रविवार, 11 दिसंबर 2022

उर्मिला ११

 

उर्मिला 11

राम कक्ष से निकलने के लिए उठे तो देखा, पिता ने उनका उत्तरीय पकड़ लिया था। वे उनकी ओर मुड़े तो बोले- "न जाओ राम! इस कुलघातिनी के कारण मुझे न त्यागो पुत्र!"
    राम फिर पिता के चरणों मे बैठ गए। कहा, "माता को दोष न दें पिताश्री! नियति ने जो तय किया है, हम उसे बदल नहीं सकते। और आपका प्रिय राम यदि आपके एक वचन का निर्वाह भी नहीं कर सके तो धिक्कार है उसके होने पर... मुझे जाना ही होगा।"
   "नहीं पुत्र! तुम चले गए तो मेरा क्या होगा? इस अयोध्या का क्या होगा? इस बृद्धावस्था में पुत्र का वियोग नहीं सह सकूंगा मैं! मुझ पर दया करो राम, मत जाओ..."
    "मैं यदि वन नहीं गया तो भविष्य यही कहेगा कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ अपने पुत्र को इस योग्य भी नहीं बना सके कि वह पिता की प्रतिष्ठा का मूल्य समझ सकता। आपकी प्रतिष्ठा के लिए राम असंख्य बार अपने प्राणों की आहुति दे सकता है, यह वनवास तो अत्यंत सहज है पिताश्री। आप चिंतित न हों, और मुझे आज्ञा दें।"
    मैं तुम्हे आज्ञा नहीं दे सकता प्रिय! तुम्हारा बनवास तुम्हारे पिता की इच्छा नहीं है, बल्कि इस मतिशून्य कैकई का षड्यंत्र है। तुम्हारा जाना आवश्यक नहीं है।"
    " माता को दिए गए आपके वचन का मूल्य मैं खूब समझता हूँ पिताश्री! वह पूर्ण होना ही चाहिये। यदि अयोध्या का युवराज ही पिता के वचन की अवहेलना करने लगे, तो सामान्य जन सम्बन्धों का सम्मान करना ही भूल जाएंगे। इस संस्कृति का नाश हो जाएगा पिताश्री! मेरा वनवास इस युग के लिए आवश्यक है, मुझे जाने दीजिये।"
    "तुम चले गए तो यह राजकुल बिखर जाएगा पुत्र! यह परिवार इस भीषण विपत्ति को सह नहीं पायेगा। चौदह वर्ष बाद जब तुम लौटोगे तो यहाँ उदास खंडहरों के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। मत जाओ पुत्र, मत जाओ..."
    "कठोर होइये पिताश्री! आप अयोध्यानरेश हैं। आपके समान तपस्वी सम्राट के पुत्र को यदि लम्बी वन यात्रा करनी पड़ रही है, तो यह यात्रा अशुभ के लिए नहीं बल्कि शुभ के लिए ही होगी। सज्जनों के समक्ष आने वाली विपत्ति वस्तुतः किसी अन्य बड़ी उपलब्धि के द्वार खोलने आती है। कौन जाने, नियति इस बहाने कौन सा धर्म काज कराना चाहती है! और इस परिवार को बांध कर रखने के लिए आप हैं, मेरा भरत है, मेरी माताएं हैं... मुझे स्वयं से अधिक अपने प्रिय अनुजों पर भरोसा है पिताश्री, वे मेरी अनुपस्थिति में अयोध्या को थाम लेंगे। कुछ नहीं बिखरेगा, सब बना रहेगा!"
      दशरथ समझ गए कि राम नहीं मानेंगे। उनकी आंखें लगातार बह रही थीं। वे चुप हो गए। राम ने उनके चरणों में शीश नवाया, फिर माता कैकई के पैर पड़े और कक्ष से निकल गए।
      राम को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा करनी थी, सो वे अपने सभी बड़ों से मिल कर आशीर्वाद लेने लगे। वे जानते थे, माता-पिता के सम्मान के लिए स्वीकार की गई विपत्ति भी संतान का अहित नहीं करती, बल्कि अंततः लाभ ही देती है। वे यह भी जानते थे कि जबतक कोई युवराज सामान्य नागरिक की भांति अपने समूचे देश का भ्रमण न कर ले, वह कभी भी अच्छा शासक नहीं बन सकता। लोक का नायक बनने के लिए पहले लोक को ढंग से समझना पड़ता है, उसका हिस्सा बनना पड़ता है। राम अपनी उसी यात्रा पर निकल रहे थे।
       राम जब अपने कक्ष में पहुँचे तो सिया ने पूछा, "विवाह का पहला वचन स्मरण है प्रभु? तनिक बताइये तो, क्या था?"
      "स्मरण है सिया! यही कि अपने जीवन के समस्त धर्मकार्यों में मैं तुम्हे अपने साथ रखूंगा। तुम्हारे बिना कोई अनुष्ठान नहीं करूंगा।"
     "फिर इस तीर्थयात्रा में अकेले कैसे निकल रहे हैं प्रभु? यह तप क्या अकेले ही करेंगे?" सिया के अधरों पर एक शांत मुस्कान पसरी थी।
      राम भी मुस्कुरा उठे। कहा, "आपके बिना तो कोई यात्रा सम्भव नहीं देवी। चलिये, चौदह वर्ष की इस महायात्रा के कँटीले पथ पर अपने चरणों के रक्त से सभ्यता के सूत्र लिखते हैं। पीड़ा के पथ पर जबतक सिया संगीनी न हों तबतक किसी राम की यात्रा पूरी नहीं होती।"
     दोनों मुस्कुरा उठे। उस मुस्कान में प्रेम था, केवल प्रेम...

क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
https://chat.whatsapp.com/IxkKBG3l6gaK5pV8tlydaO
-------------🍂-------------
  telegram ग्रुप  ...👉🏼
https://t.me/joinchat/z7DaIwjp8AtlNzZl
______🌱_________
Please Follow...
(अन्य ग्रुप के लिंक, पुरानी पोस्ट यहां उपलब्ध )
https://dulmera.blogspot.com/

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य