शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

अहोरात्र

 

   *हमारा भारत - श्रेष्ठ भारत !!*

   भारतीय ज्योतिष में एक शब्द होता है, अहोरात्र ...अर्थात एक दिन और एक रात यानि कि 24 घण्टे । इस अहोरात्र में से अपभ्रंश (किसी शब्द का बिगड़ा हुआ रूप) होकर के शब्द बना - होरा।  जो कि अहोरात्र में से अ और त्र के हटने से बना । एक दिन में 24 होरा होती थीं और ये वो समय होता था, जिसमें पृथ्वी 15 डिग्री घूम जाती है । इस प्रकार 24 होरा में पृथ्वी 360 अंश घूम जाती है। इसी होरा, यानि कि पृथ्वी के घूमने के समय के अध्ययन को ज्योतिष में 'होराशास्त्र' कहते हैं ।
अभिनंदन शर्मा जी कल रात को फ़िल्म देख रहे थे, पाइरेट्स ऑफ केरेबियन, पांचवां भाग । उसमें एक शब्द आया - होरोलॉजिस्ट ।उन्होंने  गूगल किया तो पता चला कि समय के अध्ययन करने वाले को, घण्टे के अध्ययन करने वाले को और घड़ियों का अध्ययन (समय) करने वाले को होरोलॉजिस्ट कहते हैं । ये होरोलॉजिस्ट शब्द कहाँ से आया, अब ये आपको बताने की आवश्यकता नहीं है । पर इसी होरा से एक शब्द और निकल कर आया, जो होरा के अपभ्रंश से बना और वो है - hour यानि 1 घण्टे का समय।  एक दिन में 24 pहोरा होती हैं और एक दिन में 24 घण्टे होते हैं ।  हमारे यहां होरा, अर्थात जितने समय मे पृथ्वी 15 अंश घूम जाये पर अंग्रेजों का hour यदि अलग और स्वतंत्र टर्म है तो कोई बताये कि 1 घण्टे का समय किस आधार पर लिया गया ? और पश्चिमी विज्ञान द्वारा, 1 दिन में 24 घंटे होने का क्या आधार है ?

ज्यादा विज्ञान विज्ञान न किया करें, सारा पश्चिमी विज्ञान, भारतीय विज्ञान के पेट से ही निकल कर गया है । बस फर्क इतना है कि उन्होंने पूरी दुनिया पर राज किया सो हर देश के विज्ञान को जल्दी कॉपी कर पाये और सब देशों को लूटा सो मशीनों पर इन्वेस्ट कर पाये। इसलिये भारतीय विज्ञान को कमजोर और पुरातन समझने की भूल न करें ।

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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

मुफ्त मुफ्त मुफ्त

 

कुमार सतीश जी बतलाते है कि जब मैं बच्चा था तो मम्मी मुझे डराने के लिए कहती थी.... गर्मी के दोपहर में बाहर खेलने मत जाया करो...
क्योंकि, बाहर में लकडसुंघा घूमते रहते हैं.

वो तुम्हें .... किसी गिफ्ट (चॉकलेट आदि) का लालच देकर तुम्हें एक लकड़ी सुंघा कर बेहोश कर देंगे और फिर बोरे में भर कर लेकर भाग जाएंगे.

तो.... उस समय मेरे मन में लकडसुंघा की जो काल्पनिक छवि उभरती थी.... वो होती थी कि...

एक बूढ़ा आदमी अपने एक कंधे पर बोरा/बड़ा सा झोला टांगा हुआ है और वो बच्चों को गिफ्ट बांट रहा है.

समझ लो कि... ठीक अपने संता भैया की ही छवि उभरती थी.

ये तो बहुत बाद में पता लगा कि.... ये लकडसुंघा करके कोई नहीं होता है और वो मम्मी सिर्फ हमें डराने के लिए ही बोलती थी...!

साथ में ये भी पता चला कि.... भले ही लकडसुंघा एक काल्पनिक पात्र है... लेकिन, समाज में फ्रॉड तो होता ही है.

जैसे कि...
अभी हाल फिलहाल में ही ऑनलाइन फ्रॉड की घटनाओं में काफी वृद्धि देखने को मिल रही है.

फ्रॉड भी ऐसा ऐसा कि सर घूम जाए.

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उदाहरण के लिए ...

हम सब जानते हैं कि.... किसी को अपने बैंक का डिटेल , क्रेडिट/डेबिट कार्ड का नंबर , पासवर्ड आदि नहीं देना चाहिए क्योंकि वो ऑनलाइन फ्रॉड होता है.

लेकिन, अब फ्रॉड का एक नया चलन आया है.

जिसमें... एक आदमी आपके घर कोई पार्सल डिलीवरी देने को आता है...!

लेकिन, चूँकि... आपने ऐसा कोई आर्डर नहीं किया होता है तो आप वो पार्सल डिलीवरी देने से मना कर देते हैं.

फिर, वो डिलीवरी बॉय कहता है कि... सर, अगर आप पार्सल नहीं लेना चाहते हैं तो फिर इस आर्डर को कैंसिल करना होगा.

लेकिन, जब आपने आर्डर ही नहीं किया है तो भला आप उसे कैंसिल कैसे करेंगे.

फिर, डिलीवरी बॉय खुद अपने मोबाइल से आर्डर कैंसिल करने का एक उपक्रम करता है और उस प्रोसेस को पूरा करने के लिए आपके मोबाइल में आया OTP मांगता है.

असल में वो पासवर्ड ... किसी आर्डर कैंसिलेशन का नहीं बल्कि आपके बैंक के ट्रांसेजक्शन को कंप्लीट करने का OTP होता है.

इसीलिए, इधर आपने उसे वो OTP दिया और उधर आपके बैंक एकाउंट से पैसा निकाल लिया जाता है.

तथा... ऐसे फ्रॉड सिर्फ आजकल नहीं हो रहे हैं बल्कि आज से पहले भी जब ऑनलाइन का जमाना नहीं था तो ऐसे फ्रॉड देखने को आते थे कि आपको एक भारी सा पार्सल आ जाता था (TO PAY के रूप में)

आप उसे किसी का भेजा हुआ गिफ्ट समझ कर वो पार्सल छुड़वा लेते थे.

बाद में पार्सल खोलने पर पता लगता था कि अरे यार.... आपको तो चूसिया बनाया गया है... क्योंकि, पार्सल के नाम पर ईंट-पत्थर या लकड़ी के टुकड़े भेज कर आपसे मोटी रकम वसूल कर ली गई है..!

तो, कहने का मतलब है कि.... धोखाधड़ी कोई नई बात नहीं बल्कि जब से इंसानों में बुद्धि का विकास हुआ है... धोखाधड़ी तब से चली आ रही है.

क्योंकि... गिफ्ट के नाम पर धोखाधड़ी करना एक बहुत पुरानी समस्या है.

अंतर सिर्फ ये है कि.... गिफ्ट के नाम पर हाल फिलहाल में धोखाधड़ी पैसों की जाती है..

जबकि, पहले ये धोखाधड़ी ... संता भैया द्वारा मजहब की... की जाती थी.

महजब की धोखाधड़ी का मतलब ये है कि.... पार्सल के रूप में आप को पैकेट में कंकड़-पत्थर वाला मजहब पकड़ा दिया जाता था... और, आपसे आपके शुद्ध स्वर्णिम धर्म को ले लिया जाता था.

खैर...

चूँकि... पार्सल और OTP के द्वारा धोखाधड़ी की ये परंपरा बेहद पुरानी है.

इसीलिए.... ऐसे कोई भी लोग ... जो आपको मुफ्त में गिफ्ट दे अथवा गिफ्ट देने का लालच दे कि.... "हम आएंगे और तुम्हारे लिए गिफ्ट लाएंगे" से बेहद सावधान रहने की जरूरत है.

क्योंकि, उस तथाकथित मुफ्त की कीमत.... आपके धर्म से लेकर, परंपरा और सभ्यता-संस्कृति तक हो सकती है.

इसीलिए... जागरूक रहें.. सुरक्षित रहें... एवं, डंडा थैरेपी से ऐसे मुफ्त के गिफ्टिये का इलाज करते रहें...!

क्योंकि, लकडसुंघा भले ही काल्पनिक हो...
लेकिन, फ्री गिफ्ट के नाम पर धोखाधड़ी करते दिखते ये सब कोई कल्पना नहीं है.

सोमवार, 19 दिसंबर 2022

बहुमूल्य रत्न

 

*चिंतन की धारा.....*

 
परिचित पंकज झा जी के एक प्रसंग प्रस्तुतिकरण ने मन मोह लिया, थोड़े में बहुत कह दिया , चिंतन को दिशा देने वाला !!
उन्होंने बताया - मेरा थोड़ा-बहुत विश्वास ज्योतिष विद्या में है। स्वर्णिम समय था  यह विद्या सीखने का, पर चूक गए ।  वर्तमनातः इससे जुड़ा एक सुंदर प्रसंग।

एक विद्वान मित्र हैं अपने। हर विधा के विधायक अर्थात् पारंगत। शायद ही कोई विषय हो जिस पर वे साधिकार बात नहीं करते हों। मूलतः पेशातः वे पत्रकार ही हैं। तो पिछले दिनों जिज्ञासावश अपन ने भी अपने जन्म से संबंधित विवरण उन्हें भेज दिया। देर रात फोन आया। उन्होंने अनेक विश्लेषण के उपरांत दो उपाय बताये।

पहला - मां समान किसी स्त्री की सेवा सम्पूर्ण भक्ति भाव से करें। वे प्रसन्न होंगी तो अधिक और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। दूसरा - नीलम समान ‘नीली’ छः रत्ती मध्यमा अंगुली में धारण करना है। इन उपायों के बाद और कुछ करने की आवश्यकता नहीं।

अपन ने पूछा उनसे कि ‘नीलम समान’ का मंतव्य तो समझा कि वह अपेक्षाकृत काफी सस्ता और सुलभ होगा तो असली नहीं भी पहनें तो चलेगा। साथ ही इस जेम्स के कुछ दुष्प्रभाव भी संभावित होते हैं इसलिए ‘प्रतिकृति’ पहनना प्रथमतः उचित। किंतु …

किंतु क्या मां समान के बजाय ‘माँ’ ही हों तो कोई समस्या है? क्या यहां भी ‘नीलम-नीली’ विषय प्रासंगिक है? उन्होंने कहा कि बिल्कुल नहीं! कदापि नहीं। कथमपि नहीं। क्वचिदपि ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि एकल परिवार के इस युग में क्योंकि यह अंडरस्टुड है कि ‘मां-पिता’ के संग नहीं होंगे, इसलिए मां समान स्त्री की पूजा को कहा। अन्यथा मां की पूजा हो, फिर और क्या चाहिये भला? फिर तो नीलम-नीली झंझट की भी आवश्यकता अधिक नहीं। शनि फिर क्या बिगाड़ सकते किसी जातक का भला? आदि अनादि।

मुझे स्मरण हो आया रामायण का प्रसंग। स्वायंभुव मनु और सतरूपा ने भगवान विष्णु की तपस्या की। प्रसन्न होने पर भगवान से यह मांगा कि ‘उन्हीं के समान’ पुत्र हो दंपत्ति को। राजीव नयन ने कहा  - आपु सरिस खोजौं कहँ जाई, नृप तव तनय होब मैं आई! अर्थात् अपने समान मैं कहां खोजने जाऊंगा भला, मैं स्वयं आपके पुत्र के रूप में आऊंगा।

आगे की कथा तो मानवता जानती ही है। श्रीराम का जन्म और मर्यादा की पुनर्स्थापना तक का प्रसंग….. हालांकि पुत्रों के कुपुत्र होने की तो अब श्रृंखला है, पर क्वचिदपि कुमाता न भवति की शास्त्रोक्त आश्वासन आज तक निरंतर और अनवरत कायम है। तो मां समान खोजने के बजाय माँ ही हों तो क्या सर्वोत्तम नहीं होगा? है न?

