राज्य में वेश बदल कर अपने प्रधानमंत्री के साथ घूमता हुआ राजा अचानक एक दुकान के सामने ठिठक कर खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री ने कारण पूछा तो राजा ने कहा, "इस दुकानदार को कल फाँसी पर लटका दो।"
यह बोलकर वह आगे बढ़ गया। अब मन्त्री का साहस नहीं हुआ कि इसका भी कारण पूछे राजा से, तो उसने अपने ढंग से जाँच पड़ताल करने का निश्चय किया।
राजा के साथ मन्त्री राजमहल पहुंचा तथा वापस अपने घर लौटने के लिए उसी दुकान की ओर से निकला।
वह उस दुकानदार के पास पहुँचा और बातचीत करने लगा,.. "आप क्या व्यापार करते हैं?"
"जी, बहुत उच्च कोटि के चन्दन का।"
"परन्तु आपकी दुकान पर कोई ग्राहक तो दिखता ही नहीं है, फिर कैसे व्यापार हो रहा है?"
दुकानदार बोला, "जी, हमारा चन्दन अत्यधिक उच्च कोटि का है जो सामान्य व्यक्ति नहीं खरीद सकता है, केवल राजपरिवार द्वारा ही खरीदा जा सकता है। इसीलिए मैं सोचता रहता हूँ कि यदि राजा या राजपरिवार का कोई व्यक्ति मर जाए तो उसको जलाने में ही इतने सारे चन्दन की बिक्री हो सकती है।"
बुद्धिमान प्रधानमंत्री अब समझ गया कि आखिर क्यों एक अनजान से दुकानदार को अपरिचित होने पर भी राजा ने सूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। क्योंकि यह अपने चन्दन की बिक्री के लिए राजा के मरने की रोज कामना करता था और इसको देखते ही वही तरंगें राजा के मस्तिष्क ने पकड़ लीं। देखा जाय तो दोषी कोई नहीं है, बस विचारों की ही क्रीड़ा (खेल) थी ये, लेकिन इसी के चलते कल यह सूली चढ़ जाता।
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मंत्री ने एक नया प्रयोग करने की सोचा। उसने चन्दन के कुछ टुकड़े खरीद लिए और अगले दिन राजसभा में वह वही चन्दन लेकर राजा के पास गया और कहा, "महाराज, एक दुकानदार ने यह चन्दन आपको भेंट (गिफ्ट) में दिया है।"
राजा ने चन्दन को उलट पलट कर, सूँघ कर देखा और फिर प्रसन्न होते हुए कहा, "मन्त्री जी! यह तो श्रेष्ठतम चन्दन है। कौन सा दुकानदार है जो ऐसा चन्दन बेचता है?"
मन्त्री ने बताया कि, "महाराज! यह वही दुकानदार है जिसको आप आज सूली पर लटकाने का आदेश दिए हैं।"
अब राजा मन ही मन बहुत लज्जित हुआ कि, "मैं तो अकारण ही उसको सूली पर लटकवाने वाला था और उसने मेरे बारे में इतना अच्छा सोच रखते हुए मुझे उपहार दिया है। यह मैंने क्या कर दिया?" प्रत्यक्ष में वह मन्त्री से कहा, "मन्त्री जी! मैं अपने उस आदेश को वापस लेता हूँ तथा आप अभी जाकर खजाने से कुछ स्वर्णमुद्राएँ उस दुकानदार को दे दीजिये।"
राजा का हृदयपरिवर्तन हुआ, अब मन्त्री जी ने दुकानदार को स्वर्णमुद्राएँ देते हुए कहा, "यह राजा ने आपके लिए भिजवाया है।"
इतनी स्वर्णमुद्राएँ देखकर अब दुकानदार लज्जित होकर पछताने लगा, "हाय-हाय! हमारे राजा इतने अच्छे हैं और मैं उनके या उनके परिवार के किसी की मृत्यु की रोज कामना किया करता था।" इस प्रकार उसका भी हृदयपरिवर्तन हुआ।
कुछ दिनों बाद प्रधानमन्त्री से बातचीत के बीच राजा ने अचानक पूछ लिया, "मन्त्री जी! यह रहस्य समझ नहीं आ पाया मुझे आजतक कि आखिर उस दिन उस दुकानदार को देखते ही मेरे मन में उसको सूली चढ़ाने की इच्छा क्यों उत्पन्न हो आई? जबकि मैं तो उसको जानता तक नहीं था।"
तब मन्त्री ने सारी कथा बताकर कहा, "महाराज, आपका भी तनिक भी दोष नहीं था क्योंकि वह दुकानदार ही अक्सर आपकी मृत्यु के बारे में सोचता रहता था। तो उसके मस्तिष्क से अनवरत निकलती नकारात्मक तरंगों को आपके मस्तिष्क ने तुरन्त पकड़ लिया और आपने उसी के प्रत्युत्तर में आदेश दे दिया। हम अक्सर कई घटनाओं से अनभिज्ञ रहते हैं परन्तु उसके बारे में हम एक क्षण में निर्णय ले लेते हैं, उस निर्णय के पीछे ऐसी ही नकारात्मक या सकारात्मक तरंगें होती हैं।"
"क्या ये मानसिक तरंगें इतनी शक्तिशाली होती हैं मन्त्री जी?"
