शनिवार, 19 नवंबर 2022

उर्मिला 8

 

उर्मिला 8

बारात अयोध्या लौटी। महीनों तक अयोध्या के नगर जन अपने राजकुमारों के विवाह का उत्सव मनाते रहे।
    राजा दशरथ राम विवाह के बाद से ही बदल से गये थे। किसी भी पिता को सर्वाधिक आनन्द अपने पुत्र की गृहस्थी बसते देखने में आता है। उसे लगता है जैसे उसने अपनी यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा पास कर ली। आगे की यात्रा में सांसारिक संकटों के रोड़े उसके कमजोर हो रहे पैरों को चोटिल नहीं करेंगे, बल्कि उन्हें अपनी ठोकर से उड़ा देने के लिए उसके पुत्र के बलशाली पैर अब आगे चल रहे होंगे।
     अत्यधिक खुशी या संतुष्टि अपने साथ वैराग्य ले कर आती है। राजा दशरथ के जीवन में भी अब वैराग्य उतर रहा था। उन्होंने लम्बे समय तक निर्विघ्न शासन किया था, वे सदैव अपनी प्रजा का आशीष पाने में भी सफल रहे थे। अपनी युवा अवस्था में संसार के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में स्थान बना चुके राजा दशरथ के पास अब राम लक्ष्मण जैसे तेजस्वी योद्धा पुत्र थे। उन्हें अब और किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं थी। वे पूर्ण हो चुके थे। इसी पूर्णता के भाव के साथ एक दिन उन्होंने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ को बुलाया और कहा- "इस राजमुकुट के भार से मुझे मुक्त करें भगवन! मेरी यात्रा पूर्ण हो गयी। मेरी अयोध्या को सौंप दीजिये अपने गुरुकुल का वह सर्वश्रेष्ठ अस्त्र, जिसे भविष्य में पुरुषोत्तम होना है।"
     महर्षि वशिष्ठ ने एक गहरी सांस ली। मुस्कुराए, और कहा- "अवश्य राजन! युग परिवर्तन का समय आ गया। चलिये! रघुकुल की तपस्या यहाँ से प्रारम्भ होती है।"
     राजा दशरथ कुलगुरु की बात समझ न सके, पर वे संतुष्ट थे। जो स्वयं राम के पिता थे, उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका क्यों होती भला...?
     उधर अंतः पुर में आनन्द पसरा हुआ था। तीनों माताओं ने अपनी चारों पुत्रवधुओं को जैसे हृदय में रख लिया था। सिया, राम से जुड़ कर आई थीं, सो वे सबकी दुलारी थीं। वे सदैव माताओं के दुलार की छाया में होती थीं। कभी कौशल्या उनके बाल बना रही होतीं, तो कभी कैकई उन्हें अपने हाथों से उन्हें स्वादिष्ट भोजन करा रही होतीं थीं। माता कैकई उन्हें सबसे अधिक प्रेम करती थीं। माता सुमित्रा का तो जन्म ही परिवार में प्रेम बाँटने और और कुल की सेवा करने के लिए हुआ था। वे सभी बधुओं पर प्रेम बरसाती रहती थीं।
     उर्मिला को कौशल्या का सर्वाधिक स्नेह प्राप्त था। वे सदैव उनकी सेवा में लगी रहती थीं। माता कौशल्या बड़े प्रेम से उनसे मिथिला की कहानियां सुनती रहतीं।
     माण्डवी और श्रुतिकीर्ति भी बड़ों की सेवा में लगी रहती थीं। चारों बहनों का आपसी स्नेह अयोध्या में और भी प्रगाढ़ हो गया था।
      संध्या का समय था, चारों बहनें अन्तःपुर की वाटिका में बैठी आपस में बातें कर रही थीं, तभी एक दासी दौड़ी हुई आयी और कहा- "जानती हैं! महाराज, युवराज का राज्याभिषेक की योजना बना रहे हैं। प्रसन्न हो जाइए, सम्भव है कल परसो तक राजकुमार राम के राज्याभिषेक का दिन निश्चित हो जाय।"
     सचमुच चारों प्रसन्न हो उठीं। श्रुतिकीर्ति ने सिया को चिढ़ाते हुए सर झुका कर कहा, "प्रणाम महारानी! दासी का अभिवादन स्वीकार करें..."
     सिया ने मुस्कुराते हुए उसके माथे पर चपत लगाई और कहा, "धत! कोई महारानी और कोई दासी नहीं होगा रे! जैसे अबतक जीये हैं वैसे ही आगे जिएंगे। हमारा धर्म है परिवार को बांध कर रखना, हम वही करेंगे।"
     पीछे से उर्मिला ने कहा, "नहीं सिया दाय! आप अयोध्या की महारानी हो रही हैं। आप पाहुन के साथ मिल कर देश को बांधिए, परिवार को बांध कर रखने का दायित्व मेरा रहा। भरोसा रखियेगा, इस तप में आपकी बहन कभी नहीं टूटेगी।"
     सिया मुस्कुरा उठीं। वे जानती थीं, उर्मिला का कठोर तप खंडित नहीं होने वाला था।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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