शनिवार, 30 दिसंबर 2023

उर्मिला 33

 

उर्मिला 33

माता के प्रश्न अभी समाप्त नहीं हुए थे। उन्होंने फिर कहा, "चलो मान लिया कि राम का वनवास जगतकल्याण के लिए हुआ है। यह भी मान लेती हूँ कि इस कार्य के लिए मेरा चुनाव नियति ने इसी कारण किया कि राम को सर्वाधिक प्रेम मैंने ही किया है। पर यह तो संसार के कल्याण की बात हुई न बेटी? मेरा क्या? तनिक मेरे लिए तो सोचो... मुझे मेरे पति ने त्याग दिया, मेरे पुत्र ने त्याग दिया। युग युगांतर के लिए मैं सबसे बड़ी अपराधिनी सिद्ध हो गयी। राम और भरत जैसे पुत्रों की माता होने बाद भी मैं ऐसी कलंकिनी हो गयी कि अब भविष्य में शायद ही कोई अपनी पुत्री का नाम कैकई रखे। यह मेरे किस अपराध का दण्ड है पुत्री?
    उर्मिला कुछ क्षण मौन रहीं। माता का प्रश्न ऐसा नहीं था कि उसे सांत्वना दिलाने के प्रयास के साथ दबा दिया जाता। उनका प्रश्न, उनकी पीड़ा से उपजा था। एक निर्दोष स्त्री के अनायास ही युग युगांतर के लिए दोषी सिद्ध हो जाने की पीड़ा...
     कुछ क्षण बाद एक उदास मुस्कुराहट के साथ उर्मिला ने उत्तर दिया। हम युगनिर्माता के परिवारजन हैं माता! महानायक राम के अपने हैं हम। इसका कुछ तो मूल्य चुकाना होगा न? तनिक देखिये तो, कौन नहीं चुका रहा है मूल्य? पिता को प्राण देना पड़ा। एक वधु वन को गयी तो अन्य तीन वधुओं के हिस्से भी चौदह वर्ष का वियोग ही आया। भइया के साथ साथ उनके तीनों अनुज भी सन्यासी जीवन जी रहे हैं। तीनों माताओं को पुत्र वियोग भोगना पड़ रहा है। दुख तो सबके हिस्से में आये हैं माता! हाँ यह अवश्य है कि आपके हिस्से में तनिक अधिक आये। तो अब क्या ही किया जा सकता है? नियति की योजनाओं को चुपचाप स्वीकार करना पड़ता है, हम इससे अधिक तो कुछ नहीं ही कर सकते न!
      कैकई चुपचाप निहारती रह गईं उनकी ओर! उर्मिला सत्य ही तो कह रही थीं। देर तक शान्ति पसरी रही। यह शान्ति पुनः उर्मिला ने ही भंग की। कहा, "इस अपराधबोध से बाहर निकलिये माता! न आपका कोई दोष है, न मंथरा का। हम सब भइया की महायात्रा के संगी हैं और अपने अपने हिस्से का कार्य कर रहे हैं। इसमें न कोई अच्छा है न बुरा। सब समान ही है।"
      "तो क्या मुझे कभी क्षमा न मिलेगी?" सबकुछ समझने के बाद भी स्वयं से बार बार पराजित हो जाने वाली कैकई के प्रश्न कम नहीं हो रहे थे।
      "कैसी क्षमा माता? जिसके प्रति अपराधबोध भरा है आपमें, वे तो आप से जरा भी नाराज नहीं होंगे। उन्हें यूँ ही तो समूची अयोध्या इतना प्रेम नहीं करती न! वे एक क्षण के लिए भी अपनी माता से नाराज नहीं हो सकते। जब वे लौट कर आएंगे तब देखियेगा, वे सबसे पहले अपनी छोटी माँ के चरणों में ही गिरेंगे। और रही बात संसार की, तो वैसे मर्यादित और साधु पुरुषों की माता को संसार से किसी क्षमा की आवश्यकता नहीं। आपके पुत्रों के स्मरण मात्र से संसार के पाप धुलेंगे माता! यह इस संसार पर आपका उपकार है। संसार आपको क्या ही क्षमा करेगा, उसे तो युग युगांतर तक आपके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिये।"
     कैकई के मुख पर जाने कितने दिनों बाद एक सहज मुस्कान तैर उठी। उन्होंने उर्मिला को भींच कर गले लगा लिया। पर पलभर में ही वह मुस्कान रुदन में बदल गयी। पुत्रवधु के गले से लिपटी कैकई देर तक रोती रहीं। उर्मिला चुपचाप उनकी पीठ सहला रही थीं।
     बहुत देर बाद जब वे अलग हुईं तो देखा, माता कौशल्या और सुमित्रा का साथ उनके कंधे पर था, और मांडवी और श्रुतिकीर्ति भी उनके पास खड़ी थीं। राम परिवार की देवियों ने जैसे कैकई को अपराधी मानने से इनकार कर दिया था।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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सोमवार, 25 दिसंबर 2023

चिन्तन

 चिन्तन की धारा ...


Washington DC  एक मेट्रो स्टेशन पर........2007 में जनवरी की एक ठंडी सुबह .........

एक व्यक्ति ने Violin पे लगभग 45 मिनट तक Bach की 6 रचनाएं बजाईं। 

उस दौरान, लगभग 2000 लोग उस स्टेशन से गुज़रे, जिनमें से अधिकांश काम पर जा रहे थे।


लगभग चार मिनट के बाद, एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने देखा कि वहाँ एक संगीतकार Violin बजा रहा है । उसने अपनी गति धीमी कर दी और कुछ सेकंड के लिए रुक गया, और फिर वह अपने काम को पूरा करने के लिए जल्दी से आगे बढ़ गया।


लगभग चार मिनट बाद, वायलिन वादक को अपना पहला डॉलर प्राप्त हुआ। एक महिला ने टोपी में पैसे फेंके और बिना रुके चलती रही।

छह मिनट बाद एक युवक वो संगीत सुनने के लिए रुका, दीवार के सहारे झुक के कुछ देर सुना , फिर अपनी घड़ी की ओर देखा और फिर चला गया ।


दस मिनट पर, एक तीन साल का लड़का रुका, लेकिन उसकी माँ ने उसे जल्दी से खींच लिया। बच्चा फिर से वायलिन वादक को देखने के लिए रुका, लेकिन माँ ने जोर से धक्का दिया और बच्चा पूरे समय अपना सिर घुमाता हुआ चलता रहा। 

यह क्रिया कई अन्य बच्चों द्वारा दोहराई गई, लेकिन प्रत्येक माता-पिता ने - बिना किसी अपवाद के - अपने बच्चों को जल्दी से आगे बढ़ने के लिए मजबूर किया।


पैंतालीस मिनट तक संगीतकार लगातार बजाता रहा। केवल छह लोगों ने थोड़ी देर रुककर सुना। लगभग बीस लोगों ने पैसे दिये लेकिन अपनी सामान्य गति से चलते रहे। 

उस आदमी ने कुल $32 एकत्र किये।


एक घंटे के बाद:

उसने बजाना बंद कर दिया और सन्नाटा छा गया। 

किसी ने ध्यान नहीं दिया और किसी ने सराहना नहीं की. 

Violin वादक की पहचान ही नहीं हुई.

कोई नहीं जानता था कि वह महान वायलिन वादक  Joshua Bell थे, जो दुनिया के महानतम संगीतकारों में से एक थे। 

उन्होंने 3.5 मिलियन डॉलर मूल्य के वायलिन पे अब तक लिखे गए सबसे जटिल बंदिश में से एक बजाई थी।

दो दिन पहले इन्ही जोशुआ बेल ने बोस्टन में श्रोताओं से भरे एक थिएटर में, जहां बैठने और उसी संगीत को सुनने के लिए प्रत्येक सीट की कीमत औसतन $100 थी , यही संगीत बजाया था।


यह एक सच्ची कहानी है। 

Joshua Bell DC मेट्रो स्टेशन में गुप्त रूप से Violin बजा रहे थे। Washington Post द्वारा प्रायोजित यह कार्यक्रम लोगों की जीवन की प्राथमिकताओं के बारे में एक सामाजिक प्रयोग के हिस्से के रूप में आयोजित किया गया था।


इस प्रयोग ने कई प्रश्न खड़े किये:

किसी सामान्य स्थान पे , सामान्य वातावरण में, किसी अनुचित समय पर, क्या हम अपने इर्द गिर्द उपस्थित सौंदर्य का अनुभव कर पाते हैं?


यदि हम उस सौंदर्य को पहचान भी लें तो क्या हम इसकी सराहना करने उसे enjoy करने के लिए पल भर ठहरते हैं?


क्या हम किसी अप्रत्याशित संदर्भ में प्रतिभा को पहचानते हैं?


इस प्रयोग से प्राप्त एक संभावित निष्कर्ष यह हो सकता है:

अगर हमारे पास रुकने और दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संगीतकारों में से एक को सुनने के लिए एक पल का भी समय नहीं है, जो अब तक रचित सबसे बेहतरीन संगीतों में से एक को सुना रहा है, आज तक की सबसे खूबसूरत और महंगी Violin पे?


जीवन की भागदौड़ में हम और कितनी चीज़ें खो रहे हैं?


एक पल ठहर के सोचिए ज़रा।


मूलतः अंग्रेजी में लिखी अज्ञात पोस्ट का हिंदी अनुवाद

रविवार, 24 दिसंबर 2023

कहानी टीचर बनने की

 कहानी

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सर .....मुझे पहचाना.....

कौन....

सर..... मैं आपका स्टूडेंट.. 40 साल पहले का.....


ओह.... अच्छा, आजकल ठीक से दिखता नही बेटा 

और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है...

इसलिए नही पहचान पाया। 


खैर... आओ, बैठो.. क्या करते हो आजकल......

उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते 

हुए पूछा...

.

सर....मैं भी आपकी ही तरह टीचर बन गया हूँ....

.

वाह.....यह तो अच्छी बात है लेकिन टीचर की तनख़ाह तो बहुत कम होती है फिर तुम कैसे…...

.

सर.... जब मैं सातवीं क्लास में था तब हमारी कलास में एक वाक़िआ हुआ था.. उस से आपने मुझे बचाया था। मैंने तभी टीचर बनने का इरादा कर लिया था। 

.

वो वाक़िआ मैं आपको याद दिलाता हूँ.. 

आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।

.

अच्छा ....

क्या हुआ था तब .....

.

सर, सातवीं में हमारी क्लास में एक बहुत अमीर 

लड़का पढ़ता था। 

जबकि हम बाक़ी सब बहुत ग़रीब थे। 

.

एक दिन वोह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था 

और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी। 

कुछ याद आया सर.....

.

सातवीं कक्षा.....

.

हाँ सर, उस दिन मेरा दिल उस घड़ी पर आ गया था 

और खेल के पीरियड में जब उसने वह घड़ी अपने 

पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौक़ा देखकर 

वह घड़ी चुरा ली थी।

.

उसके बाद आपका पीरियड था...

.

उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की 

शिकायत की। 

.

आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है 

उसे वापस कर दो। मैं उसे सज़ा नहीं दूँगा। 

.

लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई 

घड़ी वापस करने की।

.

फिर आपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और 

हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े 

होने को कहा... 

.

और यह भी कहा कि आप सबकी जेब देखेंगे... 

.

लेकिन जब तक घड़ी मिल नहीं जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नहीं खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा।

.

हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए। 

.

आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे। 

जब आप मेरे पास आये तो 

मेरी धड़कन तेज होने लगी। 

.

मेरी चोरी पकड़ी जानी थी। 

अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का 

ठप्पा लगने वाला था। 

.

मैं पछतावे से भर उठा था। 

उसी वक्त जान देने का इरादा कर लिया था लेकिन….

.

लेकिन मेरी जेब में घड़ी मिलने के बाद भी 

आप लाइन के आख़िर तक सबकी जेब देखते रहे। 

.

और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा...

.

अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नहीं आना 

और जिसने भी यह चोरी की थी वह 

दोबारा ऐसा काम न करे। 

.

इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे... कहते कहते उसकी आँख भर आई।

.

वह रुंधे गले से बोला, 

आपने मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया। आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना 

जाहिर न होने दिया। 

.

आपने कभी मेरे साथ फ़र्क़ नहीं किया। 

उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं 

आपके जैसा टीचर ही बनूँगा।

.

हाँ हाँ…मुझे याद आया। 

उनकी आँखों मे चमक आ गयी। 

फिर चकित हो बोले... 

.

लेकिन बेटा… मैं आजतक नहीं जानता था 

कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि...

.

जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं..!!

.

रविवार, 10 दिसंबर 2023

कहानी मनहूसियत की

 

कहानी - सोया भाग्य :

एक व्यक्ति जीवन से हर प्रकार से निराश था। लोग उसे मनहूस के नाम से बुलाते थे। एक ज्ञानी पंडित ने उसे बताया कि तेरा भाग्य फलां पर्वत पर सोया हुआ है, तू उसे जाकर जगा ले तो भाग्य तेरे साथ हो जाएगा। बस! फिर क्या था वो चल पड़ा अपना सोया भाग्य जगाने। रास्ते में जंगल पड़ा तो एक शेर उसे खाने को लपका, वो बोला भाई! मुझे मत खाओ, मैं अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा हूँ।

शेर ने कहा कि तुम्हारा भाग्य जाग जाये तो मेरी एक समस्या है, उसका समाधान पूछते लाना। मेरी समस्या ये है कि _मैं कितना भी खाऊं … मेरा पेट भरता ही नहीं है, हर समय पेट भूख की ज्वाला से जलता रहता है।_

मनहूस ने कहा– ठीक है।

आगे जाने पर एक किसान के घर उसने रात बिताई। बातों बातों में पता चलने पर कि वो अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा है, किसान ने कहा कि मेरा भी एक सवाल है.. अपने भाग्य से पूछकर उसका समाधान लेते आना … _मेरे खेत में, मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ पैदावार अच्छी होती ही नहीं। मेरी शादी योग्य एक कन्या है, उसका विवाह इन परिस्थितियों में मैं कैसे कर पाऊंगा?_

मनहूस बोला — ठीक है।

और आगे जाने पर वो एक राजा के घर मेहमान बना। रात्री भोज के उपरान्त राजा ने ये जानने पर कि वो अपने भाग्य को जगाने जा रहा है, उससे कहा कि मेरी परेशानी का हल भी अपने भाग्य से पूछते आना। मेरी परेशानी ये है कि _कितनी भी समझदारी से राज्य चलाऊं… मेरे राज्य में अराजकता का बोलबाला ही बना रहता है।_
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मनहूस ने उससे भी कहा — ठीक है।

अब वो पर्वत के पास पहुँच चुका था। वहां पर उसने अपने सोये भाग्य को झिंझोड़ कर जगाया— _उठो! उठो! मैं तुम्हें जगाने आया हूँ। उसके भाग्य ने एक अंगडाई ली और उसके साथ चल दिया। उसका भाग्य बोला — अब मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा।_

अब वो मनहूस न रह गया था बल्कि भाग्यशाली व्यक्ति बन गया था और अपने भाग्य की बदौलत वो सारे सवालों के जवाब जानता था।

वापसी यात्रा में वो उसी राजा का मेहमान बना और राजा की परेशानी का हल बताते हुए वो बोला — _चूँकि तुम एक स्त्री हो और पुरुष वेश में रहकर राज – काज संभालती हो, इसीलिए राज्य में अराजकता का बोलबाला है। तुम किसी योग्य पुरुष के साथ विवाह कर लो, दोनों मिलकर राज्य भार संभालो तो तुम्हारे राज्य में शांति स्थापित हो जाएगी।_

रानी बोली — _तुम्हीं मुझ से ब्याह कर लो और यहीं रह जाओ। भाग्यशाली बन चुका वो मनहूस इन्कार करते हुए बोला — नहीं नहीं! मेरा तो भाग्य जाग चुका है। तुम किसी और से विवाह कर लो। तब रानी ने अपने मंत्री से विवाह किया और सुखपूर्वक राज्य चलाने लगी। कुछ दिन राजकीय मेहमान बनने के बाद उसने वहां से विदा ली।_

_चलते चलते वो किसान के घर पहुंचा और उसके सवाल के जवाब में बताया कि तुम्हारे खेत में सात कलश हीरे जवाहरात के गड़े हैं, उस खजाने को निकाल लेने पर तुम्हारी जमीन उपजाऊ हो जाएगी और उस धन से तुम अपनी बेटी का ब्याह भी धूमधाम से कर सकोगे।_

_किसान ने अनुग्रहित होते हुए उससे कहा कि मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ, तुम ही मेरी बेटी के साथ ब्याह कर लो। पर भाग्यशाली बन चुका वह व्यक्ति बोला कि नहीं! नहीं! मेरा तो भाग्योदय हो चुका है, तुम कहीं और अपनी सुन्दर कन्या का विवाह करो। किसान ने उचित वर देखकर अपनी कन्या का विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा।_

_कुछ दिन किसान की मेहमाननवाजी भोगने के बाद वो जंगल में पहुंचा और शेर से उसकी समस्या के समाधानस्वरुप कहा कि यदि तुम किसी बड़े मूर्ख को खा लोगे तो तुम्हारी ये क्षुधा शांत हो जाएगी।_

_शेर ने उसकी बड़ी आवभगत की और यात्रा का पूरा हाल जाना। सारी बात पता चलने के बाद शेर ने कहा कि भाग्योदय होने के बाद इतने अच्छे और बड़े दो मौके गंवाने वाले ऐ इंसान! तुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा? तुझे खाकर ही मेरी भूख शांत होगी और इस तरह वो इंसान शेर का शिकार बनकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।

सच है —
यदि आपके पास सही मौका परखने का विवेक
और
अवसर को पकड़ लेने का ज्ञान  नहीं है तो भाग्य भी आपके साथ आकर आपका कुछ भला नहीं कर सकता।

रविवार, 3 दिसंबर 2023

खरगोश की कहानी

 

खरगोश की कहानी

सदियों से दुनिया को खरगोश और कछुए की कहानी सुनाई जा रही है ।
कछुए और खरगोश में दौड़ हुई । तेज़ दौड़ने वाला खरगोश हार गया । धीरे धीरे रेंगने वाला कछुआ जीत गया । दुनिया को सबक मिला कि Slow n Steady wins the race ....... चलते रहो चलते रहो .....
कभी मत रुको ...... चलते रहो ...... चरैवेति चरैवेति ......

