सोमवार, 29 मई 2023

राष्ट्र मेरा घर, मेरा परिवार

 एक कल्पना कीजिए... तीस वर्ष का पति जेल की सलाखों के भीतर खड़ा है और बाहर उसकी वह युवा पत्नी खड़ी है, जिसका बच्चा हाल ही में मृत हुआ है...


इस बात की पूरी संभावना है कि अब शायद इस जन्म में इन पति पत्नी की भेंट न हो। ऐसे कठिन समय पर इन दोनों ने क्या बातचीत की होगी। कल्पना मात्र से आप सिहर उठे ना?


जी हाँ!! मैं बात कर रहा हूँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चमकते सितारे विनायक दामोदर सावरकर की।


यह परिस्थिति सावरकर के जीवन में आई थी, जब अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी (Andaman Cellular Jail) की कठोरतम सजा के लिए अंडमान जेल भेजने का निर्णय लिया और उनकी पत्नी उनसे मिलने जेल में आईं।


मजबूत ह्रदय वाले वीर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) ने अपनी पत्नी से एक ही बात कही... “तिनके तीलियाँ बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल बच्चों का पालन पोषण करना... यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिड़िया भी बसाते हैं। अपने घर परिवार बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं। मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है, इसका गर्व कीजिए। इस दुनिया में कुछ भी बोए बिना कुछ उगता नहीं है। धरती से ज्वार की फसल उगानी हो तो उसके कुछ दानों को जमीन में गड़ना ही होता है। वह बीच जमीन में, खेत में जाकर मिलते हैं तभी अगली ज्वार की फसल आती है।


यदि हिन्दुस्तान में अच्छे घर निर्माण करना है तो हमें अपना घर कुर्बान करना चाहिए। कोई न कोई मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में न मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा...। कल्पना करो कि हमने अपने ही हाथों अपने घर के चूल्हे फोड़ दिए हैं, अपने घर में आग लगा दी है। परन्तु आज का यही धुआँ कल भारत के प्रत्येक घर से स्वर्ण का धुआँ बनकर निकलेगा।”


“यमुनाबाई, बुरा न मानें, मैंने तुम्हें एक ही जन्म में इतना कष्ट दिया है कि 'यही पति मुझे जन्म जन्मांतर तक मिले' ऐसा कैसे कह सकती हो... यदि अगला जन्म मिला, तो हमारी भेंट होगी... अन्यथा यहीं से विदा लेता हूँ...” (उन दिनों यही माना जाता था, कि जिसे कालापानी की भयंकर सजा मिली वह वहाँ से जीवित वापस नहीं आएगा)।


अब सोचिये, इस भीषण परिस्थिति में मात्र 25-26 वर्ष की उस युवा स्त्री ने अपने पति यानी वीर सावरकर से क्या कहा होगा? यमुनाबाई (अर्थात भाऊराव चिपलूनकर की पुत्री) धीरे से नीचे बैठीं, और जाली में से अपने हाथ अंदर करके उन्होंने सावरकर के पैरों को स्पर्श किया। उन चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई। सावरकर भी चौंक गए, अंदर से हिल गए... उन्होंने पूछा... “ये क्या करती हो”? अमर क्रांतिकारी की पत्नी ने कहा... “मैं यह चरण अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाए। अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है... इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है। यदि आप सत्यवान हैं, तो मैं सावित्री हूँ। मेरी तपस्या में इतना बल है, कि मैं यमराज से आपको वापस छीन लाऊँगी। आप चिंता न करें... अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें... हम इसी स्थान पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं...”।


क्या जबरदस्त ताकत है... उस युवावस्था में पति को कालापानी की सजा पर ले जाते समय, कितना हिम्मत भरा वार्तालाप है... सचमुच, क्रान्ति की भावना कुछ स्वर्ग से तय होती है, कुछ संस्कारों से। यह हर किसी को नहीं मिलती।


वीर सावरकर को 50 साल की सजा देकर भी अंग्रेज नहीं मिटा सके, लेकिन कांग्रेस व मार्क्सहवादियों ने उन्हें  मिटाने की पूरी कोशिश की... 26 फरवरी 1966 को वह इस दुनिया से प्रस्थान कर गए। लेकिन इससे केवल 56 वर्ष व दो दिन पहले 24 फरवरी 1910 को उन्हें ब्रिटिश सरकार ने एक नहीं, बल्कि दो दो जन्मों के कारावास की सजा सुनाई थी। उन्हें 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी।


वीर सावरकर भारतीय इतिहास में प्रथम क्रांतिकारी हैं, जिन पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्या्यालय में मुकदमा चलाया गया था। उन्हें  काला पानी की सजा मिली। कागज व लेखनी से वंचित कर दिए जाने पर उन्होंने अंडमान जेल की दीवारों को ही कागज और अपने नाखूनों, कीलों व कांटों को अपना पेन बना लिया था, जिसके कारण वह सच्चाई दबने से बच गई, जिसे न केवल ब्रिटिश, बल्कि आजादी के बाद तथाकथित इतिहासकारों ने भी दबाने का प्रयास किया। पहले ब्रिटिश ने और बाद में कांग्रेसी वामपंथी इतिहासकारों ने हमारे इतिहास के साथ जो खिलवाड़ किया, उससे पूरे इतिहास में वीर सावरकर अकेले मुठभेड़ करते नजर आते हैं।


भारत का दुर्भाग्य देखिए, भारत की युवा पीढ़ी यह तक नहीं जानती कि वीर सावरकर को आखिर दो जन्मों के कालापानी की सजा क्यों  मिली थी, जबकि हमारे इतिहास की पुस्तकों में तो आजादी की पूरी लड़ाई गांधी नेहरू के नाम कर दी गई है। तो फिर आपने कभी सोचा कि जब देश को आजाद कराने की पूरी लड़ाई गांधी नेहरू ने लड़ी तो विनायक

दामोदर सावरकर को कालापानी की सजा क्यों दी गई। उन्होंने तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों की तरह बम बंदूक से भी अंग्रेजों पर हमला नहीं किया था तो फिर क्यों  उन्हें 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी।


वीर सावरकर की गलती यह थी कि उन्होंंने कलम उठा लिया था और अंग्रेजों के उस झूठ का पर्दाफाश कर दिया, जिसे दबाए रखने में न केवल अंग्रेजों का, बल्कि केवल गांधी नेहरू को ही असली स्वतंत्रता सेनानी मानने वालों का भी भला हो रहा था। अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति को केवल एक सैनिक विद्रोह करार दिया था, जिसे आज तक वामपंथी इतिहासकार ढो रहे हैं।


1857 की क्रांति की सच्चा्ई को दबाने और फिर कभी ऐसी क्रांति उत्पन्न न हो इसके लिए ही अंग्रेजों ने अपने एक अधिकारी ए.ओ.हयूम से 1885 में कांग्रेस की स्थापना करवाई थी। 1857 की क्रांति को कुचलने की जयंती उस वक्त ब्रिटेन में हर साल मनाई जाती थी और क्रांतिकारी नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे आदि को हत्यारा व उपद्रवी बताया जाता था। 1857 की 50 वीं वर्षगांठ 1907 ईस्वी में भी ब्रिटेन में विजय दिवस के रूप मे मनाया जा रहा था, जहां वीर सावरकर 1906 में वकालत की पढ़ाई करने के लिए पहुंचे थे।


सावरकर को रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहब, तात्या टोपे का अपमान करता नाटक इतना चुभ गया कि उन्होंने उस क्रांति की सच्चाई तक पहुंचने के लिए भारत संबंधी ब्रिटिश दस्तावेजों के भंडार 'इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी' और 'ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी' में प्रवेश पा लिया और लगातार डेढ़ वर्ष तक ब्रिटिश दस्तावेज व लेखन की खाक छानते रहे। उन दस्तावेजों के खंघालने के बाद उन्हें  पता चला कि 1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह नहीं, बल्कि देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम था। इसे उन्होंने मराठी भाषा में लिखना शुरू किया।


10 मई 1908 को जब फिर से ब्रिटिश 1857 की क्रांति की वर्षगांठ पर लंदन में विजय दिवस मना रहे थे तो वीर सावरकर ने वहां चार पन्ने का एक पंपलेट बंटवाया, जिसका शीर्षक था 'ओ मार्टर्स' अर्थात 'ऐ हुतात्माओं'। आपने पंपलेट द्वारा सावरकर ने 1857 को मामूली सैनिक क्रांति बताने वाले अंग्रेजों के उस झूठ से पर्दा हटा दिया, जिसे लगातार 50 वर्षों से जारी रखा गया था। अंग्रेजों की कोशिश थी कि भारतीयों को कभी 1857 की पूरी सच्चाई का पता नहीं चले, अन्यथा उनमें खुद के लिए गर्व और अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव जग जाएगा।


