चिन्तन की धारा
वैदिक ऋषियों को भलीभांति ज्ञात था कि कभी किसी राजा की निरंकुशता समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है इसलिए उन्होंने 'राजदंड' के संतुलन के लिए ऋषियों के रूप में 'ऋत' की सत्ता की स्थापना की।
यह परंपरा आगे चलकर 'धर्मदंड' के रूप में विकसित हुई और राज्याभिषेक के बाद पुरोहित प्रजा को संबोधित करके कहता-
"यह तुम्हारा राजा है, हम ब्राह्मणों का राजा सोम है।"
हजारों वर्षों से यह परंपरा निर्बाध रूप से चलती आई यद्यपि बीच-बीच में 'वसिष्ठ-विश्वामित्र' और 'हैहय-भृगु' के रूप में विग्रह हुये जिन्हें भले ही 'राजदंड व धर्मदंड' का संघर्ष कहा गया पर वास्तव में वह था 'संसाधनों पर एकाधिकार' का संघर्ष।
अस्तु!
नौवीं शताब्दी में महाराज मिहिरभोज प्रतिहार के समय में 'राजदंड व धर्मदंड' ने आखिरी बार मिलकर कार्य किया और उसके बाद 'धर्मदंड' स्वार्थी हाथों में चला गया और 'राजदंड' निरंकुश' हाथों में।
राजदंड व धर्मदंड मिलकर कार्य अवश्य कर रहे थे लेकिन न्याय व स्वाभिमान के लिए नहीं बल्कि उन्हें थामने वाले वर्गों के हितों में जबकि 'राष्ट्र' अपनी उपेक्षा से दुःखी होकर सिसक रहा था।
अंततः सह्याद्रि की पहाड़ियों ने 'राष्ट्र' सिसकियों को सुना और उससे निकले मतवाले मावले।
6 जून 1674 को सह्याद्रि की पहाड़ियों पर 'राजदंड' की स्थापना हुई लेकिन उस राजदंड को थामने वाले ने देख लिया कि 'धर्मदंड' का कितना दुरुपयोग किया जा रहा है और मुगलों द्वारा पददलित हिंदुओं की आशा के एकमात्र केंद्र उस राजदंड की स्थापना में तथाकथित 'धर्मदंड' द्वारा कितनी बाधाएं स्थापित की जा रही थीं।
छत्रपति शिवाजी!
उस पुरुषसिंह ने दृढ़ निश्चय किया 'राजदंड व धर्मदंड' के एकीकरण का और मौका भी शीघ्र आ पहुँचा।
अली कुली खान ने छत्रपति से गुहार लगाई, "मुझे फिर से मनुष्य बना लें महाराज!"
छत्रपति ने करुण दृष्टि से अपने चरणों में गिरे अपने इस प्रतिरूप 'द्वितीय शिवाजी' नेताजी पालकर को पकड़कर उठाया और धर्मदंड की ओर आशाभरी दृष्टि से देखा।
"नहीं! एक बार पतित होने पर दुबारा हिंदू बनने के लिए पुनर्जन्म ही लेना पड़ेगा।"
अली कुली खान निराश होकर रो पड़ा।
छत्रपति क्रुद्ध होकर गरज उठे-
"जिस पवित्र राजदंड को मुझे सौंपा गया है उसके अधिकार से इस मंत्रपूत पवित्र सिंहासन की साक्षी में मैं तुम्हें हिंदू घोषित करता हूँ।"
राजदंड व धर्मदंड एकीकृत होकर छत्रपति की सशक्त मुष्टि में आ गए।।
मुहम्मद अली कुली खान फिर से 'नेताजी पालकर' घोषित हुये।
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इतिहास में आज दूसरी बार फिर से ऐसा मौका आया है कि अत्यंत विनीत भाव से समाज के सबसे निम्न माने जाने वाले 'सफाई कर्मियों' के पैर पखारने वाले एक राजऋषि के हाथों में सेंगोल के रूप में 'राजदंड व धर्मदंड' का एकीकरण हुआ है।
आशा ही नहीं वरन पूरा विश्वास है कि इस राजऋषि के उत्तराधिकारी की भुजाओं में भी इसका वहन करने की शक्ति उपस्थित है।।
देवेंद्र सिकरवार द्वारा लिखा ।
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