"अहो काका! किधर हो? तनिक शीघ्र आ जाओ आज। मुझे फटाफट निकलना है।"
✒️-अजीत प्रताप सिंह ने बहुत प्यारा लिखा है कि तब आवाज सुन अंधक वंश के प्रमुख, सेनापति प्रद्योत बाहर आए और अपने सामने खड़ी एक अतिसुन्दर युवती को देख अचंभित रह गए। इधर-उधर देखकर, उस युवती से बोले, "अभी त्रिविका ने आवाज लगाई थी। किधर है वो? और तू कौन है बेटी?"
युवती इठलाती हुई बोली, "अहो काका, लगता है तुम्हारी आँखें कमजोर हो गई हैं। आखिर बूढ़े भी तो हो गए हो। मैं ही तो हूँ त्रिविका!"
"तू त्रिविका है? पर तेरी विकृतियां किधर गई? तू तो बिलकुल सीधी तनकर खड़ी है।"
"तो? क्या मैं जीवनभर टेढ़ी-मेढ़ी ही रहती? तुम्हें खुशी नहीं हुई कि मैं ठीक हो गई?"
यह सुन प्रद्योत आगे बढ़े और त्रिविका के सिर पर हाथ रखकर बोले, "कैसी बात करती है बेटी? कोई पिता अपनी बेटी को स्वस्थ देख खुश क्यों न होगा भला? मैं बहुत प्रसन्न हूँ बेटी। पर आश्चर्यचकित भी हूँ। क्या मथुरा में कोई वैद्याचार्य आए हैं, या स्वयं अथर्वण ऋषि आए हैं? कहीं वेदव्यास ही तो नहीं आ पहुँचे इस पापनगरी में?"
"नहीं काका, ये लोग तो नहीं आए, एक देवता आया है। मेरा कान्हा आया है।"
"कौन कान्हा रे?"
"अरे वही, जो वृंदावन में रहता है।"
"नन्द का पुत्र? क्या अक्रूर उसे ले आए?"
"हां, कल संध्या ही आ गए थे। वो नगरभ्रमण पर निकला है। मैं घर से ये फूल और सुगन्धि लेकर निकली ही थी कि वो मुझसे टकरा गया। गलती उसकी नहीं, मेरे शरीर की थी। सामान्य स्वस्थ मनुष्यों वाली चाल तो थी नहीं मेरी। एक पैर यहां पड़ता, कमर उधर लचकती, वक्ष कहीं और जाता और दूसरे पैर के साथ कमर उधर से इधर। तो कान्हा बचते-बचते भी टकरा गया। मैं गिर पड़ी, फूल और सुगंधियाँ मिट्टी में मिल गए। वो नटखट हँसा और बोला कि अरे सुंदरी, किसके स्वप्नों में खोई हो जो मुझ बालक को टक्कर मार दी। कोई अन्य व्यक्ति ऐसा बोलता तो मुझे लगता कि वह मुझ वक्र त्रिविका पर व्यंगोक्ति कर रहा है, पर वह तो कितनी प्रफुल्ल, कितनी जीवंत, कितनी मनोहारी वाणी थी। मैं तो मुग्ध ही हो गई। उसने मुझे हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश की, पर मुझ टेढ़ी को उठाना इतना सरल थोड़ी था। तो उसने मुझे कमर से पकड़ कर उठाया। उसका स्पर्श इतना अपनत्व लिए था काका कि मैं उसे शब्द नहीं दे सकती। मुझ पापी पर लोग हँसते थे, दूर भागते थे, घृणा करते थे, पर उस हँसमुख ने इतने अपनत्व से मुझे पकड़ा था कि मेरा सारा क्षोभ बह चला। मुझे रोना आ गया काका। अरे, अरे, रोती क्यों हो सुंदरी, क्या बहुत चोट आई है, कहता हुआ वह मेरे आंसू पोछने लगा। मुझे और रोना आ गया, रोते-रोते जैसे कोई बेटी अपने पिता से, या बहन अपने भाई से शिकायत करती है, मैं बोल पड़ी कि तुम मेरा उपहास क्यों करते हो। मैं विकृत अंग हूँ, घृणित त्रिविका हूँ, और तुम बार-बार सुंदरी कहकर मुझे चिढ़ा रहे हो।
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"जानते हो काका उसने क्या किया? बोलता है कि कौन कहता है कि तू असुंदर है? बता कौन से अंग विकृत हैं तेरे? फिर उसने बारी-बारी से मेरी गरदन, कंधों और कमर पर हाथ फिराया, उंगलियों से दबाया। जैसे कुम्हार कच्ची मिट्टी पर हाथ फिरा कर उसे सुंदर पात्र में बदल देता है, उसने मेरी विकृतियों को ठीक कर दिया।"
यह विचित्र वर्णन सुन प्रद्योत की दशा विचित्र हो गई। क्या यह बालक वास्तव में तारणहार है? इसकी जीवनरक्षा के लिए मैंने और कुलगुरु गर्गाचार्य ने अथक प्रयास किए थे। क्या मेरी पत्नी पूर्णिमा, जिसे लोग पूतना कहने लगे थे, को इसी ने मुक्ति दिलाई थी। इसे मारने के लिए कंस ने कितने ही असुरों को, और कई मानवों को असुर बनाकर गोकुल भेजा था। उसी को छल से मारने के लिए धनुष यज्ञ के बहाने इस उत्सव का आयोजन किया है। उनकी विचारधारा ऐसे ही बहे जा रही थी कि उनकी बाहों को उठाकर त्रिविका ने उनकी काँख और वक्ष पर सुगन्धि मल दी और बोली, "अच्छा काका, मैं तो चली। बस तुम्हें ही सुगन्धि लगाने चली आई थी। वहाँ मेरा कान्हा अकेला होगा।"
प्रद्योत को हँसी आ गई। बोले, "कान्हा अकेला होगा तो ऐसे कह रही है जैसे सुंदर होने के साथ-साथ बलवान भी हो गई है। जिस बालक ने बालपन से ही अनगिनत दुष्टों का संहार किया, वह तेरी बाट जोहता बैठा होगा क्या?"