1910 में सावरकर को लंदन में ही गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर ने समुद्री सफर से बीच ही भागने की कोशिश की, लेकिन फ्रांस की सीमा में पकड़े गए। इसके कारण उन पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रींय अदालत में मुकदमा चला। ब्रिटिश सरकार ने उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया और कई झूठे आरोप उन पर लाद दिए गए, लेकिन सजा देते वक्त न्यायाधीश ने उनके पंपलेट 'ए हुतात्माओं' का जिक्र भी किया था, जिससे यह साबित होता है कि अंग्रेजों ने उन्हें असली सजा उनकी लेखनी के कारण ही दिया था। देशद्रोह के अन्ये आरोप केवल मुकदमे को मजबूत करने के लिए वीर सावरकर पर लादे गए थे।


वीर सावरकर की पुस्ततक '1857 का स्वायतंत्र समर' छपने से पहले की 1909 में प्रतिबंधित कर दी गई। पूरी दुनिया के इतिहास में यह पहली बार था कि कोई पुस्तक छपने से पहले की बैन कर दी गई हो। पूरी ब्रिटिश खुफिया एजेंसी इसे भारत में पहुंचने से रोकने में जुट गई, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही थी। इसका पहला संस्करण हॉलैंड में छपा और वहां से पेरिस होता हुए भारत पहुंचा। इस पुस्तक से प्रतिबंध 1947 में हटा, लेकिन 1909 में प्रतिबंधित होने से लेकर 1947 में भारत की आजादी मिलने तक अधिकांश भाषाओं में इस पुस्तक के इतने गुप्त संस्करण निकले कि अंग्रेज थर्रा उठे।


भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जापान, जर्मनी, पूरा यूरोप अचानक से इस पुस्तकों के गुप्त, संस्कंरण से जैसे पट गया। एक फ्रांसीसी पत्रकार ई. पिरियोन ने लिखा, ''यह एक महाकाव्य है, दैवी मंत्रोच्चांर है, देशभक्ति का दिशाबोध है। यह पुस्तक हिंदू मुस्लिम एकता का संदेश देती है, क्योंकि महमूद गजनवी के बाद 1857 में ही हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर समान शत्रु के विरुद्ध युद्ध लड़ा।


यह सही अर्थों में राष्ट्रीय क्रांति थी। इसने सिद्ध कर दिया कि यूरोप के महान राष्ट्रों के समान भारत भी राष्ट्रीय चेतना प्रकट कर सकता है।''


आपको आश्चर्य होगा कि इस पुस्तक पर लेखक का नाम नहीं था...।


साभार

@Modified_Hindu9

चिन्तन की धारा

 

चिन्तन की धारा

वैदिक ऋषियों को भलीभांति ज्ञात था कि कभी किसी राजा की निरंकुशता समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है इसलिए उन्होंने 'राजदंड' के संतुलन के लिए ऋषियों के रूप में 'ऋत' की सत्ता की स्थापना की।

यह परंपरा आगे चलकर 'धर्मदंड' के रूप में विकसित हुई और राज्याभिषेक के बाद  पुरोहित प्रजा को संबोधित करके कहता-

"यह तुम्हारा राजा है, हम ब्राह्मणों का राजा सोम है।"

हजारों वर्षों से यह परंपरा निर्बाध रूप से चलती आई यद्यपि बीच-बीच में 'वसिष्ठ-विश्वामित्र' और 'हैहय-भृगु' के रूप में    विग्रह हुये जिन्हें भले ही 'राजदंड व धर्मदंड' का संघर्ष कहा गया पर वास्तव में वह था 'संसाधनों पर एकाधिकार' का संघर्ष।

अस्तु!
नौवीं शताब्दी में महाराज मिहिरभोज प्रतिहार के समय में 'राजदंड व धर्मदंड' ने आखिरी बार मिलकर कार्य किया और उसके बाद 'धर्मदंड' स्वार्थी हाथों में चला गया और 'राजदंड' निरंकुश' हाथों में।

राजदंड व धर्मदंड मिलकर कार्य अवश्य कर रहे थे लेकिन न्याय व स्वाभिमान के लिए नहीं बल्कि उन्हें थामने वाले वर्गों के हितों में जबकि 'राष्ट्र' अपनी  उपेक्षा से दुःखी होकर सिसक रहा था।

अंततः सह्याद्रि की पहाड़ियों ने 'राष्ट्र' सिसकियों को सुना और उससे निकले मतवाले मावले।

6 जून 1674 को सह्याद्रि की पहाड़ियों पर 'राजदंड' की स्थापना हुई लेकिन उस राजदंड को थामने वाले ने देख लिया कि 'धर्मदंड' का कितना दुरुपयोग किया जा रहा है और मुगलों द्वारा पददलित हिंदुओं की आशा के एकमात्र केंद्र उस राजदंड की स्थापना में तथाकथित 'धर्मदंड' द्वारा कितनी बाधाएं स्थापित की जा रही थीं।

छत्रपति शिवाजी!

उस पुरुषसिंह ने दृढ़ निश्चय किया 'राजदंड व धर्मदंड' के एकीकरण का और मौका भी शीघ्र आ पहुँचा।

अली कुली खान ने छत्रपति से गुहार लगाई, "मुझे फिर से मनुष्य बना लें महाराज!"

छत्रपति ने करुण दृष्टि से अपने चरणों में गिरे अपने इस प्रतिरूप 'द्वितीय शिवाजी' नेताजी पालकर को पकड़कर उठाया और धर्मदंड की ओर आशाभरी दृष्टि से देखा।

"नहीं! एक बार पतित होने पर दुबारा हिंदू बनने के लिए पुनर्जन्म ही लेना पड़ेगा।"

अली कुली खान निराश होकर रो पड़ा।

छत्रपति क्रुद्ध होकर गरज उठे-

"जिस पवित्र राजदंड को मुझे सौंपा गया है उसके अधिकार से इस मंत्रपूत पवित्र सिंहासन की साक्षी में मैं तुम्हें हिंदू घोषित करता हूँ।"

राजदंड व धर्मदंड एकीकृत होकर छत्रपति की सशक्त मुष्टि में आ गए।।

मुहम्मद अली कुली खान फिर से 'नेताजी पालकर' घोषित हुये।
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इतिहास में आज दूसरी बार फिर से ऐसा मौका आया है कि अत्यंत विनीत भाव से समाज के सबसे निम्न माने जाने वाले 'सफाई कर्मियों' के पैर पखारने वाले एक राजऋषि के हाथों में  सेंगोल के रूप में 'राजदंड व धर्मदंड' का एकीकरण हुआ है।

आशा ही नहीं वरन पूरा विश्वास है कि इस राजऋषि के उत्तराधिकारी की भुजाओं में भी इसका वहन करने की शक्ति उपस्थित है।।
देवेंद्र सिकरवार द्वारा लिखा ।

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रविवार, 28 मई 2023

अपनापन

 

कहानी

घर के पास वाले फ्लैट में कुछ समय पहले ही कुछ लड़के रेंट पर रहने आए हैं। वैसे तो आजकल सोसायटी में बैचलर किरायदारों को घर नहीं मिलता है, पर मकान मालिक के झूठ के रिश्तेदार बनकर कोई भी रूल को तोड़ा या बदला तो जा ही सकता है।

हालांकि वो लोग करीब 15 दिन से रह रहे हैं यह मुझे पता भी तब चला जब उन्हें कल घर से निकलते देखा। इस बीच न कोई शोर शराबा न कोई गंदगी फैलाई उन्होंने। बाहर निकलते समय नमस्ते किया और चुपचाप चले गए।

पड़ोस वाली आंटी को यह सब शायद ठीक न लगा। वो शाम को मेरे पास आकर कहने लगीं;

हम इनकी मेंटनेंस में कम्प्लेन कर देते हैं, कह देंगे कि तेज़ आवाज़ में म्यूजिक चलाते हैं या कह देंगे कि घर के आगे गंदगी फैलाते हैं। और भी कुछ अजीब बहाने उन्होंने बताने शुरू किए।

मैने उनसे पूछा कि ऐसा करना ही क्यों हैं? उनके रहने से अगर कोई परेशानी होगी तब देखेंगे!

मेरी बात सुनकर बोली अरे इन लोगों को कोई सोसायटी में नहीं रखना चाहता। ऐसे लोग हो सकता है ड्रिंक करें, और आजकल तो ऐसे लोग वीकेंड पर पार्टी करते ही हैं! यह लोग बेकार ही यहां का माहौल बिगाड़ेंगे।

मुझे उनकी बात सुनकर यह समझ आ गया कि बिना किसी वजह के इनको बस उन्हें परेशान करना है। मैंने आंटी की उस बात का कोई जवाब न देते हुए पूछा;

राजीव भैया कैसे हैं आंटी?

