बैलगाड़ियों पर और अनेक तो पैदल ही मथुरा की ओर बढ़ चले थे। बलराम मथुरा के श्रेष्ठ मंत्री अक्रूर के रथ को, उसमें जुते घोड़ों को देख लालायित प्रतीत हो रहे थे। इधर अक्रूर भी चाहते थे कि मथुरा के निवासी देखें कि उनके तारणहार को वे स्वयं अपने साथ लेकर आ रहे हैं, अतः उन्होंने हठ करके दोनों वासुदेवों को अपने रथ में बिठा लिया। यद्यपि कनिष्ठ वासुदेव कृष्ण अपनी गोप सेना के साथ नाचते-गाते पैदल ही चलना चाहते थे, परन्तु दाऊ की इच्छा का सम्मान कर रथ में चढ़ गए।
बैल और घोड़े, दोनों पवित्र पशु। पर दोनों की चालों में अंतर तो होता ही है। रथ अपनी सामान्य गति से चलते हुए बैलगाड़ियां और पैदल चलने वालों से बहुत आगे निकल गया। कुछ ही देर में मथुरा का बाहरी प्रवेशद्वार दिखाई देने लगा, तब कृष्ण बोले, "काका, अब तनिक रथ रोक लीजिए। पीछे नन्दबाबा और मेरे मित्र आ रहे हैं। उचित है कि हम सब साथ ही नगर में प्रवेश करें।"
इसपर बलराम तनिक भड़के स्वर में बोले, "अरे, रुकने की क्या आवश्यकता है? सीधे चले चलो। बाबा और मित्रगण तो हमसे नगर के अंदर विश्रामस्थल पर मिल ही जायेंगे। क्यों काका?"
"हाँ, हाँ, जैसा तुम लोग चाहो। नगर में मैंने सबके स्वागत के लिए विशेष व्यवस्था करवा दी है। प्रथम तो हम सब मेरे निवास पर चलेंगे और जलपान इत्यादि के पश्चात तुम दोनों भाई और नन्द मेरे घर पर ही रुकोगे। तुम्हारे मित्रों के रात्रिविश्राम की भी उचित व्यवस्था है।"
"तो क्या कहता है कृष्ण? बढ़ चलें सीधे नगरी की ओर। देख, मेरी तो बड़ी इच्छा है कि झटपट नगर में प्रवेश करूँ और तनिक देखूं तो कि मेरा पिता वसुदेव की मथुरा कैसी है।"
कृष्ण यह सुन मुस्कुरा उठे और अपने नेत्रों से ही कुछ कह गए जिसे समझ उनके बड़े भाई ने रूठकर मुँह फेर लिया। यह बड़ा भाई भी विचित्र स्वभाव का था। अपने मन की कह जाता, और लगता कि उसे पूरा करने के लिए किसी की भी नहीं सुनेगा, पर जाने क्यों अपने ही छोटे भाई की बात तो मानकर उसका अनुगमन करने लगता। दोनों भाई राम-लक्ष्मण की जोड़ी जैसे थे, बस अंतर यह था कि इस युग के लक्ष्मण का नाम राम था और वह अग्रज था।
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कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात कृष्ण बोले, "दाऊ, मुझे भी मथुरा देखनी है, पर अब यह मथुरा हमारे पिता वसुदेव की मथुरा नहीं रही, यह हमारे मामा कंस की मथुरा है। मैं आपके बल से परिचित हूँ, पर आप यह तो नहीं चाहेंगे कि यदि कंस ने अचानक आक्रमण कर दिया तो दिनोंदिन वृद्ध होते जा रहे इन काका जी को शस्त्र उठाना पड़े। हम धर्म की स्थापना के लिए प्रथम पग उठाने वाले हैं दाऊ! अतः हमें प्रत्येक पल सावधान और सज्ज रहना चाहिए।"
दाऊ को इन सबमें कोई रुचि नहीं थी। कृष्ण नहीं चाहता, बस बात ही खत्म। अब इसपर आगे क्या विचार-विमर्श करना? परन्तु अक्रूर चौंक उठे। 'धर्म की स्थापना', यह सोलह वर्ष का युवक धर्म स्थापना की बात कर रहा है? आश्चर्य। वे तो मात्र राजनीति जानते थे। सत्ता परिवर्तन हुआ तो कंस का दुष्चक्र चला। अब उसकी सत्ता को हटाना है, जिसका निमित्त यह युवक बनेगा। पर 'धर्म की स्थापना'? उन्होंने कृष्ण की ओर तनिक गूढ़ दृष्टि डालते हुए प्रश्न किया, "धर्म? क्या तुम धर्म को पहचानते हो पुत्र।"
