सोमवारीय चिन्तन ...
शूद्र ! तुम श्रेष्ठ हो !
आज मैंने विष्णुपुराण निकाला ! उसके छटे अंश के दूसरे अध्याय में पराशर ऋषि ने वेदव्यास के जीवन के इस प्रसंग का उल्लेख किया है ! मुनियों के मन में प्रश्न घुमड़ रहा था - कलियुग के धर्म का ! उस प्रश्न के समाधान के लिए वे मुनि वेदव्यास के पास आये ! वेदव्यास उस समय गंगा-स्नान कर रहे थे ! यह देख कर वे मुनिजन एक वृक्ष के नीचे बैठ कर उनकी प्रतीक्षा करने लगे !
वेदव्यास ने एक डुबकी ली और उठे , कहा - शूद्रस्साधु: कलिस्साधुरित्येवं शृण्वतां वच: ! फिर से डुबकी ली और बोले - साधु साध्विति चोत्थाय शूद्र धन्योsसि चाब्रवीत् ! वेदव्यास ने फिर से डुबकी ली और फिर कहा - योषित: साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोsस्ति क: !
स्त्रियाँ धन्य हैं , उनसे अधिक धन्य कौन हैं ? इस प्रकार व्यास ने कलियुग की श्रेष्ठता , शूद्र की श्रेष्ठता तथा स्त्रियों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है !महर्षि व्यास जोर-जोर से ताली बजा-बजाकर शूद्रों और स्त्रियों की जय बोल रहे हैं ! कलियुग महान है , शूद्र महान हैं और स्त्री महान हैं !
भारत के चिन्तन में समष्टि की दृष्टि कितनी गहरी है ! सब के लिए सब जी रहे हैं . लोकमें सब हैं,लोक सबका आश्रय है,विभिन्न जाति,बिरादरी,वर्ण,वर्ग,पंथ लोक में जन्म लेते हैं,लोक में ही समा जाते हैं ।हजारों साल पहले हमारे देश की लोकमेधा ने विराटपुरुष की संकल्पना की थी , जो सहस्रशीर्ष ,सहस्रनेत्र ,सहस्रबाहु,और सहस्रपात है। उसमें कोटि-कोटि युगों का अन्तर्भाव है! विभिन्न जाति, वर्ग, वर्ण, धर्म उसके हाथ,पैर, नाक, कान, आंख, पेट, पीठ इत्यादि अंग हैं परन्तु वे सभी अंग अविच्छिन्न हैं तथा एक-दूसरे के लिये हैं । वे भिन्न हैं ही नहीं !वे सब के लिये सब हैं।इस सब के बीच जो नाम-रूप का भेद ,सीमा और असमानता है, वह दीखती तो है किन्तु वह तात्विक नहीं है! उसकी एकात्मसत्ता ही लोकसत्ता है !सर्वजन- सत्ता, सामान्यजनसत्ता, समष्टिजनसत्ता ! जीवन की अविच्छिन्नता !आज की भाषा में कहें तो यह समष्टि सत्ता है । इस संकल्पना का मूलतत्व आधारभूत एकता है । समष्टिजन चेतना,सामान्यजनचेतना लोकचेतना है । विविधता में एकता की अदम्य खोज ।निरन्तरता ! लेकिन संस्कृति की कुत्सित व्याख्या करने वाले "अभिधार्थ" पर अटक जाते हैं कि पैर से जन्म लिया अथवा मुख से जन्म लिया ? अरे , जन्म तो वहीं से हुआ , जहाँ से होता है , लेकिन उस मूढ़मति को क्या कहा जाय , जो रूपक की व्यंजना नहीं समझ सकते या समझना नहीं चाहते ।
पश्चिम का मानववाद मनुष्य को आधारभूत इकाई मान कर चला है ,जबकि भारत का दर्शन जीवात्मा [प्राणिमात्र ] को आधारभूत इकाई मान कर चलता है । अद्वैत-दर्शन है , एक ही ब्रह्म है , एक ही परमात्मा है । जब दूसरा कोई है ही नहीं तब पराया कौन हो सकता है ? नानकदेव का उद्घोष है -कुदरत के सब बन्दे । एक नूर से सब जग उपजा कौन भले को मन्दे ।