पर आज तक किसी ने खरगोश से न पूछा कि उस दिन आखिर हुआ क्या था ?????
एक दिन मुझे मिल गया वो खरगोश .......एक पेड़ के नीचे लेटा ....... ऊँघता , अलसाता ।
मैंने पूछा , तुम वही हो न ???? जो उस दिन हार गया था कछुए से ?????

हाँ .......मैं वही हूँ ......

क्या हुआ था उस दिन ?

अरे कुछ नही यार । ये आलसी लापरवाह होने की कहानी झूठी है ।
मैं बेतहाशा दौड़ा चला जा रहा था । कछुआ बहुत बहुत पीछे छूट गया था । मुझे पता था मैं बहुत आगे हूँ ..... मैंने सोचा , इस पेड़ के नीचे दो घड़ी सुस्ता लेता हूँ ।
पिछली रात कायदे से सोया नही था ।
Competition की anxiety के कारण नींद ही न आई । बरसों से कछूए की कहानियां सुनाई जा रही थीं मुझे , वो बिना थके चल सकता है , सालों साल चल सकता है ......कभी नही थकता ...... ये ज़िन्दगी एक मैराथन रेस की तरह है ।
मैं उस कछुए को दिखाना चाहता था कि मैं भी तेज दौड़ सकता हूँ और बहुत दूर तक दौड़ सकता हूँ ।
इस पेड़ की छांव कितनी शीतल है ...... मैंने घास बिछा के एक नर्म गुदगुदा बिस्तर बनाया और उसपे लेट गया ....... लेटते ही आँख लग गई ।
स्वप्नलोक में पहुंच गया ।
वहां एक सन्यासी ध्यानमग्न बैठे थे ।
मुझे पास जान उन्होंने आँखें खोली ।
वो मुस्कुराए ।
कौन हो ?????
मैं खरगोश हूँ . दौड़ में हिस्सा ले रहा हूँ । दौड़ लगी हुई है ।
क्यों दौड़ रहे हो ?
जंगल को ये बताने के लिए कि मैं ही सबसे तेज़ दौड़ता हूँ .......
उससे क्या होगा ? तुम जंगल को क्यों बताना चाहते हो कि तुम बहुत तेज़ दौड़ते हो ??? इतना तेज दौड़ के क्या मिलेगा ???

सबसे तेज़ धावक का medal मिलेगा । इज़्ज़त शोहरत मिलेगी .....मान सम्मान होगा ....... पैसा मिलेगा । मैं अच्छा भोजन खाऊंगा ।

अच्छा भोजन तो आज भी है चारों ओर । देखो चारों तरफ कितनी हरियाली है । पेड़ पौधों पे फल फूल लदे हुए हैं ।

जंगल मुझे याद करेगा कि मैं सबसे तेज़ दौड़ने वाला खरगोश था ।

एक हज़ार साल पहले सबसे तेज़ दौड़ने वाले हिरण का नाम याद है तुम्हें ???? या सबसे बड़े हाथी का ??????
सबसे ताकतवर शेर का ?????

नही तो ......

आज तुम्हारा मुकाबला कछुए से है ।
कल हिरण से होगा
परसों घोड़े से .......
किस किस से दौड़ लगाओगे ?????
क्या सारी जिंदगी दौड़ते ही रहोगे ?????
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अच्छा आज की दौड़ जीतने के बाद क्या करोगे ?????

चैन की बंसी बजाऊंगा । उस विशाल पेड़ की घनी छांव में आराम की नींद सोऊंगा । भंवरे मुझे लोरियां सुनाएंगे । तितलियां गुनगुनाएँगी । मैं उस तालाब में बतख के साथ खेलूंगा ।
चैन की नींद तो तुम अब भी सो रहे हो .......उस बतख के साथ तो तुम अब भी खेल सकते हो ।

मेरी नींद खुल गई ।
सामने देखा तो पक्षी चहचहा रहे थे । मैं तालाब में कूद गया । मुझे बत्तखों ने घेर लिया । मछलियां मेरे साथ अठखेलियाँ करने लगी ।
तभी एक बतख ने याद दिलाया ......हे , तुम्हारी तो दौड़ लगी है न कछुए के साथ ........ तुमको तो दौड़ना है अभी .......

छोड़ो , कुछ नही रखा इस बेकार की दौड़ में .......
मुझे किसी के सामने कुछ prove नही करना .......
मुझे किसी से मुकाबला नही करना .......….
चलो तैरने चलें .........
इस तरह मैंने वो दौड़ छोड़ दी ।

कछुए वाली दौड़ मैं बेशक हार गया , पर ज़िन्दगी की दौड़ में जीत गया हूँ ।

इस दुनिया मे 7 Billion लोग हैं ।
हम किसी को खुश नही रख सकते ।
इस भरी दुनिया मे आप सिर्फ एक आदमी को खुश रख सकते हैं .......खुद को ।

दुनिया को खुश करने के लिए नही , स्वयं को खुश रखने के लिये जियो ।

Fb पे पढ़ी एक पोस्ट का हिंदी रूपांतरण  है ।
मूल रचना अंग्रेज़ी में है ।

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

राजा राजेन्द्र चोल प्रथम

 

   हमारा गौरवशाली इतिहास

    इतिहासकारों ने हमारे  इतिहास को केवल 200 वर्षों में ही समेट कर रख दिया है जबकि उन्होंने हमें कभी नहीं बताया कि एक  राजा ऐसा भी था जिसकी सेना में  महिलाएं  कमांडर थी और जिसने अपनी  विशाल  नौकाओं वाली  शक्तिशाली  नौसेना की मदद से पूरे दक्षिण-पूर्व  एशिया पर कब्जा कर लिया था

राजा राजेन्द्र चोल प्रथम (1012-1044) -- वामपंथी इतिहासकारों के साजिशों की भेंट चढ़ने वाला हमारे इतिहास का एक महान शासक

राजा_राजेन्द्र_चोल,  चोल राजवंश के सबसे महान शासक थे उन्होंने अपनी विजयों द्वारा चोल सम्राज्य का विस्तार कर उसे दक्षिण भारत का सर्व शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया था । राजेंद्र चोल एकमात्र राजा थे जिन्होंने न केवल अन्य स्थानों पर अपनी विजय का पताका लहराया बल्कि उन स्थानों पर वास्तुकला और प्रशासन की अद्भुत प्रणाली का प्रसार किया जहां उन्होंने शासन किया।

सन 1017 ईसवी में हमारे इस शक्तिशाली नायक ने सिंहल (श्रीलंका) के प्रतापी राजा महेंद्र पंचम को बुरी तरह परास्त करके सम्पूर्ण सिंहल(श्रीलंका) पर कब्जा कर लिया था ।

जहाँ कई महान राजा नदियों के मुहाने पर पहुँचकर अपनी सेना के साथ आगे बढ़ पाने का हिम्मत नहीं कर पाते थे वहीं राजेन्द्र चोल ने एक शक्तिशाली नेवी का गठन किया था जिसकी सहायता से वह अपने मार्ग में आने वाली हर विशाल नदी को आसानी से पार कर लेते थे ।

अपनी इसी नौसेना की बदौलत राजेन्द्र चोल ने अरब सागर स्थित सदिमन्तीक नामक द्वीप पर भी अपना अधिकार स्थापित किया यहाँ तक कि अपने घातक युद्धपोतों की सहायता से कई राजाओं की सेना को तबाह करते हुए राजेन्द्र प्रथम ने जावा, सुमात्रा एवं मालदीव पर अधिकार कर लिया था ।

एक विशाल भूभाग पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद उन्होंने (गंगई कोड़ा) चोलपुरम नामक एक नई राजधानी का निर्माण किया था, वहाँ उन्होंने एक विशाल कृत्रिम झील का निर्माण कराया जो सोलह मील लंबी तथा तीन मील चौड़ी थी। यह झील भारत के इतिहास में मानव निर्मित सबसे बड़ी झीलों में से एक मानी जाती है। उस झील में बंगाल से गंगा का जल लाकर डाला गया।

एक तरफ आगरा मे शांहजहाँ के शासन के दौरान भीषण अकाल के बावजूद इतिहासकार उसकी प्रशंसा में इतिहास के पन्नों को भरने में लगे रहे दूसरी तरफ जिस राजेन्द्र चोल के अधीन दक्षिण भारत एशिया में समृद्धि और वैभव का प्रतिनिधित्व कर रहा था उसके बारे में हमारे इतिहास की किताबें एक साजिश के तहत खामोश रहीं ।

यहाँ तक कि बंगाल की खाड़ी जो कि दुनिया की सबसे बड़ी खाड़ी है इसका प्राचीन नाम चोला झील था, यह सदियों तक अपने नाम से चोल की महानता को बयाँ करती रही, बाद में यह कलिंग सागर में बदल दिया गया गया और फिर ब्रिटिशर्स द्वारा बंगाल की खाड़ी में परिवर्तित कर दिया गया, वाम इतिहासकारों ने हमेशा हमारे नायकों के इतिहास को नष्ट करने की साजिश रची और हमारे मंदिरों और संस्कृति को नष्ट करने वाले मुगल आक्रांताओं के बारे में पढ़ाया, राजेन्द्र चोल की सेना में कमांडर के पद पर कुछ महिलाएं भी थी, सदियों बाद मुगलों का एक ऐसा वक्त आया जब महिलाएं पर्दे के पीछे चली गईं ।

हममें से बहुत से लोगों को चोल राजवंश और मातृभूमि के लिए उनके योगदान के बारे में नहीं पता है। मैंने इतिहास के अलग-अलग स्रोतों से अपने इस महान नायक के बारे में जाने की कोशिश की और मुझे महसूस हुआ कि अपने इस स्वर्णिम इतिहास के बारे में आपको भी जानने का हक है
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रविवार, 26 नवंबर 2023

कहानी नमक का धर्म


  कहानी

अम्मा नून कम है तरकारी में ।
चूल्हे के पास बैठा टुकुन खाने का पहला
निवाला मुंह में रखते हुए बोल पड़ा ।

"दे रहे हैं रुको ।
" अम्मा ने इतना कहते हुए नमक के डिब्बे में
हाथ लगाया तो टुकुन ने हाथ आगे कर दिया ।

"नहीं हाथ में नहीं देंगे ।
" इतना कह कर अम्मा ने थाली में नमक रख दिया ।

"हाथ में काहे नहीं ?
" खाने को छोड़ अम्मा की तरफ अपनी बड़ी बड़ी
आंखों से घूरता हुआ टुकुन बोला। 

"हाथ में नून देने से सब धरम चला जाता है ।
" रोटी सेकती हुई अम्मा ने जवाब दिया ।

"कहां चला जाता है ?
" वो अब भी अम्मा को घूर रहा था ।

"हम तुमको नून देंगे तो हमारा धरम
तुमको चला जाएगा ।"

"तो उससे का होगा ?
" टुकुन की तरफ देखते हुए मां के
हाथ पर सेक लग गया ।

वो तड़पते हुए बोली
"तुम्हारी बतकही में हाथ जल गया ।
चलो चुपचाप खाना खाओ ।
" टुकुन ने इसी के साथ अम्मा के हाथ से
मार भी खा ली ।

अब जब मां टुकुन को नमक देती वो जान बूझ कर
हाथ आगे करता और मां के हाथ पर नमक ना
रखने पर यही सवाल पूछता।
मां अब उसके इस सवाल से चिढ़ने लगी थी ।
लेकिन समय बीतने के साथ टुकुन ने ये
सवाल पूछना छोड़ दिया ।
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गरीब की ज़िंदगी सांप सीढ़ी के खेल जैसी है ।
कब ऊंचाई छूती खुशियों को मुसीबतों का सांप
डस ले और कब गरीब आसमान से सीधा ज़मीन पर
आ पहुंचे कह नहीं सकते ।

इधर भी यही हुआ ।
एक दिन अम्मा बीमार पड़ गयी ।
टुकुन का परिवार जो कम में ही खुश था
आज मुसीबतों के पहाड़ तले दब गया ।
टुकुन के पिता ने अपनी हैसीयत के हिसाब से
आसपास के सभी डॉक्टरों को दिखाया लेकिन
उसकी हालत में कुछ खास सुधार नहीं आ रहा था ।

टुकुन की अम्मा की बिगड़ती हालत और बढ़ रहे
कर्जे की मार उसके पिता की हिम्मत और
उसकी उम्मीदों को तोड़ रही थी ।

एक दिन टुकुन अपनी अम्मा के सिरहाने
जा कर बैठ गया ।

"अम्मा तुमको क्या हो गया ।
" अम्मा को एक टक देखता टुकुन बोला ।

"कुछो नहीं बबुआ, बस थोड़ा बीमार हैं ।
जल्दी ठीक हो जाएंगे ।
" टुकुन की तरफ देख कर जबरदस्ती
मुस्कुराते हुए अम्मा ने जवाब दिया ।

"बीमार कइसे होते हैं अम्मा ?"

"ई सब करम का खेल है बाबू ।
किए होंगे कोनो पाप जिसका सजा भोग रहे हैं ।"

हम भारतीयों के लिए हमारी पीड़ा का कारण हमेशा हमारे किये गये पापों को ही माना जाता है।
शायद गरीबी ही सबसे बड़ा पाप है
इसीलिए गरीब को ही सबसे ज़्यादा
सज़ा भी मिलती है ।

"जाओ देखो पपा खाना बना लिए हों तो
ले के खा लो ।
" अम्मा टुकुन के सामने रोना नहीं चाहती थी ।
टुकुन एकदम शांत था ।
शायद कुछ सोच रहा था ।
वो अक्सर यही करता था ।
जब कोई बात उसके मन में गड़ जाती तो
वो तब तक सोचता जब तक उसका
नन्हा दिमाग कोई निष्कर्ष ना निकाल ले ।

शायद टुकुन ने सोच लिया था इसीलिए
भागता हुआ चूल्हे के पास गया और
जब तक उसके पिता उसे खाना खाने को
कहते तब तक भागता हुआ फिर अम्मा के पास
पहुंच गया ।

"अम्मा हाथ दो।"

"क्या हुआ ?"

