उर्मिला 2
राम अपनी आंखों में प्रेम लेकर वाटिका से लौटे, और सिया अपने हृदय में विश्वास ले कर... युग निर्माण के लिए धरा पर अलग अलग अवतरित हुए पुरुष और प्रकृति के लिए अब साथ आने का समय आ गया था।
सिया गौरी पूजन को चलीं। जगत जननी के मानवीय स्वरूप ने दैवीय स्वरूप के आगे आँचल पसार कर कहा, "तुम जानती हो माँ कि मुझे क्या चाहिए! जो मेरा है वह मुझे मिले।"
लौटीं तो फिर बहनों ने घेर लिया। श्रुतिकीर्ति ने पूछा, "क्या मांगा दाय! उन्ही साँवले को?" सब हँस उठीं। सिया ने उत्तर दिया, "जो भी मांगा, वह चारों के लिए मांगा।"
"हैं? चारों के लिए? इसका क्या अर्थ है सिया दाय? स्वयंवर तो आपका हो रहा है।" अबकी उर्मिला का प्रश्न था।
"हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता श्रुति! माँ गौरी जो करेंगी, उचित ही करेंगी। चलो, राजसभा निहारी जाय।" सिया ने उस मासूम जिज्ञासा को टालते हुए कहा। चारों बहनें माताओं के पास चलीं, अब उन्हें धनुषयज्ञ मण्डप की ओर जाना था।
स्वयंवर में अबतक अपने बाहुबल के अहंकार में मतवाले योद्धा आते थे, आज पहली बार एक ऋषि अपने शिष्यों को ले कर आया था। महाराज जनक के मन मे विश्वास उपजा, कदाचित आज शिवधनुष की प्रत्यंचा चढ़ा कर वह अज्ञात योद्धा जगत के समक्ष आ जाय जिसकी सदियों से स्वयं समय प्रतीक्षा कर रहा है। कदाचित आज जगत उस तारणहार को पहचान ले, जो संसार में धर्म और मर्यादा की स्थापना के लिए आने वाला है।उन्होंने महादेव का स्मरण किया।
महादेव का प्राचीन धनुष, जो त्रेता युग में भगवान श्रीहरि विष्णु के अवतार की पहचान का साधन था, सभा के मध्य में रखा हुआ था।
राजा जनक का संकेत पात कर आगंतुक राजा, राजकुमार बारी बारी से आगे आये और धनुष से पराजित हो कर बैठ गए। कोई धनुष को उठा न सका। उनका विश्वास दृढ़ हो गया कि महर्षि विश्वामित्र के साथ आये बालक ही धनुष उठाएंगे।
उन्होंने सोचा, चलो तनिक थाह लेते हैं। उठे, और कहा- लगता है धरती वीरों से खाली हो गयी। लगता है अब धरा पर कोई योद्धा नहीं बचा। यदि पहले जानता कि इस देश की स्त्रियों ने वीर जनने बन्द कर दिए तो ऐसा प्रण कदापि नहीं करता....
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"ठहरिये महाराज! यह अपमान है हमारा..." राजा जनक अभी बोल ही रहे थे कि महर्षि विश्वामित्र के साथ बैठा वह गौरवर्णी युवक गरजते हुए मण्डप के मध्य कूद आया। आश्चर्यचकित हो कर सबने देखा," एक अद्वितीय सुन्दर नवयुवक, जिसके मुख पर पसरा क्रोध उसे सदाशिव की गरिमा प्रदान कर रहा था। चौड़ी छाती,बलिस्ट भुजाएं, चमकता हुआ ऊंचा माथा, कंधे तक लटकते केश, अंगारों से भरी हुई बड़ी बड़ी आंखें... जैसे कोई सिंह दहाड़ रहा हो, जैसे कोई उत्तेजित नाग फुंफकार रहा हो...
