सोमवार, 29 अगस्त 2022

 

   *मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी पांच इंद्रियों का परिपूर्ण होना और उनको सुरक्षित रखना है।*

  क्या आप उसकी सुरक्षा करते हो ?
   मनुष्य पैसे के लिए क्या क्या नहीं करता है ?
   क्या पैसा इतना महत्वपूर्ण है कि हम उसके लिए अपने स्वस्थ को दांव पर लगाएं ?

🌴 क्या मनुष्य धन से स्वस्थ रह सकता है ?

   *नहीं! नहीं!! कभी नहीं!!!*

🌱 अगर शरीर स्वस्थ होगा तो धन कमा सकते है ।

   *हां! अवश्य!! निश्चय ही!!!*

    मान लो आपके आंखें नहीं है या कानों से सुन नहीं सकते है या आप गूंगे है या आपका शरीर अपंग है या आप बीमार है। 

                             *यदि*

   जिनके पास आंख, कान, वाचा और शरीर पूर्ण स्वस्थ हैं।

   *अब बताईए आप दोनों में से धनी कौन है ?*

  आजकल मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या समय है और वह धन को ही अपनी पूंजी समझता है।

  इसीलिए वह दिन-रात पैसा कमाने के लिए दौड़-भाग करता है।

   प्रकृति ने दिन काम करने के लिए और रात आराम करने के लिए बनाई है।

*धन के लालची प्रकृति के नियमों को तोड़ते हैं।*

   आप देखिए आज भी ज्यादातर लोग दिन में काम करते है।

     *रात के कामों में खतरा ज्यादा है।* 
     मान लो आप रात्रि में रास्ते पर चल रहे है और अचानक लाइट चली जाएं तो ठोकर लगकर या खड्डे में गिर सकतें है।
रात के अंधेरे में चोर डाकू लूट सकते है।

    *यदि आप रात में भोजन बना रहे है और बिजली चली जाएं और छिपकली ,बिच्छू या किट पतंगे आपके उस बर्तन में गिर जाएं, तो सोचिए उस भोजन को करने से क्या होगा ?*

  दिन के उजाले में बिजली की आवश्यकता नहीं होती है‌ परंतु इंसान को प्रकृति से ज्यादा अपनी बनाई चीजों पर भरोसा है। परंतु ये कब धोखा दे देंगे यह कोई नहीं जानता है।

इसलिए अनावश्यक आवश्यकताओं को कम करो। अपना जीवन स्वावलंबी बनाओ।

जो लोग कभी कहते थे मुझे मरने की फुर्सत नहीं है, आज उनके पास फुर्सत ही फुर्सत है।

प्रकृति से पंगा मत लो और अपना नैसर्गिक जीवन जीओगे तो आप सुखी बन जाओगे।

ज्यादा कमाओ और बीमारी ख़रीदो। डाक्टर को पैसे देकर भी समय से पहले बुड्ढे हो जाओ।

   जब तक जीवन है पैसे का उपयोग है, मरने के बाद पैसा यही रह जाएगा। क्या पैसा साथ आएगा ?
 
*नहीं! नहीं!! कभी नहीं!!!*

  *सोचो! समझो!! अपना निर्णय स्वयं करो!!!*

‼️यही सत्य है! यही प्रकृति का शाश्वत नियम है!! इसे स्वीकार करो और आनंद पूर्वक जीओ।

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रविवार, 28 अगस्त 2022

रहस्य

 

      एक बार की बात है संत तुकाराम अपने आश्रम में बैठे हुए थे।
तभी उनका एक शिष्य, जो स्वाभाव से थोड़ा क्रोधी था उनके समक्ष आया और बोला-

गुरूजी, आप कैसे अपना व्यवहार इतना मधुर बनाये रहते हैं,
ना आप किसी पे क्रोध करते हैं और ना ही किसी को कुछ भला-बुरा कहते हैं?
कृपया अपने इस अच्छे व्यवहार का रहस्य बताइए?

संत बोले- मुझे अपने रहस्य के बारे में तो नहीं पता, पर मैं तुम्हारा रहस्य जानता हूँ !

“मेरा रहस्य! वह क्या है गुरु जी?” शिष्य ने आश्चर्य से पूछा।

”तुम अगले एक हफ्ते में मरने वाले हो !”
संत तुकाराम दुखी होते हुए बोले।

कोई और कहता तो शिष्य ये बात मजाक में टाल सकता था,
पर स्वयं संत तुकाराम के मुख से निकली बात को कोई कैसे काट सकता था?

शिष्य उदास हो गया और गुरु का आशीर्वाद ले वहां से चला गया।

उस समय से शिष्य का स्वभाव बिलकुल बदल सा गया।
वह हर किसी से प्रेम से मिलता और कभी किसी पे क्रोध न करता, अपना ज्यादातर समय ध्यान और पूजा में लगाता।
वह उनके पास भी जाता जिससे उसने कभी गलत व्यवहार किया था और उनसे माफ़ी मांगता।
देखते-देखते संत की भविष्यवाणी को एक हफ्ते पूरे होने को आये।

शिष्य ने सोचा चलो एक आखिरी बार गुरु के दर्शन कर आशीर्वाद ले लेते हैं। वह उनके समक्ष पहुंचा और बोला-

गुरुजी, मेरा समय पूरा होने वाला है, कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिये!”

“मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है पुत्र। अच्छा, ये बताओ कि पिछले सात दिन कैसे बीते? क्या तुम पहले की तरह ही लोगों से नाराज हुए, उन्हें अपशब्द कहे?”

संत तुकाराम ने प्रश्न किया।

“नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। मेरे पास जीने के लिए सिर्फ सात दिन थे, मैं इसे बेकार की बातों में कैसे गँवा सकता था?
मैं तो सबसे प्रेम से मिला, और जिन लोगों का कभी दिल दुखाया था उनसे क्षमा भी मांगी” शिष्य तत्परता से बोला।

"संत तुकाराम मुस्कुराए और बोले, “बस यही तो मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य है।"
"मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी मर सकता हूँ, इसलिए मैं हर किसी से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हूँ, और यही मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य है।

शिष्य समझ गया कि संत तुकाराम ने उसे जीवन का यह पाठ पढ़ाने के लिए ही मृत्यु का भय दिखाया था ।

वास्तव में हमारे पास भी सात दिन ही बचें हैं ।

रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि, आठवां दिन तो बना ही नहीं है ।
...आइये परिवर्तन आरम्भ करें...

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रविवार, 21 अगस्त 2022

डिग्री

 


*रूस के प्रसिद्ध लेखक लियो टॉलस्टॉय को एक बार अपना काम-काज देखने के लिए एक आदमी की ज़रुरत पड़ी।इस बारे में उन्होंने अपने कुछ मित्रों से भी कह दिया कि यदि उनकी जानकारी में कोई ऐसा व्यक्ति हो तो उसे भेजें।*

*कुछ दिनों बाद एक मित्र ने किसी को उनके पास भेजा। वह काफी पढ़ा लिखा था और उसके पास कई प्रकार के सर्टिफिकेट और डिग्रियां थीं। वह व्यक्ति टॉलस्टॉय से मिला, लेकिन तमाम डिग्रियां होने के बावजूद टॉलस्टॉय ने उसे नौकरी पर नहीं रखा , बल्कि एक अन्य व्यक्ति जिसके पास ऐसी कोई डिग्री नहीं थी उसका चयन कर लिया…. क्या मैं इसकी वजह जान सकता हूँ ?”*

