रविवार, 2 अक्टूबर 2022

राम कथा

एक बार क्या हुआ कि शिव जी और सती जी टहल रहे थे। ऐसे ही घूमते-घामते पहुँच गए रामजी के आश्रम के पास। एक जगह राम जी बैठे थे। सीता जी अंदर खाना-वाना बना रही होंगी, लक्ष्मणजी गए होंगे जंगल में शिकार खेलने। तो राम जी बैठे थे। लम्बा सांवला शरीर, चौड़ा माथा, मजबूत कंधे, लम्बी भुजाएं, सुतवा नाक, गर्दन तक लहराते केश। सती जी को मजाक सूझा। शिवजी से कहने लगी कि सीता का भेष धरकर जाती हूँ, देखते हैं कि आपके राम पहचानते हैं कि नहीं। 

शिवजी मना किए। अरे, रामजी हैं वो। उनसे क्यों हँसी ठिठोली करनी। चलो, वापस चलो। पर पतियों की बात कहाँ सुनती हैं पत्नियां! सती जी मुस्कियाते हुए चल दी। सीता का रूप धर कर राम के सामने पहुँची और कुछ बोलने ही वाली थी कि रामजी हाथ जोड़कर खड़े हो गए और खुश होकर बोले कि माताजी आपके दर्शन हुए, धन्यभाग हमारे। बाकी शिव जी कहाँ हैं, आसेपास हैं का? 

सती तो भौचक्की। क्या कहती! झेंपते हुए वापस चली गईं। उधर शिव जी गुसियाए हुए थे। बताओ, जब मना किये रहे तो गई क्यों? और वेश भी माता सीता का बनाया? माता का रूप धरा तो बीवी कैसे मानूं अब? 

ले भैया, हुआ बवाल। मजाक भारी पड़ गया। बहुत मनाया, शिव जी माने ही न। भोला गुस्सा हुआ तो हो गया। अब पति नाराज हो तो पत्नी को मायके की याद आती है। बहाना भी मिल गया। पिताजी दक्ष महराज यज्ञ कर रहे थे। सती आई और बोली कि नहीं बोलते हो तो मत बोलो, जाती हूँ अपने मायके। शिवजी बोले कि देख, जाना है तो जा, पर सोच ले, बिना बुलाए जा रही है। सती बेचारी करती क्या, पति का मुँह सीधा ही नहीं हो रहा। चली गईं। 

जब दक्ष ने देखा कि बेटी आ रही है, पर दामाद का पता ही नहीं तो अपमान महसूस हुआ। समझता क्या है खुद को। सारे देवता आ रहे हैं, वो भी आ जाता। पत्नी को भेज दिया। अब दामाद को भी निमंत्रण भेजें क्या? और दामाद भी कैसा! राख मल ली,  बाल कभी धोए नहीं, जटाएं बन गईं। और नहीं तो साँप पाल लिया जो हमेशा गरदन में लटका रहता है। और दामादों को देखो, कितने सुंदर-सुंदर। चंद्रमा को ही देख लो, जी जुड़ा जाता है। एक ये महराज हैं, कोई देख ले तो जूड़ी चढ़ जाए। 

जितना मन में भरा था, सबके सामने लगे अपनी बेटी को सुनाने। बेटी भी कितना बर्दाश्त करे? जो बोलना हो मुझे बोलते, मेरे पति को काहें बोल रहे, वो भी सबके सामने। गुस्सा तो बड़ी तेज चढ़ा, पर करें क्या? पति से तो गुस्सा होकर मायके आई थी, अब पिता से गुस्सा होकर किधर जाएं? 

जब गुस्सा किसी और पर नहीं निकलता तो खुद पर निकलता है। आगा-पीछा सोचे बिना कूद गई आग में। बवाल पर बवाल। शिव जी को मालूम चला तो मारे गुस्से के लगे झोटा नोचने। झोटवा में से वीरभद्र निकला और जाकर दक्ष की गरदन उड़ा दिया।

इधर शिव जी बिलकुले बौरा गए। अपनी जान से प्यारी बीवी की देह लेकर बावलों की तरह घूमने लगे। कभी गुस्सा आता तो लगते तांडव करने। हाहाकार मच जाता। समय-कुसमय का ध्यान दिए बिना लोग पटापट मरने लगते। और कभी बिलकुल निराश होकर गुम टहलते रहते तो संसार चक्र ही रुक जाता। 

ब्रह्मा, विष्णु को बड़ी चिंता हुई। खाली सृजन और पालन से तो काम चलेगा नहीं। तो तय हुआ कि इस सियापे को खत्म किया जाए। विष्णु जी ने अपना चक्र चलाया और मैया सती के शरीर के टुकड़े संसार भर में बिखर गए। 

शिव जी तो वैसे ही विरक्त मानसिकता के धनी थे। और विरक्त हो गए। आँख मूंदकर संसार से आँख फेर ली। देखिए, भगवान हो कि इंसान, बिना अर्धांगनी के काम नहीं चलता है। फिर यह तो शंकर थे। बिना शक्ति के पुरुष, पुरुष ही नहीं। तो शक्ति स्वरूपा माता सती ने गिरिराज के घर में जन्म लिया पार्वती के नाम से। 

पार्वती जी बड़ी हुई। अत्यंत सुंदर। युवा लड़की के मां-बाप की तरह गिरिराज और मैना जी को भी ब्याह की चिंता सताने लगी। दूल्हा खोजा जाने लगा। गिरिराज को तो विष्णुजी पसन्द थे, पर पार्वती तो शिवजी के लिए अवतरित हुई थी! आ गए अपने नारद जी, अगुआ बनकर। माँ-बाप को समझाया, फिर पार्वती जी को भी समझाया। पार्वती जी भी शिवमोहित थीं ही। समस्या बस यही थी कि शिव तो तपस्या में रत थे। 