"हाथ दो ना ।"

"क्यों तंग कर रहा है टुकुन ।
जा के खाना खा ले।
" कमज़ोरी की वजह से चिढ़चिढ़ी हो चुकी
अम्मा ने थोड़ा चिढ़ कर कहा ।

"अम्मा एक बार हाथ दो ना ।"

"ये ले ।
" अम्मा जानती थी कि टुकुन बहुत ज़िदी है
जब तक वो हाथ ना आगे करेगी तब तक
वो कहीं नहीं जाएगा ।
इसीलिए उसने हाथ आगे कर दिए ।
अम्मा की खुली हथेली पर टुकुन ने अपनी
नन्हीं सी मुट्ठी खोल दी ।
मुट्ठी में समाया सारा नमक अम्मा की
हथेली पर जमा हो गया ।

"अम्मा अब हम तुमको अपना सारा धरम दे दिए हैं। तुम्हारा सारा पाप कट जाएगा और तुम बहुत जल्दी
ठीक हो जाओगी ।
" टुकुन के चेहरे पर संतोष था और मां की
आंखों में हैरानी, करुणा, स्नेह मिले आंसू ।

अम्मा समझ नहीं पा रही थी इस पर टुकुन से क्या कहे । उसने टुकुन को करीब बुलाया और सीने से लगा लिया । टुकुन के पिता दूर से ये सब देख कर मुस्कुराते रहे थे ।

नमक से कुछ हो ना हो लेकिन अपने लिए
बेटे के मन में ये इतना स्नेह और फिक्र देख कर
अम्मा के अंदर की आधी बीमारी तो क्षण भर में
ठीक हो गयी थी ।

बच्चे सच में आधा दुःख हर लेते हैं 😊

रविवार, 19 नवंबर 2023

कहानी उस्ताद की

 

कहानी

वह बड़े इत्मीनान से गुरु के सामने खड़ा था। गुरु अपनी पारखी नजर से उसका परीक्षण कर रहे थे। नौ दस साल का छोकरा। बच्चा ही समझो। उसे बांया हाथ नहीं था। किसी बैल से लड़ाई में टूट गया था।

"तुझे क्या चाहिए मुझसे?" गुरु ने उस बच्चे से पूछा।

उस बच्चे ने गला साफ किया। हिम्मत जुटाई और कहा, " मुझे आप से कुश्ती सीखनी है।

एक हाथ नहीं और कुश्ती लड़नी है ? अजीब बात है।

"क्यूं ?"

"स्कूल में बाकी लड़के सताते है मुझे और मेरी बहन को। टुंडा कहते है मुझे। हर किसी की दया की नजर ने मेरा जीना हराम कर दिया है गुरुजी। मुझे अपनी हिम्मत पर जीना है। किसी की दया नहीं चाहिए। मुझे खुद की और मेरे परिवार की रक्षा करनी आनी चाहिए।"

"ठीक बात। पर अब मै बूढ़ा हो चुका हूं और किसी को नहीं सिखाता। तुझे किसने भेजा मेरे पास?"

"कई शिक्षकों के पास गया मैं। कोई भी मुझे सिखाने तैयार नहीं। एक बड़े शिक्षक ने आपका नाम बताया और कहा 'वे ही सीखा सकते है क्योंकि उनके पास वक्त ही वक्त है और कोई सीखने वाला भी नहीं है ऐसा बोले वे मुझे।"

गुरूर से भरा जवाब किसने दिया होगा यह उस्ताद समझ गए। ऐसे अहंकारी लोगो की वजह से ही खल प्रवृत्ति के लोग इस खेल में आ गए यह बात उस्ताद जानते थे।

"ठीक है। कल सुबह पौ फटने से पहले अखाड़े में पहुंच जा। मुझसे सीखना आसान नहीं है यह पहले ही बोल देता हूं। कुश्ती एक जानलेवा खेल है। इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए करना। मैं जो सिखाऊं उस पर पूरा भरोसा रखना। और इस खेल का नशा चढ़ जाता है आदमी को। तो सिर ठंडा रखना। समझा?"

"जी उस्ताद। समझ गया। आपकी हर बात का पालन करूंगा। मुझे आपका चेला बना लीजिए।" मन की मुराद पूरी हो जाने के आंसू उस बच्चे की आंखो में छलक गए। उसने गुरु के पांव छू कर आशीष लिया।

अपने एक ही चेले को सिखाना उस्ताद ने शुरू किया। मिट्टी रोंदी, मुगदर से धूल झड़कायी और इस एक हाथ के बच्चे को कैसे विद्या देनी है इसका सोचते सोचते उस्ताद की आंख लग गई।
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एक ही दांव उस्ताद ने उसे सिखाया और रोज़ उसकी ही तालीम बच्चे से करवाते रहे। छह महीने तक रोज बस एक ही दांव। एक दिन चेले ने उस्ताद के जन्मदिन पर पांव दबाते हुए हौले से बात को छेड़ा।

"गुरुजी, छह महीने बीत गए, इस दांव की बारीकियां अच्छे से समझ गया हूं और कुछ नए दांव पेंच भी सिखाइए ना। "

उस्ताद वहां से उठकर चल दिए। बच्चा परेशान हो गया कि गुरु को उसने नाराज़ कर दिया।

फिर उस्ताद की बात पर भरोसा करके वह सीखता रहा। उसने कभी नहीं पूछा कि और कुछ सीखना है।

गांव में कुश्ती की प्रतियोगिता आयोजित की गई। बड़े बड़े इनाम थे उसमें। हरेक अखाड़े के चुने हुए पहलवान प्रतियोगिता में शिरकत करने आए। उस्ताद ने चेले को बुलाया। "कल सुबह बैल जोत के रख गाड़ी को। पास के गांव जाना है। सुबह कुश्ती लड़नी है तुझे।"

पहली दो कुश्ती इस बिना हाथ के बच्चे ने यूं ही जीत ली। जिस घोड़े के आखिरी नंबर पर आने की उम्मीद हो और वह रेस जीत जाए तो रंग उतरता है वैसा सारे विरोधी उस्तादों का मुंह उतर गया। देखने वाले अचरज में पड़ गए। एक हाथ का बच्चा कुश्ती में जीत ही कैसे सकता है? किसने सिखाया इसे?"

अब तीसरी कुश्ती में सामने वाला खिलाड़ी नौसिखिया नहीं था। पुराना जांबाज़। पर अपने साफ सुथरे हथकंडों से और दांव का सही तोड़ देने से यह कुश्ती भी बच्चा जीत गया।

अब इस बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ गया। पूरा मैदान भी अब उसके साथ हो गया था। मैं भी जीत सकता हूं, यह भावना उसे मजबूत बना रही थी।

देखते ही देखते वह अंतिम बाज़ी तक पहुंच गया।

जिस अखाड़े वाले ने उस बच्चे को इस बूढ़े उस्ताद के पास भेजा था, उस अहंकारी पहलवान का चेला ही इस बच्चे का आखिरी कुश्ती में प्रतिस्पर्धी था।

यह पहलवान उसकी उम्र का होने के बावजूद शक्ति और अनुभव में इस बच्चे से श्रेष्ठ था। कई मैदान मार लिए थे उसने। इस बच्चे को वह मिनटों में चित कर देगा यह स्पष्ट था। पंचों ने राय मशवरा किया।

"यह कुश्ती कराना सही नहीं होगा। कुश्ती बराबरी वालों में होती है। यह कुश्ती मानवता और समानता के अनुसार रद्द किया जाता है। इनाम दोनों में बराबरी से बांटा जाएगा।" पंचों ने अपना मंतव्य प्रकट किया।

"मैं इस कल के छोकरे से कई ज्यादा अनुभवी हूं और ताकतवर भी। मैं ही ये कुश्ती जीतूंगा यह बात सोलह आने सच है। तो इस कुश्ती का विजेता मुझे बनाया जाए।" वह प्रतिस्पर्धी अहंकार में बोला।

"मैं नया हूं और बड़े भैया से अनुभव में छोटा भी। मेरे उस्ताद ने मुझे ईमानदारी से खेलना सिखाया है। बिना खेले जीत जाना मेरे उस्ताद की तौहीन है। मुझे खेल कर मेरे हक का जो है उसे दीजिए। मुझे ये भीख नहीं चाहिये।" उस बांके जवान की स्वाभिमान भरी बात सुन कर जनता ने तालियों की बौछार कर दी।

ऐसी बातें सुनने को अच्छी पर नुकसानदेह होती है। पंच हतोत्साहित हो गए। कुछ कम ज्यादा हो गया तो? पहले ही एक हाथ खो चुका है अपना और कुछ नुकसान ना हो जाए? मूर्ख कहीं का!

लड़ाई शुरू हुई।

और सभी उपस्थित अचंभित रह गए। सफाई से किए हुए वार और मौके की तलाश में बच्चे का फेंका हुआ दांव उस बलाढ्य प्रतिस्पर्धी को झेलते नहीं बना। वह मैदान के बाहर औंधे मुंह पड़ा था। कम से कम परिश्रम में उस नौसिखिए बच्चे ने उस पुराने महारथी को धूल चटा दी थी।

अखाड़े में पहुंच कर चेले ने अपना मेडल निकाल कर उस्ताद के पैरो में रख दिया। अपना सिर उस्ताद के पैरों की धूल माथे लगा कर मिट्टी से सना लिया।

"उस्ताद, एक बात पूछनी थी। "

"पूछ।"

"मुझे सिर्फ एक ही दांव आता है। फिर भी मैं कैसे जीता?"

"तू दो दांव सीख चुका था। इस लिए जीत गया।"

"कौन से दो दांव उस्ताद?"

पहली बात, तू यह दांव इतनी अच्छी तरह से सीख चुका था कि उसमे गलती होने की गुंजाइश ही नहीं थी। तुझे नींद में भी लड़ाता तब भी तू इस दांव में गलती नहीं करता। तुझे यह दांव आता है यह बात तेरा प्रतिद्वंदी जान चुका था, पर तुझे सिर्फ यही दांव आता है यह बात थोड़ी उसे मालूम थी?"

"और दूसरी बात क्या थी उस्ताद? "

"दूसरी बात ज्यादा महत्व रखती है। हरेक दांव का एक प्रतिदांव होता है। ऐसा कोई दांव नहीं है जिसका तोड़ ना हो। वैसे ही इस दांव का भी एक तोड़ था।"

"तो क्या मेरे प्रतिस्पर्धी को वह दांव मालूम नहीं होगा?"

"उसे मालूम था। पर वह कुछ नहीं कर सका। जानते हो क्यूं ?… क्योंकि उस तोड़ में दांव देने वाले का दूसरा हाथ पकड़ना पड़ता है। तेरे दूसरा हाथ था ही नहीं, जिसे वह पकड़ सकता।

अब आपके समझ में आया होगा कि एक बिना हाथ का साधारण सा लड़का विजेता कैसे बना?

जिस बात को हम अपनी कमजोरी समझते हैं, उसी को जो हमारी शक्ति बना कर जीना सिखाता है, विजयी बनाता है, वही सच्चा गुरु है।

अंदर से हम कहीं ना कहीं कमजोर होते है, दिव्यांग होते है। उस कमजोरी को मात दे कर जीने की कला सिखाने वाला गुरु हमें चाहिए।

रविवार, 5 नवंबर 2023

कथा पलटूराम बाबा की

 

कथा
(पढ़ते पढ़ते मेरी आंखे छलक पड़ी) ।।

श्री अयोध्या जी में 'कनक भवन' एवं 'हनुमानगढ़ी' के बीच में एक आश्रम है जिसे 'बड़ी जगह' अथवा 'दशरथ महल' के नाम से जाना जाता है।

काफी पहले वहाँ एक सन्त रहा करते थे जिनका नाम था श्री रामप्रसाद जी। उस समय अयोध्या जी में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी। ज्यादा लोग नहीं आते थे।
श्री रामप्रसाद जी ही उस समय बड़ी जगह के कर्ता धर्ता थे। वहाँ बड़ी जगह में मन्दिर है जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई (श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत एवं श्री शत्रुघ्न जी) एवं हनुमान जी की सेवा होती है। चूंकि सब के सब फक्कड़ सन्त थे... तो नित्य मन्दिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था उसी से मन्दिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था।

प्रतिदिन मन्दिर में आने वाला सारा चढ़ावा एक बनिए (जिसका नाम था पलटू बनिया) को भिजवाया जाता था। उसी धन से थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था... उसी का भोग-प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और जो भी सन्त आश्रम में रहते थे वे खाते थे।
एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मन्दिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ जोड़ा गांठा तो था नहीं... तो क्या किया जाए...? कोई उपाय ना देखकर श्री रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेज के कहलवाया कि भइया आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है...
अतः
थोड़ा सा राशन उधार दे दो... कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए। पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महन्त जी का लेना देना तो नकद का है... मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा।
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श्री रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो "जैसी भगवान की इच्छा" कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। सारे साधु भी जल पी के रह गए। प्रभु की ऐसी परीक्षा थी कि रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए। वहाँ मन्दिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुन्दर पीताम्बर ओढ़ाया जाता था तथा शयन आरती के बाद श्री रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घण्टा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे। पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए।

धीरे-धीरे करके रात बीतने लगी। करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं, 'अरे पलटू... पलटू सेठ... अरे दरवाजा खोल...।'

उसने हड़बड़ा कर खीझते हुए दरवाजा खोला। सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे... अभी इनकी अच्छे से डांट लगाऊँगा। जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी... एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं।

वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। उनकी छवि इतनी मोहक... ऐसी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा,
'बच्चों...! तुम हो कौन और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो...?'
बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले, हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं... इसका कोना खोलो... इसमें सोलह सौ रुपए हैं... निकालो और गिनो।' ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी।

     जल्दी जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चांदी के सोलह सौ सिक्के निकले। प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने कहा, 'इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना।'

अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई, 'हाय...! आज मैंने राशन नहीं दिया... लगता है महन्त जी नाराज हो गए हैं... इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए।' पश्चाताप, संकोच और प्रेम के साथ उसने हाथ जोड़कर कहा, 'बच्चों...! मेरी पूरी दुकान भी उठा कर मैं महन्त जी को दे दूँगा तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते-देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा।'

बच्चों ने कहा, 'ठीक है... आप एक साथ मत दीजिए... थोड़ा-थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह-सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा... आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा।' पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए।

वो फिर हाथ जोड़कर बोला, 'जैसी महन्त जी की आज्ञा।' इतना कह सुन के वो बच्चे चले गए लेकिन जाते जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए।

इधर सवेरे सवेरे मंगला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मन्दिर के पट खोले तो देखा भगवान का पीताम्बर गायब है। उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया। जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवा के कृतज्ञता के साथ हाथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।

रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था। वे पूछें, 'क्या हुआ... अरे किस बात की माफी मांग रहा है।' पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे, 'महाराज रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी... मैं कान पकड़ता हूँ आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा और ये रहा आपका पीताम्बर... वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे... बड़े प्यारे बच्चे थे... इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये...

     आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ।' जब रामप्रसाद जी ने वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मन्दिर का ही है जो गायब हो गया था। अब वो पूछें कि, 'ये तुम्हारे पास कैसे आया?' तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई।
अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मन्दिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि, 'हे भक्तवत्सल...! मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और कष्ट उठाया सो उठाया मैंने जीवन भर आपकी सेवा की... मुझे तो दर्शन ना हुआ... और इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए।'

जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा वे तो त्रिभुवन के नाथ थे... अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। अब तो वे दोनों ही लोग बैठ कर रोएँ। इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई। आज तक वहाँ सन्त सेवा होती आ रही है। इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में श्री पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए।

श्री रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। संसार के लिए तो वे मूर्छित थे किन्तु मूर्च्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ और उसी दर्शन में श्री जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा अपनी ऊँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ।
वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव... ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आए परन्तु प्रभु जानबूझकर इन्हें भेजते हैं ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं... वे सतर्क हो जाएं... उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न हो सके।जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया ऐसे ही हमारा भी कर दे..!!
‼️🙏जय सियाराम🙏‼️

शनिवार, 4 नवंबर 2023

राम फिर से आएंगे, आते रहेंगे

 

भगवान राम जानते थे कि उनकी मृत्यु का समय हो गया है। वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना ही पड़ता है। यही जीवन चक्र है। और मनुष्य देह की सीमा और विवशता भी यही है।

उन्होंने कहा...
“यम को मुझ तक आने दो। बैकुंठ धाम जाने का समय अब आ गया है”

मृत्यु के देवता यम स्वयं अयोध्या में घुसने से डरते थे। क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान से भय लगता था। उन्हें पता था कि हनुमानजी के रहते यह सब आसान नहीं।

भगवान श्रीराम इस बात को अच्छी तरह से समझ गए थे कि, उनकी मृत्यु को अंजनी पुत्र कभी स्वीकार नहीं कर पाएंगे, और वो रौद्र रूप में आ गए, तो समस्त धरती कांप उठेगी।

उन्होंने सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा से इस विषय मे बात की। और अपने मृत्यु के सत्य से अवगत कराने के लिए राम जी ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया!

और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा।  हनुमान ने स्वयं का स्वरुप छोटा करते हुए बिल्कुल भंवरे जैसा आकार बना लिया...और अंगूठी को तलाशने के लिये उस छोटे से छेद में प्रवेश कर गए। वह छेद केवल छेद नहीं था, बल्कि एक सुरंग का रास्ता था, जो पाताल लोक के नाग लोक तक जाता था। हनुमान नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया।

वासुकी हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए,   जहाँ पर ढेर सारी अंगूठियों का ढेर लगा था। वहां पर अंगूठियों का जैसे पहाड़ लगा हुआ था।

“यहां देखिए, आपको श्री रामकी अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा।

हनुमानजी सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे? यह भूसे में सुई ढूंढने जैसा था। लेकिन उन्हें राम जी की आज्ञा का पालन करना ही था। तो राम जी का नाम लेकर उन्होंने अंगूठी को ढूंढना शुरू किया।

सौभाग्य कहें या राम जी का आशीर्वाद या कहें हनुमान जी की भक्ति...उन्होंने जो पहली अंगूठी उठाई, वो राम जी की ही अंगूठी थी। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। वो अंगूठी लेकर जाने को हुए, तब उन्हें सामने दिख रही एक और अंगूठी जानी पहचानी सी लगी।

पास जाकर देखा तो वे आश्चर्य से भर गए! दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम जी की ही अंगूठी थी। इसके बाद तो वो एक के बाद एक अंगूठीयाँ उठाते गए, और हर अंगूठी श्री राम की ही निकलती रही।

उनकी आँखों से अश्रु धारा फूट पड़ी!

' वासुकी यह प्रभु की कैसी माया है ? यह क्या हो रहा है? प्रभु क्या चाहते हैं?

वासुकी मुस्कुराए और बोले,

“जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। जो निश्चित है। जो अवश्यम्भावी है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं।

हर बार कल्प के दूसरे युग मे अर्थात त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है...यहाँ आता है और हर बार पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

इसलिए यह सैकड़ों हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं। सभी श्री राम की ही है। अंगूठियां गिरती रहीं है...और इनका ढेर बड़ा होता रहा।

भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां पर्याप्त स्थान है”।

हनुमान एकदम शांत हो गए। और तुरन्त समझ गए कि, उनका नाग लोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात्कार कोई आकस्मिक घटी घटना नहीं थी। बल्कि यह प्रभु राम का उनको समझाने का मार्ग था कि, मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकता। राम मृत्यु को प्राप्त होंगे ही। पर राम वापस आएंगे...यह सब फिर दोहराया जाएगा।

यही सृष्टि का नियम है, हम सभी बंधे हैं इस नियम से। संसार समाप्त होगा। लेकिन हमेशा की तरह, संसार पुनः बनता है और राम भी पुनः जन्म लेंगे।

प्रभु राम आएंगे...उन्हें आना ही है...उन्हें आना ही होगा।
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रविवार, 29 अक्टूबर 2023

कहानी दाई मां की

 

कहानी

कानी दाई माँ

मिस्टर मेहरा बहुत बड़े बिजनिस मैन थे। उनका एक एक मिनिट कीमती था। वो इस वक्त बहुत इरिटेड हो रहे थे और झूंझल खा रहे थे। वो कैसी भी परिस्थिति में पेरिस से इंडिया नहीँ आना चाहते थे। एक तो पेरिस में उनकी बिजनिस मीटिंग्स का शिड्यूल इतना टाइट था कि उनके बीच में समय निकालने का मतलब था अपना ढेर सारा नुकसान करना। दूसरा कोई ऐसा कारण भी नहीँ था कि जिसके लिए इंडिया आया जाए। अब उनकी दाई माँ बीमार पड़ गयीं तो वो क्या करें ? कितने ही डॉक्टर हैं इंडिया में। अपना इलाज करवा लें। उनका फेमिली डॉक्टर ही बहुत काबिल है। उन्हें इंडिया बुलाने की क्या ज़रूरत है ? दाई माँ पिछले पंद्रह सालों में उन्हें पच्चीस बार इंडिया बुला चुकी, मगर व्यस्तता के कारण वो एक बार भी नहीं गए।

मिस्टर मेहरा को याद आया कि जब वो छह या सात साल के थे तब एक कार एक्सीडेंट में उनकी माँ और पिताजी दोनों की डेथ हो गयी थी। वो खुद भी बुरी तरह जख्मी हो गये थे। उनकी दाई माँ, जो उनके जन्म लेने के वक्त से ही उनकी देखभाल करती थीं, और कार में साथ थीं, की एक आंख पूरी खराब हो गयी थी। उनके मम्मी पापा के गुज़र जाने के बाद दाई माँ ने ही उन्हें पाला था। मगर एक आंख वाली दाई माँ से मिस्टर मेहरा को हमेशा डर लगता था। वो उसे देख कर चीख पड़ते थे और उससे दूर दूर ही रहते थे। एक बार स्कूल में किसी दिन दाई माँ उन्हें लेने गयी तो क्लास के और बच्चे भी उन्हें देख कर डर गये। तब मिस्टर मेहरा ने उन्हें कह दिया था कि वो उनके सामने कभी न आएं। एक आँख वाली दाई माँ उसके बाद उनके सामने कभी आयी भी नहीँ। वो दूर दूर से ही उनके सारे काम करती थी। टिफिन बनाना, स्कूल ड्रेस रखना, नहाने का पानी रखना, खाना बनाना, बना कर रखना ये सारे काम वो मिस्टर मेहरा को अपना चेहरा दिखाए बिना करती थीं। कभी अपने हाथों में पाले गए बच्चे से उन्हें प्यार करना होता था तो वो मिस्टर मेहरा की फोटो को ही कर लिया करती थी। मिस्टर मेहरा के मम्मी पापा के गुज़र जाने के 12 साल तक मिस्टर मेहरा को उनकी दाई माँ ने ऐसे ही पाला। मिस्टर मेहरा उन्हें कानी दाई माँ कहते थे। जब कभी भी गलती से वो कानी दाई माँ का चेहरा देख लेते थे तो चार पांच रातें डर के मारे उन्हें नींद नहीं आती थी।
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पापा के बैंक में छोड़े हुए पैसे से मिस्टर मेहरा बीस साल की उम्र में विदेश आ गए और एक सफल बिजनिस मैन बन गए। 20 साल की उम्र अब 35 साल हो गयी। इन पंद्रह सालों में पच्चीस बार कानी दाई माँ को मना करने वाले मिस्टर मेहरा आज भी इंडिया जाने के लिए मना करने वाले थे मगर उनके फैमिली डॉक्टर का फोन आया। उसने कहा, 'इस बार कुछ अर्जेंट है। इंडिया आना ही पड़ेगा।'

जैसे तैसे अपनी बिजनिस मीटिंग्स एडजस्ट करके मिस्टर मेहरा इंडिया आये। पता लगा उनकी कानी दाई माँ अब नहीं रही। शमशान घाट पर मुर्दा फूंकने की रस्म निभा कर वो जल्दी से अपने फेमिली डॉक्टर के पास आये और झल्लाये। 'ये मुर्दा जिस्म को आग देने का काम तो कोई भी कर सकता था फिर मुझे क्यों बुलाया ? मेरा कितना नुकसान हुआ होगा वहां, कुछ अंदाज़ा है आपको ? और जिस चेहरे को मैं देखता नहीँ था, जिससे मुझे डर लगता था उसे भी दिखवा दिया आपने। अब मुझे चार पांच रातों तक डर लगेगा। आप समझते नही हैं।' डॉक्टर मुस्कुराया। बोला, 'चार पांच रातों तक नहीँ मिस्टर मेहरा, अब आपको आजीवन डर लगेगा। आपको कानी दाई माँ से नहीँ, खुद अपने आप से डर लगेगा। आप अपना चेहरा नहीं देख पाएंगे आईने में।' मिस्टर मेहरा गुस्से में फट पड़े, 'ये क्या कह रहे हैं आप ?' फैमिली डॉक्टर ने अपनी टेबल की दराज से एक फाइल निकाली और मिस्टर मेहरा को पकड़ाई। बोले, 'कानी दाई माँ ने मुझे कसम दी थी कि ये फाइल मैं आपको न दिखाऊँ। पर अब वो ही नहीँ रहीं तो उनकी कसम भी नहीं रही। देख लीजिए।' मिस्टर मेहरा असमंजस से भरे फाइल देखने लगे।

फाइल में एक कार एक्सीडेंट की रिपोर्ट दर्ज थी। उस कार एक्सीडेंट में एक पति पत्नी की मृत्यु हो गयी थी और उनके 6 साल के बच्चे की एक आंख इंजर्ड हो गयी थी। बाद में एक जटिल ऑपरेशन कर के बच्चे की आंख लगाई गई और बच्चे को आँख देने वाली उस बच्चे की दाई माँ थी। रिपोर्ट पढ़ते पढ़ते मिस्टर मेहरा के हाथ पैर काँपने लगे। आँखों के आगे अंधेरा छा गया। उनका दिमाग सुन्न हो गया। पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गई। उन्होंने अपना माथा थाम लिया और वहीं एक कुर्सी पर बैठ गए। फैमिली डॉक्टर ने उनके आगे पानी का ग्लास रख दिया। मिस्टर मेहरा कुछ पल यूंही बैठे रहे और फिर एकदम से सरपट शमशान घाट की ओर दौड़ गए।

शमशान घाट पर जहां उनकी कानी दाई माँ जली थीं वहां वो घँटों दाई माँ, दाई माँ चीखते रहे। चिता की राख को हाथों से हटा हटा देखते रहे और उससे लिपट कर रोते रहे। कानी दाई माँ उन्हें नहीं दिखनी थी, सो नहीं दिखीं। मिस्टर मेहरा सुबकते, हिचकियाँ भरते ये सोचते रहे कि दाई माँ कानी थी पर वो खुद इतने साल अंधे रहे, और अब आगे भी वो अंधे ही रहेंगे, क्योंकि जब जब वो आईना देखेंगे तो उस एक आँख से नज़र कैसे मिला पाएंगे जो उनकी नहीं है, कानी दाई माँ की है।
कथा - शोशल मीडिया द्वारा ।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

रावण महान था ????

 

"रावण तो महान था। उसने सीता का अपहरण अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए किया था। और उसने सीता को ससम्मान लंका में रखा, कोई जबरदस्ती नहीं की।"

बस दो-चार दिन में आपको कई जगहों पर ऊपर लिखी बातें पढ़ने को मिलेंगी। और विश्वास जानिए, हममें से अधिकांश ऐसे हैं जो इन बातों पर कहते मिल जाते हैं, बल्कि उनका दृढ़ विश्वास है कि ऐसे लोगों और ऐसे लेखों को इग्नोर कर देना चाहिए।

जबकि होता यह है कि आम जनता जो अपने दैनिक कामों में, रोजमर्रा की जिंदगी में उलझी है, वह इतनी सरल और स्पष्टता से लिखी बात को, इस लॉजिक को सही मान लेती हैं।

पर क्या यह सब सही है? सच में रामायण में ऐसा है?

रामायण के अनुसार, शूर्पणखा बहुत ही गंदी, घिनौनी दिखने वाली, गंदी सोच और व्यवहार वाली स्त्री है। वह वन में सुंदर शरीर के स्वामी राम को देखती है तो उनपर मोहित हो जाती है। माया से (मतलब मेकअप वगैरह करके) राम के पास आती है और उन्हें प्रपोज करती है। यहाँ तक कोई बुराई नहीं है। किसी को कोई पसन्द आ जाये तो प्रपोज करना गलत नहीं है। पर राम द्वारा यह बताने पर कि वे अयोध्या के राजकुमार हैं और वनवास मिलने के कारण अपनी पत्नी और भाई के साथ वन में आए हैं, शूर्पणखा सीता और लक्ष्मण को मार देने की बात कहती है, ताकि राम इत्मीनान से उसके साथ मौज कर सकें। वो सीता को चिपके पेट वाली, कमजोर, बदसूरत वगैरह भी कहती है।
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ऐसी बातों को सुनकर, मतलब कोई आपकी पत्नी की बेइज्जती करे, उसे और आपके भाई को मारने की बात करे, तो किसी को भी गुस्सा आएगा। पर समझदार लोग इन बातों को किसी पागल का प्रलाप मानकर हँसी में उड़ा देते हैं।

ऐसी बातों को सुनकर राम परिहास में कहते हैं कि वे तो अपनी पत्नी के साथ हैं, लक्ष्मण नहीं हैं, अतः वो लक्ष्मण से पूछ ले। लक्ष्मण की सहमति हो तो उनसे विवाह कर लें। फिर वो लक्ष्मण के पास जाती है और उन्हें प्रपोज करती है। लक्ष्मण उत्तर देते हैं कि वे तो राम और सीता की सेवा करते हैं, अगर शूर्पणखा को अपना लेंगे तो उसे भी राम और सीता की सेवा करनी पड़ेगी।

दोनों पुरुषों द्वारा नकारे जाने पर वह गुस्से में आकर सीता को मारने दौड़ती है, जिसपर राम शूर्पणखा को दंड देने के लिए लक्ष्मण को आदेश देते हैं और लक्ष्मण उसके कान और नाक काट लेते हैं।  (अरण्यकाण्ड, 17वाँ और 18वाँ सर्ग)

बताइए। प्रपोजल पर कोई दिक्कत नहीं थी किसी को, धमकी तक तो बर्दाश्त कर लिया, पर अटेम्प टू मर्डर पर सजा तो मिलेगी न?

