जीवन का तीन पौन निकल गया पर सुदर्शन महतो इतने व्यग्र कभी नहीं हुए जितने उस दिन थे। जिसे दस वर्ष पूर्व ही इस तरह त्याग दिया कि फिर कभी उसका नाम तक ध्यान में नहीं आया, उसके लिए जाने क्यों आँखों से बार-बार लोर टपक उठता था। सन्तान का मोह सबसे बड़ा होता है। सुदर्शन महतो का तलमलाता हृदय कभी कह रहा था कि उन्हें दौड़ते हुए उसके पास चले जाना चाहिए, तो फिर उसी हृदय से आवाज आती, "नहीं! जिसने दुनिया के सामने मूँछ नीची कर दी उसके लिए कैसा मोह? उसके पास भूल कर भी नहीं जाना। मरती है तो मरे..."
सुदर्शन महतो इतने कठकरेजी नहीं थे कि बेटी मरती रहे और वे देखने भी न जाएं, पर समय और समाज के तानों नें उन्हें पत्थर बना दिया था।
गाँव के सभ्य लोगों में गिनती होती थी सुदर्शन महतो की, गाँव के किसी भी पँचायत में सबसे पहले बुलाया जाता था उन्हें। सरकारी स्कूल के चपरासी थे सुदर्शन महतो, पर समाज ने उन्हें मास्टर-डाक्टर के बराबर सम्मान दिया था। सम्मान के योग्य थे भी, उनकी सत्यनिष्ठा और प्रेम भरा व्यवहार पूरे जवार में प्रसिद्ध था।
पर जीवन की सारी कमाई ले कर डूब गई थी सुरतिया। एक झटके में सुदर्शन महतो आसमान से पाताल में जा गिरे थे।
सुरतिया उनकी सबसे छोटी पेटपोंछनी बेटी थी। अपने अन्य बच्चों की अपेक्षा ज्यादा मानते थे उसे सुदर्शन महतो। दूसरों के लिए डेढ़ सौ का कपड़ा किनते तो सुरतिया के लिए चार सौ से कम का सूट पसन्द नहीं आता था उन्हें। उनकी बड़ी लड़कियां मैटिक से आगे न बढ़ पायीं पर सुरतिया को इंटर तक पढ़ाया था उन्होंने। पर यही पढ़ाई ले डूबी। गाँव की दस लड़कियों के साथ इंटर की परीच्छा देने सीवान गयी सुरतिया जब लौट कर नहीं आयी तो बाप ने देखा, सुरतिया के साथ उनकी सारी प्रतिष्ठा भाग गई थी। उसके साथ की लड़कियों ने ही बताया कि वह अपने ही कॉलेज के "मकसूद अली" की मोटरसाइकिल पर बैठ कर चली गयी। गाँव मे किसी की बेटी भाग जाय तो यह खबर आग से भी तेज पसरती है। सुदर्शन महतो की नाक कट गई थी। लोगों के कहने पर उन्होंने मकसूद और उसके बाप पर अपहरण का केस किया, पर दस दिन के बाद कचहरी में जज साहेब के सामने सुरतिया ने कह दिया कि "हम अपने मन से मकसूद के साथ गए थे। हमलोगों ने बियाह कर लिया है। हमको अपने बाप माई से कवनो मतलब नहीं..."
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सुदर्शन महतो के लिए अब कुछ बचा नहीं था। कचहरी के बाहर सुरतिया से बस दो टुम बोल पाए सुदर्शन महतो, " एक दिन बड़ी पछतइबे बबुनी...", पर सुरतिया प्रेम के नशे में थी, वह मुह घुमा कर चली गयी। सुदर्शन महतो ने उसी दिन सुरतिया को मरा हुआ मान लिया। तबसे सुदर्शन महतो लाज के मारे घर से नहीं निकलते थे। उनकी सारी दिनचर्या घर में ही पूरी होती थी। कहीं जाते भी तो लोगों से बचते बचाते... सुरतिया उन्हें समाज से काट चुकी थी।
दस वर्ष बीत गए, पर कभी पिघले नहीं महतो जी।मकसूद का गाँव मात्र पाँच किलोमीटर दूर था, पर कभी भूल कर भी उधर नहीं गए। दो बरस बाद ही मकसूद ने सुरतिया को तलाक दे दिया, पर महतो जी ने उसके बारे में जानना भी नहीं चाहा। सुरतिया भी कौन सा मुह लेकर आती? बाद में लोगों ने बताया कि सिवान में ही अपने छह माह के बेटे को लेकर रहती है, और लोगों के घर चौका-बरतन करती है। महतो जी के लिए यह रेडियो-अखबार के समाचार जैसा था, उन्होंने सुन कर भी जैसे कुछ नहीं सुना।
तीन साल पूर्व उनके अंदर कुछ पिघला था। गाँव के राजेसर तिवारी से एक दिन सिवान सदर अस्पताल में मिली थी सुरतिया, उसके बेटे को निमोनिया हुआ था। राजेसर तिवारी ने महतो जी को बताया कि बहुत रो रही थी। हिचकते-हिचकते ही बोली कि बाबूजी से दू हजार रुपिया... गलती सही का हिसाब करने से अब क्या लाभ, अभागिन के पास जीने का बहाना यही बेटा ही है, बच जाय तो कइसे भी जिनगी गुजार लेगी...