बड़ी संख्या में समाज में ऐसे ज्योतिषियों की आवश्यकता है जो ऐसे उपाय अवश्य बतायें जातक को कि ग्रह शांति चाहिये तो नीलम भले न पहन पायें, सोने में नीली भी पहनना छोड़ दें… पर मातृ सेवा मात्रानाम नीलम धारण फल लभेत!  🙏
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रविवार, 18 दिसंबर 2022

सही सोच

 

साक्षात्कार चल रहा था !

नोकरी बड़ी अच्छी और अच्छे वेतन वाली थी साक्षात्कार में कई युवक आये हुए थे !

सभी युवक अच्छे पढ़े लिखे एवं सुसंस्कृत थे !

चपरासी ने आकर पहले युवक को आवाज लगाई !

युवक अपनी फ़ाइल ले कर चेम्बर में घुसा और बोला में आई कमिंग सर ?

साक्षात्कार लेने वाले ने कहा "यस" थैंक यू कहकर युवक अंदर चला गया और सामने वाली कुर्सी पर बेठ गया !

साक्षात्कार लेने वाले उसकी फ़ाइल देखीं वैरी गुड कह पुछा :

"एक बात बताइये आप कही जा रहे है
आपकी कार टू सीटर है!
आगे चलने पर एक बस स्टैंड पर आपने देखा कि तीन व्यक्ति बस के इंतजार में खड़े है!

उन में से एक वृद्धा जो कि करीब ९० वर्ष की है
तथा बीमार है अगर उसे अस्पताल नहीं पहुचाया गया तो इलाज न मिल सकने के कारण मर भी सकती है!

दूसरा आपका एक बहुत ही पक्का मित्र है जिसने आपकी एक समय बहुत मदद कि थी
जिसके कारण आप आज का दिन देख रहे है!

तीसरा इंसान एक बहुत ही खूबसूरत युवती है जिसे आप बेहद प्रेम करते है जो आपकी ड्रीम गर्ल है

अब आप उन तीनो में से किसे लिफ्ट देंगे आपकी कार में केवल एक ही व्यक्ति आ सकता है !

युवक ने एक पल सोचा फिर जवाब दिया" सर में अपनी ड्रीम गर्ल को लिफ्ट दूंगा "

साक्षात्कार लेने वाले पुछा क्या ये ना इंसाफी नहीं है ?

युवक बोला नो सर वृद्धा तो आज नहीं तो कल मर जायेगी।

दोस्त को में फिर भी मिल सकता हूँ पर अगर मेरी ड्रीम गर्ल एक बार चली गई तो फिर में उससे दुबारा कभी नहीं मिल सकूंगा !

साक्षात्कार लेने वाले ने मुस्कुरा कर कहा वेरी गुड में तुम्हारी साफ साफ बात सुन कर प्रभावित हुआ अब आप जा सकते है !

थैंक यू कहकर युवक बाहर निकल गया !

साक्षात्कार लेने वाले ने दूसरे प्रत्याशी को बुलाने के लिए चपरासी को कहा!

साक्षात्कार लेने वाले ने सभी प्रत्याशिओं से उपरोक्त प्रश्न को पुछा विभिन्न प्रत्याशियों ने विभिन्न उत्तर दिए !

किसी ने वृद्धा को लिफ्ट देने किसी ने दोस्त को लिफ्ट देने कि बात कही !

जब एक प्रत्याशी से ये ही प्रश्न पुछा तो उसने उत्तर दिया

"सर में अपनी कार कि चाबी अपने दोस्त को दूंगा और उससे कहूंगा कि वो मेरी कार में वृद्धा को लेकर उसे अस्पताल छोड़ता हुआ अपने घर चला जाये !

में उससे अपनी कार बाद में ले लूंगा और स्वयं अपनी ड्रीम गर्ल के साथ बस में बैठ क़र चला जाऊँगा !

साक्षत्कार करने वाले ने उठ क़र उस से हाथ मिलाया और कहा यू आर सलेक्टेड!
थैंक यू सर कह क़र युवक मुस्कुराता हुआ बाहर आ गया !

साक्षत्कार समाप्त हो   चुका था !
~~

जीवन में अपने कर्म , अपनी कार्यस्थली को सहेजते हुवे भी पारिवारिक दायित्व के साथ समाज - राष्ट्र के कर्तव्यों का पालन होता रहे, ऐसी सोच विकसित करते रहें, सहजता से सकारात्मक होते रहें । 

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शनिवार, 17 दिसंबर 2022

अमर सिंह राठौड़

 कथा में प्रेरणा हो, सुखद है । पर ऐतिहासिक प्रेरक प्रसंग हो, तो अपने स्वर्णिम इतिहास पर गर्वित होने, सबक लेने के कारण बन जाते हैं । हमारा गौरवशाली अतीत हमारी आंखों में उतर आए, सीना चौड़ा होने की बातें हों, तो कौन भारतीय भला प्रेरित न हो !!

~~~

मुग़ल बादशाह शाहजहाँ लाल किले में तख्त-ए-ताऊस पर बैठा हुआ था ।

दरबार का अपना सम्मोहन होता है और इस सम्मोहन को राजपूत वीर अमर सिंह राठौड़ ने अपनी पद चापों से भंग कर दिया । अमर सिंह राठौड़ शाहजहां के तख्त की तरफ आगे बढ़ रहे थे । तभी मुगलों के सेनापति सलावत खां ने उन्हें रोक दिया ।


सलावत खां - ठहर जाओ अमर सिंह जी, आप 8 दिन की छुट्टी पर गए थे और आज 16वें दिन तशरीफ़ लाए हैं ।


अमर सिंह - मैं राजा हूँ । मेरे पास रियासत है, फौज है, मैं किसी का गुलाम नहीं ।


सलावत खां - आप राजा थे ।अब सिर्फ आप हमारे सेनापति हैं, आप मेरे मातहत हैं । आप पर जुर्माना लगाया जाता है । शाम तक जुर्माने के सात लाख रुपए भिजवा दीजिएगा ।


अमर सिंह - अगर मैं जुर्माना ना दूँ  !!


सलावत खां- (तख्त की तरफ देखते हुए) हुज़ूर, ये काफि़र आपके सामने हुकूम उदूली कर रहा है ।


अमर सिंह के कानों ने काफि़र शब्द सुना । उनका हाथ तलवार की मूंठ पर गया, तलवार बिजली की तरह निकली और सलावत खां की गर्दन पर गिरी ।


मुगलों के सेनापति सलावत खां का सिर जमीन पर आ गिरा । अकड़ कर बैठा सलावत खां का धड़ धम्म से नीचे गिर गया । दरबार में हड़कंप मच गया । वज़ीर फ़ौरन हरकत में आया और शाहजहां का हाथ पकड़कर उन्हें सीधे तख्त-ए-ताऊस के पीछे मौजूद कोठरीनुमा कमरे में ले गया । उसी कमरे में दुबक कर वहां मौजूद खिड़की की दरार से वज़ीर और बादशाह दरबार का मंज़र देखने लगे ।


दरबार की हिफ़ाज़त में तैनात ढाई सौ सिपाहियों का पूरा दस्ता अमर सिंह पर टूट पड़ा था । देखते ही देखते अमर सिंह ने शेर की तरह सारे भेड़ियों का सफ़ाया कर दिया ।


बादशाह - हमारी 300 की फौज का सफ़ाया हो गया्, या खुदा ।


वज़ीर - जी जहाँपनाह ।


बादशाह - अमर सिंह बहुत बहादुर है, उसे किसी तरह समझा बुझाकर ले आओ । कहना, हमने माफ किया ।


वज़ीर - जी जहाँपनाह ।


हुजूर, लेकिन आँखों पर यक़ीन नहीं होता । समझ में नहीं आता, अगर हिंदू इतना बहादुर है तो फिर गुलाम कैसे हो गया ?


बादशाह - सवाल वाजिब है, जवाब कल पता चल जाएगा ।


अगले दिन फिर बादशाह का दरबार सजा ।


शाहजहां - अमर सिंह का कुछ पता चला ।


वजीर- नहीं जहाँपनाह, अमर सिंह के पास जाने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता है।


शाहजहां - क्या कोई नहीं है जो अमर सिंह को यहां ला सके ?


दरबार में अफ़ग़ानी, ईरानी, तुर्की, बड़े बड़े रुस्तम -ए- जमां मौजूद थे, लेकिन कल अमर सिंह के शौर्य को देखकर सबकी हिम्मत जवाब दे रही थी।


आखिर में एक राजपूत वीर आगे बढ़ा, नाम था अर्जुन सिंह।


अर्जुन सिंह - हुज़ूर आप हुक्म दें, मैं अभी अमर सिंह को ले आता हूँ।


बादशाह ने वज़ीर को अपने पास बुलाया और कान में कहा, यही तुम्हारे कल के सवाल का जवाब है।


हिंदू बहादुर है लेकिन वह इसीलिए गुलाम हुआ। देखो, यही वजह है।


अर्जुन सिंह अमर सिंह के रिश्तेदार थे। अर्जुन सिंह ने अमर सिंह को धोखा देकर उनकी हत्या कर दी। अमर सिंह नहीं रहे लेकिन उनका स्वाभिमान इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में प्रकाशित है। इतिहास में ऐसी बहुत सी कथाएँ हैं जिनसे सबक़ लेना आज भी बाकी है ।


*~शाहजहाँ के दरबारी, इतिहासकार और यात्री अब्दुल हमीद लाहौरी की किताब बादशाहनामा से ली गईं ऐतिहासिक कथा।*




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DND

 *सामान्य जानकारियां...*


क्या आप भी अनचाहे कॉल्स से परेशान हैं? क्या आपके नंबर DND में रजिस्टर होने के बावजूद भी आपके नंबर पर कमर्शियल कॉल्स आते हैं? यदि हां तो आज ही TRAI DND की सरकारी App को डाउनलोड करें, यह UCC (Unwanted Commercial Calls) को रिपोर्ट करने का अब तक की सबसे आसान तरीका है, जैसे  कॉल रिसीव कीजिए (रिसीव करना अनिवार्य है यदि आप छुटकारा चाहते हैं तो) और तुरंत TRAI DND App खोल कर उसमे कॉल्स में जा कर बस एक क्लिक पर रिपोर्ट दर्ज करवा दीजिए, SMS के लिए भी ठीक वैसा ही करना है, जैसे ही आप कॉल्स या एसएमएस पर क्लिक करेंगे आपको कॉल्स और एसएमएस की लिस्ट मिल जायेगी, जिसे रिपोर्ट करना है कर दीजिए 


