शनिवार, 5 नवंबर 2022

उर्मिला 6

 उर्मिला 6


जनकपुर के राजपरिवार ने अपनी चारों राजकुमारियों का विवाह संपन्न करा लिया। 

        पिता के बटवारे में बेटियों के हिस्से आंगन आता है। जब आंगन में बेटी के विवाह का मण्डप बनता है, उसी क्षण वह आंगन बेटी का हो जाता है। विवाह के बाद वर के पिता कन्या के पिता से थोड़ा धन लेकर मण्डप का बंधन खोल वह आंगन लौटा तो देते हैं, पर सच यही है कि पिता अपना आंगन ले नहीं पाता। आंगन सदा बेटियों का ही होता है। घर के आंगन पर बेटियों का अधिकार होने का अर्थ समझ रहे हैं न? अपने घर में भी स्मरण रखियेगा इस बात को... उस दिन राजा जनक के राजमहल के आंगन पर ही नहीं, जनकपुर के हर आंगन पर सिया का अधिकार हो गया। वह आज भी है...

       राजा ने बेटियों को भरपूर कन्या धन दिया। लाखों गायें, अकूत स्वर्ण, असंख्य दासियाँ... अब विदा की बेला थी। अपनी अंजुरी में अक्षत भर कर पीछे फेंकती बेटियां आगे बढ़ी, जैसे आशीष देती जा रही हों कि मेरे जाने के बाद भी इस घर में अन्न-धन बरसता रहे, यह घर हमेशा सुखी रहे। वे बढ़ीं अपने नए संसार की ओर! उनकी आंखों से बहते अश्रु उस आंगन को पवित्र कर रहे थे। उनकी सिसकियां कह रही थीं, "पिता! तुम्हारी सारी कठोरता को क्षमा करते हैं। तुम्हारी हर डांट क्षमा... हमारे पोषण में हुई तुम्हारी हर चूक क्षमा..."

      माताओं ने बेटियों के आँचल में बांध दिया खोइछां! थोड़े चावल, हल्दी, दूभ और थोड़ा सा धन... ईश्वर से यह प्रार्थना करते हुए, कि तेरे घर में कभी अन्न की कमी न हो! तेरे जीवन में हल्दी का रंग सदैव उतरा रहे, तेरा वंश दूभ की तरह बढ़ता रहे, तेरे घर में धन की वर्षा होती रहे। और साथ ही यह बताते हुए, कि याद रखना! इस घर का सारा अन्न, सारा धन, सारी समृद्धि तुम्हारी भी है, तुम्हारे लिए हम सदैव सबकुछ लेकर खड़े रहेंगे।

      जनकपुर की चारों बेटियां विदा हुईं तो सारा जनकपुर रोया। पर ये सिया के मोह में निकले अश्रु नहीं थे, ये सभ्यता के आंसू थे। गाँव के सबसे निर्धन कुल की बेटी के विदा होते समय गाँव की हवेली भी वैसे ही रोती है, जैसे गाँव की राजकुमारी के विदा होते समय गाँव का सबसे दरिद्र बुजुर्ग रोता है। बेटियां किसी के आंगन में जन्में, पर होती सारे गाँव की हैं। सिया उर्मिला केवल जनक की नहीं, जनकपुर की बेटी थीं।

      राजा दशरथ पहले ही जनकपुर के राजमहल से निकल कर जनवासे चले गए थे। परम्परा है कि ससुर मायके से विदा होती बहुओं का रोना नहीं सुनता। शायद उस नन्हे पौधे को उसकी मिट्टी से उखाड़ने के पाप से बचने के लिए... उसका धर्म यह है कि जब पौधा उसकी मिट्टी में रोपा जाय, तो वह माली दिन रात उसे पानी दे, खाद दे... अपने बच्चों की नई गृहस्थी को ठीक से सँवार देना ही उसका धर्म है।

      चारों वधुएँ अपने नए कुटुंब के संग पतिलोक को चलीं। जनकपुर में महीनों तक छक कर खाने के बाद अयोध्या की प्रजा समधियाने से मिले उपहारों को लेकर गदगद हुई अयोध्या लौट चली।

    समय ध्यान से देख रहा था उन चार महान बालिकाओं को, जिन्हें भविष्य में जीवन के अलग अलग मोर्चों पर बड़े कठिन युद्ध लड़ने थे। समय देख रहा था उन चार बालकों को भी, जिनके हिस्से उसने हजार परम्पराओं को एक सूत्र में बांध कर एक नए राष्ट्र के गठन की जिम्मेवारी दी थी।

     बारात जनकपुर की सीमा से जैसे ही बाहर निकली, एकाएक तेज आँधी चलने लगी। हाथी भड़कने लगे, रथ डगमगाने लगे, धूल से समूचा आकाश काला हो गया। अचानक सबने देखा, धूल के अंधेरे से एक विराट तेजस्वी मूर्ति निकल कर चली आ रही थी। निकट आने पर सबने पहचाना, वे पिछले युग के राम थे, परशु-राम।

क्रमशः

(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी  सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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