राजीव भैया आंटी के इकलौते बेटे हैं, और अभी कुछ महीने के लिए UK गए हुए हैं, उनका नाम सुनते ही वो खिल उठीं। बताने लगी कि बहुत मज़े से रह रहा है। अक्सर वीडियो कॉल करता है, खाना बनाना सीख रहा है। इतने अच्छे लोग के यहाँ पीजी में हैं, वो उसकी केयर भी अच्छे से करते हैं। कई बार ऑफिस से थका हुआ आता है तो उसे साथ रह रहे अंकल दूध गर्म कर के दे देते है। तो कभी उसके साथ पराठे बनाते हैं।

मैं पहले पराए देश मे भेजने को लेकर बहुत टेंशन में थी। पर अब बड़ा सुकून है। ये विदेश के लोग इत्ते भी बुरे नहीं होते। यह कहकर वह जोर जोर से हँसने लगीं। उनके हँसने पर मैने देखा कि उनके दांतो के सेट में थोड़ा गैप आ गया है। ख़ैर...

मैने यह सुनते ही उनके दोनो हाथ अपने हाथ मे लिए और कहा;

आंटी अपने बच्चे को एक पराए देश मे भेजने पर जो चिंता, जो डर आपके थें, वही चिंता वही डर हर माँ के होते हैं जब वो अपने बच्चे को पढ़ने के लिए या जॉब के लिए बाहर भेजती हैं। पास में आए लड़को के परिवार वालों को भी बिल्कुल यही चिंता रही होगी। हमे नहीं पता कि कैसी विकट परिस्थितियों में वो आ पाए होंगे? न जाने कैसे माँ ने अपने तमाम डर को दबा के बच्चों को बड़े शहर में जाने की इजाजत दी होगी? न जाने कितने सपने लेकर वो यहाँ आए होंगे? हर इंसान के अपने संघर्ष होते हैं, जो बस वही समझ सकता है जो इसे भोगता है।

जिस तरह से आपको तसल्ली हुई कि आपका बच्चा खुश है, सुरक्षित है। और जैसे आप तारीफ कर रहीं हैं उन अंग्रेजों की, क्या आप नहीं चाहती कि उनकी माँएं भी यही तसल्ली का अनुभव करें जब वो उनसे उनके आसपास के लोगों के बारे में जानें?

जब तक वो हमें तकलीफ नहीं पहुंचा रहे, तब तक उनके सपनों को पूरा होने दीजिये। हो सकता है इन्हें दिया आपका दुलार राजीव भैया के पास ब्याज सहित पहुंचे।

मैं यह सारी बात एक ही सांस में कह गई। आंटी के चेहरे पर बार बार भाव बदलते रहे। अचानक उन्होंने मेरा हाथ छोड़ा और उठ के जाने लगी। मैने कहा सॉरी आंटी आपको बुरा लगा न?

मेरी बात का बिन कुछ जवाब दिए वो बोली.... सामने पूछ आती हूँ 'बच्चों' को किसी चीज़ की जरूरत तो नहीं....!

मैने उन्हें उनकी आँखों के आँसू को चुपके से पोंछते हुए देखा, और मुस्करा दी।

यही जीवन है।
-टीशा अग्रवाल

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शनिवार, 27 मई 2023

उर्मिला 25

 

उर्मिला 25
राम क्या कहते! भरत को गले लगा लिया। बड़े भाई से लिपटे अयोध्या के संत ने कहा, "एक बात और स्मरण रहे भइया! चौदह वर्ष के बाद यदि आपके वापस लौटने में एक दिन की भी देर हुई, तो भरत आत्मदाह कर लेगा। स्मरण रहे, आपका भरत आत्मदाह कर लेगा..."
     राम बिलख पड़े। रोते हुए बोले, "ऐसा मत कह रे! प्रलय आ जाय तब भी तेरा ज्येष्ठ तेरे पास समय पर पहुँचेगा भरत!"
      भरत संतुष्ट हुए। समस्त जन ने मन ही मन कहा, "राम तो राम ही हैं, पर भरत सा होना भी असंभव है।"
नियति के कुचक्र में फंस कर अयोध्या नरेश के दो राजकुमार अपना अधिकार त्यागने की लड़ाई लड़ रहे थे, वहीं अन्य दो राजकुमार इस पारिवारिक द्वंद से बिल्कुल ही अछूते एक दूजे पर न्योछावर हुए जा रहे थे। दोनों सुमित्रानंदन कभी सत्ता को अपना विषय समझे ही नहीं थे, माता ने बचपन से ही उनमें सेवा और बड़ों के प्रति समर्पण का भाव भरा था। वे राम और भरत के प्रति समान श्रद्धा रखते हुए दूर से ही इस समस्या को सुलझते हुए देख रहे थे।
      तय हो चुका था कि राम चौदह वर्ष बाद ही वनवास से वापस लौटेंगे, तबतक भरत उनकी ओर से अयोध्या के कार्यकारी सम्राट होंगे। अब अयोध्या के नगरजन उदास हो कर वापसी की तैयारी कर रहे थे।
     लखन अपने अनुज के लिए वन से फल लाये थे और बड़े ही प्रेम से उन्हें धो धो कर खिला रहे थे। फिर अपने उत्तरीय से उनके मुँह में लगे जूठन को पोछते हुए बोले, "कुल में सबका ध्यान रखना शत्रुघ्न! यही हमारा धर्म है।"
     शत्रुघ्न ने सर हिला कर सहमति दी। लखन ने आगे कहा, "माताओं का विशेष ध्यान रखना शत्रुघ्न! विशेष रूप से बड़ी माँ और छोटी मां का... हम उनका दुख तो कम नहीं कर सकते, पर उन्हें धीरज धराने का प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। उनके साथ बने रहना...
      शत्रुघ्न ने पुनः सर हिलाया। लखन बोलते रहे, "भइया भरत का भी ध्यान रखना अनुज! वे बहुत ही व्यथित हैं। नियति ने उनके साथ बहुत ही बुरा व्यवहार किया है। उन्हें बड़े भइया का स्नेह भी तुम्हे ही देना होगा, और हम दोनों अनुजों का सहयोग भी तुम्हे अकेले ही देना होगा।"
      शत्रुघ्न ने फिर शीश हिला दिया। लखन आगे बोले, "अच्छा सुनो! स्वयं का भी ध्यान रखना। तुम्हारे तीनों बड़े भाई कहीं भी रहें, तुम पर उनका स्नेह, उनका आशीष बरसता ही रहेगा। खुश रहना..."
      शत्रुघ्न अब स्वयं को नहीं रोक सके। लखन की आंखों में आँख डाल कर कहा, "और भाभी के लिए कुछ नहीं कहेंगे भइया? आपको उनकी जरा भी चिन्ता नहीं?"
      लखन कुछ पल के लिए शांत हो गए। फिर गम्भीर भाव से कहा, "उनसे कहना, मैं सदैव महादेव से प्रार्थना करता हूँ कि उनका तप पूर्ण हो। परीक्षा की इस घड़ी में हमें अपने कर्तव्यों का स्मरण रहें, यही हमारी पूर्णता है। और सुनो! मुझे सचमुच उनकी चिन्ता नहीं होती... मुझे स्वयं से अधिक भरोसा है उनपर!"
     "भइया! भाभी भी आयी हैं, आप उनसे नहीं मिलेंगे?"
      लक्ष्मण का मुँह पल भर के लिए सूख गया, पर शीघ्र ही सामान्य भी हो गए। मुस्कुरा कर कहा, " बड़े नटखट हो! सब अपनी ही ओर बोल रहे हो न? सुनो! हमें मिलने की आवश्यकता नहीं, हम साथ ही हैं। हमने मिल कर तय किया था कि चौदह वर्षों तक स्वयं को भूल कर केवल परिवार के लिए जिएंगे। अपने कर्तव्य पर डटे रह कर हम अलग होते हुए भी साथ ही होंगे..."
     शत्रुघ्न चुपचाप देखते रहे अपने बड़े भाई की ओर, जैसे किसी देवता की मूरत को निहार रहे हों। फिर मुस्कुरा कर कहा, "मैं सचमुच परिहास ही कर रहा था भइया। भाभी ने कहा है, "आप उनकी चिन्ता न कीजियेगा... राजा जनक की बेटी अयोध्या राजमहल के आंगन को अपने आँचल से बांध कर रखेगी। कुछ न बिखरेगा, कुछ न टूटेगा..."
     शत्रुघ्न की आँखे भीगने लगी थीं। लखन ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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सोमवार, 22 मई 2023

चिन्तन

 

चिन्तन की धारा
एक बार की बात है.

उस समय भारत में बाटा कंपनी का बोलबाला था एवं जूते चप्पल पहनने वाले अधिकांश लोग बाटा कंपनी के उत्पाद को ही प्राथमिकता देते थे.

इस तरह... भारत में बाटा कंपनी का सेल लगभग सेचुरेट हो गया कि अब भारत में इससे ज्यादा सेल बढ़ाना संभव नहीं है.

लेकिन, कंपनियों को ग्रोथ चाहिए ही चाहिए क्योंकि इसके बिना कंपनी चल ही नहीं पाएगी.

इसीलिए, नए मार्केट के तलाश में बाटा कंपनी ने अपने एक एक्सक्यूटिव को सर्वे के लिए दक्षिण अफ्रीका भेजा...

