ लौकिक! शास्त्रीय विधि वर-वधु के लिए दैवीय कृपा प्राप्त करने के लिए निभाई जाती है, और लौकिक विधियां कुल, परिवार और समाज के आशीष के लिए पूरी की जाती हैं। सुखद जीवन के लिए बने नियमों को समझने और उनका पालन करने की शपथ दिलाने के लिए भी लौकिक विधियां बनी हैं।

      राजा जनक दोनों भाई बैठ कर अपनी कन्याओं का कन्यादान कर चुके हैं। कन्यादान में पिता कन्या के ऊपर से अपने अधिकारों का त्याग करता है। अब से अधिकार का क्षेत्र सिमट जाता है और कर्तव्य बढ़ जाते हैं। मान्यता यह है कि बेटी अब से दूसरे कुल की लक्ष्मी हुई, अब उसके प्रति विशेष सम्मान का भाव आना चाहिये।

      कुछ असंस्कारी अपवादों को छोड़ दें, तो लोक अपनी इस मान्यता को पूरी पवित्रता के साथ निभाता है। एक सामान्य पिता अपनी कुँवारी कन्या को भले कभी डांट देता हो, पर विवाह के बाद वह कठोर वचन बोलने से बचता है। विवाहित बेटी की सलाह का मूल्य भी पहले से अधिक हो जाता है, अब उसकी बात काटने से बचता है पिता। कुँवारी कन्या के लिए वस्त्रादि लेने में पिता भले कंजूसी कर दे, विवाह के बाद यह कंजूसी नहीं की जाती... क्योंकि पिता को अब केवल कर्तव्य याद होते हैं, अधिकार नहीं। कन्या की भूल पर सुधार के लिए थोड़े कटु वचन बोल सकने का अधिकार अब उसके नए संसार के बुजुर्गों को है... लोक में अधिकारों का यही दान कन्यादान कहलाता है शायद!

      पिता ने कन्या को अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर दिया, अब उन्हें अपने नए जीवन में प्रवेश करना है। अग्नि के समक्ष सात फेरों के साथ सात वचन ले कर सिया-राम एक हो गए। अब सिंदूरदान की विधि होनी है। सनातन विवाह में दो ही महत्वपूर्ण दान होते हैं, कन्यादान और सिंदूरदान! एक में पिता अपने अधिकारों का दान करता है, और दूसरे में पति पत्नी को अपनी प्रतिष्ठा में भागीदार बनाता है।

      कन्या अपने माथे पर सौभाग्य के चिन्ह के रूप में सिंदूर धारण करती है। यह अपने माथे पर पति की प्रतिष्ठा को धारण करने जैसा होता है। विवाह के बाद पति की सामाजिक प्रतिष्ठा उसकी पत्नी के व्यवहार से भी तय होती है। किसी पुरुष की पत्नी यदि असामाजिक, अनैतिक व्यवहार करे तो पति की प्रतिष्ठा धूमिल होती है, पर किसी स्त्री का पति यदि अनैतिक कर्म करे तो इससे उस स्त्री की सामाजिक प्रतिष्ठा प्रभावित नहीं होती। बाली और रावण जैसे नराधमों के कुकर्मों का प्रभाव तारा और मंदोदरी की प्रतिष्ठा पर नहीं पड़ा, वे उस युग में समाज की श्रेष्ठ स्त्रियों में गिनी जाती रहीं।

      जनकपुर के उस दिव्य मण्डप में राम चारों भाइयों ने सिंदूरदान कर दिया। मिथिला की सौभाग्यशाली स्त्रियां मंगल गा रही थीं। समस्त देवगण आकाश में हाथ जोड़े खड़े अपने आराध्य का विवाह देख रहे थे।

      विवाह संपन्न हुआ, स्त्रियां वर-वधुओं को मण्डप से निकाल कर अन्य विधियों के लिए महल ले गईं।


