गुरुवार, 29 जून 2023

आज की बात

देवशयनी एकादशी

२९ जून को जब भारत के और भारत भूमि के बाहर रहने वाले अनेक सनातन हिन्दू धर्मावलंबी पवित्र भाव से व्रत करेंगे उपवास करेंगे और सर्व कल्याण का भाव करेंगे
उसी दिन
लाखों निरीह जानवरों को
उसमें से अनेकों को जिन्हें पाला पोसा था
उन्हें भी धोखा देकर
और उन्हें तड़पा तड़पा कर
किताबी इस पवित्र धरा को रक्त रंजित करेंगे ..
चाहे जिस किसी भी संस्कृति में पशु बलि को उत्सव के रूप में मनाया जाय, हम उन तमाम संस्कृतियों के नष्ट होने की कामना करते हैं।

अगर कुरबानी अपराध नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी अपराध नहीं है।

अब तो पोल खुल गई, मान लीजिए कि जो कहते रहते हैं कि-
आइये हम "सर्व धर्म समान" की लीपापोती करें
आइये हम गंगी जमुनी का फर्जीवाड़ा करें
आइये बमदुल बब्बास के साथ भारत और विश्व
के कल्याण के बारे में सोचें ..

बेर केर को संग ? हुआ है ?? नहीं हो सकता ।।
दो नदियों का बहना तय है, ये संगम की बात दिल से निकालो, बहती रहे सीमाओं में, तो बहे....

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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
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मंगलवार, 27 जून 2023

सकारात्मक सोच

 

हर बात हर घटना के दोनों पहलू होते हैं, हमारी सोच हमारे संस्कार - संस्कृति,  हमारी दृष्टि क्या देखती है, क्या खोजती है, किस बात को अपनाती है , किस बात से भविष्य के निर्णय को तौलने का मन बनाती है - ये सब हम पर ही निर्भर करता है । सकारात्मक सोच ही जीवन में प्रफुल्लता- आशा -उमंग का निर्माण कर सकती है ।।

नकारात्मक बातें कितनी तेजी से पसरती हैं न!

   पिछले कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश की एक अधिकारी का किस्सा बहुत तेजी से वायरल हो रहा है। किस्सा बस इतना है कि एक निम्नवर्गीय कर्मचारी पति ने विवाह के बाद पत्नी को पढ़ाया और पत्नी अधिकारी हो गईं। अब पत्नी को किसी और से प्रेम हो गया और पति के अनुसार वह अपने प्रेमी के सङ्ग मिल कर उसकी हत्या करना चाहती है।
   पतिदेव रोते फिर रहे हैं। पत्नी और उसके मित्र का वाट्सप चैट बांटते फिर रहे हैं। पति के दावे में कितनी सच्चाई है यह कानून पता करेगा, पर यदि यह सच है तो बुरा ही है। ऐसी घटनाएं धिक्कार के लायक ही है। पर क्या सचमुच यह एक ऐसी घटना है जिसे महत्व दिया जाय? क्या ऐसी घटनाओं का वायरल होना सही है?
    आप अपने आस-पड़ोस में नजर दौड़ाइये, आपको दर्जनों ऐसे परिवार मिल जाएंगे जहां पति ने पत्नी को या पत्नी ने पति को अपनी किडनी दी होती है। किडनी देने का मतलब अपनी आधी जिंदगी देना होता है।
   कहीं पढ़ रहा था, भारत में किडनी लिवर आदि खराब होने की स्थिति में अंगदान सामान्यतः परिवार के ही लोग करते हैं और अस्सी प्रतिशत डोनर महिलाएं होती हैं। तो यह स्पष्ट है कि किडनी या लिवर खराब होने की स्थिति में आधे से अधिक पुरुषों को नया जन्म उनकी पत्नियां ही देती हैं। और ऐसी स्त्रियों की संख्या सैकड़ों, हजारों में नहीं, बल्कि लाखों में हैं। फिर ऐसे समाज में किसी एक स्त्री-पुरुष या कुछ स्त्रियों-पुरुषों की चरित्रहीनता की खबरें मुद्दा क्यों बनें? यह तो अपवाद ही है, जो कहीं भी हो सकता है।
   ऐसे भी असँख्य परिवार हैं जहाँ पत्नी ही नौकरी करती है और पति घरेलू काम या खेती-किसानी करता है। वहाँ प्रेम कम नहीं है, सम्बन्धों में समर्पण की भी कमी नहीं है।
   हम ऐसे परिवारों को देखते तो हैं पर इनपर चर्चा नहीं करते। हमें लगता है कि इसमें क्या विशेष है, यह तो सामान्य घटना है। और जैसे ही कोई घटना इसके विपरीत दिखती है, हम टूट पड़ते हैं। प्रेम हमें आकर्षित नहीं करता, हमें घृणा आकर्षित करती है, नकारात्मकता आकर्षित करती है, छल आकर्षित करता है। कितना बुरा है न?
   वैसे यह भी सच है कि ऐसी नकारात्मक खबरें बहुत कम हैं, बहुत ही कम... डेढ़ अरब की जनसंख्या के हिसाब से देखें तो आटे में नमक नहीं, समुद्र में बूंद की तरह... पर हम एक उदाहरण मिलते ही चीखने लगते हैं कि समय बदल गया, लोग बुरे हो गए, संस्कार मर गए... जबकि ऐसा नहीं है। कम से कम भारत के सम्बंध में तो यह बात भरोसे के साथ कही जा सकती है कि मनुष्य अपने सम्बन्धों में प्रेम का निवेश करता है, छल का नहीं। छल, घृणा, द्वेष, अपवाद है... यह सम्बन्धों का स्थायी भाव नहीं!
   सभ्य समाज का दायित्व होता है कि वह सकारात्मक खबरों का प्रसार करे। नकारात्मक खबरें अंततः कुंठा को ही जन्म देती हैं। इस कुंठा से किसी का भला होने वाला नहीं।
   अपने बीच से सकारात्मक खबरें ढूंढिये। और यकीन कीजिये, हमारे समाज से अधिक सकारात्मकता और कहीं नहीं। कहीं भी नहीं...
ये आलेख उर्मिला कथा के रचनाकार सर्वेश जी द्वारा ।।

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सोमवार, 26 जून 2023

बेटी पर गर्व

 

चिन्तन की धारा

पुत्री के लिए जो लोग बेटा सम्बोधन करने लगे हैं, वे अज्ञान में ऐसा कर रहे हैं । ये वाम विचारधारा है ,
इस वामी अवधारणा को भगाएं- "कि यह मेरी बेटी नही, बेटा है।"

बेटा को बेटा की तरह और बेटी को बेटी की तरह शिक्षा,संस्कार देना धर्मपरायण कर्त्तव्य है जो सर्वहितकारी है।

हमारे सम्पूर्ण धार्मिक ग्रन्थ में ऐसी ही व्यवस्था के कारण पुरुष और स्त्री ने अपने स्वाभाविक गुण से विभूषित हो समाज और धर्म का कल्याण किया है।

रामायण,महाभारत,पुराण के अलावे हर युग में स्त्री का शक्तिशाली रूप देखा जा सकता है।

तो यह कहना कि "यह मेरी बेटी नही बेटा है"-
यही से गड़बड़ शुरू हो जाता है।  यही सब समस्या का मूल है। इस वामी अवधारणा को भगाएं। पुत्री के जन्मजात गुण को,उसके स्वाभाविक गुण को समझें ,विस्तार दें।

बेटी होने का गर्व दें।
बेटी प्रकृति है,शक्ति है।
शक्ति के बिना शिव शव हैं।
प्रकृति के बिना पुरुष का औचित्य नही है।

हमें पुत्री के पालन-पोषण पर गर्व करने का मौका तब मिलेगा जब हम कहेंगे -"यह मेरी बेटी है।"
न कि "यह मेरी बेटी नही बेटा है।"

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रविवार, 25 जून 2023

कहानी अभिशप्त

कहानी

पहाड़ी पर बने ठाकुरजी के इकलौते मंदिर में माखन महतो संध्या की पूजा कर रहे थे। बाहर गरज-तड़प के साथ जोरों की बारिश हो रही थी!

भोग-आरती आदि से निवृत्त हो उन्होंने के किवाड़ बंद किये--"लगता है, आज भींगते हुए घर जाना होगा! कहीं बरसाती नदी उफान पर ना हो जाये!"