उस एक्सक्यूटिव ने दक्षिण अफ्रीका जाकर अच्छी तरह सर्वे किया और वहाँ से रिपोर्ट भेजा कि.... "दक्षिण अफ्रीका एक बेहद ही डेड मार्केट है और यहाँ एक भी पैसे का इन्वेस्ट करना... महज पैसे की बर्बादी होगी..!
क्योंकि, यहाँ दक्षिण अफ्रीका में तो कोई जूता-चप्पल पहनता ही नहीं है."

उसके हताशाजनक रिपोर्ट से कंपनी वाले बेहद निराश हुए एवं इसके क्रॉस एक्जामिनेशन हेतु अपने एक दूसरे एक्सक्यूटिव को दक्षिण अफ्रीका भेजा.

दूसरा एक्सक्यूटिव भी अफ्रीका गया और वहाँ से तुरंत एक रिपोर्ट भेजा कि.... "दक्षिण अफ्रीका एक बेहद ही पोटेंशियल मार्केट है और हमलोगों को बिना किसी देरी के अपना प्रोडक्ट यहाँ जल्द से जल्द लॉन्च कर देना चाहिए...
क्योंकि, हमलोग इस मामले में आलरेडी काफी लेट हो चुके हैं..!

इसका कारण ये है कि... यहाँ दक्षिण अफ्रीका में तो कोई जूता-चप्पल पहनता ही नहीं है."

इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि... अगर हम लोगों को कन्विंस कर पाएं तो यहाँ के सारे लोग हमारा ही जूता-चप्पल इस्तेमाल करेंगे... और, हमें एक बहुत बड़ा मार्केट मिल जाएगा.

अगर आपने ऊपर की कहानी ध्यान से पढ़ी है तो आप अच्छी तरह समझ गए होंगे कि.... दोनों एक्सक्यूटिव के लिए परिस्थिति एक ही थी कि.... दक्षिण अफ्रीका के लोग जूते-चप्पल नहीं पहनते हैं.

लेकिन, उसी सेम परिस्थिति में भी एक को निराशा दिखी तो एक तो संभावना...!

ऐसा इसीलिए हुआ... क्योंकि, पहला एक्सक्यूटिव निराश प्रवृत्ति का था जबकि दूसरा सकारात्मक प्रवृत्ति का था.

अतः, हम कह सकते हैं कि... परिस्थितियां तो सबके लिए एक ही होती है..
लेकिन, ये व्यक्ति के सोचने और समझने एवं दूरदर्शिता पर निर्भर करता है कि वो वर्तमान परिस्थितियों से निराश होता है अथवा उसमें उत्साह का संचार होता है.

ठीक यही बात वर्तमान के मोदी सरकार के संबंध में लागू होती है.

यहाँ भी कुछ लोगों को.... मौलाना साद, वजीफा, अजमेर के चादर, सबका साथ-सबका विकास आदि दिखाई देते हैं...

जबकि, मेरे जैसे सकारात्मक लोगों को वर्षों से नासूर बने कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान, श्री राम जन्मभूमि का निर्माण, काशी कॉरिडोर, आतंकवाद का सफाया, पाकिस्तान को कंगाल कर देना, चीन और अमेरिका जैसे स्वघोषित दादाओं को कुत्ता सरीखा बनाकर रखना नजर आता है.

और, इन सबको देखने के बाद हमारे मन में भी दक्षिण अफ्रीका के उस दूसरे एक्सक्यूटिव की तरह उत्साह का संचार होता है कि.... मोदी सरकार में अपार संभावनाएं हैं..
क्योंकि, जिन्होंने महज सात-आठ साल में बिना किसी खून खराबे के इतना कुछ निपटा दिया..
वो, ही भविष्य में POK को भारत में मिला सकने की क्षमता रखता है तथा भारत को एक हिंदू राष्ट्र बना पाने में सक्षम है.

बाकी नकारात्मकता का क्या है...

नकारात्मकता का आलम तो ये है कि दुनिया को रावण जैसे दुर्दांत राक्षस से छुटकारा दिलवाने के बाद भी कुछ लोगों ने भगवान राम तक पर उंगली उठा दिया था.

इसीलिए, जिस तरह दुनिया में अंधेरा और उजाला दोनों होता है..
उसी तरह... दुनिया में नकारात्मकता और सकारात्मकता भी होती है.

अब पसंद आपकी है कि.... सकारात्मक सोच रखकर जीवन में उत्साह और उमंग रखते हैं...
अथवा, कुछेक नकारात्मक बात सोच सोच कर मन ही मन बेवजह का कुढ़ते रहते हैं.
जय महाकाल...!!! Kumar Satish जी का आलेख ..

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रविवार, 21 मई 2023

कहानी

 

कहानी
ना जाने क्यों रह रह कर यह पढ़ी हुई कहानी मेरे दिमाग में घूम रही है।

कहानी नहीं, असल घटना है, ज़िला सुल्तानपुर की।
एक पंडित जी और एक बाबू साहब (ठाकुर साहब) जिगरी दोस्त थे- दो जिस्म एक जान। बचपन से चालीसवें तक। फिर जाने क्या हुआ कि दुश्मनी हो गई।

अब पूरब गवाह है कि जिगरी दोस्त दुश्मन हों जाये तो दुश्मनी भी पनाह माँगने लगती है। सो वही हुआ। हर दूसरे दिन गोली चलना- लठैत छोड़िये ही, दोनों के कई बेटे तक दुश्मनी की आग का ईंधन बन गये, मगर दुश्मनी चलती रही।

ख़ैर, ये होते हवाते बाबू साहब की बेटी की शादी का वक़्त आ गया और पूरब इसका भी गवाह है कि दुश्मनी जितनी भी बड़ी हो- बहन बेटियों की शादी ब्याह की बात आये तो बंदूकें ख़ामोश हो जाती हैं। एकदम ख़ामोश। और किसी ने यह परंपरा तोड़ी तो वो ज़िंदगी और पूरब दोनों की नज़र से गिर जाता है।

सो उस गाँव में भी वक्ती सही, सुकून उतर आया था।
और फिर उतरी बारात। ठाकुरों की थी तो गोलियाँ दागती, आतिशबाज़ी करती, तवायफ़ के नाच के साथ। परंपरा थी तब की।

पंडित जी उस दिन अजब ख़ामोश थे।
और लीजिये- अचानक उनकी नाउन चहकती हुई घर में- (गाँव में सारे संपन्न परिवारों के अपने नाऊ ठाकुर होते थे और नाउन भी- अक्सर एक ही परिवार के हिस्से।)

पंडिताइन को चहकते हुए बताईं कि ए भौजी- बरतिया लौटत बा। कुल हेकड़ई ख़त्म बाबू साहब के।

पंडिताइन स्तब्ध और पंडित जी को तो काटो तो ख़ून नहीं। बहुत मरी आवाज़ में पूछा कि ‘भवा का’?

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नाउन ने बताया कि समधी अचानक कार माँग लिहिन- माने दाम। बाबू साहब के लगे ओतना पैसा रहा नाय तो बरात लौटे वाली है।
पंडित जी उठे- दहाड़ पड़े....निकालो जीप।
मतलब साफ- बाकी बचे बेटे, लठैत सब तैयार।

दस मिनट में पूरा अमला बाबू साहब के दरवाज़े पर-
कम से कम दर्जन भर दुनाली और पचासों लाठियों के साथ।
बाबू साहब को ख़बर लगी तो वो भागते हुए दुआर पे-
एतना गिरि गया पंडित। आजे के दिन मिला रहा।

पंडित जी ने बस इतना कहा कि दुश्मनी चलत रही, बहुत हिसाब बाकी है बकिल आज बिटिया के बियाह हा। गलतियो से बीच मा जिन अइहा।
बाबू साहब चुपचाप हट गये।

पंडित जी पहुँचे समधी के पास- पाँव छुए- बड़ी बात थी, पंडित लोग पाँव छूते नहीं, बोले कार दी- पीछे खड़े कारिंदे ने सूटकेस थमा दिया।
द्वारचार पूरा हुआ। शादी हुई।
अगले दिन शिष्टाचार/बड़हार।
(पुराने लोग जानते होंगे- मैं शायद उस अंतिम पीढ़ी का हूँ जो शिष्टाचार में शामिल रही है)

अगली सुबह विदाई के पहले अंतिम भोज में बारात खाने बैठी तो पंडित जी ने दूल्हा छोड़ सबकी थाली में 101-101 रुपये डलवा दिये- दक्षिणा के। ख़याल रहे, परंपरानुसार थाली के नीचे नहीं, थाली में। 

अब पूरी बारात सदमे में, क्योंकि थाली में पड़ा कुछ भी जो बच जाये वह जूठा हो गया और जूठा जेब में कैसे रखें।

समधी ने पंडित जी की तरफ़ देखा तो पंडित जी बड़ी शांति से बोले।
बिटिया है हमारी- देवी। पूजते हैं हम लोग। आप लोग बारात वापस ले जाने की बात करके अपमान कर दिये देवी का। इतना दंड तो बनता है। और समधी जी- पलकों पर रही है यहाँ- वहाँ ज़रा सा कष्ट हो गया तो दक्ष प्रजापति और बिटिया सती की कहानी सुने ही होंगे। आप समधी बिटिया की वजह से हैं। और हाँ दूल्हे को दामाद होने के नाते नहीं छोड़ दिये- इसलिये किये क्योंकि अपने समाज में उसका हक़ ही कहाँ होता है कोई!

