सोमवार, 31 जनवरी 2022

हिंसा किसे मानेंगे

 

*सोमवारीय चिन्तन ...*

हिंसा क्या है ?  इसे कृपया अंग्रेज़ी से अनुवाद करके न समझें ..

हिंसा और violence का आपस में कोई वैसा संबंध नहीं है जैसा अनुवादक समझते हैं ।

क्या आप किसी को बिना कारण दो थप्पड़ जड़ देते हैं वही हिंसा है ?

जी नहीं , जब हमारे सामने एक सीधा साधा व्यक्ति हमसे हमारी दुकान में कुछ क्रय करने को आता है और उसे हम ठग लेते हैं वह भी हिंसा है ।

जब हम वकील बनकर अपने चातुर्य के बल पर अपनी युक्तियों से एक निरीह और दोषहीन को सजा दिलवा देते हैं, वह भी हिंसा है ।

एक डॉक्टर जब छूरी से सर्जरी कर रहा होता है तो सनातन धर्म के अनुसार वह हिंसा नहीं है , वह कर्तव्य कर्म है पर यदि वही डॉक्टर जानबूझकर दस बीस टेस्ट लिखकर रोगी को कहता है की फलनवे टेस्ट सेंटर से ही टेस्ट करवाना तब वह हिंसा है ।

जब आप सत्य पर दृढ़ है और एक किताबी आपके गाल पर तमाचा जड़ता है तब तब तमाचे को चुपचाप सह लेना धैर्य हो सकता है पर दूसरा गाल आगे करना , मूर्खता है और उस किताबी को अवसर आने पर प्रतिउत्तर न देना , कायरता है ।

युद्घ में गोली चला रही सेना अपना कर्तव्य कर रही होती है उसे हिंसा नहीं कहते , हाँ उसी सेना के लिए हथियार ख़रीदते समय दलाली खाना , हिंसा है ।

और श्री भगवान ने यही बात बार बार अर्जुन को बतायी है की सुन अर्जुन …

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः

जैसे कि  बिहार में गांधी मैदान काण्ड में दो या तीन लोगों को मृत्यु दण्ड दिया गया है और मान लीजिए राष्ट्रपति तक यह सजा बरकरार रह जाती है तब जो जल्लाद उन्हें फाँसी पर चढ़ाएगा वह अपना कर्तव्य कर्म करेगा , न की हिंसा ।

अत:  अपने पारिभाषिक शब्दों के अब्राहमिक अनुवाद से बचें, भावर्थानुसार अनुसरण होना चाहिए ।

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रविवार, 30 जनवरी 2022

मूल्य काम का

 

एक परिचित ने बताया कि वह ग्रैजुएशन के फ़ाइनल ईयर में एमबीए एंट्रेंस की कोचिंग हेतु चंडीगढ़ गया था।
कड़की इतनी थी के जेब में गिनती के नोट हुआ करते थे।
कोचिंग इंस्टिट्यूट की फीस बमुश्किल अरेंज हुई थी।

एक रोज़ कोचिंग इंस्टिट्यूट में बगल में बैठे एक बन्धु से परिचय हुआ।

उसके हालात देख कर लग रहा था के वह भी जेब से खाली है।  विस्तृत रूप से बातचीत हुई तो उसने बताया के वह कोचिंग के साथ साथ बगल के रेस्टोरेंट में जॉब करता है।
कुछ दिनों पश्चात उसने कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ रही एक कन्या से परिचय करवाया।
वह उसकी गर्लफ्रैंड थी।
कन्या हाई फाई थी। मुझे याद है वह इंसिटीट्यूट में मारुति एस्टीम गाड़ी ड्रॉईव कर के आती थी।
दिखने में बहुत आकर्षक थी। खूबसूरत थी।
कन्या से बातचीत के दौरान पता चला के वह भी बन्धु के साथ उसी रेस्टोरेंट में पार्ट टाईम जॉब करती है।

एक शाम बन्धु से वार्त्तालाप हो रहा था। कन्या बगल में बैठी थी। मैंने बातों बातों में उससे पूछा के वह रेस्टोरेंट में क्या काम करता है।

उसने तपाक से कहा ....."I se rve food.....I am a waiter.."

वेटर.....!

मैं स्तब्ध रह गया। मैं इतना हैरान हुआ के कुछ समय तक शब्द मेरे हलक में फंस गये।

एक फटेहाल लड़का.....जो एक रेस्टोरेंट में वेटर था......उसकी एक चमचमाती गर्लफ्रैंड थी।

फिर मुझे झटके पर झटका लगा।
मैंने कन्या से पूछा के .....आप रेस्टोरेंट में क्या काम करती हैं।

उन्ने बताया के वह रेस्टोरेंट के रिसेप्शन पर बैठती है। उसने बताया के रेस्टोरेंट में कुछ कन्यायें हैं जो वेटर हैं ....यानि की खाना सर्व करती हैं।

एक शाम मैंने बन्धु को धर लिया .......मैंने कहा भाई एक बात बता। तेरे फोर्स 10 के जूते में बड़ा सा सुराख है जो सबको दिखता है।
तेरे कमीज़ का कॉलर इतना घिस चुका है के फटने को है।

काम तू एक वेटर का करता है। रेस्टोरेंट में आने वाले गेस्ट तुझे 10 - 20 रुपये टिप देकर जाते हैं।

अबे तुझ से  इतनी हाई फाई लड़की कैसे पट गयी?

और दूसरी बात.......यू अमीर लड़की को क्या दिक्कत है जो यह भी रेस्टोरेंट में पार्ट टाईम नौकरी कर रही है?

मेरा यह सवाल उसे इतना नागवार गुज़रा के उसने मुझसे बातचीत करना ही छोड़ दिया।

मुझे समझ में ना आया के बन्धु मुझसे नाराज़ क्यों है। ऐसा मैंने क्या कह दिया के उन्ने मुझसे बात करना ही छोड़ दिया।

एक शाम इंसिटीट्यूट में उसकी गर्लफ्रैंड मिल गयी। मैंने उसे पूछा के बन्धु नाराज़ क्यों है।

उन्ने कहा के हम सोचते थे के कि मैं एडवांस सोच का आदमी हूँ। परंतु मेरी सोच बैकवर्ड है।

बैकवर्ड.... यानि पिछड़ा।

यह शब्द मेरे हृदय को चीर कर निकल गया।

क्या वास्तव में मैं पिछड़ी सोच का आदमी था।

फिर एक रोज़ सुबह सुबह मैंने बन्धु को धर लिया।

हाथ जोड़े।  माफी मांगी।

बगल में कन्या भी बैठी थी। उससे भी कहा के अगर भूल चूक हो गयी हो तो माफ कर दे।

लड़का दिलदार था। अगले ही पल गले लगा लिया।

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मैं अगले एक माह उसके सम्पर्क में रहा और उस दौर में मुझे समझ आया के वास्तव में मेरी सोच में पिछड़ापन था।

वह एक रेस्टोरेंट में वेटर था ......शायद मैं इसलिये उसे हिकारत भरी नजरों से देख रहा था।

यह सोच का पिछड़ापन था।

जबकि उसके इश्क में गिरफ्त कन्या को उसकी जॉब पर गर्व था। उसे गर्व था के उसका बॉयफ्रेंड पैसों के लिये अपने परिवार पर निर्भर नहीं है।  उससे ही प्रेरित होकर कन्या ने भी पार्ट टाईम जॉब शुरू कर दी थी।

उस समय एक काम बड़ा लगता था ......स्टैंडर्ड का लगता था......और एक काम छोटा लगता था.....बिलो स्टेंडर्ड लगता था।  यह दिलोदिमाग का पिछड़ापन ही था।

उस समय जीवन में जो बदलाव हुये वह आज तक कायम हैं।

सम्भवतः जीवन में मुझे पहली बार समझ आया के नेचर ऑफ़ वर्क को उच्चतम और निम्नतम में विभाजित करने वाले शुद्ध रूप से वाहियात किस्म के प्राणी होते हैं।

मूल्य काम का है। मूल्य कर्म है। मूल्य पुरुषार्थ का है।

यह समझ आया के इस राष्ट्र में बेरोजगारी जैसी कहानी है ही नहीं।
कहानी प्राथमिकता की है।  Priority की है।

बेरोजगारी केवल एक बहाना है। जिस राष्ट्र में बाल मज़दूरी तक हो रही हो वहां आपका बेरोज़गार होना आपके निठल्लेपन और नकारापन कि निशानी है।

सरकार किसी की भी हो। बेरोज़गारी राष्ट्रीय मुद्दा ना था ....ना है ......और ना होगा।

यह व्यक्तिगत मुद्दा है।

जो व्यक्ति कर्म की महानता को पहचान गया वह कभी बेरोज़गार नहीं रह सकता। आज मैं फैक्ट्री चला रहा हूँ। कल को एक ऑटो चला कर आजीविका कमाने में रत्ती भर सँकोच नहीं करूंगा।

पुरुषार्थ के महत्व को समझना होगा।

सरकारों और हुक्मरानों के पास इस समस्या का हल नहीं है। समस्या हमारी है और हल हमारे पास है।
पुरुषार्थ के महत्व को समझते हुये किवाड़ से बाहर पाँव टेकना होगा।
मानसिक दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने वाले आज कटोरा लेकर हुक्मरानों आगे नौकरी मांगने के लिये पंक्तिबद्ध नहीं हैं।

वह रोज़गार मांग नहीं रहे, रोज़गार बांट रहे हैं।

शनिवार, 29 जनवरी 2022

काल पर विजय

 

महाभारत का युद्ध हो चुका था| महाराज युधिष्ठिर राजा बन चुके थे| अपने चारों छोटे भाइयों की सहायता से वह  राजकाज चला रहे थे प्रजा की भलाई के लिए पाँचों भाई मिलजुल कर जुटे रहते| जो कोई दीन-दुखी फरियाद लेकर आता, उसकी हर प्रकार से सहायता की जाती|

एक दिन युद्धिष्ठिर् राजभवन में बैठे एक मंत्री से बातचीत कर रहे थे| किसी समस्या पर गहन विचार चल रहा था| तभी एक ब्राह्मण वहाँ पहुँचा| कुछ दुष्टों ने उस ब्राह्मण को सताया था| उन्होंने ब्राह्मण की गाय उससे छीन ली थी| वह ब्राह्मण महाराज युधिष्ठिर के पास फरियाद लेकर आया था| मंत्री जी के साथ बातचीत में व्यस्त होने के कारण महाराज युधिष्ठिर उस ब्राह्मण की बात नहीं सुन पाए| उन्होंने ब्राह्मण से बाहर इन्तजार करने के लिए कहा|ब्राह्मण मंत्रणा भवन के बाहर रूक कर महाराज युधिष्ठिर का इंतज़ार करने लगाl