भारत के चिन्तन पर विचार करें , जीवन- दर्शन को देखें - दलित और शास्त्रचिंतन घी-बूरे की तरह व्याप्त है।भारतीयसंस्कृति के महान व्याख्याता नारद हैं ,वे दासीपुत्र हैं । भागवत में नारद ने अपने पूर्वजीवन के चित्र दिये हैं ।भारतीयसंस्कृति के महान व्याख्याता वाल्मीकि हैं। भारतीयसंस्कृति के महान व्याख्याता वेदव्यास हैं , निषादकन्या [ दासी-वत] के पुत्र हैं, नीतिशास्त्र के व्याख्याता विदुर दासीपुत्र हैं, । हनुमान वानर आदिवासी हैं। शबरीकथा रामकथा के मर्म का प्रसंग है। कंस की दासी ने अन्त:पुर की कहानी कृष्ण को बता दी थी,वह विद्रोह भाव से सुलग रही थी।विद्या के लिये कठोर तप स्वाध्याय ,समर्पण , संतोष, नि:स्पृह - भाव की आवश्यकता है , जाति की नहीं ! इसके प्रमाण वेदों मे ही हैं , कितने ही तत्त्वद्रष्टा शूद्र हैं !
जाति नहीं कर्म आगे बढाता है : ऋग्वेद,मंडल१०,सूक्त३०-३४ का द्रष्टा है >कवष ऐलूष। यह शूद्र था।जुआरी भी था ।इसने अक्षसूक्त भी लिखा था ,जिसमें इसने अपने से ही कहा है कि >मत खेल जुआ।इसका एक सूक्त विश्वेदेवा को समर्पित है। एक अपां- नपात को।सरस्वतीनदी के तट पर जब सोमयाग हुआ, तब ब्राह्मणों ने इसे दास्या:पुत्र: कह कर बाहर कर दिया। यह कुछ दूरी पर जाकर बैठ गया।अपां- नपात की स्तुति की।संयोग से सरस्वती का प्रवाह इसके चारों ओर आ गया । वह स्थल परिसारक- तीर्थ माना गया। इसने ब्राह्मणों को बताया कि जाति नहीं कर्म आगे बढाता है।इसके बेटे तुरकावषेय की गणना बडे विद्वानों में हुई। इसी प्रकार इतरा का पुत्र ऐतरेय शूद्र था।
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महाभारत में धर्मव्याध की कथा और व्याधगीता है ।
महाभारत के वनपर्व में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कथा है >>> धर्मव्याध की ! यह व्याध मांसविक्रेता है ! और ब्राह्मण -पुत्र इसकी खोज करता है , और पूछते पूछते इसकी मांस की दूकान पर आता है और इससे प्रार्थना करता है , कि मुझे धर्म का उपदेश करो !
इस उपदेश को व्याधगीता भी कहा जाता है !
कहानी यों है कि ब्राह्मण -पुत्र शास्त्र का अध्ययन करता है और तपस्या भी करता है ! एक दिन एक पक्षी ने इस पर बीठ कर दी ,
तो ब्राह्मण -पुत्र के मन में विकार आया , उसने क्रोध से उस पक्षी को देखा और पक्षी जल कर जमीन पर गिर पड़ा !
ब्राह्मण -पुत्र ने सोचा कि यह मेरे तप और शास्त्रज्ञान का ही परिणाम है , अब मुझे सिद्धि मिल गयी है !
अब वह किसी ग्राम में गया और किसी द्वार पर नारायण हरि’ कह कर भिक्षा माँगी ! अन्दर से आवाज आयी - ठहरिए महाराज! ब्राह्मण -पुत्र ने थोड़ी देर खड़े होकर प्रतीक्षा की तथा फिर कहा >> नारायण हरि’ ! फिर अन्दर से आवाज आयी >> महाराज! ठहरिए - मैं अभी आ रही हूँ। जब तीसरी बार नारायण हरि’कहने पर भी कोई नहीं आया तो ब्राह्मण -पुत्र के मन में विकार आया >> उसने कहा कि >> तुझे पता नहीं, मैं कौन हूँ, मेरी अवमानना कर रही है तू?