पता नहीं पैसा महतो जी ने दिया या राजेसर तिवारी अपने पास से ले गए, पर अगली सुबह जब तक पहुँचे तबतक सुरतिया का बेटा निकल चुका था।
महतो जी का हृदय थोड़ा सा भीगा था उसदिन, पर फिर बात जैसे आयी-गयी हो गयी। महतो जी सुरतिया को देखने भी नहीं गए, उनके लिए सुरतिया जैसे थी ही नहीं... पर आज वे स्वयं को रोक नहीं पा रहे थे। उनके अंदर का सारा क्रोध, सारी घृणा, सारी पीड़ा जैसे सन्तान के मोह से हार रही थी। आज सुबह ही किसी ने बताया था सुरतिया फिर अस्पताल में है। अकेली... उसे टीबी है और अंतिम चरण में है।
हिन्दी फिल्मों का एक बड़ा ही प्रसिद्ध संवाद है-"प्रेम के आगे हर माँ-बाप हारते हैं"। असल में यह कोरा झूठ है। माँ-बाप अपने बच्चों के प्रेम के आगे नहीं हारते, वे हारते हैं अपने उस प्रेम के आगे जो स्वयं वे अपने बच्चों से करते हैं। महतो जी भी भले सदैव सुरतिया के प्रेम पर थूकते रहे थे, पर आज अपने प्रेम के आगे जैसे हार गए थे।
महतो जी दोपहर में सदर अस्पताल पहुँचे तो जाने क्यों उन्हें सुरतिया के सामने जाने में डर लग रहा था। वे भावनाओं में बह कर आये तो थे, पर उसका सामना नहीं करना चाहते थे। पर सामना तो करना था... पूरे दस वर्ष बाद वे देख रहे थे बेटी को, पर यह तो जैसे उनकी बेटी थी ही नहीं। भिखमंगे की तरह फटेहाल, देह में जैसे खून-पानी ही नहीं था। सूख कर हड्डी का ढाँचा हो गयी थी। महतो जी फफक पड़े। बच्चे कितना भी बड़ा अपराध कर दें, पिता उनका त्याग नहीं कर पाता। महतो जी के पास कहने सुनने को कुछ था नहीं, डाक्टर ने पहले ही बता दिया था कि अब अंतिम.... समय से खाना नहीं खाने के कारण... सीधे सीधे भुखमरी...
महतो जी ने कुछ कहने के लिए कहा- एक बार कह कर तो देखती बेटी...
पीली पड़ चुकी सुरतिया के मुह पर अजीब से भाव उभर आये। बोली- कौन सा मुह ले कर आती बाबूजी?
महतो जी की आँखे फिर भर गयीं। बोले- पूछना नहीं चाहता था पर पूछता हूँ, वैसा क्यों किया था?
सुरतिया चुपचाप पड़ी रही। बहुत समय बाद बोली- बाबूजी कहूँ तो बुरा नहीं न मानोगे?
-अब बुरा मानने के लिए बचा ही क्या है रे, कह ले...
- मैं तो बच्ची थी बाबूजी, समझ नहीं पायी कि गलत क्या और सही क्या है। गलती मेरी थी तो सजा भी अकेले ही भोग लिए। सुअर की तरह मार खाती रही पर कभी आपका नाम ले कर नहीं रोई। घर से निकाल दी गयी तो भीख माँग कर खाती रही पर आपके पास नहीं गयी। लोगों के घर झाड़ू-पोंछा करती रही, पर कभी आपको दोष नहीं दिया। गलती मेरी थी, किस मुह से आपको दोष देती? पर क्या सारा दोष मेरा ही था? बच्चे तो कोरा कागज होते हैं न... मैं घर में रहने वाली बच्ची, मुझे दुनियादारी की समझ नहीं थी, पर आपको तो थी न? क्या आपने कभी बताया था कि दुनिया में लड़कियों को बहला कर लूटने वाले भी घूम रहे हैं इनसे दूर रहना चाहिये? तनिक सोचिये तो, यदि आपने समय पर अच्छा बुरा समझाया होता तो आज आपकी बेटी ऐसी मिलती? आपने कभी आपने प्रेम से अपने पास बैठा कर अच्छा-बुरा समझाया नहीं था, उसने प्रेम का झूठ बोला मैं उसी को सच समझ बैठी। आपसे प्रेम मिला नहीं था, उसके प्रेम को देख कर लगा कि यही सबकुछ है सो बहक गयी। अब तो सब कुछ....
सुरतिया की सांस फूलने लगी थी। महतो जी अब खुल कर रो उठे थे... वे सरक कर बेटी के निकट आ गए थे, उसका सर अब उनकी गोद मे था।
कुछ देर बाद सुरतिया के मुह से कुछ शब्द फूटे, "भागने वाली लड़कियां बुरी नहीं होतीं बाबूजी, नादान होती हैं... खैर छोड़िये! अब तो सब... अच्छी-बुरी जैसी भी थी, अभागन आपकी बेटी ही थी न... मुझे याद रखियेगा न बाबूजी..."
सुदर्शन महतो चिल्ला उठे, सुरतिया उनकी जाँघ पर सर रखे ही निकल गयी...
दस वर्षों तक दुनियादारी से दूर रहने वाले सुदर्शन महतो आजकल हर मिलने वाले से एक बात जरूर कह जाते हैं, " हमारी तरह मूर्खता मत करना भाई, बेटी हो तो उसका मित्र बनना बाप नहीं।"
पता नहीं कोई उनकी बात सुनता भी है या नहीं...
सर्वेश तिवारी श्रीमुख जी की रचना.
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