मंत्री से बातचीत समाप्त करने के बाद महाराज ने ब्राहमण को अन्दर बुलाना चाहा, लेकिन तभी वहाँ किसी अन्य देश का दूत पहुँच गया| महाराज फिर बातचीत में उलझ गए| इस तरह एक के बाद एक कई महानुभावों से महाराज युधिष्ठिर ने बातचीत की| अंत में सभी को निबटाकर जब महाराज भवन से बाहर आये तो उन्होंने ब्राहमण को इंतज़ार करते पाया| काफी थके होने के कारण महाराज युधिष्ठिर ने उस ब्राहमण से कहा, “अब तो मैं काफी थक गया हूँ| आप कल सुबह आइयेगा| आपकी हर संभव सहायता की जाएगी|” इतना कहकर महाराज अपने विश्राम करने वाले भवन की ओर बढ़ गए |

ब्राह्मण को महाराज युधिष्ठिर के व्यवहार से बहुत निराशा हुई| वह दुखी मन से अपने घर की ओर लौटने लगा| अभी वह मुड़ा ही था की उसकी मुलाकात महाराज युधिष्ठिर के छोटे भाई भीम से हो गई| भीम ने ब्राहमण से उसकी परेशानी का कारण पूछा| ब्राह्मण ने भीम को सारी बात बता दी| साथ ही वह भी बता दिया की महाराज ने उसे अगले दिन आने के लिए कहा है |

ब्राह्मण की बात सुनकर भीम बहुत दुखी हुआ| उसे महाराज युधिष्ठिर के व्यवहार से भी बहुत निराशा हुई| उसने मन ही मन कुछ सोचा और फिर द्वारपाल को जाकर आज्ञा दी, “सैनिकों से कहो की विजय के अवसर पर बजाये जाने वाले नगाड़े बजाएं,” आज्ञा का पालन हुआ| सभी द्वारों पर तैनात सैनिकों ने विजय के अवसर पर बजाये जाने वाले नगाड़े बजाने शुरू कर दी| महाराज युधिष्ठिर ने भी नगाड़ों की आवाज़ सुनी| उन्हें बड़ी हैरानी हुई| नगाड़े क्यों बजाये जा रहे हैं, यह जानने के लिए वह अपने विश्राम कक्ष से बाहर आये|

कक्ष से बाहर निकलते ही उनका सामना भीम से हो गया| उन्होंने भीम से पूछा, “विजय के अवसर पर बजाये जाने वाले नगाड़े क्यों बजाये जा रहे हैं? हमारी सेनाओं ने किसी शत्रु पर विजय प्राप्त की है?”

भीम ने नम्रता से उत्तर दिया, “महाराज, हमारी सेनाओं ने तो किसी शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं की|”

“तो फिर ये नगाड़े क्यों बज रहें हैं?| महाराज ने हैरान होते हुए पूछा|

“क्योंकि पता चला है की महाराज युधिष्ठिर ने काल पर विजय प्राप्त कर ली है|” भीम ने उत्तर दिया|

भीम की बात सुनकर महाराज की हैरानी और बढ़ गई| उन्होंने फिर पुछा, “मैंने काल पर विजय प्राप्त कर ली है| आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?|

भीम ने महाराज की आँखों में देखते हुए कहा, “महाराज, अभी कुछ देर पहले आपने एक ब्राहम्ण से कहा था की वह आपको कल मिले| इससे साफ़ जाहिर है की आपको पता है की आज आपकी मृत्यु नहीं हो सकती, आज काल आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता| यह सुनने के बाद मैंने सोचा की अवश्य अपने काल पर विजय प्राप्त कर ली होगी, नहीं तो आप उस ब्राहमण को कल मिलने के लिए न कहते| यह सोच कर मैंने विजय के अवसर पर बजाये जाने वाले नगाड़े बजने की आज्ञा दी थी|”

भीम की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर की आँखे खुल गई| उन्हें अपनी भूल का पता लग चुका था| तभी उन्हें पीछे खड़ा हुआ ब्राहमण दिखाई दे गया| उन्होंने उसकी बात सुनकर एकदम उसकी सहायता का आवश्यक प्रबंध करवा दिया|
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जो काम हमें आज करने हैं, वह कल भी उतने ही महत्व के रहेंगे, यह नहीं कहा जा सकता।  संभव है आज किसी कार्य के सम्मुख आते ही हम उसे ताजा जोश में कर डालें, परन्तु कल पर टालते ही उस कार्य के प्रति दिलचस्पी भी कम हो सकती है और इस प्रकार वह कार्य सदा के लिए ही टल सकता है।

जिस व्यक्ति में टालमटोल का यह रोग लग जाता है वह अपने जीवन में अनेक काम नहीं कर पाता। बल्कि उसके सब काम अधूरे पड़े रह जाते हैं। यद्यपि ऐसे लोग हर समय व्यस्त रहते दिखाई पड़ते हैं, फिर भी अपना काम पूरा नहीं कर पाते।

कामों का बोझ उनके सिर पर लदा रहता है और वे उससे डरते हुए कामों को धकेलने की कोशिश करते रहते हैं। टालने की आदत वाला मनुष्य परिस्थितियों का शिकार भी हो सकता है। स्वास्थ्य का खराब होना, मस्तिष्क की निर्बलता, आर्थिक या दूसरे प्रकार की चिन्ता आदि कारण भी कार्य को टालना पड़ता है।

अतः जहाँ तक हो सके आज के काम को कल पर कभी न छोड़ें क्यूंकि वर्तमान समय ही हमारा है।

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सोमवार, 24 जनवरी 2022

हम क्यों नहीं....

 

भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक - पराग अग्रवाल - ट्विटर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ - सर्वोच्च कर्मी) बन गए है। इस नियुक्ति के साथ अब गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, एडोबी, IBM, पालो आल्टो  नेटवर्क्स जैसी टॉप आईटी कंपनियों की डोर भारतीय-अमरीकियों ने संभाल ली है।

इस नियुक्ति पर विश्व की सबसे बड़ी कार कंपनी - टेस्ला - के संस्थापक एलोन मस्क ने ट्वीट किया कि भारतीय प्रतिभा से अमेरिका को बहुत फायदा हो रहा है।

इसके अलावा, मास्टरकार्ड, जर्मनी का Deutsche बैंक, पेप्सी, नोकिया इत्यदि कंपनियों के सीईओ भारतीय रह चुके है या है।

लगभग सभी भारतीयों ने भारत में पढ़ाई की; बाद में अमेरिका में उच्च शिक्षा जारी रखी और फिर निजी क्षेत्र में नौकरी करते हुए शीर्ष पर पहुँच गए।

प्रश्न यह उठता है कि इन भारतीयों ने मार्क जुकेरबर्ग की तरह फेसबुक, ट्विटर, गूगल, स्नैपचैट जैसी कंपनी स्वयं क्यों नहीं बना ली? आखिरकार इन सभी कंपनियों का उदय पिछले 15 वर्षो में ही हुआ है। ज़ुकेरबर्ग ने फेसबुक की नींव हॉस्टल में डाली थी, एप्पल कंप्यूटर एवं अमेज़न गैराज में शुरू हुए थे। आखिरकार ऐसी क्या कमी रह जाती है हम में?

कारण यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था किसी भी थ्योरी, विचार, तथा घटनाओं पर गहन रूप से सोचना नहीं सिखाती। किसी भी विषय के बारे में उत्सुकता होने के बाद भी हम केवल मतलब की पढ़ाई और रटाई करते है।  बिना अर्थ समझे सिर्फ परिभाषाएं रटी जाती थी और कुछ रटे हुए तर्क-वितर्क के माध्यम से उत्तर पुस्तिका भर दी जाती थी।

पढ़ाई का एक ही लक्ष्य होता है - किसी भी तरह UPSC निकाल लेना; UPSC न मिले, तो कोई अन्य सरकारी नौकरी में लग जाना।

युवा वर्ष के शुरुआती वर्षों में रिस्क लेने की क्षमता होती है, कुछ नया कर दिखाने का उत्साह होता है।  लेकिन सरकारी नौकरी का लक्ष्य ऐसे सभी अरमानों का गला घोट देती है चाहे उसको ज्वाइन करने में आप सफल हो जाएं या असफल। फिर वह युवा एक बनी-बनाई कंपनी तो चला सकता है; लेकिन एकदम नए उत्पाद के लिए एक  नयी कंपनी नहीं खड़ी कर सकता। क्योकि उस उत्पाद की परिकल्पना करना उसकी क्षमता के बाहर है।

अगर किसी ने रिस्क लेकर उद्यम लगाना चाहा, तो नियम-कानूनों एवं पूँजी के चक्कर में उसे हताश कर दिया जाता था। आखिरकार कोंग्रेसियो ने एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया था जिसमें निर्धनता उन्मूलन और सेकुलरिज्म के नाम पर अपने आप को, अपने नाते रिश्तेदारों, कुछ उद्यमियों और मित्रों को समृद्ध बना सकें। अपनी समृद्धि को इन्होंने विकास और सम्पन्नता फैलाकर नहीं किया, बल्कि जनता के पैसे को धोखे से और भ्रष्टाचार से अपनी ओर लूट कर किया।

तभी स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी समस्याएं सुरसा के मुंह की तरह सामने खड़ी रहती थी; समाधान खोजने का कोई ईमानदार प्रयास नहीं किया जाता था क्योंकि उसके लिए आपको रटे-रटाए से अलग हटकर सोचना होगा।

लेकिन अब प्रधानमंत्री मोदी ने अंग्रेजो के समय के कई नियम-कानून समाप्त कर दिए; कंप्लायंस बर्डन (compliance burden)  - किसी संस्था को चलाने के लिए नियम-कानून के पालन एवं प्रशासनिक लागतों का बोझ काफी कम कर दिया है।  उदाहरण के लिए, GST के कारण विभिन्न राज्यों में अलग-अलग करो को नहीं भरना होगा; कॉरपोरेट टैक्स कम कर दिया; श्रम कानूनों को आसान बना दिया; पूँजी की उपलब्धता आसान कर दी है; लॉजिस्टिक एवं ट्रांसपोर्टेशन हब से निर्यात-आयात सुगम हो गया। उद्यमियों की प्रशंसा की; उनका उत्साहवर्धन किया।

परिणाम यह हुआ कि केवल इस वर्ष में अब तक 40 नयी कंपनियों (स्टार्टअप) ने यूनिकॉर्न का स्टेटस (अर्थात एक बिलियन डॉलर या  7500 करोड़ रुपये की वैल्यू) प्राप्त कर लिया है जो चीन से कहीं अधिक है। जबकि पिछले 10 वर्षो (2011-20) में केवल 40 स्टार्टअप्स ही यूनिकॉर्न बन पाए थे। इन युनिकोर्न्स में लगभग 3.3 लाख लोगो को रोजगार दिया है।

दूसरे शब्दों में, अब भारतीय युवा स्थापित नौकरी से कन्नी काटना शुरू कर दिए है; रिस्क लेने लगे है।

ऐसा नहीं है है कि हर व्यक्ति उद्यम शुरू कर सकता है।  लेकिन अगर पांच प्रतिशत युवा भी सरकारी नौकरी से ध्यान हटाकर उद्यम की तरफ ध्यान दे तो वे बाकी युवाओ को जॉब देने की क्षमता रखते है।

और क्या पता, कौन सा आईडिया जो भारत की भूमि से निकला हो, कल का एप्पल, फेसबुक, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, उबेर, Airbnb, स्नैपचैट, WeWork, बन जाए।

बस आवश्यकता है एक ऐसे माहौल की, जो युवा उद्यमियों को प्रोत्साहित करता रहे। -अमित

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रविवार, 23 जनवरी 2022

तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा


नेताजी जब पहली बार  हिटलर से मिलने जर्मनी गये, तो उन्हें विश्रामालय में बैठाया गया, वो पढने में मगन हो गये, उस समय में ऐसा होता था कि कई जर्मन ऑफिसर, हिटलर के वेश मे आगंतुको से मिलते थे,,, 

अब हर बार कोई जर्मन आफिसर हिटलर बनके नेता जी से मिलने आये, उधर नेताजी.... हिटलर साहब को भेजो... कहकर पढने मे लीन हो जाते,.. थोड़ी देर बाद एक ऑफिसर आकर नेताजी के कंधे पर हाथ रखता है..

नेताजी...................आओ, हिटलर साहब.... बोल कर खड़े हो जाते हैं, हिटलर आश्चर्यचकित हो कर पूछते है..... आप को पता कैसे चला कि मै ही हिटलर हूँ....

नेताजी........जिसके नाम से सारे अंग्रेज कॉपते हैं, उसके कंधे पर हाथ हिटलर ही रख सकता है......

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 🙏 23 जनवरी/जन्म-तिथि

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में जिनकी एक पुकार पर हजारों महिलाओं ने अपने कीमती गहने अर्पित कर दिये, जिनके आह्नान पर हजारों युवक और युवतियाँ आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गये, उन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा की राजधानी कटक के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 23 जनवरी, 1897 को हुआ था।

सुभाष के अंग्रेजभक्त पिता रायबहादुर जानकीनाथ चाहते थे कि वह अंग्रेजी आचार-विचार और शिक्षा को अपनाएँ। विदेश में जाकर पढ़ें तथा आई.सी.एस. बनकर अपने कुल का नाम रोशन करें; पर सुभाष की माता श्रीमती प्रभावती हिन्दुत्व और देश से प्रेम करने वाली महिला थीं। वे उन्हें 1857 के संग्राम तथा विवेकानन्द जैसे महापुरुषों की कहानियाँ सुनाती थीं। इससे सुभाष के मन में भी देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हो उठी।

सुभाष ने कटक और कोलकाता से विभिन्न परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। फिर पिताजी के आग्रह पर वे आई.सी.एस की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गये। अपनी योग्यता और परिश्रम से उन्होंने लिखित परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया; पर उनके मन में ब्रिटिश शासन की सेवा करने की इच्छा नहीं थी। वे अध्यापक या पत्रकार बनना चाहते थे। बंगाल के स्वतन्त्रता सेनानी देशबन्धु चितरंजन दास से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। उनके आग्रह पर वे भारत आकर कांग्रेस में शामिल हो गये।

कांग्रेस में उन दिनों गांधी जी और नेहरू की तूती बोल रही थी। उनके निर्देश पर सुभाष बाबू ने अनेक आन्दोलनों में भाग लिया और 12 बार जेल-यात्रा की। 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये; पर फिर उनके गांधी जी से कुछ मतभेद हो गये। गांधी जी चाहते थे कि प्रेम और अहिंसा से आजादी का आन्दोलन चलाया जाये; पर सुभाष बाबू उग्र साधनों को अपनाना चाहते थे। कांग्रेस के अधिकांश लोग सुभाष बाबू का समर्थन करते थे। युवक वर्ग तो उनका दीवाना ही था।

सुभाष बाबू ने अगले साल मध्य प्रदेश के त्रिपुरी में हुए अधिवेशन में फिर से अध्यक्ष बनना चाहा; पर गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया। सुभाष बाबू भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। इससे गांधी जी के दिल को बहुत चोट लगी। आगे चलकर सुभाष बाबू ने जो भी कार्यक्रम हाथ में लेना चाहा, गांधी जी और नेहरू के गुट ने उसमें सहयोग नहीं दिया। इससे खिन्न होकर सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद के साथ ही कांग्रेस भी छोड़ दी।

अब उन्होंने ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की। कुछ ही समय में कांग्रेस की चमक इसके आगे फीकी पड़ गयी। इस पर अंग्रेज शासन ने सुभाष बाबू को पहले जेल में और फिर घर में नजरबन्द कर दिया; पर सुभाष बाबू वहाँ से निकल भागे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनापति पद से जय हिन्द, चलो दिल्ली तथा तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा दिया; पर दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।

सुभाष बाबू का अन्त कैसे, कब और कहाँ हुआ, यह रहस्य ही है। कहा जाता है कि 18 अगस्त, 1945 को जापान में हुई एक विमान दुर्घटना में उनका देहान्त हो गया। यद्यपि अधिकांश तथ्य इसे झूठ सिद्ध करते हैं; पर उनकी मृत्यु के रहस्य से पूरा पर्दा उठना अभी बाकी है।
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अपेक्षा

 

*अपेक्षा में दुख है, अपेक्षा में पीड़ा है।*

सुना है कि, मुल्ला नसरुद्दीन एक टर्किश स्नानगृह में स्नान करने गया। यात्रा से आया था, फटे—पुराने उसके कपड़े थे, धूल—धंवास से भरा था। शक्ल पर भी धूल थी, लंबी यात्रा की थकान थी, दीन—हीन उसके कपड़े थे। तो टर्किश बाथ के सेवकों ने समझा कि कोई गरीब आदमी है।

स्वभावत:जहां आशा में आदमी जीता है, वहां अमीर की सेवा की जा सकती है, गरीब की सेवा नहीं की जा सकती। होना तो उलटा चाहिए कि गरीब की सेवा हो, क्योंकि वह सेवा की ज्यादा उसे जरूरत है। अमीर को उतनी जरूरत नहीं है, उसे सेवा मिलती ही रही होगी। लेकिन आशा का जो जगत है।

नौकर—चाकरों ने उस पर कोई ध्यान ही न दिया। फटी—पुरानी तौलिया उसे दे दी; क्योंकि पुरस्कार की कोई संभावना न थी। उपयोग में लाया हुआ साबुन उसे दे दिया। पानी की भी किसी ने चिंता नहीं की कि गरम है कि ठंडा है। मालिश करने वाले ने भी ऐसे ही हाथ फेरा, जैसे जिंदा आदमी पर हाथ न फेरता हो।

नसरुद्दीन सब देखता रहा। स्नान करके बाहर निकला। कपड़े पहने। किसी नौकर को आशा ही नहीं थी कि इससे कुछ टिप भी मिलेगी, कोई पुरस्कार भी होगा। लेकिन उसने अपने खीसे से उस देश की जो सबसे कीमती स्वर्णमुद्रा थी, वह बाहर निकाली। प्रत्येक नौकर को एक—एक स्वर्णमुद्रा दी, और अपने रास्ते पर चल पड़ा। अवाक रह गए नौकर। छाती पीट ली दुख से। दुख से कह रहा हूं! छाती पीट ली दुख से। क्योंकि अगर इसकी सेवा ठीक से की होती, तो आज पता नहीं क्या हो जाता! स्वर्णमुद्रा कभी किसी ने नहीं दी थी। नवाब भी वहां से गुजरे थे, वजीर भी वहां से गुजरे थे। एक—एक नौकर को एक—एक स्वर्णमुद्रा किसी ने कभी भेंट न दी थी। और इतनी सेवा की थी! और यह आदमी सब को मात कर गया। छाती पर सांप लोट गया। उस रात नौकर सो नहीं सके। बार—बार यही खयाल आया, बड़ी भूल हो गई। अगर ठीक से सेवा की होती—सेवा तो की ही नहीं उस आदमी की—अगर ठीक से सेवा की होती, तो पता नहीं क्या दे जाता!

मुल्ला नसरुद्दीन दूसरे दिन फिर उपस्थित हुआ। और भी फटे—पुराने कपड़े थे, और भी धूल— धंवास से भरा था। लेकिन ऐसे उसका स्वागत हुआ, जैसे सम्राट का हो। जो श्रेष्ठतम तेल था उनके पास, निकाला गया। जो श्रेष्ठतम साबुन थी, वह आई। नए ताजे तौलिए आए। गरम पानी आया। घंटों उसकी सेवा हुई। घंटों उसे नहलाया गया। वह शांत, जैसे कल नहाता रहा, वैसे ही नहाता रहा। जाते वक्त, जब जाने लगा, अपने खीसे में हाथ डाला। नौकर सब हाथ फैलाकर आशा में खड़े हो गए। जो उस देश का सबसे छोटा पैसा था, वह उसने एक—एक पैसा उनको भेंट दिया!

छाती पर पत्थर पड़ गया। वे सब चिल्लाने लगे कि तुम आदमी पागल तो नहीं हो! यह तुम क्या कर रहे हो? कल जब हमने कुछ भी नहीं किया, तुमने. स्वर्णमुद्राएं दीं! और आज जब हमने सब कुछ किया, तो ये पैसे तुम दे रहे हो?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, यह कल का पुरस्कार है। आज का पुरस्कार कल दे चुका हूं।

उस रात भी नौकर नहीं सो सके!

*हम जो भी अपेक्षाएं बांधकर जीते है। कुछ भी हो जाए, कुछ न करें और स्वर्णमुद्रा मिल जाए, तो भी दुख होता है। कुछ करें, स्वर्णमुद्रा न मिले, तो भी दुख होता है। अपेक्षा में दुख है, अपेक्षा में पीड़ा है।*

*बुद्धिमान व्यक्ति वह है, जो लौटकर यह देखे कि मैं पचास साल जी लिया, कौन—सी आशा अपेक्षा पूरी हुई? अगर मैंने चाहा था प्रेम, तो मुझे मिला? अगर मैंने चाहा था सुख, तो मैंने पाया? अगर मैंने चाही थी शाति, तो फलित हुई? अगर मैंने आनंद की आशा बांधी थी, तो उसकी बूंद भी मिली? मैं पचास वर्ष जी लिया हूं मैंने जो भी चाहा था, जो आशाएं लेकर जीवन की यात्रा पर निकला था, जीवन के रास्ते में वह कोई भी मंजिल घटित नहीं हुई। फिर भी मैं उन्हीं आशाओं को बांधे चला जा रहा हूं! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी आशाएं ही दुराशाएं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो मैं चाहता हूं वह जीवन का नियम ही नहीं है कि मिले; और वह मैंने चाहा ही नहीं, जो कि मिल सकता था।*

और कभी यह नहीं सोचते कि जिसे हम आज अतीत कह रहे हैं, वह भी कभी भविष्य था। उसमें भी हमने आशा के बहुत—बहुत बीज बोकर रखे थे, वे एक भी फलित नहीं हुए एक भी अंकुर नहीं निकला, एक भी फूल नहीं खिला। तो पहली तो आशा की व्यर्थता इससे बनती है कि समय बीतता चला जाता है, लेकिन जो भूल हमने कल की थी, वही हम आज भी करते हैं, वही हम कल भी करेंगे। मौत आ जाएगी, लेकिन हमारी भूल नहीं बदलेगी।

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शनिवार, 22 जनवरी 2022

दुआ

 


एक व्यक्ति गाड़ी से उतरा.. और बड़ी तेज़ी से एयरपोर्ट मे घुसा , जहाज़ उड़ने के लिए तैयार था , उसे किसी कांफ्रेंस मे पहुंचना था जो खास उसी के लिए आयोजित की जा रही थी.....
वह अपनी सीट पर बैठा और जहाज़ उड़ गया...अभी कुछ दूर ही जहाज़ उड़ा था कि....कैप्टन ने ऐलान किया  , तूफानी बारिश और बिजली की वजह से जहाज़ का रेडियो सिस्टम ठीक से काम नही कर रहा....इसलिए हम क़रीबी एयरपोर्ट पर उतरने के लिए मजबूर हैं.।
जहाज़ उतरा वह बाहर निकल कर कैप्टन से शिकायत करने लगा कि.....उसका एक-एक मिनट क़ीमती है और होने वाली कांफ्रेस मे उसका पहुचना बहुत ज़रूरी है....पास खड़े दूसरे मुसाफिर ने उसे पहचान लिया....और बोला डॉक्टर पटनायक  आप जहां पहुंचना चाहते हैं.....टैक्सी द्वारा यहां से केवल तीन घंटे मे पहुंच सकते हैं.....उसने शुक्रिया अदा किया और टैक्सी लेकर निकल पड़ा...

लेकिन ये क्या आंधी , तूफान , बिजली , बारिश ने गाड़ी का चलना मुश्किल कर दिया , फिर भी ड्राइवर चलता रहा...
अचानक ड्राइवर को एह़सास हुआ कि वह रास्ता भटक चुका है...
ना उम्मीदी के उतार चढ़ाव के बीच उसे एक छोटा सा घर दिखा....इस तूफान मे वही ग़नीमत समझ कर गाड़ी से नीचे उतरा और दरवाज़ा खटखटाया....
आवाज़ आई....जो कोई भी है अंदर आ जाए..दरवाज़ा खुला है...

अंदर एक बुढ़िया आसन बिछाए भगवद् गीता पढ़ रही थी...उसने कहा ! मांजी अगर इजाज़त हो तो आपका फोन इस्तेमाल कर लूं...

बुढ़िया मुस्कुराई और बोली.....बेटा कौन सा फोन ?? यहां ना बिजली है ना फोन..
लेकिन तुम बैठो..सामने चरणामृत है , पी लो....थकान दूर हो जायेगी..और खाने के लिए भी कुछ ना कुछ फल मिल जायेगा.....खा लो ! ताकि आगे सफर के लिए कुछ शक्ति आ जाये...

डाक्टर ने शुक्रिया अदा किया और चरणामृत पीने लगा....बुढ़िया अपने पाठ मे खोई थी कि उसकेे पास उसकी नज़र पड़ी....एक बच्चा कंबल मे लपेटा पड़ा था जिसे बुढ़िया थोड़ी थोड़ी देर मे हिला देती थी...
बुढ़िया फारिग़ हुई तो उसने कहा....मांजी ! आपके स्वभाव और एह़सान ने मुझ पर जादू कर दिया है....आप मेरे लिए भी दुआ
कर दीजिए....यह मौसम साफ हो जाये मुझे उम्मीद है आपकी दुआऐं ज़रूर क़बूल होती होंगी...

बुढ़िया बोली....नही बेटा ऐसी कोई बात नही...तुम मेरे अतिथी हो और अतिथी की सेवा ईश्वर का आदेश है....मैने तुम्हारे लिए भी दुआ की है.... परमात्मा का शुक्र है....उसने मेरी हर दुआ सुनी है..
बस एक दुआ और मै उससे माँग रही हूँ शायद  जब वह चाहेगा उसे भी क़बूल कर लेगा...

कौन सी दुआ..?? डाक्टर बोला...

बुढ़िया बोली...ये जो 2 साल का बच्चा तुम्हारे सामने अधमरा
पड़ा है , मेरा पोता है , ना इसकी मां ज़िंदा है ना ही बाप , इस बुढ़ापे मे इसकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है , डाक्टर कहते हैं...इसे कोई खतरनाक रोग है जिसका वो इलाज नही कर सकते , कहते हैं एक ही नामवर डाक्टर है , क्या नाम बताया था उसका !
हां "डॉ पटनायक " ....वह इसका ऑप्रेशन कर सकता है , लेकिन मैं बुढ़िया कहां उस डॉ तक पहुंच सकती हूं ? लेकर जाऊं भी तो पता नही वह देखने पर राज़ी भी हो या नही ? बस अब बंसीवाले से ये ही माँग रही थी कि वह मेरी मुश्किल आसान कर दे..!!

डाक्टर की आंखों से आंसुओं का सैलाब बह रहा है....वह भर्राई हुई आवाज़ मे बोला !
माई...आपकी दुआ ने हवाई जहाज़ को नीचे उतार लिया , आसमान पर बिजलियां कौदवां दीं , मुझे रस्ता भुलवा दिया , ताकि मैं यहां तक खींचा चला आऊं ,हे भगवान! मुझे यकीन ही नही हो रहा....कि कन्हैया एक दुआ क़बूल करके अपने भक्तौं के लिए इस तरह भी मदद कर सकता है.....!!!!

दोस्तों वह सर्वशक्तीमान है....परमात्मा के बंदो उससे लौ लगाकर तो देखो...जहां जाकर इंसान बेबस हो जाता है , वहां से उसकी परमकृपा शुरू होती है...।

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सोमवार, 17 जनवरी 2022

इतिहास बोलता है

 

चलिए हजारो साल पुराना इतिहास पढ़ते हैं।

*सम्राट शांतनु* ने विवाह किया एक *मछवारे की पुत्री सत्यवती* से।उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके,आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की।

सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए *भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?*

महाभारत लिखने वाले *वेद व्यास भी मछवारन के बेटे थे*, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।

*विदुर, जिन्हें महा पंडित कहा जाता है वो एक दासी के पुत्र थे*, हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई विदुर नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है।

*भीम ने वनवासी हिडिम्बा* से विवाह किया।

*श्रीकृष्ण दूध का व्यवसाय* करने वालों के परिवार से थे,

उनके भाई *बलराम खेती करते थे*, हमेशा हल साथ रखते थे।

*यादव क्षत्रिय* रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और श्रीकृषण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ विश्व को दिया।

*राम के साथ वनवासी निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे*।

उनके पुत्र *लव कुश महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल* में पढ़े जो *वनवासी थे और पहले डाकू* थे।

तो ये हो गयी वैदिक काल की बात, स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था,सबको शिक्षा का अधिकार था, कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।

*वर्ण सिर्फ काम के आधार पर थे वो बदले जा सकते थे*, जिसको आज इकोनॉमिक्स में डिवीज़न ऑफ़ लेबर कहते हैं वो ही।*

प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस *नन्द वंश का राज रहा वो जाति से नाई थे* ।

नन्द वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, *बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये*।

उसके बाद *मौर्य वंश* का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत *चन्द्रगुप्त से हुई,जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे* और एक *ब्राह्मण चाणक्य ने* उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया । 506 साल देश पर मौर्यों का राज रहा।

फिर *गुप्त वंश* का राज हुआ, जो कि *घोड़े का अस्तबल चलाते थे* और घोड़ों का व्यापार करते थे।140 साल देश पर गुप्ताओं का राज रहा।

केवल *पुष्यमित्र शुंग* के 36 साल के राज को छोड़ कर *92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्ही का  रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं तो शोषण कहां से हो गया*? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है।

फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100- 1750 तक है, इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम शासन रहा।

अंत में *मराठों* का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, ने *गाय चराने वाले गायकवाड़* को गुजरात का राजा बनाया, *चरवाहा जाति के होलकर* को मालवा का राजा बनाया।

*अहिल्या बाई होलकर* खुद मानकर की बेटी थी बहुत बड़ी शिवभक्त थी, इंदौर में राज चलाया ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये।

*मीरा बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार रविदास थे* और *रविदास के गुरु ब्राह्मण रामानंद* थे|।

यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।

*मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई* और यहां से *पर्दा प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह* जैसी चीजें शुरू होती हैं।

*1800-1947 तक अंग्रेजो के शासन* रहा और यहीं से *जातिवाद* शुरू हुआ । जो उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत किया।

अंग्रेज अधिकारी *निकोलस डार्क की किताब "कास्ट ऑफ़ माइंड"* में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।

इन हजारों सालों के इतिहास में *देश में कई विदेशी आये* जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं, जैसे कि *मेगास्थनीज* ने इंडिका लिखी, *फाहियान*,  *ह्यू सांग* और *अलबरूनी* जैसे कई। किसी ने भी नहीं लिखा की यहां किसी का शोषण होता था।
कार्य की जगह जन्म आधारित जातीय व्यवस्था हिन्दुओ को कमजोर करने के लिए लाई गई थी।

इसलिए भारतीय होने पर गर्व करें और घृणा, द्वेष और भेदभाव के षड्यंत्र से ख़ुद भी बचें और औरों को भी बचाएं ।

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रविवार, 16 जनवरी 2022

विचारों का प्रभाव

 

राज्य  में वेश बदल कर अपने प्रधानमंत्री के साथ घूमता हुआ राजा अचानक एक दुकान के सामने ठिठक कर खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री ने कारण पूछा तो राजा ने कहा, "इस दुकानदार को कल फाँसी पर लटका दो।"

यह बोलकर वह आगे बढ़ गया। अब मन्त्री का साहस नहीं हुआ कि इसका भी कारण पूछे राजा से, तो उसने अपने ढंग से जाँच पड़ताल करने का निश्चय किया।
राजा के साथ मन्त्री राजमहल पहुंचा तथा वापस अपने घर लौटने के लिए उसी दुकान की ओर से निकला।

वह उस दुकानदार के पास पहुँचा और  बातचीत करने लगा,.. "आप क्या व्यापार करते हैं?"

"जी, बहुत उच्च कोटि के चन्दन का।"

"परन्तु आपकी दुकान पर कोई ग्राहक तो दिखता ही नहीं है, फिर कैसे व्यापार हो रहा है?"

दुकानदार बोला, "जी, हमारा चन्दन अत्यधिक उच्च कोटि का है जो सामान्य व्यक्ति नहीं खरीद सकता है, केवल राजपरिवार द्वारा ही खरीदा जा सकता है। इसीलिए मैं सोचता रहता हूँ कि यदि राजा या राजपरिवार का कोई व्यक्ति मर जाए तो उसको जलाने में ही इतने सारे चन्दन की बिक्री हो सकती है।"

बुद्धिमान प्रधानमंत्री अब समझ गया कि आखिर क्यों एक अनजान से दुकानदार को अपरिचित होने पर भी राजा ने सूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी। क्योंकि यह अपने चन्दन की बिक्री के लिए राजा के मरने की रोज कामना करता था और इसको देखते ही वही तरंगें राजा के मस्तिष्क ने पकड़ लीं। देखा जाय तो दोषी कोई नहीं है, बस विचारों की ही क्रीड़ा (खेल) थी ये, लेकिन इसी के चलते कल यह सूली चढ़ जाता।

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मंत्री ने एक नया प्रयोग करने की सोचा। उसने चन्दन के कुछ टुकड़े खरीद लिए और अगले दिन राजसभा में वह वही चन्दन लेकर राजा के पास गया और कहा, "महाराज, एक दुकानदार ने यह चन्दन आपको भेंट (गिफ्ट) में दिया है।"

राजा ने चन्दन को उलट पलट कर, सूँघ कर देखा और फिर प्रसन्न होते हुए कहा, "मन्त्री जी! यह तो श्रेष्ठतम चन्दन है। कौन सा दुकानदार है जो ऐसा चन्दन बेचता है?"

मन्त्री ने बताया कि, "महाराज! यह वही दुकानदार है जिसको आप आज सूली पर लटकाने का आदेश दिए हैं।"

अब राजा मन ही मन बहुत लज्जित हुआ कि, "मैं तो अकारण ही उसको सूली पर लटकवाने वाला था और उसने मेरे बारे में इतना अच्छा सोच रखते हुए मुझे उपहार दिया है। यह मैंने क्या कर दिया?" प्रत्यक्ष में वह मन्त्री से कहा, "मन्त्री जी! मैं अपने उस आदेश को वापस लेता हूँ तथा आप अभी जाकर खजाने से कुछ स्वर्णमुद्राएँ उस दुकानदार को दे दीजिये।"

राजा का हृदयपरिवर्तन हुआ, अब मन्त्री जी ने दुकानदार को स्वर्णमुद्राएँ देते हुए कहा, "यह राजा ने आपके लिए भिजवाया है।"

इतनी स्वर्णमुद्राएँ देखकर अब दुकानदार लज्जित होकर पछताने लगा, "हाय-हाय! हमारे राजा इतने अच्छे हैं और मैं उनके या उनके परिवार के किसी की मृत्यु की रोज कामना किया करता था।" इस प्रकार उसका भी हृदयपरिवर्तन हुआ।

कुछ दिनों बाद प्रधानमन्त्री से बातचीत के बीच राजा ने अचानक पूछ लिया, "मन्त्री जी! यह रहस्य समझ नहीं आ पाया मुझे आजतक कि आखिर उस दिन उस दुकानदार को देखते ही मेरे मन में उसको सूली चढ़ाने की इच्छा क्यों उत्पन्न हो आई? जबकि मैं तो उसको जानता तक नहीं था।"

तब मन्त्री ने सारी कथा बताकर कहा, "महाराज, आपका भी तनिक भी दोष नहीं था क्योंकि वह दुकानदार ही अक्सर आपकी मृत्यु के बारे में सोचता रहता था। तो उसके मस्तिष्क से अनवरत निकलती नकारात्मक तरंगों को आपके मस्तिष्क ने तुरन्त पकड़ लिया और आपने उसी के प्रत्युत्तर में आदेश दे दिया। हम अक्सर कई घटनाओं से अनभिज्ञ रहते हैं परन्तु उसके बारे में हम एक क्षण में निर्णय ले लेते हैं, उस निर्णय के पीछे ऐसी ही नकारात्मक या सकारात्मक तरंगें होती हैं।"

"क्या ये मानसिक तरंगें इतनी शक्तिशाली होती हैं मन्त्री जी?"

"जी महाराज! हमारा सारा जीवन ही इन्हीं तरंगों के द्वारा निर्देशित होता है। एक माँ को हजारों कोस दूर बैठे पुत्र के चिंतित होने पर वह यहाँ अनायास ही घबड़ा उठती है। यह वही तरंगें हैं। जब हमारा कोई अत्यंत प्रिय, सङ्कट में होता है तो प्रत्येक व्यक्ति चिंतित हो उठता है। भले ही वह कारण न जाने, पर चिंतित तो हो ही उठता है! बस आपके चिंतित होने की तीव्रता 'आपके प्रेम की तीव्रता' के समानुपाती होती है। यही कारण है कि हम अचानक किसी अपरिचित को देखकर प्रसन्न हो उठते हैं या खिन्न। मन की तरंगें जैसे ही आपस में जुड़ती हैं उनकी प्रतिक्रिया अवश्य होनी है।"

"महाराज! कोई युवक किसी युवती को प्रथम बार देखकर ही प्रेम में पड़ जाता है, इसका भी कारण यही तरंगें हैं। जैसे ही वे एक समान तीव्रता पर आती हैं, अपना असर दिखा देती हैं। छोटे बच्चे, जिनको यह ज्ञान नहीं होता है कि कौन सुन्दर/ कुरूप है और कौन ज्ञानी/ अज्ञानी, तथापि वे कुछ अपरिचितों को देख कर प्रसन्न होकर किलकारी मारने लगते हैं तो किसी अन्य अपरिचित को देखकर रोने लगते हैं। उनका मस्तिष्क यह भाँप जाता है कि कौन व्यक्ति उनके प्रति क्या सोच रखता है।"

"तो क्या अपनी खुद की सोच भी खुद के ऊपर असर डालती है?"

"बिल्कुल सही प्रश्न उठाया है महाराज!  उत्तर है 'हाँ'!

स्वयं की सोच का स्वयं पर सर्वाधिक असर होता है। क्योंकि हमारे भीतर की तरंगें भीतर ही भीतर परावर्तित होते हुए असंख्य बार गुणित होती रहती हैं अतः स्वयँ के बारे में तो भूलकर भी नकारात्मक कभी नहीं सोचना चाहिए। इसी प्रकार हमें यदि कोई भी युद्ध/ परीक्षा आदि में यदि जीतना/ उत्तीर्ण होना है तो अपने बारे में नकारात्मक सोचना ही नहीं चाहिए।"

"राजन, सुदूर पश्चिम में एक कबीला है जो हरे पेड़ों को काटना पाप समझता है। अतः यदि लकड़ी की आवश्यकता पड़ जाती है तो समूचा कबीला किसी पेड़ के पास खड़े होकर उस वृक्ष को जोर जोर से कोसने लगता है। इस प्रकार कुछ ही दिनों में वह हरा-भरा पेड़ सूख जाता है तो उसको काट लिया जाता है। महाराज! खुद को खुद ही कोसना, सारी दुनिया के कोसने से कहीं अधिक भयावह होता है।"

"किन्तु मन्त्री जी! यदि कोई अत्यन्त ही दुःखी हो या संताप में हो, तो वह किस प्रकार भला या अच्छा सोच सकता है?"

"महाराज! यहाँ ही धर्म का प्रभाव दिखता है। हमारे मन्त्रों में यह शक्ति है कि वे इन मानसिक तरंगों को या तो अहानिकारक स्तर तक कम कर सकती हैं या उन्हें एकदम ही बंद कर सकती हैं।

दूसरा उपाय है श्रीमद्भागवत का पाठ। यह ग्रन्थ सभी प्रकार की चिन्ताओं को हर लेता है। इसमें भगवान कृष्ण यही तो कहते हैं कि अपनी सारी चिन्ताओं को मुझे अर्पण कर दो तथा चिंतामुक्त होकर अपने-अपने युद्ध लड़ो। अपने भविष्य के लिए लड़ना तो मनुष्य को ही पड़ता है, भगवान् केवल इतना करते हैं कि 'आपकी सत्यनिष्ठा से किये हुए कार्य के प्रभाव को गुणित कर देते हैं'। लगन तो आपको दिखानी होगी, खुद पर विश्वास तो आपको ही करना होगा, अपने परिश्रम को पुरी निष्ठा से आपको ही करना होगा।"

शनिवार, 15 जनवरी 2022

मानवता की महक


'मुरी' नाम का पर्वतीय शहर है पाकिस्तान में, इस्लामाबाद से करीब साठ किलोमीटर दूर .... लोग अक्सर वहाँ जाते हैं गर्मियों में, और तब भी, जब पहली - पहली बर्फ पड़नी है सर्दियों में ... जैसे हिन्दुस्तान में मसूरी है, कुछ - कुछ वैसा ही है पाकिस्तान का ये 'मुरी' शहर ....

      अभी कुछ दिनों पहले पाकिस्तानी नागरिकों का एक दल अपनी - अपनी मोटर-गाडियों पे निकला था मुरी के लिए, पहली - पहली बर्फ-बारी का मजा लेने के लिए .... हँसी - खुशी का माहौल था, वेकेशन पर जाने में परिवारों को अच्छा लगता है हर जगह ...

     पर ये क्या हुआ ?? .... बीच रास्ते में ही थे, तब मौसम अचानक खराब होने लगा .... पहले तो हल्की हल्की बर्फ गिर रही थी, फिर धीरे - धीरे वो ओला-वृष्टि, बर्फबारी में बदल गई ... बर्फीले तूफान, Blizard नें रास्ते को घेर लिया .... सडक पे गाडियां चलाना मुश्किल हो गया ....

        गाडियों का काफिला रुक गया … सडक पे बर्फ की परतें जमा होने लगी .... लोगों नें इंतजार किया कि तूफान का जोर कम हो जाए, पर जब मौसम बदलने के कोई आसार दिखाई न पडे, तो लोगों नें धीरे - धीरे उस बर्फ से ढकी हुई रोड पर ही गाडी ड़ाईव करनी शुरु की -- आखिर इस तरह इस बर्फीले तूफान में कब तक बैठे रहते ?? ...

       पर आगे वाले गाँव पर पहुँच कर सारी गाडियां रुक गई -- क्यों ?? ... उन लोगों नें देखा कि सामने सडक पे ढाई से तीन फीट तक की बर्फ जम गई है सडक पे !!!!! ... आश्चर्यचकित रह गए लोग !!! ... अभी तक तो सिर्फ आठ - दस इंच की बर्फ थी सडक पे, अचानक से ये ढाई - तीन फीट की कैसे हो गई ?? ... माजरा क्या है ?? ...

       फिर सारा खेल समझ में आया उनको .... उस गाँव के लोगों ने अपने घरो से बेलचा लाकर आस-पास की सारी बर्फ खोद - खोद के सडक पे डाल दी थी !!! ... उनके ट़ैक्टर सडक के किनारे लगे हुए थे .... क्या चाहते थे गाँववाले ?? ...

      'सडक बंद है बर्फ की वजह से ... गाडियां अपने - आप नहीं जा सकती ... हम अपने ट़ेक्टर से आपकी गाडी खींच के पार करा देंगे , फीस दस हजार रुपये प्रति गाडी !!!! .... ' ...

       गाँववालों की आँखों में एक वहशी मुस्कान तैर रही थी .... सन्न रह गए लोग !!! .. क्या करें लोग ?? ..

        कुछ लोगों नें अपनी गाडियां लॉक कीं, और पैदल निकल गए आगे, ये सोच के कि आगे वाले कस्बे में होटल में कमरा ले के वहीं रुक जाते हैं, बाद में गाडियां मंगा लेंगे और आगे निकल जायेंगे .... पर वो क्या जानते थे कि आगे क्या होने वाला है ?? ... होटल वालों ने कहा कि कमरे खाली भी हैं ओर दे भी देंगे -- पर एक रात की कीमत होगी 'साठ हजार रुपये !!!!!!' .... उनके चेहरे पर भी वैसी ही वहशी हँसी तैर रही थी !!!! ....

        उल्टे पाँव लौट गए लोग .... ये तय किया कि अब गाडी के अंदर ही रात गुजारते हैं, आखिर तूफान कब तक चलेगा ?? .. सोशल मीडिया फोन इत्यादि से जिला प्रशासन और इस्लामाबाद के अधिकारियों को बता चुके थे वो लोग, अपने रिशतेदारों दोस्तों को भी खबर भेज चुके थे ... उन्हें उम्मीद थी कि सरकार द्वारा कुछ मदद तो आती ही होगी ....

       गाँववालों से कुछ गरम कपडे माँगे उन लोगों ने, पर गाँववाले तो खार खाए बैठे थे, उन्होंने साफ इंकार कर दिया .... लोग अपनी - अपनी गाडियों में अपने परिवार के साथ बैठ गए, और भगवान से, नहीं नहीं..., अल्लाह से दुआ करने लगे कि तूफान जल्दी थम जाए, और वो लोग सकुशल अपने घरों तक वापस पहुँच सकें ....

      अफसोस,  ... रात भर बर्फीला तूफान चलता रहा, पारा काफी नीचे गिर गया रात में, ठंड बर्दाश्त के बाहर थी, और अगले दिन जब सरकारी बुलडोजर बर्फ हटाने के लिए वहाँ पहुँचा, तब तक बाईस लोग मर चुके थे !!!!!!! .... और उसमें से दस बच्चे थे, पाँच से दस साल तक .....

     ये है 'ईमान वालों' का ईमान !!!! ..... गाँववाले भी मुसलमान थे, और गाडियों वाले भी मुसलमान थे -- दोनों तरफ 'मुसल्लम ईमान' वाले कलमा पढे हुए लोग ही थे , कोई काफिर नहीं था वहाँ !!!! ....

       अपने काम के सिलसिले में  भारत के सुदूर ग़ामीण इलाकों में घूमा हूँ मैं  .... कभी गाडी खराब हो जाती थी, तो अजनबी लोग इकट्ठा हो जाते थे मदद करने के लिए -- धक्का लगाने से लेकर JCB बुलाने तक -- और कुछ कर लो, पैसा कोई लेता ही नहीं था !!!!!!! .... 'अतिथि देवो भव' -- एक अनपढ हिन्दू के मन में भी ये भाव कूट - कूट के भरा हुआ है !!!!
गर्व है कि हम , हमारे पूर्वज हिन्दू हैं , गर्व हमारी संस्कृति पर !!

        कैसे कोई रह सकता है वैसे 'आसुरी परिवेश' में ??? .... कैसे कोई तरक्की हो सकती है ऐसी मनःस्थिति वाले इलाके में ??? ....  कोई जी कैसे सकता है ऐसे मृत्य, पाशविक देश में ?? ...

  ऐसा परिवेश साक्षात नरक, नहीं, साक्षात जहन्नुम है ..... मनुष्य को पशु बनाने की मशीन है। आलेख लोकेश भारती जी का !! 🙏

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बड़ा दानी

 

एक बार की बात है, कि श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण जी, से पूछा कि हे प्रभु! एक जिज्ञासा है, मेरे मन में, यदि आज्ञा हो तो पूछूँ? श्री कृष्ण जी ने कहा, पूछो अर्जुन। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है। कि दान तो मै भी बहुत करता हूँ, परन्तु सभी लोग कर्ण को ही सब से बड़ा दानी क्यों कहते हैं?

यह प्रश्न सुन कर श्री कृष्ण जी मुस्कुराये और बोले कि आज मैं तुम्हारी यह जिज्ञासा अवश्य शान्त करूंगा। श्री कृष्ण जी ने पास की ही दो स्थित पहाड़ियों को सोने का बना दिया। इस के पश्चात् वह अर्जुन से बोले कि "हे अर्जुन" इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस-पास के गाँव वालों में बाँट दो।

अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरन्त ही यह काम करने के लिए चल दिया। उस ने सभी गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा कि वह लोग पंक्ति बना लें। अब मैं आपको सोना बाटूंगा और सोना बांटना आरम्भ कर दिया।

गाँव वालों ने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की। अर्जुन सोने को पहाड़ी में से तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए। लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बाँटते रहे।

उन मे अब तक अहंकार आ चुका था। गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे। इतने समय पश्चात अर्जुन बहुत थक चुके थे। जिन सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन दोनों पहाड़ियों के आकार में कुछ भी कमी नहीं आई थी।

उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि अब मुझ से यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए, प्रभु ने कहा कि ठीक है! तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण को बुला लिया।

उन्होंने कर्ण से कहा कि इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांव वालों में बाँट दो। कर्ण तुरन्त सोना बाँटने चल दिये। उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उन से कहा यह सोना आप लोगों का है, जिस को जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाये। ऐसा कह कर कर्ण वहां से चले गए।

अर्जुन बोले कि ऐसा विचार मेरे मन में क्यों नही आया?

इस पर श्री कृष्ण जी ने उत्तर दिया, कि तुम्हे सोने से मोह हो गया था। तुम स्वयं यह निर्णय कर रहे थे, कि किस गाँव वाले की कितनी आवश्यकता है। उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हे दे रहे थे।

तुम में दाता होने का भाव आ गया था, दूसरी ओर कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहां से चले गए। वह नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उन की जय जय-कार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं, उस से उनको कोई अन्तर नहीं पड़ता।

यह उस व्यक्ति की निशानी है, जिसे आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका है। इस प्रकार श्री कृष्ण ने अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया, अर्जुन को भी उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।

दान देने के बदले में धन्यवाद या बधाई की इच्छा करना  उपहार नहीं सौदा कहलाता है।

यदि हम किसी को कुछ दान या सहयोग करना चाहते हैं। तो हमे यह कार्य बिना किसी अपेक्षा या आशा के करना चाहिए। ताकि यह हमारा सत्कर्म हो, ना कि हमारा अहंकार।

बड़ा दानी वही है जो बिना किसी इच्छा के दान देता है और जब वह दान देता है। तो यह नहीं चाहता, कि कोई मेरी जय जयकार करें। वह तो केवल दान देता है, बदले में उसे और कुछ नहीं चाहिए होता। जो दान देने में ऐसा भाव रखता है, वही असली दान देने वाला कहलाता है।

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शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

संक्रांति

 

आज सभी हिन्दू सनातनी मित्रों को मकर-संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ..!

हम सभी जानते हैं कि.... मकर संक्रांति के अवसर पर सूर्य भगवान "दक्षिणायण" से "उत्तरायण" में प्रवेश करते हैं.

लेकिन, क्या आप जानते हैं कि आखिर.... यह सूर्य का "दक्षिणायण" या "उत्तरायण" आखिर होता क्या है ?

और, अगर मकर संक्राति पर सूर्य भगवान "दक्षिणायण" से "उत्तरायण" में आ जाते हैं....
तो फिर, "उत्तरायण" से "दक्षिणायण" में कब जाते हैं ???

असल में भारतीय खगोल विज्ञान के अनुसार बारह राशियां होती है... तथा, सूर्य हर एक राशि लगभग 1 महीना  रहता है.

हमारी बारह राशियों के नाम इस प्रकार हैं.... मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, बृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ तथा मीन.

और, जिस दिन सूर्य एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करता है उसे संक्राति कहते है.

इसका मुख्य कारण यह है कि... पृथ्वी अपनी अक्ष पर थोड़ा झुकी हुई है... यही कारण है कि सूरज पूरब से निकलता तो  है लेकिन उसका एक ही निश्चित स्थान नहीं है.

यदि आप प्रतिदिन सूर्योदय को देखे तो आपको पता चलेगा कि कल सूर्य जिस स्थान से निकला था आज उसका स्थान कल वाले स्थान से थोड़ा सा उत्तर या दक्षिण की ओर शिफ्ट हो गया है.....!

सर्दियों में दिन छोटे होते हैं अर्थात सूर्य देर से निकलता है.

इसका मतलब हुआ कि सर्दियों में सूर्य दक्षिणायन रहते हैं.