नितिन जी के फोन पर DND होने के बावजूद अचानक UCC आने लगे, GM तक को हड़का दिया, लीगल नोटिस भी भेज दिया लेकिन कोई फायदा नही हुआ, लेकिन जैसे ही इस एप्प पर रिपोर्ट करना शुरू किया सिर्फ 3 दिन में सन्नाटा छा गया, अब कोई UCC नही आता, शानदार एप्प है, आप सब भी इस्तेमाल कीजिए । गलत app download ना कर लें इसलिए app के SS साथ में लगा रहा हूं ।

सोमवार, 12 दिसंबर 2022

जब तक हैं जां

 एक बार दिल्ली से गोवा की उड़ान में एक सरदारजी मिले। साथ में उनकी सरदारनी भी थीं। 

सरदारजी की उम्र करीब 80 साल रही होगी। मैंने पूछा नहीं लेकिन सरदारनी भी 75 पार ही रही होंगी। उम्र के सहज प्रभाव को छोड़ दें, तो दोनों फिट थे।

सरदारनी खिड़की की ओर बैठी थीं, सरदारजी बीच में और सबसे किनारे वाली सीट मेरी थी।

उड़ान भरने के साथ ही सरदारनी ने कुछ खाने का सामान निकाला और सरदारजी की ओर किया। सरदार जी कांपते हाथों से धीरे-धीरे खाने लगे।

सरदार जी ने कोई जूस लिया था। खाना खाने के बाद जब उन्होंने जूस की बोतल के ढक्कन को खोलना शुरू किया तो ढक्कन खुले ही नहीं। सरदारजी कांपते हाथों से उसे खोलने की कोशिश कर रहे थे।

मैं लगातार उनकी ओर देख रहा था। मुझे लगा कि ढक्कन खोलने में उन्हें मुश्किल आ रही है तो मैंने कहा कि लाइए, मैं खोल देता हूं।

सरदारजी ने मेरी ओर देखा, फिर मुस्कुराते हुए कहने लगे कि बेटा ढक्कन तो मुझे ही खोलना होगा।

मैंने कुछ पूछा नहीं, लेकिन सवाल भरी निगाहों से उनकी ओर देखा।

सरदारजी ने कहा, बेटाजी, आज तो आप खोल देंगे। लेकिन अगली बार कौन खोलेगा? इसलिए मुझे खुद खोलना आना चाहिए। सरदारनी भी सरदारजी की ओर देख रही थीं। जूस की बोतल का ढक्कन उनसे भी नहीं खुला था। पर सरदारजी लगे रहे और बहुत बार कोशिश करके उन्होंने ढक्कन खोल ही दिया। दोनों आराम से जूस पी रहे थे।

कल मुझे दिल्ली से गोवा की उड़ान में ज़िंदगी का एक सबक मिला।

सरदारजी ने मुझे बताया कि उन्होंने ये नियम बना रखा है कि अपना हर काम वो खुद करेंगे। घर में बच्चे हैं, भरा पूरा परिवार है। सब साथ ही रहते हैं। पर अपनी रोज़ की ज़रूरत के लिए सरदारजी सिर्फ सरदारनी की मदद लेते हैं, बाकी किसी की नहीं। वो दोनों एक दूसरे की ज़रूरतों को समझते हैं।

सरदारजी ने मुझसे कहा कि जितना संभव हो, अपना काम खुद करना चाहिए। एक बार अगर काम करना छोड़ दूंगा, दूसरों पर निर्भर होऊंगा, तो समझो बेटा कि बिस्तर पर ही पड़ जाऊंगा। फिर मन हमेशा यही कहेगा कि ये काम इससे करा लूं, वो काम उससे। फिर तो चलने के लिए भी दूसरों का सहारा लेना पड़ेगा। अभी चलने में पांव कांपते हैं, खाने में भी हाथ कांपते हैं, पर जब तक आत्मनिर्भर रह सको, रहना चाहिए।

हम गोवा जा रहे हैं, दो दिन वहीं रहेंगे। हम महीने में एक दो बार ऐसे ही घूमने निकल जाते हैं। बेटे-बहू कहते हैं कि अकेले मुश्किल होगी, पर उन्हें कौन समझाए कि मुश्किल तो तब होगी, जब हम घूमना-फिरना बंद करके खुद को घर में कैद कर लेंगे। पूरी ज़िंदगी खूब काम किया। अब सब बेटों को दे कर अपने लिए महीने के पैसे तय कर रखे हैं और हम दोनों उसी में आराम से घूमते हैं।

जहां जाना होता है एजेंट टिकट बुक करा देते हैं, एयरपोर्ट पर टैक्सी आ जाती है, होटल में कोई तकलीफ होनी नहीं है। स्वास्थ्य एकदम ठीक है। कभी-कभी जूस की बोतल ही नहीं खुलती। पर थोड़ा दम लगाता हूं तो वो भी खुल ही जाती है।

तय किया था कि इस बार की उड़ान में लैपटॉप पर एक पूरी फिल्म देख लूंगा। पर यहां तो मैं जीवन की फिल्म देख रहा था। एक ऐसी फिल्म जिसमें जीवन जीने का संदेश छिपा था।

“जब तक हो सके, आत्मनिर्भर होना चाहिए।”...



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रविवार, 11 दिसंबर 2022

उर्मिला ११

 

उर्मिला 11

राम कक्ष से निकलने के लिए उठे तो देखा, पिता ने उनका उत्तरीय पकड़ लिया था। वे उनकी ओर मुड़े तो बोले- "न जाओ राम! इस कुलघातिनी के कारण मुझे न त्यागो पुत्र!"
    राम फिर पिता के चरणों मे बैठ गए। कहा, "माता को दोष न दें पिताश्री! नियति ने जो तय किया है, हम उसे बदल नहीं सकते। और आपका प्रिय राम यदि आपके एक वचन का निर्वाह भी नहीं कर सके तो धिक्कार है उसके होने पर... मुझे जाना ही होगा।"
   "नहीं पुत्र! तुम चले गए तो मेरा क्या होगा? इस अयोध्या का क्या होगा? इस बृद्धावस्था में पुत्र का वियोग नहीं सह सकूंगा मैं! मुझ पर दया करो राम, मत जाओ..."