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       संध्या के समय राजा दशरथ अपने सम्बन्धियों के साथ भोजन करने मण्डप पधारे। उनके आगे परोसी गयी छप्पन भोग की थाली, और स्त्रियों ने शुरू की गाली... "होंगे राजा दशरथ चक्रवर्ती सम्राट! नरेश होंगे तो अयोध्या के होंगे, इस आंगन में वे समधी हैं। और यहाँ उन्हें दासियाँ भी मीठी गाली सुना सकती हैं। उनकी स्त्रियों की बुराई निकाल निकाल कर उन्हें छेड़ सकती हैं। उन्हें सुनना होगा, बल्कि उसके बाद गाली देने वाली स्त्रियों को उपहार भी देने होंगे... यह लोक है! लोक का अपना शासन है! उसे सम्राट भी अमान्य नहीं कर सकते।" राजा दशरथ मुस्कुराते हुए सुन रहे थे।

        एक दिन में सम्प्रदाय बन जाते होंगे, एक दिन में कानून की किताबें लिख दी जाती होंगी, पर संस्कृति एक दिन में नहीं बनती। उसे कोई बनाता नहीं, वह स्वतः बनती है। जैसे आम के खट्टे टिकोरों में धीरे धीरे बस जाती है मिठास, उसी तरह धीरे धीरे युगों लम्बी यात्रा कर के बनती है कोई संस्कृति! समय की नदी अपनी धारा से अशुद्धि को किनारों की ओर फेंकती जाती है, और धारा में बचता है आनन्द, प्रेम, करुणा, दया, सम्मान, सद्भाव, प्रतिष्ठा... इसी तरह समझ गढ़ता है एक संस्कृति! जहाँ सबका सम्मान होता है, सबके अधिकार होते हैं, सबकी प्रतिष्ठा होती है। 

    एक सामान्य दासी को इतना बड़ा अधिकार कि वह चक्रवर्ती सम्राट दशरथ को बिना भयभीत हुए छेड़ सके, गाली दे सके, उस महान संस्कृति ने दिया था जिसका नाम सत्य-सनातन है।

क्रमशः


(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी  सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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शनिवार, 29 अक्टूबर 2022