ठाकुरजी का स्मरण करते हुए नीचे तलहटी में उतर आये और तब ज तेज कदमों से गाँव की ओर बढ़ चले!

अँधेरा पूरी तरह पसर चुका था! वातावरण में रह रहकर गूँजती मेंढ़कों और झींगुरों की आवाज सन्नाटे को और भयावह बना रही थी!

और जैसी आशंका थी, वो सच साबित हुई!
छोटी सी पतली बरसाती नदी किसी शोख अदाकरा की तरह अपने नखरे दिखा रही थी!

"अभी थोड़ा ठहर जाऊँ, फिर पार उतरता हूँ!"--वो मन ही मन बुदबुदाये।

"यहीं नहीं, घर जाकर भी ठहर जाना! नहीं तो यहाँ भले डूबने से बच जाओ पर वहाँ नहीं बचोगे!"--वातावरण में बर्फ की मानिंद ठंडा स्वर गूंजा।

"कौन है?"--माखन जोरों से चिल्लाये।

कहीं कोई नहीं था!

"मेरे साथ ये खेल मत खेलो! ये मेरा रोज का काम है! बेहतर होगा कि सामने आ जाओ!"

"हहहहहोहोहोहो होहोहोहोहो! लो, आ गया सामने! अब बताओ, क्या करोगे मेरा परिचय जान कर?"--अचानक नदी किनारे वरगद के पेड़ से एक साया धप्प से जमीन पर कूदा और सधे कदमों से माखन के सामने आकर खड़ा हो गया!

तभी जोरों से बिजली चमकी!
पल भर में ही सबकुछ साफ साफ दिख गया!
सामने घुटे सिर, माथे पर त्रिपुंड लगाये और बदन पर मात्र धोती लपेटे एक वृद्ध खड़े थे!

"तू तो बड़ा गुनी है माखन! पूरे क्षेत्र में धाक है तेरी! सुना है कि एक से बढ़कर एक जबरजंग प्रेतों और चुड़ैलों को चुटकी बजाते भगा देता है!"

माखन के होठों से बोल ना फूटा!

"बोल! मुझे भी भगायेगा ना! हहहहहहहह, अब तक पहचान तो गया ही होगा तू?"

माखन होठों ही होठों में जाने क्या बुदबुदा रहा था!

"अपना परिचय मैं स्वयं दूँ क्या?"--अचानक वृद्ध की भृकुटी तनी।

"बाबा!"--माखन ने हाथ जोड़ लिए, "आपको कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है! मेरा प्रणाम स्वीकार करें!'

वृद्ध का चेहरा सामान्य हुआ--"तेरे पास एक काम से आया था रे!"

"आदेश कीजिए बाबा! आपका सेवक हूँ!"

"मेरे रास्ते में मत आना माखन! मैं नहीं चाहता कि तेरे जैसा सीधा-सादा आदमी बेवजह संकट में पड़े!"

"मैं भला आपके रास्ते में क्यों आऊँगा बाबा! हमारी तो अभी की मुलाकात है!"

"हो सकता है, आगे तुझे आना पड़े! खैर, तू घर जा, सब समझ जायेगा!"--कहकर वृद्ध ओझल हो गये!

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नदी का बहाव कम हो गया था! माखन के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया था!

घर पहुँचने की देर थी!
दुआर पर बाहर से कुछ लोग पहले से ही आये हुए थे!
माध्यम था, उन्हीं के गाँव के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति दयाल बाबू, जिनके वे लोग रिश्तेदार थे!

"जलपान हो गया?"--माखन ने दयाल से पूछा।

"जलपान की छोड़ो भैया! किसी तरह मेरे इन रिश्तेदारों को संकट से उबार लो बस!"

"क्षमा करना दयाल बाबू, ये मेरे बस का ना है!"--माखन ने हाथ जोड़ लिए!

"भगवान के लिए ऐसा मत कहिये माखन जी, बहुत दिनों से संकट में पड़े हुए हैंं हमलोग! आपका बड़ा नाम सुनकर हमलोग यहाँ आये हैं!"--रिश्तेदारों में से एक ने दयनीय स्वर में कहा!

"देखिये, मैं आपलोगों को भ्रम में नहीं रखना चाहता! दयाल बाबू के रिश्तेदार, मतलब हमारे भी रिश्तेदार! मेरे हाथ में होता, तो अवश्य मदद करता आपलोगों की!"

"पर ऐसा तो कभी नहीं हुआ माखन भैया कि कोई तुम्हारे पास आया, और तुमने उसे बैरंग वापस लौटा दिया! अभी तो तुमने इनलोगों की बात भी नहीं सुनी कि असल मामला है क्या!"

"जिनसे सुनना था, उनसे सुन चुका दयाल बाबू! इनसे नया क्या सुनूं!"

देर तक दोनों ओर से मान-मनुहार होती रही! आखिर में माखन को झुकना पड़ा!

"चलिए, सुबह चले चलता हूँ आपलोगों के साथ! पर ये जान लीजिए, मैं अपनी तरफ से कोशिश भर कर सकता हूँ! आपकी समस्या हल होगी ही, दावे से नहीं कह सकता!"

फिर अगली दिन सांझ के समय!
माखन, दयाल और उनके रिश्तेदार, सुदूर पहाड़ी क्षेत्र में अपने गंतव्य पर पहुँच चुके थे!

रात के भोजन की तैयारी हो रही थी! माखन दुआर के बाहर कुंए पर नहा रहे थे, तभी....!

"मन तो कर रहा है कि अभी तुझे कुंए में धकेल कर गाड़ दूँ!"

अचानक पीछे गूँजी आवाज इतनी दहशतनाक थी कि माखन के हाथ से डोर-बाल्टी छूटते छूटते बची!

"बाबा!"

"बाबा भी कहता है, और यहाँ इन पापियों को बचाने भी चला आया! बोल, बचा लेगा इनको!"

"मेरी इतनी सामर्थ्य कहाँ बाबा! मैं तो बस आपसे मनुहार कर सकता हूँ!"

"तू क्या समझता है, तेरी मनुहार से मेरी क्षति की भरपाई हो जायेगी!"

"मैं कहाँ कुछ जानता हूँ बाबा!"

"सच में जानना चाहता है?"

"जी!"

"ठीक है, तो सुन! आज आधी रात के बाद इन सबको लेकर इनके उत्तर वाले सीवान में चल! वहीं तुझे सब पता चल जायेगा!"

रात के डेढ़ बजे!
गाँव से दो किमी उत्तर सीवान में छोटा सा काफिला चला जा रहा था!

अचानक वातावरण में हल्की हल्की सिसकारियों की आवाज गूँजी!
सबके कान खड़े हो गये!

"अरे! ये आवाजें तो अपने खेत से आ रही हैं!"--दयाल बाबू के रिश्तेदार चौंके!

"श्श्श्शश्श्श्श!"--माखन ने होठों पर अंगुली रखी!

सामने का नजारा बड़ा हौलनाक था!

आधी रात के इस वक्त बेमौसम, खेत के उस छोटे टुकड़े की जुताई चल रही थी! माथे पर पगड़ी बाँधे और हाथ में मोटा डंडा लिए एक संभ्रात से दिखते व्यक्ति बैलों को ललकारते हुए तेजी से खेत जोते जा रहे थे!

रह रहकर हल के आगे एक महिला अपनी छोटी सी बच्ची को लेकर कूद जा रही थी, और हर बार वो व्यक्ति बैलों को रोककर, जबरदस्ती उस महिला और बच्ची को बेदर्दी से दूर झटक दे रहे थे! उसकी साड़ी मिट्टी में लिथड़ चुकी थी!

"बाबा!"--अचानक रिश्तेदारों के शरीर में भय की लहर दौड़ गयी," ये तो हमारे बाबा हैं! पर ये तो बहुत पहले ही.....!"

"एक नजर जरा उधर भी मार लीजिए!"--माखन ने अंगुली से मेंड़ पर बैठे, रोते-बिलखते एक शख्स की तरफ इशारा किया!"

"अरे! ये तो माधो बाबा हैं! पर ये....!"

"अब लौट चलिये, जो जानना था, वो जान गया मैं!"--माखन ने गंभीर स्वर में कहा!

आधे घंटे बाद सभी दुआर पर मंड़ई में बैठे सोचों में मग्न थे!