ख़ैर बारात बिटिया, मने अपनी बहू लेकर गई-
पंडित जी वापस अपने घर। बाबू साहब हाथ जोड़े तो बोले बस- दम निकरि गय ठाकुर। ऊ बिटिया है, गोद मा खेलाये हन, तू दुश्मन। दुश्मनी चली।

ख़ैर- बावजूद इस बयान के फिर दोनों ख़ानदानों में कभी गोली नहीं चली। पंडित जी और बाबू साहब न सही- दोनों की पत्नियाँ गले मिल कर ख़ूब रोईं, बच्चों का फिर आना जाना शुरु हुआ।

क्या है कि असल हिंदुस्तानी और हिंदू बेटियों को लेकर बहुत भावुक होते हैं, उनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं। फिर चाहे बेटी दुश्मन की ही क्यों न हो।

जो नहीं करते वे और चाहे दुनिया में कुछ भी हों पर न हिंदू हो सकते हैं न हिंदुस्तानी।

शनिवार, 20 मई 2023

उर्मिला 24

 

उर्मिला 24

चारों भाई पुनः एक दूसरे से लिपट गए थे। देर तक बिलखते रहने के बाद राम शांत हुए और अनुजों को स्वयं से लिपटाये रख कर ही कहा, "तुम सब अनाथ कहाँ हुए भरत! तुम सब के लिए तो तुम्हारा बड़ा भाई राम है ही, अनाथ केवल मैं हुआ हूँ। दुखी मत होवो... नियति के आगे हम सब विवश हैं।"
     भरत ने बताया कि माताएं भी आई हैं, और जनकपुर से महाराज जनक का परिवार भी आया है। राम भाइयों को लेकर भीड़ के मध्य में घुसे और माता कैकई को देखते ही उनके चरणों मे अपना शीश रख दिया।
     राम समस्त कुल से मिले। माताओं से, मंत्रियों से, नगर जन से... ससुराल से आये राजा जनक और माता सुनयना से! सबसे मिल लेने के बाद मुड़े दूर खड़े निषादराज की ओर, और उन्हें कसकर गले लगा लिया। आँखों से अश्रु पोंछते निषाद ने कहा, "हमें तो लगा था कि हमारी ओर आपकी दृष्टि ही न फिरेगी प्रभु!"
     "तुम्हे तो सबसे पहले देखा था मित्र! जानता था कि भरत को राम तक पहुँचाने का काज तुम्ही ने किया होगा। घर से निकले राम ने अपनी डोर अयोध्या की सीमा पर खड़े निषादराज गुह के हाथों में ही तो सौंपी थी। पर मैं जानता था कि तुम्हारे पास सबके बाद आऊं तब भी तुम बुरा नहीं मानोगे मित्र! मित्रता इसी भरोसे का ही तो नाम है सखा!"
      "मैं तो बस आप सब का स्नेह देख कर तृप्त हो रहा था प्रभु! आज समझ में आया कि जिसके पास लक्ष्मण और भरत जैसे भइया हों, वही राम हो सकता है। आप सब धन्य हैं देवता..." निषादराज नतमस्तक थे।
       "और मैं धन्य हूँ कि मेरे पास तुम्हारे जैसा मित्र है। आओ मित्र, आगन्तुकों के लिए जल आदि की व्यवस्था करें। आज तो इस दरिद्र कुटीर में पूरी अयोध्या आ गयी है। अपने लोगों से कहो कि लक्ष्मण के साथियों का सहयोग करें। सबके लिए फल-जल का उद्योग करें।" राम ने याचना के स्वरों में कहा। मित्र धन्य हो गया, वह उछाह में दौड़ता हुआ अपने साथियों को ललकारने लगा।
     घण्टे भर बाद उस गहन वन में अयोध्या की सभा लगी। यह राजसभा नहीं थी, परिवार सभा थी। राजकुल के अतिरिक्त भी जो व्यक्ति आये थे, वे भी उस समय परिवारजन का भाव लिए हुए थे। राम सबके थे, राम पर सबका अधिकार था। इक्ष्वाकु वंश की अनन्त पीढ़ियों की तपस्या के फलस्वरूप अवतरित हुए भगवान विष्णु के सर्वश्रेष्ठ मानवीय स्वरूप "राम" की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि हर व्यक्ति उनपर अपना अधिकार समझता था। वे सबके थे, वे सबमें थे।
     यह संसार का एकमात्र विवाद था जिसमें दोनों पक्ष अपना अधिकार त्यागने के लिए लड़ रहे थे। भरत अडिग थे कि वे राम को वापस ले कर ही जायेंगे। राम अडिग थे कि वे पिता के वचन को भंग नहीं होने देंगे। जब राम बोलते तो प्रजा को लगता कि उन्ही की बात सही है, जब भरत बोलते तो लगता कि वही धर्म है। इस विवाद को देखने सुनने वाला हर व्यक्ति मुग्ध हो रहा था। हर व्यक्ति तृप्त हो रहा था, धन्य हो रहा था।
     अंत में राम ने कहा, "तुम्हारा ज्येष्ठ हूँ भरत! क्या बड़े भाई की याचना स्वीकार न करोगे? पिता की प्रतिष्ठा के लिए बनवास को निकले राम को उसकी यात्रा पूरी कर लेने दो अनुज! यह अब माता कैकई की नहीं, मेरी स्वयं की इच्छा है। मैं वचन देता हूँ कि चौदह वर्ष पूरे होते ही अयोध्या आ जाऊंगा।"
     भरत रुक गए। वे राम के मार्ग की बाधा नहीं बन सकते थे। हार कर कहा, "जो आज्ञा देव! पर इन चौदह वर्षों तक अयोध्या की गद्दी पर आपकी चरणपादुका विराजेगी। संसार देखेगा कि राम की पादुकाओं का शासन भी अन्य राजाओं के शासन से अधिक लोकहितकारी है। अयोध्या को रामराज्य के लिए अभी और प्रतीक्षा करनी है तो वही सही, पर आपकी पादुकाओं के शासन में भी प्रजा प्रसन्न रहेगी, यह वचन है मेरा।"
      राम क्या कहते! भरत को गले लगा लिया। बड़े भाई से लिपटे अयोध्या के संत ने कहा, "एक बात और स्मरण रहे भइया! चौदह वर्ष के बाद यदि आपके वापस लौटने में एक दिन की भी देर हुई, तो भरत आत्मदाह कर लेगा। स्मरण रहे, आपका भरत आत्मदाह कर लेगा..."
     राम बिलख पड़े। रोते हुए बोले, "ऐसा मत कह रे! प्रलय आ जाय तब भी तेरा ज्येष्ठ तेरे पास समय पर पहुँचेगा भरत!"
      भरत संतुष्ट हुए। समस्त जन ने मन ही मन कहा, "राम तो राम ही हैं, पर भरत सा होना भी असंभव है।"
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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सोमवार, 15 मई 2023

चिन्तन

 

चिन्तन की धारा

  अपने हिन्दू धर्म की मूल प्रकृति ये है कि वो अलग-अलग मत, वाद, संप्रदाय और पंथों को एक साथ एकात्मता के हिन्दू धागे में सहेज कर रखता है। किसी को उसकी मान्यता के लिए कभी बहिष्कृत नहीं करता, किसी से ये नहीं कहता कि तुम यही मानो या तुम ये नहीं मानो और न ही किसी को ये कहता है कि तुम जो मान रहे हो वो सही नहीं है।

हमारे यहाँ जब आप अतीत में जायेंगे तो कम से कम सोलह दर्शन प्रचलित रहें जिसमें वैदिक और अवैदिक दर्शन दोनों थे

मध्यकाल में अलग-अलग भक्ति-धाराएं जन्मी जिनमें कोई सगुण का उपासक था, कोई निर्गुण का, कोई राम और कृष्ण को अवतार मानते हुए उनकी बाल-लीलाओं पर न्योछावर होता था तो कोई कहता था कि ‘वो जिह्वा जल जाये जो ये कहती है कि ईश्वर अवतार लेता है।’ इसके बाद आर्य समाज जन्मा जो कहता था कि ईश्वर को मूर्ति और चित्र में तलाशना मूर्खता है तो लगभग उसी दौर में महान मूर्तिपूजक रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं का भी प्रचार-प्रसार हो रहा था। हिन्दू समाज ने इनमें से किसी में भी विभेद नहीं किया।

