सोमवार, 31 अक्टूबर 2022

चिन्तन की धारा

चिन्तन की धारा

पिछले दिन के गड्ढे,,

एक बात कह रहा हूँ,,मान लो बीस आदमियों को अलग अलग कोई मार्ग जिसपर पत्थर पड़े हैं वह साफ करने के लिए दिया गया है,, न किसी का दबाव न कोई डर भय, अपनी मर्जी अपनी  स्वतंत्रता से पत्थर हटाने हैं,दो पांच जन ने दिनभर धींगा मस्ती की,, दूसरे जो मेहनत कर रहे थे उनपर  कटाक्ष किए,,अरे क्यों मरे जा रहे हो,, धीरे धीरे करो,, कल हो जाएगा, परसों हो जाएगा क्या चिंता है,,
कुछ ने मार्ग पर निशान लगाए और अपने हिस्से के पत्थर बीनने शुरू कर दिए,, जब शाम हुई तो किसी ने शुरू ही नहीं किया था,, किसी ने निशान लगा दिए थे,, किसी ने आधा रास्ता साफ कर लिया था,, एकाध ऐसा भी था जो आधे से आगे ले गया था साफ करता करता,,

रात हुई खा पीकर सो गए,,अगले दिन फिर आए वहां,,तो जिनका जितना काम हुआ था उससे आगे शुरू किया,,तीसरे दिन जब कार्य फिर से शुरू हुआ तो किसी का मात्र एक फिट पत्थर हटाने बचे थे जो घण्टेभर में पूर्ण हो गया,,किसी का आधा बचा था तो वह मेहनत से लगा रहा,, किसी ने शुरू ही नहीं किया था वह कुढ़ रहा था और पत्थर हटाने के लिए निशान लगा रहा था,,

मान लो वह रात्रि जब वे सोए और सुबह उठे ऐसा होता कि पिछले दिन का सबकुछ  भूल गए होते,,तब क्या होता?? ज्यादा संभावना है कि लड़ते,, पक्षपात का उलाहना देते,,कहते कि उसको तो काम हुआ हुआ जैसा मिल गया, दूसरे का भी आधा हो रक्खा है,, और मेरे से नया रास्ता साफ करवाया जा रहा है,, यह अन्याय है,,

लेकिन वहां उनको कोई काम बांटने वाला और दिनभर निगरानी रखने वाला कोई हो तो वह बता देगा कि कल तुमने इतना ही किया था यह देखो cctv फुटेज या रजिस्टर में उपस्थिति या अन्य कुछ,,
अब कहानी में थोड़ा ट्विस्ट है,, वह अधिकारी   खुशामदखोर होता,, तो निक्कमे नाकारा लोग जिन्होंने कल मेहनत नहीं कि थी वे उसके लिए बियर की केन ले आते, जेब में कुछ माल रख देते,, कह देते कि आप ही माई बाप हैं,आप करें सो होई,,वह  निक्कमो को जो कार्य पूरा होने वाला था उसपर बैठा देता और मेहनती को डांट डपटकर नया काम फिर से शुरू करने के लिए बाध्य करता,,

और चाहे यह कुछ भी हो लेकिन न्याय तो नहीं ही कहलायेगा,,इसलिए कर्म करने की व्यवस्था,, कितना कब क्यों कैसे करना है इसकी स्वतंत्रता परमात्मा ने मनुष्य को दी है,, लेकिन फल की व्यवस्था अपने हाथ रक्खी है, इसलिए परमात्मा का एक विशेषण  न्यायकारी है,,वह कोई सरकारी अफसर नहीं या तुम्हारा कोई भाई भतीजावादी नहीं,,, न वह कोई खुशामदखोर है,,वह न्याय करता है,,

  मृत्यु एक ऐसी ही कालरात्रि है,, जब हम यह जीवन छोड़कर दूसरे जीवन में जाते हैं,, लेकिन फर्क इतना है कि अगले जन्म अगले जीवन हमें कुछ याद नहीं रहता,, पिछले जन्म पिछले जीवन हमने कितना कार्य किया था कैसे किया था क्या किया था पता ही नहीं,,

तो वह परमपिता हमें वापस हमारे उसी काम पर लगा देता है जो हम कल  अधूरा छोड़कर सोए थे,,इसलिए जहां हैं जिस अवस्था में हैं उसका रोना छोड़कर नित्य दिए गए कार्य की पूर्णता की और कदम बढ़ाते रहने चाहिए,,

बात तो बिल्कुल आसान है,,सुखी जीवन का मंत्र तो यही है,, बाकी  सिद्धांतो के जितने जाल खड़े करने हैं करते रहो,, खुद ही उलझोगे,, हमें तो ईश्वरीय  विधान में पूर्ण आस्था है,, कोई शिकायत नहीं,, पूरी ऊर्जा से पूरे  उत्साह से पूरे मनोयोग से अपने बचे कार्य को पूरा करने में लगे हैं बिना शिकायत,, आप भी बिना शिकायत , पूरे मनोयोग से , पूरी ऊर्जा से अपने कार्य करने की आदतें बनाएं !!

अहा कैसा शुभ दिन शुभ घड़ी है।   -स्वामी सूर्यदेव की प्रेरणा ।

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रविवार, 30 अक्टूबर 2022

उर्मिला 5

 उर्मिला 5


      विवाह के समय निभाई जाने वाली विधियों में कुछ शास्त्रीय विधियां होती हैं, और कुछ लौकिक! शास्त्रीय विधि वर-वधु के लिए दैवीय कृपा प्राप्त करने के लिए निभाई जाती है, और लौकिक विधियां कुल, परिवार और समाज के आशीष के लिए पूरी की जाती हैं। सुखद जीवन के लिए बने नियमों को समझने और उनका पालन करने की शपथ दिलाने के लिए भी लौकिक विधियां बनी हैं।

      राजा जनक दोनों भाई बैठ कर अपनी कन्याओं का कन्यादान कर चुके हैं। कन्यादान में पिता कन्या के ऊपर से अपने अधिकारों का त्याग करता है। अब से अधिकार का क्षेत्र सिमट जाता है और कर्तव्य बढ़ जाते हैं। मान्यता यह है कि बेटी अब से दूसरे कुल की लक्ष्मी हुई, अब उसके प्रति विशेष सम्मान का भाव आना चाहिये।

      कुछ असंस्कारी अपवादों को छोड़ दें, तो लोक अपनी इस मान्यता को पूरी पवित्रता के साथ निभाता है। एक सामान्य पिता अपनी कुँवारी कन्या को भले कभी डांट देता हो, पर विवाह के बाद वह कठोर वचन बोलने से बचता है। विवाहित बेटी की सलाह का मूल्य भी पहले से अधिक हो जाता है, अब उसकी बात काटने से बचता है पिता। कुँवारी कन्या के लिए वस्त्रादि लेने में पिता भले कंजूसी कर दे, विवाह के बाद यह कंजूसी नहीं की जाती... क्योंकि पिता को अब केवल कर्तव्य याद होते हैं, अधिकार नहीं। कन्या की भूल पर सुधार के लिए थोड़े कटु वचन बोल सकने का अधिकार अब उसके नए संसार के बुजुर्गों को है... लोक में अधिकारों का यही दान कन्यादान कहलाता है शायद!

      पिता ने कन्या को अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर दिया, अब उन्हें अपने नए जीवन में प्रवेश करना है। अग्नि के समक्ष सात फेरों के साथ सात वचन ले कर सिया-राम एक हो गए। अब सिंदूरदान की विधि होनी है। सनातन विवाह में दो ही महत्वपूर्ण दान होते हैं, कन्यादान और सिंदूरदान! एक में पिता अपने अधिकारों का दान करता है, और दूसरे में पति पत्नी को अपनी प्रतिष्ठा में भागीदार बनाता है।

      कन्या अपने माथे पर सौभाग्य के चिन्ह के रूप में सिंदूर धारण करती है। यह अपने माथे पर पति की प्रतिष्ठा को धारण करने जैसा होता है। विवाह के बाद पति की सामाजिक प्रतिष्ठा उसकी पत्नी के व्यवहार से भी तय होती है। किसी पुरुष की पत्नी यदि असामाजिक, अनैतिक व्यवहार करे तो पति की प्रतिष्ठा धूमिल होती है, पर किसी स्त्री का पति यदि अनैतिक कर्म करे तो इससे उस स्त्री की सामाजिक प्रतिष्ठा प्रभावित नहीं होती। बाली और रावण जैसे नराधमों के कुकर्मों का प्रभाव तारा और मंदोदरी की प्रतिष्ठा पर नहीं पड़ा, वे उस युग में समाज की श्रेष्ठ स्त्रियों में गिनी जाती रहीं।

      जनकपुर के उस दिव्य मण्डप में राम चारों भाइयों ने सिंदूरदान कर दिया। मिथिला की सौभाग्यशाली स्त्रियां मंगल गा रही थीं। समस्त देवगण आकाश में हाथ जोड़े खड़े अपने आराध्य का विवाह देख रहे थे।

      विवाह संपन्न हुआ, स्त्रियां वर-वधुओं को मण्डप से निकाल कर अन्य विधियों के लिए महल ले गईं।


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       संध्या के समय राजा दशरथ अपने सम्बन्धियों के साथ भोजन करने मण्डप पधारे। उनके आगे परोसी गयी छप्पन भोग की थाली, और स्त्रियों ने शुरू की गाली... "होंगे राजा दशरथ चक्रवर्ती सम्राट! नरेश होंगे तो अयोध्या के होंगे, इस आंगन में वे समधी हैं। और यहाँ उन्हें दासियाँ भी मीठी गाली सुना सकती हैं। उनकी स्त्रियों की बुराई निकाल निकाल कर उन्हें छेड़ सकती हैं। उन्हें सुनना होगा, बल्कि उसके बाद गाली देने वाली स्त्रियों को उपहार भी देने होंगे... यह लोक है! लोक का अपना शासन है! उसे सम्राट भी अमान्य नहीं कर सकते।" राजा दशरथ मुस्कुराते हुए सुन रहे थे।

        एक दिन में सम्प्रदाय बन जाते होंगे, एक दिन में कानून की किताबें लिख दी जाती होंगी, पर संस्कृति एक दिन में नहीं बनती। उसे कोई बनाता नहीं, वह स्वतः बनती है। जैसे आम के खट्टे टिकोरों में धीरे धीरे बस जाती है मिठास, उसी तरह धीरे धीरे युगों लम्बी यात्रा कर के बनती है कोई संस्कृति! समय की नदी अपनी धारा से अशुद्धि को किनारों की ओर फेंकती जाती है, और धारा में बचता है आनन्द, प्रेम, करुणा, दया, सम्मान, सद्भाव, प्रतिष्ठा... इसी तरह समझ गढ़ता है एक संस्कृति! जहाँ सबका सम्मान होता है, सबके अधिकार होते हैं, सबकी प्रतिष्ठा होती है। 

    एक सामान्य दासी को इतना बड़ा अधिकार कि वह चक्रवर्ती सम्राट दशरथ को बिना भयभीत हुए छेड़ सके, गाली दे सके, उस महान संस्कृति ने दिया था जिसका नाम सत्य-सनातन है।

क्रमशः


(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी  सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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शनिवार, 29 अक्टूबर 2022