*टॉलस्टॉय ने बताया , “मित्र, जिस व्यक्ति का मैंने चयन किया है उसके पास तो अमूल्य प्रमाणपत्र हैं, उसने मेरे कमरे में आने के पूर्व मेरी अनुमति मांगी। दरवाजे पर रखे गए डोरमैट पर जूते साफ करके रूम में प्रवेश किया। उसके कपड़े साधारण, लेकिन साफसुथरे थे। मैंने उससे जो प्रश्न किये उसके उसने बिना घुमाए-फिराए संक्षिप्त उत्तर दिए , और अंत में मुलाकात पूरी होने पर वह मेरी इज़ाज़त लेकर नम्रतापूर्वक वापस चला गया। उसने कोई खुशामद नहीं की, ना किसी की सिफारिस लाया, अधिक पढ़ा-लिखा ना होने के बावजूद उसे अपनी काबिलियत पर विश्वास था, इतने सारे प्रमाणपत्र बहुत कम लोगों के पास होते है।*

*और तुमने जिसे व्यक्ति को भेजा था उसके पास इनमे से कोई भी प्रमाणपत्र नहीं था , वह सीधा ही कमरे में चला आया, बिना आज्ञा कुर्सी पर बैठ गया , और अपनी काबिलियत की जगह तुमसे जान-पहचान के बारे में बताने लगा….. तुम्ही बताओं, उसकी इन डिग्रियों की क्या कीमत है ?”*

*मित्र टॉलस्टॉय की बात समझ गया, वह भी असल प्रमाणपत्रों की महत्ता जान चुका था।*

    *शिक्षा*

*मित्रों,अपने जीवन मे डिग्रियों के साथ साथ अपना आचरण भी उच्च कोटि का रखना चाहिए ताकि डिग्रियों की जगह अपने व्यवहार के कारण अपनी पहचान बना सके।*


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शनिवार, 20 अगस्त 2022

 

बैलगाड़ियों पर और अनेक तो पैदल ही मथुरा की ओर बढ़ चले थे। बलराम मथुरा के श्रेष्ठ मंत्री अक्रूर के रथ को, उसमें जुते घोड़ों को देख लालायित प्रतीत हो रहे थे। इधर अक्रूर भी चाहते थे कि मथुरा के निवासी देखें कि उनके तारणहार को वे स्वयं अपने साथ लेकर आ रहे हैं, अतः उन्होंने हठ करके दोनों वासुदेवों को अपने रथ में बिठा लिया। यद्यपि कनिष्ठ वासुदेव कृष्ण अपनी गोप सेना के साथ नाचते-गाते पैदल ही चलना चाहते थे, परन्तु दाऊ की इच्छा का सम्मान कर रथ में चढ़ गए।

बैल और घोड़े, दोनों पवित्र पशु। पर दोनों की चालों में अंतर तो होता ही है। रथ अपनी सामान्य गति से चलते हुए बैलगाड़ियां और पैदल चलने वालों से बहुत आगे निकल गया। कुछ ही देर में मथुरा का बाहरी प्रवेशद्वार दिखाई देने लगा, तब कृष्ण बोले, "काका, अब तनिक रथ रोक लीजिए। पीछे नन्दबाबा और मेरे मित्र आ रहे हैं। उचित है कि हम सब साथ ही नगर में प्रवेश करें।"

इसपर बलराम तनिक भड़के स्वर में बोले, "अरे, रुकने की क्या आवश्यकता है? सीधे चले चलो। बाबा और मित्रगण तो हमसे नगर के अंदर विश्रामस्थल पर मिल ही जायेंगे। क्यों काका?"

"हाँ, हाँ, जैसा तुम लोग चाहो। नगर में मैंने सबके स्वागत के लिए विशेष व्यवस्था करवा दी है। प्रथम तो हम सब मेरे निवास पर चलेंगे और जलपान इत्यादि के पश्चात तुम दोनों भाई और नन्द मेरे घर पर ही रुकोगे। तुम्हारे मित्रों के रात्रिविश्राम की भी उचित व्यवस्था है।"

"तो क्या कहता है कृष्ण? बढ़ चलें सीधे नगरी की ओर। देख, मेरी तो बड़ी इच्छा है कि झटपट नगर में प्रवेश करूँ और तनिक देखूं तो कि मेरा पिता वसुदेव की मथुरा कैसी है।"

कृष्ण यह सुन मुस्कुरा उठे और अपने नेत्रों से ही कुछ कह गए जिसे समझ उनके बड़े भाई ने रूठकर मुँह फेर लिया। यह बड़ा भाई भी विचित्र स्वभाव का था। अपने मन की कह जाता, और लगता कि उसे पूरा करने के लिए किसी की भी नहीं सुनेगा, पर जाने क्यों अपने ही छोटे भाई की बात तो मानकर उसका अनुगमन करने लगता। दोनों भाई राम-लक्ष्मण की जोड़ी जैसे थे, बस अंतर यह था कि इस युग के लक्ष्मण का नाम राम था और वह अग्रज था।

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कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात कृष्ण बोले, "दाऊ, मुझे भी मथुरा देखनी है, पर अब यह मथुरा हमारे पिता वसुदेव की मथुरा नहीं रही, यह हमारे मामा कंस की मथुरा है। मैं आपके बल से परिचित हूँ, पर आप यह तो नहीं चाहेंगे कि यदि कंस ने अचानक आक्रमण कर दिया तो दिनोंदिन वृद्ध होते जा रहे इन काका जी को शस्त्र उठाना पड़े। हम धर्म की स्थापना के लिए प्रथम पग उठाने वाले हैं दाऊ! अतः हमें प्रत्येक पल सावधान और सज्ज रहना चाहिए।"

दाऊ को इन सबमें कोई रुचि नहीं थी। कृष्ण नहीं चाहता, बस बात ही खत्म। अब इसपर आगे क्या विचार-विमर्श करना? परन्तु अक्रूर चौंक उठे। 'धर्म की स्थापना', यह सोलह वर्ष का युवक धर्म स्थापना की बात कर रहा है? आश्चर्य। वे तो मात्र राजनीति जानते थे। सत्ता परिवर्तन हुआ तो कंस का दुष्चक्र चला। अब उसकी सत्ता को हटाना है, जिसका निमित्त यह युवक बनेगा। पर 'धर्म की स्थापना'? उन्होंने कृष्ण की ओर तनिक गूढ़ दृष्टि डालते हुए प्रश्न किया, "धर्म? क्या तुम धर्म को पहचानते हो पुत्र।"

"हाँ काकाश्री! मुझे आचार्य गर्गाचार्य और मुनि सांदीपनि का अल्पावधि सानिध्य प्राप्त हुआ है। ये कंस अधर्मी है। इसके शासन में प्रजा के साथ अन्याय होता है। नागरिकों से अनुचित कर लिए जाते हैं। उनकी नैतिकता को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। स्वयं भ्रष्टाचार करके वह आम नागरिकों को भ्रष्टाचार के लिए प्रेरित करता है। सभी वर्णों की शक्ति का अनुचित प्रयोग हो रहा है। और बात केवल मथुरा तक ही सीमित नहीं है। आर्यावर्त के कई राज्यों में धर्म का मर्म समझने वाले सामर्थ्यहीनता की अवस्था में हैं। उनके सम्मुख ही अधर्म पसर रहा है और वे चुपचाप देख रहे हैं। मगध का जरासंघ तो अधर्मरूप है ही, पर हस्तिनापुर के भीष्म धृतराष्ट्र के अधर्म पर चुप हैं। मद्र के शल्य ने भी नेत्र मूंद लिए हैं। गांधार के सुबल अपने पुत्र शकुनि की लालसाओं को नहीं देख पा रहे। दामघोष भी शिशुपाल के सम्मुख असहाय हैं। विदर्भ के भीष्मक भी रुक्मी को बढ़ने से रोक नहीं पा रहे। अधर्म और स्वार्थ धीरे-धीरे पसर रहा है और उसने द्रोण जैसे परशुराम शिष्य तक को ग्रसित कर लिया है। रक्ष संस्कृति के लोग पुनः उभर रहे हैं। काकाश्री, हमें अधर्म का नाश करना है। एक बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है और हमें यह मिलजुल करना ही होगा।"

"यह तो राजनीति है पुत्र। राजनीति का धर्म से क्या सम्बन्ध?"

"धर्म को राजनीति से विलग नहीं किया जा सकता महोदय। राजाश्रय से ही धर्म अथवा अधर्म फलीभूत होते हैं। अनेकों संत मिलकर जो कार्य कर सकते हैं, वह अकेला एक राजा कर सकता है। धर्म स्थापना के लिए शास्त्र शक्ति ही पर्याप्त नहीं, शस्त्र शक्ति भी आवश्यक है। कोई धर्म की कितनी भी शिक्षा दे ले, पर जब तक अधर्म को दंड नहीं दिया जाएगा, धर्म वास्तविक उच्चता को प्राप्त नहीं कर सकेगा।"

"पर इसका उत्तरदायित्व तुम्हारा ही क्यों है? तुम तो अब तक एक ग्वाले ही थे, और अब एक यादव कुल के प्रमुख के बेटे ही तो हो! तुम इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह रहे हो, क्या यह हास्यास्पद नहीं है?"

"जिसे हँसना हो, वह हँसे काकाश्री। मुझे इससे अंतर नहीं पड़ता। लोग तो मुझे चोर और छिछोरा भी कहते हैं। फिर भी कंस के नाश के लिए आप मेरे पास ही तो आए न? मैं एक ग्वाला ही हूँ, एक यादव सरदार का किशोर पुत्र ही तो हूँ, फिर भी आप मुझमें ही अपना और यादवों का उद्धार देखते हैं न? आप मुझे यादवों का उद्धारक मानने को तो सज्ज हैं, पर समस्त मानवों के उद्धार की बात आपको हास्यास्पद लगती है! आप मुझे यादवों तक ही सीमित कर देना चाहते हैं?

"आपको बताऊँ काका, जब गर्गाचार्य ने मुझे मथुरा सहित समस्त आर्यावत की वास्तविकता बताई तब मैं गहन चिंतन में डूब गया था। फिर मैं गोवर्धन पर गया और उसकी चोटी से इस संसार को देखने का प्रयास किया। पहले मुझे मात्र गोकुल, वृंदावन, बरसाना और नन्दगाँव दिखे। फिर मुझे अपनी यह मथुरा दिखी। फिर मुझे आसपास के राज्य दिखने लगे और धीरे-धीरे मुझे यह समस्त विश्व दिखाई देने लगा। मैं मात्र गोकुल में नहीं समा सकता, मैं मात्र मथुरा तक नहीं रुक सकता। इस संसार ने वर्षों मेरी प्रतीक्षा है। नहीं, वर्षों नहीं, युगों से यह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। अब इस संसार की तपस्या समाप्त हुई।

"मैं मात्र वसुदेव का पुत्र वासुदेव नहीं हूँ। मैं स्वयं 'वासुदेव: सर्वम्' हूँ।"

अक्रूर अभी तक एक बालक को सुन रहे थे। पर अंतिम वाक्य आते-आते उस बालक का स्थान 'नारायण' ने ले लिया था।
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काफी मित्रों का आग्रह आया कि कृष्ण कथा के आगे के दृश्य भी प्रस्तुत करें, ✒️अजीत प्रताप सिंह जी वाक़ई बहुत प्यारा लिखते हैं ।

 

"अहो काका! किधर हो? तनिक शीघ्र आ जाओ आज। मुझे फटाफट निकलना है।"
   
     ✒️-अजीत प्रताप सिंह ने बहुत प्यारा लिखा है  कि तब आवाज सुन अंधक वंश के प्रमुख, सेनापति प्रद्योत बाहर आए और अपने सामने खड़ी एक अतिसुन्दर युवती को देख अचंभित रह गए। इधर-उधर देखकर, उस युवती से बोले, "अभी त्रिविका ने आवाज लगाई थी। किधर है वो? और तू कौन है बेटी?"

युवती इठलाती हुई बोली, "अहो काका, लगता है तुम्हारी आँखें कमजोर हो गई हैं। आखिर बूढ़े भी तो हो गए हो। मैं ही तो हूँ त्रिविका!"

"तू त्रिविका है? पर तेरी विकृतियां किधर गई? तू तो बिलकुल सीधी तनकर खड़ी है।"

"तो? क्या मैं जीवनभर टेढ़ी-मेढ़ी ही रहती? तुम्हें खुशी नहीं हुई कि मैं ठीक हो गई?"

यह सुन प्रद्योत आगे बढ़े और त्रिविका के सिर पर हाथ रखकर बोले, "कैसी बात करती है बेटी? कोई पिता अपनी बेटी को स्वस्थ देख खुश क्यों न होगा भला? मैं बहुत प्रसन्न हूँ बेटी। पर आश्चर्यचकित भी हूँ। क्या मथुरा में कोई वैद्याचार्य आए हैं, या स्वयं अथर्वण ऋषि आए हैं? कहीं वेदव्यास ही तो नहीं आ पहुँचे इस पापनगरी में?"

"नहीं काका, ये लोग तो नहीं आए, एक देवता आया है। मेरा कान्हा आया है।"

"कौन कान्हा रे?"

"अरे वही, जो वृंदावन में रहता है।"

"नन्द का पुत्र? क्या अक्रूर उसे ले आए?"

"हां, कल संध्या ही आ गए थे। वो नगरभ्रमण पर निकला है। मैं घर से ये फूल और सुगन्धि लेकर निकली ही थी कि वो मुझसे टकरा गया। गलती उसकी नहीं, मेरे शरीर की थी। सामान्य स्वस्थ मनुष्यों वाली चाल तो थी नहीं मेरी। एक पैर यहां पड़ता, कमर उधर लचकती, वक्ष कहीं और जाता और दूसरे पैर के साथ कमर उधर से इधर। तो कान्हा बचते-बचते भी टकरा गया। मैं गिर पड़ी, फूल और सुगंधियाँ मिट्टी में मिल गए। वो नटखट हँसा और बोला कि अरे सुंदरी, किसके स्वप्नों में खोई हो जो मुझ बालक को टक्कर मार दी। कोई अन्य व्यक्ति ऐसा बोलता तो मुझे लगता कि वह मुझ वक्र त्रिविका पर व्यंगोक्ति कर रहा है, पर वह तो कितनी प्रफुल्ल, कितनी जीवंत, कितनी मनोहारी वाणी थी। मैं तो मुग्ध ही हो गई। उसने मुझे हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश की, पर मुझ टेढ़ी को उठाना इतना सरल थोड़ी था। तो उसने मुझे कमर से पकड़ कर उठाया। उसका स्पर्श इतना अपनत्व लिए था काका कि मैं उसे शब्द नहीं दे सकती। मुझ पापी पर लोग हँसते थे, दूर भागते थे, घृणा करते थे, पर उस हँसमुख ने इतने अपनत्व से मुझे पकड़ा था कि मेरा सारा क्षोभ बह चला। मुझे रोना आ गया काका। अरे, अरे, रोती क्यों हो सुंदरी, क्या बहुत चोट आई है, कहता हुआ वह मेरे आंसू पोछने लगा। मुझे और रोना आ गया, रोते-रोते जैसे कोई बेटी अपने पिता से, या बहन अपने भाई से शिकायत करती है, मैं बोल पड़ी कि तुम मेरा उपहास क्यों करते हो। मैं विकृत अंग हूँ, घृणित त्रिविका हूँ, और तुम बार-बार सुंदरी कहकर मुझे चिढ़ा रहे हो।

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"जानते हो काका उसने क्या किया? बोलता है कि कौन कहता है कि तू असुंदर है? बता कौन से अंग विकृत हैं तेरे? फिर उसने बारी-बारी से मेरी गरदन, कंधों और कमर पर हाथ फिराया, उंगलियों से दबाया। जैसे कुम्हार कच्ची मिट्टी पर हाथ फिरा कर उसे सुंदर पात्र में बदल देता है, उसने मेरी विकृतियों को ठीक कर दिया।"

यह विचित्र वर्णन सुन प्रद्योत की दशा विचित्र हो गई। क्या यह बालक वास्तव में तारणहार है? इसकी जीवनरक्षा के लिए मैंने और कुलगुरु गर्गाचार्य ने अथक प्रयास किए थे। क्या मेरी पत्नी पूर्णिमा, जिसे लोग पूतना कहने लगे थे, को इसी ने मुक्ति दिलाई थी। इसे मारने के लिए कंस ने कितने ही असुरों को, और कई मानवों को असुर बनाकर गोकुल भेजा था। उसी को छल से मारने के लिए धनुष यज्ञ के बहाने इस उत्सव का आयोजन किया है। उनकी विचारधारा ऐसे ही बहे जा रही थी कि उनकी बाहों को उठाकर त्रिविका ने उनकी काँख और वक्ष पर सुगन्धि मल दी और बोली, "अच्छा काका, मैं तो चली। बस तुम्हें ही सुगन्धि लगाने चली आई थी। वहाँ मेरा कान्हा अकेला होगा।"

प्रद्योत को हँसी आ गई। बोले, "कान्हा अकेला होगा तो ऐसे कह रही है जैसे सुंदर होने के साथ-साथ बलवान भी हो गई है। जिस बालक ने बालपन से ही अनगिनत दुष्टों का संहार किया, वह तेरी बाट जोहता बैठा होगा क्या?"

बात तो सही थी, अतः त्रिविका लज्जित होकर बोली, "अरे नहीं काका, मैं तो बस मार्ग दिखाने की कह रही थी। कान्हा को मथुरा की गलियों का क्या पता?"

"हह, जो संसार को मार्ग दिखाने आया है, उसे तू मार्ग दिखाएगी छोरी? अच्छा तनिक रुक, मैं भी चलता हूँ तेरे साथ।"

प्रद्योत झटपट अंदर गए और उचित वस्त्र पहनकर त्रिविका के साथ पैदल ही चल पड़े। कल तक जो लोग त्रिविका को हेयदृष्टि से देखते थे, आज प्रशंसात्मक दृष्टि से निहार रहे थे। पर वह तो अपने में ही मगन बोले जा रही थी, "पता है काका, जो ये महाराज का खास चमचा रंजक है न, जो राजघराने के कपड़े बनाता-धोता है, उसकी दुकान में घुस गए दोनों भाई। लो, मैं तो बताना ही भूल गई थी। सुकुमार कान्हा के साथ उसका बलिष्ठ दाऊ भी था। उसका नाम राम है। तो इन दोनों भाइयों ने उसकी दुकान पर जाकर कुछ कपड़े खरीदने चाहे। दुष्ट रंजक ने उन्हें भला बुरा कहा। कंस को कपड़े पहनाता है तो स्वयं को कंस ही समझने लगा है। उसकी अपमानजनक बातों पर राम को क्रोध आ गया और कान्हा तो बस हँसता ही रहा। राम ने क्रोध में और कान्हा ने मजे-मजे में उसकी सारी दुकान तहस-नहस कर दी, और सारे कपड़े लोगों में बांट दिए। कान्हा ने अपने लिए पीताम्बर चुना। मुझे तो लगता है कि कान्हा ने नीलवर्णी होकर जब पीतवर्णी वस्त्र का चयन किया तो पीतवर्णी राम ने कान्हा के रंग का नीलवर्ण चुना। क्या सुंदर जोड़ी है दोनों भाइयों की। पीताम्बर कृष्ण और नीलाम्बर राम।

"और सुनो काका। जब वे लोग ऐसे ही बढ़े जा रहे थे तो एक राजरथ मार्ग में आ गया। उसपर बैठे घमंडी राजकुमार ने अनायास ही राम पर छड़ी चला दी। इन सत्ताधारियों को लगता है कि आम जनता तो मार खाने के लिए ही बनी है। बस रथ के मार्ग में ही तो थे, कह देता तो वे खुद ही हट जाते। पर नहीं, इन्हें तो लगता है कि आम जनता तो स्वयं ही इनको देखते ही मार्ग खाली कर दे।" यह बोलते हुए त्रिविका को ध्यान न रहा कि उनके साथ चल रहा व्यक्ति भी सत्ताधारी ही है, मथुरा का प्रमुख सेनापति है, जो एक मामूली गन्धी को बेटी की तरह स्नेह करता है।

"काका, राम पर छड़ी पड़ती देख कान्हा ने रथ के घोड़ों को पकड़ लिया। घोड़े उछले तो एक की टांगें कान्हा ने और दूसरे की बलराम ने पकड़ ली, और घोड़ों को पीछे की ओर धकेलते गए। रथ भी साथ-साथ पीछे चलता गया, और पीछे चली आ रही बैलगाड़ी से टकरा गया। उस बैलगाड़ी में इसी राजकुमारी की सम्बन्धी औरतें बैठी हुई थी। राजकुमार क्रोध में उतरा और बोला कि दुष्ट, तू मुझे जानता नहीं, मैं विदर्भ का राजकुमार रुक्मी हूँ। और मारने के लिए छड़ी उठाई। कान्हा ने उसका हाथ पकड़कर उसे हवा में उठा लिया और दूर फेंक दिया। फिर राम ने उसकी गरदन दबोच ली। वो तो बैलगाड़ी में बैठी स्त्रियां चीखने लगी, नहीं तो रुक्मी का तो 'राम नाम सत्य है' हो जाना था। एक स्त्री तो उसकी पत्नी थी, दूसरी बहन थी। रुक्मिणी नाम था उसका। जब वह कान्हा को डांट रही थी, तब कान्हा ने कहा कि राजकुमारी, अपने भाई को राजकुमारों की तरह व्यवहार करना सिखाओ। वह रुक्मिणी भी कान्हा को बस देखती ही रह गई थी। फिर दोनों भाई आगे बढे, और फूलों की दुकान देख मुझे अपने कर्तव्य का स्मरण हो आया। भागी-भागी तुम्हारे पास आई कि फटाफट तुम्हें सुगन्धि लगाकर कान्हा के पास लौट आऊंगी, पर तुमने मुझे बातों में लगा दिया।"

"कैसी है रे तू। पटर-पटर खुद बोले जा रही है और मुझे ही दोषी बता रही है।" तभी त्रिविका को कृष्ण-राम दिख गए। वे धनुर्वेदी तक आ पहुंचे थे और धनुष को निकट से देखने के लिए सैनिकों से अनुरोध कर रहे थे। सैनिकों ने अचानक ही सेनापति प्रद्योत को अपने सम्मुख देखा तो सावधान मुद्रा में खड़े हो गए। निकट आकर त्रिविका बोली, "कान्हा, इनसे मिलो, ये मेरे काका हैं, प्रद्योत।"

कृष्ण और राम ने उनके चरणस्पर्श किए और पूछा, "आप क्या करते हैं काका?"

प्रद्योत दोनों भाइयों के आचरण से प्रसन्न होकर बोले, "मैं मथुरा का प्रधान सेनापति हूँ।"

यह सुन राम तनिक चिढ़कर बोले, "ओहो, तो आप है कंस के रक्षक?"

कान्हा हंसकर बोला, "क्या दाऊ, तुमने सुना नहीं? ये कंस के नहीं मथुरा के रक्षक हैं। दोनों में अंतर है दाऊ। होने को तो हम भी कंस की प्रजा हैं न? क्या इस कारण हम बुरे हो जाते हैं?" प्रद्योत की ओर देख और पुनः उनके चरणस्पर्श कर कान्हा बोला, "अंधक श्रेष्ठ, ये ग्वाला आपको प्रणाम करता है।"

प्रद्योत जैसे वीर पुरुष ने जैसे-तैसे बहने के लिए आतुर अपने आसुंओं को रोका और बोले, "आप यहां क्या कर रहे थे कृष्ण?"

"क्या काका, आप त्रिविका के काका हैं तो मेरे भी तो काका हुए न। यह आप-आप क्या है? बालक हूँ आपका, मुझे स्नेह से वंचित न करें। अस्तु, हम तो इस धनुष को देखने आए थे। सुना था कि इस यज्ञ के लिए बड़ी कुशलता से इस धनुष का निर्माण किया गया है, और यज्ञ की समाप्ति के बाद एक प्रतियोगिता होगी जिसमें जो भी धनुष उठा लेगा, उसे पुरस्कृत किया जाएगा। तो हम इसे देखने का लोभ संवरण न कर पाए।"

प्रद्योत ने नेत्रों के संकेत से सैनिकों को हट जाने के लिए कहा और राम-कृष्ण को धनुष तक ले आए। कान्हा ने धनुष पर हाथ रखा और बोला, "मैं इसे उठाने का प्रयास करूँ काका?"

मनों भारी धनुष, जिसे इस वेदी पर रखने के लिए चार बलिष्ठ पुरुषों की आवश्यकता पड़ी थी, उसे उठाने की अनुमति मांग रहे हैं कृष्ण। पर कृष्ण तो अनूठे हैं। क्या पता उठा ही लें। सुना था कि गोवर्धन उठा लिया था। यदि इन्होंने इसे उठा लिया तो यह कंस की अवमानना होगी। पर मना कर दूं तो क्या यह कृष्ण की अवमानना नहीं होगी? कंस और कृष्ण में से तो कृष्ण ही 'बड़ा' है। यह सब सोच प्रद्योत ने अनुमति दे दी।

कान्हा ने धनुष को अच्छी तरह देखा, उसकी बनावट को समझने का प्रयास किया और किसी खास जगह पर हाथ रखते हुए एक झटके में उसे उठा लिया। न केवल उठा लिया, बल्कि हँसते हुए तनिक जोर लगाकर उसे तोड़ ही दिया।

कंस को चुनौती दी जा चुकी थी।

यह पराक्रम देख जनता हतबुद्धि की भांति निश्चल शांत स्तब्ध खड़ी रह गई, और इस बार प्रद्योत ने अपने आंसुओं को रोकने का तनिक भी प्रयास नहीं किया।
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शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

 पहली गाली पर सर काटने की शक्ति होने बाद भी यदि 99 और गाली सुनने का 'सामर्थ्य' है...तो वो कृष्ण हैं।


'सुदर्शन' जैसा शस्त्र होने के बाद भी यदि हाथ में हमेशा 'मुरली' है... तो वो कृष्ण हैं।


 द्वारिका' का वैभव होने के बाद भी यदि 'सुदामा' मित्र है... तो वो कृष्ण हैं।


मृत्यु' के फन पर मौजूद होने पर भी यदि 'नृत्य' है... तो वो कृष्ण हैं।


 'सर्वसामर्थ्य' होने पर भी यदि सारथी' बने हैं...तो वो कृष्ण हैं।


ब्रज में आनंद भयो

जय कन्हैयालाल की! 


सभी भारतीयों को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 😊

सोमवार, 15 अगस्त 2022

इग्नोर करना सीखिए

 


किशोरावस्था में नया नया दाढ़ी का शौक आया, पर घनत्व न आ रहा , पड़ोस में एक नाई था। उसके दर पर अपनी समस्या का निदान करने पहुंचा तो उसने कहा की आप घर पर शेव ना कीजिए।
जब शेव करवानी हो तो दुकान पर आ जाईये। कुछ दिन मैं शेव करूंगा तो ग्रोथ दुरुस्त हो जायेगी।

मैं लगभग हर रोज सुबह उस्तरा फिरवाने उसकी दुकान पर पहुंच जाता। सुबह सवेरे मेरे साथ नाई की दुकान पर एक और व्यक्ति हाज़िर रहता था।
अधेड़ उम्र का आदमी था।

नाई पहले उसकी शेव बनाता। शेव बनाते ही वह नाई को बुरा भला कहना शुरू कर देता।
रोज़ .........हर दिन नाई को कहता ........तेरा हाथ साफ नहीं है......तुझे शेव बनानी ना आती.....तूने तो मेरा चेहरा छलनी कर दिया..... तुने मेरा खून निकाल दिया......आदि इत्यादि।
उसकी एक और आदत थी। नाई उसकी शेव करने के पश्चात आफ्टर शेव लोशन लगाता था। उन दिनों ओल्ड स्पाइस का आफ्टर शेव प्रख्यात था .......शेव के पश्चात ओल्ड स्पाइस लोशन चुभता भी बहुत था।
वह व्यक्ति शेव करवाता .......फिर ओल्ड स्पाइस लोशन लगवाता और फिर ..................फिर वह ऐसी शक्ल बनाता जैसे उसके पीछे से किसी ने कस के लात मार दी हो।
ऐसा सड़ा हुआ चेहरा बनाता की देखने वाले का मुंह भी  सड़ जाए।

फिर नाई को दो बातें सुनाता और चला जाता।

मैं काफी दिन तक यह ड्रामा देखता रहा।
मैंने एक दिन नाई से कहा के भाई तू दुकानदार है की किसी का मुलाजिम है। इसे अगर ओल्ड स्पाइस चुभता है तो आज कल ऐसी आफ्टर शेव क्रीम आ गई हैं जो चुभती नहीं है।
इसे वो क्रीम लगा दिया कर। या इसके चेहरे पर फिटकरी लगा दिया कर।

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नाई बोला ......भाई ये मुझसे परेशान ना है। यह अपने आप से परेशान है।  ये बेवकूफ स्वभाव का ही कड़वा है । इसके बुरे स्वभाव के कारण  इसकी लुगाई किसी दूसरे मर्द के साथ चक्कर चल गया। वह कुछ साल पहले इसे तलाक दे कर उस मर्द के साथ सेटल हो गई। एक लड़का है उससे भी अपने कड़वे स्वभाव के कारण बनती नहीं है।
दिन भर जहरीली बातें सोचता है तो यहां भी जहर ही उगलेगा। इसे आफ्टर शेव से जलन नहीं होती। इसे जलन दिलोदिमाग में हो रही होती है।

यह वास्तविकता है। दिन भर में हमें बकवास करने वाले ........उपहास करने वाले .......कुंठाएं व्यक्त करने वाले लोग मिलते हैं। अक्सर कुछ उल्टा सीधा भी कह देते हैं। अब हम भी मोम के बने पुतले तो हैं नहीं........कोई एक कहता है तो हम दो सुना देते हैं।

लेकिन समझदारी इसी में है की जहां तक संभव हो .......अंतर्मन से जले फूंके लोगों से दूर रहना चाहिए। बेवजह आलोचना करने वालों से .....उपहास करने वालों से दूरी बना बना कर रखनी चाहिए।

किसी के अंदर जहर है तो वह ज़हर ही उगलेगा।

इस धरा पर आज भी एक बहुत बड़ा वर्ग है जो आनंदित है। जो अंतःकरण से प्रसन्न है.....अल्हादित है उल्लासित है । जिसे आलोचनाओं में नहीं प्रशंसाओं में रस मिलता है। जो  रुकावटें नहीं संभावनाएं देखता है। जो संकट नहीं सुअवसर तलाशता है।
आज का प्रसंग ही देख लीजिए, लगभग पूरा भारत स्वतंत्रता के 75 वर्षों के अमृत महोत्सव से आनन्दित है, ख़ुश है, उल्लास उमंग में है, तो कुछ कुढ़े मन से भी मिल जाएंगे, गलतियां निकलेंगे, तिरंगे पर लम्प संप ज्ञान देंगे ,पर ख़ुद आंनद में न आएंगे । बस , भूलें - गलतियां ढूंढेंगे ।

