उर्मिला 18
पिता का श्राद्ध सम्पन्न होते ही राजकुमार भरत ने सबको सूचना दे दी कि वे राम को वापस लाने के लिए वन जाएंगे।
राजकुटुम्ब से जुड़े लोग जो भरत को जानते थे, उन्हें इसकी आशा थी। वे जानते थे कि भरत कभी भी राज्य स्वीकार नहीं करेंगे। पर वे सारे लोग यह भी जानते थे कि राम भी चौदह वर्ष से पूर्व वापस लौट कर नहीं आएंगे।
परिवार की स्त्रियां भी जानती थीं कि न भरत राज्य स्वीकार करेंगे न राम! यह पारिवारिक सम्बन्धों में समर्पण की पराकाष्ठा थी। ऐसे में कोई भी कुछ कह नहीं पा रहा था, क्योंकि सभी जानते थे कि इस स्थिति में राह केवल राम और भरत ही निकाल सकते थे।
अपनी अपनी मर्यादा पर अडिग दो राजकुमारों के मध्य छिड़ा यह स्नेह का द्वंद समग्र संसार के लिए आदर्श बनने वाला था।
अयोध्या के राजसिंहासन के आगे भूमि पर बैठे भरत ने भरे दरबार में कहा, "मैं भइया को वापस बुलाने जाऊंगा। असँख्य युगों की यात्रा के बाद सभ्यता को रामराज्य मिलने का सौभाग्य बना है, इसमें यदि हमारे कारण विलम्ब हो तो हम समूची सभ्यता के अपराधी होंगे। हमें भइया को वापस लाना ही होगा..." भरत ने एक बार चारों ओर दृष्टि फेरी और माण्डवी की ओर देख कर रुक गए। कहा, " संसार के सबसे बड़े पाप के बोझ से दबा मैं अयोध्या का शापित राजकुमार किसी और से क्या ही निवेदन करूँ, पर आप मेरे साथ चलिये राजकुमारी! माथे पर लगा दाग तो जीवन भर दुख देता रहेगा, पर यदि भइया भाभी के चरणों में गिर कर उन्हें लौटा लाये तो शायद सर उठा कर जी सकें।"
माण्डवी कुछ बोलतीं इसके पूर्व ही समस्त राजकुटुम्ब बोल पड़ा, "हम आपके साथ चलेंगे युवराज! यह केवल आपका तप नहीं, राम को पाने की यात्रा समूची अयोध्या को करनी होगी।" भरत ने सुना, सबसे तेज स्वर उनकी माता कैकई का था।
कैकई आगे भी बोलती रहीं, "मैं अपने पति और दोनों बेटों की ही नहीं, इस देश इस सभ्यता की अपराधी हूँ। पर क्या राम की इस अभागन माँ को प्रायश्चित का भी अवसर नहीं मिलेगा? मैं जानती हूँ कि मैंने पति के साथ ही अपना पुत्र भी खो दिया है, पर मुझे अपने राम से अब भी आशा है। वो मेरे दुखों का निवारण अवश्य करेगा।" कुछ पल ठहर कर कैकई ने एक बार भरत की ओर देखा और शीश झुका कर कहा, " हमें साथ ले चलिये युवराज! मुझे प्रायश्चित का एक अवसर अवश्य मिले।"
भरत कुछ न बोले। सर झुकाए बैठे भरत की आंखों में केवल अश्रु थे। उधर उर्मिला और श्रुतिकीर्ति ने कैकई के पास पहुँच कर जैसे उन्हें थाम लिया था।
उस दिन संध्या होते होते समूचे नगर को ज्ञात हो गया कि भरत राम को वापस लाने वन को जाने वाले हैं। आमजन के विचार बदलते देर नहीं लगती। सज्जनता में बहुत शक्ति होती है, उसका एक निर्णय समूचे समाज की सोच बदल देता है। जो जन कल तक भरत को रामद्रोही समझ कर उनकी आलोचना कर रहे थे, अब वे भी भरत की जयजयकार करते राजमहल के द्वार पर खड़े हो कर साथ चलने की आज्ञा मांग रहे थे।
भरत बाहर आये! प्रजा के सामने शीश झुकाया और कहा, "चलिये! मेरे दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने को आतुर जन, आप मेरे लिए देवतुल्य हैं। चलिये, हम अपने प्रिय को वापस बुला कर उन्हें उनका अधिकार सौंप दें। यही मेरे इस शापित जीवन की एकमात्र उपलब्धि होगी..."
प्रजा जयजयकार कर उठी। यह स्नेह की विजय थी।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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