उर्मिला 4

उर्मिला 4

विवाह!
     विप्र, धेनु, सुर और संतों के हित के लिए मानव रूप में अवतरित हुए ईश्वर मानव द्वारा रची गयी सबसे पवित्र परम्परा का हिस्सा बन रहे थे। वह परम्परा, जो मनुष्यों को अन्य जीवों से अलग करती है।
      राम और सिया तो आये ही थी एक साथ अपनी लीला दिखा कर आने वाले युग को जीवन जीने की कला सिखाने, उनके विवाह में निर्णय का अधिकार किसी अन्य मनुष्य के पास क्या ही होता! पर लोक के अपने नियम हैं, अपनी व्यवस्था है। ईश्वर भी जब लोक का हिस्सा बनते हैं तो उसके नियमों को स्वीकार करते हैं।
      विवाह की विधियों का प्रारम्भ बरच्छा से होता है, जब कन्या का पिता सुयोग्य वर का चयन करता और विवाह तय करता है। यहाँ इस विधि की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि राम चारों भाइयों को देख कर मुग्ध हुए समस्त जनकपुर ने मान लिया था, वर अच्छा है।
      बारात राजा जनक के महल पहुँची, और द्वारपूजा के समय झरोखे से चारों दूल्हों को देख कर अंतः पुर की स्त्रियों ने औपचारिक रूप से स्वीकृति दी, हमें वर पसन्द हैं, वे विवाह की विधियों के लिए महल में प्रवेश कर सकते हैं।
      द्वारपूजा की चौकी के पास खड़े मिथिला के सम्भ्रांत वर्ग ने दूल्हों पर अक्षत बरसा कर आशीष दिया। दूल्हों पर बरसते पुष्प और अक्षत विवाह की सामाजिक स्वीकृति का प्रमाण होते हैं। जैसे सबके उठे हुए हाथ आशीष दे कर कह रहे हों, "आप अबसे हमारे जीवन का हिस्सा हैं पाहुन! हम रामजी के हैं, और रामजी हमारे हैं।"
      वर का निरीक्षण हो गया, अब कन्या के निरीक्षण की बारी थी। संसार की इस सबसे प्राचीन संस्कृति ने विवाह में चयन करने का अधिकार कन्या पक्ष को पहले और वरपक्ष को बाद में दिया है। कन्या पक्ष वर से संतुष्ट था, अब वर पक्ष की बारी थी। बारात में आये रामकुल के समस्त बुजुर्ग, गुरु, पुरोहित आदि कन्या के आंगन में पहुँचे और मण्डप में बैठी कन्याओं को देख कर विवाह की स्वीकृति दी। सिया, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति के सर पर आशीष का हाथ रख कर राजा दशरथ ने जैसे वचन दिया, "आज से मैं आप सब का पिता हुआ। जिस अधिकार से आप राजा जनक से कोई बात कह देती थीं, अपने ऊपर वही अधिकार अब मैं भी आपको देता हूँ।" कन्या निरिक्षण की परम्परा का यही सारांश है।
       राम चारों भाई आँगन पहुँचे। पुरोहितों ने मंत्र पढ़े और स्त्रियों ने मङ्गल गीत गाया। दोनों वर-वधु के मङ्गल की प्रार्थनाएं थीं, एक शास्त्रीय और लौकिक... दोनों में किसी का मूल्य कम नहीं।
       पवित्र अग्नि को साक्षी मान कर जन्म-जन्मांतर तक एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहने की पवित्र सौगन्ध! इस संसार में इससे अधिक सुन्दर भाव कोई हो सकता है क्या? नहीं! चारों वर अपनी अपनी वधुओं का हाथ पकड़ कर सौगन्ध लेते हैं- "मैं अपने समस्त धर्मकार्यों में तुम्हे संग रखूंगा। मेरे समस्त पुण्यों में तुम्हारा भी हिस्सा होगा।" जीवन के बाद स्वर्ग की इच्छा से किये गए पुण्यों में भी पत्नी को आधा हिस्सा देता है पुरुष! इससे अधिक मूल्यवान और क्या होगा?
      दूसरा वचन! तुम्हारे माता-पिता आज से मेरे माता-पिता हुए। उनका उतना ही सम्मान करूंगा, जितना अपने माता-पिता का करता हूँ। तुम्हारे समस्त सम्बन्धों को आज से अपना सम्बन्ध मान कर निभाउंगा। पति यह वचन पत्नी की प्रतिष्ठा के लिए लेता है! ताकी उसका मान कम न हो, उसके सम्बन्धियों का मान कम न हो...
     तीसरा फेरा! वर-वधु की प्रतिज्ञा है, "बीतते समय के साथ आयु मेरा सौंदर्य समाप्त कर देगी और तुम्हारा बल जाता रहेगा। फिर भी हम दोनों एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहेंगे, हमारा प्रेम बना रहेगा। प्रेम, विश्वास और धर्म के सूत से बनी यह डोर कभी न टूटेगी..." इस प्रतिज्ञा के बाद भी एक दूसरे को देने के लिए कुछ बचता है क्या? कुछ नहीं।
      चौथा फेरा! अबतक वधु आगे थीं, वर पीछे चल रहे थे। चौथे फेरे से वर आगे होते हैं और वधु पीछे। जैसे भावी जीवन के लिए एक बड़ी सीख दी जा रही हो, कि तुममें कोई बड़ा या छोटा नहीं। जीवन के जिस क्षेत्र में पत्नी का आगे रहना सुख दे, वहाँ पति स्वतः पीछे चला जाय, और जब पति का आगे होना आवश्यक हो तो पत्नी बिना प्रश्न किये उसका अनुशरण करे।
     चौथे फेरे में पीछे चल रही वधु वचन लेती है,"अब से आप गृहस्थ हुए। इस नए संसार के स्वामी। मेरा और फिर हमारी सन्तति का पालन करना आपका दायित्व है, इसे स्वीकार करें।" पति सर झुका कर स्वीकार करता है।
     पुरोहित अग्नि में आहुति दे रहे हैं। समस्त देवताओं के आशीष की छाया है। परिवार और समाज के लोग साक्षी भाव से खड़े मंगल की प्रार्थना कर रहे हैं, और वर वधु की यात्रा चल रही है।
     पाँचवा फेरा! वधु अब अधिकार मांग रही है। आप मुझसे राय लिए बिना कोई निर्णय नहीं लेंगे। इस गृहस्थी की ही नहीं, आपकी भी स्वामिनी हूँ मैं! मेरा यह अधिकार बना रहे, मेरी प्रतिष्ठा बनी रहे। मुस्कुराते राम शीश हिला कर स्वीकार करते हैं, सिया के बिना मेरा अस्तित्व ही नहीं।
     छठवां फेरा! वधु कहती है, "जीवन में सारे पल प्रेम के ही नहीं होते। क्रोध, आवेश के क्षण भी आते हैं। पर आप कभी मेरी सखियों या परिवार जनों के समक्ष मुझपर क्रोधित नहीं होंगे। मेरा अपमान नहीं करेंगे।"
    सातवां और अंतिम फेरा! विवाह की अंतिम प्रतिज्ञा! पत्नी का अधिकार दिलाता वचन कि तुम मेरे हो! केवल और केवल मेरे... हमारे बीच कोई नहीं आएगा। कोई भी नहीं... राम मन ही मन कहते हैं, " समस्त संसार स्मरण रखेगा सीता, कि राम और सिया के मध्य कोई नहीं आया। वे एक थे..."
     सातों प्रतिज्ञाओं का निर्धारण कन्या की ओर से होता है। पति सहमति देता है, स्वीकार करता है। तभी वधु अपने संसार की स्वामिनी होती है, लक्ष्मी होती है।
     सप्तपदी पूर्ण हुई। आशीर्वाद के अक्षत बरसे, स्नेह के पुष्प बरसे... धरा धन्य हुई, राम सिया के हुए!
क्रमशः
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सोमवार, 24 अक्टूबर 2022

उर्मिला 3

उर्मिला 3

अपनी प्राणों से प्रिय पुत्री के सुयोग्य वर के लिए प्रतीक्षा करती माता सुनयना धनुष भंग होते ही विह्वल हो गईं। जिस सुदर्शन युवक को देखते ही पूरा जनकपुर पगला गया था, राजपथ पर चलते समय नगरवासियों के बच्चे जिसे छू भर लेने को लालायित हो रहे थे, पिछले तीन दिनों से जिसकी चर्चा से राजमहल का कोना कोना गूँज रहा था, वह अब सहज ही उन्हें बेटे के रूप में मिल गया था। माँ ने टूट कर देखा बेटी हो ओर! उनका का रोम रोम कह रहा था, सारा ऋण उतार दिया बेटी! तेरे कारण जनम जनम की प्यास बुझ गयी...
   राजा जनक की आंखों से लगातार अश्रु बह रहे थे। जगत नियंता अब उनके दामाद थे। पुरुष सामान्यतः अपने कंधे से विद्वता की चादर नहीं उतारता, पर जनक के ऊपर से हर आवरण हट गया था। विद्वता के तीर्थ जनकपुर के राजा जनक इस समय पिता थे, केवल पिता...
    वे उठे और जा कर राजर्षि विश्वामित्र के चरणों में झुक गए। राजर्षि ने आशीष दे कर कहा," शिव धनुष का निर्माण जिस हेतु हुआ था, वह पूर्ण हुआ। यह उत्सव का दिन है राजन! युग को अपना नायक मिल गया। उत्सव की घोषणा हो और अयोध्या में सन्देश भेजा जाय।"
     "किन्तु एक परीक्षा अब भी शेष है गुरुदेव!" राजा जनक के मुख पर रहस्यमय मुस्कान थी।
      "उसमें हमारी तुम्हारी कोई भूमिका नहीं राजन! वह राम का काज है, वे ही करें... तुम अपनी करो।" विश्वामित्र के मुख पर सन्तोष था।
      राजा ने आज्ञा दी- वर्ष भर के लिए प्रजा को कर मुक्त किया जाय! हर विपन्न परिवार को वर्ष भर की आवश्यकता बराबर अन्न-धन दिया जाय। छोटे अपराधों में पकड़े गए बंदियों को मुक्त कर दिया जाय। नगर में उत्सव की घोषणा हो।
      जनकपुर झूम उठा! धर्म की स्थापना के लिए अयोध्या में अवतरित हुए परमेश्वर अब जनकपुर के पाहुन थे, और जनकपुर को यह सौभाग्य दिलाया था सिया ने... भावविह्वल नगरजन ने प्रतिज्ञा ली- हम और हमारी सन्तति सृष्टि के अंत तक यह नाता निबाहेंगे। जगतजननी हमारी हर पीढ़ी के लिए बेटी ही रहेंगी और रामजी पाहुन! यह नाता कभी न टूटेगा... असंख्य युग बीत गए। कलियुग के प्रभाव में धर्म से विमुख हो चुके समय में भी जनकपुर के ग्रामीण यह नाता निभाते हैं।
      राजा काम में लगे। अयोध्या में सन्देश भेजा गया, पुत्र की वीरता की कहानियां सुन सुन कर तृप्त हुए राजा दशरथ ने बारात सजाई, और राम विवाह की साक्षी होने निकली समूची अयोध्या एक दिन जनकपुर के पास कमला नदी के तट पर टिक गई।
      बारात की अगवानी को नगर के बाहर आये महाराज जनक को गले लगा कर राजा दशरथ ने पूछा- आपकी कितनी पुत्रियां हैं मित्र?
      गदगद जनक ने कहा, "कुल चार हैं समधी जी! दो मेरी, और दो मेरे अनुज की!"
--एक निवेदन करूँ मित्र?
-- आदेश करिए महाराज!
-- मेरे भी चार पुत्र हैं मित्र! अब बुढ़ापे में कहाँ उनके योग्य कन्याएं ढूंढता फिरूँगा। एक का चयन आपने किया है, तीन के लिए यह गरीब हाथ पसार रहा है। लगे हाथ हम दोनों मुक्त हो जाते..."
    जनक ने तृप्त हो कर कहा," मेरा सौभाग्य है महाराज! चारों राजकुमार अब से मेरे पुत्र हुए और चारों राजकुमारियां आपकी पुत्रियां हुईं। पूरा जनकपुर आपका है महाराज, आप इस निर्धन राज्य में प्रवेश करें..."
     बारात नगर में आयी। अयोध्या और जनकपुर के नगरवासी एक दूसरे में घुल मिल गए। उधर अंतः पुर में सन्देश गया, विवाह चारों कन्याओं का होना है। सिया के राम होंगे और उर्मिला के लक्ष्मण। माण्डवी के भरत और श्रुतिकीर्ति के शत्रुघ्न।
     अपने कक्ष में बहनों के साथ बैठी सिया ने कहा, "अब अपने खिलौने छोटी बच्चियों को दे दो बहनों! हमारे खेल के दिन समाप्त हुए, अब कठिन तपस्या के दिन आ चुके हैं।"
     सिया क्या कह रही थीं, यह तीनों में कोई न समझ सका! उर्मिला की आँखों में वह सुन्दर गौरवर्णी युवक बसा हुआ था, और अधरों पर मुस्कान...
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*महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं सुरेश्र्वरी ।*
*हरिप्रिये नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं दयानिधे ।।*
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सर्वशक्तिशाली सर्वज्ञ परमपिता परमेश्वर  दीपावली के इस पावन एवं शुभ पर्व पर आप और  आपके पूरे परिवार को असीम एवं अपार सुख-समृद्धि एवं सफलता प्रदान करे ।
💢
*दुलमेरा डायमंड्स , सूरत।*

रविवार, 23 अक्टूबर 2022

उर्मिला 2


उर्मिला 2

राम अपनी आंखों में प्रेम लेकर वाटिका से लौटे, और सिया अपने हृदय में विश्वास ले कर... युग निर्माण के लिए धरा पर अलग अलग अवतरित हुए पुरुष और प्रकृति के लिए अब साथ आने का समय आ गया था।
      सिया गौरी पूजन को चलीं। जगत जननी के मानवीय स्वरूप ने दैवीय स्वरूप के आगे आँचल पसार कर कहा, "तुम जानती हो माँ कि मुझे क्या चाहिए! जो मेरा है वह मुझे मिले।" 
      लौटीं तो फिर बहनों ने घेर लिया। श्रुतिकीर्ति ने पूछा, "क्या मांगा दाय! उन्ही साँवले को?" सब हँस उठीं। सिया ने उत्तर दिया, "जो भी मांगा, वह चारों के लिए मांगा।"
      "हैं? चारों के लिए? इसका क्या अर्थ है सिया दाय? स्वयंवर तो आपका हो रहा है।" अबकी उर्मिला का प्रश्न था।
       "हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता श्रुति! माँ गौरी जो करेंगी, उचित ही करेंगी। चलो, राजसभा निहारी जाय।" सिया ने उस मासूम जिज्ञासा को टालते हुए कहा। चारों बहनें माताओं के पास चलीं, अब उन्हें धनुषयज्ञ मण्डप की ओर जाना था।
      स्वयंवर में अबतक अपने बाहुबल के अहंकार में मतवाले योद्धा आते थे, आज पहली बार एक ऋषि अपने शिष्यों को ले कर आया था। महाराज जनक के मन मे विश्वास उपजा, कदाचित आज शिवधनुष की प्रत्यंचा चढ़ा कर वह अज्ञात योद्धा जगत के समक्ष आ जाय जिसकी सदियों से स्वयं समय प्रतीक्षा कर रहा है। कदाचित आज जगत उस तारणहार को पहचान ले, जो संसार में धर्म और मर्यादा की स्थापना के लिए आने वाला है।उन्होंने महादेव का स्मरण किया।
       महादेव का प्राचीन धनुष, जो त्रेता युग में भगवान श्रीहरि विष्णु के अवतार की पहचान का साधन था, सभा के मध्य में रखा हुआ था।
       राजा जनक का संकेत पात कर आगंतुक राजा, राजकुमार बारी बारी से आगे आये और धनुष से पराजित हो कर बैठ गए। कोई धनुष को उठा न सका। उनका विश्वास दृढ़ हो गया कि महर्षि विश्वामित्र के साथ आये बालक ही धनुष उठाएंगे।
       उन्होंने सोचा, चलो तनिक थाह लेते हैं। उठे, और कहा- लगता है धरती वीरों से खाली हो गयी। लगता है अब धरा पर कोई योद्धा नहीं बचा। यदि पहले जानता कि इस देश की स्त्रियों ने वीर जनने बन्द कर दिए तो ऐसा प्रण कदापि नहीं करता....
     