"वो जमीन आपलोगों की पुश्तैनी है!"--माखन ने पूछा।

"नहीं! वो चार कट्ठा जमीन गाँव के ही माधो बाबा की थी, जिनसे हमारे बाबा ने खरीद ली थी!"--रिश्तेदार ने कहा।

"खरीदी थी या हड़पी थी?"

"राम राम! क्या कहते हैं! बाकायदे पैसा दिया था उनको जमीन का!"

"मुँहमाँगा!"

"अब ये तो नहीं पता!"

"माधो बाबा जमीन बेचना चाहते थे?"

"ये हम कैसे बता सकते हैं, उस समय बच्चे थे हम!"--रिश्तेदार ने विवशता से होंठ काटे।

"तो असल बात हमसे सुनिये, छुपाइये मत!"--माखन ने कहना शुरु किया, "दरअसल वो चार कट्ठा खेत आपलोगों के चक के बीच आ रहा था! आपके बाबा ने शुरु में प्रेम से दबाव दिया माधो बाबा पर कि वो उसे बेच दें! पर उन बिचारे के पास पुरखों की निशानी के नाम पर बस उतनी ही जमीन बची थी! प्राणों से प्यारी उस जमीन को दुनिया का खजाना मिलने पर भी वो नहीं बेचते!"

सबके चेहरे लटके हुए थे!

माखन ने बोलना जारी रखा--"जब माधो बाबा किसी भी कीमत पर राजी नहीं हुए तो आपके बाबा ने दूसरा रास्ता अख्तियार किया! उन्हें तंग करने का अंतहीन सिलसिला चल निकला! कभी मेंड़ काट लेना, कभी बाँस से दो हाथ अंदर घेर लेना तो कभी अपने मवेशियों को खुला छोड़ देना खड़ी फसल चरने के लिए!

आखिर क्या करते माधो बाबा! ना इतना पैसा था उनके पास कि आपलोगों से कोर्ट-कचहरी करते और ना ही इतने बलशाली कि लाठी चलाते! बिचारे हर बार गिड़गिड़ाते और बदले में दुत्कारे जाते!

तब आपके बाबा का रुआब भी ऐसा था कि गाँव में कोई उनके विरोध में मुँह नहीं खोल सकता था!

अपनी असहाय अवस्था पर रोते-बिलखते एक दिन माधो बाबा के प्राण इसी खेत में जुताई करते हुए निकल गये! आपके बाबा ने जबरन कुछ पैसे उनकी पत्नी के हाथ में धरे और खेत पर कब्जा कर लिया!

बिचारी अभागी! अपनी छोटी बच्ची को ले खेत पर आती! जब भी हरवाहा हल चलाने को होता, उसके आगे पसर जाती! वो तो मान जाता पर आपके बाबा नहीं माने! उन्होंने खुद हल चलाया और बड़ी निष्ठुरता से माँ-बेटी को उनके ही खेत में झटक झटक कर फेंका! बिचारी माधो बाबा की भटकती आत्मा! सबकुछ देखती, बिलखती, पर कुछ करने में स्वयं को लाचार पाती! आज उन्हीं का प्रकोप झेल रहे हैं आपलोग! अकाल मृत्यु, असाध्य बीमारी, खेती-व्यापार में घाटा और मानसिक तनाव से तो जूझ ही रहा है आपलोगों का परिवार!"

"एक मिनट माखन भैया!"--अचानक दयाल बाबू ने टोका, "अगर माधो बाबा इतने ही शक्तिशाली हैं तो तभी बदला क्यों नहीं लिए!"

माखन मुस्कराये--"कुछ मनुष्यों के पूर्वजन्म के पुण्य इतने प्रबल होते हैं कि वर्तमान जीवन में उनके तेज के सामने कोई नहीं टिकता! इनलोगों के बाबा के नक्षत्र थे ही इतने तेज कि जब तक जिंदा रहे, माधो बाबा भी मेंड़ के अंदर अपने खेत में पैर तक नहीं रख पाये! पर जैसे ही वो मरे, वैसे ही परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा!"

देर तक सन्नाटा छाया रहा मंड़ई में!
आखिरकार वहाँ सबसे उम्रदराज रिश्तेदार ने मुँह खोला--

"अब तो जो हो गया, उसे हम लौटा नहीं सकते! वैसे भी हमलोग उस मामले के समय बहुत छोटे थे! खैर, बस ये बताइये कि हमलोगों को माधो बाबा से क्षमादान कैसे मिल सकता है?"

"सोच समझकर कहियेगा, करेंगे मेरा कहना!"

"आप बस आदेश कीजिए!"--रिश्तेदारों ने सामूहिक स्वर में कहा।

"तो सुनिये, उस चार कट्ठे जमीन में एक सार्वजनिक फलदार बाग लगाइये और छोटा सा तालाब बनवाइये! गायें और जानवर वहाँ घास चरेंगे, पानी पियेंगे! पेड़ों पर लगने वाले फल गाँव के बच्चे और पक्षी खायेंगे! माधो बाबा और उनकी पत्नी-बेटी की आत्मा को इससे ही शांति मिल जायेगी! आगे आपलोगों की मर्जी!"

"अगर इसी में हम सबकी भलाई, और माधो बाबा की शांति है तो यही सही! काश कि वे ये संकेत पहले ही कर दिये होते तो हमलोग तो इतनी परेशानी नहीं झेले होते!"

माखन के होठों पर मुस्कान खेली--"अब से पहले जो आये, वो जबरदस्ती काबू करना चाहे माधो बाबा को, पर उल्टे वही भयंकर मुसीबत में पड़े! मैंने तो बस बाबा के आगे अपना माथा टेका था, सो हल निकल आया!  *ध्यान रहे, सज्जन व्यक्ति जब कुपित होता है तो अच्छे से अच्छा सामर्थ्यवान भी उसके आगे घुटने टेक देता है!"*
-कृपा शंकर मिश्र *खलनायक* ,गाजीपुर,

शनिवार, 24 जून 2023

उर्मिला 27

 

उर्मिला 27
राम की पादुकाओं को माथे पर रख कर भरत चलने को सज्ज हुए। चलने से पूर्व उन्होंने तेज स्वर में कहा, "राजा राम की जय।"
      उपस्थित जनसमूह चिल्ला उठा, "हमारे भरत की जय..."
      उर्मिला ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा लक्ष्मण की ओर! आंखों में उस तपस्वी की छवि भर ली और शीघ्रता से मुड़ गयीं, ताकि लक्ष्मण की दृष्टि न पड़े...
      भारत अपने शीश पर भइया राम की चरणपादुका ले कर लौटे! अयोध्या की प्रजा अपने हृदय में राम का देवत्व ले कर लौटी। माता कौसल्या अपनी आंखों में अपने पुत्र का विराट व्यक्तित्व ले कर लौटीं। अपने बच्चों के हृदय में भरे निर्लोभ सेवाभाव को देख कर धन्य हुई माता सुमित्रा सन्तोष ले कर लौटीं। पर जो कैकई ने पाया वह कोई न पा सका था। अनायास ही हुए महापाप के बोझ से दब चुकी कैकई को जिन्होंने पल भर में ही अपराधमुक्त कर दिया था, कैकई ने उस मर्यादापुरुषोत्तम को सबसे पहले महसूस किया था। उन्हें अनुभव हो रहा था कि कुछ ही वर्षों में उनका प्रिय बेटा जगतपिता के रूप में स्वीकार किया जाने वाला है। वे अपनी आंखों में अपने करुणानिधान, मर्यादापुरुषोत्तम बेटे की मोहक छवि बसा कर लौटीं... ज्येष्ठ की ओर आँख न उठाने की परम्परा से बंधी उर्मिला केवल अपने धर्मात्मा पति के लिए प्रेम लेकर गयी थीं। वे लौटीं तो उनके पास उस प्रेम के अतिरिक्त कुछ अश्रु की बूंदे थीं, जिनका मूल्य केवल वही जानती थीं। तीर्थ की तीर्थयात्रा पूरी हो गयी थी।
     भरत राममय होकर लौटे थे। आते ही स्पष्ट कर दिया कि भइया राम यदि चौदह वर्ष का वनवास भोगेंगे तो भरत भी उसी दशा में जिएंगे। उन्होंने भी राम की ही भांति राजसी वस्त्र त्याग कर वल्कल धारण कर लिया। राजमहल से दूर राजधानी के बाहरी हिस्से में एक घास-फूस की कुटिया बनी, और तय हो गया कि अयोध्या का कार्यकारी सम्राट इसी कुटिया में बैठे बैठे प्रजा की सेवा करेगा।
     सत्ता का महलों की जगह महात्माओं की कुटिया से संचालित होना ही रामराज्य के आगमन का प्राथमिक संकेत होता है। अयोध्या इसे अनुभव करने लगी थी।
     वन से लौटने के बाद भरत माताओं को महल तक पहुँचाने गए थे। वहीं उन्होंने तीनों माताओं को अपना निर्णय बताया। सभी समझ रहे थे कि महात्मा दशरथ के पुत्र अपने वचन से डिगने वाले नहीं, यदि भरत ने ठान लिया है कि वे महल में नहीं रहेंगे तो फिर उन्हें कोई रोक नहीं सकता। माताओं ने चुपचाप उनके निर्णय को स्वीकार कर लिया।
     भरत के पीछे शत्रुघ्न ने भी अपना निर्णय सुना दिया। राम की परछाई बन कर लक्ष्मण वन को गए थे, अब भरत की परछाई बन कर शत्रुघ्न भी उनकी सेवा में ही जाने को तैयार खड़े थे। अपने ज्येष्ठ भ्राता के प्रति यह समर्पण की पराकाष्ठा संसार में केवल और केवल भारतीय परम्परा में दिखती है। यह समर्पण ही उस कुल को संसार का सबसे प्रतिष्ठित कुल बना रहा था।
     अयोध्या के राजमहल से चारो राजकुमार चौदह वर्ष के लिए लगभग निर्वासित हो गए थे। यह हुआ था एक स्त्री के कह भर देने से। यह आर्य इतिहास में स्त्रियों की शक्ति थी।
      माताओं से आज्ञा लेने के बाद भरत पत्नी मांडवी से मिलने गए। वे मांडवी को अपना निर्णय बताते इससे पूर्व ही उन्होंने कहा, "आपने भी भइया की तरह कुटिया में साधु भेष में रहने का निर्णय लिया है न आर्यपुत्र! मैं स्वयं आपसे यही कहने वाली थी। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। निःसंकोच जाइये! हम आपसे दूर रह कर भी हर क्षण आपके साथ रहेंगे।"
     भरत चुपचाप देखते रह गए मांडवी को। विदेह कुमारियाँ सबको आश्चर्य में डाल रही थीं।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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सोमवार, 19 जून 2023

