उर्मिला 26
शत्रुघ्न चुपचाप देखते रहे अपने बड़े भाई की ओर, जैसे किसी देवता की मूरत को निहार रहे हों। फिर मुस्कुरा कर कहा, "मैं सचमुच परिहास ही कर रहा था भइया। भाभी ने कहा है, "आप उनकी चिन्ता न कीजियेगा... राजा जनक की बेटी अयोध्या राजमहल के आंगन को अपने आँचल से बांध कर रखेगी। कुछ न बिखरेगा, कुछ न टूटेगा..."
शत्रुघ्न की आँखे भीगने लगी थीं। लखन ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया।
शत्रुघ्न लक्ष्मण के पास से स्त्रियों के खेमे में आये और सीधे उर्मिला के पास चले गए। उनका मन अभी भी शांत नहीं हुआ था। चुकी वे सबसे छोटे थे इसलिए सहजता से कोई भी प्रश्न पूछ सकने का अधिकार रखते थे। उन्होंने उलझे हुए स्वर में पूछा, "क्या आप सचमुच भइया से मिलना नहीं चाहतीं भाभी?"
उर्मिला के अधरों पर क्षणिक मुस्कान तैर उठी। कहा, "इसकी क्या आवश्यकता देवर जी? हम साथ ही तो हैं..."
"तो जब मिलना ही नहीं था तो इस गहन वन में आई क्यों भाभी?" शत्रुघ्न की उलझन बढ़ती जा रही थी।
"हम तो अयोध्या की प्रजा होने के नाते अपने महाराज को वापस ले जाने आये थे देवर जी! अनुज वधु होने के नाते अपने कुल के ज्येष्ठ को यह बताने आये थे कि उनके सारे बच्चे उनके चरणों में श्रद्धा रखते हैं। पर यहाँ आ कर देखा कि वे हमारी कल्पना से भी अधिक बड़े हैं। उनके अंदर सबके लिए प्रेम ही प्रेम है। उनके अश्रु उन्हें देवता बना गए देवर जी! हम राजा लेने आये थे, देवता ले कर लौटेंगे। और लगे हाथ यह भी लाभ हो गया कि आपके भइया को जी भर के देख भी लिया, अन्यथा मेरा तपस्वी पति मुझे चौदह वर्षों तक कहाँ मिलना था?" उर्मिला के मुख पर संतुष्टि के अद्भुत भाव पसरे हुए थे।
"यह प्रेम का कौन सा रूप है भाभी? मैं न पूर्णतः भइया को समझ पा रहा हूँ, न आपको..." शत्रुघ्न की उलझन कम नहीं हो रही थी।
"प्रेम को भी कभी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिये देवरजी! हाथ से धर्म की डोर छूट जाय तो प्रेम दैहिक आकर्षण भर रह जाता है। ज्येष्ठ के प्रति पूर्ण समर्पण उनका धर्म है, और उनके धर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा रखना मेरा धर्म है। हम दोनों अपने धर्म पर अडिग रहें, यही हमारे प्रेम का आदर्श है। हमारा जो निर्णय आपको प्रेम के विरुद्ध लग रहा है, वस्तुतः वही हमारे प्रेम की प्रगाढ़ता सिद्ध करता है।" उर्मिला मुस्कुरा उठी थीं।
शत्रुघ्न उलझ से गए थे। सर झटक कर बोले, "मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूँ। पर मुझे अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा।"
उर्मिला ने हँसते हुए चिढ़ाया, "आप अभी बच्चे हैं देवर जी! आप प्रेम को नहीं समझ पाएंगे। जाइये, वापसी की व्यवस्था देखिये।"
शत्रुघ्न बोले, "मेरे लिए वही ठीक है भाभी... मैं चला।" वे बाहर निकल गए और भैया भरत के पास जा कर उनके आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।
वापसी की बेला आ गयी। राम को छोड़ कर कोई जाना नहीं चाहता था, पर राम के बार बार कहने पर सभी मन मार कर तैयार हो गए थे।
सत्ता के लिए राम और भरत में छिड़े द्वंद में राम की ही चली थी, पर अयोध्या की दृष्टि में भरत विजयी हुए थे। भरत का समर्पण उन्हें बहुत बड़ा बना गया था।
राम की पादुकाओं को माथे पर रख कर भरत चलने को सज्ज हुए। चलने से पूर्व उन्होंने तेज स्वर में कहा, "राजा राम की जय।"
उपस्थित जनसमूह चिल्ला उठा, "हमारे भरत की जय..."
उर्मिला ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा लक्ष्मण की ओर! आंखों में उस तपस्वी की छवि भर ली और शीघ्रता से मुड़ गयीं, ताकि लक्ष्मण की दृष्टि न पड़े...
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...* 👉🏼
https://chat.whatsapp.com/H0Qv5FCw4XG3NV5qeChAZ0
_________🌱__________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें