शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

कथा उर्मिला की

उर्मिला

"उर्मिला! माय वाटिका से पुष्प लाने के लिए कह रही हैं। चलो! अपनी सखियों को भी ले लो।"
     "चलिये सिया दाय! पर पुष्प लेने के लिए दासियों को भी भेजा जा सकता है, आपके जाने का क्या काम?"
     "ऐसा नहीं कहते रे! पूजा के काम स्वयं करने चाहिये। यदि ईश्वर के समक्ष भी हम बड़े होने का अभिमान नहीं त्याग पाएं, तो फिर कैसी पूजा? फिर वे भी हमारी नहीं सुनते। उनके लिए तो राजा रंक सभी बराबर हैं।"
      "ठीक कहा दाय!" मुस्कुराती उर्मिला ने प्रेम से सीता की उंगली पकड़ ली और वाटिका की ओर चली। माण्डवी और श्रुतिकीर्ति भी उनके साथ थीं। राह में सबसे छोटी बहन श्रुतिकीर्ति ने बड़ी बहन से परिहास किया- "लगता है ज्येष्ठ पिताश्री से भूल हो गयी। यह शिव धनुष तो टूटता हुआ नहीं दिख रहा। संसार के समस्त योद्धा हार कर लौट गए। बेचारी सिया दाय! अब उनका विवाह कैसे होगा?"
     सिया ने हँस कर उसके माथे पर चपत लगाई और कहा, "जो कार्य जिसके लिए रचा गया है उसे वही करता है। जबतक वह न आये, वह कार्य अधूरा ही रहता है। शिव धनुष भी टूटेगा और सीता का लग्न भी होगा, बस वह योग्य पुरुष जनकपुर तक पहुँच जाये। तनिक प्रतीक्षा करो..."
    "पर अब कब आएगा दाय! इतने दिनों से स्वयम्बर चल रहा है, अबतक क्यों नहीं आया?"
     "अच्छा एक बात बताओ! अबतक आये राजाओं राजकुमारों में तुम्हे ऐसा कोई दिखा, जिसे देखते ही तुम्हारे मन ने कहा हो, हाँ यही है दाय के योग्य वर! इससे ही दाय का लग्न होना चाहिये! बोलो?"
     "नहीं दाय ! ऐसा तो कोई नहीं आया। सब जाने कैसे कैसे आते रहे।" उर्मिला से उदास से स्वर में कहा।
      "तो प्रतीक्षा करो, वे जब आएंगे तब तुम्हारा मन ही चीखने लगेगा कि यही हैं... और देखना, जो तुम्हे पसन्द आएगा वही धनुष तोड़ भी देगा।" सीता के मुख पर दैविक आत्मविश्वास की झलक थी।
      चारों बहने वाटिका पहुँच चुकी थीं। अचानक उर्मिला ने किसी को देखा और चीखती हुई सीता के पास आई। कहा- सिया दाय! आज ही आपने कहा और आज ही वे दिख गए। वाटिका के उस ओर दो कुमार पुष्प ले रहे हैं। उस साँवले को देख कर लगा कि वे ही तुम्हारे योग्य हैं। उनके जैसा कुमार तो कभी न देखा, कहीं न देखा!"
      सारी बहनें पास आ गईं। सिया मुस्कुराईं और कहा- पक्का?
--अरे पक्का जीजी! चल के देख लो, उनसे अधिक सुघर तो संसार में कोई न होगा...
--फिर तो धनुष वही तोड़ेंगे, देख लेना।
-- यह आप बिना देखे कैसे कह सकती हैं दाय! देख तो लीजिये...
-- सिया मैं हूँ कि तुम हो? निश्चिन्त रहो, वे ही होंगे तुम्हारे पाहुन!
-- अच्छा चलो पहले देख तो लो।
--चल!
      चारों बहनें वाटिका की दूसरी ओर गईं जिधर अयोध्या के भावी नरेश, जगत के पालनहार, मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम अपने अनुज के साथ फूल ले रहे थे। जिस क्षण सिया ने उन्हें देखा, ठीक उसी क्षण उन्होंने भी दृष्टि ऊपर उठाई और इस तरह भगवान श्रीहरि और माता लक्ष्मी के मानवीय स्वरूपों ने पहली बार एक दूसरे को देखा। उन्होंने एक दूसरे को देखा और देखते रह गए। जड़ हो कर देखती रह गईं उर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति भी, उनके समक्ष राम जो थे। किसकी दृष्टि हटती उस साँवले से...
      वाटिका की रक्षा सुरक्षा में लगे मालियों, सैनिकों ने देखा, जैसे संसार की सारी शोभा इसी वाटिका में उतर आई हो। वे वाटिका में एकाएक खिल उठे संसार के सबसे सुंदर पुष्पों को एकटक निहारते रह गए!
     हवा का एक झोंका आया और वाटिका के बृक्षों पर लगे सारे पुष्प एक साथ झड़ गए। जैसे जगतपिता के चरणों पर चढ़ जाने की होड़ लग गयी हो...
     पूरी प्रकृति मुस्कुरा उठी। संसार का सबसे सुंदर जोड़ा एक दूसरे को अपलक निहार रहा था।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक के सुख्यात लेखनी के धनी, गोपालगंज, बिहार से सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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