फिर शूर्पणखा दंडकारण्य के गवर्नर (रावण के ऑक्युपाइड साम्राज्य के उस क्षेत्र के गवर्नर) खर के पास जाती है। खर अपने सेनापतियों दूषण और त्रिशरा तथा चौदह हजार सेना के साथ राम-लक्ष्मण को मारने आता है, जिन्हें अकेले राम लगभग सवा घण्टे (तीन घड़ी) में निपटा देते हैं। [एक मुहूर्त = दो घड़ी, एक घड़ी = 24 मिनट]

उन राक्षसों में से एक अकम्पन जान बचाकर निकल जाता है और लंका पहुँचकर इस युद्ध के बारे में रावण को बताता है। रावण राम-लक्ष्मण को मारने और सीता को उठा लाने की तैयारी करता है। वह मारीच के पास जाता है। मारीच उसे राम की ताकत बताता है, बताता है कि राम से लड़कर क्यों अपनी जान खामख्वाह गंवाना चाहते हो, बेमौत मरोगे, इत्यादि। यह सब सुनकर रावण ठंडा हो जाता है और अपने महल लौट जाता है। (अरण्यकाण्ड, 31वाँ सर्ग)

कुछ समय (दिन, या हफ्ते) बाद शूर्पणखा रावण के पास आती है और सीता जी के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन करती है। ऐसा वर्णन कि मैं उसे यहाँ लिख नहीं सकता। कहती है कि उसने सोचा कि ऐसी सुंदर स्त्री तो उसके भाई रावण के पास होनी चाहिए, तो वह अपने भाई के लिए उस स्त्री को उठाने गई, और दुष्ट लक्ष्मण ने इस बात पर उसके कान-नाक काट लिए। (अरण्यकाण्ड, सर्ग 34, श्लोक 21)

बताइए, वह अपनी बात, अपनी कामपिपासा छुपा ले गई, सीता को मारने चली थी, और रावण को बता रही है कि वो तो रावण के लिए सीता को उठा रही थी। ऐसी तो सत्यवादी बहन थी वह।

रावण शूर्पणखा का बदला लेने के लिए नहीं, बल्कि स्त्रियों के प्रति अपनी भूख के कारण सीता को किडनैप करने गया था।

वह पहले भी कई स्त्रियों का हरण कर चुका था। वो यह बात खुद कहता है कि मैं इधर-उधर से बहुत सारी सुंदर स्त्रियों को हर लाया हूँ (अरण्यकाण्ड, 48वां सर्ग, श्लोक 28)। क्या इन बहुत सारी सुंदर स्त्रियों के पतियों ने भी उसकी बहन का अपमान किया था?

उसने भोगवती नगरी में नागराज वासुकी को हराया था। तक्षक को हराकर उसकी पत्नी को उठा लाया था। पर सीता के मामले में, अपने समान बलशाली खर, दूषण और त्रिशरा, और चौदह हजार राक्षसों का राम द्वारा बस सवा घण्टे में वध कर दिए जाने के कारण, फिर मारीच के समझाने के कारण उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह राम से लड़कर सीता को उठा सके। तो उस तथाकथित महान रावण ने चोरों की भाँति सीता का हरण किया। बेचारे मारीच की बलि चढ़ा दी, जो पहले भी राम से दो बार पिट चुका था।

किडनैप कर लिया, फिर भी सीता के साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, तो इसपर भी सुन लीजिए।

जब रावण सीता जी का हरण कर लंका लाया और अपने महल के ऐश्वर्य को दिखा-दिखाकर उन्हें ललचाने का, बात मान जाने का प्रलोभन दे रहा था, तब माता सीता उसे खूब खरीखोटी सुनाने के बाद कहती हैं कि तू इस संज्ञाशून्य शरीर को बांधकर रख या काट, मैं खुद ही इस शरीर और जीवन को नहीं रखना चाहती। (अरण्यकाण्ड, 56वां सर्ग, श्लोक 21)

मतलब क्या हुआ इस बात का? यही न कि तू मेरे निकट आएगा उससे पहले ही मैं मर जाऊंगी।

इसपर 'स्त्री को ससम्मान रखने वाला महान रावण' कहता है कि ठीक है, मैं तुझे 12 महीने का समय देता हूँ। इतने समय में तू अपनी मर्जी से मेरे पास आ जाना। और अगर 12 महीने बाद भी तू मेरे पास नहीं आई तो मेरे सुबह के भोजन के लिए रसोइए तुझे काटकर पका देंगे। (अरण्यकाण्ड, 56वां सर्ग, श्लोक 24, 25)

कितना महान था न रावण?
----------अजीत प्रताप सिंह जी का लेखन

सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

चिन्तन

 

चिन्तन मनन की बातें

संस्कार का निर्माण कैसे हो ?

लंदन में ही एक बहन हैं फ़ेसबुक मित्र उन्होंने यह प्रश्न किया है । उनके दो बच्चे बड़े हो रहे हैं और वे चाहती हैं कि पश्चिमी नंगेपन का उनके बच्चों पर कम से कम प्रभाव पड़े ।

प्रसन्नता यह है कि वे बहन स्वयम् भी पढ़ी लिखी हैं और इससे बड़ी प्रसन्नता यह है कि वे लंदन तथा पश्चिमी नंगेपन की भयावहता को समझ रही हैं । तीसरी प्रसन्नता यह है कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा कि प्रश्न पूछा ।

मित्रों , सनातन हिन्दू धर्म के एक एक शब्द पारिभाषिक हैं । एक एक शब्दों पर हमारे महात्माओं विद्वानों ऋषियों ने मंथन किया है और एक एक परिभाषा आधुनिक विज्ञान चकित होकर देख रहा है ।

तो संस्कार ( अथवा विकार ) का निर्माण कैसे होता है ?

क्या आँख से किसी वस्तु को देखने से संस्कार का निर्माण हो सकता है ? उत्तर है “ नहीं “ । हमारे दिनेश चन्द्र सरोज जी दिल्ली में हैं और उन्होंने भी स्वयम् सैकड़ों बार देखा होगा कि एक विशेष समुदाय फल सब्ज़ियों भोजन इत्यादि में “ थू+क” देता है ।

क्या ऐसा देखने से सरोज जी में वैसा संस्कार पड़ गया ? नहीं न !

अब आते हैं , मन पर । क्या मन के उपर बार बार देखने से संस्कार पड़ता है ? उत्तर है कि नहीं । जैसे आँखें क्षणिक हैं वैसे ही मन भी क्षणिक है । यह बात बौद्ध भी मानते हैं कि मन के द्वारा संस्कार ( अथवा विकार ) का निर्माण नहीं होता ।

तब कैसे होता है ?

तो इसका उत्तर है कि यह बुद्धि के द्वारा होता है ।

अब प्रश्न उठता है कि तब सभी फल सब्ज़ी अथवा भोजनालय चलाने वालों पर ऐसा संस्कार ( अथवा विकार ) पड़ चुका होता ।

इसको समझने के लिये और अंतरंग चलना पड़ेगा । बुद्धि के दो अवयव होते हैं ।

अपेक्षा बुद्धि
उपेक्षा बुद्धि..

अर्थात् कोई घटना आपके सामने घट रही है अथवा आप कोई वृतांत सुन रहे हैं । यदि आपने उसमें अपेक्षा कर दी तो संस्कार पड़ने लगेंगे और यदि उपेक्षा कर दी तो संस्कार नहीं पड़ेंगे ।

जब कोई सनातन हिन्दू धर्मी फल विक्रेता उन लोगों को क्रिया विशेष करता हुआ देखता है और उपेक्षा कर देता है तो उस पर वह संस्कार नहीं पड़ता ।

अब ठीक यही फ़ॉर्मूला..

बलात्कार
लड़की का दुपट्टा छीनना
राहजनी
चोरी चकारी
लव छेहाद

इत्यादि में लगा लें
और देख लें कि
इन सब बुराइयों में अपेक्षा बुद्धि होने के कारण
समुदाय विशेष
भारत के हर शहर गाँव में ही नहीं
इंग्लैंड अमेरिका में भी उपद्रव मचाये हुये हैं ।

उन बहन को यही समझाया कि बच्चों को बुराइयों के प्रति उपेक्षा करना सिखायें और उचित क्रियाओं के प्रति अपेक्षा । संस्कार का निर्माण होता चला जायेगा । -राजशेखर जी कहिन
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शनिवार, 14 अक्टूबर 2023

उर्मिला 32

 

उर्मिला 32

    "मेरे एक प्रश्न का उत्तर ढूंढोगी उर्मिला?" लम्बे समय से पसरी शान्ति को भंग करते हुए माता कैकई ने अपने निकट ही बैठी उर्मिला से कहा।
     "कहिये न माँ! वैसे यह आवश्यक नहीं कि हमारे पास हर प्रश्न के उत्तर हों ही..." उर्मिला ने माता की आंखों में अपनी दृष्टि गड़ाई!
      "मैं नहीं जानती कि इसका उत्तर हमें मिलेगा भी या नहीं, पर यह प्रश्न मुझे सदैव पीड़ा देता रहेगा कि नियति ने इस अपराध के लिए मेरा ही चयन क्यों किया? इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि राम को सबसे अधिक प्रेम मैंने किया है। वह महारानी कौशल्या से अधिक मेरे आँचल में पला है। मेरे दुर्भाग्य के उन चार दिनों को निकाल दो तो अब भी राम को मुझसे अधिक प्रेम कोई नहीं करता, कोई कर भी नहीं सकता। फिर मुझसे ही यह अपराध क्यों हुआ उर्मिला? मैं जानती हूँ कि कोई माया ही थी जिसने उन चार दिनों में मेरी मति फेर दी थी, अन्यथा जिस राम के चार दिन के लिए ननिहाल जाने का समाचार सुन कर मैं तड़प उठती थी, उसके लिए मैं चौदह वर्ष का वनवास मांगती? पर ईश्वर ने इस अपराध के लिए मेरा ही चयन क्यों किया?" कैकई ने जैसे पहली बार अपना मन खोल दिया था। उनके भीतर का लावा बाहर निकल रहा था।
      कुछ देर तक सोचने के बाद उर्मिला ने कहा,"इस प्रश्न का कोई एक उत्तर तो नहीं हो सकता माता! कौन जाने, भइया के जिस वनवास को हम अपने कुल के लिए अभिशाप मान रहे हों, वह संसार के लिए वरदान हो? नियति यदि भइया जैसे यशश्वी युवराज को चौदह वर्ष तक के लिए वन में ले गयी है तो उसकी कोई तो योजना होगी न! अप्रत्याशित घटनाओं के परिणाम भी अप्रत्याशित ही होते हैं माता! फिर नियति की योजनाओं को अशुभ मान कर शोक क्यों मनाना?"
      "मेरे प्रश्न को घुमाओ मत उर्मिला! मैंने यह प्रश्न तुमसे इसलिए किया है क्योंकि तुम जनकपुर की बेटी हो। तुम्हारे नगर में आध्यात्मिक विमर्शों की सबसे प्राचीन परम्परा है। तुम्हारा धर्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। मेरे प्रश्न का उत्तर ढूंढो उर्मिला, कि नियति ने मेरा ही चयन क्यों किया?"
       उर्मिला के अधरों पर एक पवित्र मुस्कान तैर गयी। कहा, "यदि मैं कहूँ कि आपके दुर्भाग्य का कारण आपका प्रेम है, तो माता? तनिक सोचिये तो! क्या चक्रवर्ती महाराज दशरथ के प्रिय सुपुत्र को संसार की कोई भी शक्ति राज से हटा कर वन में भेज सकती थी? अपने एक बाण से ताड़का और सुबाहू जैसे विकट राक्षसों का वध करने वाले भइया की आवश्यकता यदि वन में थी, तो नियति किसे माध्यम बनाती? उन्हें बल से अयोध्या से दूर नहीं किया जा सकता था, उनसे यह कार्य 'प्रेम' ही करा सकता था। और इसी लिए नियति ने उसका चुनाव किया, जिसे राम से सर्वाधिक प्रेम था और जिनसे राम को भी सर्वाधिक प्रेम था।"
       माता कैकई की आंखें खुली रह गईं! ऐसा नहीं था कि उर्मिला ने उत्तर ने उन्हें पूरी तरह संतुष्ट कर दिया था, पर वे उनसे सहमत अवश्य दिख रही थीं।

क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

चिन्तन

 

चिन्तन मनन की बातें

जिस भूमि में जैसे कर्म किए जाते हैं ,वैसे ही संस्कार वह भूमि भी प्राप्त कर लेती है, इसलिए गृहस्थ को अपना घर सदैव पवित्र रखना चाहिए।

मार्कण्डेय पुराण में एक कथा आती है---
  
राम लक्ष्मण वन में प्रवास कर रहे थे, मार्ग में एक स्थान पर लक्ष्मण का मन कुभाव से भर गया , मति भ्रष्ट हो गयी, वे सोचने लगे - कैकेयी ने तो वनवास राम को दिया है मुझे नहीं, मैं राम की सेवा के लिए कष्ट क्यों उठाऊँ?

राम ने लक्ष्मण से कहा - इस स्थल की मिटटी अच्छी दीखती है , थोड़ी बाँध लो,लक्ष्मण ने एक पोटली बना ली,मार्ग में जब तक लक्ष्मण उस पोटली को लेकर चलते थे तब तक उनके मन में कुभाव भी बना रहता था , किन्तु जैसे ही उस पोटली को नीचे रखते उनका मन राम सीता के लिए ममता और भक्ति से भर जाता था।

लक्ष्मण ने इसका कारण रामजी से पूछा तो श्रीराम ने कारण बताते हुए कहा - भाई! तुम्हारे मन के इस परिवर्तन के लिए दोष तुम्हारा नहीं बल्कि उस मिट्टी का प्रभाव है , जिस भूमि पर जैसे काम किए जाते हैं, उसके अच्छे बुरे परमाणु उस भूमि भाग में और वातावरण में भी छूट जाते हैं।

जिस स्थान की मिटटी इस पोटली में है, वहाँ पर "सुंद और उपसुंद" नामक दो राक्षसों का निवास था, उन्होंने कड़ी तपस्या के द्वारा ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके अमरता का वरदान माँगा।

ब्रह्मा जी उनकी माँग तो पूरी करना चाहा किन्तु कुछ नियन्त्रण के साथ, उन दोनों भाइयो में बड़ा प्रेम था, अतः उन्होंने कहा कि हमारी मृत्यु केवल आपसी विग्रह से ही हो सके,ब्रह्माजी ने वर दे दिया।

वरदान पाकर दोनों ने सोचा कि हम कभी आपस में झगड़ने वाले तो है नहीं, अतः अमरता के अहंकार में देवों को सताना शुरु कर दिया।

जब देवों ने ब्रह्माजी का आश्रय लिया तो ब्रह्माजी ने तिलोत्तमा नाम की अप्सरा का सर्जन करके उन असुरों के पास भेजा।

" सुंद और उपसुंद" ने इस सौन्दर्यवती अप्सरा को देखकर कामांध हो गये और अपनी अपनी कहने लगे तब तिलोत्तमा ने कहा कि मैं तो विजेता के साथ विवाह करुँगी , तब दोनों भाईयों ने विजेता बनने के लिए ऐसा घोर युद्ध किया कि दोनो मर गये।

वे दोनों असुर जिस स्थान पर झगड़ते हुए मरे थे , उसी स्थान की यह मिटटी है, अतः इस मिटटी में भी द्वेष , तिरस्कार , और वैर के सिंचन हो गया है।
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रविवार, 8 अक्टूबर 2023

कहानी बेटा

 

कहानी

" माँ, मुझे कुछ महीने के लिये विदेश जाना पड़ रहा है।

तेरे रहने का इन्तजाम मैंने करा दिया है

तक़रीबन 32 साल के , अविवाहित डॉक्टर सुदीप ने देर रात घर में घुसते ही कहा...

" बेटा, तेरा विदेश जाना ज़रूरी है क्या ?"

माँ की आवाज़ में चिन्ता और घबराहट झलक रही थी।

" माँ, मुझे इंग्लैंड जाकर कुछ रिसर्च करनी है। वैसे भी कुछ ही महीनों की तो बात है।

" सुदीप ने कहा।

" जैसी तेरी इच्छा।

" मरी से आवाज़ में माँ बोली।

और छोड़ आया सुदीप अपनी माँ 'प्रभा देवी' को पड़ोस वाले शहर में स्थित एक वृद्धा-आश्रम में।

वृद्धा-आश्रम में आने पर शुरू-शुरू में हर बुजुर्ग के चेहरे पर जिन्दगी के प्रति हताशा और निराशा साफ झलकती थी।

पर प्रभा देवी के चेहरे पर वृद्धा-आश्रम में आने के बावजूद कोई शिकन तक न थी।

एक दिन आश्रम में बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बात कर रहे थे। उनमें दो-तीन महिलायें भी थीं।

उनमें से एक ने कहा, " डॉक्टर का कोई सगा-सम्बन्धी नहीं था जो अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया।"

तो वहाँ बैठी एक महिला बोली, " प्रभा देवी के पति की मौत जवानी में ही हो गयी थी।

तब सुदीप कुल चार साल का था।

पति की मौत के बाद, प्रभा देवी और उसके बेटे को रहने और खाने के लाले पड़ गये।

तब किसी भी रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की।

प्रभा देवी ने लोगों के कपड़े सिल-सिल कर अपने बेटे को पढ़ाया। बेटा भी पढ़ने में बहुत तेज था, तभी तो वो डॉक्टर बन सका।"

वृद्धा-आश्रम में करीब 6 महीने गुज़र जाने के बाद एक दिन प्रभा देवी ने आश्रम के संचालक राम किशन शर्मा जी के ऑफिस के फोन से अपने बेटे के मोबाईल नम्बर पर फोन किया, और कहा, " सुदीप तुम हिंदुस्तान आ गये हो या अभी इंग्लैंड में ही हो ?"