यह हमारा राष्ट्रीय भाव था जो नीचे आते -आते इस तरह हो गया कि एक हिन्दू परिवार में भी एक व्यक्ति आर्यसमाजी हो सकता है, दूसरा सनातनी मूर्तिपूजक हो सकता है, तीसरा सिख हो सकता है तो हो सकता है कि चौथा नास्तिक हो। ये भी हो सकता है कि घर में जो मूर्तिपूजक हैं उनमें एक शक्ति का उपासक है तो दूसरा शैव या वैष्णव है। इसीलिए गदर पार्टी के क्रांतिकारी लाला हरदयाल कहते थे- “यदि एक हिन्दू सनातन धर्म छोड़कर आर्य समाजी बन जाए या देव समाज छोड़कर राधास्वामी पंथ में सम्मिलित हो जाए या सिख संप्रदाय में चला जाए तो राष्ट्रीय-राज-मर्मज्ञ की दृष्टि से कोई हानि नहीं।"

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मैं हिन्दू हूँ तो वेदों को मानूँगा, पुराणों को मानूँगा पर कोई मुझसे ये नहीं कह सकता कि तुम त्रिपिटकों को या गुरुग्रंथ साहिब जी को छोड़ दो या उनको न मानो। इसी तरह जब हमारे यहाँ नए पंथ जन्में तो उनके प्रवर्तकों में से किसी ने भी ये नहीं कहा कि आगम, त्रिपिटक या आदिग्रंथ को स्वीकार करते हो तो रामायण और महाभारत को उठाकर फेंक दो। बंगाल में रामकृष्ण परमहंस को ठाकुर कहते हुए उनकी प्रतिमा का पूजन शुरू हुआ पर उनमें से किसी ने भी काली माँ की पूजा करनी बंद नहीं की। किसी सनातनी परिवार की बिटिया किसी बौद्ध, सिख या जैन के घर में गई तो किसी ने भी ये नहीं कहा कि उसका मतांतरण हुआ है। इसी तरह अगर कोई सिख लड़की या जैन लड़की हिन्दू परिवार में आती है तो कोई नहीं कहता कि उसने धर्म बदल लिया है। मैं हिन्दू हूँ और मंदिर में जाता हूँ पर अगर मुझे गुम्फा, गुरुद्वारे या जैन मंदिरों में भी जाना पड़ा तो भी कभी ये नहीं लगता कि ये पूजा और उपासना स्थल मेरे नहीं हैं।

मैं लगभग प्रतिदिन गुरुबाणी सुनता हूं तो उसे सुनते हुए कोई भी मेरे घर में नहीं कहता कि ये बाणी उसकी अपनी नहीं है और तुमको ये नहीं सुननी चाहिए।

इसका अर्थ ये है कि भारत भूमि के अंदर जन्मे विभिन्न मत-पंथ और संप्रदायों की मान्यताएं आपस में कितनी भी भिन्न क्यों न हो, उनके अंदर कुछ न कुछ तो सांझा अवश्य है जो सभी हिन्दू धर्म के सभी पंथों की धमनियों में समान रूप से प्रवाहित है। हमको ये पहचानना है कि ये योजक तत्व क्या है जो हिन्दू धर्म के अंदर के हरेक मत-मतान्तर में समान है और साँझा है।

सभी को एकात्मता के हिन्दू धागे में पिरोकर रखने वाला ये योजक तत्व है हम सबका ये विश्वास जो कहता है कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने ढ़ंग से ईश्वर के किसी भी रूप की उपासना कर सकता है अथवा अगर ईश्वर को नहीं मानना चाहे तो उसकी मर्जी।” हम यानि हिन्दू धर्म के अंदर के तमाम मत-पंथ तो इतने उदार हैं कि हमें किसी की भी महत्ता और अस्तित्व को स्वीकार करने में कभी कोई समस्या ही नहीं होती। हम तो ये मानते हैं कि हरेक पंथ का जन्म किसी न किसी विशेष परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप हुआ है और इसलिए वो अवांछित नहीं है। अगर किसी पंथ में कुछ अलग दिखता भी है तो उसका कारण केवल इतना है कि उस पंथ पर उन परिस्थितियों की छाप है जो उसके बनने के समय थी।

इसी सोच के चलते हिन्दू धर्म के अंदर का कोई भी मत-पंथ कट्टर नहीं हुआ। (अगर कोई हुआ भी तो उसे समग्र समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया)। उन्होंने ये जरूर कहा होगा कि उनका रास्ता अच्छा है पर ये कभी नहीं कहा कि वो और केवल उसका रास्ता ही सही और श्रेष्ठ है और ईश्वर की अनुभूति और साक्षात्कार केवल उनके रास्ते चलकर ही हो सकता है।

लाला हरदयाल ने कहा था- “हिन्दू धर्म में बहुत से पंथ और संप्रदाय हैं और उनके अलग-अलग प्रकार हैं। कोई अद्वैत को मानता है, कोई द्वैत को ही स्तुत्य समझता है। कोई आत्मा को सर्वव्यापी मानता है तो कोई इसका विरोधी है। परंतु हमारे राष्ट्र में सदियों से पूरी धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता रही है। इसी कारण इतने विभिन्न धार्मिक विचार प्रचलित हैं। मानव मस्तिष्क को किसी सिद्धांत के पिंजरे में कानून की सहायता से बंद नहीं किया जा सकता। जिन राष्ट्रों ने धार्मिक सहिष्णुता का उच्च सिद्धांत नहीं सीखा है, वे जरा-जरा से मतभेद के कारण सदाचारी और नेक आदमियों को जीवित जला देते हैं या पत्थरों से मार डालते हैं परन्तु हमारी हिन्दू सभ्यता ऐसे पापों से मुक्त रही है।”

हिंदू भारत की एकसूत्रता, एकबद्धता, एकात्मता और आपसी स्नेह के मूल में यही योजक साँझा तत्व है; जिसने अलग-अलग मत-पंथों यहाँ तक कि नास्तिक विचार वाले को भी सदियों से आपस में हिन्दू धर्म के अंदर जोड़ रखा है।

गर्व करिए इस पर  ।।
(अभिजीत सिंह जी की  पुस्तक  - इनसाइड_द_हिंदू_मॉल का एक अंश)

रविवार, 14 मई 2023

पांव के निशान

 

कहानी

    कुछ दिन पहले एक परिचित के घर गया था। जिस वक्त घर में मैं बैठा था, उनकी मेड घर की सफाई कर रही थी। मैं ड्राइंग रूम में बैठा था, मेरे परिचित फोन पर किसी से बात कर रहे थे। उनकी पत्नी चाय बना रही थीं। मेरी नज़र सामने वाले कमरे तक गई, जहां मेड  फर्श पर पोछा लगा रही थी।

अचानक मेरे कानों में आवाज़ आई।

“बुढ़िया अभी ज़मीन पर पोछा लगा है, नीचे पांव मत उतारना। मैं बार-बार यही नहीं करती रहूंगी।”

मैंने अपने परिचित से पूछा, “मां कमरे में हैं क्या?

“हां।”

“जब तक चाय बन रही है, मैं मां से मिल लेता हूं।”

“हां, हां। लेकिन रुकिए, अभी-अभी शायद पोछा लगा है, सूख जाए फिर जाइएगा।”

"क्यों? गीला है तो मेड दुबारा लगाएगी। नहीं लगाएगी तो थोड़े निशान रह जाएंगे फर्श पर। क्या फर्क पड़ेगा?"

परिचित थोड़ा हैरान हुए । भैया ऐसा क्यों कह रहे हैं?

तब तक मैं कमरे में चला गया था। गीले पर्श पर पांव के खूब निशान उकेरता हुआ।

मैं मां के पास गया। मैंने उनके पांव छुए और फिर उनसे कहा कि चलिए आप भी ड्राइंग रूम में, वहां साथ बैठ कर चाय पीते हैं। चाय बन रही है। भाभी रसोई में चाय बना रही हैं।

मैंने इतना ही कहा था। मां एकदम घबरा गईं।

“अरे नहीं , अभी फर्श पर पांव नहीं रखना है। फर्श गीला है न, मेरे पांव के निशान पड़ जाएंगे।”

“पांव के निशान पड़ जाएंगे? वाह! फिर तो मैं उनकी तस्वीर उतार कर बड़ा करवा कर फ्रेम में लगाऊंगा। आप चलिए तो सही।”

पर मां बिस्तर से नीचे नहीं उतर रही थीं। उन्होंने कहा कि तुम चाय पी लो बेटा।

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तब तक मेरे परिचित भी मां के कमरे तक आ गए थे।

उन्होंने मुझसे कहा कि मां सुबह चाय पी चुकी है। आप आइए भैया ।

"नहीं। मां के साथ मैं यहीं कमरे में चाय लूंगा।"

चमकते हुए टाइल्स पर मेरे जूते के निशान बयां कर रहे थे कि मैंने जानबूझ कर कुछ निशान छोड़े हैं। वो समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर मैंने ऐसा किया ही क्यों?