बात तो सही थी, अतः त्रिविका लज्जित होकर बोली, "अरे नहीं काका, मैं तो बस मार्ग दिखाने की कह रही थी। कान्हा को मथुरा की गलियों का क्या पता?"
"हह, जो संसार को मार्ग दिखाने आया है, उसे तू मार्ग दिखाएगी छोरी? अच्छा तनिक रुक, मैं भी चलता हूँ तेरे साथ।"
प्रद्योत झटपट अंदर गए और उचित वस्त्र पहनकर त्रिविका के साथ पैदल ही चल पड़े। कल तक जो लोग त्रिविका को हेयदृष्टि से देखते थे, आज प्रशंसात्मक दृष्टि से निहार रहे थे। पर वह तो अपने में ही मगन बोले जा रही थी, "पता है काका, जो ये महाराज का खास चमचा रंजक है न, जो राजघराने के कपड़े बनाता-धोता है, उसकी दुकान में घुस गए दोनों भाई। लो, मैं तो बताना ही भूल गई थी। सुकुमार कान्हा के साथ उसका बलिष्ठ दाऊ भी था। उसका नाम राम है। तो इन दोनों भाइयों ने उसकी दुकान पर जाकर कुछ कपड़े खरीदने चाहे। दुष्ट रंजक ने उन्हें भला बुरा कहा। कंस को कपड़े पहनाता है तो स्वयं को कंस ही समझने लगा है। उसकी अपमानजनक बातों पर राम को क्रोध आ गया और कान्हा तो बस हँसता ही रहा। राम ने क्रोध में और कान्हा ने मजे-मजे में उसकी सारी दुकान तहस-नहस कर दी, और सारे कपड़े लोगों में बांट दिए। कान्हा ने अपने लिए पीताम्बर चुना। मुझे तो लगता है कि कान्हा ने नीलवर्णी होकर जब पीतवर्णी वस्त्र का चयन किया तो पीतवर्णी राम ने कान्हा के रंग का नीलवर्ण चुना। क्या सुंदर जोड़ी है दोनों भाइयों की। पीताम्बर कृष्ण और नीलाम्बर राम।
"और सुनो काका। जब वे लोग ऐसे ही बढ़े जा रहे थे तो एक राजरथ मार्ग में आ गया। उसपर बैठे घमंडी राजकुमार ने अनायास ही राम पर छड़ी चला दी। इन सत्ताधारियों को लगता है कि आम जनता तो मार खाने के लिए ही बनी है। बस रथ के मार्ग में ही तो थे, कह देता तो वे खुद ही हट जाते। पर नहीं, इन्हें तो लगता है कि आम जनता तो स्वयं ही इनको देखते ही मार्ग खाली कर दे।" यह बोलते हुए त्रिविका को ध्यान न रहा कि उनके साथ चल रहा व्यक्ति भी सत्ताधारी ही है, मथुरा का प्रमुख सेनापति है, जो एक मामूली गन्धी को बेटी की तरह स्नेह करता है।
"काका, राम पर छड़ी पड़ती देख कान्हा ने रथ के घोड़ों को पकड़ लिया। घोड़े उछले तो एक की टांगें कान्हा ने और दूसरे की बलराम ने पकड़ ली, और घोड़ों को पीछे की ओर धकेलते गए। रथ भी साथ-साथ पीछे चलता गया, और पीछे चली आ रही बैलगाड़ी से टकरा गया। उस बैलगाड़ी में इसी राजकुमारी की सम्बन्धी औरतें बैठी हुई थी। राजकुमार क्रोध में उतरा और बोला कि दुष्ट, तू मुझे जानता नहीं, मैं विदर्भ का राजकुमार रुक्मी हूँ। और मारने के लिए छड़ी उठाई। कान्हा ने उसका हाथ पकड़कर उसे हवा में उठा लिया और दूर फेंक दिया। फिर राम ने उसकी गरदन दबोच ली। वो तो बैलगाड़ी में बैठी स्त्रियां चीखने लगी, नहीं तो रुक्मी का तो 'राम नाम सत्य है' हो जाना था। एक स्त्री तो उसकी पत्नी थी, दूसरी बहन थी। रुक्मिणी नाम था उसका। जब वह कान्हा को डांट रही थी, तब कान्हा ने कहा कि राजकुमारी, अपने भाई को राजकुमारों की तरह व्यवहार करना सिखाओ। वह रुक्मिणी भी कान्हा को बस देखती ही रह गई थी। फिर दोनों भाई आगे बढे, और फूलों की दुकान देख मुझे अपने कर्तव्य का स्मरण हो आया। भागी-भागी तुम्हारे पास आई कि फटाफट तुम्हें सुगन्धि लगाकर कान्हा के पास लौट आऊंगी, पर तुमने मुझे बातों में लगा दिया।"
"कैसी है रे तू। पटर-पटर खुद बोले जा रही है और मुझे ही दोषी बता रही है।" तभी त्रिविका को कृष्ण-राम दिख गए। वे धनुर्वेदी तक आ पहुंचे थे और धनुष को निकट से देखने के लिए सैनिकों से अनुरोध कर रहे थे। सैनिकों ने अचानक ही सेनापति प्रद्योत को अपने सम्मुख देखा तो सावधान मुद्रा में खड़े हो गए। निकट आकर त्रिविका बोली, "कान्हा, इनसे मिलो, ये मेरे काका हैं, प्रद्योत।"
कृष्ण और राम ने उनके चरणस्पर्श किए और पूछा, "आप क्या करते हैं काका?"
प्रद्योत दोनों भाइयों के आचरण से प्रसन्न होकर बोले, "मैं मथुरा का प्रधान सेनापति हूँ।"
यह सुन राम तनिक चिढ़कर बोले, "ओहो, तो आप है कंस के रक्षक?"
कान्हा हंसकर बोला, "क्या दाऊ, तुमने सुना नहीं? ये कंस के नहीं मथुरा के रक्षक हैं। दोनों में अंतर है दाऊ। होने को तो हम भी कंस की प्रजा हैं न? क्या इस कारण हम बुरे हो जाते हैं?" प्रद्योत की ओर देख और पुनः उनके चरणस्पर्श कर कान्हा बोला, "अंधक श्रेष्ठ, ये ग्वाला आपको प्रणाम करता है।"
प्रद्योत जैसे वीर पुरुष ने जैसे-तैसे बहने के लिए आतुर अपने आसुंओं को रोका और बोले, "आप यहां क्या कर रहे थे कृष्ण?"
"क्या काका, आप त्रिविका के काका हैं तो मेरे भी तो काका हुए न। यह आप-आप क्या है? बालक हूँ आपका, मुझे स्नेह से वंचित न करें। अस्तु, हम तो इस धनुष को देखने आए थे। सुना था कि इस यज्ञ के लिए बड़ी कुशलता से इस धनुष का निर्माण किया गया है, और यज्ञ की समाप्ति के बाद एक प्रतियोगिता होगी जिसमें जो भी धनुष उठा लेगा, उसे पुरस्कृत किया जाएगा। तो हम इसे देखने का लोभ संवरण न कर पाए।"
प्रद्योत ने नेत्रों के संकेत से सैनिकों को हट जाने के लिए कहा और राम-कृष्ण को धनुष तक ले आए। कान्हा ने धनुष पर हाथ रखा और बोला, "मैं इसे उठाने का प्रयास करूँ काका?"
मनों भारी धनुष, जिसे इस वेदी पर रखने के लिए चार बलिष्ठ पुरुषों की आवश्यकता पड़ी थी, उसे उठाने की अनुमति मांग रहे हैं कृष्ण। पर कृष्ण तो अनूठे हैं। क्या पता उठा ही लें। सुना था कि गोवर्धन उठा लिया था। यदि इन्होंने इसे उठा लिया तो यह कंस की अवमानना होगी। पर मना कर दूं तो क्या यह कृष्ण की अवमानना नहीं होगी? कंस और कृष्ण में से तो कृष्ण ही 'बड़ा' है। यह सब सोच प्रद्योत ने अनुमति दे दी।
कान्हा ने धनुष को अच्छी तरह देखा, उसकी बनावट को समझने का प्रयास किया और किसी खास जगह पर हाथ रखते हुए एक झटके में उसे उठा लिया। न केवल उठा लिया, बल्कि हँसते हुए तनिक जोर लगाकर उसे तोड़ ही दिया।
कंस को चुनौती दी जा चुकी थी।
यह पराक्रम देख जनता हतबुद्धि की भांति निश्चल शांत स्तब्ध खड़ी रह गई, और इस बार प्रद्योत ने अपने आंसुओं को रोकने का तनिक भी प्रयास नहीं किया।
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