लेकिन, मकर संक्रांति के बाद सूर्योदय का स्थान प्रतिदिन उत्तर की और शिफ्ट होना शुरू हो जाता है.

इसी कारण कहा जाता है कि.... मकर संक्रांति को सूर्य भगवान की गति "उत्तरायण" हो गई है.

मकर संक्रांति के बाद यह गति सावन के महीने (जुलाई ) की "कर्क संक्रांति" तक लगातार उत्तर की तरफ बनी रहती है.

और, सावन के महीने में सूर्य के "कर्क राशि" में आने के बाद सूर्योदय का स्थान उत्तर से दक्षिण की तरफ शिफ्ट होने लगता है.

इसको सूर्य की गति "दक्षिणायण" हो जाना कहते है .

और, इस संक्राति को कर्क संक्रांति या श्रावण संक्रांति भी कहते हैं.

'कर्क संक्रान्ति' से वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है और 'चातुर्मास' या 'चौमासा' का भी आरंभ इसी समय से हो जाता है.

सोचने वाली बात है कि.... जब गैलीलीयो ने पृथ्वी को चलायमान कहा था तो उनके ही मजहबी भाई-बहनों ने उसे पागल घोषित करके मार दिया था..

और, मजहबी लोगों ने तो बाकायदा धरती तो चपटा एवं सूर्य को दलदल में रखने वाले वाला गेंद बता रखा है जिसे महामद रोज सुबह झाड़ पोंछ कर आकाश में लगा देता.

पूरी पृथ्वी पर सिर्फ हिन्दू सनातन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो हजारों लाखों साल से... मकर संक्रांति के माध्यम से पूरी दुनिया को ये बता रहा है कि..... पृथ्वी और सूर्य न सिर्फ चलायमान हैं बल्कि पृथ्वी अपने अक्ष पर थोड़ी झुकी हुई भी है.

जिस कारण पृथ्वी के सापेक्ष में सूर्य उत्तरायण और दक्षिणायन होता रहता है.

तो, फिर अपने ऐसी वैज्ञानिक जानकारी बताने एवं त्योहार के रूप में ऐसी सीख देने वाले हमारे सनातन हिन्दू धर्म पर हमें आखिर क्यों न गर्व हो...!
हम सब हिन्दू पूर्वजों की संतान हैं !!
गर्व से कहो....हम हिन्दू हैं.  -सतीश

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बुधवार, 12 जनवरी 2022

ह्रदय की देखभाल

 

स्वास्थ्य चर्चा ...

बात हृदय की देखभाल की।

जब इन्सान मां के पेट में होता हैं तो हृदय धड़कना शुरू करता है और इंसान की मृत्यु होने पर ही इसकी धड़कन बंद होती है।
हृदय परमपिता परमेश्वर की अनमोल संरचना है।

हम थकावट होने पर आराम करते हैं। रात को सोते हैं लेकिन हमारा हृदय लगातार धड़कता रहता है। हृदय ने धड़कना बंद किया तो जिंदगी का खेल खत्म।

तो हमारी भी जिम्मेवारी बनती है कि हमारे शरीर के इतने महत्वपूर्ण अंग का हम भी ख्याल रखें।

वर्तमान समय में खान-पान और तनाव भरे जीवन के कारण हृदयाघात के केस बहुत ज्यादा बढ़ गए हैं। फास्ट फूड का इसमें सबसे ज्यादा योगदान है।

एक बात तो सबको पता है हम बाइक या स्कूटी चलाते समय हेलमेट इसलिए पहनते हैं ताकि कोई दुर्घटना की स्थिति में हमारा सिर सुरक्षित रहे।

बिल्कुल ऐसे ही हमारी जिम्मेवारी बनती है कि हम हमारे हृदय की भी ऐसे ही देखभाल करें।

हार्ट ब्लॉकेज धीरे-धीरे होती है जिसका हमें पता ही नहीं चलता।बाद में जिसके घातक परिणाम हार्ट अटैक के रुप में आता हैं।

अगर समय रहते (खासकर 40 की उम्र के बाद) हम समझदारी से काम ले तो हार्ट अटैक की समस्या से बचा जा सकता है।

नीचे दी गई दो आयुर्वेदिक दवाओं के सेवन से हृदयाघात के खतरे को टाला जा सकता है।

1.अर्जुन की छाल..

अर्जुन की छाल का उपयोग साल में दो या तीन महीने करें (खासकर सर्दी के दिनों में) अर्जुन की छाल का एक चम्मच एक गिलास पानी में धीमी आंच में उबाल लें। जब पानी का गिलास आधा रह जाए तो ठंडा होने के बाद उसको बगैर छाने पी ले।

अर्जुन की छाल का एक चम्मच रात को सोते समय गर्म दूध के साथ भी लिया जा सकता है या फिर दूध में मिलाकर भी पिया जा सकता है।

गर्मी के मौसम में इसको आधी मात्रा में ले सकते हैं क्योंकि इसकी तासीर गर्म होती है।

2. अर्जुनारिष्ट....

साल में 3 महीने (किसी भी मौसम में) अर्जुनारिष्ट का सेवन करें।

सुबह और शाम खाना खाने के 15 मिनट के बाद 6 चम्मच दवाई और 6 चम्मच गुनगुना पानी मिलाकर पी लें।

इन विधियों के उपयोग के बाद हृदय की धमनियों में कोई रुकावट पैदा नहीं होगी और हृदय स्वस्थ अवस्था में अपना काम करता रहेगा।

नोट: हृदयामृत गोली आती है। इसका सेवन किसी भी मौसम में किया जा सकता है। दो गोली सुबह और दो शाम को खाना खाने से 2 घंटे पहले चबाकर ले ले।

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सोमवार, 10 जनवरी 2022

काबिलियत

 

एक रेस्टोरेंट में अचानक ही एक कॉकरोच उड़ते हुए आया और एक महिला की कलाई पर बैठ गया।

महिला भयभीत हो गयी और उछल-उछल कर चिल्लाने लगी…कॉकरोच…कॉकरोच…

उसे इस तरह घबराया देख उसके साथ आये बाकी लोग भी पैनिक हो गए …इस आपाधापी में महिला ने एक बार तेजी से हाथ झटका और कॉकरोच उसकी कलाई से छटक कर उसके साथ ही आई एक दूसरी महिला के ऊपर जा गिरा। अब इस महिला के चिल्लाने की बारी थी…वो भी पहली महिला की तरह ही घबरा गयी और जोर-जोर से चिल्लाने लगी!

दूर खड़ा वेटर ये सब देख रहा था, वह महिला की मदद के लिए उसके करीब पहुंचा कि तभी कॉकरोच उड़ कर उसी के कंधे पर जा बैठा।

वेटर चुपचाप खड़ा रहा।  मानो उसे इससे कोई फर्क ही ना पड़ा, वह ध्यान से कॉकरोच की गतिविधियाँ देखने लगा और एक सही मौका देख कर उसने पास रखा नैपकिन पेपर उठाया और कॉकरोच को पकड़ कर बाहर फेंक दिया।

मैं वहां बैठ कर कॉफ़ी पी रहा था और ये सब देखकर मेरे मन में एक सवाल आया….क्या उन महिलाओं के साथ जो कुछ भी हुआ उसके लिए वो कॉकरोच जिम्मेदार था?

यदि हाँ, तो भला वो वेटर क्यों नहीं घबराया?

बल्कि उसने तो बिना परेशान हुए पूरी सिचुएशन को पेर्फेक्ट्ली हैंडल किया।

दरअसल, वो कॉकरोच नहीं था, बल्कि वो उन औरतों की अक्षमता थी जो कॉकरोच द्वारा पैदा की गयी स्थिति को संभाल नहीं पायीं।

मैंने रियलाइज़ किया है कि ये मेरे पिता, मेरे बॉस या मेरी वाइफ का चिल्लाना नहीं है जो मुझे डिस्टर्ब करता है, बल्कि उनके चिल्लाने से पैदा हुई डिस्टर्बेंस को हैंडल ना कर पाने की मेरी काबिलियत है जो मुझे डिस्टर्ब करती है।

ये रोड पे लगा ट्रैफिक जाम नहीं है जो मुझे परेशान करता है बल्कि जाम लगने से पैदा हुई परेशानी से डील ना कर पाने की मेरी अक्षमता है जो मुझे परेशान करती है।

यानि problems से कहीं अधिक, मेरा उन problems पर reaction है जो मुझे वास्तव में परेशान करता है।

मैं इन सब से सीखता हूँ कि मुझे लाइफ में react नहीं respond करना चाहिए।

महिलाओं ने कॉकरोच की मौजूदगी पर react किया था जबकि वेटर ने respond किया था… रिएक्शन हमेशा instinctive होता है …बिना सोचे-समझे किया जाता है जबकि response सोच समझ कर की जाने वाली चीज है।

जीवन को समझने का एक सुन्दर तरीका-

जो लोग सुखी हैं वे इसलिए सुखी नहीं हैं क्योंकि उनके जीवन में सबकुछ सही है…वो इसलिए सुखी हैं क्योंकि उनके जीवन में जो कुछ भी होता है उसके प्रति उनका attitude सही होता है।

महान साइकेट्रिस्ट Viktor Frankl का भी कहना था-

"Stimulus और response के बीच में एक space होता है। उसी space में हमारे पास अपना response चुनने की शक्ति होती है।  और हमारे रिस्पोंस में ही हमारी growth और हमारी स्वतंत्रता निहित है।"

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रविवार, 9 जनवरी 2022

फल की इच्छा

 

एक बार अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी  नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता ‘है।

तानसेन ने कहा,क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे: गुरु अभी जिन्दा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं!

बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा, इसीलिए कभी मैंने उनकी बात नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्‍क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पड़ुगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुननेवाला नहीं। जहां कभी—कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार मे न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं।

तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़ेगा, कैसे सुनना पड़ेगा? तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं—हरिदास उनका नाम है—हम रात में चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार (जरूर सुबह—सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा।.. शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने, अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो!.. लेकिन अकबर गया।

दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना सै आये और उन्होंने अपनी वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।

आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो. चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद ‘हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!

अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन—आसमान का फर्क है।

तानसेन ने कहा - कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्‍धि की,किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशार्फेयों से? जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य,वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में बहुत फर्क है, साधन ही साध्य है; ओर मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं।  उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं।  वे मस्ती में हैं।

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शनिवार, 8 जनवरी 2022

कल की चिंता

 

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे।  तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।

सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”

संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”

सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए”

सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है”

सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही  मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”

सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा”  बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है।
संग्रहखोरी तो दूषण ही है।
संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

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सोमवार, 3 जनवरी 2022

 

चिंतन के पल....

