रविवार, 25 जून 2023

कहानी अभिशप्त

कहानी

पहाड़ी पर बने ठाकुरजी के इकलौते मंदिर में माखन महतो संध्या की पूजा कर रहे थे। बाहर गरज-तड़प के साथ जोरों की बारिश हो रही थी!

भोग-आरती आदि से निवृत्त हो उन्होंने के किवाड़ बंद किये--"लगता है, आज भींगते हुए घर जाना होगा! कहीं बरसाती नदी उफान पर ना हो जाये!"

ठाकुरजी का स्मरण करते हुए नीचे तलहटी में उतर आये और तब ज तेज कदमों से गाँव की ओर बढ़ चले!

अँधेरा पूरी तरह पसर चुका था! वातावरण में रह रहकर गूँजती मेंढ़कों और झींगुरों की आवाज सन्नाटे को और भयावह बना रही थी!

और जैसी आशंका थी, वो सच साबित हुई!
छोटी सी पतली बरसाती नदी किसी शोख अदाकरा की तरह अपने नखरे दिखा रही थी!

"अभी थोड़ा ठहर जाऊँ, फिर पार उतरता हूँ!"--वो मन ही मन बुदबुदाये।

"यहीं नहीं, घर जाकर भी ठहर जाना! नहीं तो यहाँ भले डूबने से बच जाओ पर वहाँ नहीं बचोगे!"--वातावरण में बर्फ की मानिंद ठंडा स्वर गूंजा।

"कौन है?"--माखन जोरों से चिल्लाये।

कहीं कोई नहीं था!

"मेरे साथ ये खेल मत खेलो! ये मेरा रोज का काम है! बेहतर होगा कि सामने आ जाओ!"

"हहहहहोहोहोहो होहोहोहोहो! लो, आ गया सामने! अब बताओ, क्या करोगे मेरा परिचय जान कर?"--अचानक नदी किनारे वरगद के पेड़ से एक साया धप्प से जमीन पर कूदा और सधे कदमों से माखन के सामने आकर खड़ा हो गया!

तभी जोरों से बिजली चमकी!
पल भर में ही सबकुछ साफ साफ दिख गया!
सामने घुटे सिर, माथे पर त्रिपुंड लगाये और बदन पर मात्र धोती लपेटे एक वृद्ध खड़े थे!

"तू तो बड़ा गुनी है माखन! पूरे क्षेत्र में धाक है तेरी! सुना है कि एक से बढ़कर एक जबरजंग प्रेतों और चुड़ैलों को चुटकी बजाते भगा देता है!"

माखन के होठों से बोल ना फूटा!

"बोल! मुझे भी भगायेगा ना! हहहहहहहह, अब तक पहचान तो गया ही होगा तू?"

माखन होठों ही होठों में जाने क्या बुदबुदा रहा था!

"अपना परिचय मैं स्वयं दूँ क्या?"--अचानक वृद्ध की भृकुटी तनी।

"बाबा!"--माखन ने हाथ जोड़ लिए, "आपको कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है! मेरा प्रणाम स्वीकार करें!'

वृद्ध का चेहरा सामान्य हुआ--"तेरे पास एक काम से आया था रे!"

"आदेश कीजिए बाबा! आपका सेवक हूँ!"

"मेरे रास्ते में मत आना माखन! मैं नहीं चाहता कि तेरे जैसा सीधा-सादा आदमी बेवजह संकट में पड़े!"

"मैं भला आपके रास्ते में क्यों आऊँगा बाबा! हमारी तो अभी की मुलाकात है!"

"हो सकता है, आगे तुझे आना पड़े! खैर, तू घर जा, सब समझ जायेगा!"--कहकर वृद्ध ओझल हो गये!

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नदी का बहाव कम हो गया था! माखन के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया था!

घर पहुँचने की देर थी!
दुआर पर बाहर से कुछ लोग पहले से ही आये हुए थे!
माध्यम था, उन्हीं के गाँव के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति दयाल बाबू, जिनके वे लोग रिश्तेदार थे!

"जलपान हो गया?"--माखन ने दयाल से पूछा।

"जलपान की छोड़ो भैया! किसी तरह मेरे इन रिश्तेदारों को संकट से उबार लो बस!"

"क्षमा करना दयाल बाबू, ये मेरे बस का ना है!"--माखन ने हाथ जोड़ लिए!

"भगवान के लिए ऐसा मत कहिये माखन जी, बहुत दिनों से संकट में पड़े हुए हैंं हमलोग! आपका बड़ा नाम सुनकर हमलोग यहाँ आये हैं!"--रिश्तेदारों में से एक ने दयनीय स्वर में कहा!

"देखिये, मैं आपलोगों को भ्रम में नहीं रखना चाहता! दयाल बाबू के रिश्तेदार, मतलब हमारे भी रिश्तेदार! मेरे हाथ में होता, तो अवश्य मदद करता आपलोगों की!"

"पर ऐसा तो कभी नहीं हुआ माखन भैया कि कोई तुम्हारे पास आया, और तुमने उसे बैरंग वापस लौटा दिया! अभी तो तुमने इनलोगों की बात भी नहीं सुनी कि असल मामला है क्या!"

"जिनसे सुनना था, उनसे सुन चुका दयाल बाबू! इनसे नया क्या सुनूं!"

देर तक दोनों ओर से मान-मनुहार होती रही! आखिर में माखन को झुकना पड़ा!

"चलिए, सुबह चले चलता हूँ आपलोगों के साथ! पर ये जान लीजिए, मैं अपनी तरफ से कोशिश भर कर सकता हूँ! आपकी समस्या हल होगी ही, दावे से नहीं कह सकता!"

फिर अगली दिन सांझ के समय!
माखन, दयाल और उनके रिश्तेदार, सुदूर पहाड़ी क्षेत्र में अपने गंतव्य पर पहुँच चुके थे!

रात के भोजन की तैयारी हो रही थी! माखन दुआर के बाहर कुंए पर नहा रहे थे, तभी....!

"मन तो कर रहा है कि अभी तुझे कुंए में धकेल कर गाड़ दूँ!"

अचानक पीछे गूँजी आवाज इतनी दहशतनाक थी कि माखन के हाथ से डोर-बाल्टी छूटते छूटते बची!

"बाबा!"

"बाबा भी कहता है, और यहाँ इन पापियों को बचाने भी चला आया! बोल, बचा लेगा इनको!"

"मेरी इतनी सामर्थ्य कहाँ बाबा! मैं तो बस आपसे मनुहार कर सकता हूँ!"

"तू क्या समझता है, तेरी मनुहार से मेरी क्षति की भरपाई हो जायेगी!"

"मैं कहाँ कुछ जानता हूँ बाबा!"

"सच में जानना चाहता है?"

"जी!"

"ठीक है, तो सुन! आज आधी रात के बाद इन सबको लेकर इनके उत्तर वाले सीवान में चल! वहीं तुझे सब पता चल जायेगा!"

रात के डेढ़ बजे!
गाँव से दो किमी उत्तर सीवान में छोटा सा काफिला चला जा रहा था!

अचानक वातावरण में हल्की हल्की सिसकारियों की आवाज गूँजी!
सबके कान खड़े हो गये!

"अरे! ये आवाजें तो अपने खेत से आ रही हैं!"--दयाल बाबू के रिश्तेदार चौंके!

"श्श्श्शश्श्श्श!"--माखन ने होठों पर अंगुली रखी!

सामने का नजारा बड़ा हौलनाक था!

आधी रात के इस वक्त बेमौसम, खेत के उस छोटे टुकड़े की जुताई चल रही थी! माथे पर पगड़ी बाँधे और हाथ में मोटा डंडा लिए एक संभ्रात से दिखते व्यक्ति बैलों को ललकारते हुए तेजी से खेत जोते जा रहे थे!

रह रहकर हल के आगे एक महिला अपनी छोटी सी बच्ची को लेकर कूद जा रही थी, और हर बार वो व्यक्ति बैलों को रोककर, जबरदस्ती उस महिला और बच्ची को बेदर्दी से दूर झटक दे रहे थे! उसकी साड़ी मिट्टी में लिथड़ चुकी थी!

"बाबा!"--अचानक रिश्तेदारों के शरीर में भय की लहर दौड़ गयी," ये तो हमारे बाबा हैं! पर ये तो बहुत पहले ही.....!"

"एक नजर जरा उधर भी मार लीजिए!"--माखन ने अंगुली से मेंड़ पर बैठे, रोते-बिलखते एक शख्स की तरफ इशारा किया!"

"अरे! ये तो माधो बाबा हैं! पर ये....!"

"अब लौट चलिये, जो जानना था, वो जान गया मैं!"--माखन ने गंभीर स्वर में कहा!

आधे घंटे बाद सभी दुआर पर मंड़ई में बैठे सोचों में मग्न थे!

"वो जमीन आपलोगों की पुश्तैनी है!"--माखन ने पूछा।

"नहीं! वो चार कट्ठा जमीन गाँव के ही माधो बाबा की थी, जिनसे हमारे बाबा ने खरीद ली थी!"--रिश्तेदार ने कहा।

"खरीदी थी या हड़पी थी?"

"राम राम! क्या कहते हैं! बाकायदे पैसा दिया था उनको जमीन का!"

"मुँहमाँगा!"

"अब ये तो नहीं पता!"

"माधो बाबा जमीन बेचना चाहते थे?"

"ये हम कैसे बता सकते हैं, उस समय बच्चे थे हम!"--रिश्तेदार ने विवशता से होंठ काटे।

"तो असल बात हमसे सुनिये, छुपाइये मत!"--माखन ने कहना शुरु किया, "दरअसल वो चार कट्ठा खेत आपलोगों के चक के बीच आ रहा था! आपके बाबा ने शुरु में प्रेम से दबाव दिया माधो बाबा पर कि वो उसे बेच दें! पर उन बिचारे के पास पुरखों की निशानी के नाम पर बस उतनी ही जमीन बची थी! प्राणों से प्यारी उस जमीन को दुनिया का खजाना मिलने पर भी वो नहीं बेचते!"