तभी अन्दर से वह माँ बोली >> मुझे पता है ब्राह्मण -पुत्र ! लेकिन आप यह न समझना कि मैं वह पक्षी हूँ जिसको आप देखेंगे और वह जल जाएगा।
ब्राह्मण -पुत्र तो विस्मित हो गया !
थोड़ी देर बाद माँ भिक्षा लेकर आई। ब्राह्मण -पुत्र बोला , माँ भिक्षा बाद में लूँगा , पहले आप वह रहस्य समझाइये कि यह सब आपने कैसे जाना ?
माँ ने कहा, मेरे पास इतना समय नहीं है कि आपको बताऊँ। आप अपनी भिक्षा लीजिए और यदि आपको इस विषय में जानना है तो मिथिला में चले जाइए, वहाँ पर एक वैश्य रहते हैं, वे आपको बता देंगे
।ब्राह्मणपुत्र वैश्य के पास गया, वह अपने व्यवसाय में लगा हुआ था और वहाँ उसने वही जिज्ञासा की !
उसने देखा और कहा आइए! पण्डित जी! बैठ जाइए! वह बैठ गया। थोड़ी देर के बाद ब्राह्मण कहने लगा मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। वैश्य ने कहा, जी हाँ - आपको उस स्त्री ने मेरे पास भेजा है क्योंकि आपने देखकर चिड़ा जला दिया है।वैश्य ने भी कह दिया कि अभी तो मेरे पास समय नहीं, यदि बहुत जरूरी हो तो आप मांसविक्रेता व्याध के पास चले जाइये ! वह आपको सारी बात समझा देगा।
वह ब्राह्मणपुत्र व्याध के पास गया तो वह मांस काट-काट कर बेच रहा था। व्याध बोला - आइए पंडित जी! बैठिए! आपको सेठजी ने भेजा है। कोई बात नहीं, विराजिए। अभी मैं अपना काम कर रहा हूँ, बाद में आपसे बात करूँगा। ब्राह्मण बड़ा हैरान हुआ। अब बैठ गया वहीं, सोचने लगा अब कहीं नहीं जाना, यहीं निर्णय हो जाएगा। सायंकाल जब हो गयी तो व्याध ने अपनी दुकान बन्द की, पण्डित जी को लिया और अपने घर की ओर चल दिया। ब्राह्मण व्याध से पूछने लगा कि आप किस देव की उपासना करते हैं जो आपको इतना बोध है। उसने कहा कि चलो वह देव मैं आपको दिखा रहा हूँ। पण्डित जी बड़ी उत्सुकता के साथ उसके घर पहुँचे तो देखा व्याध के वृद्ध माता और पिता एक पंलग पर बैठे हुए थे। व्याध ने जाते ही उनको दण्डवत् प्रणाम किया। उनके चरण धोए, उनकी सेवा की और भोजन कराया। पण्डित कुछ कहने लगा तो व्याध बोला - आप बैठिए, पहले मैं अपने देवताओं की पूजा कर लूँ, बाद में आपसे बात करूँगा। पहले मातृदेवो भव फिर पितृ देवो भव और आचार्य देवो भव तब अतिथि देवो भव, आपका तो चौथा नम्बर है भगवन्! अब वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि यह तो शास्त्र का ज्ञाता है।धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में न तो उसने वर्ण को ही महत्त्व दिया और न पुरुष को और न उम्र को ! साधना और आचरण का महत्त्व है !
इतिहास में हम देख सकते हैं कि अनेक मुनिपत्नियाँ शूद्र-कन्या थीं ।शिवजी के गण वे सभी कबीले थे , जिनको बाद में अनार्य अथवा शूद्र भी कहा गया था ।दक्षके यज्ञमें शिव नहीं बुलाये गये, और शिवहीन यज्ञ भूत-प्रेत-प्रमथादि द्वारा विध्वस्त हुआ , इसी से समझा जा सकता है कि शिव उस समय तक आर्येतर-जातियों के देवता थे !
- राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी की पोस्ट के अंश ।
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