शनिवार, 13 मई 2023

उर्मिला 23

 

उर्मिला 23

भरत ने जब राम को देखा तो उन्हें लगा, जैसे सबकुछ पा लिया हो। वे दौड़ते हुए आगे बढ़े और भइया भइया चिल्लाते हुए बड़े भाई के चरणों में गिर गए।
     संसार में भाई से अधिक प्यारा कोई नाता नहीं होता। इस एक नाते में जाने कितने नाते समाए होते हैं। साथ खेलने का नाता, साथ पढ़ने लिखने का नाता, एक ही थाली में खाने का नाता, एक ही बिछावन पर सोने का नाता...
      बचपन के झगड़ो में भले एक दूसरे से रूठे गुस्साते हों, पर एक के रोने पर दूसरा भाई झटपट पिता की तरह मनाने और चुप कराने लग जाता है। एक नाता बार बार आंसू पोछने का भी होता है। एक दूसरे के कंधे पर चढ़ कर खेलने का नाता, तो एक दूसरे के कंधे पर सर रख कर रोने का नाता...
      किसी विशेष कारण से एक दूसरे के प्रति मन में मैल बैठ भी गया हो, पर भाई को उदास देख कर दूसरे के हृदय का बांध टूट जाता है। भरत के चेहरे पर पसरी इसी उदासी ने क्षण भर में ही लक्ष्मण जैसे कठोर योद्धा को पिघला दिया था और उनके हाथ से लकड़ी गिर पड़ी थी। अब वही उदास मुख लेकर भरत राम के सामने थे।
      राम! करुणा के सागर राम! तीन छोटे भाइयों का बड़ा भाई होने का भाव जिसे बचपन से ही अत्यंत संवेदनशील बना गया था, वे कोमल हृदय के स्वामी राम! पत्थर बनी अनजान स्त्री की पीड़ा से द्रवित को कर उसे मुक्ति दिलाने वाले राम जब अनुज भरत का अश्रुओं से भरा मुख देखे तो बिलख पड़े। चरणों में पड़े भाई को उठा कर हृदय से लगाया और चीख कर रो पड़े...
     जो जगत के पालनहार थे, स्वयं लीलाधर थे, सृष्टि की हर लीला के सर्जक थे, वे अपने राज्य की आम प्रजा के सामने बच्चों की तरह बिलख कर रो रहे थे। रोते रोते रुकते, भरत से कुछ समाचार पूछने के लिए उनके मुख की ओर देखते, पर उनका मुख देख कर पुनः फफक कर रो पड़ते।
     कुछ समय तक दूर खड़े लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों बड़े भाइयों को लिपट कर रोते देखते रहे, फिर अनायास ही आगे बढ़ कर वे दोनों भी लिपट गए...
      चार भाइयों को यूँ प्रेम से लिपट कर रोते देख कौन न रो पड़ता? उस गहन वन में एकत्र हुए अयोध्या के नगर जन की आंखे बहने लगीं। कौसल्या के साथ खड़ी कैकई का मन एकाएक हल्का हो गया, वह लपक कर कैकई से लिपट गयीं। कौसल्या कुछ न बोलीं, चुपचाप कैकई में माथे पर स्नेह से भरा हाथ फेरती रहीं।
      जिस कुल के भाइयों में स्नेह हो, उनके समस्त पितर यूँ ही तृप्त हो जाते हैं। स्वर्ग में बैठे इक्ष्वाकु वंश के समस्त पितर आनन्दित हो अपने बच्चों पर आशीष की वर्षा करने लगे थे। उसी क्षण सिसकते राम ने पूछा- कैसा है रे? इतना उदास क्यों है भरत?
      भरत ने सिसकते हुए ही उत्तर दिया- आपने हमें त्याग दिया भइया! अब जीवन में खुश होने का कोई कारण बचा है क्या?
      "छी!" राम ने डपट कर कहा, "कैसी बात करते हो भरत? भाइयों को त्यागना पड़े तो राम उसी के साथ संसार को त्याग देगा। मैं तो बस कुछ दिनों के लिए तुम सब से दूर आया हूँ अनुज! शायद नियति परीक्षा ले रही है कि राम अपने भाइयों से अलग हो कर भी जी रहा है या नहीं! वह तो लखन है मेरे साथ, नहीं तो इस परीक्षा में हम हार ही जाते।"
      भरत फिर लिपट गए। वे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। राम ने उन्हें गले लगाए हुए ही कहा, "अयोध्या में सबकुछ ठीक तो है भरत? सारी प्रजा को साथ लाने का क्या प्रयोजन है भाई?"
      "अयोध्या में कुछ भी ठीक नहीं है भइया! पिताश्री...." भरत फफक पड़े। राम ने घबड़ा कर पूछा- क्या हुआ पिताश्री को? भरत? बोल भाई, क्या हुआ पिताश्री को?"
     भरत ने लिपटे लिपटे ही कहा, "आपके वियोग में पिताश्री ने प्राण त्याग दिया भइया। हम सब अनाथ हो गए..."
      राम पुनः चीख पड़े। चारों भाई पुनः एक दूसरे से लिपट गए थे। देर तक बिलखते रहने के बाद राम शांत हुए और अनुजों को स्वयं से लिपटाये रख कर ही कहा, "तुम सब अनाथ कहाँ हुए भरत! तुम सब के लिए तो तुम्हारा बड़ा भाई राम है ही, अनाथ केवल मैं हुआ हूँ। दुखी मत होवो... नियति के आगे हम सब विवश हैं।"
     भरत ने बताया कि माताएं भी आई हैं, और जनकपुर से महाराज जनक का परिवार भी आया है। राम भाइयों को लेकर भीड़ के मध्य में घुसे और माता कैकई को देखते ही उनके चरणों मे अपना शीश रख दिया।
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क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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