उर्मिला 17
महाराज दशरथ का संस्कार कर वापस लौटे भरत शत्रुघ्न महारानी कौसल्या के कक्ष में निढाल पड़े थे। दुख के क्षणों ने उस पीड़ित परिवार को आपस में बांध दिया था। दो माताएं, तीनों वधुएं और दोनों राजकुमार, परिवार पर आई इस भीषण विपत्ति में शोक संतप्त पड़े थे।
शोक के ज्वार को धीरे धीरे उतर ही जाना होता है। हर दुख को भूल कर भविष्य की ओर निहारना ही मनुष्य की नियति होती है। भरत समझ गए थे कि इस शोकाकुल परिवार की डोर अब उन्हें ही थामनी होगी, सो उन्होंने अपनी आंखें पोंछ ली थी।
छोटे शत्रुघ्न के माथे पर प्रेम से हाथ फेरकर भरत ने कहा, " मंथरा को लात नहीं मारनी चाहिये थी, उससे क्षमा मांग लेना अनुज! उस बेचारी का क्या ही दोष... हमारा समय ही विपरीत चल रहा है।
शत्रुघ्न ने शीश झुका कर कहा, "मुझसे अपराध तो हुआ ही है भइया! पर अब दुख हो रहा है। छोटी माँ पर बड़ा क्रोध आया था। पर उन्हें तो कुछ कह नहीं सकता था, सो उनकी सबसे प्रिय सखी को ही दंडित कर के उन्हें दुख देने की सोच ली। मनुष्य अपनी चोट भूल भी जाय, पर अपने प्रिय की चोट नहीं भूल पाता। उस लात की चोट उससे अधिक माँ को लगी होगी। तब क्रोध में थे तो लग रहा था कि माँ को चोट दे कर ठीक किया, अब वही बात दुख भी दे रही है। फिर भी, उन्हें दण्ड तो मिलना ही था। सारे षड्यंत्र की जड़ आखिर वही तो थी..."
"उन्हें इससे बड़ा दण्ड और क्या मिलेगा बबुआ जो उन्होंने स्वयं ले लिया है। अपने ही पति की मृत्यु का कारण होना क्या स्वयं में ही बहुत बड़ा दण्ड नहीं है? आज जब समस्त कुल एक कक्ष में एकत्र है, तब वे तिरस्कृत हो कर कहीं एकांत में पड़ी अश्रु बहा रही हैं, यह कोई छोटा दण्ड है? उन्होंने पहले अपना पति खोया, और अब पुत्र भी विमुख हो गए। इसके बाद भी किसी को उनपर दया नहीं आती और कोई उनतक अपनी सम्वेदना ले कर नहीं जाता, क्या यह छोटा दण्ड है बबुआ? जाने पूर्वजों के कौन से अपराध थे जो नियति ने समस्त राजकुल को दंडित किया है, अब आप सब भी किसी को दंडित करने की न सोचें। अब इस कुल को प्रेम और आदर्शों की डोर से बांधने का समय है, आप सब वही करें तो उचित होगा।" आंखों में जल लिए जो इतना बोल गयी, वह उर्मिला थी।
भरत मुड़े उर्मिला की ओर और हाथ जोड़ कर कहा, "मेरी पीड़ा शायद तुम समझ सको उर्मिला! मैं भइया का अपराधी हूँ, और मेरा प्रायश्चित यही है कि जबतक भइया वापस आ कर अयोध्या का राज न सम्भाल लें, तबतक मैं माता की ओर दृष्टि न फेरूं... माण्डवी के हिस्से भी यही दण्ड आएगा। पर तुम उर्मिला..." भरत इससे आगे कुछ न कह सके, उनका गला रुन्ध गया था।
राम का वह प्रिय अनुज जिसे वे स्वयं महात्मा कहते थे, उसके हृदय में समूचे संसार के लिए केवल और केवल प्रेम ही था। आज परिस्थितियां उसी महात्मा भरत की सबसे कठिन परीक्षा ले रही थीं।
उर्मिला ही क्यों, सभी समझ रहे थे उनकी पीड़ा। भरत और माण्डवी को छोड़ कर अन्य सभी उठे और कैकई के कक्ष में पहुँचे। भरत के तिरस्कार ने कैकई के सर पर चढ़े षड्यंत्रों के बेताल को कब का उतार दिया था। या शायद अपनी योजना में उनसे आवश्यक सहयोग लेने के बाद समय ने अब मुक्त कर दिया था उन्हें। कैकई के पास अब सिवाय आत्मग्लानि के और कुछ नहीं था।
उसी समय माता कौसल्या ने उन्हें अंक में भर कर कहा, " सत्ता के नियमो से बंधे राजकुमारों का निर्णय जो भी हो, पर हममें से कोई भी तुमसे रूष्ट नहीं है बहन! सबने तुम्हे क्षमा कर दिया है।
कैकई ने आँख उठा कर चारों ओर देखा, सबलोग थे बस माण्डवी और भरत नहीं थे। वे कुछ न बोल सकीं।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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