उन्होंने मुझसे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन मेड को उन्होंने आवाज़ दी। "बबिता, जरा इधर आना। इधर भैया के पांव के निशान पड़ गए हैं, उन्हें साफ कर देना।"

बबीता ने गीला पोछा फर्श पर लगाया। जैसे ही फर्श की दुबारा सफाई हुई मैं फिर खड़ा होकर उस पर चल पड़ा। दुबारा निशान पड़ गए।

अब बबिता हैरान थी। मेरे परिचित भी। तब तक उनकी पत्नी भी कमरे में आ चुकी थीं।

उन्होंने कहा, " भैया, आइए चाय रखी है।"

मैंने परिचित की पत्नी से कहा कि ‘बुढ़िया’ के लिए चाय यहीं दे दीजिए।

मेरे परिचित ने मेरी ओर देखा।

मैंने कहा कि हैरान मत होइए।

वो चुप थे।

मैंने कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि आप लोग मां को प्यार से बुढ़िया बुलाते हैं।

मेड वहीं खड़ी थी। सन्न। परिचित की पत्नी वहीं खड़ी थी, सन्न।

परिचित ने पूछा, "क्या हुआ भैया ?"

हुआ कुछ नहीं। मैंने खुद सुना है कि आपकी बबिता आपकी मां को बुढ़िया कह कर बुला रही थी। उसने मां को बिस्तर से उतरने से धमकाया भी था। यकीनन काम वाली ने मां को बुढ़िया पहली बार नहीं कहा होगा। बल्कि वो कह भी नहीं सकती उन्हें बुढ़िया। उसने सुना होगा। बेटे के मुंह से। बहू के मुंह से। बिना सुने वो नहीं कह सकती थी।

जाहिर है आप लोग प्यार से मां को इसी नाम से बुलाते होगे, तभी तो उनसे कहा।

पल भर के लिए धरती हिलने लगी थी। गीले फर्श पर हज़ारों निशान उभर आए थे।

मेरे परिचित के छोटे-छोटे पांव के निशान वहां उभरे हुए हैं। बच्चा भाग रहा है। मां खेल रही है बच्चे के साथ-साथ। एक निशान, दो निशान, निशान ही निशान। मां खुश रही है। बेटे के पांव देख कर कह रही है, देखो तो इसके पांव के निशान। बेटा इधर से उधर दौड़ रहा था। दौड़ता जा रहा था, पूरे घर में।

बुढ़िया रो रही थी। बहू की आंखें झुकी हुई थीं। बबिता चुप थी।

“भैया, गलती हो गई। अब नहीं होगा ऐसा। भैया बहुत बड़ी भूल थी मेरी।”

मेरे परिचित अपनी आंखें पोंछ रहे थे।

मैं चल पड़ा । सिर्फ इतना कह कर कि आखें ही पोंछनी चाहिए। उस फर्श को तो चूम लेना चाहिए जहां मां के पांव के निशान पड़े हों।
साभार

शनिवार, 13 मई 2023

उर्मिला 23

 

उर्मिला 23

भरत ने जब राम को देखा तो उन्हें लगा, जैसे सबकुछ पा लिया हो। वे दौड़ते हुए आगे बढ़े और भइया भइया चिल्लाते हुए बड़े भाई के चरणों में गिर गए।
     संसार में भाई से अधिक प्यारा कोई नाता नहीं होता। इस एक नाते में जाने कितने नाते समाए होते हैं। साथ खेलने का नाता, साथ पढ़ने लिखने का नाता, एक ही थाली में खाने का नाता, एक ही बिछावन पर सोने का नाता...
      बचपन के झगड़ो में भले एक दूसरे से रूठे गुस्साते हों, पर एक के रोने पर दूसरा भाई झटपट पिता की तरह मनाने और चुप कराने लग जाता है। एक नाता बार बार आंसू पोछने का भी होता है। एक दूसरे के कंधे पर चढ़ कर खेलने का नाता, तो एक दूसरे के कंधे पर सर रख कर रोने का नाता...
      किसी विशेष कारण से एक दूसरे के प्रति मन में मैल बैठ भी गया हो, पर भाई को उदास देख कर दूसरे के हृदय का बांध टूट जाता है। भरत के चेहरे पर पसरी इसी उदासी ने क्षण भर में ही लक्ष्मण जैसे कठोर योद्धा को पिघला दिया था और उनके हाथ से लकड़ी गिर पड़ी थी। अब वही उदास मुख लेकर भरत राम के सामने थे।
      राम! करुणा के सागर राम! तीन छोटे भाइयों का बड़ा भाई होने का भाव जिसे बचपन से ही अत्यंत संवेदनशील बना गया था, वे कोमल हृदय के स्वामी राम! पत्थर बनी अनजान स्त्री की पीड़ा से द्रवित को कर उसे मुक्ति दिलाने वाले राम जब अनुज भरत का अश्रुओं से भरा मुख देखे तो बिलख पड़े। चरणों में पड़े भाई को उठा कर हृदय से लगाया और चीख कर रो पड़े...
     जो जगत के पालनहार थे, स्वयं लीलाधर थे, सृष्टि की हर लीला के सर्जक थे, वे अपने राज्य की आम प्रजा के सामने बच्चों की तरह बिलख कर रो रहे थे। रोते रोते रुकते, भरत से कुछ समाचार पूछने के लिए उनके मुख की ओर देखते, पर उनका मुख देख कर पुनः फफक कर रो पड़ते।
     कुछ समय तक दूर खड़े लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों बड़े भाइयों को लिपट कर रोते देखते रहे, फिर अनायास ही आगे बढ़ कर वे दोनों भी लिपट गए...
      चार भाइयों को यूँ प्रेम से लिपट कर रोते देख कौन न रो पड़ता? उस गहन वन में एकत्र हुए अयोध्या के नगर जन की आंखे बहने लगीं। कौसल्या के साथ खड़ी कैकई का मन एकाएक हल्का हो गया, वह लपक कर कैकई से लिपट गयीं। कौसल्या कुछ न बोलीं, चुपचाप कैकई में माथे पर स्नेह से भरा हाथ फेरती रहीं।
      जिस कुल के भाइयों में स्नेह हो, उनके समस्त पितर यूँ ही तृप्त हो जाते हैं। स्वर्ग में बैठे इक्ष्वाकु वंश के समस्त पितर आनन्दित हो अपने बच्चों पर आशीष की वर्षा करने लगे थे। उसी क्षण सिसकते राम ने पूछा- कैसा है रे? इतना उदास क्यों है भरत?
      भरत ने सिसकते हुए ही उत्तर दिया- आपने हमें त्याग दिया भइया! अब जीवन में खुश होने का कोई कारण बचा है क्या?
      "छी!" राम ने डपट कर कहा, "कैसी बात करते हो भरत? भाइयों को त्यागना पड़े तो राम उसी के साथ संसार को त्याग देगा। मैं तो बस कुछ दिनों के लिए तुम सब से दूर आया हूँ अनुज! शायद नियति परीक्षा ले रही है कि राम अपने भाइयों से अलग हो कर भी जी रहा है या नहीं! वह तो लखन है मेरे साथ, नहीं तो इस परीक्षा में हम हार ही जाते।"
      भरत फिर लिपट गए। वे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। राम ने उन्हें गले लगाए हुए ही कहा, "अयोध्या में सबकुछ ठीक तो है भरत? सारी प्रजा को साथ लाने का क्या प्रयोजन है भाई?"
      "अयोध्या में कुछ भी ठीक नहीं है भइया! पिताश्री...." भरत फफक पड़े। राम ने घबड़ा कर पूछा- क्या हुआ पिताश्री को? भरत? बोल भाई, क्या हुआ पिताश्री को?"
     भरत ने लिपटे लिपटे ही कहा, "आपके वियोग में पिताश्री ने प्राण त्याग दिया भइया। हम सब अनाथ हो गए..."
      राम पुनः चीख पड़े। चारों भाई पुनः एक दूसरे से लिपट गए थे। देर तक बिलखते रहने के बाद राम शांत हुए और अनुजों को स्वयं से लिपटाये रख कर ही कहा, "तुम सब अनाथ कहाँ हुए भरत! तुम सब के लिए तो तुम्हारा बड़ा भाई राम है ही, अनाथ केवल मैं हुआ हूँ। दुखी मत होवो... नियति के आगे हम सब विवश हैं।"
     भरत ने बताया कि माताएं भी आई हैं, और जनकपुर से महाराज जनक का परिवार भी आया है। राम भाइयों को लेकर भीड़ के मध्य में घुसे और माता कैकई को देखते ही उनके चरणों मे अपना शीश रख दिया।
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क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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बुधवार, 10 मई 2023

क्या और कितना खाएं

स्वास्थ्य की चर्चा


नितिन त्रिपाठी जी ने लिखा है - एक मित्र को डिनर पर ले गया. ऑर्डर मुझे देना था. आरंभ में चाइनीज़ और इंडियन स्टार्टर ऑर्डर किए. मेरा तो ख़ैर इतने में ही पेट भर गया पर होस्ट हूँ. पूँछा और क्या ऑर्डर करे? जो आपको ठीक लगे. पास्ता ऑर्डर किया. फिर शक्ल देख लगा अभी वह संतुष्ट नहीं. चाऊ मीन आदि किया. अभी भी संतुष्ट न लगे. पिज़्ज़ा ऑर्डर किया. तब तक उनका कैलोरी इंटेक चार हज़ार कैलोरी हो चुका था. मैंने पूँछा और कुछ? उत्तर था जब तक दाल रोटी चावल न हो तब तक खाना कम्पलीट कहाँ होता है. दाल मखानी, पनीर कड़ाही, बटर नान के साथ छः हज़ार कैलोरी मील. मित्र परेशान भी रहते हैं कि खाता दाल रोटी हूँ वजन सौ क्रॉस कर चुका है.