जब भी कभी आपको लगे कि यह उसे मिला मुझे क्यों नहीं, ऐसा पक्षपात नियति ने आपके साथ क्यों किया है… तो आप बीते वर्ष  2020-21 को याद कर लें, फिर ईश्वर को धन्यवाद देते हुए खुद से पूछें कि…

इन दो लहरों के दरम्यान मैं जीवित रहा, वे क्यों जीवित नहीं रहे जो मेरी ही तरह जीवन से भरे हुए, सपनीली आंखों के साथ न जाने क्या-क्या भविष्य बुन रहे थे।

यह गुजरा समय लौट कर नहीं आना है, आना चाहिए भी नहीं। पर जब भी आपको लगे कि नियति ने आपके साथ पक्षपात किया है… आप याद उन्हें ही कर लें, जो लौट के घर न आये!

हम जीवित हैं, अर्थात् नियति ने हमें उन से काफ़ी अधिक दे दिया है। कृतज्ञ बनें, शिकायती नहीं।

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रविवार, 2 जनवरी 2022

सुंदर व्यवहार

 

एक सभा में गुरु जी ने प्रवचन के दौरान एक 30 वर्षीय युवक को खडा कर पूछा कि

- आप मुम्बई में जुहू चौपाटी पर चल रहे हैं और सामने से एक सुन्दर लडकी आ रही है , तो आप क्या करोगे ?*

युवक ने कहा - उस पर नजर जायेगी, उसे देखने लगेंगे।

गुरु जी ने पूछा - वह लडकी आगे बढ गयी , तो क्या पीछे मुडकर भी देखोगे ?

लडके ने कहा - हाँ, अगर धर्मपत्नी साथ नहीं है तो। (सभा में सभी हँस पडे)

गुरु जी ने फिर पूछा - जरा यह बताओ वह सुन्दर चेहरा आपको कब तक याद रहेगा ?

युवक ने कहा 5 - 10 मिनट तक, जब तक कोई दूसरा सुन्दर चेहरा सामने न आ जाए।

गुरु जी ने उस युवक से कहा - अब जरा कल्पना कीजिये..   आप जयपुर से मुम्बई जा रहे हैं और मैंने आपको एक पुस्तकों का पैकेट देते हुए कहा कि मुम्बई में अमुक महानुभाव के यहाँ यह पैकेट पहुँचा देना...

आप पैकेट देने मुम्बई में उनके घर गए। उनका घर देखा तो आपको पता चला कि ये तो बडे अरबपति हैं। घर के बाहर 10 गाडियाँ और 5 चौकीदार खडे हैं।

उन्हें आपने पैकेट की सूचना अन्दर भिजवाई , तो वे महानुभाव खुद बाहर आए। आप से पैकेट लिया। आप जाने लगे तो आपको आग्रह करके घर में ले गए। पास में बैठाकर गरम खाना खिलाया।

चलते समय आप से पूछा - किसमें आए हो ?
आपने कहा- लोकल ट्रेन में।

उन्होंने ड्राइवर को बोलकर आपको गंतव्य तक पहुँचाने के लिए कहा और आप जैसे ही अपने स्थान पर पहुँचने वाले थे कि उस अरबपति  महानुभाव का फोन आया - भैया, आप आराम से पहुँच गए..

अब आप बताइए कि आपको वे महानुभाव कब तक याद रहेंगे ?

युवक ने कहा - गुरु जी ! जिंदगी में मरते दम तक उस व्यक्ति को हम भूल नहीं सकते।

गुरु जी ने युवक के माध्यम से सभा को संबोधित करते हुए कहा — "यह है जीवन की हकीकत।"

*"सुन्दर चेहरा थोड़े समय ही याद रहता है, पर सुन्दर व्यवहार जीवन भर याद रहता है।"*

बस यही है जीवन का गुरु मंत्र... अपने चेहरे और शरीर की सुंदरता से ज़्यादा अपने व्यवहार की सुंदरता पर ध्यान दें.. जीवन अपने लिए आनंददायक और दूसरों के लिए अविस्मरणीय प्रेरणादायक बन जाएगा..
जीवन का सबसे अच्छा योग , सहयोग हैं !

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शनिवार, 1 जनवरी 2022

नज़रिया

 

बीते दिनों फैक्ट्री के पास खाली पड़े ग्राउंड में मेला लगा था। मॉल्स मल्टीप्लेक्स और होटल्स में घूमने वाले बच्चों को मेला दिखाने की उत्सुकता थी।

एक शाम मेले में जा पहुंचे। मुख्य आकर्षण के रूप में भांति भांति के झूले थे। उन झूलों के बीच "झूलों का बाप"  था।
झूलों का बाप यानि .....बड़ा चक्का।

बड़ा चक्का .....हम तो देसी भाषा उसे इसी नाम से जानते हैं। हालांकि अंग्रेज़ी में उसे शायद फेरस व्हील के नाम से पुकारा जाता है।

बड़े चक्के की सवारी करते समय मैं दार्शनिक हो जाता हूँ।
बड़े चक्के का नीचाई से ऊंचाई तक जाना मन को उत्साह .....उल्हास और रोमांच से भर देता है और ऊंचाई से नीचाई तक आने में डर और घबराहट महसूस होती है।

बड़ा चक्का जीवन का फ़लसफ़ा है। इंसान जब ऊंचाई पर जा रहा होता है तब उनका आत्मविश्वास ...उसका रोमांच उसकी अकड़ अलग ही स्तर पर होती है। लेकिन ऊंचाई से नीचे आने पर वही आत्मविश्वास डगमगा जाता है। वही रोमांच हताशा में तब्दील हो जाता है। वही अकड़ ठंडी पड़ जाती है।

बड़ा चक्का वास्तव में जीवन  चक्र है।

ख़ैर। मैं एक लंबे अरसे बाद बड़े चक्के में बैठा। मन रोमांचित था।
मेरे समक्ष एक व्यक्ति विराजमान था जिसके बगल में एक नन्ही सी लड़की बैठी हुई थी।

चक्का घूमा और घूमते ही सामने बैठे व्यक्ति की भाव भंगिमाएं बदलने लगी।

स्पष्ट दिखाई दे रहा था के वह डर रहा है।

अचानक किसी तकनीकी गड़बड़ी की वजह से चक्का रुक गया। हम आसमान में लटके हुये थे। शहर का कोना कोना स्पष्ट दिखाई दे रहा था और मैं दृश्य का आनंद ले रहा था।

अचानक मेरी नज़र सामने बैठे व्यक्ति की ओर गयी। घबराहट से उसका चेहरा लाल हो चुका था।

मैंने उससे अंग्रेजी में वार्तालाप प्रारंभ किया और पूछा...."Do you understand english"

डरी सहमी आवाज़ में उसने कहा ....."Yes"....!

मैंने उससे कहा "Don't worry ...... Because if you do your daughter will panic"

मैंने उससे कहा के वह अपने डर या घबराहट को ना दिखाये क्योंकि उसके डर से उसके बगल में बैठी बच्ची घबरा जायेगी। अंग्रेजी में संवाद करने की मूल वजह थी के बच्ची हमारे वार्त्तालाप को समझ ना ले।

बच्ची पहले से ही बहुत बुरी तरह से डरी हुई थी।

मेरे समक्ष करीबन 70-80 फुट की ऊंचाई पर एक बाप बैठा था जिसका चेहरा डर से लाल हो चुका था और उसके बगल में एक नन्ही सी बच्ची बैठी थी जिसने डर के मारे अपनी आंखें बंद कर ली थी।

मेरी बात सुन कर सज्जन ने बच्ची की ओर देखा। फिर उसे उठा कर अपनी गोद में बिठा लिया और अपनी बाहों में जकड़ लिया।

बच्ची इतनी डरी हुई थी के उसकी नन्ही सी आखों से आंसू टपकने लगे।

बच्ची को रोता देख ......बाप अपना डर अपनी घबराहट भूल गया और बोला......"डरना नहीं है। तू तो मेरी शेरनी है। डरना नहीं है।" इसी बीच चक्का चल पड़ा। चक्का ऊपर जाता फिर नीचे आता रहा।
बच्ची आँखें बंद करके बैठी रही। स्वयं बुरी तरह से डरा घबराया सज्जन बार बार बिटिया को कहता रहा....."डरते नहीं ....कुछ नहीं होगा। तू तो मेरी शेरनी है।"

चक्र पूरे कर के झूला रुक गया। बच्ची ने आँखें खोली। बाप ने बेटी को पुचकारा तो बिटिया बाप के गले से लिपट कर पुनः रोने लगी।

मैं इस दृश्य का साक्षी था।

उस आदमी को देख कर मेरी पहली प्रतिक्रिया थी के यह के निहायत ही फ़ट्टू और डरपोक किस्म का इंसान है जो बड़े चक्के में बैठ कर घबरा रहा है।

लेकिन कुछ ही क्षणों पश्चात उसके प्रति मेरी सारी धारणा धूल धूसरित हो गयी।

एक डरे हुये इंसान ने अपना डर भुलाते हुये जब अपनी डरी हुई बच्ची को अपनी बाहों में भर लिया तो मुझे महसूस हुआ के मैं गलत था।

वह स्वयं डर रहा था....बुरी तरह से घबराया हुआ था.....फिर भी अपनी बच्ची के लिये ढाल बना हुआ था।

खुद का मनोबल गिरा हुआ था और बिटिया को शेरनी बता कर उसका मनोबल बढ़ा रहा था।

फर्क नज़र का है। फर्क नज़रिये का है।

मैं उस बाप में एक डरपोक इंसान भी देख सकता था। लेकिन मुझे उसमें एक समर्पित पिता दिखाई दिया।

कुछ इसी तरह से ज़िंदगी को देखना होगा। ज़िंदगी की खामियों को नजरअंदाज ना करते हुये ज़िंदगी की खूबियां देखनी होंगी।

कुछ इसी तरह से स्वयं को देखना होगा। अपने भीतर समावेशित खूबियों को पहचाना होगा।

कुछ इसी तरह से इस दुनिया को देखना होगा।

पहले अच्छाई ....फिर बुराई देखनी होगी।

कमियां हैं ....हम सब में कमियां हैं। लेकिन खूबियां भी तो हैं।
हम सब कमाल हैं....बेमिसाल हैं। खामियां दुनिया को देखने दीजिये।
क्यों ना अपनी ख़ासियत देखी जाये? क्यों ना अपनी खूबियां देखी जायें?
इस नए वर्ष पर हमारी आदतें ऐसी ही बन जाये !!
【रचित】-लेखनी

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