"जी महाराज! हमारा सारा जीवन ही इन्हीं तरंगों के द्वारा निर्देशित होता है। एक माँ को हजारों कोस दूर बैठे पुत्र के चिंतित होने पर वह यहाँ अनायास ही घबड़ा उठती है। यह वही तरंगें हैं। जब हमारा कोई अत्यंत प्रिय, सङ्कट में होता है तो प्रत्येक व्यक्ति चिंतित हो उठता है। भले ही वह कारण न जाने, पर चिंतित तो हो ही उठता है! बस आपके चिंतित होने की तीव्रता 'आपके प्रेम की तीव्रता' के समानुपाती होती है। यही कारण है कि हम अचानक किसी अपरिचित को देखकर प्रसन्न हो उठते हैं या खिन्न। मन की तरंगें जैसे ही आपस में जुड़ती हैं उनकी प्रतिक्रिया अवश्य होनी है।"
"महाराज! कोई युवक किसी युवती को प्रथम बार देखकर ही प्रेम में पड़ जाता है, इसका भी कारण यही तरंगें हैं। जैसे ही वे एक समान तीव्रता पर आती हैं, अपना असर दिखा देती हैं। छोटे बच्चे, जिनको यह ज्ञान नहीं होता है कि कौन सुन्दर/ कुरूप है और कौन ज्ञानी/ अज्ञानी, तथापि वे कुछ अपरिचितों को देख कर प्रसन्न होकर किलकारी मारने लगते हैं तो किसी अन्य अपरिचित को देखकर रोने लगते हैं। उनका मस्तिष्क यह भाँप जाता है कि कौन व्यक्ति उनके प्रति क्या सोच रखता है।"
"तो क्या अपनी खुद की सोच भी खुद के ऊपर असर डालती है?"
"बिल्कुल सही प्रश्न उठाया है महाराज! उत्तर है 'हाँ'!
स्वयं की सोच का स्वयं पर सर्वाधिक असर होता है। क्योंकि हमारे भीतर की तरंगें भीतर ही भीतर परावर्तित होते हुए असंख्य बार गुणित होती रहती हैं अतः स्वयँ के बारे में तो भूलकर भी नकारात्मक कभी नहीं सोचना चाहिए। इसी प्रकार हमें यदि कोई भी युद्ध/ परीक्षा आदि में यदि जीतना/ उत्तीर्ण होना है तो अपने बारे में नकारात्मक सोचना ही नहीं चाहिए।"
"राजन, सुदूर पश्चिम में एक कबीला है जो हरे पेड़ों को काटना पाप समझता है। अतः यदि लकड़ी की आवश्यकता पड़ जाती है तो समूचा कबीला किसी पेड़ के पास खड़े होकर उस वृक्ष को जोर जोर से कोसने लगता है। इस प्रकार कुछ ही दिनों में वह हरा-भरा पेड़ सूख जाता है तो उसको काट लिया जाता है। महाराज! खुद को खुद ही कोसना, सारी दुनिया के कोसने से कहीं अधिक भयावह होता है।"
"किन्तु मन्त्री जी! यदि कोई अत्यन्त ही दुःखी हो या संताप में हो, तो वह किस प्रकार भला या अच्छा सोच सकता है?"
"महाराज! यहाँ ही धर्म का प्रभाव दिखता है। हमारे मन्त्रों में यह शक्ति है कि वे इन मानसिक तरंगों को या तो अहानिकारक स्तर तक कम कर सकती हैं या उन्हें एकदम ही बंद कर सकती हैं।
दूसरा उपाय है श्रीमद्भागवत का पाठ। यह ग्रन्थ सभी प्रकार की चिन्ताओं को हर लेता है। इसमें भगवान कृष्ण यही तो कहते हैं कि अपनी सारी चिन्ताओं को मुझे अर्पण कर दो तथा चिंतामुक्त होकर अपने-अपने युद्ध लड़ो। अपने भविष्य के लिए लड़ना तो मनुष्य को ही पड़ता है, भगवान् केवल इतना करते हैं कि 'आपकी सत्यनिष्ठा से किये हुए कार्य के प्रभाव को गुणित कर देते हैं'। लगन तो आपको दिखानी होगी, खुद पर विश्वास तो आपको ही करना होगा, अपने परिश्रम को पुरी निष्ठा से आपको ही करना होगा।"