उर्मिला 4

उर्मिला 4

विवाह!
     विप्र, धेनु, सुर और संतों के हित के लिए मानव रूप में अवतरित हुए ईश्वर मानव द्वारा रची गयी सबसे पवित्र परम्परा का हिस्सा बन रहे थे। वह परम्परा, जो मनुष्यों को अन्य जीवों से अलग करती है।
      राम और सिया तो आये ही थी एक साथ अपनी लीला दिखा कर आने वाले युग को जीवन जीने की कला सिखाने, उनके विवाह में निर्णय का अधिकार किसी अन्य मनुष्य के पास क्या ही होता! पर लोक के अपने नियम हैं, अपनी व्यवस्था है। ईश्वर भी जब लोक का हिस्सा बनते हैं तो उसके नियमों को स्वीकार करते हैं।
      विवाह की विधियों का प्रारम्भ बरच्छा से होता है, जब कन्या का पिता सुयोग्य वर का चयन करता और विवाह तय करता है। यहाँ इस विधि की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि राम चारों भाइयों को देख कर मुग्ध हुए समस्त जनकपुर ने मान लिया था, वर अच्छा है।
      बारात राजा जनक के महल पहुँची, और द्वारपूजा के समय झरोखे से चारों दूल्हों को देख कर अंतः पुर की स्त्रियों ने औपचारिक रूप से स्वीकृति दी, हमें वर पसन्द हैं, वे विवाह की विधियों के लिए महल में प्रवेश कर सकते हैं।
      द्वारपूजा की चौकी के पास खड़े मिथिला के सम्भ्रांत वर्ग ने दूल्हों पर अक्षत बरसा कर आशीष दिया। दूल्हों पर बरसते पुष्प और अक्षत विवाह की सामाजिक स्वीकृति का प्रमाण होते हैं। जैसे सबके उठे हुए हाथ आशीष दे कर कह रहे हों, "आप अबसे हमारे जीवन का हिस्सा हैं पाहुन! हम रामजी के हैं, और रामजी हमारे हैं।"
      वर का निरीक्षण हो गया, अब कन्या के निरीक्षण की बारी थी। संसार की इस सबसे प्राचीन संस्कृति ने विवाह में चयन करने का अधिकार कन्या पक्ष को पहले और वरपक्ष को बाद में दिया है। कन्या पक्ष वर से संतुष्ट था, अब वर पक्ष की बारी थी। बारात में आये रामकुल के समस्त बुजुर्ग, गुरु, पुरोहित आदि कन्या के आंगन में पहुँचे और मण्डप में बैठी कन्याओं को देख कर विवाह की स्वीकृति दी। सिया, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति के सर पर आशीष का हाथ रख कर राजा दशरथ ने जैसे वचन दिया, "आज से मैं आप सब का पिता हुआ। जिस अधिकार से आप राजा जनक से कोई बात कह देती थीं, अपने ऊपर वही अधिकार अब मैं भी आपको देता हूँ।" कन्या निरिक्षण की परम्परा का यही सारांश है।
       राम चारों भाई आँगन पहुँचे। पुरोहितों ने मंत्र पढ़े और स्त्रियों ने मङ्गल गीत गाया। दोनों वर-वधु के मङ्गल की प्रार्थनाएं थीं, एक शास्त्रीय और लौकिक... दोनों में किसी का मूल्य कम नहीं।
       पवित्र अग्नि को साक्षी मान कर जन्म-जन्मांतर तक एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहने की पवित्र सौगन्ध! इस संसार में इससे अधिक सुन्दर भाव कोई हो सकता है क्या? नहीं! चारों वर अपनी अपनी वधुओं का हाथ पकड़ कर सौगन्ध लेते हैं- "मैं अपने समस्त धर्मकार्यों में तुम्हे संग रखूंगा। मेरे समस्त पुण्यों में तुम्हारा भी हिस्सा होगा।" जीवन के बाद स्वर्ग की इच्छा से किये गए पुण्यों में भी पत्नी को आधा हिस्सा देता है पुरुष! इससे अधिक मूल्यवान और क्या होगा?