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"ठहरिये महाराज! यह अपमान है हमारा..." राजा जनक अभी बोल ही रहे थे कि महर्षि विश्वामित्र के साथ बैठा वह गौरवर्णी युवक गरजते हुए मण्डप के मध्य कूद आया। आश्चर्यचकित हो कर सबने देखा," एक अद्वितीय सुन्दर नवयुवक, जिसके मुख पर पसरा क्रोध उसे सदाशिव की गरिमा प्रदान कर रहा था। चौड़ी छाती,बलिस्ट भुजाएं, चमकता हुआ ऊंचा माथा, कंधे तक लटकते केश, अंगारों से भरी हुई बड़ी बड़ी आंखें... जैसे कोई सिंह दहाड़ रहा हो, जैसे कोई उत्तेजित नाग फुंफकार रहा हो...
      लक्ष्मण गरजे- जिस सभा में रघुवंशी बैठे हों, वहाँ पृथ्वी को वीर विहीन बताना रघुवंश का अपमान है महाराज! संसार मेरे आत्मविश्वास को अहंकार न समझे, पर यदि भइया की आज्ञा हुई तो यह धनुष क्या समूची पृथ्वी को अपनी भुजाओं में दबा कर फोड़ दूंगा। 
      दूर स्त्रियों के बीच में खड़ी उर्मिला को रोमांच हो आया। उन्होंने पास खड़ी दासी से पूछा- "कौन हैं ये?" दासी ने उत्तर दिया- अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के छोटे सुपुत्र लक्ष्मण! नगर में चर्चा है कि इन्ही दोनों भाइयों ने ताड़का के आतंक का नाश किया है।"
     वह एक क्षण था जिसने उर्मिला को लक्ष्मण के साथ सदैव के लिए जोड़ दिया। उन्होंने एक करुण दृष्टि डाली सिया की ओर, सिया मुस्कुरा उठीं। बस इतना कहा, "कहा था न! जो मांगा वह चारों के लिए मांगा है। विश्वास रखो, माँ गौरी हमारा मन जानती हैं।"
     उर्मिला के रौंगटे खड़े हो गए। आँखें चमक उठीं, मुख पर मुस्कान तैर उठी। उधर लक्ष्मण गरज रहे थे- इस संसार में ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसे मेरे भइया न पा सकें। ऐसा कोई कार्य नहीं जो भइया न कर सकें। उनके होते हुए कोई व्यक्ति ऐसा कैसे कह सकता है कि धरती पर योद्धा नहीं बचे..."
      अचानक एक मीठा स्वर उभरा। लगा जैसे स्वयं ईश्वर बोल रहे हों। महर्षि विश्वामित्र के पास बैठे श्रीराम ने कहा, "शांत हो जाओ लखन! महाराज हमारे पिता तुल्य हैं। उनकी किसी बात को अन्यथा नहीं लेना चाहिये।"
      जिसने भी सुना, वह जैसे तृप्त हो गया। जैसे माता सरस्वती ने स्वयं वीणा बजाई हो, जैसे गन्धर्वों ने सारे रागों का निचोड़ गा दिया हो... लक्ष्मण ने माथा झुकाया और चुपचाप उनके पास आ कर बैठ गए। कोई प्रश्न नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं... क्रोध से भरा नवयुवक बड़े भाई के एक बार कहते ही इतना सहज हो गया जैसे कुछ हुआ ही न हो! यह रामकुल की मर्यादा थी।
       महाराज जनक तृप्त हो गए। उन्हें अब कोई संदेह न रहा। उन्होंने हाथ जोड़ कर महर्षि विश्वामित्र की ओर संकेत किया। विश्वामित्र ने मधुर स्वर में कहा- उठो राम! 
        राम उठे। गुरु विश्वामित्र से आशीर्वाद ले कर आगे बढ़े।
        एक पवित्र व्यक्ति अपने आसपास के समूचे वातावरण को पवित्र कर देता है। राम को देखते ही सभा में उपस्थित समस्त जन के हाथ अनायास ही जुड़ गए। सबका हृदय ईश्वर से प्रार्थना करने लगा- प्रभु! ऐसा करें कि धनुष की प्रत्यंचा यही बालक चढ़ाये। उस दिव्य स्वरूप को एकटक निहारते राजा जनक और रानी सुनयना की आंखों में जल भर आया। मन हुलस कर कहने लगा- यही हैं।
       दास दासियों के मन में बैठ गया, यही हैं सिया के पाहुन! धनुष के सामने पराजित होते असंख्य राजाओं को देख देख कर विश्वास खो चुके दास-दसियों ने भरोसे के साथ अपने हाथ में फूलों की डोलची उठा ली... 
       उर्मिला माण्डवी और अन्य सखियों के अधरों पर मंगल गीत उतर आए। वे अनायास गुनगुनाने लगीं। हृदय कह रहा था, "बस बस! यही हैं..."
       सिया एकटक निहार रही थीं अपने परमात्मा को! वे जानती थीं कि यदि ये वही नहीं होते तो पसन्द कैसे आते? उनका पसन्द आना ही प्रमाण था कि वही हैं। उनके मुख पर दैवीय मुस्कान पसर गयी।
       राम आगे बढ़े। भगवान शिव को प्रणाम किया। शिव धनुष को प्रणाम किया। धनुष उठाया, प्रत्यंचा चढ़ाई और तोड़ दिया....     
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी  सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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भगवान धन्वंतरि

भगवान धन्वंतरि के प्रकटोत्सव पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं-------- 

कार्तिकास्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे।
यमदीपं           वहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति।। 
   कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी धनतेरस कहलाती है,   वस्तुतः यह यमराज से सम्बन्ध रखने वाला व्रत है। इस दिन सायंकाल घर के बाहर मुख्य दरवाजे पर यमराज के निमित्त दक्षिणाभिमुख दीपदान करना चाहिए।
इस दिन चाँदी का बर्तन खरीदना अत्यन्त शुभ माना गया है।        
  धन्वन्तरि विष्णु अंशावतार माने जाते हैं,वे आयुर्वेद प्रवर्तक हैं,इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था।
  शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी,चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती महालक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। 
  इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।
इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।
   भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं।
    आदिकाल के ग्रंथों में 'रामायण'-'महाभारत' तथा विविध पुराणों की रचना हुई, जिसमें सभी ग्रंथों ने 'आयुर्वेदावतरण' के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है।
गरुड़पुराण' और 'मार्कण्डेयपुराण' के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वन्तरि वैद्य कहलाए थे। 
'विष्णुपुराण' के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है।
    भगवान नारायण ने उन्हें पूर्वजन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोग, इस प्रकार धन्वन्तरि का तीन रूपों में उल्लेख मिलता है-
         प्रथम  समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि। 
          द्वितीय  धन्व के पुत्र धन्वन्तरि।
         तृतीय  काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि। 

    धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी  मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों 'सुश्रुत्रसंहिता', 'चरकसंहिता', 'काश्यप संहिता' तथा 'अष्टांग हृदय' में उनका विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। 
    इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों- 'भाव प्रकाश', 'शार्गधर' तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में 'आयुर्वेदावतरण' का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।
    महाकवि व्यास द्वारा रचित 'श्रीमद्भावत पुराण' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है। 
'महाभारत', 'विष्णुपुराण', 'अग्निपुराण', 'श्रीमद्भागवत' महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। 
    
    कहा जाता है कि देवता और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे, किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे, वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। 
    राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुन: जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य, दानव आदि माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे।
अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी---
    पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः।
   हेन्यामान्यास्ततो देवाः शतशोऽथसहस्त्रशः।। 

देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर समुद्र मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे, हलाहल, कामधेनु, ऐरावत, उच्चै:श्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारुणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। 
    अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। 
अमृत-वितरण के पश्चात् देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। 
अमरावती उनका निवास बनी,कालक्रम से पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। प्रजापति इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की, भगवान ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया।
इनकी 'धन्वन्तरि-संहिता' आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था।
    इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे।
सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। 
   उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे।

    दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। 
    त्रिलोकी के व्योम रूपी समुद्र के मंथन से उत्पन्न विष का महारूद्र भगवान शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।
    वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया।
विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है।
उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है ----
          सर्ववेदेषु   निष्णातो   मन्त्रतन्त्र   विशारद:।
           शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। 

भगवाण धन्वंतरि की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है-----
                   "ॐ धन्वंतरये नम:"
इसके अलावा उनका एक और मंत्र भी है----
"ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतरये
अमृतकलशहस्ताय सर्वभयविनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूपाय
श्रीधन्वंतरीस्वरूपाय श्रीश्रीश्री औषधचक्राय नारायणाय नम:।।" 
ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय सर्व आमय विनाशनाय त्रिलोकनाथाय श्रीमहाविष्णवे नम:।।
अर्थात
परम भगवान् को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरि कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं, उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरी को नमन है। 

ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम्॥
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम्।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम्॥ 
 
   *भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। भारतीय पौराणिक दृष्टि से 'धनतेरस' को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं, धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें---*
"नमामि   धन्वन्तरिमादिदेवं,   सुरासुरैर्वन्दितपादपद्मम्।
लोके जरारूग्भयमृत्युनाशंधातारमींश विविधौषधीनाम्।।"
पं शिवप्रसाद त्रिपाठी आचार्य का आलेख ज्ञानवर्धन लगा ।

शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

कथा उर्मिला की

उर्मिला

"उर्मिला! माय वाटिका से पुष्प लाने के लिए कह रही हैं। चलो! अपनी सखियों को भी ले लो।"
     "चलिये सिया दाय! पर पुष्प लेने के लिए दासियों को भी भेजा जा सकता है, आपके जाने का क्या काम?"
     "ऐसा नहीं कहते रे! पूजा के काम स्वयं करने चाहिये। यदि ईश्वर के समक्ष भी हम बड़े होने का अभिमान नहीं त्याग पाएं, तो फिर कैसी पूजा? फिर वे भी हमारी नहीं सुनते। उनके लिए तो राजा रंक सभी बराबर हैं।"
      "ठीक कहा दाय!" मुस्कुराती उर्मिला ने प्रेम से सीता की उंगली पकड़ ली और वाटिका की ओर चली। माण्डवी और श्रुतिकीर्ति भी उनके साथ थीं। राह में सबसे छोटी बहन श्रुतिकीर्ति ने बड़ी बहन से परिहास किया- "लगता है ज्येष्ठ पिताश्री से भूल हो गयी। यह शिव धनुष तो टूटता हुआ नहीं दिख रहा। संसार के समस्त योद्धा हार कर लौट गए। बेचारी सिया दाय! अब उनका विवाह कैसे होगा?"
     सिया ने हँस कर उसके माथे पर चपत लगाई और कहा, "जो कार्य जिसके लिए रचा गया है उसे वही करता है। जबतक वह न आये, वह कार्य अधूरा ही रहता है। शिव धनुष भी टूटेगा और सीता का लग्न भी होगा, बस वह योग्य पुरुष जनकपुर तक पहुँच जाये। तनिक प्रतीक्षा करो..."
    "पर अब कब आएगा दाय! इतने दिनों से स्वयम्बर चल रहा है, अबतक क्यों नहीं आया?"
     "अच्छा एक बात बताओ! अबतक आये राजाओं राजकुमारों में तुम्हे ऐसा कोई दिखा, जिसे देखते ही तुम्हारे मन ने कहा हो, हाँ यही है दाय के योग्य वर! इससे ही दाय का लग्न होना चाहिये! बोलो?"
     "नहीं दाय ! ऐसा तो कोई नहीं आया। सब जाने कैसे कैसे आते रहे।" उर्मिला से उदास से स्वर में कहा।
      "तो प्रतीक्षा करो, वे जब आएंगे तब तुम्हारा मन ही चीखने लगेगा कि यही हैं... और देखना, जो तुम्हे पसन्द आएगा वही धनुष तोड़ भी देगा।" सीता के मुख पर दैविक आत्मविश्वास की झलक थी।
      चारों बहने वाटिका पहुँच चुकी थीं। अचानक उर्मिला ने किसी को देखा और चीखती हुई सीता के पास आई। कहा- सिया दाय! आज ही आपने कहा और आज ही वे दिख गए। वाटिका के उस ओर दो कुमार पुष्प ले रहे हैं। उस साँवले को देख कर लगा कि वे ही तुम्हारे योग्य हैं। उनके जैसा कुमार तो कभी न देखा, कहीं न देखा!"
      सारी बहनें पास आ गईं। सिया मुस्कुराईं और कहा- पक्का?
--अरे पक्का जीजी! चल के देख लो, उनसे अधिक सुघर तो संसार में कोई न होगा...
--फिर तो धनुष वही तोड़ेंगे, देख लेना।
-- यह आप बिना देखे कैसे कह सकती हैं दाय! देख तो लीजिये...
-- सिया मैं हूँ कि तुम हो? निश्चिन्त रहो, वे ही होंगे तुम्हारे पाहुन!
-- अच्छा चलो पहले देख तो लो।
--चल!
      चारों बहनें वाटिका की दूसरी ओर गईं जिधर अयोध्या के भावी नरेश, जगत के पालनहार, मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम अपने अनुज के साथ फूल ले रहे थे। जिस क्षण सिया ने उन्हें देखा, ठीक उसी क्षण उन्होंने भी दृष्टि ऊपर उठाई और इस तरह भगवान श्रीहरि और माता लक्ष्मी के मानवीय स्वरूपों ने पहली बार एक दूसरे को देखा। उन्होंने एक दूसरे को देखा और देखते रह गए। जड़ हो कर देखती रह गईं उर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति भी, उनके समक्ष राम जो थे। किसकी दृष्टि हटती उस साँवले से...
      वाटिका की रक्षा सुरक्षा में लगे मालियों, सैनिकों ने देखा, जैसे संसार की सारी शोभा इसी वाटिका में उतर आई हो। वे वाटिका में एकाएक खिल उठे संसार के सबसे सुंदर पुष्पों को एकटक निहारते रह गए!
     हवा का एक झोंका आया और वाटिका के बृक्षों पर लगे सारे पुष्प एक साथ झड़ गए। जैसे जगतपिता के चरणों पर चढ़ जाने की होड़ लग गयी हो...
     पूरी प्रकृति मुस्कुरा उठी। संसार का सबसे सुंदर जोड़ा एक दूसरे को अपलक निहार रहा था।
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक के सुख्यात लेखनी के धनी, गोपालगंज, बिहार से सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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रविवार, 16 अक्टूबर 2022

मुश्किलें

एक व्यक्ति बहुत दिनों से तनावग्रस्त चल रहा था जिसके कारण वह काफी चिड़चिड़ा तथा क्रोध में रहने लगा था।

वह हमेशा इस बात से परेशान रहता था कि घर के सारे खर्चे उसे ही उठाने पड़ते हैं, पूरे परिवार की जिम्मेदारी उसी के ऊपर है, किसी ना किसी रिश्तेदार का उसके यहाँ रोज आना जाना लगा ही रहता है, उसे बहुत ज्यादा ख़र्च करना पड़ता है , आदि - आदि।

इन्ही बातों को सोच सोच कर वह अक़्सर काफी परेशान रहता था , अपने बच्चों को अक्सर डांट देता था तथा अपनी पत्नी से भी ज्यादातर उसका किसी न किसी बात पर झगड़ा होता रहता था।

इसी तरह समय गुजरता गया ।

एक दिन उसका बेटा उसके पास आया और बोला...... पिताजी मेरा स्कूल का होमवर्क करा दीजिये प्लीज ।

वह व्यक्ति पहले से ही तनाव में था ,इसलिए उसने बेटे को जोर से डांट कर भगा दिया , लेकिन जब थोड़ी देर बाद उसका गुस्सा शांत हुआ तो वह बेटे के पास गया ।उसने  देखा कि बेटा गहरी नींद में सोया हुआ है और उसके हाथ में उसके होमवर्क की कॉपी है।

उसने धीरे से जब कॉपी लेकर जैसे ही नीचे रखनी चाही, उसकी नजर होमवर्क के टाइटल पर पड़ी।

होमवर्क का टाइटल था.....वे चीजें जो हमें शुरू में अच्छी नहीं लगतीं , लेकिन बाद में वे अच्छी ही होती हैं।

इस टाइटल पर बच्चे को एक पैराग्राफ लिखना था जो उसने लिख लिया था। उत्सुकतावश उसने बच्चे का लिखा पढना शुरू किया बच्चे ने लिखा था.......

*मैं अपने फाइनल एग्जाम को बहुंत धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये बिलकुल अच्छे नहीं लगते लेकिन इनके बाद स्कूल की छुट्टियाँ पड़ जाती हैं।*

*मैं ख़राब स्वाद वाली कड़वी दवाइयों को बहुत धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये कड़वी लगती हैं लेकिन ये मुझे बीमारी से ठीक करती हैं।*

*मैं सुबह - सुबह जगाने वाली उस अलार्म घड़ी को बहुत धन्यवाद् देता हूँ जो मुझे हर सुबह बताती है कि मैं जीवित हूँ।*

*मैं ईश्वर को भी बहुत धन्यवाद देता हूँ जिसने मुझे इतने अच्छे पिता दिए क्योंकि उनकी डांट मुझे शुरू में तो बहुत बुरी लगती है लेकिन वो मेरे लिए खिलौने लाते हैं, मुझे घुमाने ले जाते हैं और मुझे अच्छी अच्छी चीजें खिलाते हैं और मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मेरे पास पिता हैं क्योंकि मेरे दोस्त राजू के तो पिता ही इस दुनिया में नहीं हैं।*

बच्चे का होमवर्क पढने के बाद वह व्यक्ति जैसे अचानक नींद से जाग गया हो। उसकी सोच बदल सी गयी। बच्चे की लिखी बातें उसके दिमाग में बार बार घूम रही थी। खासकर वह अंतिम वाली लाइन। उसकी नींद उड़ गयी थी। फिर वह व्यक्ति थोडा शांत होकर बैठा और उसने अपनी परेशानियों के बारे में सोचना शुरू किया.......

*मुझे घर के सारे खर्चे उठाने पड़ते हैं, इसका मतलब है कि मेरे पास घर है और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से बेहतर स्थिति में हूँ जिनके पास घर नहीं है।*

*मुझे पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है, इसका मतलब है कि मेरा परिवार है, पत्नी बच्चे हैं और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से ज्यादा खुशनसीब हूँ जिनके पास परिवार नहीं हैं और वो दुनियाँ में बिल्कुल अकेले हैं।*

*मेरे यहाँ कोई ना कोई मित्र या रिश्तेदार आता जाता रहता है, इसका मतलब है कि मेरी एक सामाजिक हैसियत है और मेरे पास मेरे सुख दुःख में साथ देने वाले लोग हैं।*

*मैं बहुत ज्यादा ख़र्च करता हूँ, इसका मतलब है कि मेरे पास अच्छी नौकरी है और मैं उन लोगों से बेहतर हूँ जो बेरोजगार हैं या पैसों की वजह से बहुत सी चीजों और सुविधाओं से वंचित हैं।*

हे ! मेरे भगवान् ! तेरा बहुंत बहुंत शुक्रिया मुझे माफ़ करना, मैं तेरी कृपा को पहचान नहीं पाया।

इसके बाद उसकी सोच एकदम से बदल गयी, उसकी सारी परेशानी, सारी चिंता एक दम से जैसे ख़त्म हो गयी। वह एकदम से बदल सा गया। वह भागकर अपने बेटे के पास गया और सोते हुए बेटे को गोद में उठाकर उसके माथे को चूमने लगा और अपने बेटे को तथा ईश्वर को धन्यवाद देने लगा।

मित्रों........हमारे सामने जो भी परेशानियाँ हैं, हम जब तक उनको नकारात्मक नज़रिये से देखते रहेंगे , तब तक हम गंभीर परेशानियों से घिरे रहेंगे , लेकिन जैसे ही हम उन्हीं चीजों को, उन्ही परिस्थितियों को सकारात्मक नज़रिये से देखेंगे, हमारी सोच एकदम से बदल जाएगी, हमारी सारी चिंताएं, सारी परेशानियाँ, सारे तनाव एक दम से ख़त्म हो जायेंगे और हमें मुश्किलों से निकलने के नए - नए रास्ते दिखाई देने लगेंगे।

मुश्किलें मुझ पर पड़ी इनती, कि आसां हो गई !!

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शनिवार, 15 अक्टूबर 2022

अपना अपना भाग्य

चंद्रवती मेरे घर करीब बीस साल रही। बीस साल से अधिक समय तक वो हमारे घर के काम करती रही। बर्तन धोने से लेकर झाड़ू-पोछा और कपड़ों की धुलाई तक का ज़िम्मा उसी पर था। शुरू में करीब दो सौ रूपए महीने उसकी सैलरी तय हुई थी, जो धीरे-धीरे बढ़ कर कई हज़ार रूपए होती चली गई। जैसे-जैस मेरी सैलरी बढ़ती गई, उसकी सैलरी भी बढ़ाता गया।
चंद्रवती क्योंकि सिर्फ हमारे घर काम करती थी इसलिए जब मैं कुछ सालों के लिए अमेरिका चला गया, तब भी हमने चंद्रवती को नौकरी से नहीं हटाया। हमने उसे घर की एक चाबी दे दी थी कि तुम हफ्ते में एक दिन घर की सफाई करती रहना, तुम्हारे पैसे एकाउंट में ट्रांसफर होते रहेंगे। ऐसा ही हुआ। हम अमेरिका में रहे, चंद्रवती यहां हमारे पीछे भी घर की देखभाल करती रही और जब हम वहां से वापस आए तो फिर वो पूरी तरह काम पर लग गई।
पिछले साल जब हमने पुराना मुहल्ला छोड़ा तो चंद्रवती का साथ भी छूट गया।
हम नए घर में आए तो मन में यही था कि चंद्रवती को जो सैलरी हम दे रहे थे, वो पैसे अब बच जाएंगे, क्योंकि नए मुहल्ले में हम जिसे भी काम पर रखेंगे, उसे उतने पैसे नहीं देने होंगे। चंद्रवती तो बीस साल से अधिक हमारे साथ रही, मेरा बेटा उसकी गोद में खेला और उसने हमारे घर की देखभाल घर के सदस्य के रूप में की, तो उसे हम जितने पैसे देते थे, वो आम काम वाली की सैलरी से दुगुना-तिगुना अधिक था। ऐसे में हमारे पास काम वाली के हिस्से के आधे से अधिक पैसे बचने थे।
पर नहीं बचे।
ऐसा मत सोचिएगा कि   पैसों के बचने से बहुत खुश हो रहे थे, दरअसल मैं आपको जिस सच्ची घटना के बारे में बता रहा हूं, उसका आधार एक छोटी सी कहानी है। वो कहानी भी आपको सुनाऊंगा, हो सकता है आपने पढ़ी भी हो, पर पहले आप मेरी आपबीती सुनिए। हमने जब नया घर लिया तो सभी खर्च जोड़ लिए। सबका हिसाब बना लिया। हमने ये भी जोड़ लिया कि चंद्रवती की सैलरी के इतने पैसे जो हमें कामवाली पर नहीं खर्च करने, वो बच जाएंगे।
पर हम तब ये जोड़ना भूल गए कि घर के पीछे लॉन की देखभाल कौन करेगा। नए मकान में शिफ्ट हुए हो गया तब अचानक याद आया कि इतने बड़े लॉन की देखभाल के लिए तो एक माली चाहिए। माली ढूंढा गया। उसने बताया कि वो इतने पैसे महीने में बतौर सैलरी लेगा, इतने पैसे खाद-पानी पर खर्च होंगे, इतने पैसे पौधे लाने पर।
पूरा हिसाब जोड़ा गया तो वो चंद्रवती की सैलरी से ऊपर चला गया।
कोई बात नहीं। हमें कोई नुकसान नहीं हो रहा था।
अब सुनिए आगे की कहानी। मेरे पास वर्षों से एक ड्राइवर थ जिसका नाम था आशु। पिछले दिनों आशु ने अपना खुद का काम करने की इच्छा जताई। आशु के बिना मुझे मुश्किल तो होने वाली थी, पर पल भर को हमारे मन में आया कि चलो बीस हज़ार रुपए महीने के बचेंगे।
आशु चला गया। जिस दिन आशु गया, मेरे पास एक छोटा सा फ्लैट है, जो किराए पर लगा था, उसका किराएदार उसे खाली करके चला गया। अब तक वो छोटा सा फ्लैट किराए पर नहीं लगा है। इस तरह बीस हज़ार रुपए ड्राइवर की सैलरी के बचे, किराए वाले मिलने बंद हो गए।
मतलब फिर न फायदा था, न नुकसान हुआ।
अब सुनिए वो कहानी जिसे किसी ने मुझसे साझा किया है।
एक आदमी ने भगवान से पूछा कि ज़िंदगी में उसके हिस्से में कितना धन लिखा है? भगवान ने कहा कि तुम रोज़ एक रूपए कमा सकते हो। आदमी खुश हो गया। वो रोज़ एक रूपए कमाने लगा। उसी में जीने लगा। फिर जिस दिन उसकी शादी हुई अचानक उसे एक रूपए की जगह ग्यारह रुपए का काम मिल गया। आदमी ने फिर भगवान से पूछा कि प्रभु आपने तो एक ही रुपए कमाने की बात कही थी, यहां तो ग्यारह रूपए मिल गए। भगवान ने कहा कि इसका मतलब तुम्हारी शादी हो गई है। वो दस रूपए तुम्हारी पत्नी के भाग्य के हैं। जब  इस कहानी को व्हाट्सऐप पर पढ़ रहे थे, तो चंद्रवती की सैलरी उनकी आंखों के आगे घूमने लगी। मतलब माली जो पैसे मुझसे ले रहा है, वो चंद्रवती के हिस्से की कमाई थी।
उस आदमी की शादी के साल भर बीत गए। उसका एक बेटा हो गया। जिस दिन बेटा हुआ, उस दिन आदमी को किसी काम के बदले 41 रूपए मिले। आदमी खुशी में झूमता हुआ फिर भगवान के मिलने पहुंच गया। प्रभु अब आप क्या कहेंगे? मेरी कमाई तो ग्यारह से बढ़ कर 41 रूपए हो गई।
भगवान ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, वो तीस रूपए तुम्हारे बेटे के भाग्य के हैं।”
आशु जिस महीने गया, उसी महीने मेरा एक छोटा फ्लैट, जो किराए पऱ था, खाली हो गया। पूरे बीस हज़ार रुपए जो  बचे थे, वो उधर से कम हो गए। जानते हैं क्यों?
क्योंकि वो किराया मेरे पास ड्राइवर के हिस्से का आ रहा था।
हम सोचते हैं कि कमाने वाले हम हैं। पर ये सच नहीं है। हमें पता नहीं होता कि हम किसके-किसके भाग्य से कमाई कर रहे हैं। इसलिए जिस पर जितना पैसा खर्च हो रहा है, आप उसके लिए शोक मत कीजिए। यही समझिए कि माध्यम भले आप हैं, पर भाग्य उसका है, जिस पर आपका पैसा खर्च हो रहा है।
मैंने इस सच को कई बार महसूस किया है। आप भी करते ही होंगे।
संसार में जो भी हो रहा है, उसे करने वाला कोई और है। इस छोटे से सत्य को जो समझ गया, वो खुशहाल है। जो नहीं समझ पाता वो रात-दिन खुद की किस्मत को कोसता रहता है।

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शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2022

करवा चौथ

कल करवाचौथ का त्योहार था जिसपर मेरे कई मित्रों ने पोस्ट कर के बताया कि करवाचौथ एक मनमाना पूजा है और शास्त्र सम्मत नहीं है.

तो भाई... शास्त्र सम्मत पूजा हो अथवा शास्त्र असम्मत...
लेकिन, है तो पूजा ही ???

और, पूजा भी किसकी ???

चंद्रदेव की, अन्न की, भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती की.

और... पूजा ही तो कर रहे हैं ???

धर्म के नाम पर ... चोरी, डकैती, आतंक अथवा कोई अनैतिक काम तो नहीं कर रहे हैं... जैसा कि कुछ मजहब/पंथ के लोग करते हैं.

कुछ लोग तो मजहब के नाम पर दुनिया भर में आतंक फैलाने और घर की महिलाओं का हलाला तक करवाने से गुरेज नहीं करते...
यहाँ तक कि... पंथ के अपमान के नाम पर हाथ पैर काट के बेरिकेटिंग पर लटका देने तक को जायज ठहराने लग जाते हैं.

फिर, हम तो सिर्फ पूजा ही कर रहे हैं.

और, पूजा कब से गलत हो गई भाई ???

ये मत भूलें कि... पूजा और आस्था कभी गलत नहीं हो सकती.
जो भी अच्छे मन से और पूरे भक्तिभाव से किया जाए... वही धर्म है.

और, कुछ लोग बताते हैं कि धर्म निजी आस्था की चीज है तथा धर्म और समाज अलग-अलग होते हैं.

जबकि, ये बिल्कुल गलत और भ्रामक तथ्य है.

धर्म और आस्था भले ही व्यक्तिगत हो लेकिन उसी से समाज की दशा और दिशा तय होती है.

इस संबंध में मैं आपको एक कहानी बताना चाहूँगा...

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एक दिन सुबह सुबह दरवाजे की घंटी बजी.

जब नौजवान ने मकान मालिक दरवाजा खोला तो देखा एक आकर्षक कद- काठी का व्यक्ति चेहरे पे प्यारी सी मुस्कान लिए खड़ा था.

नौजवान ने कहा... जी कहिए..???

तो, आगंतुक ने कहा : अच्छा जी,
आप तो  रोज हमारी ही गुहार लगाते थे.

इस पर नौजवान ने कहा : माफ कीजिये, भाई साहब !
मैंने पहचाना नहीं आपको...

तो आगंतुक कहने लगे : भाई साहब.
मैं वह हूँ, जिसने तुम्हें साहब बनाया है...
अरे ईश्वर हूँ.., ईश्वर..
तुम हमेशा कहते थे न कि नज़र मे बसे हो पर नज़र नही आते..
इसीलिए... लो आज मैं आ गया..!
अब, आज पूरे दिन तुम्हारे साथ ही रहूँगा।"

इस पर नौजवान चिढ़ते हुए कहा : ये क्या मजाक है ???

अरे... ये मजाक नहीं है बल्कि सच है.
मैं सिर्फ तुम्हे ही नजर आऊंगा.
तुम्हारे सिवा कोई देख- सुन नही पायेगा, मुझे।

नौजवान कुछ कहता... इसके पहले पीछे से माँ आ गयी..
"अकेला खड़ा- खड़ा  क्या कर रहा है यहाँ ?
चाय तैयार है , चल आजा अंदर.."

अब नौजवान को उनकी बातों पे थोड़ा बहुत यकीन होने लगा था और मन में थोड़ा सा डर भी था..
नौजवान जाकर सोफे पर बैठा ही था तो बगल में वह आकर बैठ गया.
चाय आते ही जैसे ही पहला घूँट पिया नौजवान गुस्से से चिल्लाया...

अरे मां..ये हर रोज इतनी  चीनी ?

इतना कहते ही ध्यान आया कि अगर ये सचमुच में ईश्वर है तो इन्हें कतई पसंद नही आयेगा कि कोई अपनी माँ पर गुस्सा करे.

इसीलिए, उसने तुरंत अपने मन को शांत किया और समझा भी  दिया कि...
'भई, तुम नज़र में हो आज... ज़रा ध्यान से।'

बस फिर नौजवान जहाँ- जहाँ... आगंतुक उसके पीछे- पीछे पूरे घर में...

थोड़ी देर बाद नहाने के लिये जैसे ही नौजवान  बाथरूम की तरफ चला, तो उन्होंने भी कदम बढ़ा दिए..

नौजवान ने कहा : "प्रभु, यहाँ तो बख्श दो..."

खैर, नहा कर, तैयार होकर जब वो पूजा घर में गया तो यकीनन पहली बार तन्मयता से प्रभु वंदन किया.

क्योंकि, आज अपनी ईमानदारी जो साबित करनी थी..

फिर आफिस के लिए निकला और अपनी कार में बैठा, तो देखा बगल में महाशय पहले से ही बैठे हुए हैं.

सफर शुरू हुआ तभी एक फ़ोन आया.
और, नौजवान फोन उठाने ही वाला था कि ध्यान आया.... 'तुम नजर मे हो।'

इसीलिए, कार को साइड मे रोका तथा फोन पर बात की.

और, बात करते- करते कहने ही वाला था कि...
'इस काम के ऊपर के पैसे लगेंगे' ...
पर ये  तो गलत और पाप था तो प्रभु के सामने कैसे कहता इसीलिए एकाएक ही मुँह से निकल गया...
"आप आ जाइये. आपका काम हो  जाएगा, आज।"

फिर, उस दिन आफिस मे ना स्टाफ पर गुस्सा किया, ना किसी कर्मचारी से बहस की.
25 - 50 गालियाँ तो रोज अनावश्यक निकल ही जाती थी मुँह से.
पर, उस दिन सारी गालियाँ....
'कोई बात नही, इट्स ओके...'मे तब्दील हो गयीं।

जिंदगी में वह पहला दिन था जब क्रोध, घमंड, किसी की बुराई, लालच, अपशब्द , बेईमानी, झूठ ये सब नौजवान की दिनचर्या का हिस्सा नही बने.

शाम को आफिस से निकला और कार में बैठा तो बगल में बैठे ईश्वर को बोल ही दिया...

"प्रभु , सीट बेल्ट लगा लें, कुछ नियम तो आप भी निभायें...
उनके चेहरे पर संतोष भरी मुस्कान थी..."

घर पर रात्रि भोजन जब परोसा गया तब शायद पहली बार नौजवान के मुख से निकला :
"प्रभु, पहले आप लीजिये ।"

और, उन्होंने भी मुस्कुराते हुए निवाला मुँह मे रखा.

भोजन के बाद माँ बोली :
"पहली बार खाने में कोई कमी नही निकाली आज तूने ?
क्या बात है ?
सूरज पश्चिम से निकला है क्या, आज ?"

नौजवान ने कहा :

"नहीं माँ...
आज सूर्योदय मन में हुआ है...
रोज मैं महज खाना खाता था, आज प्रसाद ग्रहण किया है माँ और प्रसाद मे कोई कमी नही होती।"

थोड़ी देर टहलने के बाद अपने कमरे मे गया और शांत मन और शांत दिमाग  के साथ तकिये पर अपना सिर रखा तो ईश्वर ने प्यार से सिर पर हाथ फिराया और कहा :

"आज तुम्हे नींद के लिए किसी संगीत, किसी दवा और किसी किताब के सहारे की ज़रुरत नहीं है।"

और, वो गहरी नींद गालों पे थपकी से टूटी ...

"कब तक सोयेगा .. ?
जाग जा अब।"

माँ की आवाज़ थी... सपना था शायद...

हाँ, सपना ही था पर नीँद से जगा गया...
अब समझ में आ गया उसका इशारा...

"तुम नजर में हो...।"

👉👉👉 और, किसी भी पूजा का मतलब भी तो यही एहसास करना होता होता है कि हम प्रभु की नजर में हैं इसीलिए हमें धर्मानुकूल आचरण करना चाहिए.

जिस दिन ये समझ गए कि "वो" देख रहा है...
सब कुछ ठीक हो जाएगा.

और, ये ठीक सिर्फ व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक होगा क्योंकि नजर में तो सब रहेंगे.

इसीलिए, पूजा और भगवान का सानिध्य किसी भी बहाने से हो वो गलत हो ही नहीं सकता.

कल्पना करें कि... हमारा हिन्दू समाज अगर ऐसा ही सानिध्य माँ दुर्गा, माँ काली, भगवान राम (युद्ध मुद्रा), भगवान कृष्ण (सुदर्शन चक्र धारण किये हुए) महसूस करे...

तो, फिर किस विधर्मी की इतनी साहस हो सकती है कि वो हमारे हिन्दू समाज की ओर आँख उठा कर देख भी सके.

इसीलिए, भगवान का सानिध्य चाहे जिस भी बहाने से हो मैं उसका पुरजोर समर्थन करता हूँ..
और, हमेशा करता रहूँगा.
सतीश जी बात को इतने प्यारे ढंग से प्रस्तुत करते हैं न, कि मन आ ही जाता है !

सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

चिन्तन की धारा...


रावण अत्यंत विनम्रतापूर्वक मारीचि को झुक कर प्रणाम करता है और मारीचि का माथा ठनक जाता है | रावण बोला मामा मारीचि चलिये स्वर्ण मृग बनना है आपको और राम को छल से भटका कर दूर ले जाना है । रावण जैसे महाबलशाली के द्वारा अपने दस सिरों को झुका कर बीस हाथों से विनम्र प्रणाम को देख कर मारीच मन ही मन सोचता है ,

नवनि नीच की अति दुखदाई ।
जिमि अंकुश धनु उरग बिलाई ॥

भयदायक खल की प्रिय बानी ।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥

नीच का झुकना (विनम्रता) भी अत्यंत दुखदायी परिणाम लाने वाली होती है । जैसे अंकुश , धनुष , सर्प और बिल्ली का झुकना !

दुष्ट मनुष्य की प्रियवाणी भी,  हे भवानी , उसी तरह भयदायी होती है जैसे अकाल की सूचना देने वाले फूलों का असमय खिलना ।
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रावण निपट अहंकारी था, पर अपने अहंकार को दिशा न दे पाया ।
जब हम बात करते हैं अहंकार की , कि फलाना आदमी बहुत अहंकारी है या धिमकाना आदमी में बहुत "मैं" है ...

इन नकारात्मक लक्ष्यार्थों (कनोटेशंस) के कारण हमें लगने लगता है  अहंकार बड़ा अवगुण है जिसे हमें समाप्त कर देना है स्वयं से ...

लेकिन जिस प्रकार जंगल की नदी में प्यास बुझाने गया पशु नहीं जानता कि बाघ नदी पर घात लगाए बैठा है , और प्यास बुझाते बुझाते स्वयं के जीवन का दीपक बुझा बैठता है ...
ठीक उसी प्रकार , जो भी व्यक्ति अहंकार को नष्ट करने या उसका दमन करने का प्रयास करता है – वह अहंकार के चंगुल में और अधिक फंस जाता है ... और अधिक अहंकारी हो जाता है !

अहंकार आपकी कोई बुरी आदत नहीं है , अहंकार आपकी बेसिक स्थिति है ...
अहंकार सभी में होता है , होना भी चाहिए – क्योंकि बिना अहंकार के आप ना तो भोग प्राप्त कर सकेंगे और ना मोक्ष अनुभव कर सकेंगे !

लेकिन यह अहंकार नकारात्मक (रावण वाला) भी हो सकता है और सकारात्मक भी ...

नकारात्मक अहंकार आपको ये अनुभव करवाता है कि आप संपूर्ण हो – बदल नहीं सकते और ना आपको बदलने की आवश्यकता है । ये नकारात्मक अहंकार आपको एक भ्रम में फंसा कर रखता है कि आप ने संसार को बहुत अनुभव कर लिया है और आप बहुत बड़े अनुभवशाली व्यक्ति हैं ।

वहीं सकारात्मक अहंकार आपको अनुभव करवाता है कि – " संसार बहुरम्य है और मैंने तो अभी कुछ अनुभव ही नहीं किया है , मुझे और अधिक अनुभव करना है , संसार का आनंद लेना है , रस लेना है " 

यह सकारात्मक अहंकार ही मुख्य है ... और कमाल की बात है कि सकारात्मक अहंकार सबमें बचपन से ही होता है ..

जब आप सकारात्मक अहंकार को बढ़ावा देते हैं तो आप शैव ऊर्जा को अनुभव करने लगते हैं और धीरे धीरे जीवन में आनंद को अधिक से अधिक प्राप्त करने लगते हैं ।

बिना किसी योगासन और बिना किसी मंत्र जप के ही आप बहुत अधिक वर्तमान में जीने लगते हैं , यद्यपि आपमें आवेगशीलता बढ़ जाती है –

फ़िर यही आवेगशीलता आगे चलकर ध्यानावेग बन जाती है ... और आप अत्याधिक वर्तमान में जीने लगते हैं ...

जब आप बिना किसी विशेष प्रयास के बहुत ही प्राकृतिक रूप से पूर्णतः वर्तमान में जीने लगते हैं , तब एक दिन आपको एहसास होता है कि *" अरे ! सब कुछ स्वयं ही तो हो रहा है , ना मैं कुछ कर रहा हूं और ना मेरे कुछ करने से कुछ हो रहा है , हर क्षण में सुख है ! "*

और आपका अहंकार स्वयं बदलकर ब्रह्मकार की ओर बढ़ जाता है ...

यहां ध्यातव्य है कि ज़रा सा भी स्वयं को ये *समझाना नहीं है* कि "मैं कुछ नहीं हूं , मेरे कुछ करने से कुछ नहीं हो रहा है , सब भगवान कर रहा है इत्यादि इत्यादि "
अपितु जब बिना समझाए ,स्वयं अनुभव होने लगे कि सब कुछ अपने आप हो रहा है ... तब आप सही मार्ग पर हैं ।

रविवार, 9 अक्टूबर 2022

काबिलियत

एक बार की बात है, किसी शहर में एक बहुत अमीर आदमी रहता था. उसे एक अजीब शौक था, वो अपने घर के अन्दर बने एक बड़े से स्विमिंग पूल में बड़े-बड़े रेप्टाइल्स पाले हुए था ; जिसमे एक से बढ़कर एक सांप, मगरमच्छ, घड़ियाल आदि शामिल थे। एक बार वो अपने घर पर एक पार्टी देता है. बहुत से लोग उस पार्टी में आते हैं. खाने-पीने के बाद वो सभी मेहमानों को स्विमिंग पूल के पास ले जाता है और कहता है-

”दोस्तों, आप इस पूल को देख रहे हैं, इसमें एक से एक खतरनाक जीव हैं, अगर आपमें से कोई इसे तैर कर पार कर ले तो मैं उसे 1 करोड़ रुपये या अपनी बेटी का हाथ दूंगा… ”सभी लोग पूल की तरफ देखते हैं पर किसी की भी हिम्मत नहीं होती है कि उसे पार करे… लेकिन तभी छपाक से आवाज होती है और एक लड़का उसमे कूद जाता है, और मगरमच्छों, साँपों, इत्यादि से बचता हुआ पूल पार कर जाता है।

सभी लोग उसकी इस बहादुरी को देख हैरत में पड़ जाते हैं. अमीर आदमी को भी यकीन नहीं होता है कि कोई ऐसा कर सकता है ; इतने सालों में किसी ने पूल पार करना तो दूर उसका पानी छूने तक की हिम्मत नहीं की ! वो उस लड़के को बुलाता है, ”लड़के, आज तुमने बहुत ही हिम्मत का काम किया है, तुम सच-मुच बहादुर हो बताओ तुम कौन सा इनाम चाहते हो। ”अरे, इनाम-विनाम तो मैं लेता रहूँगा, पहले ये बताओ कि मुझे धक्का किसने दिया था….!” लड़का बोला।

मित्रों ! ये एक छोटा सा हास्य प्रसंग था। पर इसमें एक बहुत बड़ा सन्देश छुपा हुआ है- उस लड़के में तैर कर स्विमिंग पूल पार करने की काबीलियत तो थी पर वो अपने आप नहीं कूदा, जब किसी ने धक्का दिया तो वो कूद गया और पार भी कर गया. अगर कोई उसे धक्का नहीं देता तो वो कभी न कूदने की सोचता और न पूल पार कर पाता, पर अब उसकी ज़िन्दगी हमेशा के लिए बदल चुकी थी… ऐसे ही हमारे अन्दर कई टैलेंट छुपे होते हैं जब तक हमारे अन्दर कॉन्फिडेंस और रिस्क उठाने की हिम्मत नहीं होती तब तक हम लाइफ के ऐसे कई चैलेंजेज में कूदे बगैर ही हार मान लेते हैं, हमें चाहिए कि हम अपनी काबीलियत पर विश्वास करें और ज़िन्दगी में मिले अवसरों का लाभ उठाएं।

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शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

लोगों के भरोसे

एक गांव के पास एक खेत में सारस पक्षी का एक जोड़ा रहता था | वहीं उन्होने अंडे दिए थे | और समय पर उनसे बच्चे निकले | लेकिन बच्चों के बड़े होकर उड़ने योग्य होने से पहले ही खेत की फसल पक गयी | सारस बड़ी चिंता में पड़े किसान खेत काटने आवे, इससे पहले ही बच्चों के साथ उसे वहां से चले जाना चाहिए और बच्चे उड़ सकते नहीं थे | सारस ने बच्चों से कहा -” हमारे न रहने पर यदि कोई खेत में आवे तो उसकी बात सुनकर याद रखना |”

एक दिन जब सारस चारा लेकर शाम को बच्चों के पास लौटा तो बच्चों ने कहा – ” आज किसान आया था | वह खेत के चारों ओर घूमता रहा एक दो स्थानों पर खड़े होकर देर तक खेत को घूरता था | वह कहता था, कि खेत अब काटने के योग्य हो गया है | आज चलकर गांव के लोगों से कहूंगा कि वह मेरा खेत कटवा दें |”

सारस ने कहा – ” तुम लोग डरो मत! खेत अभी नहीं कटेगा अभी खेत कटने में देर है |”

कई दिन बाद जब एक दिन सारस शाम को बच्चों के पास आए तो बच्चे बहुत घबराए थे- ” वे कहने लगे | अब हम लोगों को यह खेत झटपट छोड़ देना चाहिए | आज किसान फिर आया था, वह कहता था, कि गांव के लोग बड़े स्वार्थी हैं | वह मेरा खेत कटवाने का कोई प्रबंध नहीं करते | कल मैं अपने भाइयों को भेजकर खेत कटवा लूंगा |

सारस बच्चों के पास निश्चिंत होकर बैठा और बोला – ” अभी तो खेत कटता नहीं दो-चार दिन में तुम लोग ठीक-ठीक उड़ने लगोगे अभी डरने की आवश्यकता नहीं है |”

कई दिन और बीत गए सारस के बच्चे उड़ने लगे थे और निर्भय हो गए थे| एक दिन शाम को सारस से वे कहने लगे – ” यह किसान हम लोगों को झूठ-मूठ डराता है | इसका खेत तो कटेगा नहीं, वह आज भी आया था | और कहता था | कि मेरे भाई मेरी बात नहीं सुनते सब बहाना करते हैं | मेरी फसल का अन्न सुखकर झर रहा है | कल बड़े सवेरे में आऊंगा और खेत काट लूंगा |

सारस घबराकर बोला – ” चलो जल्दी करो ! अभी अंधेरा नहीं हुआ है | दूसरे स्थान पर उड़ चलो | कल खेत अवश्य कट जाएगा |

बच्चे बोले – ” क्यों ? इस बार खेत कट जाएगा यह कैसे ?”

सारस ने कहा – ” किसान जब तक गांव वालों और भाइयों के भरोसे था | खेत के कटने की आशा नहीं थी | जो दूसरों के भरोसे कोई काम छोड़ता है | उसका काम नहीं होता, लेकिन जो सवयं काम करने को तैयार होता है | उसका काम रुका नहीं रहता | किसान जब सवयं कल खेत काटने वाला है, तब तो खेत कटेगा ही |”

अपने बच्चों के साथ सारस उसी समय वहां से उड़कर दूसरे स्थान पर चला गया ”

मित्रों" जो दूसरों के भरोसे कोई काम छोड़ता है | उसका काम नहीं होता, लेकिन जो सवयं काम करने को तैयार होता है | उसका काम रुका नहीं रहता |”

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बुधवार, 5 अक्टूबर 2022

विजयादशमी

आज सभी सनातनी हिन्दू मित्रों को विजयादशमी एवं दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं...!
जी हां, विजयादशमी एवं दशहरे की अलग अलग ! क्यों कि ये दो पर्व एक साथ एक दिन मनाते आये हैं हम । कुमार सतीश इसे सरलता से बताते हैं -
हालांकि, विजयादशमी और दशहरा दोनों अलग-अलग त्योहार है और अलग अलग कालखण्ड में घटित घटनाओं के कारण मनाया जाता है...

लेकिन, समुचित जानकारी के अभाव में विजयादशमी और दशहरे को एक ही मान लिया जाता है.

असल में.... दशहरा और विजयादशमी दोनों ही हम हिन्दुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण त्यौहार हैं.
लेकिन, चूँकि दोनों ही त्यौहार एक ही दिन पड़ते हैं अतः कई लोग इन्हें एक ही समझ बैठते हैं.
शायद ऐसा इसीलिए भी है कि दोनों ही त्यौहार दस दिनों तक मनाये जाते हैं और दसवें दिन इनका समापन होता है.
परंतु, सच्चाई ये है कि.... दशहरा और विजयादशमी भले ही एक साथ पड़ते हैं...
किन्तु, दोनों के मनाने की वजह एकदम अलग अलग है और दोनों के मनाने के तरीके भी अलग अलग हैं.
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान राम अपने पिता दशरथ की आज्ञा का पालन करते हुए चौदह वर्षों के लिए वनवास को स्वीकार किया.

और, वन जाते समय उनके साथ उनकी पत्नी माता सीता और उनके भाई लक्षमण भी उनके साथ गए.

वनवास के दौरान भगवान राम ने कई स्थानों का भ्रमण किया और फिर एक जगह कुटिया बना कर रहने लगे.

इसी बीच लंकापति रावण छल से माता सीता को वहां से अपहरण करके अपने महल में स्थित अशोक वाटिका में ले गया.

भगवान राम ने सीता को बहुत खोजा और कई लोगों से सहायता ली.

तथा, अंत में पवनपुत्र हनुमान ने सीता का पता लगाया.

फिर भगवान राम ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बनाया और लंका पर आक्रमण कर दिया.

इस क्रम में नौ दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ.

और, अंततः भगवान राम ने आश्विन मास की दसवीं तिथि को अधर्मी रावण का वध कर दुनिया को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलवाई.

भगवान राम के इसी जीत के उपलक्ष्य में हर साल दशहरा मनाया जाता है.

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दूसरी तरफ.... विजयादशमी भी हिन्दुओं का एक अति महत्वपूर्ण त्यौहार है.

और, विजयादशमी हर वर्ष उसी दिन पड़ता है जिस दिन दशहरा होता है यानि यह भी आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दसवीं तारीख को ही पड़ता है.

और, विजय दशमी को भी असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है.

तथा, यह भी दस दिनों तक चलने वाला त्यौहार है.

लेकिन, इसमें शुरू के नौ दिनों को नवरात्र और दसवें दिन को विजयादशमी कहते हैं.

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बहुत ही अधर्मी असुर राजा हुआ करता था जिसका नाम महिषासुर था.

उसने ब्रह्मा से वरदान पा लिया था जिसकी वजह से देवता समेत कोई भी उसे मार नहीं सकता था.

अपनी इसी क्षमता और शक्तियों के बल पर उसने देवताओं को हराकर इंद्रलोक पर अपना अधिपत्य हासिल कर लिया था.

सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि.... समस्त पृथ्वीलोक पर भी उसी का अधिकार चलता था.

जबकि, महिषासुर अत्यंत ही अत्याचारी राजा था... जिस कारण लोग उसके अत्याचार से त्राहि त्राहि कर रहे थे.

आख़िरकार....  ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ने अन्य देवताओं की सहायता से अत्याचारी महिषासुर का अंत करने के लिए एक शक्ति की रचना की.

इसी शक्ति का नाम देवी भगवती (दुर्गा) पड़ा.

देवी दुर्गा में सभी देवताओं की शक्तियां समाहित थी.

देवी और महिषासुर में भयंकर युद्ध हुआ.

और, अंततः....  नौ दिन तक लगातार भीषण युद्ध होने के पश्चात् दसवें दिन देवी ने महिषासुर का वध किया और संसार को उसके आतंक और अत्याचार से मुक्ति दिलाई.

इसी जीत के उपलक्ष्य में हर साल देवी दुर्गा की पूजा की जाती है और इस त्यौहार को "विजयादशमी" कहा जाता है.

विजयादशमी में....  पूरे दस दिनों तक त्योहार मनाया जाता है जिसमे शुरू के नौ दिनों तक देवी की पूजा अर्चना की जाती है
एवं, दसवें दिन उन मूर्तियों का किसी नदी में विसर्जन कर दिया जाता है.

कई लोग इन नौ दिनों तक व्रत रखते हैं जिसमें योगी जी और मोदी जी भी हैं.

नवरात्र के नववें दिन... 9 कुंवारी कन्याओं को देवी स्वरूपा मानकर उनकी पूजा की जाती है एवं उन्हें भोजन वस्त्र आदि दी जाती है.

विजयादशमी को शक्ति पूजा भी कहते हैं और इस दिन शस्त्र पूजा भी की जाती है. सनातनी परिवारों में - समाज में - संस्थाओं में आज शस्त्र पूजन का आयोजन पूरे हर्षोल्लास से होता आया है . कुछ जगहों पर विस्मृत हो रही इस प्रथा को स्मरण में लाने की महती आवश्यकता है . शस्त्र पूजन हमारे आत्म गौरव आत्म बल का पोषक है .

क्योंकि, कहा जाता है कि.... प्रभु राम ने भी रावण वध करने के पहले इस दिन देवी शक्ति की पूजा की थी और उनसे आशीर्वाद लिया था.

अगर ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में बात की जाए तो विजयादशमी की घटना पहले हुई है और दशहरे की घटना बाद में.

शायद इसीलिए.... दुर्गा पूजा के नवरात्र के बाद हमलोग दशहरा मनाने लगते हैं...!

फिर भी... विजयादशमी और दशहरा दोनों ही असत्य पर सत्य की विजय एवं बुरी शक्तियों पर अच्छी शक्ति की विजय का ही त्योहार है.

और, ये दोनों ही त्योहार हमें ये सीख देते हैं कि तात्कालिक तौर पर बुरी शक्ति चाहे कितनी भी ताकतवर क्यों न हो जाये लेकिन उनका विनाश निश्चित है..!

इसीलिए, अभी वर्तमान समय में भी जो बुरी शक्तियाँ खुद को काफी  शक्तिशाली और अजेय समझ बैठी है उन्हें विजयादशमी एवं दशहरे से ये सीख जरूर ले लेनी चाहिए.

सोमवार, 3 अक्टूबर 2022

मां दुर्गा

आजकल नवरात्र चल रहा है... जिसे हमलोग दुर्गापूजा के नाम भी जानते हैं.

लेकिन, क्या आप जानते हैं कि माँ भगवती को... "माँ दुर्गा" क्यों कहा जाता है ???
कुमार शतीश बताते हैं कि पौराणिक कथा के अनुसार...
भगवान श्री हरि ने वराह अवतार लेकर राक्षस हिरण्याक्ष का वध किया था और पृथ्वी को अपनी जगह पुनर्स्थापित किया था... जिससे सृष्टि में आया व्यवधान दूर हुआ था.

कालांतर में इसी हिरण्याक्ष के वंश में एक दैत्यराज रुरु हुआ था.

और, दैत्यराज रुरु का पुत्र हुआ ... "दुर्गम".

ये दुर्गम...ब्रह्मांड के तीनों लोगों पर शासन करना चाहता था.

लेकिन, तीनों लोकों पर शासन हेतु देवताओं को हराना उसके लिए बड़ी चुनौती थी..!

इसीलिए, दुर्गमासुर ने विचार किया कि देवताओं की शक्ति "वेद" में निहित है. (उस समय एक ही वेद थे)

तो, अगर किसी तरह वेद नष्ट हो जाये या विलुप्त हो जाये तो देवतागण खुद ही नष्ट हो जाएंगे.

इसके अतिरिक्त वेद के विलुप्त हो जाने से यज्ञ आदि भी नहीं हो पाएंगे जिससे देवताओं को भोग नहीं मिल पायेगा और वे शक्तिहीन हो जाएंगे जिसके बाद उन्हें जीतना आसान हो जाएगा.

इसीलिए, राक्षसगुरु शुक्राचार्य ने उसे सलाह दिया कि... देवताओं को हराने के लिए वेद का लुप्त होना आवश्यक है.

इसके बाद गुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर दुर्गमासुर... हिमालय में जाकर कठोर तपस्या करने लगा..

अंततः... दुर्गमासुर के इस कठोर तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन देते हुए वर मांगने को कहा.

मौके का फायदा उठाते दुर्गमासुर ने ब्रह्मा जी से... वेद मांग लिया और साथ ही मांग लिया कि वेदों के समस्त ज्ञान मुझ तक ही सीमित रहे.

वेद के अतिरिक्त दुर्गमासुर ने सर्वशक्तिशाली होने तथा त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) से अ-वध (नहीं मरने) का वरदान भी हासिल कर लिया.

तदुपरांत... ब्रह्मा जी द्वारा तथास्तु कहते ही... सारे देव और मनुष्य वेद को भूल गए.

वेद का स्मरण भूलते ही... ब्रह्मांड में जप, तप, स्नान , ध्यान, यज्ञ , पूजा, सदाचार आदि धार्मिक क्रियाएं थम गई.

जिससे, हर जगह धर्म की जगह अनाचार और पाप का बोलबाला होने लगा..

ब्रह्मा जी के ऐसे वरदान से बेहद ही अजीब स्थिति पैदा हो गई.. 

क्योंकि , यज्ञ आदि में भाग मिलने से देवता पुष्ट होते थे लेकिन वेद के लुप्त हो जाने के कारण यज्ञ आदि बंद हो गए जिससे देवता निर्बल होने लगे.

तदुपरांत... ब्रह्मा जी के वरदान से ताकतवर हुआ दुर्गमासुर... दैत्यों और राक्षसों की भारी सेना लेकर स्वर्ग पर चढ़ाई कर दिया.

लेकिन, चूँकि... यज्ञ आदि के नहीं होने के कारण देवतागण दुर्बल हो चुके थे और इस राक्षसी सेना का मुकाबला करने में असमर्थ हो चुके थे..

इसीलिए, वे स्वर्ग से दूसरी जगह पलायन कर गए और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे.

इधर ... धार्मिक कार्य न होने के कारण पृथ्वी पर... मनुष्य भी धर्मच्युत हो गए और राक्षसों की देखा देखी वे भी... मदिरा सेवन, लूटपाट, चोरी, व्यभिचार आदि में लिप्त हो गए.

अन्याय , अनीति और दुराचार बढ़ने के कारण ब्रह्मांड का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया.

जल, भोजन आदि के लोग तरसने लगे.

ऐसी विकट स्थिति में पृथ्वी पर जो थोड़े बहुत सज्जन लोग बचे थे... वे हिमालय की कंदराओं में जाकर बहुत ही कारुणिक रूप से माँ भगवती को पुकारना शुरू किया.

उनकी कारुणिक पुकार सुनकर माँ भगवती प्रकट हुई..
उस समय उन्होंने भूख-प्यास और बुढ़ापे को दूर करने वाले शाक-मूल को धारण किया हुआ था.

माता भगवती के प्रकट होते ही ... देवतागण भी बाहर आ गए जो दुर्बल हो जाने के कारण दुर्गमासुर के भय से इधर-उधर छुपे हुए थे.

सबने मिलकर माता भगवती को सारा वृतांत बताया.

माता भगवती ने सारा वृतांत सुनकर उन्हें भरोसा दिलाया और तत्काल में उन्हें खाने के लिए "शाक और फल" दिए.

इसी घटना के कारण... माँ भगवती का एक नाम "शाकम्भरी" भी है.

उधर जब दुर्गमासुर ने अपने दूत से ये सारा वृतांत सुना तो वो क्रोधित होकर एक बहुत बड़ी सेना लेकर मनुष्य और देवताओं को दंड देने के लिए निकल पड़ा.

दुर्गमासुर को सेना सहित आता देखकर मानव और देवताओ में भय व्याप्त हो गया और वे माँ भगवती से रक्षा हेतु निवेदन करने लगे.

जिसके बाद देवी भगवती ने चक्र को सारे मानव और देवताओं की रक्षा आदेश दिया... जिससे चक्र देवताओं और मनुष्यो की रक्षा करते हुए उनके चारों ओर घूमने लगा.

तत्पश्चात... देवी भगवती और राक्षसी सेना के बीच भयानक युद्ध छिड़ गया.

और, देवी भगवती के श्रीविग्रह से कालिका, तारा, भैरवी, मातंगी, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, बगला आदि 32 शक्ति प्रकट हुई.

तथा,  10 दिन के घनघोर युद्ध के बाद सारी राक्षसी सेना विनाश को प्राप्त हुई.

अपनी सेना के विनाश की खबर सुनकर 11वें दिन दुर्गमासुर खुद युद्ध भूमि में आया... 
लेकिन, माँ भगवती के हाथों मारा गया.

इस तरह... माँ भगवती ने दुर्गमासुर का अंत कर वेद को पुनर्स्थापित किया.

और... इसी दुर्दांत दुर्गमासुर के वध के कारण ही माँ भगवती को "माँ दुर्गा" भी कहा जाता है...!

इसीलिए... अभी नवरात्र में माँ दुर्गा की आराधना करते समय एक बार अपने इतिहास को याद जरूर कर लेना कि...
जिन सनातनी हिन्दू की पूर्वज महिलाएं तक... शुम्भ-निशुम्भ, मधु-कैटभ, दुर्गमासुर, महिषासुर जैसे दुर्दांत और शक्तिशाली राक्षसों का वध चुकी हों..

उनके वंशजों के लिए आज ये कुबुद्धि जैसे राक्षस किस खेत की मूली हैं ???

जरूरत है तो सिर्फ खुद को पहचानकर अपना पुरुषार्थ जागृत करने की...!
जय माँ दुर्गा...!!


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रविवार, 2 अक्टूबर 2022

राम कथा

एक बार क्या हुआ कि शिव जी और सती जी टहल रहे थे। ऐसे ही घूमते-घामते पहुँच गए रामजी के आश्रम के पास। एक जगह राम जी बैठे थे। सीता जी अंदर खाना-वाना बना रही होंगी, लक्ष्मणजी गए होंगे जंगल में शिकार खेलने। तो राम जी बैठे थे। लम्बा सांवला शरीर, चौड़ा माथा, मजबूत कंधे, लम्बी भुजाएं, सुतवा नाक, गर्दन तक लहराते केश। सती जी को मजाक सूझा। शिवजी से कहने लगी कि सीता का भेष धरकर जाती हूँ, देखते हैं कि आपके राम पहचानते हैं कि नहीं। 

शिवजी मना किए। अरे, रामजी हैं वो। उनसे क्यों हँसी ठिठोली करनी। चलो, वापस चलो। पर पतियों की बात कहाँ सुनती हैं पत्नियां! सती जी मुस्कियाते हुए चल दी। सीता का रूप धर कर राम के सामने पहुँची और कुछ बोलने ही वाली थी कि रामजी हाथ जोड़कर खड़े हो गए और खुश होकर बोले कि माताजी आपके दर्शन हुए, धन्यभाग हमारे। बाकी शिव जी कहाँ हैं, आसेपास हैं का? 

सती तो भौचक्की। क्या कहती! झेंपते हुए वापस चली गईं। उधर शिव जी गुसियाए हुए थे। बताओ, जब मना किये रहे तो गई क्यों? और वेश भी माता सीता का बनाया? माता का रूप धरा तो बीवी कैसे मानूं अब? 

ले भैया, हुआ बवाल। मजाक भारी पड़ गया। बहुत मनाया, शिव जी माने ही न। भोला गुस्सा हुआ तो हो गया। अब पति नाराज हो तो पत्नी को मायके की याद आती है। बहाना भी मिल गया। पिताजी दक्ष महराज यज्ञ कर रहे थे। सती आई और बोली कि नहीं बोलते हो तो मत बोलो, जाती हूँ अपने मायके। शिवजी बोले कि देख, जाना है तो जा, पर सोच ले, बिना बुलाए जा रही है। सती बेचारी करती क्या, पति का मुँह सीधा ही नहीं हो रहा। चली गईं। 

जब दक्ष ने देखा कि बेटी आ रही है, पर दामाद का पता ही नहीं तो अपमान महसूस हुआ। समझता क्या है खुद को। सारे देवता आ रहे हैं, वो भी आ जाता। पत्नी को भेज दिया। अब दामाद को भी निमंत्रण भेजें क्या? और दामाद भी कैसा! राख मल ली,  बाल कभी धोए नहीं, जटाएं बन गईं। और नहीं तो साँप पाल लिया जो हमेशा गरदन में लटका रहता है। और दामादों को देखो, कितने सुंदर-सुंदर। चंद्रमा को ही देख लो, जी जुड़ा जाता है। एक ये महराज हैं, कोई देख ले तो जूड़ी चढ़ जाए। 

जितना मन में भरा था, सबके सामने लगे अपनी बेटी को सुनाने। बेटी भी कितना बर्दाश्त करे? जो बोलना हो मुझे बोलते, मेरे पति को काहें बोल रहे, वो भी सबके सामने। गुस्सा तो बड़ी तेज चढ़ा, पर करें क्या? पति से तो गुस्सा होकर मायके आई थी, अब पिता से गुस्सा होकर किधर जाएं? 

जब गुस्सा किसी और पर नहीं निकलता तो खुद पर निकलता है। आगा-पीछा सोचे बिना कूद गई आग में। बवाल पर बवाल। शिव जी को मालूम चला तो मारे गुस्से के लगे झोटा नोचने। झोटवा में से वीरभद्र निकला और जाकर दक्ष की गरदन उड़ा दिया।

इधर शिव जी बिलकुले बौरा गए। अपनी जान से प्यारी बीवी की देह लेकर बावलों की तरह घूमने लगे। कभी गुस्सा आता तो लगते तांडव करने। हाहाकार मच जाता। समय-कुसमय का ध्यान दिए बिना लोग पटापट मरने लगते। और कभी बिलकुल निराश होकर गुम टहलते रहते तो संसार चक्र ही रुक जाता। 

ब्रह्मा, विष्णु को बड़ी चिंता हुई। खाली सृजन और पालन से तो काम चलेगा नहीं। तो तय हुआ कि इस सियापे को खत्म किया जाए। विष्णु जी ने अपना चक्र चलाया और मैया सती के शरीर के टुकड़े संसार भर में बिखर गए। 

शिव जी तो वैसे ही विरक्त मानसिकता के धनी थे। और विरक्त हो गए। आँख मूंदकर संसार से आँख फेर ली। देखिए, भगवान हो कि इंसान, बिना अर्धांगनी के काम नहीं चलता है। फिर यह तो शंकर थे। बिना शक्ति के पुरुष, पुरुष ही नहीं। तो शक्ति स्वरूपा माता सती ने गिरिराज के घर में जन्म लिया पार्वती के नाम से। 

पार्वती जी बड़ी हुई। अत्यंत सुंदर। युवा लड़की के मां-बाप की तरह गिरिराज और मैना जी को भी ब्याह की चिंता सताने लगी। दूल्हा खोजा जाने लगा। गिरिराज को तो विष्णुजी पसन्द थे, पर पार्वती तो शिवजी के लिए अवतरित हुई थी! आ गए अपने नारद जी, अगुआ बनकर। माँ-बाप को समझाया, फिर पार्वती जी को भी समझाया। पार्वती जी भी शिवमोहित थीं ही। समस्या बस यही थी कि शिव तो तपस्या में रत थे। 

जाने कितने सुर-असुर, राक्षस-मानव तपस्या कर कर के थक गए पर शिवजी प्रसन्न ही न हों। पार्वती जी ने भी ठान लिया कि चाहे जो हो जाएं, इन्हें तो प्रसन्न करके रहूंगी। भाई, स्त्री अगर कुछ ठान ले न, तो कुछ भी कर सकती है। शिवजी भी अंततः प्रसन्न हुए। वरदान मांगने को कहा तो पार्वती जी ने लिटरली वरदान, वर का दान ही मांग लिया। 

तय हुआ सब। शिवजी बोले कि जाओ अपने घर। अपने पिता से कहो कि हम बारात लेकर आते हैं। कुछ दिन बाद चली शिवजी की बारात। बारात में इंद्र, वरुण, यम, कुबेर जैसे देवता अपनी सुंदर सेनाओं के साथ चले, विष्णु जी भी पहुंच गए।

बाराती तो इतने सुंदर-सुंदर, और दूल्हा! उसका तो पूछो ही मत। 

जटा बढ़ी है, हाथ में त्रिशूल है, उस पर डमरू बंधा है, माथे और सीने पर राख की रेखाएं खिंची हैं, पूरे शरीर पर भभूत लगा है, और बैल पर चढ़कर चल दिए। कपड़ा-वपड़ा पहनने का तो होश ही नहीं। बस चल दिए तो चल दिए। उन्हें देख विष्णुजी खूब जोर से बोले, "भई यह बरात तो दूल्हे के लायक नहीं है" और उनके साथ-साथ सब देवता लोग बहुत पीछे खिसक लिए। 

शंकर जी बूझ गए कि देखो विष्णुजी को, शादी का मामला है तो लगे मजाक करने। शिवजी ने भी हांक लगाई और उनके सारे गण, भूत, प्रेत, पिशाच सब आगे आ गए। ये सब भी बारात में थे पर देवता लोग को देखकर पीछे हो गए थे। अब जब खुद भोले ने आगे बुलाया तो सब आगे आकर लगे नाचने। 

चली बारात। किसी भूत का सिर ही नहीं है, किसी के दो-दो, चार-चार सिर। किसी पिशाच की आंखें नहीं, तो किसी के शरीर पर बस आँखें ही आँखें। कोई गण लंगड़ा है तो किसी के घोड़े की तरह चार टांगे। प्रेतों का तो शरीर ही नहीं है। सब भांग-गाँजा पीकर मस्त होकर नाच रहे हैं। देवताओं ने देखा कि ये सब तो बाजी मार लिए, तो वे सब भी मधु, सुरा, सोम इत्यादि पीकर लगे झूमने। शायद पहली बार हुआ कि भूत-पिशाच, देवता-दानव, मानव-राक्षस सब एक साथ खुशी-खुशी नाचते-गाते चले जा रहे थे। 

बारात पहुंची द्वार पर। वहाँ सारे पर्वत, सारी नदियां, सारी झीलें शरीर धारण कर स्वागत हेतु तत्पर। बारात देखकर तो सब चकरा गए। कितने तो डर के मारे भाग गए। दूल्हा महराज बैल पर बैठे आगे बढ़े तो माता मैनाजी के तो होश ही उड़ गए। थाली छूट गई हाथ से। भाग कर अपनी बेटी के पास चली गईं। 

बेटी को अपनी गोद में बिठा कर बोलने लगी, "हाय हाय, हमारी इतनी सुन्नर बेटी। और इसका बियाह ऐसे बावरे से, जो अपनी शादी के दिन भी बिना कपड़ों के, राख मलकर आ गया। हे भगवान! और वो नारद कहाँ है? बड़का अगुआ बनते हो, मिलो तुम, बताते हैं तुम्हें। अरे, इतनी फूल सी लड़की के लिए और कोई नहीं मिला था।"

पार्वती जी तो सब बूझती ही थी। लगी समझाने कि जाए दो न अम्माजी। अब जिसके भाग में शिव जैसा बावला लिखा है, तो लिखा है। क्या कर सकते हैं? आप टेंशन मत लीजिए, हम बूझ लेंगे। काट लेंगे अपनी जिंदगी, इस औघड़ के साथ। 

तो हुआ बियाह। देवता लोग खाने बैठे तो खूब गारी भी सुने। बिदाई हुई और शिव जी अपनी पत्नी पार्वती को लेकर कैलाश वापस। 

एक दिन शिव जी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में पेड़ के नीचे बैठे थे। पार्वती जी आई तो उन्हें अपने पास बिठा लिया। पूछे, "खुश तो हो?" 

माता पार्वती बोली, "जी, पर पुरानी बातें नहीं भूलती। अपनी गलती से रामजी को भ्रमित करने चली थी और आपको भी नाराज किया। बहुत व्याकुलता है। शांत ही नहीं होती।"

"कैसी भी व्याकुलता दूर करनी हो तो रामकथा सुनो। राम का नाम ही चित्त को शांत कर देता है, रामकथा सभी व्याकुलताओं को हर लेती है।"

"तो मुझपर कृपा करें और अपने श्रीमुख से रामकथा कहें।"

भोला बोला, "अवश्य, यह तो मेरा सबसे प्रिय कार्य है। सुनो, एक बार ... ... ..."।
     -अजीत प्रताप सिंह द्वारा 


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शनिवार, 1 अक्टूबर 2022

राम आएंगे

भगवान राम जानते थे कि उनकी मृत्यु का समय हो गया है। वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना ही पड़ता है। यही जीवन चक्र है। और मनुष्य देह की सीमा और विवशता भी यही है।

उन्होंने कहा...
“यम को मुझ तक आने दो। बैकुंठ धाम जाने का समय अब आ गया है”

मृत्यु के देवता यम स्वयं अयोध्या में घुसने से डरते थे। क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान से भय लगता था। उन्हें पता था कि हनुमानजी के रहते यह सब आसान नहीं।

भगवान श्रीराम इस बात को अच्छी तरह से समझ गए थे कि, उनकी मृत्यु को अंजनी पुत्र कभी स्वीकार नहीं कर पाएंगे, और वो रौद्र रूप में आ गए, तो समस्त धरती कांप उठेगी।

उन्होंने सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा से इस विषय मे बात की। और अपने मृत्यु के सत्य से अवगत कराने के लिए राम जी ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया!

और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा।  हनुमान ने स्वयं का स्वरुप छोटा करते हुए बिल्कुल भंवरे जैसा आकार बना लिया...और अंगूठी को तलाशने के लिये उस छोटे से छेद में प्रवेश कर गए। वह छेद केवल छेद नहीं था, बल्कि एक सुरंग का रास्ता था, जो पाताल लोक के नाग लोक तक जाता था। हनुमान नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया।

वासुकी हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए,   जहाँ पर ढेर सारी अंगूठियों का ढेर लगा था। वहां पर अंगूठियों का जैसे पहाड़ लगा हुआ था।

“यहां देखिए, आपको श्री रामकी अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा।

हनुमानजी सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे? यह भूसे में सुई ढूंढने जैसा था। लेकिन उन्हें राम जी की आज्ञा का पालन करना ही था। तो राम जी का नाम लेकर उन्होंने अंगूठी को ढूंढना शुरू किया।

सौभाग्य कहें या राम जी का आशीर्वाद या कहें हनुमान जी की भक्ति...उन्होंने जो पहली अंगूठी उठाई, वो राम जी की ही अंगूठी थी। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। वो अंगूठी लेकर जाने को हुए, तब उन्हें सामने दिख रही एक और अंगूठी जानी पहचानी सी लगी।

पास जाकर देखा तो वे आश्चर्य से भर गए! दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम जी की ही अंगूठी थी। इसके बाद तो वो एक के बाद एक अंगूठीयाँ उठाते गए, और हर अंगूठी श्री राम की ही निकलती रही।

उनकी आँखों से अश्रु धारा फूट पड़ी!

' वासुकी यह प्रभु की कैसी माया है ? यह क्या हो रहा है? प्रभु क्या चाहते हैं?

वासुकी मुस्कुराए और बोले,

“जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। जो निश्चित है। जो अवश्यम्भावी है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं।

हर बार कल्प के दूसरे युग मे अर्थात त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है...यहाँ आता है और हर बार पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

इसलिए यह सैकड़ों हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं। सभी श्री राम की ही है। अंगूठियां गिरती रहीं है...और इनका ढेर बड़ा होता रहा।

भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां पर्याप्त स्थान है”।

हनुमान एकदम शांत हो गए। और तुरन्त समझ गए कि, उनका नाग लोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात्कार कोई आकस्मिक घटी घटना नहीं थी। बल्कि यह प्रभु राम का उनको समझाने का मार्ग था कि, मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकता। राम मृत्यु को प्राप्त होंगे ही। पर राम वापस आएंगे...यह सब फिर दोहराया जाएगा।

यही सृष्टि का नियम है, हम सभी बंधे हैं इस नियम से। संसार समाप्त होगा। लेकिन हमेशा की तरह, संसार पुनः बनता है और राम भी पुनः जन्म लेंगे।

प्रभु राम आएंगे...उन्हें आना ही है...उन्हें आना ही होगा।
जय श्रीराम - टीशा अग्रवाल

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शून्य की यात्रा

 

 

जब मैंने बैंगलोर यूनिवर्सिटी में टेक्निकल एजुकेशन के लिए एडमिशन लिया था तो उस समय कॉलेजों में नए स्टूडेंट की रैगिंग बैन नहीं हुआ करती थी.

इसीलिए वहाँ सीनियरों का राज हुआ करता था.

तो, एक बार सीनियरों ने मुझे नया देख कर मुझे अपने पास बुलाया..
और, पूछा.. नए आए हो क्या बे ?

मैंने भी मासूमियत से जबाब दिया.. जी सर.

तो, उन्होंने कहा कि यहाँ इतनी भास्ट (कठिन) पढ़ाई पढ़ने आये हो तो देखें कि तुम्हें अकल-उकल है कि नहीं.

तुम ये बताओ कि दिल्ली कहाँ है ?
मैंने कहा... सर, भारत में.

उन्होंने फिर पूछा ... तो फिर, भारत कहाँ है ?
मैं : सर, एशिया में .

सीनियर : एशिया कहाँ है ?
मैं : पृथ्वी पर

सीनियर : पृथ्वी कहाँ है ?
मैं : गैलेक्सी अर्थात आकाशगंगा में.

सीनियर : फिर, आकाशगंगा कहाँ है ?
मैं : ब्रह्मांड में.

सीनियर : ब्रह्मांड कहाँ है ?
मैं : अंतरिक्ष में .

सीनियर : अंतरिक्ष कहाँ है ?
मैं : शून्य में.

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सीनियर : शून्य कहाँ है फिर ?
मैं : मैथेमेटिक्स की किताब में.

सीनियर : किताब कहाँ है ?
मैं : दिल्ली में.

इस पर एक सीनियर ने कहा कि ... साले का मूंछ का भी रेघा नहीं आया है... लेकिन, काबिल कुछ ज्यादा ही है.

उस समय सोशल मीडिया का उतना चलन नहीं था... लेकिन, मेरा ये उत्तर कॉलेज में बहुत वाइरल हुआ था.

अब मैं ये तो नहीं जानता कि मेरी जानकारी का स्रोत क्या था... लेकिन, इतना जरूर जानता हूँ कि...
हमारे अनेकों धर्मग्रंथ... ब्रह्मांड एवं अंतरिक्ष को शून्य बताते हैं.

और... जो मैने बताया था वो लगभग सभी सनातनी हिन्दू को मालूम रहता है.

लेकिन... कोई ये नहीं जानता कि आखिर हमारे धर्मग्रंथ...  अंतरिक्ष और ब्रह्मांड को "शून्य" क्यों कहते हैं...
जबकि, अंतरिक्ष में तो अरबों खरबों तारे और ग्रह-नक्षत्र आदि मौजूद हैं और वे हमें दिखते भी हैं.

असल में हमारे धर्मग्रंथ... अंतरिक्ष में मौजूद तारों और ग्रह-नक्षत्रों की "संख्या को शून्य नहीं" बताते हैं...

बल्कि, उनके "वैल्यूएशन को शून्य" बताते हैं.

👉 आप ये बात भली-भांति जानते हैं कि.... 6 अगस्त, 1945 को विश्व ने पहली परमाणु विस्फ़ोट त्रासदी को देखा... क्योंकि, इसी दिन अमेरिका ने जापान पर परमाणु बम गिराया था.

और, अमेरिका द्वारा जापान पर गिराए गए "लिटिल बॉय" नामक परमाणु हथियार में 64 किलो यूरेनियम का इस्तेमाल किया गया था.

लेकिन... इस 64 किलो का महज 900 ग्राम हिस्सा ही बम की प्रक्रिया में इस्तेमाल हो सका था और उस 900 ग्राम में भी... महज 0.7 ग्राम यूरेनियम ही पूरी तरह विशुद्ध ऊर्जा में तब्दील हो पाया था.

इस तरह, देखा जाए तो, लिटिल बॉय बेहद ही फिसड्डी बम था.

फिर भी.... महज 0.7 ग्राम यूरेनियम से मतलब कि ... एक कागज के नोट से भी हल्की सामग्री का विस्फोट एक झटके में सवा लाख लोगों के लिए काल का पर्याय बन गया.
अब विचारणीय तथ्य है कि... जब महज 0.7 ग्राम यूरेनियम में इतनी ऊर्जा है तो...

पूरे ब्रह्मांड में टोटल कितनी ऊर्जा होगी ????

आपका जबाब होगा... अकल्पनीय.

लेकिन.... सच तो यह है कि... ब्रह्मांड में कोई ऊर्जा है ही नहीं...
और, ब्रह्मांड में ऊर्जा की मात्रा "शून्य" है.

असल में..... जहाँ, मैटर पार्टिकल्स, एन्टीमैटर तथा प्रकाश कणों में निहित ऊर्जा "पॉजिटिव" होती है.
वहीं, यह पॉजिटिव ऊर्जा अपने चारों ओर ग्रेविटी की शक्ति से निर्मित एक ऐसा "कुआं" (Gravity well) निर्मित करती है जो "नेगेटिव एनर्जी" से बना होता है.

तथा.... पृथ्वी समेत आकाशीय पिंड नेगेटिव एनर्जी के इसी गड्ढे में फंसे हुए सूर्य की परिक्रमा करने पर बाध्य हैं.

इस तरह..... इस ब्रह्मांड में जितनी पॉजिटिव एनर्जी है.... ठीक उतनी ही, बिना किसी अंतर के, उसी मात्रा में ग्रेविटेशनल ऊर्जा के रूप में नेगेटिव एनर्जी भी मौजूद है.

ब्रह्मांड का अस्तित्व इस पॉजिटिव-नेगेटिव एनर्जी की कशमकश पर ही टिका हुआ है.

पॉजिटिव और नेगेटिव एक-दूसरे को कैंसिल आउट करते हैं.

जब आप इनदोनों को मिलाएंगे तो उत्पन्न परिणाम शून्य होगा.

इसे बेहतर समझने के लिए आप एक मैदान की कल्पना कीजिये.

आप मैदान से मिट्टी निकालते जाइए और मिट्टी के इस्तेमाल से एक गगनचुंबी ईमारत बनाते जाइए...

जितनी ऊंची इमारत होगी, गड्ढा भी उतना ही गहरा होता जाएगा.

फिर आप .... इमारत को तोड़ कर मिट्टी गड्ढे में भर दीजिये, पॉजिटिव एनर्जी यानी इमारत गायब और साथ ही साथ नेगेटिव एनर्जी यानी गड्ढा भी गायब...

शेष रह जाएगा सपाट मैदान .... यानि.. शून्य...

यह कुछ ऐसा ही है....  मानों आप जीरो बैलेंस के साथ क्रेडिट कार्ड के सहारे शॉपिंग कर रहे हैं.

आप जितना सामान खरीदेंगे, उतना ही बैलेंस नेगेटिव होता जाएगा.

लेकिन, सामान बेच के लोन भर दीजिये तो क्रेडिट कार्ड का बैलेंस फिर से शून्य हो जाएगा.
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तो, इस पूरे लेख का सारांश यह है कि....

ब्रह्मांड में प्रत्येक पॉजिटिव एनर्जी अपने चारों ओर नेगेटिव एनर्जी का आवरण निर्मित करती है.

ब्रह्मांड का अस्तित्व इसी रस्साकशी पर टिका है.

पॉजिटिव का अस्तित्व नेगेटिव पर आधारित है.

पॉजिटिव-नेगेटिव को मिला दीजिये तो अस्तित्व का भ्रम टूट जाएगा..

और.... रह जायेगा सिर्फ़.... "शून्य"

इस तरह.... ब्रह्मांड को बनाने के लिए तकनीकी तौर पर कोई ऊर्जा कभी खर्च ही नहीं हुई.

क्योंकि.... सब कुछ शून्य है.

🚩🚩🚩 आश्चर्य इस बात का नहीं है कि.... ब्रह्मांड की ऊर्जा वैल्यूएशन शून्य है.

आश्चर्य इस बात का है कि.... जब आज से हजारों-लाखों साल पहले.... तथाकथित एडवांस कहे जाने वाले पश्चिमी सभ्यता के लोग ... जंगलों में नंग-धड़ंग, गुफाओं में रहते थे और कौतूहल से चाँद-तारे को देखा करते थे.

उस समय भी हमारे ऋषि-महर्षियों को ब्रह्मांड से लेकर ब्रह्मांड में मौजूद समस्त ऊर्जा का ज्ञान था और उन्होंने आज से लाखों साल पहले ही इसे ... "शून्य"  बता दिया था.

आखिर... ऐसी उन्नत सभ्यता-संस्कृति, पूर्वजों के ज्ञान एवं धार्मिक ग्रंथ पर हमें गर्व क्यों नहीं होना चाहिए ???

मुझे तो खुद पर बेहद गर्व है कि मैं महान सनातन हिन्दू धर्म का एक हिस्सा हूँ.

जय सनातन...!!
जय महाकाल...!!!

आदरणीय Kumar satish वाकई पठनीय है, मननीय है, आचरणीय है !! इन्हें पढें, समझें, जाने तब फिर माने । आग्रह रहेगा । उन्ही की लेखनी ।

मा की पहचान

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