" माँ, अभी तो मैं इंग्लैंड में ही हूँ।" सुदीप का जवाब था।

तीन-तीन, चार-चार महीने के अंतराल पर प्रभा देवी सुदीप को फ़ोन करती उसका एक ही जवाब होता, " मैं अभी वहीं हूँ, जैसे ही अपने देश आऊँगा तुझे बता दूँगा।"

इस तरह तक़रीबन दो साल गुजर गये। अब तो वृद्धा-आश्रम के लोग भी कहने लगे कि देखो कैसा चालाक बेटा निकला, कितने धोखे से अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया।

आश्रम के ही किसी बुजुर्ग ने कहा, " मुझे तो लगता नहीं कि डॉक्टर विदेश-पिदेश गया होगा, वो तो बुढ़िया से छुटकारा पाना चाह रहा था।"

तभी किसी और बुजुर्ग ने कहा, " मगर वो तो शादी-शुदा भी नहीं था।"

" अरे होगी उसकी कोई 'गर्ल-फ्रेण्ड' , जिसने कहा होगा

पहले माँ के रहने का अलग इंतजाम करो, तभी मैं तुमसे शादी करुँगी।"

दो साल आश्रम में रहने के बाद अब प्रभा देवी को भी अपनी नियति का पता चल गया। बेटे का गम उसे अंदर ही अंदर खाने लगा। वो बुरी तरह टूट गयी।

दो साल आश्रम में और रहने के बाद एक दिन प्रभा देवी की मौत हो गयी। उसकी मौत पर आश्रम के लोगों ने आश्रम के संचालक शर्मा जी से कहा, " इसकी मौत की खबर इसके बेटे को तो दे दो।

हमें तो लगता नहीं कि वो विदेश में होगा, वो होगा यहीं कहीं अपने देश में।"

" इसके बेटे को मैं कैसे खबर करूँ । उसे मरे तो तीन साल हो गये।"

शर्मा जी की यह बात सुन वहाँ पर उपस्थित लोग सनाका खा गये।

उनमें से एक बोला, " अगर उसे मरे तीन साल हो गये तो प्रभा देवी से मोबाईल पर कौन बात करता था।"

" वो मोबाईल तो मेरे पास है, जिसमें उसके बेटे की रिकॉर्डेड आवाज़ है।" शर्मा जी बोले।

"पर ऐसा क्यों ?" किसी ने पूछा।

तब शर्मा जी बोले कि करीब चार साल पहले जब सुदीप अपनी माँ को यहाँ छोड़ने आया तो उसने मुझसे कहा, " शर्मा जी मुझे 'ब्लड कैंसर' हो गया है। और डॉक्टर होने के नाते मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि इसकी आखिरी स्टेज में मुझे बहुत तकलीफ होगी।

मेरे मुँह से और मसूड़ों आदि से खून भी आयेगा। मेरी यह तकलीफ़ माँ से देखी न जा सकेगी।

वो तो जीते जी ही मर जायेगी।

मुझे तो मरना ही है पर मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण मेरे से पहले मेरी माँ मरे। मेरे मरने के बाद दो कमरे का हमारा छोटा सा 'फ्लेट' और जो भी घर का सामान आदि है वो मैं आश्रम को दान कर दूँगा।"

यह दास्ताँ सुन वहाँ पर उपस्थित लोगों की आँखें झलझला आयीं।

प्रभा देवी का अन्तिम संस्कार आश्रम के ही एक हिस्से में कर दिया गया। उनके अन्तिम संस्कार में शर्मा जी ने आश्रम में रहने वाले बुजुर्गों के परिवार वालों को भी बुलाया।

*माँ-बेटे की अनमोल और अटूट प्यार की दास्ताँ का ही असर था कि कुछ बेटे अपने बूढ़े माँ/बाप को वापस अपने घर ले गये...!!*
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रविवार, 24 सितंबर 2023

कहानी - पता बेटे का

 

कहानी
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रमाशंकर की कार जैसे ही सोसायटी के गेट में घुसी, गार्ड ने उन्हें रोक कर कहा..
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“साहब, यह महाशय आपके  पते की चिट्ठी ले कर न जाने कब से भटक रहे हैं।”
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रमाशंकर ने चिट्ठी ले कर देखा,  पता तो उन्हीं का था, पर जब उन्होंने चिट्ठी लाने वाले की ओर देखा तो उसे पहचान नहीं पाए।
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चिट्ठी एक बहुत थके से बुज़ुर्ग ले कर आए थे। उनके साथ बीमार सा एक लड़का भी था।
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उन्हें देख कर रमाशंकर को तरस आ गया। शायद बहुत देर से वे घर तलाश रहे थे।
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उन्हें अपने घर ला कर कहा, “पहले तो आप बैठ जाइए।” इसके बाद नौकर को आवाज़ लगाई, “रामू इन्हें पानी ला कर दो।”
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पानी पी कर बुज़ुर्ग ने थोड़ी राहत महसूस की तो रमाशंकर ने पूछा, “अब बताइए किससे मिलना है?”
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“तुम्हारे बाबा देवकुमार जी ने भेजा है। बहुत दयालु हैं वह। मेरे इस बच्चे की हालत बहुत ख़राब है।
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गाँव में इलाज नहीं हो पा रहा था। किसी सरकारी अस्पताल में इसे भर्ती करवा दो बेटा, जान बच जाए इसकी।
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इकलौता बच्चा है,” इतना कहते कहते बुज़ुर्ग का गला रुँध गया।
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रमाशंकर ने उन्हें गेस्टरूम में ठहराया। पत्नी से कह कर खाने का इंतज़ाम कराया।
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अगले दिन फ़ैमिली डॉक्टर को बुलाकर सारी जाँच करवा कर इलाज शुरू करवा दिया।
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बुज़ुर्ग कहते रहे कि किसी सरकारी अस्पताल में करवा कर दो, पर रमाशंकर ने उसकी एक नहीं सुनी। बच्चे का पूरा इलाज अच्छी तरह करवा दिया।
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बच्चे के ठीक होने पर बुज़ुर्ग गाँव जाने लगे तो रमाशंकर को तमाम दुआएँ दीं।
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रमाशंकर ने दिलासा देते हुए एक चिट्ठी दे कर कहा, “इसे पिताजी को दे दीजिएगा।”
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गाँव पहुँच कर देवकुमारजी को वह चिट्ठी दे कर बुज़ुर्ग बहुत तारीफ़ करने लगा..
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“आप का बेटा तो देवता है। कितना ध्यान रखा हमारा! अपने घर में रख कर इलाज करवाया।”
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देवकुमार चिट्ठी पढ़ कर दंग रह गए...
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उसमें लिखा था, “अब आप का बेटा इस पते पर नहीं रहता ... कुछ समय पहले ही मैं यहाँ रहने आया हूँ। पर मुझे भी आप अपना ही बेटा समझें। इनसे कुछ मत कहिएगा।
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आपकी वजह से मुझे इन अतिथि देवता से जितना आशीर्वाद और दुआएँ मिली हैं, उस उपकार के लिए मैं आपका सदैव आभारी रहूँगा। .. आपका रमाशंकर।”
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देवकुमार सोचने लगे, आज भी दुनिया में इस तरह के लोग हैं क्या..?
--इधर उधर बिखरी बातें !!
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शनिवार, 23 सितंबर 2023

पहले सुनें

 

आओ चिन्तन करें !!

मम्मी... ..मम्मी!  यह सेक्स क्या होता है?"

सात- आठ साल के राहुल ने जब  किचन में  काम करती अपनी  मां से पूछा ....तो एकाएक उसके हाथ रुक।गए ..... दिमाग में अनेकों विचार आने लगे ।

फिर गुस्से में बोली- "क्या बकवास करता है? कैसे बच्चों के संग रहने लगा है?  क्या- क्या देखता रहता है? आने दे अपने बाप को.... आज तेरी कुटाई ना करवाई , तो देखना!"

राहुल मायूस सा.. लैपटॉप पर काम करती  अपनी बड़ी बहन के पास आया -"दीदी! यह सेक्स क्या होता है?
"क्या?  तेरा दिमाग खराब है? पढ़ता लिखता नहीं क्या तू? आने दे पापा को। करती हूं तेरी शिकायत"!

फिर राहुल डरते हुए अपने बड़े भाई के पास पहुंचा- "भैया भैया ! सेक्स क्या होता है?"
"अबे !तेरा दिमाग खराब है। यही पढ़ा रहे क्या स्कूल में आजकल ? चल भाग यहां से"।

शाम को पापा के आने पर सब इकट्ठा हुए......
राहुल की शिकायत जो करनी थी।☹️☹️ 
राहुल ने.... सबका मुंह देखते हुए अपने पापा से पूछा - " पापा पापा ! यह सेक्स क्या होता है?" 

अब तो  पापा जी भी सकपका  गए .....और अचकचाते  हुए बोले -  "क्या बकवास लगा रखी है? आजकल यही सब सीख रहा क्या तू? तेरी शिकायत करता हूं पीटीएम में!"

राहुल चारों का मुंह देखते हुए- "अरे! कोई तो बता दो । मैम ने यह फॉर्म भरने को कहा है ।....इसमें सेक्स के कॉलम के आगे क्या लिखूं?.""......

क्या आपको भी सिर्फ सुनने की आदत है?...
समझने की नहीं । खासतौर से तब.... जब आपके बच्चे आपसे बात करें । तो आपको बच्चे पर नहीं...... स्वयं पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।🤔🤔

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बुधवार, 20 सितंबर 2023

प्रेरणा पाथेय

 सूचना


प्रेरणा पाथेय के व्हाट्सएप को meta द्वारा ब्लॉक किया गया है ।।।

रविवार, 17 सितंबर 2023

पात्रता

 कहानी


जंगल में शेर शेरनी शिकार के लिये दूर तक गये अपने बच्चों को अकेला छोडकर।

जब देर तक नही लौटे तो बच्चे भूख से छटपटाने लगे.

उसी समय एक बकरी आई उसे दया आई और उन बच्चों को दूध पिलाया फिर बच्चे मस्ती करने लगे.

तभी शेर शेरनी आये. बकरी को देख लाल पीले होकर शेर हमला करता,

उससे पहले बच्चों ने कहा इसने हमें दूध पिलाकर बड़ा उपकार किया है नही तो हम मर जाते।

अब शेर खुश हुआ और कृतज्ञता के भाव से बोला हम तुम्हारा उपकार कभी नही भूलेंगे, जाओ आजादी के साथ जंगल मे घूमो फिरो मौज करो।

अब बकरी जंगल में निर्भयता के साथ रहने लगी यहाँ तक कि शेर के पीठ पर बैठकर भी कभी कभी पेडो के पत्ते खाती थी।

यह दृश्य चील ने देखा तो हैरानी से बकरी को पूछा तब उसे पता चला कि उपकार का कितना महत्व है।

चील ने यह सोचकर कि एक प्रयोग मैं भी करती हूँ,
चूहों के छोटे छोटे बच्चे दलदल मे फंसे थे निकलने का प्रयास करते पर कोशिश बेकार ।

चील ने उनको पकड पकड कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया.

बच्चे भीगे थे सर्दी से कांप रहे थे तब चील ने अपने पंखों में छुपाया, बच्चों को बेहद राहत मिली.

काफी समय बाद चील उडकर जाने लगी तो हैरान हो उठी चूहों के बच्चों ने उसके पंख कुतर डाले थे।

चील ने यह घटना बकरी को सुनाई तुमने भी उपकार किया और मैंने भी फिर यह फल अलग क्यों? ?

बकरी हंसी फिर गंभीरता से कहा....
उपकार करो,
तो शेरों पर  करो
चूहों पर नही।
क्योंकि कायर कभी उपकार को याद नही रखते और बहादुर  कभी उपकार नही भूलते ।  (बहुत ही गहरी बात है.....  )
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सोमवार, 11 सितंबर 2023

छुपा सच

 

चिन्तन की धारा...
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   पिछले दो हजार साल से तुम गुलाम रहे । तुम्हारी गुलामी और तुम्हारी गरीबी ने पश्चिम को यह खयाल दे दिया है कि तुम किसी कीमत के नहीं हो। तुम जिंदा भी नहीं हो। तुम मुर्दों की एक जमात हो। और जो लोग मुझसे पहले पश्चिम गए—विवेकानंद, रामतीर्थ, योगानंद और दूसरे हिंदू संन्यासी—उनमें से किसी का अपमान पश्चिम में नहीं हुआ। कोई दरवाजे उनके लिए बंद नहीं हुए। क्योंकि उन्होंने झूठ का सहारा लिया। उन्होंने बुद्ध के साथ जीसस की तुलना की, उन्होंने उपनिषद के साथ गीता की तुलना की, गीता के साथ बाइबिल की तुलना की। पश्चिम के लोगों को और भी गौरवमंडित किया। गुलाम तुम थे, गरीब तुम थे। तुम्हारे संन्यासियों ने तुम्हें आध्यात्मिक रूप में भी दरिद्र साबित किया। क्योंकि उन्होंने तुम्हारी ऊंचाइयों को भी पश्चिम की साधारण नीचाइयों तक खींच कर खड़ा कर दिया।

मेरी स्थिति एकदम अलग थी। मैंने पश्चिम से कहा कि भारत आज गरीब है, हमेशा गरीब नहीं था। एक दिन था कि सोने की चिड़िया था। और भारत ने जो ऊंचाइया पायी हैं, उनके तुमने सपने भी नहीं देखे। और तुम जिसको धर्म कहते हो उसको भार की ऊंचाइयों के समक्ष धर्म भी नहीं कहा जा सकता। जीसस मांसाहारी हैं, शराब पीते हैं। भारत का कोई धर्म यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसका परम श्रेष्ठ पुरुष मांसाहारी हो, शराब पीता हो; जिसमें इतनी भी करुणा न हो कि अपने खाने के लिए जीवन को बर्बाद करता हो; जो अपने भोजन के लिए इतना अनादर करता हो जीवन का और जो व्यक्ति शराब पीता हो उसे ध्यान की ऊंचाइयों को तो पाने का सवाल ही नहीं उठता। शराब तो दुखी लोग पीते हैं, परेशान लोग पीते हैं, तनाव से भरे लोग पीते हैं। क्योंकि शराब का गुण तुम जिस हालत में हो उसे भुला देने का है। अगर तुम परेशान हो, पीड़ित हो, शराब पीकर थोड़ी देर को तुम भूल जाते हो। दूसरे दिन फिर दुख वापिस खड़े हो जाएंगे। शराब दुखों को मिटाती नहीं, सिर्फ भुलाती है। ध्यान दुखों को मिटाता है, भुलाता नहीं है। और ध्यान और शराब विरोधी हैं।

ईसाइयत में ध्यान के लिए कोई जगह नहीं है।
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    लेकिन  विवेकानंद और योगानंद और रामतीर्थ सिर्फ, प्रशंसा पाने के लिए पश्चिम को यह समझाने की कोशिश करते रहे कि जीसस उसी कोटि में आते हैं, जिसमें बुद्ध आते हैं। जिसमें महावीर आते हैं। यह झूठ था। और चूंकि मैंने वही कहा जो सच था, स्वभावतः मेरे लिए द्वार पर द्वार बंद होते चले गए। मैंने नहीं स्वीकार करता हूं कि जीसस के कोई भी वचनों में वैसी ऊंचाई है जो उपनिषद में है या उनके जिन में कोई ऐसी खूबी है जो बुद्ध के जीवी में है। उनकी खूबियां साधारण हैं। कोई आदमी पानी पर चल भी सके तो ज्यादा से ज्यादा जादूगर हो सकता है। और पहली तो बात यह है कि वे कभी पानी पर चले इसका कोई उल्लेख सिवाय ईसाइयों की खुद की किताब को छोड़कर किसी और किताब मैं नहीं है। अगर जीसस पानी पर चले तो इसमें कौन सा अध्यात्म है? पहली बात तो चले नहीं। अगर चले तो हो तो पोप को कम से कम किसी स्वीमिंग पूल पर ही चल कर बता देना चाहिए। स्वीमिंग पूल भी छोड़ो—बाथ टब। उतना भी प्रमाण काफी होगा क्योंकि वे प्रतिनिधि हैं और इन्फालिबल—उनसे कोई भूल नहीं होती। और अगर कोई आदमी पानी पर चला भी हो तो इससे अध्यात्म का क्या संबंध है?

