उर्मिला 27
राम की पादुकाओं को माथे पर रख कर भरत चलने को सज्ज हुए। चलने से पूर्व उन्होंने तेज स्वर में कहा, "राजा राम की जय।"
उपस्थित जनसमूह चिल्ला उठा, "हमारे भरत की जय..."
उर्मिला ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा लक्ष्मण की ओर! आंखों में उस तपस्वी की छवि भर ली और शीघ्रता से मुड़ गयीं, ताकि लक्ष्मण की दृष्टि न पड़े...
भारत अपने शीश पर भइया राम की चरणपादुका ले कर लौटे! अयोध्या की प्रजा अपने हृदय में राम का देवत्व ले कर लौटी। माता कौसल्या अपनी आंखों में अपने पुत्र का विराट व्यक्तित्व ले कर लौटीं। अपने बच्चों के हृदय में भरे निर्लोभ सेवाभाव को देख कर धन्य हुई माता सुमित्रा सन्तोष ले कर लौटीं। पर जो कैकई ने पाया वह कोई न पा सका था। अनायास ही हुए महापाप के बोझ से दब चुकी कैकई को जिन्होंने पल भर में ही अपराधमुक्त कर दिया था, कैकई ने उस मर्यादापुरुषोत्तम को सबसे पहले महसूस किया था। उन्हें अनुभव हो रहा था कि कुछ ही वर्षों में उनका प्रिय बेटा जगतपिता के रूप में स्वीकार किया जाने वाला है। वे अपनी आंखों में अपने करुणानिधान, मर्यादापुरुषोत्तम बेटे की मोहक छवि बसा कर लौटीं... ज्येष्ठ की ओर आँख न उठाने की परम्परा से बंधी उर्मिला केवल अपने धर्मात्मा पति के लिए प्रेम लेकर गयी थीं। वे लौटीं तो उनके पास उस प्रेम के अतिरिक्त कुछ अश्रु की बूंदे थीं, जिनका मूल्य केवल वही जानती थीं। तीर्थ की तीर्थयात्रा पूरी हो गयी थी।
भरत राममय होकर लौटे थे। आते ही स्पष्ट कर दिया कि भइया राम यदि चौदह वर्ष का वनवास भोगेंगे तो भरत भी उसी दशा में जिएंगे। उन्होंने भी राम की ही भांति राजसी वस्त्र त्याग कर वल्कल धारण कर लिया। राजमहल से दूर राजधानी के बाहरी हिस्से में एक घास-फूस की कुटिया बनी, और तय हो गया कि अयोध्या का कार्यकारी सम्राट इसी कुटिया में बैठे बैठे प्रजा की सेवा करेगा।
सत्ता का महलों की जगह महात्माओं की कुटिया से संचालित होना ही रामराज्य के आगमन का प्राथमिक संकेत होता है। अयोध्या इसे अनुभव करने लगी थी।
वन से लौटने के बाद भरत माताओं को महल तक पहुँचाने गए थे। वहीं उन्होंने तीनों माताओं को अपना निर्णय बताया। सभी समझ रहे थे कि महात्मा दशरथ के पुत्र अपने वचन से डिगने वाले नहीं, यदि भरत ने ठान लिया है कि वे महल में नहीं रहेंगे तो फिर उन्हें कोई रोक नहीं सकता। माताओं ने चुपचाप उनके निर्णय को स्वीकार कर लिया।
भरत के पीछे शत्रुघ्न ने भी अपना निर्णय सुना दिया। राम की परछाई बन कर लक्ष्मण वन को गए थे, अब भरत की परछाई बन कर शत्रुघ्न भी उनकी सेवा में ही जाने को तैयार खड़े थे। अपने ज्येष्ठ भ्राता के प्रति यह समर्पण की पराकाष्ठा संसार में केवल और केवल भारतीय परम्परा में दिखती है। यह समर्पण ही उस कुल को संसार का सबसे प्रतिष्ठित कुल बना रहा था।
अयोध्या के राजमहल से चारो राजकुमार चौदह वर्ष के लिए लगभग निर्वासित हो गए थे। यह हुआ था एक स्त्री के कह भर देने से। यह आर्य इतिहास में स्त्रियों की शक्ति थी।
माताओं से आज्ञा लेने के बाद भरत पत्नी मांडवी से मिलने गए। वे मांडवी को अपना निर्णय बताते इससे पूर्व ही उन्होंने कहा, "आपने भी भइया की तरह कुटिया में साधु भेष में रहने का निर्णय लिया है न आर्यपुत्र! मैं स्वयं आपसे यही कहने वाली थी। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। निःसंकोच जाइये! हम आपसे दूर रह कर भी हर क्षण आपके साथ रहेंगे।"
भरत चुपचाप देखते रह गए मांडवी को। विदेह कुमारियाँ सबको आश्चर्य में डाल रही थीं।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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