सबके चेहरे लटके हुए थे!

माखन ने बोलना जारी रखा--"जब माधो बाबा किसी भी कीमत पर राजी नहीं हुए तो आपके बाबा ने दूसरा रास्ता अख्तियार किया! उन्हें तंग करने का अंतहीन सिलसिला चल निकला! कभी मेंड़ काट लेना, कभी बाँस से दो हाथ अंदर घेर लेना तो कभी अपने मवेशियों को खुला छोड़ देना खड़ी फसल चरने के लिए!

आखिर क्या करते माधो बाबा! ना इतना पैसा था उनके पास कि आपलोगों से कोर्ट-कचहरी करते और ना ही इतने बलशाली कि लाठी चलाते! बिचारे हर बार गिड़गिड़ाते और बदले में दुत्कारे जाते!

तब आपके बाबा का रुआब भी ऐसा था कि गाँव में कोई उनके विरोध में मुँह नहीं खोल सकता था!

अपनी असहाय अवस्था पर रोते-बिलखते एक दिन माधो बाबा के प्राण इसी खेत में जुताई करते हुए निकल गये! आपके बाबा ने जबरन कुछ पैसे उनकी पत्नी के हाथ में धरे और खेत पर कब्जा कर लिया!

बिचारी अभागी! अपनी छोटी बच्ची को ले खेत पर आती! जब भी हरवाहा हल चलाने को होता, उसके आगे पसर जाती! वो तो मान जाता पर आपके बाबा नहीं माने! उन्होंने खुद हल चलाया और बड़ी निष्ठुरता से माँ-बेटी को उनके ही खेत में झटक झटक कर फेंका! बिचारी माधो बाबा की भटकती आत्मा! सबकुछ देखती, बिलखती, पर कुछ करने में स्वयं को लाचार पाती! आज उन्हीं का प्रकोप झेल रहे हैं आपलोग! अकाल मृत्यु, असाध्य बीमारी, खेती-व्यापार में घाटा और मानसिक तनाव से तो जूझ ही रहा है आपलोगों का परिवार!"

"एक मिनट माखन भैया!"--अचानक दयाल बाबू ने टोका, "अगर माधो बाबा इतने ही शक्तिशाली हैं तो तभी बदला क्यों नहीं लिए!"

माखन मुस्कराये--"कुछ मनुष्यों के पूर्वजन्म के पुण्य इतने प्रबल होते हैं कि वर्तमान जीवन में उनके तेज के सामने कोई नहीं टिकता! इनलोगों के बाबा के नक्षत्र थे ही इतने तेज कि जब तक जिंदा रहे, माधो बाबा भी मेंड़ के अंदर अपने खेत में पैर तक नहीं रख पाये! पर जैसे ही वो मरे, वैसे ही परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा!"

देर तक सन्नाटा छाया रहा मंड़ई में!
आखिरकार वहाँ सबसे उम्रदराज रिश्तेदार ने मुँह खोला--

"अब तो जो हो गया, उसे हम लौटा नहीं सकते! वैसे भी हमलोग उस मामले के समय बहुत छोटे थे! खैर, बस ये बताइये कि हमलोगों को माधो बाबा से क्षमादान कैसे मिल सकता है?"

"सोच समझकर कहियेगा, करेंगे मेरा कहना!"

"आप बस आदेश कीजिए!"--रिश्तेदारों ने सामूहिक स्वर में कहा।

"तो सुनिये, उस चार कट्ठे जमीन में एक सार्वजनिक फलदार बाग लगाइये और छोटा सा तालाब बनवाइये! गायें और जानवर वहाँ घास चरेंगे, पानी पियेंगे! पेड़ों पर लगने वाले फल गाँव के बच्चे और पक्षी खायेंगे! माधो बाबा और उनकी पत्नी-बेटी की आत्मा को इससे ही शांति मिल जायेगी! आगे आपलोगों की मर्जी!"

"अगर इसी में हम सबकी भलाई, और माधो बाबा की शांति है तो यही सही! काश कि वे ये संकेत पहले ही कर दिये होते तो हमलोग तो इतनी परेशानी नहीं झेले होते!"

माखन के होठों पर मुस्कान खेली--"अब से पहले जो आये, वो जबरदस्ती काबू करना चाहे माधो बाबा को, पर उल्टे वही भयंकर मुसीबत में पड़े! मैंने तो बस बाबा के आगे अपना माथा टेका था, सो हल निकल आया!  *ध्यान रहे, सज्जन व्यक्ति जब कुपित होता है तो अच्छे से अच्छा सामर्थ्यवान भी उसके आगे घुटने टेक देता है!"*
-कृपा शंकर मिश्र *खलनायक* ,गाजीपुर,

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