रामकृष्ण के पास एक आदमी पहुंचा। वह एक पुराना योगी था। रामकृष्ण से उम्र में ज्यादा था। रामकृष्ण गंगा के तट पर बैठे थे और उस आदमी ने आकर कहा कि मैंने सुना है तुम्हें लोग पूजते हैं। लेकिन अगर सच में तुम्हारे जीवन में अध्यात्म है तो आओ, मेरे साथ गंगा पर चलो।

रामकृष्ण ने कहा, थके—मांदे हो थोड़ा बैठ जाओ, फिर चल लेंगे। अभी कहीं जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। और तब तक कुछ थोड़ा परिचय भी हो ले। परिचय भी नहीं है। पानी पर चलने में तुम्हें कितना समय लगा सीखने में?

उस आदमी ने कहा, अठारह वर्ष। रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मैं तो पानी पर नहीं चला। क्योंकि दो पैसे में गंगा पार कर जाता हूं। दो पैसे का काम अठारह वर्ष में समझना मैं मूर्खता समझता हूं, अध्यात्म नहीं। और इसमें कौन सा अध्यात्म है कि तुम पानी पर चल लेते हो? इससे तुमने जीवन का कौन सा रहस्य पा लिया है?

एक घटना मुझे स्मरण आती है जो तुम्हें फर्क को समझाएगी। जीसस के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने एक मुर्दे आदमी को जिंदा किया। जरा सोचने की बात है कि मुर्दे रोज मरते हैं। एक को ही जिंदा किया! जो आदमी मुर्दों को जिंदा कर सकता था, वह थोड़ा आश्चर्यजनक है कि उसके एक को ही जिंदा किया और वह भी उसका अपना मित्र था—लजारस। मामला बिलकुल बनाया हुआ है। लजारस एक गुफा में लेटा हुआ है और जीसस बाहर आकर आवाज देते हैं: लजारस, उठो, मृत्यु से बाहर जीवन में आओ! और लजारस तत्काल गुफा के बाहर आ जाते हैं। अब बहुत सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात, यह आदमी जीसस का बचपन का मित्र था। दूसरी बात, जो आदमी मर जाने के बाद वापस लौटा हो उसके जीवन में कोई क्रांति घटनी चाहिए। लजारस के जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी। इस घटना के अलावा लजारस की बाबत कहीं कोई उल्लेख नहीं है। क्या तुम सोचते हो एक आदमी मर जाए, मृत्यु के पार के जगत को देखकर वापस लौटे और वैसा का वैसा ही बना रहे? और जब एक आदमी को जीसस जिंदा कर सकते थे तो फिर किसी को भी मरने की जूदियों में जरूरत क्या थीं?

इस घटना को मैं इसलिए ले रहा हूं कि ठीक ऐसी ही घटना बुद्ध के जीवन में घटी। वे एक गांव में आए हैं, वहां एक स्त्री का इकलौता बेटा—उसका पति मर चुका है, उसके अन्य बच्चे मरे चुके हैं—एक बेटा जिसके सहारे वह जी रही है वह भी मर गया। तुम सोच सकते हो उसकी स्थिति। वह बिलकुल पागल हो उठी। गांव के लोगों ने कहा कि पागल होने से कुछ भी न होगा। बुद्ध का आगमन हुआ है। ले चलो अपने बेटे को। रख दो बुद्ध के चरण में और कहो उनसे कि तुम तो परम ज्ञानी हो, जिला दो इसे। मेरा सब कुछ छिन गया। इसी एक बेटे के सहारे मैं जी रही थी, अब यह भी छीन गया। अब तो मेरे जीवन में कुछ भी न बचा।

बुद्ध ने उस स्त्री से कहा, निश्चित ही तुम्हारे बेटे को सांझ तक जिला दूंगा। लेकिन उससे पहले तुम्हें एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। तुम अपने गांव में जाओ और किसी घर से थोड़े से तिल के बीज ले जाओ—ऐसे घर से जहां कोई मरा न हो। बस वे बीज तुम ले आओ, मैं तुम्हारे बेटे को जिला दूंगा।

वह पागल औरत स्वभावतः पागल होने की स्थिति में थी, भागी। इस घर में गई, उस घर में गई। लोगों ने कहा तुम कहती हो एक मुट्ठी बीज, हम बैलगाड़ियां भर कर तिल के ढेर लगा सकते हैं मगर हमारे बीज काम न आएंगे। हमारे घर में तो न जाने कितने लोगों की मृत्यु हो चुकी हैं। सांझ होते—होते सारे गांव ने उसे एक ही जवाब दिया कि हमारा बीज तुम जितना चाहो उतना ले लो, लेकिन ये बीज कान न आएंगे। बुद्ध ने बड़ी उलटी शर्त लगा दी। ऐसा कौन सा घर है जिसमें कोई मरा न हो?

दिनभर का अनुभव उस स्त्री के जीवने में क्रांति बन गया, वह वापस आई, उसने बुद्ध के चरण को छुआ और कहा कि भूलें, छोड़ें इस बात को कि लड़का मर गया। यहां जो भी आया है उसको मरना पड़ेगा। तुमने मुझे ठीक शिक्षा दी। अब मैं तुमसे यह चाहती हूं कि इसके पहले मैं मरु, मैं जानना चाहती हूं वह कौन है मेरे भीतर जो जीवन है। मुझे दीक्षा दो।

जो लड़के की जिंदगी मांगने आयी थी। वह अपने जीवन से परिचित होने की प्रार्थना लेकर खड़ी हो गयी। वह संन्यासिनी हो गयी और बुद्ध के जो शिष्य परम अवस्था को उपलब्ध हुए उनमें अग्रणी थी। इसको मैं क्रांति कहता हूं। बुद्ध अगर उस लड़के को जिंदा कर देते तो भी क्या था? एक दिन तो वह मरता ही। लजारस भी एक दिन मरा होगा। लेकिन बुद्ध ने उसे स्थिति का एक आध्यात्मिक रुख, एक नया आयाम ले लिया।

हम हर चीज को ऊपरी और बाहरी तल से देखने के आदी हैं। मैं मानता हूं बुद्ध ने जो किया वह महान है और जो जीसस ने किया वह साधारण है, उसका कोई मूल्य नहीं है। मेरी इन बातों ने पश्चिम को घबड़ा दिया। घबड़ा देने का कारण यह था कि पश्चिम आदी हो गया है एक बात का कि पूरब गरीब है, भेजो ईसाई मिशनरी और गरीबों को ईसाई बना लो। और करोड़ों लोग ईसाई बन रहे हैं। लेकिन जो लोग ईसाई बन रहे हैं पूरब में वे सब गरीब हैं, भिखारी हैं, अनाथ हैं, आदिवासी हैं, भूखे हैं, नंगे हैं। उन्हें धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन्हें स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, दवाइयां चाहिए, उनके बच्चों के लिए शिक्षा चाहिए, कपड़े चाहिए, भोजन चाहिए। ईसाइयत कपड़े और रोटी से उनका धर्म खरीद रही है।

मुझे दुश्मन की तरह देखने का कारण यह था कि मैंने कोई पश्चिम के गरीब को या अनाथ को या भिखमंगे को…और वहां कोई भिखमंगों की कमी नहीं है, सिर्फ अमरीका में तीस मिलियन भिखारी हैं! जो दुनिया के दूसरे भिखारी को ईसाई बनाने में लगे हैं वे अपने भिखारियों के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे ईसाई हैं ही। मैंने जिन लोगों को प्रभावित किया उनमें प्रोफेसर्स थे, लेखक थे, कवि थे, चित्रकार थे, मूर्तिकार थे, वैज्ञानिक थे, आर्किटेक्ट थे, प्रतिभा—संपन्न लोग थे। और यह बात घबराहट की थी कि अगर देश के प्रतिभा—संपन्न लोग मुझसे प्रभावित हो रहे हैं तो यह बड़े खतरे की सूचना है। क्योंकि यही लोग हैं जो रास्ता तय करते हैं दूसरे लोगों के लिए। इनको देखकर दूसरे लोग उन रास्तों पर चलते हैं। इनके पदचिन्ह दूसरों को भी इन्हीं रास्तों पर ले जाएंगे।

और मैंने किसी को भी नहीं कहा कि तुम अपना धर्म छोड़ दो। मैंने किसी को भी हनीं कहा कि तुम कोई नया धर्म स्वीकार कर लो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहा कि तुम समझने की कोशिश करो क्या धर्म है और क्या अधर्म है। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम बुद्धिमान हो और विचारशील हो।

मैंने उन देशों में पहली बार यह जिज्ञासा पैदा की कि जिस पूरब के लोगों को हम ईसाई बनाने के लिए हजारों मिशनरियों को भेज रहे हैं उस पूरब ने आकाश की बहुत ऊंचाइयां छुई हैं। हम अभी जमीन पर घसीटने के योग्य नहीं हैं। उन ऊंचाइयों के सामने उनकी बाइबिल, उनके प्रोफेट, उनके मसीहा, बहुत बचकाने, बहुत अदना, अप्रौढ़ अपरिपक्व सिद्ध होते हैं। इससे एक घबराहट और एक बेचैनी पैदा हो गई।
मेरे एक भी बात का जवाब पश्चिम में नहीं है। मैं तैयार था प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन से व्हाइट हाऊस में डिस्कस करने को, खुले मंच पर, क्योंकि वह फंडामैंटलिस्ट ईसाई हैं। वह मानते हैं कि ईसाई धर्म ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब धर्म थोथे हैं। पोप को मैंने कई बार निमंत्रण दिया कि मैं वेटिकन आने को तैयार हूं, तुम्हारे लोगों के बीच तुम्हारे धर्म के संबंध में चर्चा करना चाहता हूं और तुम्हें चेतावनी देना चाहता हूं कि जिसे तुम धर्म कह रहे हो वह धर्म नहीं है और जो धर्म है तुम्हें उसका पता भी नहीं है। -ओशो रजनीश के उद्गार , कोपले फिर फूट आईं (प्रवचन–01)

शनिवार, 9 सितंबर 2023

ब्रह्मा की आयु

 

वसुधैव कुटुम्बकम की धरती में कण कण में फैला ज्ञान

ब्रह्मा की आयु -
    हिन्दू धर्म में चतुर्युगी व्यवस्था है जिनमे चार युग होते हैं - सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग। हिन्दू धर्म की काल गणना हमारे ग्रंथों की सबसे रोचक जानकारियों में से एक है। इसके विषय में जितना भी जाना जाये वो कम है। इसके अतिरिक्त आश्चर्यजनक रूप से हमारी सहस्त्रों वर्षों पुरानी गणना वैज्ञानिक रूप से बिलकुल सटीक बैठती है।

आइये इस महत्वपूर्ण विषय को जानते हैं।
💠 ६ श्वास से एक विनाड़ी बनती है।
💠 १० विनाडियों से एक नाड़ी बनती है।
💠 ६० नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं।
💠 ३० दिवसों से एक मास (महीना) बनता है।
💠 ६ मास का एक अयन होता है।

🔶  २ अयन का एक मानव वर्ष (मनुष्यों का वर्ष) होता है। हिन्दू धर्म के अनुसार १ मानव वर्ष में ३६० दिवस होते हैं। यहाँ ३६५ वाली गणना नहीं चलती।

🔶 १५ मानव वर्ष के बराबर पित्तरों का १ वर्ष होता है जिसे पितृवर्ष कहते है।

🔶 ३६० मानव वर्षों का एक दिव्य वर्ष होता है। दिव्य वर्ष देवताओं के एक वर्ष को कहते हैं। दैत्यों का एक वर्ष भी इतना ही होता है। बस अंतर ये है कि देवताओं का दिन दैत्यों की रात्रि और देवताओं की रात्रि दैत्यों का दिन होती है। अर्थात देवों और दैत्यों की आयु समान ही होती है बस उसका क्रम उल्टा होता है।

🔶 देवों और दैत्यों की औसत आयु १०० दिव्य वर्ष मानी गयी है, अर्थात मनुष्यों के हिसाब से ३६००० वर्ष।

🔶 १२०० दिव्य वर्षों का एक चरण होता है, अर्थात ४३२००० मानव वर्ष।

💠  सतयुग ४८०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात १७२८००० मानव वर्ष। सतयुग में ४ चरण और भगवान विष्णु के ४ अवतार होते हैं - मत्स्य, कूर्म, वराह एवं नृसिंह।

💠 त्रेतायुग ३६०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात १२९६००० मानव वर्ष। त्रेतायुग में ३ चरण और भगवान विष्णु के ३ अवतार होते हैं - वामन, परशुराम एवं श्रीराम।

💠 द्वापर युग २४०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात ८६४००० मानव वर्ष। द्वापर युग में २ चरण और भगवान विष्णु के २ अवतार होते हैं - बलराम एवं श्रीकृष्ण।

💠 कलियुग १२०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात ४३२००० मानव वर्ष। कलियुग केवल १ चरण का होता है और भगवान विष्णु केवल १ अवतार इस युग में लेंगे - कल्कि।
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चारों युगों को मिला कर एक महायुग (चतुर्युग) बनता है जो कुल १२००० दिव्य वर्षों, अर्थात ४३२०००० मानव वर्षों का होता है। एक चतुर्युग में कुल १० चरण और १० ही श्रीहरि के अवतार होते हैं। अर्थात जिस युग में जितने चरण होते हैं, श्रीहरि उतने ही अवतार लेते हैं।

७१ महायुगों का एक मन्वन्तर होता है जिसमे १ मनु शासन करते हैं। अर्थात ३०६७२०००० (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार) मानव वर्ष।

१००० महायुगों या १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है जो परमपिता ब्रह्मा का आधा दिन माना जाता है। १ कल्प (ब्रह्मा के आधे दिन) में १४ मनु शासन करते हैं और प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि भी अलग-अलग होते हैं। ये १४ मनु हैं:
1. स्वयंभू
2. स्वरोचिष
3. उत्तम
4. तामस
5. रैवत
6. चाक्षुष
7. वैवस्वत - ये अभी वर्तमान के मनु हैं, अर्थात हम अपना जीवन वैवस्वत मनु के शासनकाल में जी रहे हैं। कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं भारद्वाज इस मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं।
8. सावर्णि
9. दक्ष  सावर्णि
10. ब्रम्हा  सावर्णि
11. धर्म  सावर्णि
12. रूद्र  सावर्णि
13. देव  सावर्णि
14. इन्द्र सावर्णि

एक कल्प में ४३२००००००० (चार अरब बत्तीस करोड़) मानव वर्ष होते हैं। एक कल्प में चतुर्युग १००० बार अपने आप को दोहराता है। अर्थात एक कल्प में श्रीराम, श्रीकृष्ण इत्यादि १००० बार जन्म लेते हैं। ये घटनाएं बिलकुल एक समान नहीं होती किन्तु परिणाम सदा समान ही होता है। अर्थात एक कल्प में होने वाला श्रीराम और रावण का प्रत्येक युद्ध बिलकुल एक सा नहीं होगा किन्तु विजय सदैव श्रीराम की ही होगी। एक कल्प के बाद महाप्रलय होता है और भगवान शिव सृष्टि का नाश कर देते हैं। उसके पश्चात ब्रह्मा पुनः सृष्टि की रचना करते हैं।

वैज्ञानिक तथ्य: हिन्दू धर्म के अनुसार एक कल्प में लगभग ४.३ अरब मानव वर्ष होते हैं जिसके बाद सृष्टि का अंत होता है। क्या आपको पता है कि नासा और वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी एवं सूर्य की आयु कितनी है? वो भी बिलकुल ४.३ अरब मानव वर्ष ही है। है ना आश्चर्यजनक?