आदिपुरुष की बात

 

समकालीन चर्चा
दुनिया भर में 200 से ज्यादा रामायण प्रचलित हैं। फिर भी जब कोई भारत में रहते हुए, हिंदुओं के लिए, रामकथा पर फ़िल्म बनाएगा तो वाल्मीकि रामायण अथवा ज्यादा से ज्यादा तुलसी रामायण को ही रिफरेन्स के लिए इस्तेमाल करेगा। अन्यथा तो कल को कोई हनुमान जी को मंदोदरी का शीलभंग करने वाला चित्रित करके यह कह दे कि - हमनें तो थाईलैंड की रामायण बनाई है जी- तो बताइए, यह कितना हास्यास्पद और आपत्तिजनक होगा।
दिक्कत यह है कि ओम राउत ने जो रामकथा दिखाई है उसका एक सिंगल दृश्य भी रामायण के मूल कथानक से मैच नहीं खाता, जी हाँ, एक सिंगल दृश्य भी नहीं। पता नहीं इन्होंने भांग खाई थी अथवा मुन्तशिर को इलहाम हुआ था कि इन्होंने अपनी ही रामायण रच मारी है जिसमें क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर राम, बालि, हनुमान जैसे पात्रों के चरित्र की मूल गरिमा का भी ख्याल नहीं रखा गया है।
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  सबसे ज्यादा कष्ट देने वाली बात यह है कि मूल रामायण में तो राम को सीताहरण के बारे में जटायु से पता चलता है, पर ओम राउत की रामायण में राम इधर से उधर दौड़ते हुए सीता को हरण करके ले जाते रावण को अपनी आंखों से देख रहे हैं। राम अपने तुणीर से एक बाण तक निकालने की जहमत नहीं करते और लाचारी से घुटनों के बल बैठकर अपनी आंखों से सीताहरण देखते रहते हैं। अरे भाई, ऐसी भी क्रिएटिव लिबर्टी की क्या ही भांग खानी थी जो राम के सामने ही उनकी पत्नी का अपहरण करा दिया और राम कुछ न कर पाए? रामायण के अनुसार नारायण के अवतार और ब्रह्मास्त्रधारी राम के लिए एक उड़ता चमगादड़ मार गिराना असंभव हो गया? क्या ही शर्म और आश्चर्य की बात है।
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इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि कभी यूथ को कनेक्ट करने के नाम पर, कभी "वन टाइम वाच है" बोलकर, कभी फ़िल्म का कलेक्शन दिखा कर, असली समस्या को सब बुद्धिजीवी इग्नोर क्यों कर रहे हैं?
संवाद में हमारे आराध्य पात्र से जो हल्की टपोरी भाषा का प्रयोग किया है, बेहद पीड़ाजनक ।
माना लें कि आदिपुरुष के संवाद, कॉस्ट्यूम या वीएफएक्स कोई मुद्दा नहीं हैं। पर दो बातों का जवाब दीजिए।
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पहली तो यह.... घुटनों के बल बैठ कर अपनी आंखों से सीताहरण देखते निर्बल निस्तेज राम को देख आपकी भावना आहत होती है या नहीं?
गोल-गोल मत घुमाइए। बस हाँ/ना बोलिये।
.
दूसरी बात यह कि... आपको रामकथा की गरिमा के साथ न्याय करते हुए एक ढंग की फ़िल्म बनते हुए देखने की आशा थी अथवा अंटशंट तरीके से हजार करोड़ कमाने वाली रामकथा बनते देखने की?
.
जब मूल उद्देश्य ही फेल हो गया तो आदिपुरुष की अरबों की कमाई के बखान का कोई औचित्य है?
विरोध तो होना ही चाहिए ।

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रविवार, 18 जून 2023

कहानी सात फेरे की

 

