एक गांव में, प्रवीण शर्मा जी, पेशे से प्राइमरी अध्यापक थे।
उनका विद्यालय 7 किलोमीटर की दुरी पर एकदम वीराने में था
अक्सर लिफ्ट मांग के ही स्कूल पहुँचते थे और न मिले तो प्रभु के दिये दो पैर, भला किस दिन काम आएंगे।
धीरे धीरे उन्होंने कुछ जमापूंजी इकठ्ठा कर, एक स्कूटर ले लिया।
स्कूटर लेने के साथ ही उन्होंने एक प्रण लिया कि वो कभी किसी को लिफ्ट के लिए मना नहीं करेंगें।।
आखिर वो जानते थे जब कोई लिफ्ट को मना करे तो कितनी शर्मिंदगी महसूस होती है।
अब प्रवीण जी रोज अपने चमचमाते स्कूटर से विद्यालय जाते, और रोज कोई न कोई उनके साथ जाता। लौटते में भी कोई न कोई मिल ही जाता।
एक रोज लौटते वक्त एक व्यक्ति परेशान सा लिफ्ट के लिये हाथ फैलाये था, , अपनी आदत अनुसार प्रवीण जी ने स्कूटर रोक दिया। वह व्यक्ति पीछे बैठ गया |
थोड़ा आगे चलते ही उस व्यक्ति ने छुरा निकाल प्रवीण जी की पीठ पर लगा दिया।
"जितना रुपया है वो, और ये स्कूटर मेरे हवाले करो।" व्यक्ति बोला।
प्रवीण जी बहुत घबरा गए, डर के मारे स्कूटर रोक दिया। पैसे तो पास में ज्यादा थे नहीं, पर प्राणों से प्यारा, पाई पाई जोड़ कर खरीदा स्कूटर तो था।
आँखों में आंसू लिए और कांपते हुए हाथों से प्रवीण जी बोले कि आपसे *"एक निवेदन है,"*
कि तुम कभी किसी को ये मत बताना कि ये स्कूटर तुमने कहाँ से और कैसे चोरी किया।
"क्यों?" व्यक्ति हैरानी से बोला।
"यह रास्ता बहुत उजड्ड है, निरा वीरान | सवारी मिलती नहीं, उस पर ऐसे हादसे सुन आदमी लिफ्ट देना भी छोड़ देंगे।" प्रवीण जी बोले।
'ठीक है, कहकर' वह व्यक्ति स्कूटर ले कर चला गया।
प्रवीण जी ने अपने को सँभालते हुए ऊपर देखा और कहने लगे,"प्रभु जो आपकी इच्छा"
अगले दिन प्रवीण जी सुबह सुबह अखबार उठाने दरवाजे पर आए, दरबाजा खोला तो स्कूटर सामने खड़ा था। प्रवीण जी की खुशी का ठिकाना न रहा, दौड़ कर गए और अपने स्कूटर को बच्चे जैसा खिलाने लगे, देखा तो उसमें एक कागज भी लगा था।
*"ओ प्रवीण, यह मत समझना कि तुम्हारी बातें सुन मेरा हृदय पिघल गया।*
कल मैं तुमसे स्कूटर लूट उसे कस्बे में ले गया, सोचा भंगार वाले के पास बेच दूँ।
"अरे ये तो प्रवीण जी का स्कूटर है। " इससे पहले मैं कुछ कहता भंगार वाला बोला।
"अरे, प्रवीण ने मुझे बाजार कुछ काम से भेजा है।" कहकर मैं बाल बाल बचा। परन्तु शायद उस व्यक्ति को मुझ पर शक सा हो गया था।
फिर मैं एक हलवाई की दुकान पर गया, जोरदार भूख लगी थी तो कुछ सामान ले लिया। "अरे ये तो परवीन जी का स्कूटर है।
" वो हलवाई भी बोल पड़ा।
"हाँ, उन्हीं के लिये तो ये सामान ले रहा हूँ, घर में कुछ मेहमान आये हुए हैं।" कहकर मैं जैसे तैसे वहां से भी बचा।
फिर मैंने सोचा कस्बे से बाहर जाकर कहीं इसे बेचता हूँ। शहर के नाके पर एक पुलिस वाले ने मुझे पकड़ लिया।
"कहाँ, जा रहे हो और ये प्रवीण जी का स्कूटर तुम्हारे पास कैसे।" वह मुझ पर गुर्राया। किसी तरह उससे भी बहाना बनाया।
अबे ओए प्रवीण तुम्हारा यह स्कूटर है या आमिताभ बच्चन।
तेरी अमानत मैं तेरे हवाले कर रहा हूँ, इसे बेचने की न मुझमें शक्ति बची है, न हौसला।
पत्र पढ़ कर प्रवीण जी मुस्कुरा दिए, और बोले ,"शुक्रिया प्रभु, आपका बहुत बहुत शुक्रिया"।
जब हम दूसरों की मदद करते हैं तो भगवान् भी हमारी मदद करते हैं।
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