शनिवार, 27 मई 2023

उर्मिला 25

 

उर्मिला 25
राम क्या कहते! भरत को गले लगा लिया। बड़े भाई से लिपटे अयोध्या के संत ने कहा, "एक बात और स्मरण रहे भइया! चौदह वर्ष के बाद यदि आपके वापस लौटने में एक दिन की भी देर हुई, तो भरत आत्मदाह कर लेगा। स्मरण रहे, आपका भरत आत्मदाह कर लेगा..."
     राम बिलख पड़े। रोते हुए बोले, "ऐसा मत कह रे! प्रलय आ जाय तब भी तेरा ज्येष्ठ तेरे पास समय पर पहुँचेगा भरत!"
      भरत संतुष्ट हुए। समस्त जन ने मन ही मन कहा, "राम तो राम ही हैं, पर भरत सा होना भी असंभव है।"
नियति के कुचक्र में फंस कर अयोध्या नरेश के दो राजकुमार अपना अधिकार त्यागने की लड़ाई लड़ रहे थे, वहीं अन्य दो राजकुमार इस पारिवारिक द्वंद से बिल्कुल ही अछूते एक दूजे पर न्योछावर हुए जा रहे थे। दोनों सुमित्रानंदन कभी सत्ता को अपना विषय समझे ही नहीं थे, माता ने बचपन से ही उनमें सेवा और बड़ों के प्रति समर्पण का भाव भरा था। वे राम और भरत के प्रति समान श्रद्धा रखते हुए दूर से ही इस समस्या को सुलझते हुए देख रहे थे।
      तय हो चुका था कि राम चौदह वर्ष बाद ही वनवास से वापस लौटेंगे, तबतक भरत उनकी ओर से अयोध्या के कार्यकारी सम्राट होंगे। अब अयोध्या के नगरजन उदास हो कर वापसी की तैयारी कर रहे थे।
     लखन अपने अनुज के लिए वन से फल लाये थे और बड़े ही प्रेम से उन्हें धो धो कर खिला रहे थे। फिर अपने उत्तरीय से उनके मुँह में लगे जूठन को पोछते हुए बोले, "कुल में सबका ध्यान रखना शत्रुघ्न! यही हमारा धर्म है।"
     शत्रुघ्न ने सर हिला कर सहमति दी। लखन ने आगे कहा, "माताओं का विशेष ध्यान रखना शत्रुघ्न! विशेष रूप से बड़ी माँ और छोटी मां का... हम उनका दुख तो कम नहीं कर सकते, पर उन्हें धीरज धराने का प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। उनके साथ बने रहना...
      शत्रुघ्न ने पुनः सर हिलाया। लखन बोलते रहे, "भइया भरत का भी ध्यान रखना अनुज! वे बहुत ही व्यथित हैं। नियति ने उनके साथ बहुत ही बुरा व्यवहार किया है। उन्हें बड़े भइया का स्नेह भी तुम्हे ही देना होगा, और हम दोनों अनुजों का सहयोग भी तुम्हे अकेले ही देना होगा।"
      शत्रुघ्न ने फिर शीश हिला दिया। लखन आगे बोले, "अच्छा सुनो! स्वयं का भी ध्यान रखना। तुम्हारे तीनों बड़े भाई कहीं भी रहें, तुम पर उनका स्नेह, उनका आशीष बरसता ही रहेगा। खुश रहना..."
      शत्रुघ्न अब स्वयं को नहीं रोक सके। लखन की आंखों में आँख डाल कर कहा, "और भाभी के लिए कुछ नहीं कहेंगे भइया? आपको उनकी जरा भी चिन्ता नहीं?"
      लखन कुछ पल के लिए शांत हो गए। फिर गम्भीर भाव से कहा, "उनसे कहना, मैं सदैव महादेव से प्रार्थना करता हूँ कि उनका तप पूर्ण हो। परीक्षा की इस घड़ी में हमें अपने कर्तव्यों का स्मरण रहें, यही हमारी पूर्णता है। और सुनो! मुझे सचमुच उनकी चिन्ता नहीं होती... मुझे स्वयं से अधिक भरोसा है उनपर!"
     "भइया! भाभी भी आयी हैं, आप उनसे नहीं मिलेंगे?"
      लक्ष्मण का मुँह पल भर के लिए सूख गया, पर शीघ्र ही सामान्य भी हो गए। मुस्कुरा कर कहा, " बड़े नटखट हो! सब अपनी ही ओर बोल रहे हो न? सुनो! हमें मिलने की आवश्यकता नहीं, हम साथ ही हैं। हमने मिल कर तय किया था कि चौदह वर्षों तक स्वयं को भूल कर केवल परिवार के लिए जिएंगे। अपने कर्तव्य पर डटे रह कर हम अलग होते हुए भी साथ ही होंगे..."
     शत्रुघ्न चुपचाप देखते रहे अपने बड़े भाई की ओर, जैसे किसी देवता की मूरत को निहार रहे हों। फिर मुस्कुरा कर कहा, "मैं सचमुच परिहास ही कर रहा था भइया। भाभी ने कहा है, "आप उनकी चिन्ता न कीजियेगा... राजा जनक की बेटी अयोध्या राजमहल के आंगन को अपने आँचल से बांध कर रखेगी। कुछ न बिखरेगा, कुछ न टूटेगा..."
     शत्रुघ्न की आँखे भीगने लगी थीं। लखन ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
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