कहानी
सात फेरे

" अभी अभी तो कोर्ट में मिले थे हम, अब मेरे पीछे पीछे घर आने का मतलब? "
" क्यों घर नहीं आ सकती मैं? "
"  आ क्यों नहीं सकती , लेकिन अब क्या चाहती हो? सब कुछ तो दे दिया तुम्हें!"
" वही तो जानना चाहती हूँ, क्यो  दे दिया, कोर्ट में क्यों मान ली दहेज लेने की झूठी बात,क्यों मान ली तलाक की इतनी कठिन शर्तें! "
" सब कुछ तुम्हारा और बच्चों का ही तो है , तुमने मांगा तो दे दिया! बच्चों के पालन पोषण में काम आयेगा "
"  बच्चों की कस्टडी के लिए फाईट नहीं करोगे? "
" तुम से ज्यादा प्यार उन्हें कौन दे पायेगा, फिर तुम से अच्छी परवरिश क्या मैं दे पाऊंगा उन्हें ! "
" यह तुम कह रहे हो, पहले तो सब ऐब ही ऐब दिखते थे मुझमें! "
" पीछा छुड़ाना चाहते हो मुझसे और बच्चों से , इतना उब गए  हो हमलोगों से! तुम्हारे बिना क्या मै अकेले सम्हाल पाऊंगी यह  इतनी बड़ी कंपनी और बच्चों को ! "
" यह सब तो पहले सोचना चाहिए था ना, तुमने जो मांगा वही तो दिया है तुम्हे! अब हिम्मत क्यों हारती हो, सीए किया है तुमने, फिर तुम्हारे पिता ,मौसा और जीजा सब हैं ना तुम्हारे साथ! "
" सब कहने  .. .. खैर मेरी छोडो, अपनी बताओ, इतनी मेहनत से जमाया हुआ विजनेस, कोठी, गाड़ी, बैंक बैलेंस सब मुझे दे दोगे तो  खाओगे क्या और रहोगे कहाँ! "
" इतनी फिक्र क्यों करती हो मेरी, अभी मेरे हाथ पैर सलामत है , भूखा नहीं मरूँगा मै ! "
" यह दाढ़ी क्यों बढा रखी है, साधु सन्यासी बनने का इरादा है या  वसु से व्रेक अप हो गया "
" वसु कंपनी  सेक्रेटरी है , केस जीतने के बाद तुम्हारी सेक्रेटरी हो जायेगी ! और वह मुझे घास  क्यों डालेगी , उसके बच्चे हैं, पति हैं, भरपूर गृहस्थी है! "
" फिर तुम्हारे साथ उसके अफेयर की बातें? "
"  अपने उपर लगाये गये सभी आरोपों को स्वीकार तो मैंने कोर्ट में ही कर लिया है, फिर क्यों पूछती हो! "
"  वही तो जानना चाहती हूँ क्यो स्वीकार कर लिया?"
' तो और क्या करता! कोर्ट में आरोप प्रत्यारोप कर तुम पर कीचड़ उछालता, अपनी ही पत्नी और बच्चों के हितों के विरुद्ध बातें करता ", तुम पर झूठे आरोप लगाता, तुम्हारा चरित्र हनन करता, अपने बच्चों की माँ और उसके रिश्तेदारों को झूठा ठहरा कर उन्हें भरे कोर्ट में रूसवा करता! यही सब तो करना चाह रहा था मेरा वकील!"
" मुझसे पीछा छुड़ाना चाहते हो, कोई और मिल गई है क्या? "
" अपने वकील से क्यों नहीं पूछतीं, ! वैसे भी एक बद्चलन , वद् मिजाज , आवारा,और वोमनायजर का क्या ठिकाना! "
" मै तुम से सच जानना चाहती हूँ! "
" सच ही तो तुम नहीं जानना चाहती तुम , वही तो बताना चाह रहा था जब तुम मेरा हाथ झटक कर मायके चली गई और फिर सीधे कोर्ट में ही मिलीं! तुम ने उसी पर विश्वास किया जो तुम्हारे  मौसा, तुम्हारे जीजा, और माँ बाप ने तुम से कहा! और फिर गीता पर हाथ रखकर जो कुछ उन्होंने कोर्ट में कहा है,:सब सच ही कहा होगा! अब कौन सा सच जानना बाकी रह जाता है!"
" यह कोर्ट नहीं है, हमारा ड्राइंग रूम है, तुम मेरी बातों का सीधा जबाब नही दे सकते? "
" अब हमारा कहाँ कुछ रहा, सब कुछ पहले भी तुम्हारा ही था, आगे भी सिर्फ तुम्हारा और तुम्हारा ही रहेगा! "
" तुम्हारे इसी संत महात्मा वाले  रवैया ने मेरा जीना हराम कर दिया है! मुझे लगता है मैं सब कुछ जीत कर भी हारने जा रहीं हूँ!  मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती अश्विन! मुझे माफ कर दो! " कहकर बिलखते हुए पत्नी ने कब पति का हाथ पकड़ लिया उसे पता ही नहीं चला।।
जनकजा  कान्त शरण द्वारा ।      
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शनिवार, 17 जून 2023

कथा महाभारत

अथ श्रीमहाभारत कथा 
खुले केश द्रौपदी भद्रजनों की सभा के मध्य में पड़ी थीं। नेत्र धरा में धंसे जाते थे किंतु आशा की एक किरण थी जो अभी भी उनमें दिपदिपा रही थी कि अवश्य कोई वरिष्ठ राजवंश की वधु के लिए खड़ा होगा। कुछ क्षण बीते और वो किरण भी बुझ गई। हर ओर से निराश याज्ञसेनी के नेत्र उठे तो पूरी सभा में मानो एक अग्नि प्रज्जवलित हो उठी हो। 

एक हाथ से कंधे पर बिखरा एकमात्र अंगवस्त्र संभालते हुए सैरंध्री खड़ी हुईं और एक अंतिम बार अपने पांचों पतियों की ओर मुड़ीं। भीम को छोड़कर सबके शीश झुके हुए थे। क्रोधाग्नि से भभकते चक्षुओं वाले भीम जब-जब उठने का प्रयास करते, युधिष्ठिर उन्हें रोक लेते कि इस वक्त वे केवल एक दास हैं, उन्हें बिना आज्ञा के कुछ भी करने का अधिकार नहीं है। 

यह देखकर उन पर तिरस्कृत दृष्टि डालते हुए वह क्षत्राणी अपने श्वसुर धृतराष्ट्र की ओर बढ़ी। उनसे पूछा कि वो भरतवंश की वधु के अपमान पर चुप क्यों हैं? मगर हस्तिनापुर महाराज के नेत्रों में पसरा अंधेरा उनके मस्तिष्क को भी अपने अधिकारक्षेत्र में ले चुका था। वह मौन रहे।

रक्तरंजित नेत्रों वाली वह रजस्वला स्त्री अब भरतवंश शिरोमणि भीष्म के सम्मुख अपना प्रश्न लेकर खड़ी थी- आपका धर्म यहाँ क्या कहता है पितामह? वहां से भी उसे मौन के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्राप्त हुआ। द्रुपदसुता बारी-बारी से गुरु द्रोणाचार्य और कुल गुरु कृपाचार्य के पास अपने प्रश्न लेकर गईं किंतु कोई भी कुछ न कह सका। 

अब वह विदुषी काका विदुर के पास पहुँची और पूछा- आप तो हर प्रकार से विद्वान हैं। आप बताइए कि द्युतक्रीड़ा में स्वयं को हार जाने वाले धर्मराज युधिष्ठिर को क्या अधिकार है कि वो उन्हें दाँव पर लगा सकें? विदुर समझते थे कि स्वयं एक दास बन चुके पांडवों को अब और कुछ दाँव पर लगाने का अधिकार नहीं था किंतु फिर भी वह हस्तिनापुर के युवराज को समझाने में असफल रहे। जब उनसे द्रौपदी का अपमान देखा नहीं गया तो वे एक चेतावनी देकर सभा से निकल गए कि अग्निसुता का यह अपमान समस्त कुल को भस्म कर देगा।

दुर्योधन पर इस चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं हुआ और उसने दुशासन को आदेश दिया कि इस एकमात्र अंगवस्त्र को भी चिर-कुमारी के शरीर से अलग कर दिया जाए। दुशासन आगे बढ़ा तो दुर्योधन के भाई विकर्ण ने प्रतिकार किया कि देवी द्रौपदी सही कह रही हैं, धर्मराज को कोई अधिकार नहीं है कि वह उन्हें दाँव पर लगाएँ। दुर्योधन को बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, सूर्यपुत्र कर्ण पहले ही उठ खड़े हुए और विकर्ण को एक बालक समान बताकर उनको चुप करा दिया।

अब कापुरुषों की उस सभा में पांचाली अपना अंगवस्त्र समेटे निस्सहाय खड़ी थीं। इधर, दुशासन आगे बढ़ा और उसका एक छोर पकड़कर खींचना शुरू किया और उधर, कृष्णा ने अपने नेत्र बंद किए और कर जोड़कर कृष्ण को पुकारने लगीं- हे सखा, अपनी सखी का यह अपमान देखकर क्या आप भी चुप रहेंगे? हे सहस्त्राकाश, आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है। हे साक्षी, क्या आप इस अन्याय को यूँ ही देखते रहेंगे?
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कृष्णेयी के हाथ अब अपनी साड़ी के पट पर नहीं टिके थे, अब उनकी आस लीलामानुष की लीला पर टिकी थी। अंगवस्त्र एक-एक परत खुलता जा रहा था और कृष्णेयी अनंता में लीन होती जा रही थीं। एक क्षण को ऐसा लगा कि वस्त्र हट जाने पर वहां कुछ नहीं होगा। जैसे आत्मा शरीर को छोड़ जाती है, वैसे ही द्रौपदी भी खुद को छोड़ चली थीं जैसे। सब किसी अनहोनी की आशंका से जड़वत हो गए थे। 

बस एक दुर्योधन का अट्टहास था, जो क्षण प्रतिक्षण गुंजायमान होता महल के ऊपर काल की गर्जना का रूप लेता चला जा रहा था, एक दुशासन के हाथ थे जो अंगवस्त्र के रूप में अपनी मृत्यु को खींचते चले जा रहे थे और एक शकुनि की अधखुली मुट्ठी में खेलते पासे थे जो अब कौरवों के कुल को दाँव पर लगा बैठी बाजी के मूक साक्षी बन चुके थे।

