अथ श्रीमहाभारत कथा
खुले केश द्रौपदी भद्रजनों की सभा के मध्य में पड़ी थीं। नेत्र धरा में धंसे जाते थे किंतु आशा की एक किरण थी जो अभी भी उनमें दिपदिपा रही थी कि अवश्य कोई वरिष्ठ राजवंश की वधु के लिए खड़ा होगा। कुछ क्षण बीते और वो किरण भी बुझ गई। हर ओर से निराश याज्ञसेनी के नेत्र उठे तो पूरी सभा में मानो एक अग्नि प्रज्जवलित हो उठी हो।
एक हाथ से कंधे पर बिखरा एकमात्र अंगवस्त्र संभालते हुए सैरंध्री खड़ी हुईं और एक अंतिम बार अपने पांचों पतियों की ओर मुड़ीं। भीम को छोड़कर सबके शीश झुके हुए थे। क्रोधाग्नि से भभकते चक्षुओं वाले भीम जब-जब उठने का प्रयास करते, युधिष्ठिर उन्हें रोक लेते कि इस वक्त वे केवल एक दास हैं, उन्हें बिना आज्ञा के कुछ भी करने का अधिकार नहीं है।
यह देखकर उन पर तिरस्कृत दृष्टि डालते हुए वह क्षत्राणी अपने श्वसुर धृतराष्ट्र की ओर बढ़ी। उनसे पूछा कि वो भरतवंश की वधु के अपमान पर चुप क्यों हैं? मगर हस्तिनापुर महाराज के नेत्रों में पसरा अंधेरा उनके मस्तिष्क को भी अपने अधिकारक्षेत्र में ले चुका था। वह मौन रहे।
रक्तरंजित नेत्रों वाली वह रजस्वला स्त्री अब भरतवंश शिरोमणि भीष्म के सम्मुख अपना प्रश्न लेकर खड़ी थी- आपका धर्म यहाँ क्या कहता है पितामह? वहां से भी उसे मौन के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्राप्त हुआ। द्रुपदसुता बारी-बारी से गुरु द्रोणाचार्य और कुल गुरु कृपाचार्य के पास अपने प्रश्न लेकर गईं किंतु कोई भी कुछ न कह सका।
अब वह विदुषी काका विदुर के पास पहुँची और पूछा- आप तो हर प्रकार से विद्वान हैं। आप बताइए कि द्युतक्रीड़ा में स्वयं को हार जाने वाले धर्मराज युधिष्ठिर को क्या अधिकार है कि वो उन्हें दाँव पर लगा सकें? विदुर समझते थे कि स्वयं एक दास बन चुके पांडवों को अब और कुछ दाँव पर लगाने का अधिकार नहीं था किंतु फिर भी वह हस्तिनापुर के युवराज को समझाने में असफल रहे। जब उनसे द्रौपदी का अपमान देखा नहीं गया तो वे एक चेतावनी देकर सभा से निकल गए कि अग्निसुता का यह अपमान समस्त कुल को भस्म कर देगा।
दुर्योधन पर इस चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं हुआ और उसने दुशासन को आदेश दिया कि इस एकमात्र अंगवस्त्र को भी चिर-कुमारी के शरीर से अलग कर दिया जाए। दुशासन आगे बढ़ा तो दुर्योधन के भाई विकर्ण ने प्रतिकार किया कि देवी द्रौपदी सही कह रही हैं, धर्मराज को कोई अधिकार नहीं है कि वह उन्हें दाँव पर लगाएँ। दुर्योधन को बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, सूर्यपुत्र कर्ण पहले ही उठ खड़े हुए और विकर्ण को एक बालक समान बताकर उनको चुप करा दिया।
अब कापुरुषों की उस सभा में पांचाली अपना अंगवस्त्र समेटे निस्सहाय खड़ी थीं। इधर, दुशासन आगे बढ़ा और उसका एक छोर पकड़कर खींचना शुरू किया और उधर, कृष्णा ने अपने नेत्र बंद किए और कर जोड़कर कृष्ण को पुकारने लगीं- हे सखा, अपनी सखी का यह अपमान देखकर क्या आप भी चुप रहेंगे? हे सहस्त्राकाश, आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है। हे साक्षी, क्या आप इस अन्याय को यूँ ही देखते रहेंगे?