जाने कितने सुर-असुर, राक्षस-मानव तपस्या कर कर के थक गए पर शिवजी प्रसन्न ही न हों। पार्वती जी ने भी ठान लिया कि चाहे जो हो जाएं, इन्हें तो प्रसन्न करके रहूंगी। भाई, स्त्री अगर कुछ ठान ले न, तो कुछ भी कर सकती है। शिवजी भी अंततः प्रसन्न हुए। वरदान मांगने को कहा तो पार्वती जी ने लिटरली वरदान, वर का दान ही मांग लिया। 

तय हुआ सब। शिवजी बोले कि जाओ अपने घर। अपने पिता से कहो कि हम बारात लेकर आते हैं। कुछ दिन बाद चली शिवजी की बारात। बारात में इंद्र, वरुण, यम, कुबेर जैसे देवता अपनी सुंदर सेनाओं के साथ चले, विष्णु जी भी पहुंच गए।

बाराती तो इतने सुंदर-सुंदर, और दूल्हा! उसका तो पूछो ही मत। 

जटा बढ़ी है, हाथ में त्रिशूल है, उस पर डमरू बंधा है, माथे और सीने पर राख की रेखाएं खिंची हैं, पूरे शरीर पर भभूत लगा है, और बैल पर चढ़कर चल दिए। कपड़ा-वपड़ा पहनने का तो होश ही नहीं। बस चल दिए तो चल दिए। उन्हें देख विष्णुजी खूब जोर से बोले, "भई यह बरात तो दूल्हे के लायक नहीं है" और उनके साथ-साथ सब देवता लोग बहुत पीछे खिसक लिए। 

शंकर जी बूझ गए कि देखो विष्णुजी को, शादी का मामला है तो लगे मजाक करने। शिवजी ने भी हांक लगाई और उनके सारे गण, भूत, प्रेत, पिशाच सब आगे आ गए। ये सब भी बारात में थे पर देवता लोग को देखकर पीछे हो गए थे। अब जब खुद भोले ने आगे बुलाया तो सब आगे आकर लगे नाचने। 

चली बारात। किसी भूत का सिर ही नहीं है, किसी के दो-दो, चार-चार सिर। किसी पिशाच की आंखें नहीं, तो किसी के शरीर पर बस आँखें ही आँखें। कोई गण लंगड़ा है तो किसी के घोड़े की तरह चार टांगे। प्रेतों का तो शरीर ही नहीं है। सब भांग-गाँजा पीकर मस्त होकर नाच रहे हैं। देवताओं ने देखा कि ये सब तो बाजी मार लिए, तो वे सब भी मधु, सुरा, सोम इत्यादि पीकर लगे झूमने। शायद पहली बार हुआ कि भूत-पिशाच, देवता-दानव, मानव-राक्षस सब एक साथ खुशी-खुशी नाचते-गाते चले जा रहे थे। 

बारात पहुंची द्वार पर। वहाँ सारे पर्वत, सारी नदियां, सारी झीलें शरीर धारण कर स्वागत हेतु तत्पर। बारात देखकर तो सब चकरा गए। कितने तो डर के मारे भाग गए। दूल्हा महराज बैल पर बैठे आगे बढ़े तो माता मैनाजी के तो होश ही उड़ गए। थाली छूट गई हाथ से। भाग कर अपनी बेटी के पास चली गईं। 

बेटी को अपनी गोद में बिठा कर बोलने लगी, "हाय हाय, हमारी इतनी सुन्नर बेटी। और इसका बियाह ऐसे बावरे से, जो अपनी शादी के दिन भी बिना कपड़ों के, राख मलकर आ गया। हे भगवान! और वो नारद कहाँ है? बड़का अगुआ बनते हो, मिलो तुम, बताते हैं तुम्हें। अरे, इतनी फूल सी लड़की के लिए और कोई नहीं मिला था।"

पार्वती जी तो सब बूझती ही थी। लगी समझाने कि जाए दो न अम्माजी। अब जिसके भाग में शिव जैसा बावला लिखा है, तो लिखा है। क्या कर सकते हैं? आप टेंशन मत लीजिए, हम बूझ लेंगे। काट लेंगे अपनी जिंदगी, इस औघड़ के साथ। 

तो हुआ बियाह। देवता लोग खाने बैठे तो खूब गारी भी सुने। बिदाई हुई और शिव जी अपनी पत्नी पार्वती को लेकर कैलाश वापस। 

एक दिन शिव जी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में पेड़ के नीचे बैठे थे। पार्वती जी आई तो उन्हें अपने पास बिठा लिया। पूछे, "खुश तो हो?" 

माता पार्वती बोली, "जी, पर पुरानी बातें नहीं भूलती। अपनी गलती से रामजी को भ्रमित करने चली थी और आपको भी नाराज किया। बहुत व्याकुलता है। शांत ही नहीं होती।"

"कैसी भी व्याकुलता दूर करनी हो तो रामकथा सुनो। राम का नाम ही चित्त को शांत कर देता है, रामकथा सभी व्याकुलताओं को हर लेती है।"

"तो मुझपर कृपा करें और अपने श्रीमुख से रामकथा कहें।"

भोला बोला, "अवश्य, यह तो मेरा सबसे प्रिय कार्य है। सुनो, एक बार ... ... ..."।
     -अजीत प्रताप सिंह द्वारा 


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