दो कल्पों, अर्थात २००० महायुगों का ब्रह्मा का पूरा दिन होता है (दिन एवं रात्रि)। अर्थात ८६४००००००० (आठ अरब चौसठ करोड़) मानव वर्ष।

३० ब्रह्मा के दिन १ ब्रह्म मास के बराबर होते हैं, अर्थात २५९२०००००००० (२ खरब उनसठ अरब बीस करोड़) मानव वर्ष।

१२ ब्रह्मा के मास १ ब्रह्मवर्ष कहलाता है, अर्थात ३११०४०००००००० (इकतीस खरब दस अरब चालीस करोड़ मानव वर्ष)।

५० ब्रह्मवर्ष को १ परार्ध कहते हैं, अर्थात १५५५२०००००००००० (पंद्रह नील पचपन खरब बीस अरब) मानव वर्ष।

२ परार्ध ब्रह्मा के १०० वर्ष होते हैं जिसे १ महाकल्प कहते हैं। ये ब्रह्मदेव का पूर्ण जीवनकाल होता है। इसके बाद ब्रह्मा भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ये समय काल ३११०४०००००००००० (इकतीस नील दस खरब चालीस अरब) मानव वर्षों के बराबर है।

हम वर्तमान में वर्तमान ब्रह्मा के ५१ वें वर्ष में, सातवें (वैवस्वत) मनु के शासन में, श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत २०७६ में हैं। इस प्रकार अब तक १५५५२१९७१९६१६३२ (पंद्रह नील पचपन खरब इक्कीस अरब सत्तानवे करोड़ उन्नीस लाख इकसठ हजार छः सौ बत्तीस) वर्ष वर्तमान ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।

ब्रह्मा के १००० दिनों का भगवान विष्णु की एक घटी होती है।

भगवान विष्णु की १२००००० (बारह लाख) घाटियों की भगवान शिव की अर्धकला होती है।

महादेव की १००००००००० (एक अरब) अर्ध्कला व्यतीत होने पर १ ब्रह्माक्ष होता है।

इसके अतिरिक्त पाल्या नामक समय की एक इकाई का वर्णन आता है जो जैन धर्म में मुख्यतः उपयोग में लायी जाती है। एक पल्या भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन बनाने में लगे समय के बराबर होती है, यदि भेंड़ की ऊन का एक रेशा १०० वर्षों में चढ़ाया गया हो। दूसरी परिभाषा के अनुसार पल्या एक छोटी चिड़िया द्वारा किसी एक वर्ग मील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुंए को रिक्त करने में लगे समय के बराबर है, यदि वह प्रत्येक रेशे १०० वर्ष में उठाती है। यह इकाई भगवान आदिनाथ (भगवान शंकर के अवतार) के अवतरण के समय की है, जो जैन मान्यताओं के अनुसार १०००००००००००००० (दस नील) पल्या पहले था। 🙏🏼साभार🙏🏼 --राज सिंह---

गुरुवार, 7 सितंबर 2023

नन्द के आनंद भयो

 

उस स्त्री के लिए आज की भोर कुछ विचित्र, कुछ नवीन, और आशंकाओं से युक्त थी।

जब तक उसका विवाह नहीं हुआ था, वह स्वतंत्र थी। विवाह होते ही वह बंदिनी हो गई। और विडंबना यह कि उसे उसके पति ने नहीं, अपितु उसके भाई ने बंदी बनाया था। आज उसे कुल पच्चीस वर्ष बाद बाहर निकलने की अनुमति मिली थी। उसके भाई, मथुराधीश कंस ने विजयोत्सव का आयोजन किया था। कंस अपने श्वसुर मगधराज सम्राट जरासंध का दाहिना हाथ था। जरासंध के गुट में विदर्भ के राजा भीष्मक, और चेदि के राजा दामघोष भी थे, परन्तु कंस का स्थान इन दोनों से कहीं ऊपर था। भीष्मक पुत्र रुक्मी और दामघोष पुत्र शिशुपाल कंस को अपना आदर्श मानते थे। जरांसन्ध की आज्ञा से, कंस देश-विदेश में जययात्राएं करता रहता था, परन्तु यह प्रथम अवसर था जब वह विजयोत्सव भी मना रहा था। उस स्त्री ने सुना था कि कोई धनुषयज्ञ का आयोजन भी किया जाने वाला था परन्तु पिछले सप्ताह किसी दुष्ट ग्वाले ने समस्त जनता के सम्मुख उस धनुष को तोड़ दिया था। अवश्य ही उसके क्रूर भाई ने उस ग्वाले की हत्या करवा दी होगी।

अपने पिता, शूर नेता देवक के नाम पर उसे देवकी कहा जाता था। दासियों की सहायता से उसे उसके निर्दिष्ट आसन पर बिठा दिया गया। अभी तक आसपास के वातावरण से निर्लिप्त देवकी की तन्द्रा उसके चरणों पर पड़े करस्पर्शों से टूटी। कुछ नवयुवक उसके पैर छू रहे थे। देवकी कुछ न समझने के भाव से  उनकी ओर देख ही रही थी कि उसके कंधे पर एक नारी ने अपनी हथेली रखते हुए कहा, "देवकी, यह हमारे पुत्र हैं, हमारे पति वसुदेव के पुत्र। गद, सारण और सुभद्र।" देवकी अब भी असमंजस में थी। उसके नेत्रों में उस नारी के प्रति भी कोई पहचान के चिह्न नहीं दिख रहे थे। बलवान देहयष्टि की उस नारी ने प्रेम से देवकी का चुबक उठाकर कहा, "मुझे भी नहीं पहचाना देवकी? कैसे पहचानोगी! तुम्हारे और आर्यपुत्र के विवाह के अवसर पर हम तो तुम्हारी राह ही देखते रह गए, और दुष्ट कंस ने तुम्हें मार्ग में ही बंदी बना लिया था। मैं तुम्हारी सपत्नी, आर्यपुत्र वसुदेव की पत्नी रोहिणी हूँ।"
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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼 https://chat.whatsapp.com/D8zUuGbgX7yHUOiN9IvyfP

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पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
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देवकी ने झट से अपनी धोती का छोर अपने दाँतों तले दबाया और रोहिणी के चरणों में झुकने को हुई, कि रोहिणी ने उसे अपने गले से लगा लिया। फिर रोहिणी बोली, "बहन, तेरा-मेरा नाता कुछ विचित्र ही प्रकार का है। यद्यपि पति के पुत्र सभी पत्नियों के साझे होते हैं, जैसे ये गद है, सुभद्र है, परन्तु तेरे गर्भ में अंकुरित बीज का पोषण मेरे गर्भ में हुआ है। तुझे पता है, तेरे सातवें पुत्र राम की माता हूँ मैं?"

जिस स्त्री ने अपने जीवन के पच्चीस वर्ष, पच्चीस वैवाहिक वर्ष, सन्तानमती होने के पश्चात भी संतानहीन होकर व्यतीत किए हों, अनुमान लगाना कठिन है कि यह सब सुनकर उसकी मनःस्थिति कैसी हो रही होगी। देवकी रोहिणी के गले लगकर रोने लगी। जैसे कोई माता अपनी पुत्री को चुप कराती है, वैसे रोहिणी ने देवकी को चुप कराया और कहा, "चुप कर बहन। अब तेरे दुख के दिन समाप्त हुए। मेरा अंतर्मन जानता है कि आज कुछ विशेष होने वाला है। तेरे पुत्र राम और कृष्ण मथुरा में हैं। वे शीघ्र ही यहां उपस्थित होंगे।"

'यहां उपस्थित होंगे', यह सुनकर देवकी ने अपने चारों ओर देखा। अब तक तो वह जैसे खुले नेत्रों से निद्रामग्न थी। अब उसके नेत्र खुले। उसने देखा कि वह एक गोलाकार क्रीड़ास्थल के चारो ओर बनी विशाल संरचना में स्थित एक आसन पर बैठी है। सहस्त्रों दर्शकों से युक्त उस संरचना में देवकी के आसन के ठीक सामने मथुराधीश कंस अपने मागधी अंगरक्षकों के साथ बैठा हुआ है। नीचे क्रीड़ास्थल पर अनेक मल्ल अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। अचानक ही प्रवेशद्वार पर शोर सा उठा। रोहिणी ने देवकी के कंधे झंकझोरते हुए हुए कहा, "देख बहन, वह हमारा राम चला आ रहा है!"

देवकी ने देखा, एक अत्यंत लम्बा-चौड़ा बलिष्ठ युवा जिसके चेहरे पर अभी मूंछों ने आना आरम्भ ही किया है, एक हाथ में ठोस इस्पात की बनी गदा लिए तनिक क्रोधित भाव से सबके सम्मुख उपस्थित हो गया। नीलाम्बर धारी उस युवक ने चारों ओर अपनी सिंहदृष्टि फिराई। दर्शकदीर्घा में उसने गोपों के बीच बैठे नन्द को प्रणाम किया, विशिष्टि पुरुषों की दीर्घा में उसने अक्रूर को पहचाना और प्रणाम किया। स्त्रियों की दीर्घा में उसने अपनी माता रोहिणी को प्रणाम किया। उसने देखा कि उसकी माता अपने निकट खड़ी एक अतिशय दुर्बल स्त्री को प्रणाम करने का संकेत दे रही हैं। राम ने उसे भी प्रणाम किया और अनन्तर अपनी क्रुद्धदृष्टि कंस पर स्थिर कर ली।

देवकी की अवस्था विचित्र हो गई थी। राम से पहले छह नवजात पुत्र उसने अपने हाथों में उठाए थे, और उन्हें मरते देखा था, आँठवें पुत्र को भी उसने देखा था, और स्वयं से दूर कर दिया था। परन्तु इस पुत्र को तो वह जन भी नहीं पाई थी। क्या वह वास्तव में इसकी जननी थी भी? राम के बाद निश्चित ही कृष्ण भी आएगा। वह कृष्ण जिसे देखने की आशा में उसने अपने नारकीय जीवन को भी सहर्ष काट लिया था। पूरे सोलह वर्षों से वह एक काठ की प्रतिमा को कृष्ण का रूप देकर कृष्ण मानते आई थी। उसी काष्ठ प्रतिमा को नहलाती, शृंगार करती, झूले पर झुलाती। उसकी ममता ने तो सोहल वर्ष से कृष्ण को बालक रूप में ही निरूपित किया हुआ था, परन्तु क्या वह मेघवर्णी बालक, अब तक बालक ही रहा होगा। माता के आतुर नेत्र द्वार पर चिपक गए थे।

सहसा गगनभेदी स्वर हुआ। गोपों की मंडली ने समस्त मथुरा को बता दिया कि उनका गोपेश्वर आ रहा है। लंबा-चौड़ा, परन्तु कमनीय। विचित्र भूषा थी उस युवक की। ग्रीवा में तुलसी की माला और माथे पर मोरपंख। हाथ में कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं, अपितु गोपों की भांति बाँस की मात्र एक छड़ी। कृष्ण अपने भाई राम के निकट खड़ा हो गया। जैसे कोई चित्र पूरा हो गया हो। पीत वर्ण के राम और नील वर्ण के कृष्ण। नीलाम्बर राम, पीताम्बर कृष्ण।

देवकी उन दोनों को देखती ही रह गई। न जाने कितने क्षण बीत गए। फिर जाने क्या हुआ, कि एक मल्ल राम से और दूसरा मल्ल कृष्ण से भिड़ने के लिए आगे बढ़े।

मुष्टिक और चाणूर, राम और कृष्ण। मुष्टिक और राम बाहुयुद्ध करने लगे। मुष्टिक जो अपने धक्के से हाथी को भी गिरा देता था, वह राम को एक पग भी पीछे धकेल न सका। उसने राम के पंजों से स्वयं को मुक्त किया और उस पर मुष्टि प्रहार करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति किसी सुकोमल बालक के कोमल प्रहारों को सहता रहता है, राम भी सहता रहा। और एकाएक ही उसने अपने से एक हाथ ऊँचे मुष्टिक को अपने हाथों पर उठा लिया और जोर से पटक दिया। उसने फिर उसके पैर पकड़े और बालकों के खेल की तरह मुष्टिक को हवा में घुमाने लगा, बीच-बीच में वह उसका सिर किसी न किसी वस्तु से भिड़ा देता। कुछ ही समय में मुष्टिक मृत्यु को प्राप्त हो गया।

इधर कृष्ण की शैली ही विचित्र थी। वह कमनीय युवक अपने लोचदार शरीर का भरपूर प्रयोग कर रहा था। चाणूर के लिए यह नितांत विचित्र बात थी कि प्रतिद्वंद्वी उस पर प्रहार ही नहीं कर रहा, न प्रतिउत्तर दे रहा है, अपितु मात्र स्वयं को बचा रहा है। इतनी देर हो गई, चाणूर की सांस फूल गई, पर वह अब तक कृष्ण को सही से छू भी नहीं पाया था। चाणूर के फेफड़े द्रुतगति से चल रहे थे। अब उसमें तनिक भी शक्ति नहीं बची थी। अंततः वह एक स्थान पर कीलित सा होकर कृष्ण की ओर हाथ भर हिला रहा था, जैसे ऐसा करने से कृष्ण उसकी पकड़ में आ जायेगा। अंततः कृष्ण मुस्कुराते हुए उसके सम्मुख खड़े हुए। चाणूर ने अवसर जान अपनी मुष्टि का भरपूर प्रहार किया। ऊपर से देख रही देवकी का हृदय भयभीत हो गया। उसके कोमल से पुत्र पर चाणूर का प्रहार!

परन्तु कृष्ण तो उसी प्रकार मुस्कुरा रहा था। फिर एकाएक ही उसने अपनी मुष्टि का प्रहार किया, और लोगों को सहसा विश्वास न हुआ कि चाणूर का सिर फट गया था।

गोपों ने पुनः उल्लासपूर्ण चीत्कार किया। कृष्ण की सावधान दृष्टि ने देखा कि कंस ने क्रोधित होकर कोई मूक आदेश दिया है, और उसके मागधी सैनिक क्रीड़ास्थल को घेरने लगे हैं। बस कुछ ही पल की बात थी कि कंस के सैनिक राम, कृष्ण और उनके मित्रों को घेर लेते, और सामूहिक हत्याकांड का आयोजन हो जाता।

कृष्ण ने क्षण भर में निर्णय कर लिया। गाँव का वह छोरा, जैसे पेड़ों पर पलक मारते चढ़ जाता था, एक के बाद एक दीर्घाओं को पार करता चला गया, और लोगों के देखते ही देखते दीर्घाओं के कई तलों को पार करते हुए कंस के सम्मुख खड़ा हो गया।

कंस कुछ समझ पाता, उससे पूर्व ही कृष्ण ने उसकी कमर से खड्ग निकाल लिया। निकट खड़े अंगरक्षकों के कुछ करने से पहले ही, कृष्ण ने कंस के लंबे केशों को अपने बाएँ हाथ में पकड़कर दाहिने हाथ से बलिपशु की भांति उसकी ग्रीवा उतार दी। समस्त जनता मूढ़ों की भांति देखती रह गई। वह तो जब कृष्ण ने कंस के शीश को अपने हाथ में पकड़कर ऊँचा उठाया, जनता पागल हो उठी। तारणहार आया, भविष्यवाणी सत्य हुई, शोर मचाती जनता कृष्ण की ओर लपकने लगी।

क्षत्राणी देवकी यह दृश्य देख आह्लाद से मूर्छित हो गई। वह देख नहीं पाई कि उसका बाल गोपाल किस प्रकार एक शक्तिशाली पुरुष के रूप में जनता के समुद्र को चीरता हुआ उसके निकट आ खड़ा हुआ था। देवकी की मूर्छा टूटी, उसने देखा जनार्दन उसके पैरों में झुके हुए थे, कंस के रक्त से उसके चरण धो रहे थे, और वर्षों के विलंब के लिए क्षमा मांग रहे थे।

----------- साभार अजीत प्रताप सिंह

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