कि तभी पार्थप्रिया की पुकार सुनकर पार्थसारथी वहाँ प्रकट हुए। अट्टहास रुक गया, हाथ थकने लगे, पासे अपना खेल कर गए। द्रौपदी का चीर बढ़ने लगा। दुशासन खींचता जाता था, चीर बढ़ता जाता था। दुशासन जितना खींचता, चीर उतना बढ़ता। महाभारती का ये चीर मानो महाभारत की गाथा लिखने निकल पड़ा था, कुरुवंश के समूल नाश की गाथा। 

दुशासन के सामने धरती पर पड़ा चीर पर्वत के समान उठता चला जा रहा था। पूरी सभा सन्न थी। दुशासन थकने लगा, गति रुकने लगी, मगर चीर का बढ़ना न रुका। धीरे-धीरे चीर का वह पर्वत महल की छत को चीरकर बाहर निकलने को आतुर दिखने लगा। दुशासन कभी इधर आकर खींचता, कभी उधर जाकर खींचता, मगर चीर को न समाप्त होना था, न हुआ। समाप्त होता भी तो कैसे? यह चीर स्वयं श्रीकृष्ण की अंगुली पर बंधे उस टुकड़े से निकल रहा था जो कभी द्रौपदी ने अपने सखा का बहता रक्त देखकर अपनी साड़ी का पल्लू चीरकर बांधा था।

दुशासन की आँखों के आगे अंधकार छाने लगा। चीर खींचते उसके हाथ और नहीं बढ़ पाए और वह वहीं मूर्छित होकर गिर पड़ा। पूरी सभा सन्न थी, दुर्योधन अचंभित था, शकुनि व्याकुल और कर्ण अविश्वास से यह सारा दृश्य देख रहा था। द्रौपदी ने धीरे से नेत्रपट खोले तो उन्हें हर ओर केवल केशव दिख रहे थे। अश्रु की दो बूंदों से उनकी आँखे डबडबा आईं। सनातन ने द्रौपदी के चीर को सनातन कर दिया था, उनके सम्मान को सनातन कर दिया था, आराध्य और भक्त के संबंध को सनातन कर दिया था, एक सखा और सखी के प्रेम को सनातन कर दिया था।
-तृप्ति शुक्ला जी का लिखा हुआ
🙏🙏

रविवार, 11 जून 2023

कहानी

 

कहानी

*28 दिन का PG*

एक  महिला हैं, वो जयपुर में एक PG ( *पेइंग गेस्ट* ) रखती हैं।
उनका अपना पुश्तैनी घर है, उसमे बड़े बड़े 10 - 12 कमरे हैं।
उन्हीं कमरों में *हर एक मे 3 bed लगा रखे हैं।*

उनके PG में *भोजन* भी मिलता है।
खाने खिलाने की शौकीन हैं। *बड़े मन से बनाती खिलाती हैं।*

उनके यहां इतना शानदार भोजन मिलता है कि अच्छे से अच्छा रसोइया भी नही बना सकता।
आपकी माँ भी इतने *प्यार से* नही खिलाएगी जितना वो खिलाती हैं।

उनके PG में ज़्यादातर नौकरी पेशा लोग और छात्र रहते हैं।

सुबह नाश्ता और रात का भोजन तो सब लोग करते ही हैं।
जिसे आवश्यकता हो उसे दोपहर का भोजन टिफिन करके भी देती हैं।

पर उनके यहां एक बड़ा *अजीबोगरीब नियम है,*
हर महीने में सिर्फ *28 दिन* ही भोजन पकेगा।

शेष 2 या 3 दिन होटल में खाओ,
ये भी नही कि PG की रसोई में बना लो।

*रसोई सिर्फ 28 दिन खुलेगी। शेष 2 या 3 दिन रसोई बन्द रहेगी।*

हर महीने के आखिरी तीन दिन *Mess बंद।*
हॉटेल में खाओ, चाय भी बाहर जा के पी के आओ।

मैंने उनसे पूछा कि ये क्यों? ये क्या अजीबोगरीब नियम है।
आपकी kitchen सिर्फ 28 दिन ही क्यों चलती है ?

बोली , *हमारा Rule है।*
हम भोजन के पैसे ही 28 दिन के लेते हैं।
इसलिये kitchen सिर्फ 28 दिन चलती है।

मैंने कहा ये क्या अजीबोगरीब नियम है ?
और ये नियम भी कोई भगवान का बनाया तो है नही आखिर आदमी का बनाया ही तो है बदल दीजिये इस नियम को।

उन्होंने कहा No,
*Rule is Rule* ...

खैर साहब अब नियम है तो है।

उनसे अक्सर मुलाक़ात होती थी।

एक दिन मैंने बस यूं ही फिर *छेड़ दिया उनको* ,
उस 28 दिन वाले अजीबोगरीब नियम पे।

उस दिन वो खुल गईं बोलीं, तुम नही समझोगे डॉक्टर साहब,
शुरू में ये नियम नही था
मैं इसी तरह, इतने ही प्यार से बनाती खिलाती थी।
पर इनकी *शिकायतें* खत्म ही न होती थीं
कभी ये कमी, कभी वो कमी *चिर असंतुष्ट always Criticizing...*
सो तंग आ के ये 28 दिन वाला नियम बना दिया।

28 दिन प्यार से खिलाओ और बाकी 2 - 3 दिन बोल दो कि जाओ, *बाहर खाओ।*

*उस 3 दिन में नानी याद आ जाती है।*

आटे दाल का भाव पता चल जाता है।
ये पता चल जाता है कि बाहर *कितना महंगा और कितना घटिया खाना मिलता है।*
दो *घूंट चाय* भी 15 - 20 रु की मिलती है।

मेरी *Value* ही उनको इन 3 दिन में पता चलती है
सो बाकी 28 दिन बहुत *कायदे* में रहते हैं।

*अत्यधिक सुख सुविधा की आदत व्यक्ति को असंतुष्ट और आलसी बना देती है।*

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सोमवार, 5 जून 2023

धर्म में सुधार - चिन्तन

 

चिन्तन के पल
समझने योग्य

एक बार स्वामी विवेकानन्द जी से किसी ने जिज्ञासा की कि “हिन्दुओं में बाल विवाह होता है, ये गलत है, हिन्दू धर्म में सुधार होना चाहिए कि नहीं?
स्वामी जी ने उस से पूछा :-"क्या हिन्दू धर्म ने कभी कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति का विवाह होना चाहिए और वह विवाह उसके बाल्यकाल में ही होना चाहिए "
प्रश्न पूछनेवाला थोडा सा सकपकाया फिर भी जिद करते हुए बोला ...."हिन्दुओं में बाल विवाह नहीं होते क्या ?
स्वामी जी :- पहले ये बताओ "विवाह का प्रचलन हिन्दू समाज में है अथवा हिन्दू धर्म में।
धर्म तो ब्रह्मचर्य पर बल देता है। 25 वर्ष की अवस्था से पहले गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति कोई स्मृति नहीं देती और
स्मृति भी तो समाज-शास्त्र ही है,ये समाज
का विधान है' ..... स्वामी जी ने थोड़ा विराम
लिया और फिर से बोले :- धर्म तो विवाह की बात
करता ही नहीं है। धर्म , पत्नी प्राप्ति की नहीं, ईश्वर -प्राप्ति की बात करता है।
प्रश्न फिर हुआ-स्वामी जी सुधार होना तो जरूरी है ।
स्वामी जी :अब आप स्वयं ही निर्णय करें कि सुधार किसका होना जरूरी है .. समाज का या हिन्दू धर्म का ...