    "मैं यदि वन नहीं गया तो भविष्य यही कहेगा कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ अपने पुत्र को इस योग्य भी नहीं बना सके कि वह पिता की प्रतिष्ठा का मूल्य समझ सकता। आपकी प्रतिष्ठा के लिए राम असंख्य बार अपने प्राणों की आहुति दे सकता है, यह वनवास तो अत्यंत सहज है पिताश्री। आप चिंतित न हों, और मुझे आज्ञा दें।"
    मैं तुम्हे आज्ञा नहीं दे सकता प्रिय! तुम्हारा बनवास तुम्हारे पिता की इच्छा नहीं है, बल्कि इस मतिशून्य कैकई का षड्यंत्र है। तुम्हारा जाना आवश्यक नहीं है।"
    " माता को दिए गए आपके वचन का मूल्य मैं खूब समझता हूँ पिताश्री! वह पूर्ण होना ही चाहिये। यदि अयोध्या का युवराज ही पिता के वचन की अवहेलना करने लगे, तो सामान्य जन सम्बन्धों का सम्मान करना ही भूल जाएंगे। इस संस्कृति का नाश हो जाएगा पिताश्री! मेरा वनवास इस युग के लिए आवश्यक है, मुझे जाने दीजिये।"
    "तुम चले गए तो यह राजकुल बिखर जाएगा पुत्र! यह परिवार इस भीषण विपत्ति को सह नहीं पायेगा। चौदह वर्ष बाद जब तुम लौटोगे तो यहाँ उदास खंडहरों के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। मत जाओ पुत्र, मत जाओ..."
    "कठोर होइये पिताश्री! आप अयोध्यानरेश हैं। आपके समान तपस्वी सम्राट के पुत्र को यदि लम्बी वन यात्रा करनी पड़ रही है, तो यह यात्रा अशुभ के लिए नहीं बल्कि शुभ के लिए ही होगी। सज्जनों के समक्ष आने वाली विपत्ति वस्तुतः किसी अन्य बड़ी उपलब्धि के द्वार खोलने आती है। कौन जाने, नियति इस बहाने कौन सा धर्म काज कराना चाहती है! और इस परिवार को बांध कर रखने के लिए आप हैं, मेरा भरत है, मेरी माताएं हैं... मुझे स्वयं से अधिक अपने प्रिय अनुजों पर भरोसा है पिताश्री, वे मेरी अनुपस्थिति में अयोध्या को थाम लेंगे। कुछ नहीं बिखरेगा, सब बना रहेगा!"
      दशरथ समझ गए कि राम नहीं मानेंगे। उनकी आंखें लगातार बह रही थीं। वे चुप हो गए। राम ने उनके चरणों में शीश नवाया, फिर माता कैकई के पैर पड़े और कक्ष से निकल गए।
      राम को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा करनी थी, सो वे अपने सभी बड़ों से मिल कर आशीर्वाद लेने लगे। वे जानते थे, माता-पिता के सम्मान के लिए स्वीकार की गई विपत्ति भी संतान का अहित नहीं करती, बल्कि अंततः लाभ ही देती है। वे यह भी जानते थे कि जबतक कोई युवराज सामान्य नागरिक की भांति अपने समूचे देश का भ्रमण न कर ले, वह कभी भी अच्छा शासक नहीं बन सकता। लोक का नायक बनने के लिए पहले लोक को ढंग से समझना पड़ता है, उसका हिस्सा बनना पड़ता है। राम अपनी उसी यात्रा पर निकल रहे थे।
       राम जब अपने कक्ष में पहुँचे तो सिया ने पूछा, "विवाह का पहला वचन स्मरण है प्रभु? तनिक बताइये तो, क्या था?"
      "स्मरण है सिया! यही कि अपने जीवन के समस्त धर्मकार्यों में मैं तुम्हे अपने साथ रखूंगा। तुम्हारे बिना कोई अनुष्ठान नहीं करूंगा।"
     "फिर इस तीर्थयात्रा में अकेले कैसे निकल रहे हैं प्रभु? यह तप क्या अकेले ही करेंगे?" सिया के अधरों पर एक शांत मुस्कान पसरी थी।
      राम भी मुस्कुरा उठे। कहा, "आपके बिना तो कोई यात्रा सम्भव नहीं देवी। चलिये, चौदह वर्ष की इस महायात्रा के कँटीले पथ पर अपने चरणों के रक्त से सभ्यता के सूत्र लिखते हैं। पीड़ा के पथ पर जबतक सिया संगीनी न हों तबतक किसी राम की यात्रा पूरी नहीं होती।"
     दोनों मुस्कुरा उठे। उस मुस्कान में प्रेम था, केवल प्रेम...

क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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सोमवार, 5 दिसंबर 2022

संघर्ष ही जीवन

 

चिन्तन की धारा
गिद्ध की प्रजाति का एक पक्षी है । वह अंडे देने के लिए किसी ऊंचे पर्वत की चोटी पर चला जाता है। जोड़ा वहीं अंडे देता है, मादा अंडों को सेती है, और एक दिन बच्चे अंडा तोड़ कर बाहर निकलते हैं। उसके अगले दिन सारे बच्चे घोसले से निकलते और नीचे गिर पड़ते हैं। एक दिन के बच्चे हजारों फिट की ऊंचाई से गिरते हैं। नर-मादा इस समय सिवाय चुपचाप देखते रहने के और कुछ नहीं कर सकते, वे बस देखते रहते हैं।
    बच्चे पत्थरों से टकराते हुए गिरते हैं। कुछ ऊपर ही टकरा कर मर जाते हैं, कुछ नीचे गिर कर मर जाते हैं। उन्ही में से कुछ होते हैं जो एक दो बार टकराने के बाद पंखों पर जोर लगाते हैं और नीचे पहुँचने के पहले पंख फड़फड़ा कर स्वयं को रोक लेते हैं। बस वे ही बच जाते हैं। बचने वालों की संख्या दस में से अधिकतम दो ही होती है।
    अब आप उस पक्षी के जीवन का संघर्ष देखिये! जन्म लेने के बाद उनके दस में से आठ बच्चे उनके सामने दुर्घटना का शिकार हो कर मर जाते हैं, पर उनकी प्रजाति बीस प्रतिशत जीवन दर के बावजूद करोड़ों वर्षों से जी रही है। संघर्ष इसको कहते हैं।
     एक और मजेदार उदाहरण है। जंगल का राजा कहे जाने वाला शेर शिकार के लिए किए गए अपने 75% आक्रमणों में असफल हो जाता है। मतलब वह सौ में 75 बार फेल होता है। अब आप इससे अपने जीवन की तुलना कीजिये, क्या हम 75% फेल्योर झेल पाते हैं? नहीं! इतनी असफलता तो मनुष्य को अवसाद में धकेल देती है। पर शेर अवसाद में नहीं जाता है। वह 25% मार्क्स के साथ ही जंगल का राजा है।
     इसी घटना को दूसरे एंगल से देखिये! शेर अपने 75% आक्रमणों में असफल हो जाता है, इसका सीधा अर्थ है कि हिरण 75% हमलों में खुद को बचा ले जाते हैं। जंगल का सबसे मासूम पशु शेर जैसे बर्बर और प्रबल शत्रु को बार बार पराजित करता है और तभी लाखों वर्षों से जी रहा है। उसका शत्रु केवल शेर ही नहीं है, बल्कि बाघ, चीता, तेंदुआ आदि पशुओं के अलावे मनुष्य भी उसका शत्रु है और सब उसे मारना ही चाहते हैं। फिर भी वह बना हुआ है। कैसे?
      वह जी रहा है, क्योंकि वह जीना चाहता है। हिरणों का झुंड रोज ही अपने सामने अपने कुछ साथियों को मार दिए जाते देखते हैं, पर हार नहीं मानते। वे दुख भरी कविताएं नहीं लिखते, हिरनवाद का रोना नहीं रोते। वे अवसाद में नहीं जाते, पर लड़ना नहीं छोड़ते। उन्हें पूरे जीवन में एक क्षण के लिए भी मनुष्य की तरह चादर तान कर सोने का सौभाग्य नहीं मिलता, बल्कि वे हर क्षण मृत्यु से संघर्ष करते हैं। यह संघर्ष ही उनकी रक्षा कर रहा है।
      जंगल में स्वतंत्र जी रहे हर पशु का जीवन आज के मनुष्य से हजार गुना कठिन और संघर्षपूर्ण है। मनुष्य के सामने बस अधिक पैसा कमाने का संघर्ष है, पर शेष जातियां जीवित रहने का संघर्ष करती हैं। फिर भी वे मस्त जी रहे होते हैं, और हममें से अधिकांश अपनी स्थिति से असंतुष्ट हो कर रो रहे हैं।
      अच्छी खासी स्थिति में जी रहा व्यक्ति अपने शानदार कमरे में बैठ कर वाट्सप पर अपनी जाति या सम्प्रदाय के लिए मैसेज छोड़ता है कि "हम खत्म हो जाएंगे"। और उसी की तरह का दूसरा सम्पन्न मनुष्य झट से इसे सच मान कर उसपर रोने वाली इमोजी लगा देता है। दोनों को लगता है कि यही संघर्ष है। वे समझ ही नहीं पाते कि यह संघर्ष नहीं, अवसाद है।
      मनुष्य को अभी पशुओं से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।
https://youtu.be/H1S6UCX4RAA

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रविवार, 4 दिसंबर 2022

अनहद आकुलता

 

एक पंडी जी थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि वे भगवान के साक्षात दर्शन किया करते थे।

एक बार मांगते खाते पंडी जी का डेरा किसी गांव में हुआ। गांव के जमींदार बहुत सम्पन्न थे और अब भगवदभजन में अपना मन लगाना चाहते थे, तो गांव के सिवान पर डेरा डाले पंडी जी के पास पहुंचे और बोले...

"हमको भी भक्ति करनी है। लोग कहते हैं कि आप भगवान को साक्षात देखते हैं तो हमको भी देखना है।"

पंडी जी कथा वाचन करते रहते, जमींदार साब के प्रश्न को अनसुना करते हुए। कई दिन बीत गए। डेरा उठाने का समय हो चला था, बहता पानी रमता जोगी। जमींदार साब फिर से पहुंच गए कि भगवान देखना है।

पंडी जी ने एक क्षण सोचा विचारा और जमींदार साब को लेकर बगल में बह रही नदी की ओर बढ़ गए। कमर भर पानी में पहुंच कर पंडी जी ने कहा, "डुबकी मारिए, और जब तक सांस हो, पानी में ही डूबे रहिए।"

जमींदार साब ने अपने भरसक प्रयास किया लेकिन सांस की वायु खतम हो जाने के बाद पानी में से खड़े होने लगे।

यह देखते ही पंडी जी ने लपक कर जमींदार साब की गुद्दी (गरदन का पीछे वाला भाग) दबोची, और चांप दिया पानी में फिर से।

जमींदार साब लगे छटपटाने। जब सांस ही नहीं रह गई थी तो कोई भी छटपटाता। एक दम जब जान जाने की आकुलता उत्पन्न हो गई तो पंडी जी ने छोड़ दिया।

बाहर आने पर जब सांस व्यवस्थित हुई तब पंडी जी ने पूछा, "अभी किस चीज की इच्छा हो रही थी आपको?"

"सांस लेने की।"

"ऐसे समय तुम्हें घर बंगला गाड़ी कोई सांस के बदले में दे रहा हो तो?"

"पगला गए हैं का पंडी जी? उस समय सांस के अलावा कोई और क्या चाहेगा?"