यह दाल चावल रोटी की लस्ट एक बड़ा रीजन है अन्हेल्थी होने की. वैसे है  यह अच्छा संपूर्ण मील है, पर जब यह इस लेवल पर हो जाये कि 365 दिन तीन समय यही चाहिए तो यह भोजन नहीं लस्ट हो जाती है. सभी धर्मों में और हिन्दू धर्म में ख़ास कर लिखा है व्यक्ति को इंद्रियों का ग़ुलाम नहीं होना चाहिए। - विशेष कर जननेंद्रिय और जिह्वा. यदि आपको भोजन में रोटी चाहिये ही चाहिये तो यह ख़तरे का सिग्नल है - आप इंद्रिय के ग़ुलाम हो चुके हैं.

यही बात मॉडर्न डायटीशियन भी समझाते हैं. डिफरेंट ग्रेन्स ट्राय करिए एक का ग़ुलाम न बनिये. भोजन में वैरायटी रखिए. सप्ताह में कभी केवल फल ही खा लिए. कभी सलाद. सामान्य भोजन में भी एक समय में एक ग्रेन हो. रोटी हो तो चावल नहीं, चावल हो तो रोटी नहीं. रोटी चावल से पूर्व सलाद खाइये, सब्ज़ी खाइये. नहीं मन है रोटी चावल नहीं ही खाइए. और अगर इस लेवल पर है कि बग़ैर रोटी चावल खाये आपको लगता है कि मील  कम्पलीट नहीं तो डाइट ऐंगल ही नहीं ऐसे भी यह उचित नहीं कि आपको रोटी का नशा है.

एक बार आप इस नशे को त्याग देंगे दुनिया में इतने फ़्लेवर्स हैं, टेस्ट भी आएगा, हेल्थ भी अच्छी होगी.

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सोमवार, 8 मई 2023

सहज संस्कार

 

चिन्तन की धारा
   आप किसी भी अंग्रेजी फिल्म में देखेंगे, या किसी अंग्रेज या यूरोपियन के परिवार में देखने का अवसर मिलेगा तो ये अपने परिवार के दिवंगत व्यक्ति के पार्थिव अवशेषों को भी उसके नाम से बुलाते हैं. किसी मृत व्यक्ति के शरीर को, उसकी कब्र को या उसके दाह कर्म के बाद उसकी राख को भी वे उस व्यक्ति के नाम से ही बुलाते हैं. उनके लिए शरीर ही व्यक्ति है.

    वहीं एक हिन्दू व्यक्ति मृत्यु के ठीक बाद भी मृतक के शरीर को "बॉडी" कहता है.... बॉडी आ गई, बॉडी हॉस्पिटल में है... व्यक्ति जा चुका है. अब जो है वह सिर्फ बॉडी है. यानि हम अनायास ही यह समझते हैं कि व्यक्ति जो था वह शरीर नहीं था, आत्मा थी.

और ऐसा कहने वाला व्यक्ति कोई शास्त्रों का ज्ञाता हो, उसको तत्वज्ञान हो गया हो यह आवश्यक नहीं है. अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति भी सहज ही यही व्यवहार करता है. यह एक ऐसा ज्ञान है जो सबको संस्कारवश मिल ही जाता है, भगवद्गीता नहीं पढ़नी पड़ती.

    ज्ञान सिर्फ वही नहीं है जो पुस्तकों में हो. ज्ञान का अधिकांश, और सबसे महत्वपूर्ण और सबसे प्रासंगिक अंश वह है जो हमारी चेतना में संस्कारों के माध्यम से अनायास ही पहुंच जाता है. और सबसे प्रभावी ज्ञान वही है जो हमारे जीवन में, हमारे व्यवहार में वास करता है. जो जीवन में नहीं पहुंचा, सिर्फ पुस्तकों में रह गया वह ज्ञान मुक्त नहीं करता, आत्मा पर अहंकार का बोझ भर लादता है.

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रविवार, 7 मई 2023

भक्ति

 

कहानी
" केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?

एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए। आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की - कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।
पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा - बेटा कहाँ से आये हो ? उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।
बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला - कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा - तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा - नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।
उन्होंने कहा - लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था - लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। आपकी भक्ति को प्रणाम।
हर हर महादेव...
!! महादेव महादेव !!

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शनिवार, 6 मई 2023

उर्मिला 22

 

उर्मिला 22

     भरत की दृष्टि जैसे ही लक्ष्मण पर पड़ी, उन्हें लगा जैसे उन्होंने जग जीत लिया हो। लक्ष्मण मिल गए, तो अब राम भी मिल ही जायेंगे। भक्तिमार्ग का अकाट्य सत्य है कि भगवान से पहले उनके भक्त मिलते हैं। और यदि भक्त मिल जाय तो भगवान भी मिल ही जाते हैं।
     भरत के साथ चल रही भीड़ रुक गयी थी। भरत बिना कुछ बोले ही आगे बढ़ने लगे। लक्ष्मण ने दुबारा उन्हें सावधान करना चाहा, पर उनके मुख से बोल नहीं फूटे। भरत के चेहरे पर उनकी पीड़ा सहजता से पढ़ी जा रही थी। निश्छल व्यक्ति को अपने ह्रदय के भाव दिखाने नहीं पड़ते, उसका हृदय दूर से ही देख और पढ़ लिया जाता है।
     लक्ष्मण अपने हाथ मे लकड़ी उठाये भरत को आगे बढ़ते देख रहे थे। भरत तनिक निकट आये तो अनायास ही लक्ष्मण के हाथ से लकड़ी छूट गयी। भरत आगे बढ़ते रहे। लक्ष्मण के मुख पर पसरी कठोरता गायब होने लगी थी, और उनकी आंखों से यूँ ही जल बहने लगा था। भरत के तनिक और निकट आते ही उनके अंदर का बांध टूट गया और वे बड़े भाई के चरणों में झुक गए। व्यक्ति के संस्कार उसके आवेश पर सदैव भारी पड़ते हैं।
      भरत ने झपट कर उन्हें उठाया और उनसे लिपट कर रो उठे। रोते रोते ही कहा, "तुम्हे भी मुझपर संदेह हो गया न लखन! फिर तू ही बता, क्या करूँ ऐसे जीवन को लेकर कि जिसमें मेरा अनुज भी मुझपर भरोसा नहीं रख पाता! मुझे न अयोध्या चाहिये, न यह देह! भइया को वापस अवध ले चल मेरे भाई और मुझ अधम को मुक्ति दिला! अब बस यह पापी देह छूट जाय..."
     लक्ष्मण की पकड़ मजबूत हो गयी। उन्होंने भरत को अपनी भुजाओं में जकड़ लिया और फूट फूट कर रोने लगे। लक्ष्मण जैसे कठोर योद्धा को यूँ तड़प कर रोते किसी ने नहीं देखा था। पर प्रेम की शक्ति थी जिसने पत्थर को पिघला दिया था।
     अयोध्या की प्रजा के बीच खड़ी उर्मिला चुपचाप देखे जा रही थी पति को! जितने अश्रु लखन की आंखों से बह रहे थे, उतने ही उर्मिला की आंखों से भी बह रहे थे। परिवार की खातिर जिस पति को चौदह वर्षों के लिए भूल जाने का प्रण लिया था, अब उसे तड़पते देख कर प्रण तोड़ देने का मन हो रहा था। पर वह उर्मिला थी, उसे स्वयं को साधना आता था। वे अपनी सारी पीड़ा को हृदय में दबाए चुपचाप देखती रहीं।
     देर तक भरत से लिपट कर रोते रहने के बाद लक्ष्मण अलग हुए और भाई का हाथ पकड़ कर चुपचाप अपनी कुटिया की ओर चल पड़े। लक्ष्मण के पीछे उनके वनवासी शिष्य थे और उनके पीछे समूची अयोध्या...
      कुटिया बहुत दूर नहीं थी। लक्ष्मण-भरत जैसे दौड़ते हुए चल रहे थे। कुछ ही समय में वे कुटिया के सामने थे। लक्ष्मण की प्रतीक्षा में भूमि पर चुपचाप बैठे राम की दृष्टि जब भरत और लक्ष्मण पर पड़ी तो वे विह्वल हो गए। हड़बड़ा कर उठे और मुस्कुराते हुए भरत की ओर दौड़ पड़े।
       भरत ने जब राम को देखा तो उन्हें लगा, जैसे सबकुछ पा लिया हो। वे दौड़ते हुए आगे बढ़े और भइया भइया चिल्लाते हुए बड़े भाई के चरणों में गिर गए।
       ~~~~
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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