हमें धर्म-सुधार की नहीं, समाज सुधार की जरूरत है और ये ही अपराध हम अब तक करते आ रहे हैं ... हमें समाज- सुधार की जरूरत थी और करने लग गए धर्म में सुधार।
स्वामी जी आगे बोले ...धर्म सुधार के नाम पर हिन्दुओं का सुधार तो नहीं हुआ किन्तु ये सत्य है कि हिन्दुओं का विभाजन अवश्य हो गया। उनमें हीन भावना अधिक गहरी जम गई।
धर्म सुधार के नाम पर नए -नए सम्प्रदाय बनते गए
और वो सब हिन्दू समाज के दोषों को,हिन्दू धर्म से
जोड़ते रहे और इनको ही गिनाते रहे साथ ही साथ ये सम्प्रदाय भी एक दूसरे से दूर होते गए । 

   सब में एक प्रतिस्पर्धा सी आ गई और हर सम्प्रदाय आज इसमें जीतना चाहता है, प्रथम आना चाहता है।हिन्दू धर्म की आलोचना करके "शासन की कृपा पाना चाहता है और उसके लिए हिन्दू धर्म की आलोचना करना सबसे सरल उपाय है ... आज देखो, ये जितने भी सम्प्रदाय हैं हिन्दुओं की तुलना में ईसाईयों के अधिक निकट हो गए हैं। वे हिन्दू समाज के दोषों को -हिन्दू धर्म के साथ जोड़कर हिन्दुओं के दोष और ईसाईयों के गुण बताते हैं। पहले ही हिन्दू मुगलों की हिंसा से पीड़ित रहे हैं। ये दुर्भाग्य ही तो है ..समाज सुधार को ..धर्मके सुधार से जोड़ देना ..जबकि धर्म में सुधार की जरूरत ही नहीं थी .जरूरत तो केवल धर्म के अनुसार समाज में सुधार करने की है।

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रविवार, 4 जून 2023

असली खुशी

 

कहानी

पूरे चार महीने बाद वो शहर से कमाकर गाँव लौटा था। अम्मा उसे देखते ही चहकी...

"आ गया मेरा लाल! कितना दुबला हो गया है रे! खाली पैसे बचाने के चक्कर में ढंग से खाता-पीता भी नहीं क्या!"

"बारह घंटे की ड्यूटी है अम्मा, बैठकर थोड़े खाना है! ये लो, तुम्हारी मनपसंद मिठाई!"--कहकर उसने मिठाई का डिब्बा माँ को थमा दी!

"कितने की है?"

"साढ़े तीन सौ की!"

"इस पैसे का फल नहीं खा सकता था! अब तो अंगूर का सीजन भी आ गया है!"--अम्मा ने उलाहना दिया।

पूरा दिन गाँव-घर से मिलने में बीत गया था! रात हुई, एकांत में उसने बैग खोलकर एक पैकेट निकाला और पत्नी की ओर बढ़ा दिया--

"क्या है ये?"

"चॉकलेट का डिब्बा, खास तुम्हारे लिए!"

"केवल मेरे लिए ही क्यों!"

"अरे समझा करो। सबके लिए तो मिठाई लायी ही है!"

"कितने का है?"

"आठ सौ का!"

"हांय!!"

"विदेशी ब्रांड है!"

"तो क्या हुआ!"

"तुम नहीं समझोगी! खाना, तब बताना!"

"पर घर में और लोग भी हैं। अम्मा, बाबूजी, तीन तीन भौजाइयां, भतीजे। सब खा लेते तो क्या हर्ज था!"

"अरे पगली, बस चार पीस ही है इसमें, सबके लिए कहाँ से लाता!"

"तो तोड़कर खा लेते!"

"और तुम!"

"बहुत मानते हैं मुझे?"

"ये भी कोई कहने की चीज है!"

"आह! कितनी भाग्यशाली हूँ मैं जो तुम मुझे मिले!"

उसकी आँखें चमक उठी--"मेरे जैसा पति बहुत भाग्य से मिलता है!"

"सच है! लेकिन पता है, ये सौभाग्य मुझे किसने दिया है?"

"किसने?"

"तुम्हारी अम्मा और बाबूजी ने! उन्होंने ही तुम्हारे जैसा हट्टा-कट्टा, सुंदर और प्यार करने वाला पति मुझे दिया है! सोचो, तुम्हारे जन्म पर खुशी मनाने के लिए मैं नहीं थी, एक अबोध शिशु से जवान बनने तक, पढ़ाने-लिखाने और नौकरी लायक बनाने तक मैं नहीं थी। मैं तुम्हारे जीवन में आऊं, इस लायक भी उन्होंने ही तुम्हें बनाया!"

"तुम आखिर कहना क्या चाहती हो?"

"यही कि ये पैकेट अब सुबह ही खुलेगा! एक माँ है, जो साढ़े तीन सौ की मिठाई पर भी इसलिए गुस्सा होती है कि उसके बेटे ने उन पैसों को अपने ऊपर खर्च नहीं किया! और वो बेटा आठ सौ का चॉकलेट चुपके से अपनी बीवी को दे, ये ठीक लग रहा है तुम्हें!"

वो चुप हो गया! पत्नी ने बोलना जारी रखा...

"अम्मा-बाबूजी और लोग गाँव में रहते हैं! तुम ही एकमात्र शहरी हो। बहुत सारी चीजें ऐसी होंगी, जो उन्हें इस जनम में नसीब तो क्या, उनका नाम भी सुनने को नहीं मिलेगा! भगवान ने तुम्हें ये सौभाग्य दिया है कि तुम उन्हें ऐसी अनसुनी-अनदेखी खुशियां दो! वैसे कल को हमारे भी बेटे होंगे! अगर यही सब वे करेंगे तो.......!"

अचानक उसे झटका लगा। चॉकलेट का डिब्बा वापस बैग में रख वो बिस्तर पर करवट बदल सुबकने लगा!

"क्या हुआ? बुरा लगा सुनकर!"

"..............!"

"मर्दों को रोना शोभा नहीं देता! खुद की खुशियों को पहचानना सीखो! जीवन का असल सुख परिजनों को खुश देखने में है! समझे पिया!"
-कृपा शंकर मिश्र "खलनायक" ,गाजीपुर, उ0प्र0

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शनिवार, 3 जून 2023

उर्मिला 26

 

उर्मिला 26
शत्रुघ्न चुपचाप देखते रहे अपने बड़े भाई की ओर, जैसे किसी देवता की मूरत को निहार रहे हों। फिर मुस्कुरा कर कहा, "मैं सचमुच परिहास ही कर रहा था भइया। भाभी ने कहा है, "आप उनकी चिन्ता न कीजियेगा... राजा जनक की बेटी अयोध्या राजमहल के आंगन को अपने आँचल से बांध कर रखेगी। कुछ न बिखरेगा, कुछ न टूटेगा..."
     शत्रुघ्न की आँखे भीगने लगी थीं। लखन ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया।
  शत्रुघ्न लक्ष्मण के पास से स्त्रियों के खेमे में आये और सीधे उर्मिला के पास चले गए। उनका मन अभी भी शांत नहीं हुआ था। चुकी वे सबसे छोटे थे इसलिए सहजता से कोई भी प्रश्न पूछ सकने का अधिकार रखते थे। उन्होंने उलझे हुए स्वर में पूछा, "क्या आप सचमुच भइया से मिलना नहीं चाहतीं भाभी?"

    उर्मिला के अधरों पर क्षणिक मुस्कान तैर उठी। कहा, "इसकी क्या आवश्यकता देवर जी? हम साथ ही तो हैं..."
   "तो जब मिलना ही नहीं था तो इस गहन वन में आई क्यों भाभी?" शत्रुघ्न की उलझन बढ़ती जा रही थी।
    "हम तो अयोध्या की प्रजा होने के नाते अपने महाराज को वापस ले जाने आये थे देवर जी! अनुज वधु होने के नाते अपने कुल के ज्येष्ठ को यह बताने आये थे कि उनके सारे बच्चे उनके चरणों में श्रद्धा रखते हैं। पर यहाँ आ कर देखा कि वे हमारी कल्पना से भी अधिक बड़े हैं। उनके अंदर सबके लिए प्रेम ही प्रेम है। उनके अश्रु उन्हें देवता बना गए देवर जी! हम राजा लेने आये थे, देवता ले कर लौटेंगे। और लगे हाथ यह भी लाभ हो गया कि आपके भइया को जी भर के देख भी लिया, अन्यथा मेरा तपस्वी पति मुझे चौदह वर्षों तक कहाँ मिलना था?" उर्मिला के मुख पर संतुष्टि के अद्भुत भाव पसरे हुए थे।
     "यह प्रेम का कौन सा रूप है भाभी? मैं न पूर्णतः भइया को समझ पा रहा हूँ, न आपको..." शत्रुघ्न की उलझन कम नहीं हो रही थी।
      "प्रेम को भी कभी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिये देवरजी! हाथ से धर्म की डोर छूट जाय तो प्रेम दैहिक आकर्षण भर रह जाता है। ज्येष्ठ के प्रति पूर्ण समर्पण उनका धर्म है, और उनके धर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा रखना मेरा धर्म है। हम दोनों अपने धर्म पर अडिग रहें, यही हमारे प्रेम का आदर्श है। हमारा जो निर्णय आपको प्रेम के विरुद्ध लग रहा है, वस्तुतः वही हमारे प्रेम की प्रगाढ़ता सिद्ध करता है।" उर्मिला मुस्कुरा उठी थीं।
      शत्रुघ्न उलझ से गए थे। सर झटक कर बोले, "मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूँ। पर मुझे अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा।"
      उर्मिला ने हँसते हुए चिढ़ाया, "आप अभी बच्चे हैं देवर जी! आप प्रेम को नहीं समझ पाएंगे। जाइये, वापसी की व्यवस्था देखिये।"
      शत्रुघ्न बोले, "मेरे लिए वही ठीक है भाभी... मैं चला।" वे बाहर निकल गए और भैया भरत के पास जा कर उनके आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।
      वापसी की बेला आ गयी। राम को छोड़ कर कोई जाना नहीं चाहता था, पर राम के बार बार कहने पर सभी मन मार कर तैयार हो गए थे।
       सत्ता के लिए राम और भरत में छिड़े द्वंद में राम की ही चली थी, पर अयोध्या की दृष्टि में भरत विजयी हुए थे। भरत का समर्पण उन्हें बहुत बड़ा बना गया था।
      राम की पादुकाओं को माथे पर रख कर भरत चलने को सज्ज हुए। चलने से पूर्व उन्होंने तेज स्वर में कहा, "राजा राम की जय।"
      उपस्थित जनसमूह चिल्ला उठा, "हमारे भरत की जय..."
      उर्मिला ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा लक्ष्मण की ओर! आंखों में उस तपस्वी की छवि भर ली और शीघ्रता से मुड़ गयीं, ताकि लक्ष्मण की दृष्टि न पड़े...
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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शुक्रवार, 2 जून 2023