लक्ष्मण गरजे- जिस सभा में रघुवंशी बैठे हों, वहाँ पृथ्वी को वीर विहीन बताना रघुवंश का अपमान है महाराज! संसार मेरे आत्मविश्वास को अहंकार न समझे, पर यदि भइया की आज्ञा हुई तो यह धनुष क्या समूची पृथ्वी को अपनी भुजाओं में दबा कर फोड़ दूंगा।
दूर स्त्रियों के बीच में खड़ी उर्मिला को रोमांच हो आया। उन्होंने पास खड़ी दासी से पूछा- "कौन हैं ये?" दासी ने उत्तर दिया- अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के छोटे सुपुत्र लक्ष्मण! नगर में चर्चा है कि इन्ही दोनों भाइयों ने ताड़का के आतंक का नाश किया है।"
वह एक क्षण था जिसने उर्मिला को लक्ष्मण के साथ सदैव के लिए जोड़ दिया। उन्होंने एक करुण दृष्टि डाली सिया की ओर, सिया मुस्कुरा उठीं। बस इतना कहा, "कहा था न! जो मांगा वह चारों के लिए मांगा है। विश्वास रखो, माँ गौरी हमारा मन जानती हैं।"
उर्मिला के रौंगटे खड़े हो गए। आँखें चमक उठीं, मुख पर मुस्कान तैर उठी। उधर लक्ष्मण गरज रहे थे- इस संसार में ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसे मेरे भइया न पा सकें। ऐसा कोई कार्य नहीं जो भइया न कर सकें। उनके होते हुए कोई व्यक्ति ऐसा कैसे कह सकता है कि धरती पर योद्धा नहीं बचे..."
अचानक एक मीठा स्वर उभरा। लगा जैसे स्वयं ईश्वर बोल रहे हों। महर्षि विश्वामित्र के पास बैठे श्रीराम ने कहा, "शांत हो जाओ लखन! महाराज हमारे पिता तुल्य हैं। उनकी किसी बात को अन्यथा नहीं लेना चाहिये।"
जिसने भी सुना, वह जैसे तृप्त हो गया। जैसे माता सरस्वती ने स्वयं वीणा बजाई हो, जैसे गन्धर्वों ने सारे रागों का निचोड़ गा दिया हो... लक्ष्मण ने माथा झुकाया और चुपचाप उनके पास आ कर बैठ गए। कोई प्रश्न नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं... क्रोध से भरा नवयुवक बड़े भाई के एक बार कहते ही इतना सहज हो गया जैसे कुछ हुआ ही न हो! यह रामकुल की मर्यादा थी।
महाराज जनक तृप्त हो गए। उन्हें अब कोई संदेह न रहा। उन्होंने हाथ जोड़ कर महर्षि विश्वामित्र की ओर संकेत किया। विश्वामित्र ने मधुर स्वर में कहा- उठो राम!
राम उठे। गुरु विश्वामित्र से आशीर्वाद ले कर आगे बढ़े।
एक पवित्र व्यक्ति अपने आसपास के समूचे वातावरण को पवित्र कर देता है। राम को देखते ही सभा में उपस्थित समस्त जन के हाथ अनायास ही जुड़ गए। सबका हृदय ईश्वर से प्रार्थना करने लगा- प्रभु! ऐसा करें कि धनुष की प्रत्यंचा यही बालक चढ़ाये। उस दिव्य स्वरूप को एकटक निहारते राजा जनक और रानी सुनयना की आंखों में जल भर आया। मन हुलस कर कहने लगा- यही हैं।
दास दासियों के मन में बैठ गया, यही हैं सिया के पाहुन! धनुष के सामने पराजित होते असंख्य राजाओं को देख देख कर विश्वास खो चुके दास-दसियों ने भरोसे के साथ अपने हाथ में फूलों की डोलची उठा ली...
उर्मिला माण्डवी और अन्य सखियों के अधरों पर मंगल गीत उतर आए। वे अनायास गुनगुनाने लगीं। हृदय कह रहा था, "बस बस! यही हैं..."
सिया एकटक निहार रही थीं अपने परमात्मा को! वे जानती थीं कि यदि ये वही नहीं होते तो पसन्द कैसे आते? उनका पसन्द आना ही प्रमाण था कि वही हैं। उनके मुख पर दैवीय मुस्कान पसर गयी।
राम आगे बढ़े। भगवान शिव को प्रणाम किया। शिव धनुष को प्रणाम किया। धनुष उठाया, प्रत्यंचा चढ़ाई और तोड़ दिया....
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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