      दूसरा वचन! तुम्हारे माता-पिता आज से मेरे माता-पिता हुए। उनका उतना ही सम्मान करूंगा, जितना अपने माता-पिता का करता हूँ। तुम्हारे समस्त सम्बन्धों को आज से अपना सम्बन्ध मान कर निभाउंगा। पति यह वचन पत्नी की प्रतिष्ठा के लिए लेता है! ताकी उसका मान कम न हो, उसके सम्बन्धियों का मान कम न हो...
     तीसरा फेरा! वर-वधु की प्रतिज्ञा है, "बीतते समय के साथ आयु मेरा सौंदर्य समाप्त कर देगी और तुम्हारा बल जाता रहेगा। फिर भी हम दोनों एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहेंगे, हमारा प्रेम बना रहेगा। प्रेम, विश्वास और धर्म के सूत से बनी यह डोर कभी न टूटेगी..." इस प्रतिज्ञा के बाद भी एक दूसरे को देने के लिए कुछ बचता है क्या? कुछ नहीं।
      चौथा फेरा! अबतक वधु आगे थीं, वर पीछे चल रहे थे। चौथे फेरे से वर आगे होते हैं और वधु पीछे। जैसे भावी जीवन के लिए एक बड़ी सीख दी जा रही हो, कि तुममें कोई बड़ा या छोटा नहीं। जीवन के जिस क्षेत्र में पत्नी का आगे रहना सुख दे, वहाँ पति स्वतः पीछे चला जाय, और जब पति का आगे होना आवश्यक हो तो पत्नी बिना प्रश्न किये उसका अनुशरण करे।
     चौथे फेरे में पीछे चल रही वधु वचन लेती है,"अब से आप गृहस्थ हुए। इस नए संसार के स्वामी। मेरा और फिर हमारी सन्तति का पालन करना आपका दायित्व है, इसे स्वीकार करें।" पति सर झुका कर स्वीकार करता है।
     पुरोहित अग्नि में आहुति दे रहे हैं। समस्त देवताओं के आशीष की छाया है। परिवार और समाज के लोग साक्षी भाव से खड़े मंगल की प्रार्थना कर रहे हैं, और वर वधु की यात्रा चल रही है।
     पाँचवा फेरा! वधु अब अधिकार मांग रही है। आप मुझसे राय लिए बिना कोई निर्णय नहीं लेंगे। इस गृहस्थी की ही नहीं, आपकी भी स्वामिनी हूँ मैं! मेरा यह अधिकार बना रहे, मेरी प्रतिष्ठा बनी रहे। मुस्कुराते राम शीश हिला कर स्वीकार करते हैं, सिया के बिना मेरा अस्तित्व ही नहीं।
     छठवां फेरा! वधु कहती है, "जीवन में सारे पल प्रेम के ही नहीं होते। क्रोध, आवेश के क्षण भी आते हैं। पर आप कभी मेरी सखियों या परिवार जनों के समक्ष मुझपर क्रोधित नहीं होंगे। मेरा अपमान नहीं करेंगे।"
    सातवां और अंतिम फेरा! विवाह की अंतिम प्रतिज्ञा! पत्नी का अधिकार दिलाता वचन कि तुम मेरे हो! केवल और केवल मेरे... हमारे बीच कोई नहीं आएगा। कोई भी नहीं... राम मन ही मन कहते हैं, " समस्त संसार स्मरण रखेगा सीता, कि राम और सिया के मध्य कोई नहीं आया। वे एक थे..."
     सातों प्रतिज्ञाओं का निर्धारण कन्या की ओर से होता है। पति सहमति देता है, स्वीकार करता है। तभी वधु अपने संसार की स्वामिनी होती है, लक्ष्मी होती है।
     सप्तपदी पूर्ण हुई। आशीर्वाद के अक्षत बरसे, स्नेह के पुष्प बरसे... धरा धन्य हुई, राम सिया के हुए!
क्रमशः
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सोमवार, 24 अक्टूबर 2022