चिन्तन के पल

 

चिन्तन की धारा
बात में दम है , ऐसी घटनाएं ख़ुद मैंने देखी है , हाँ, इत्तेफाक हो सकता है । पर चर्चाओं का होना सुखद ... सावधानी दुर्घटना टालती है ।। समीर कुमार सिंह की इस चर्चा को महज़ जागरूकता के संदर्भ में लेवें -
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  आपके लड़के की उम्र है १५ या २० साल। इस उम्र में उसको साल में पाँच छह बार जींस पैंट या टीशर्ट ख़रीदने की आदत होती है। वो जाकर ख़रीद लेता हैं। ख़रीदने के बाद पहनता है और घूमने या खेलने या कोचिंग करने निकल पड़ता है।

वहाँ उसको मिलते हैं उसके एक दो मुस्लिम दोस्त भी। वहाँ पर देखते ही तारीफ़ होती है किं  ये टीशर्ट तो एकदम ग़ज़बे लग रहा है। कितने में लिये?
सही है यार।

इसके बाद वह मुस्लिम दोस्त बताता है....अरे एक मेरा दोस्त का या भाई का अमुक जगह पर मार्केट में एक दुकान है। वहाँ एकदम लेटेस्ट और ज़बरदस्त क्वालिटी के कपड़े या जूते मिलेंगे। इतने कम में तो सोच भी नहीं सकते हो।

अब आपके लड़के की आँखें चमक उठेंगी, उम्र ही ऐसी है, जितने नये कपड़े और जूते मिल जायें....कम पड़ते हैं। वह आज ही कपड़े ख़रीद कर पहना है लेकिन एक दो दिन में ही उस अमुक दुकान में जाएगा।

वहाँ जाते ही आपका नाम बता कर आपस में ये लोग इशारे कर लेते हैं। आपके लड़के को एकदम से सस्ते में जींस पेंट शर्ट जूते चप्पल आदि मिल जाएँगे और आपके लड़के को ऐसा लगेगा कि जैसे इस कोचिंग वाले दोस्त ने उसके ऊपर बहुत बड़ा एहसान कर दिया है।
जो मुस्लिम दोस्त आपके लड़के को ले गया था, उससे दोस्ती बढ़ेगी, दिन रात msg और कॉल पर बातें या मिलना जुलना ज्यादा बढ़ जाएगा। वह किसी भी चीज की ख़रीदारी के लिए सस्ते में दुकान बताएगा।

आपको पता नहीं चलेगा कि आपका ये हिंदू बेटा कब और कैसे अपने धर्म से विमुख होकर इस्लाम से प्रभावित हो गया है। उसको हिंदू दोस्तों से ज़्यादा मुस्लिम दोस्त बहुत अच्छे लगने लगेंगे क्योंकि कोई सस्ते में पैंट  दे रहा है कोई चप्पल दे रहा है तो कोई १०० की जगह २५ में ही मोबाइल रिपेयर करके दे दे रहा है।

एकदम same सिचुएशन आपकी बेटी के साथ भी होता है , आपका ही लड़का नये नये चीजों को दिखा कर अपनी बहन को कहता है कि मेरा एक अब्दुल, आफ़ताब, साहिल दोस्त है जिसके वजह से इतने सस्ते में ये सारी चीजें मिली है।

और बेटी को तो १०० का माल २५ में नहीं बल्कि मुफ़्त में ....'गिफ्ट; के तौर पर दिया जाता है। वह बेटी मोबाइल, घागरा, पर्स आदि लेते लेते एक दिन रेस्टोरेंट में मुफ़्त का खाना खाने भी पहुँच जाती है जहां एक प्लेट की क़ीमत २ हज़ार से ३ हज़ार भी होता है एकदम शाही अन्दाज़ में भोजन हो जाता है और आपकी बेटी ऐसे लाइफ स्टाइल की मुरीद हो जाती है।
लड़कियों को ऐसी लाइफस्टाइल का बहुत ज़्यादा शौक़ होता है। बाद का हाल तो पता ही है अब वो बेटी अपने बाप को बुरा आदमी समझ सकती है लेकिन मुस्लिम दोस्तों को नहीं।

ये जो कई तरह से, महीनता के साथ आपकी ज़िंदगी में घुसते हैं ना, इसकी खबर आपको लगती ही नहीं है। आपको पता तब चलता है जब वो लोग पूरे खेल का परिणाम हासिल कर लेते हैं।

बचने का उपाय कोई बाहर वाला तो आकर नहीं दे सकता .....पर आप घर में बेटे बेटियों को पहले तो खर्च और दिखावा करने की आदत पर ढंग से समझाइए। उसको बताइए कि अच्छा स्वास्थ्य से बढ़ कर कोई सुंदरता नहीं होती।
दूसरा उस क़ौम के दुकान से कितना भी सस्ता मिले तो आप ले लो लेकिन किसी दोस्त के माध्यम से वहाँ मत पहुँचो। किसी के कहने पर मत जाओ। इसमें bheemte भी अपनी भूमिका निभाते हैं और आपको मुस्लिम दुकान का पता बतायेंगे। वैसे तो मजबूरी ना हो जाये तब तक ऐसे दुकान का रुख़ ही मत करो।
कल ही मुझे एक सिम कार्ड लेना था, दुकान गया तो देखा टोपी वाला लड़का तो अब काउंटर तक चला ही गया था तो बस rate पूछा और फिर लौट गया।

आगे बढ़ा तो एक हिंदू लड़के का दुकान दिख गया। मराठी करके का था। वहीं से सिम कार्ड लिया एयरटेल का २५० रुपया में। अरे यार इतना तो कर ही सकते हो। चार कदम आगे एक हिंदू दुकान भी है, हमें सिर्फ़ मन में निश्चय करके लौटने की प्रवृत्ति डालनी होगी।
साला मैं तो दिमाग़ में यह भी सोच रहा था कि फ़ेसबुक पर  बॉयकॉट लिखता हूँ या पढ़ता हूँ तो यह बॉयकॉट करूँगा कब? अगले दिन से? अगले महीने से? .....या ये सोचूँ कि एक सामान  ले लेता हूँ, क्या ही हो जाएगा और अगले बार से नहीं ख़रीदूँगा।।।। यही तो होता है इनके दुकान के सामने पहुँचने पर मनःस्थिति।
पर नहीं मैंने बस rate पूछा और वापिस बाइक स्टार्ट करके आगे निकल गया।

बाक़ी आप सब समझदार है, कैसे क्या करना है, घर में बेटे बेटियों को कैसे सम्भालना है, वह ख़ुद के विवेक से निर्णय लीजिए।

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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
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