अंग्रेजी में एक शब्द है .....Toxic ........।

संभव हो तो Toxic लोगों से दूर रहें। अगर पास भी हैं तो उन्हें ऐसे नजरंदाज करें जैसे मोदीजी  केजरीवाल को करते हैं।

पंरतु किसी भी वजह से अगर आप किसी भी टॉक्सिक व्यक्ति की बकवास से स्वयं को प्रभावित कर रहे हैं तो यकीन मानिए इसमें उस व्यक्ति की कोई गलती नहीं है।
शत प्रतिशत गलती आपकी है।

*हम सारी दुनिया को सुधार नहीं सकते ......लेकिन अपनी मानसिक शांति ....स्थिरता और आनंद हेतु हम चंद सिरफिरे लोगों को नज़रअंदाज़ जरूर कर सकते हैं।*

इग्नोराय करना सीखिए ।
🎧

रविवार, 14 अगस्त 2022

राखी

 

एक कहानी पढ़ी थी
एक बहन ने अपनी भाभी को फोन किया और जानना चाहा....." भाभी , मैंने जो भैया के लिए राखी भेजी थी , मिल गयी क्या आप लोगों को " ???

भाभी : " नहीं दीदी, अभी तक तो नहीं मिली "।
.
बहन : " भाभी कल तक देख लीजिए , अगर नहीं मिली तो मैं खुद जरूर आऊंगी राखी लेकर , मेरे रहते भाई की हाथ सुनी नहीं रहनी चाहिए रक्षाबंधन के दिन " ।
.
अगले दिन सुबह ही भाभी ने खुद अपनी ननद को फोन किया : "दीदी , राखी मिल गई है , आप नाहक आने जाने का कष्ट न कीजियेगा ।"
बहन की आंखों से झर झर पानी बह निकला - उसने राखी भेजी ही न थी ।।

-ये नकारात्मक सोच वालों की, भारतीय संस्कार विहीन लोगों की कल्पित कहानियां है । ऐसी सोच से बचिए ।।

एक कहानी ये भी पढिये ...
एक बहन ने अपनी भाभी को फोन किया और जानना चाहा....." भाभी , मैंने जो भैया के लिए राखी भेजी थी , मिल गयी क्या आप लोगों को " ???

भाभी : " नहीं दीदी, अभी तक तो नहीं मिली "।
.
बहन : " भाभी कल तक देख लीजिए , अगर नहीं मिली तो मैं खुद जरूर आऊंगी राखी लेकर , मेरे रहते भाई की हाथ सुनी नहीं रहनी चाहिए रक्षाबंधन के दिन " ।

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अगले दिन सुबह ही भाभी ने खुद अपनी ननद को फोन किया : " दीदी आपकी राखी अबतक नहीं मिली , अब क्या करें बताईये " ??

ननद ने फोन रखा , अपने पति को गाड़ी लेकर साथ चलने के लिए राजी किया और चल दी राखी , मिठाई लेकर अपने मायके ।

दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लगभग पांच घंटे बाद बहन अपने मायके पहुंची ।

फ़िर सबसे पहले उसने भाई को राखी बांधी , उसके बाद घर के बाक़ी सदस्यों से मिली, खूब बातें, हंसी मजाक औऱ लाजवाब व्यंजनों का लंबा दौर चला  ।

अगले दिन जब बहन चलने लगी तो उसकी भाभी ने उसकी गाड़ी में खूब सारा सामान रख दिया....कपड़े , फल , मिठाइयां वैगेरह ।

विदा के वक़्त जब वो अपनी माँ के पैर छूने लगी तो माँ ने शिकायत के लहजे में कहा..... " अब ज़रा सा भी मेरा ख्याल नहीं करती तू , थोड़ा जल्दी जल्दी आ जाया कर बेटी , तेरे बिना उदास लगता है मुझें , तेरे भाई की नज़रे भी तुझें ढूँढ़ती रहती हैं अक़्सर "।

बहन बोली- " माँ , मैं समझ सकती हूँ आपकी भावना लेकिन उधर भी तो मेरी एक माँ हैं और इधर भाभी तो हैं आपके पास , फ़िर आप चिंता क्यों करती हैं , जब फुर्सत मिलेगा मैं भाग कर चली आऊंगी आपके पास "।

आँखों में आंसू लेकर माँ बोली- " सचमुच बेटी , तेरे जाने के बाद तेरी भाभी बहुत ख्याल रखती है मेरा, देख तुझे बुलाने के लिए तुझसे झूठ भी बोला, तेरी राखी तो दो दिन पहले ही आ गयी थी, लेकिन उसने पहले ही सबसे कह दिया था कि इसके बारे में कोई भी दीदी को बिलकुल बताना मत, राखी बांधने के बहाने इस बार दीदी को जरुर बुलाना है, वो चार सालों से मायके नहीं आयीं " ।

बहन ने अपनी भाभी को कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और रोते हुए बोली...." भाभी , मेरी माँ का इतना भी ज़्यादा ख़याल मत रखा करो कि वो मुझें भूल ही जाए " ।

भाभी की आँखे भी डबडबा गईं ।

बहन रास्ते भर गाड़ी में गुमसुम बेहद ख़ामोशी से अपनी मायके की खूबसूरत , सुनहरी , मीठी यादों की झुरमुट में लिपटी हुई बस लगातार यही प्रार्थना किए जा रही थी....." हे ऊपरवाले , ऐसी भाभी हर बहनों को मिले !"

खुराफ़ात

 

एक बार बादशाह अकबर ताजमहल के आँगन में बैठकर एक नाई से दाढ़ी बनवा रहे थे। नाई बीरबल से बहुत चिढ़ता था इसलिए हमेशा अकबर के कान भरता रहता था। शाही रसोइया रसोई से निकलते ही बोल पड़ा वाह बादशाह सलामत आज आपके दादा बाबर होते तो रसोई में बन रही कुल्फी खाकर बहुत खुश होते। 
यह सुनकर नाई के दिमाग में खुराफात सूझी। उसने कहा हुजूर क्यों न एक आदमी जन्नत में भेजकर आपके दादा हुजूर को कुछ कुल्फी भिजवा दी जाए। साथ ही आपके जन्नत में सब कैसे हैं उनका हाल भी मालूम हो जाएगा।
बादशाह खुश हुए बोले वैसे उपाय तो अच्छा है, पर किसी को भेजेंगे कैसे?
नाई नें कहा अगर एक लकड़ियों के ढेर पर एक आदमी को बैठा कर आग लगा दें तो सीधा जन्नत जाएगा। 
अकबर को उपाय अच्छा लगा। उसने कहा फिर किसे भेजा जाएगा? तुम जाओगे? नाई ने कहा हुजूर मैं कहाँ इस लायक हूँ। ऊपर से रोज कमाने खाने वाला आदमी। आप किसी अक्लमंद को भेजिए। बादशाह ने कहा - तो फिर किसे भेजें?
बीरबल को भेजिए, आदमी अक्लमन्द है और लायक भी।
बादशाह ने बीरबल को तालब किया। बीरबल ने जब यह सब सुना तो चकराए फिर बोले ठीक है एक महीने बाद, सावन की पूर्णिमा को अच्छा मुहूर्त है उसी में चले जायेंगे। 
सब तैयारियाँ हो गईं। लकड़ियों का ढेर बना दिया गया, बीरबल उसमें बैठकर जन्नत जाने वाले थे। भीड़ जमा हो गई थी।  बीरबल अंदर बैठ गए, नाई आग लगाने वाला था कि तभी वहां रानी लक्ष्मीबाई घोड़े पर बैठ कर आ पहुंची।  बोली बीरबल भैया जा रहे हो तो ये मेरी राखी हुमायुँ को दे देना। उन्हें जन्नत गए तो सालों हो गए लेकिन कलियुग का समय है क्या पता इतिहास में कौन क्या पढ़ ले।अब किसी ने ऐसा पढ़ लिया है कि मैंने भेजी थी तो अब तुम ले ही जाओ।
बीरबल ने राखी का लिफाफा लिया और आग में चला गया।
    दरअसल आग के नीचे बीरबल ने सुरंग बनवाई थी जिसके रस्ते कहीं और जाकर रहने लगा। एक महीने बाद जब लौटा तो उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। वह अकबर के दरबार में गया। अकबर उसे देखकर बहुत खुश हुए और बोले बताओ कैसे हाल हैं जन्नत में सबके और उनको कुल्फी कैसी लगी।
    हुजूर, कुल्फी तो उन्हें खास पसंद नहीं आई क्योंकि मैं आग में से गया था तो सब पिघल गई थी। सब खुश तो हैं लेकिन उनकी दाढ़ी बहुत बढ़ गई है।  कह रहे थे एक नाई को भेज दो ताकि हजामत करवा सके।
   बादशाह खुश हुआ और नाई को जन्नत जाने के लिए तैयार होने का आदेश दे दिया।
   एक बात और हुजूर आपके अब्बा हुजूर नें उस आदमी को भी बुलाया है जिसने इतिहास में यह लिख दिया कि रानी लक्ष्मीबाई नें उनको राखी भिजवाई थी। वे कुछ और बढ़िया इतिहास लिखवाना चाहते हैं। बादशाह नें उस आदमी को ढूंढने का आदेश दे दिया, नाई तो जन्नत पहुँच गया  लेकिन
उस इतिहासकार की अब तक तलाश जारी है।