तब पंडी जी ने गम्भीर स्वर में कहा, "जब ऐसी ही आकुलता हमें केवल भगवान के लिए होगी तो भगवान स्वयं भागे चले आयेंगे। वे आपकी धीमी से धीमी पुकार भी सुन लेंगे, जैसे गजराज की पुकार पर उसको ग्राह से बचाने नंगे पैर ही श्रीकृष्ण भाग चले थे।"

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शनिवार, 3 दिसंबर 2022

उर्मिला १०

 

उर्मिला १०
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अयोध्या के राजकुल में नियति आग लगाने में सफल हो गयी थी। कैकई की कुलघाती योजना की थोड़ी सी जानकारी मिलते ही चारों बहुएं सन्न रह गयी थीं। इस विकट परिस्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए, यह उन्हें नहीं सूझ रहा था सो उन्होंने मौन साध लिया था। परिस्थिति जब अपने वश में नहीं हो तो मौन साध लेना ही उचित होता है।
    अगले दिन तक आग समूचे अंतः पुर में पसर गयी थी। कैकई ने भरत का राज्याभिषेक और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा था। राजा दशरथ निढाल पड़े थे। रानी कौशल्या अपने कक्ष में पड़ी रो रही थीं। हर ओर उदासी पसरी हुई थी, हर आंख भीगी हुई थी।
    इस दुख और उद्विग्नता की घड़ी में कुछ सुन्दर था तो यह कि राजकुल की स्त्रियों ने स्वयं को नियंत्रित रखा था। कहीं कोई आरोप प्रत्यारोप नहीं लग रहे थे, कहीं कोई दोषारोपण नहीं हो रहा था।
     अपराधबोध से भरी माण्डवी कभी सीता के पास जातीं तो कभी माता कौशल्या के पास, पर उन्हें कहीं शांति नहीं मिलती थी। सीता उन्हें बार बार शांत रहने को कहतीं पर उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। व्यग्र माण्डवी उर्मिला के पास गईं और कहा, "मैं क्या करूँ उर्मिला? मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा।"
      उर्मिला ने शालीनता से कहा, "आप इतनी अधिक व्यग्र क्यों हैं दाय! बड़े पाहुन को सबसे अधिक प्रेम करने वाली माता कैकई ही यदि उन्हें वन भेजने पर अड़ी हैं, इसका अर्थ यह है कि वे कुछ कर नहीं रहीं बल्कि नियति ही उनसे यह करा रही है। पर इसमें आपका क्या दोष?"

- तुम समझ नहीं रही उर्मिला! इस विपत्ति के क्षण में मन होता है कि सिया दाय के साथ खड़ी रहूँ, बड़ी माँ के साथ रहूँ, पर नहीं रह पाती। मुझे माता कैकई के साथ भी रहना होता है। मैं जानती हूँ कि वे गलत हैं, फिर भी वे मेरी माँ हैं। मैं क्या करूँ उर्मिला?"

- नियति क्या खेल खेलने जा रही है यह मुझे नहीं पता दाय! पर इतना अवश्य समझ रही हूँ माता कैकई सबसे अधिक स्वयं का अहित कर रही हैं। समय का कोई भी षड्यंत्र न चार भाइयों के बीच दरार डाल सकेगा, ना ही चारों बहनों के हृदय दूर होंगे। यदि कोई दूर होगा तो माता कैकई दूर होंगी। सबसे अधिक संवेदना की आवश्यकता उन्हें ही है। आप उन्ही के साथ रहें दाय!"
- पर कहीं सिया दाय या बड़ी मॉं के मन में हमारे लिए..."
- उनके सम्बन्ध में ऐसा सोचना भी पाप है दाय! इस विपत्ति काल में सबसे आवश्यक यही है कि हम विश्वास बनाये रखें। सभी समझ रहे हैं कि यह माता कैकई का नहीं नियति का खेल है। किसी के अंदर माता कैकई को लेकर बुरे भाव नहीं हैं। आप उन्ही की सेवा में रहें।"
      माण्डवी का मन तनिक शांत हुआ। वे अपने कक्ष की ओर गईं।
      राज काज में व्यस्त युवराज राम जब संध्याकाल में अनुज संग अंतः पुर में लौटे तो उन्हें इस प्रपंच की जानकारी मिली। वे भागे भागे कोप भवन की ओर गए और पलंग पर निढाल पड़े पिता के चरणों में बैठ गए।
      कठोर हो चुकी कैकई ने राम के समक्ष भी अपनी मांग दुहराई तो मुस्कुरा उठे राम ने कहा, "तो इसके लिए पिताश्री को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी माता! क्या राम ने कभी आपके आदेश की अवहेलना की है जो आज कर देगा। बताइये, मुझे कब वन को निकलना होगा?"
      कैकई जानती थीं कि राम उनकी इस अनर्थकारी मांग को भी सहजता से मांग लेंगे। पर मनुष्य के हिस्से में कुछ अभागे क्षण ऐसे भी आते हैं जो उसके समूचे जीवन पर भारी पड़ जाते हैं। कैकई के जीवन में अभी वे ही अभागे दिन चल रहे थे। फिर भी वे राम के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकीं। कुछ क्षण बाद राम ने ही कहा- मैं कल ही वनवास के लिए निकल पडूंगा माता। भरोसा रखियेगा, आपका राम वन में भी रघुकुल की मर्यादा का पूर्ण निर्वहन करेगा।
     राम कक्ष से निकलने के लिए उठे तो देखा, पिता ने उनका उत्तरीय पकड़ लिया था। वे उनकी ओर मुड़े तो बोले- "न जाओ राम! इस कुलघातिनी के कारण मुझे न त्यागो पुत्र!"
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