चीन में एक राजा ने भगवान बुद्ध की विशाल मूर्ति बनवाने का निर्णय लिया।
कई प्रसिद्ध मूर्तिकार बुलाए गए और उनके सम्मिलित श्रम से कई महीनों के बाद बुद्ध की एक विशाल कांस्य प्रतिमा तैयार हुई।
जिस दिन बोधिसत्व की मूर्ति प्रजा के लिए खोली जानी थी, अपार भीड़ जुट गई।
मूर्ति को राजा ने अनावृत किया पर ये क्या? भगवान का चेहरा तो उदास दिख रहा है। कहां प्रसन्नमुख बुद्ध को बनाने की कोशिश की और कहां उदास बुद्ध.....
घोर निराशा फैल गई.....धन गया, श्रम गया और बना क्या? उदास बुद्ध....
राजा ने मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकारों को बुलाया, कहा - भगवान के चेहरे पर मुस्कान लाओ। मूर्तिकार खामोश कि बनी हुई प्रतिमा में कैसे परिवर्तन होगा।
राजा ने उन्हें लाचार देखके मुनादी करा दी कि जो भी मूर्तिकार बोधिसत्व के चेहरे पे मुस्कान ला देगा उसे मनोवांछित ईनाम मिलेगा।
बहुत तलाश के बाद एक वृद्ध मूर्तिकार खोजा गया। बड़ी मुश्किल से आने को तैयार हुआ पर आते ही शर्त रख दी कि मूर्ति पर जितने हथौड़े मारूंगा उतनी स्वर्ण मुद्रा लूंगा।
राजा पेशोपेश में कि इतनी बड़ी मूर्ति है न जाने ये कितनी बार हथौड़ी मार दे पर मन मसोसकर अनुमति देनी पड़ी।
बूढ़ा बड़े सधे कदमों से आगे आया, सीढ़ी लगवाकर बुद्ध के चेहरे के पास गया। आधे घंटे तक सोचता रहा, मुआयना करता रहा और हथौड़ी उठाकर भगवान के बाएं गाल के पास जोर से एक हथौड़ा मारा और सीढ़ी से नीचे उतरने लगा।
लोगों ने देखा भगवान के चेहरे पर बहुत प्यारी सी मुस्कान खिल रही थी। भीड़ ने वृद्ध मूर्तिकार को उठा लिया और उसके लिए अभिनंदन गीत गाए।
उसने पारिश्रमिक के रूप में राजा से बस एक स्वर्ण मुद्रा ली और अपने घर चला गया।
प्रश्न है क्या मूर्ति बनाने वाले बाकी सैकड़ों लोग मूर्तिकला निष्णात नहीं थे ? थे , पर एक हथौड़ा मारने वाले उस वृद्ध ने केवल मूर्तिकला सीखी ही नहीं थी उसे जीया भी था, उसने उस कला की निष्पत्ति समझी थी।
अभिजीत जी कहते हैं कि इसी तरह महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप क्या और कितना पढ़ते हैं, महत्वपूर्ण ये है कि आप उसकी निष्पत्ति किस रूप में निकालते थे, उसके सार को कैसे समझते हैं, कैसे प्रस्तुत करते हैं। आत्म चेतना, बोध और विश्लेषण क्षमता ये व्यक्ति के प्रज्ञावान होने के सूचक हैं बाकी अध्ययन तो कोई भी कर सकता है; बोधवान, प्रज्ञावान और चैतन्यवान हर कोई नहीं हो सकता।
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