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शनिवार, 13 अगस्त 2022

मधुर व्यवहार

 

एक राजा था। उसने एक सपना देखा। सपने में उससे एक परोपकारी साधु कह रहा था कि, बेटा! कल रात को तुम्हें एक विषैला सांप काटेगा और उसके काटने से तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। वह सर्प अमुक पेड़ की जड़ में रहता है। वह तुमसे पूर्व जन्म की शत्रुता का बदला लेना चाहता है।
सुबह हुई। राजा सोकर उठा। और सपने की बात अपनी आत्मरक्षा के लिए क्या उपाय करना चाहिए? इसे लेकर विचार करने लगा।
सोचते- सोचते राजा इस निर्णय पर पहुंचा कि मधुर व्यवहार से बढ़कर शत्रु को जीतने वाला और कोई हथियार इस पृथ्वी पर नहीं है। उसने सर्प के साथ मधुर व्यवहार करके उसका मन बदल देने का निश्चय किया।
शाम होते ही राजा ने उस पेड़ की जड़ से लेकर अपनी शय्या तक फूलों का बिछौना बिछवा दिया, सुगन्धित जलों का छिड़काव करवाया, मीठे दूध के कटोरे जगह जगह रखवा दिये और सेवकों से कह दिया कि रात को जब सर्प निकले तो कोई उसे किसी प्रकार कष्ट पहुंचाने की कोशिश न करें।
रात को सांप अपनी बांबी में से बाहर निकला और राजा के महल की तरफ चल दिया। वह जैसे आगे बढ़ता गया, अपने लिए की गई स्वागत व्यवस्था को देख देखकर आनन्दित होता गया। कोमल बिछौने पर लेटता हुआ मनभावनी सुगन्ध का रसास्वादन करता हुआ, जगह-जगह पर मीठा दूध पीता हुआ आगे बढ़ता था।
इस तरह क्रोध के स्थान पर सन्तोष और प्रसन्नता के भाव उसमें बढ़ने लगे। जैसे-जैसे वह आगे चलता गया, वैसे ही वैसे उसका क्रोध कम होता गया। राजमहल में जब वह प्रवेश करने लगा तो देखा कि प्रहरी और द्वारपाल सशस्त्र खड़े हैं, परन्तु उसे जरा भी हानि पहुंचाने की चेष्टा नहीं करते।
यह असाधारण सी लगने वाले दृश्य देखकर सांप के मन में स्नेह उमड़ आया। सद्व्यवहार, नम्रता, मधुरता के जादू ने उसे मंत्रमुग्ध कर लिया था। कहां वह राजा को काटने चला था, परन्तु अब उसके लिए अपना कार्य असंभव हो गया। हानि पहुंचाने के लिए आने वाले शत्रु के साथ जिसका ऐसा मधुर व्यवहार है, उस धर्मात्मा राजा को काटूं तो किस प्रकार काटूं? यह प्रश्न के चलते वह दुविधा में पड़ गया।
राजा के पलंग तक जाने तक सांप का निश्चय पूरी तरह से बदल गया। उधर समय से कुछ देर बाद सांप राजा के शयन कक्ष में पहुंचा। सांप ने राजा से कहा, राजन! मैं तुम्हें काटकर अपने पूर्व जन्म का बदला चुकाने आया था, परन्तु तुम्हारे सौजन्य और सदव्यवहार  ने मुझे परास्त कर दिया।
अब मैं तुम्हारा शत्रु नहीं मित्र हूं। मित्रता के उपहार स्वरूप अपनी बहुमूल्य मणि मैं तुम्हें दे रहा हूं। लो इसे अपने पास रखो। इतना कहकर और मणि राजा के सामने रखकर सांप चला गया।
*संक्षेप*
*यह महज कहानी नहीं जीवन की सच्चाई है। अच्छा व्यवहार कठिन से कठिन कार्यों को सरल बनाने का माद्दा रखता है। यदि व्यक्ति व्यवहार कुशल है तो वो सब कुछ पा सकता है जो पाने की वो हार्दिक इच्छा रखता है।*

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सोमवार, 8 अगस्त 2022

थोड़े में बहुत

 

चिन्तन की धारा

कछुए औसतन 300 से 500 साल जीते हैं ।
हाथी 100 से 160 साल ।
कुत्ते मात्र 10 - 12 साल ।

कछुए की लंबी ज़िन्दगी का राज़ छिपा है उसकी सांस लेने की गति और तीव्रता में ।
कछुए अपने सामान्य जीवन मे जमीन पर हवा में एक मिनट में आधे से भी कम बार सांस लेते हैं या यूं कहें कि दो तीन मिनट में एक बार सांस लेते हैं । वही कछुआ जब पानी मे चला जाता है तो आधे घंटे तक भी सिर्फ एक सांस में आराम से रहता है ।
पर वही कछुआ जब Hibernation अर्थात शीत निद्रा में चला जाता है तो 6 महीने तक बिना सांस लिये रह लेता है ।

कछुए की लंबी और सुखी ज़िन्दगी का राज़ है -- कम से कम में जीवित रह लेना ।
किसी भी परिस्थिति में सुख से जीवित रह लेना ।

कुत्ता इसलिये इतना कम जीता है क्योंकि उसे प्रति मिनट 30 बार सांस लेनी है । दौड़ने भागने भौंकने लगा तो 200 बार प्रति मिनट । कुत्ते भी अगर 5 मिनट में एक बार सांस लेकर जीना सीख जाते तो वो भी 100 बरस सुख से जीते ।

सुखी जीवन का मूल मंत्र -- न्यूनतम में जीना सीखो।
किसी भी परिस्थिति में जीना सीखो ।
अपनी जरूरतों को कम से कम करते जाओ ।
यहां तक कि Zero पे ले आओ ।

जीवन मे कछुआ बन जाओ ।
कछुआ कभी हड़बड़ी में नही जीता ।

सुख से जीना है तो ज़रूरतें घटानी शुरू करो ।
कम से कम कपड़े , घर और जीवन मे कम से कम सामान accesories , Baggage .....
कम से कम रिश्ते नाते , कम से कम न्योता हँकारी ......
कम से कम /  न्यूनतम Formalities ......
न्यूनतम भोजन ......

