शनिवार, 20 मई 2023

उर्मिला 24

 

उर्मिला 24

चारों भाई पुनः एक दूसरे से लिपट गए थे। देर तक बिलखते रहने के बाद राम शांत हुए और अनुजों को स्वयं से लिपटाये रख कर ही कहा, "तुम सब अनाथ कहाँ हुए भरत! तुम सब के लिए तो तुम्हारा बड़ा भाई राम है ही, अनाथ केवल मैं हुआ हूँ। दुखी मत होवो... नियति के आगे हम सब विवश हैं।"
     भरत ने बताया कि माताएं भी आई हैं, और जनकपुर से महाराज जनक का परिवार भी आया है। राम भाइयों को लेकर भीड़ के मध्य में घुसे और माता कैकई को देखते ही उनके चरणों मे अपना शीश रख दिया।
     राम समस्त कुल से मिले। माताओं से, मंत्रियों से, नगर जन से... ससुराल से आये राजा जनक और माता सुनयना से! सबसे मिल लेने के बाद मुड़े दूर खड़े निषादराज की ओर, और उन्हें कसकर गले लगा लिया। आँखों से अश्रु पोंछते निषाद ने कहा, "हमें तो लगा था कि हमारी ओर आपकी दृष्टि ही न फिरेगी प्रभु!"
     "तुम्हे तो सबसे पहले देखा था मित्र! जानता था कि भरत को राम तक पहुँचाने का काज तुम्ही ने किया होगा। घर से निकले राम ने अपनी डोर अयोध्या की सीमा पर खड़े निषादराज गुह के हाथों में ही तो सौंपी थी। पर मैं जानता था कि तुम्हारे पास सबके बाद आऊं तब भी तुम बुरा नहीं मानोगे मित्र! मित्रता इसी भरोसे का ही तो नाम है सखा!"
      "मैं तो बस आप सब का स्नेह देख कर तृप्त हो रहा था प्रभु! आज समझ में आया कि जिसके पास लक्ष्मण और भरत जैसे भइया हों, वही राम हो सकता है। आप सब धन्य हैं देवता..." निषादराज नतमस्तक थे।
       "और मैं धन्य हूँ कि मेरे पास तुम्हारे जैसा मित्र है। आओ मित्र, आगन्तुकों के लिए जल आदि की व्यवस्था करें। आज तो इस दरिद्र कुटीर में पूरी अयोध्या आ गयी है। अपने लोगों से कहो कि लक्ष्मण के साथियों का सहयोग करें। सबके लिए फल-जल का उद्योग करें।" राम ने याचना के स्वरों में कहा। मित्र धन्य हो गया, वह उछाह में दौड़ता हुआ अपने साथियों को ललकारने लगा।
     घण्टे भर बाद उस गहन वन में अयोध्या की सभा लगी। यह राजसभा नहीं थी, परिवार सभा थी। राजकुल के अतिरिक्त भी जो व्यक्ति आये थे, वे भी उस समय परिवारजन का भाव लिए हुए थे। राम सबके थे, राम पर सबका अधिकार था। इक्ष्वाकु वंश की अनन्त पीढ़ियों की तपस्या के फलस्वरूप अवतरित हुए भगवान विष्णु के सर्वश्रेष्ठ मानवीय स्वरूप "राम" की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि हर व्यक्ति उनपर अपना अधिकार समझता था। वे सबके थे, वे सबमें थे।
     यह संसार का एकमात्र विवाद था जिसमें दोनों पक्ष अपना अधिकार त्यागने के लिए लड़ रहे थे। भरत अडिग थे कि वे राम को वापस ले कर ही जायेंगे। राम अडिग थे कि वे पिता के वचन को भंग नहीं होने देंगे। जब राम बोलते तो प्रजा को लगता कि उन्ही की बात सही है, जब भरत बोलते तो लगता कि वही धर्म है। इस विवाद को देखने सुनने वाला हर व्यक्ति मुग्ध हो रहा था। हर व्यक्ति तृप्त हो रहा था, धन्य हो रहा था।
     अंत में राम ने कहा, "तुम्हारा ज्येष्ठ हूँ भरत! क्या बड़े भाई की याचना स्वीकार न करोगे? पिता की प्रतिष्ठा के लिए बनवास को निकले राम को उसकी यात्रा पूरी कर लेने दो अनुज! यह अब माता कैकई की नहीं, मेरी स्वयं की इच्छा है। मैं वचन देता हूँ कि चौदह वर्ष पूरे होते ही अयोध्या आ जाऊंगा।"
     भरत रुक गए। वे राम के मार्ग की बाधा नहीं बन सकते थे। हार कर कहा, "जो आज्ञा देव! पर इन चौदह वर्षों तक अयोध्या की गद्दी पर आपकी चरणपादुका विराजेगी। संसार देखेगा कि राम की पादुकाओं का शासन भी अन्य राजाओं के शासन से अधिक लोकहितकारी है। अयोध्या को रामराज्य के लिए अभी और प्रतीक्षा करनी है तो वही सही, पर आपकी पादुकाओं के शासन में भी प्रजा प्रसन्न रहेगी, यह वचन है मेरा।"
      राम क्या कहते! भरत को गले लगा लिया। बड़े भाई से लिपटे अयोध्या के संत ने कहा, "एक बात और स्मरण रहे भइया! चौदह वर्ष के बाद यदि आपके वापस लौटने में एक दिन की भी देर हुई, तो भरत आत्मदाह कर लेगा। स्मरण रहे, आपका भरत आत्मदाह कर लेगा..."
     राम बिलख पड़े। रोते हुए बोले, "ऐसा मत कह रे! प्रलय आ जाय तब भी तेरा ज्येष्ठ तेरे पास समय पर पहुँचेगा भरत!"
      भरत संतुष्ट हुए। समस्त जन ने मन ही मन कहा, "राम तो राम ही हैं, पर भरत सा होना भी असंभव है।"
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
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