उर्मिला 3

उर्मिला 3

अपनी प्राणों से प्रिय पुत्री के सुयोग्य वर के लिए प्रतीक्षा करती माता सुनयना धनुष भंग होते ही विह्वल हो गईं। जिस सुदर्शन युवक को देखते ही पूरा जनकपुर पगला गया था, राजपथ पर चलते समय नगरवासियों के बच्चे जिसे छू भर लेने को लालायित हो रहे थे, पिछले तीन दिनों से जिसकी चर्चा से राजमहल का कोना कोना गूँज रहा था, वह अब सहज ही उन्हें बेटे के रूप में मिल गया था। माँ ने टूट कर देखा बेटी हो ओर! उनका का रोम रोम कह रहा था, सारा ऋण उतार दिया बेटी! तेरे कारण जनम जनम की प्यास बुझ गयी...
   राजा जनक की आंखों से लगातार अश्रु बह रहे थे। जगत नियंता अब उनके दामाद थे। पुरुष सामान्यतः अपने कंधे से विद्वता की चादर नहीं उतारता, पर जनक के ऊपर से हर आवरण हट गया था। विद्वता के तीर्थ जनकपुर के राजा जनक इस समय पिता थे, केवल पिता...
    वे उठे और जा कर राजर्षि विश्वामित्र के चरणों में झुक गए। राजर्षि ने आशीष दे कर कहा," शिव धनुष का निर्माण जिस हेतु हुआ था, वह पूर्ण हुआ। यह उत्सव का दिन है राजन! युग को अपना नायक मिल गया। उत्सव की घोषणा हो और अयोध्या में सन्देश भेजा जाय।"
     "किन्तु एक परीक्षा अब भी शेष है गुरुदेव!" राजा जनक के मुख पर रहस्यमय मुस्कान थी।
      "उसमें हमारी तुम्हारी कोई भूमिका नहीं राजन! वह राम का काज है, वे ही करें... तुम अपनी करो।" विश्वामित्र के मुख पर सन्तोष था।
      राजा ने आज्ञा दी- वर्ष भर के लिए प्रजा को कर मुक्त किया जाय! हर विपन्न परिवार को वर्ष भर की आवश्यकता बराबर अन्न-धन दिया जाय। छोटे अपराधों में पकड़े गए बंदियों को मुक्त कर दिया जाय। नगर में उत्सव की घोषणा हो।
      जनकपुर झूम उठा! धर्म की स्थापना के लिए अयोध्या में अवतरित हुए परमेश्वर अब जनकपुर के पाहुन थे, और जनकपुर को यह सौभाग्य दिलाया था सिया ने... भावविह्वल नगरजन ने प्रतिज्ञा ली- हम और हमारी सन्तति सृष्टि के अंत तक यह नाता निबाहेंगे। जगतजननी हमारी हर पीढ़ी के लिए बेटी ही रहेंगी और रामजी पाहुन! यह नाता कभी न टूटेगा... असंख्य युग बीत गए। कलियुग के प्रभाव में धर्म से विमुख हो चुके समय में भी जनकपुर के ग्रामीण यह नाता निभाते हैं।
      राजा काम में लगे। अयोध्या में सन्देश भेजा गया, पुत्र की वीरता की कहानियां सुन सुन कर तृप्त हुए राजा दशरथ ने बारात सजाई, और राम विवाह की साक्षी होने निकली समूची अयोध्या एक दिन जनकपुर के पास कमला नदी के तट पर टिक गई।
      बारात की अगवानी को नगर के बाहर आये महाराज जनक को गले लगा कर राजा दशरथ ने पूछा- आपकी कितनी पुत्रियां हैं मित्र?
      गदगद जनक ने कहा, "कुल चार हैं समधी जी! दो मेरी, और दो मेरे अनुज की!"
--एक निवेदन करूँ मित्र?
-- आदेश करिए महाराज!
-- मेरे भी चार पुत्र हैं मित्र! अब बुढ़ापे में कहाँ उनके योग्य कन्याएं ढूंढता फिरूँगा। एक का चयन आपने किया है, तीन के लिए यह गरीब हाथ पसार रहा है। लगे हाथ हम दोनों मुक्त हो जाते..."
    जनक ने तृप्त हो कर कहा," मेरा सौभाग्य है महाराज! चारों राजकुमार अब से मेरे पुत्र हुए और चारों राजकुमारियां आपकी पुत्रियां हुईं। पूरा जनकपुर आपका है महाराज, आप इस निर्धन राज्य में प्रवेश करें..."
     बारात नगर में आयी। अयोध्या और जनकपुर के नगरवासी एक दूसरे में घुल मिल गए। उधर अंतः पुर में सन्देश गया, विवाह चारों कन्याओं का होना है। सिया के राम होंगे और उर्मिला के लक्ष्मण। माण्डवी के भरत और श्रुतिकीर्ति के शत्रुघ्न।
     अपने कक्ष में बहनों के साथ बैठी सिया ने कहा, "अब अपने खिलौने छोटी बच्चियों को दे दो बहनों! हमारे खेल के दिन समाप्त हुए, अब कठिन तपस्या के दिन आ चुके हैं।"
     सिया क्या कह रही थीं, यह तीनों में कोई न समझ सका! उर्मिला की आँखों में वह सुन्दर गौरवर्णी युवक बसा हुआ था, और अधरों पर मुस्कान...
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी  सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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रविवार, 23 अक्टूबर 2022