सुखी रहना है तो धीरे धीरे आदमी से कछुआ बन जाओ ।
-अजित सिंह का की प्रेरणा, जो अब वानप्रस्थी हुवे ।

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रविवार, 7 अगस्त 2022

मूर्ख दिखना

 

एक गाँव में एक अर्थविद रहता था, उसकी ख्याति दूर दूर तक फैली थी। एक बार वहाँ के राजा ने उसे चर्चा पर बुलाया।

काफी देर चर्चा के बाद उसने कहा "महाशय, आप बहुत बडे अर्थ ज्ञानी है, पर आपका लडका इतना मूर्ख क्यों है? उसे भी कुछ सिखायें। उसे तो सोने चांदी तक में मूल्यवान क्या है यह भी नही पता॥"
यह कहकर वह जोर से हंस पडा।

अर्थविद को बुरा लगा, वह घर गया व लडके से पूछा "सोना व चांदी में अधिक मूल्यवान क्या है?"

"सोना", बिना एक पल भी गंवाए उसके लडके ने कहा।

"तुम्हारा उत्तर तो ठीक है, फिर राजा ने ऐसा क्यूं  कहा? सभी के बीच मेरी खिल्ली भी उठाई।"

लडके को समझ मे आ गया । वह बोला "राजा गाँव के पास एक खुला दरबार लगाते हैं, जिसमें सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति भी शामिल होते हैं। यह दरबार मेरे स्कूल जाने के मार्ग में ही पड़ता है।

मुझे देखते ही बुलवा लेते हैं, अपने एक हाथ मे सोने का व दूसरे मे चांदी का सिक्का रखकर, जो अधिक मूल्यवान है वह ले लेने को कहते हैं और मैं चांदी का सिक्का ले लेता हूं।
सभी ठहाका लगाकर हंसते हैं व मजा लेते हैं।
ऐसा तकरीबन हर दूसरे दिन होता है।"

"फिर तुम सोने का सिक्का क्यों नही उठाते, चार लोगों के बीच क्यों अपनी फजीहत कराते हो व साथ में मेरी भी।"

लडका हंसा व हाथ पकडकर अर्थविद को अंदर ले गया ऒर कपाट से एक पेटी निकालकर दिखाई जो चांदी के सिक्कों से भरी हुई थी।

यह देख अर्थविद हतप्रभ रह गया।

लडका बोला "जिस दिन मैंने सोने का सिक्का उठा लिया उस दिन से यह खेल बंद हो जाएगा। वो मुझे मूर्ख समझकर मजा लेते हैं तो लेने दें, यदि मैं बुद्धिमानी दिखाउंगा तो कुछ नही मिलेगा।"
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*मूर्ख होना अलग बात है व समझा जाना अलग। स्वर्णिम मौक़े का फायदा उठाने से बेहतर है हर मौक़े को स्वर्ण में तब्दील करना।*

*जैसे समुद्र सबके लिए समान होता है, कुछ लोग पानी के अंदर टहलकर आ जाते हैं, कुछ मछलियाँ ढूंढ पकड लाते हैं व कुछ मोती चुन कर आते हैं।*

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शनिवार, 6 अगस्त 2022

जैसा बोया

 

एक बार एक सर्वगुणी राजा घोड़े के तबेलें में घुमनें में व्यस्त थे तभी एक साधु भिक्षा मांगने के लिए तबेलें में ही आए और राजा से बोले  "मम् भिक्षाम् देहि..!!" राजा ने बिना विचारे तबेले से घोडें की लीद उठाई और उसके पात्र में डाल दी। राजा ने यह भी नहीं विचारा कि इसका परिणाम कितना दुखदायी होगा। साधु भी शांत स्वभाव होने के कारण भिक्षा ले वहाँ से चले गए। और कुटिया के बाहर एक कोने में डाल दी।
   कुछ समय उपरान्त राजा उसी जंगल में शिकार वास्ते गए। राजा ने जब जंगल में देखा एक कुटिया के बाहर घोड़े की लीद का ढेर लगा था। उसने देखा कि यहाँ तो न कोई तबेला है और न ही दूर-दूर तक कोई घोडे दिखाई दे रहे हैं। वह आश्चर्यचकित हो कुटिया में गए और साधु से बोले "महाराज! आप हमें एक बात बताइए यहाँ कोई घोड़ा भी नहीं न ही तबेला है तो यह इतनी सारी घोड़े की लीद कहा से आई !" साधु ने कहा " राजन्! लगता है आपने हमें पहचाना नही! यह लीद तो आपकी ही दी हुई है!" यह सुन राजा ने उस साधु को ध्यान से देखा और बोले हाँ  महाराज! आपको हमने पहचान लिया। पर आप हमें एक बात का जवाब दीजिए हमने तो थोड़ी-सी लीद दी थी पर यह तो बहुत सारी हो गयी है इतनी सारी कैसे हो गयी कृपया कर हमें विस्तार से समझाइए।
   साधु ने कहा "आप जितनी भी भिक्षा देते है और जो भी देते है वह दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित हो जाती है यह उसी का परिणाम है। और जब हम यह शरीर छोड़ते है तो आपको यह सब खानी पड़ेगी।" राजा यह सब सुनकर दंग रह गया और नासमझी के कारण आँखों में अश्रु भर चरणों में नतमस्तक हो साधु महाराज से विनती कर बोले "महाराज! मुझे क्षमा कर दीजिए मैं तो एक रत्ती भर लीद नहीं खा सकूँगा।आइन्दा मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।" कृपया कोई ऐसा उपाय बता दीजिए! जिससे मैं अपने कर्मों को वजन हल्का कर सकूँ!"
   साधु ने जब राजा की ऐसी दुखमयी हालात देखी तो उन्होंने कहा "राजन्! एक उपाय है जिसमें आपको ऐसा कारज करना है जिससे सभी प्रजाजन आपकी निंदा करें आपको ऐसा कोई कारज नहीं करना है जो गलत हो! आपको अपने को दूसरों की नज़र में गलत दर्शाना है बस!! और अपनी नजर में वह कारज आपने न किया हो।" यह सुन राजा ने महल में आ काफी सोच-विचार कर जिससे कि उनकी निंदा हो ।
   वह उसी रात एक वैश्या के कोठे पर बाहर ही चारपाई पर रात भर बैठ रात बिता जब सब प्रजाजन उठ गए तो वापिस आये तो सब लोग आपस में राजा की निंदा करने लगे कि कैसा राजा है कितना निंदनीय कृत्य कर रहा है क्या यह शोभनीय है ??  बगैरा-बगैरा!! इसप्रकार की निंदा से राजा के पाप की गठरी हल्की होने लगी। अब राजा दोबारा उसी साधु के पास गए तो घोड़े की लीद के ढेर को मुट्ठी भर में परवर्तित देख बोले "महाराज! यह कैसे हुआ? ढेर में इतना बड़ा परिवर्तन!!" साधू ने कहा "यह निंदा के कारण हुआ है राजन् आपकी निंदा करने के कारण सब प्रजाजनों में बराबर-बराबर लीद आप बँट गयी है जब हम किसी की बेवजह निंदा करते है तो हमें उसके पाप का बोझ उठाना होता है अब जो तुमने घोड़े की लीद हमें दी थी वह ही पड़ी ही वह तो आपको ही थाली में दी जायेगी। अब इसको तुम चूर्ण बना के खाओ, सब्जी में डाल के खाओ या पानी में घोलकर पीओ यह तो आपको ही खानी पड़ेगी राजन्! अपना किया कर्म तो हमें ही भुगतना है जी चाहे हँस के भुगतो या रो कर सब आप ही भोगना है।
"जैसा दोगे वैसा ही लौट कर थाली में वापिस आएगा!"

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