"हाँ काकाश्री! मुझे आचार्य गर्गाचार्य और मुनि सांदीपनि का अल्पावधि सानिध्य प्राप्त हुआ है। ये कंस अधर्मी है। इसके शासन में प्रजा के साथ अन्याय होता है। नागरिकों से अनुचित कर लिए जाते हैं। उनकी नैतिकता को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। स्वयं भ्रष्टाचार करके वह आम नागरिकों को भ्रष्टाचार के लिए प्रेरित करता है। सभी वर्णों की शक्ति का अनुचित प्रयोग हो रहा है। और बात केवल मथुरा तक ही सीमित नहीं है। आर्यावर्त के कई राज्यों में धर्म का मर्म समझने वाले सामर्थ्यहीनता की अवस्था में हैं। उनके सम्मुख ही अधर्म पसर रहा है और वे चुपचाप देख रहे हैं। मगध का जरासंघ तो अधर्मरूप है ही, पर हस्तिनापुर के भीष्म धृतराष्ट्र के अधर्म पर चुप हैं। मद्र के शल्य ने भी नेत्र मूंद लिए हैं। गांधार के सुबल अपने पुत्र शकुनि की लालसाओं को नहीं देख पा रहे। दामघोष भी शिशुपाल के सम्मुख असहाय हैं। विदर्भ के भीष्मक भी रुक्मी को बढ़ने से रोक नहीं पा रहे। अधर्म और स्वार्थ धीरे-धीरे पसर रहा है और उसने द्रोण जैसे परशुराम शिष्य तक को ग्रसित कर लिया है। रक्ष संस्कृति के लोग पुनः उभर रहे हैं। काकाश्री, हमें अधर्म का नाश करना है। एक बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है और हमें यह मिलजुल करना ही होगा।"
"यह तो राजनीति है पुत्र। राजनीति का धर्म से क्या सम्बन्ध?"
"धर्म को राजनीति से विलग नहीं किया जा सकता महोदय। राजाश्रय से ही धर्म अथवा अधर्म फलीभूत होते हैं। अनेकों संत मिलकर जो कार्य कर सकते हैं, वह अकेला एक राजा कर सकता है। धर्म स्थापना के लिए शास्त्र शक्ति ही पर्याप्त नहीं, शस्त्र शक्ति भी आवश्यक है। कोई धर्म की कितनी भी शिक्षा दे ले, पर जब तक अधर्म को दंड नहीं दिया जाएगा, धर्म वास्तविक उच्चता को प्राप्त नहीं कर सकेगा।"
"पर इसका उत्तरदायित्व तुम्हारा ही क्यों है? तुम तो अब तक एक ग्वाले ही थे, और अब एक यादव कुल के प्रमुख के बेटे ही तो हो! तुम इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह रहे हो, क्या यह हास्यास्पद नहीं है?"
"जिसे हँसना हो, वह हँसे काकाश्री। मुझे इससे अंतर नहीं पड़ता। लोग तो मुझे चोर और छिछोरा भी कहते हैं। फिर भी कंस के नाश के लिए आप मेरे पास ही तो आए न? मैं एक ग्वाला ही हूँ, एक यादव सरदार का किशोर पुत्र ही तो हूँ, फिर भी आप मुझमें ही अपना और यादवों का उद्धार देखते हैं न? आप मुझे यादवों का उद्धारक मानने को तो सज्ज हैं, पर समस्त मानवों के उद्धार की बात आपको हास्यास्पद लगती है! आप मुझे यादवों तक ही सीमित कर देना चाहते हैं?
"आपको बताऊँ काका, जब गर्गाचार्य ने मुझे मथुरा सहित समस्त आर्यावत की वास्तविकता बताई तब मैं गहन चिंतन में डूब गया था। फिर मैं गोवर्धन पर गया और उसकी चोटी से इस संसार को देखने का प्रयास किया। पहले मुझे मात्र गोकुल, वृंदावन, बरसाना और नन्दगाँव दिखे। फिर मुझे अपनी यह मथुरा दिखी। फिर मुझे आसपास के राज्य दिखने लगे और धीरे-धीरे मुझे यह समस्त विश्व दिखाई देने लगा। मैं मात्र गोकुल में नहीं समा सकता, मैं मात्र मथुरा तक नहीं रुक सकता। इस संसार ने वर्षों मेरी प्रतीक्षा है। नहीं, वर्षों नहीं, युगों से यह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। अब इस संसार की तपस्या समाप्त हुई।
"मैं मात्र वसुदेव का पुत्र वासुदेव नहीं हूँ। मैं स्वयं 'वासुदेव: सर्वम्' हूँ।"
अक्रूर अभी तक एक बालक को सुन रहे थे। पर अंतिम वाक्य आते-आते उस बालक का स्थान 'नारायण' ने ले लिया था।
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काफी मित्रों का आग्रह आया कि कृष्ण कथा के आगे के दृश्य भी प्रस्तुत करें, ✒️अजीत प्रताप सिंह जी वाक़ई बहुत प्यारा लिखते हैं ।
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