उर्मिला 2


उर्मिला 2

राम अपनी आंखों में प्रेम लेकर वाटिका से लौटे, और सिया अपने हृदय में विश्वास ले कर... युग निर्माण के लिए धरा पर अलग अलग अवतरित हुए पुरुष और प्रकृति के लिए अब साथ आने का समय आ गया था।
      सिया गौरी पूजन को चलीं। जगत जननी के मानवीय स्वरूप ने दैवीय स्वरूप के आगे आँचल पसार कर कहा, "तुम जानती हो माँ कि मुझे क्या चाहिए! जो मेरा है वह मुझे मिले।" 
      लौटीं तो फिर बहनों ने घेर लिया। श्रुतिकीर्ति ने पूछा, "क्या मांगा दाय! उन्ही साँवले को?" सब हँस उठीं। सिया ने उत्तर दिया, "जो भी मांगा, वह चारों के लिए मांगा।"
      "हैं? चारों के लिए? इसका क्या अर्थ है सिया दाय? स्वयंवर तो आपका हो रहा है।" अबकी उर्मिला का प्रश्न था।
       "हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता श्रुति! माँ गौरी जो करेंगी, उचित ही करेंगी। चलो, राजसभा निहारी जाय।" सिया ने उस मासूम जिज्ञासा को टालते हुए कहा। चारों बहनें माताओं के पास चलीं, अब उन्हें धनुषयज्ञ मण्डप की ओर जाना था।
      स्वयंवर में अबतक अपने बाहुबल के अहंकार में मतवाले योद्धा आते थे, आज पहली बार एक ऋषि अपने शिष्यों को ले कर आया था। महाराज जनक के मन मे विश्वास उपजा, कदाचित आज शिवधनुष की प्रत्यंचा चढ़ा कर वह अज्ञात योद्धा जगत के समक्ष आ जाय जिसकी सदियों से स्वयं समय प्रतीक्षा कर रहा है। कदाचित आज जगत उस तारणहार को पहचान ले, जो संसार में धर्म और मर्यादा की स्थापना के लिए आने वाला है।उन्होंने महादेव का स्मरण किया।
       महादेव का प्राचीन धनुष, जो त्रेता युग में भगवान श्रीहरि विष्णु के अवतार की पहचान का साधन था, सभा के मध्य में रखा हुआ था।
       राजा जनक का संकेत पात कर आगंतुक राजा, राजकुमार बारी बारी से आगे आये और धनुष से पराजित हो कर बैठ गए। कोई धनुष को उठा न सका। उनका विश्वास दृढ़ हो गया कि महर्षि विश्वामित्र के साथ आये बालक ही धनुष उठाएंगे।
       उन्होंने सोचा, चलो तनिक थाह लेते हैं। उठे, और कहा- लगता है धरती वीरों से खाली हो गयी। लगता है अब धरा पर कोई योद्धा नहीं बचा। यदि पहले जानता कि इस देश की स्त्रियों ने वीर जनने बन्द कर दिए तो ऐसा प्रण कदापि नहीं करता....
     