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कृष्णेयी के हाथ अब अपनी साड़ी के पट पर नहीं टिके थे, अब उनकी आस लीलामानुष की लीला पर टिकी थी। अंगवस्त्र एक-एक परत खुलता जा रहा था और कृष्णेयी अनंता में लीन होती जा रही थीं। एक क्षण को ऐसा लगा कि वस्त्र हट जाने पर वहां कुछ नहीं होगा। जैसे आत्मा शरीर को छोड़ जाती है, वैसे ही द्रौपदी भी खुद को छोड़ चली थीं जैसे। सब किसी अनहोनी की आशंका से जड़वत हो गए थे।
बस एक दुर्योधन का अट्टहास था, जो क्षण प्रतिक्षण गुंजायमान होता महल के ऊपर काल की गर्जना का रूप लेता चला जा रहा था, एक दुशासन के हाथ थे जो अंगवस्त्र के रूप में अपनी मृत्यु को खींचते चले जा रहे थे और एक शकुनि की अधखुली मुट्ठी में खेलते पासे थे जो अब कौरवों के कुल को दाँव पर लगा बैठी बाजी के मूक साक्षी बन चुके थे।
कि तभी पार्थप्रिया की पुकार सुनकर पार्थसारथी वहाँ प्रकट हुए। अट्टहास रुक गया, हाथ थकने लगे, पासे अपना खेल कर गए। द्रौपदी का चीर बढ़ने लगा। दुशासन खींचता जाता था, चीर बढ़ता जाता था। दुशासन जितना खींचता, चीर उतना बढ़ता। महाभारती का ये चीर मानो महाभारत की गाथा लिखने निकल पड़ा था, कुरुवंश के समूल नाश की गाथा।
दुशासन के सामने धरती पर पड़ा चीर पर्वत के समान उठता चला जा रहा था। पूरी सभा सन्न थी। दुशासन थकने लगा, गति रुकने लगी, मगर चीर का बढ़ना न रुका। धीरे-धीरे चीर का वह पर्वत महल की छत को चीरकर बाहर निकलने को आतुर दिखने लगा। दुशासन कभी इधर आकर खींचता, कभी उधर जाकर खींचता, मगर चीर को न समाप्त होना था, न हुआ। समाप्त होता भी तो कैसे? यह चीर स्वयं श्रीकृष्ण की अंगुली पर बंधे उस टुकड़े से निकल रहा था जो कभी द्रौपदी ने अपने सखा का बहता रक्त देखकर अपनी साड़ी का पल्लू चीरकर बांधा था।
दुशासन की आँखों के आगे अंधकार छाने लगा। चीर खींचते उसके हाथ और नहीं बढ़ पाए और वह वहीं मूर्छित होकर गिर पड़ा। पूरी सभा सन्न थी, दुर्योधन अचंभित था, शकुनि व्याकुल और कर्ण अविश्वास से यह सारा दृश्य देख रहा था। द्रौपदी ने धीरे से नेत्रपट खोले तो उन्हें हर ओर केवल केशव दिख रहे थे। अश्रु की दो बूंदों से उनकी आँखे डबडबा आईं। सनातन ने द्रौपदी के चीर को सनातन कर दिया था, उनके सम्मान को सनातन कर दिया था, आराध्य और भक्त के संबंध को सनातन कर दिया था, एक सखा और सखी के प्रेम को सनातन कर दिया था।
-तृप्ति शुक्ला जी का लिखा हुआ
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