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"ठहरिये महाराज! यह अपमान है हमारा..." राजा जनक अभी बोल ही रहे थे कि महर्षि विश्वामित्र के साथ बैठा वह गौरवर्णी युवक गरजते हुए मण्डप के मध्य कूद आया। आश्चर्यचकित हो कर सबने देखा," एक अद्वितीय सुन्दर नवयुवक, जिसके मुख पर पसरा क्रोध उसे सदाशिव की गरिमा प्रदान कर रहा था। चौड़ी छाती,बलिस्ट भुजाएं, चमकता हुआ ऊंचा माथा, कंधे तक लटकते केश, अंगारों से भरी हुई बड़ी बड़ी आंखें... जैसे कोई सिंह दहाड़ रहा हो, जैसे कोई उत्तेजित नाग फुंफकार रहा हो...
      लक्ष्मण गरजे- जिस सभा में रघुवंशी बैठे हों, वहाँ पृथ्वी को वीर विहीन बताना रघुवंश का अपमान है महाराज! संसार मेरे आत्मविश्वास को अहंकार न समझे, पर यदि भइया की आज्ञा हुई तो यह धनुष क्या समूची पृथ्वी को अपनी भुजाओं में दबा कर फोड़ दूंगा। 
      दूर स्त्रियों के बीच में खड़ी उर्मिला को रोमांच हो आया। उन्होंने पास खड़ी दासी से पूछा- "कौन हैं ये?" दासी ने उत्तर दिया- अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के छोटे सुपुत्र लक्ष्मण! नगर में चर्चा है कि इन्ही दोनों भाइयों ने ताड़का के आतंक का नाश किया है।"
     वह एक क्षण था जिसने उर्मिला को लक्ष्मण के साथ सदैव के लिए जोड़ दिया। उन्होंने एक करुण दृष्टि डाली सिया की ओर, सिया मुस्कुरा उठीं। बस इतना कहा, "कहा था न! जो मांगा वह चारों के लिए मांगा है। विश्वास रखो, माँ गौरी हमारा मन जानती हैं।"
     उर्मिला के रौंगटे खड़े हो गए। आँखें चमक उठीं, मुख पर मुस्कान तैर उठी। उधर लक्ष्मण गरज रहे थे- इस संसार में ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसे मेरे भइया न पा सकें। ऐसा कोई कार्य नहीं जो भइया न कर सकें। उनके होते हुए कोई व्यक्ति ऐसा कैसे कह सकता है कि धरती पर योद्धा नहीं बचे..."
      अचानक एक मीठा स्वर उभरा। लगा जैसे स्वयं ईश्वर बोल रहे हों। महर्षि विश्वामित्र के पास बैठे श्रीराम ने कहा, "शांत हो जाओ लखन! महाराज हमारे पिता तुल्य हैं। उनकी किसी बात को अन्यथा नहीं लेना चाहिये।"
      जिसने भी सुना, वह जैसे तृप्त हो गया। जैसे माता सरस्वती ने स्वयं वीणा बजाई हो, जैसे गन्धर्वों ने सारे रागों का निचोड़ गा दिया हो... लक्ष्मण ने माथा झुकाया और चुपचाप उनके पास आ कर बैठ गए। कोई प्रश्न नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं... क्रोध से भरा नवयुवक बड़े भाई के एक बार कहते ही इतना सहज हो गया जैसे कुछ हुआ ही न हो! यह रामकुल की मर्यादा थी।
       महाराज जनक तृप्त हो गए। उन्हें अब कोई संदेह न रहा। उन्होंने हाथ जोड़ कर महर्षि विश्वामित्र की ओर संकेत किया। विश्वामित्र ने मधुर स्वर में कहा- उठो राम! 
        राम उठे। गुरु विश्वामित्र से आशीर्वाद ले कर आगे बढ़े।
        एक पवित्र व्यक्ति अपने आसपास के समूचे वातावरण को पवित्र कर देता है। राम को देखते ही सभा में उपस्थित समस्त जन के हाथ अनायास ही जुड़ गए। सबका हृदय ईश्वर से प्रार्थना करने लगा- प्रभु! ऐसा करें कि धनुष की प्रत्यंचा यही बालक चढ़ाये। उस दिव्य स्वरूप को एकटक निहारते राजा जनक और रानी सुनयना की आंखों में जल भर आया। मन हुलस कर कहने लगा- यही हैं।
       दास दासियों के मन में बैठ गया, यही हैं सिया के पाहुन! धनुष के सामने पराजित होते असंख्य राजाओं को देख देख कर विश्वास खो चुके दास-दसियों ने भरोसे के साथ अपने हाथ में फूलों की डोलची उठा ली... 
       उर्मिला माण्डवी और अन्य सखियों के अधरों पर मंगल गीत उतर आए। वे अनायास गुनगुनाने लगीं। हृदय कह रहा था, "बस बस! यही हैं..."
       सिया एकटक निहार रही थीं अपने परमात्मा को! वे जानती थीं कि यदि ये वही नहीं होते तो पसन्द कैसे आते? उनका पसन्द आना ही प्रमाण था कि वही हैं। उनके मुख पर दैवीय मुस्कान पसर गयी।
       राम आगे बढ़े। भगवान शिव को प्रणाम किया। शिव धनुष को प्रणाम किया। धनुष उठाया, प्रत्यंचा चढ़ाई और तोड़ दिया....     
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी  सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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