शनिवार, 30 जुलाई 2022

चमत्कार

 

छोटी लड़की ने गुल्लक से सब सिक्के निकाले और उनको बटोर कर जेब में रख लिया, निकल पड़ी घर से – पास ही केमिस्ट की दुकान थी उसके जीने धीरे धीरे चढ़ गयी |
वो काउंटर के सामने खड़े होकर बोल रही थी पर छोटी सी लड़की किसी को नज़र नहीं आ रही थी,
ना ही उसकी आवाज़ पर कोई गौर कर रहा था, सब व्यस्त थे |
दुकान मालिक का कोई दोस्त बाहर देश से आया था | वो भी उससे बात करने में व्यस्त था |
तभी उसने जेब से एक सिक्का निकाल कर काउंटर पर फेका सिक्के की आवाज़ से सबका ध्यान उसकी ओर गया,
उसकी तरकीब काम आ गयी |
दुकानदार उसकी ओर आया और उससे प्यार से पूछा क्या चाहिए बेटा ? उसने जेब से सब सिक्के निकाल कर अपनी छोटी सी हथेली पर रखे और बोली मुझे“चमत्कार” चाहिए,
दुकानदार समझ नहीं पाया उसने फिर से पूछा, वो फिर से बोली
मुझे“चमत्कार" चाहिए | दुकानदार हैरान होकर बोला – बेटा यहाँ चमत्कार नहीं मिलता |
वो फिर बोली अगर दवाई मिलती है तो चमत्कार भी आपके यहाँ ही मिलेगा |

दुकानदार बोला – बेटा आप से यह किसने कहा ?
अब उसने विस्तार से बताना शुरु किया –
अपनी तोतली जबान से – मेरे भैया के सर में टुमर (ट्यूमर) हो गया है, पापा ने मम्मी को बताया है की डॉक्टर 4 लाख रुपये बता रहे थे – अगर समय पर इलाज़ न हुआ तो कोई चमत्कार ही इसे बचा सकता है
और कोई संभावना नहीं है,
वो रोते हुए माँ से कह रहे थे अपने पास कुछ बेचने को भी नहीं है,
न कोई जमीन जायदाद है न ही गहने – सब इलाज़ में पहले ही खर्च हो गए है,
दवा के पैसे बड़ी मुश्किल से जुटा पा रहा हूँ |

वो मालिक का दोस्त उसके पास आकर बैठ गया और प्यार से बोला अच्छा !
कितने पैसे लाई हो तुम चमत्कार खरीदने को, उसने अपनी मुट्टी से सब रुपये उसके हाथों में रख दिए,
उसने वो रुपये गिने 21 रुपये 50 पैसे थे |
वो व्यक्ति हँसा और लड़की से बोला तुमने चमत्कार खरीद लिया,
चलो मुझे अपने भाई के पास ले चलो |
वो व्यक्ति जो उस केमिस्ट का दोस्त था अपनी छुट्टी बिताने भारत आया था
और न्यूयार्क का एक प्रसिद्द न्यूरो सर्जन था | उसने उस बच्चे का इलाज 21 रुपये 50 पैसे में किया और वो बच्चा ठीक हो गया |
प्रभु ने लड़की को चमत्कार बेच दिया – वो बच्ची बड़ी श्रद्धा से उसको खरीदने चली थी वो उसको मिल भी गयी !
नीयत साफ़ और मक़सद सही हो तो ,किसी न किसी रूप में ईश्वर भी आपकी मदद करता है ( और यही आस्था का चमत्कार है)...

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सोमवार, 25 जुलाई 2022



   एक सरल चित्र है, लेकिन बहुत ही गहरे अर्थ के साथ।

आदमी को पता नहीं है कि नीचे सांप है और महिला को नहीं पता है कि

आदमी भी किसी पत्थर से दबा हुआ है।


महिला सोचती है: - ‘मैं गिरने वाली हूं और मैं नहीं चढ़ सकती क्योंकि

साँप मुझे काट रहा है।" 

आदमी अधिक ताक़त का उपयोग करके मुझे ऊपर क्यों नहीं खींचता!


आदमी सोचता है:- "मैं बहुत दर्द में हूं फिर भी मैं आपको उतना ही

खींच रहा हूँ जितना मैं कर सकता हूँ!

आप खुद कोशिश क्यों नहीं करती और कठिन चढ़ाई को पार कर लेती ।

आदमी को ये नहीं पता है कि औरत को सांप काट रहा है ।


  दरअसल आप उस दबाव को देख नहीं सकते जो सामने वाला झेल रहा है, और ठीक उसी तरह सामने वाला भी उस दर्द को नहीं देख सकता जिसमें आप हैं।


  यह जीवन है, भले ही यह काम, परिवार, भावनाओं, दोस्तों, के साथ हो, आपको एक-दूसरे को समझने की कोशिश करनी चाहिए, अलग

अलग सोचना, एक-दूसरे के बारे में सोचना और बेहतर तालमेल

बिठाना चाहिए।


  हर कोई अपने जीवन में अपनी लड़ाई लड़ रहा है और सबके अपने अपने दुख हैं। 

   इसीलिए कम से कम जब हम अपनों से मिलते हैं तब एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने के बजाय एक दूसरे को प्यार, स्नेह और साथ  रहने की खुशी का एहसास दें, जीवन की इस यात्रा को लड़ने की बजाय प्यार और भरोसे पर आसानी से पार किया जा सकता है।



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रविवार, 24 जुलाई 2022

गड़बड़ कहाँ हुई

 

गड़बड़ कहाँ हुई

एक बहुत ब्रिलियंट लड़का था. सारी जिंदगी फर्स्ट आया. साइंस में हमेशा 100% स्कोर किया. अब ऐसे लड़के आम तौर पर इंजिनियर बनने चले जाते हैं, सो उसका भी सिलेक्शन IIT चेन्नई में हो गया. वहां से B Tech किया और वहां से आगे पढने अमेरिका चला गया और यूनिवर्सिटी ऑफ़ केलिफ़ोर्निया से MBA किया.

अब इतना पढने के बाद तो वहां अच्छी नौकरी मिल ही जाती है. उसने वहां भी हमेशा टॉप ही किया. वहीं नौकरी करने लगा. 5 बेडरूम का घर  उसके पास. शादी यहाँ चेन्नई की ही एक बेहद खूबसूरत लड़की से हुई .

एक आदमी और क्या मांग सकता है अपने जीवन में ? पढ़ लिख के इंजिनियर बन गए, अमेरिका में सेटल हो गए, मोटी तनख्वाह की नौकरी, बीवी बच्चे, सुख ही सुख।

लेकिन दुर्भाग्य वश आज से चार साल पहले उसने वहीं अमेरिका में, सपरिवार आत्महत्या कर ली. अपनी पत्नी और बच्चों को गोली मार कर खुद को भी गोली मार ली. What went wrong? आखिर ऐसा क्या हुआ, गड़बड़ कहाँ हुई.

ये कदम उठाने से पहले उसने बाकायदा अपनी wife से discuss किया, फिर एक लम्बा suicide नोट लिखा और उसमें बाकायदा अपने इस कदम को justify किया और यहाँ तक लिखा कि यही सबसे श्रेष्ठ रास्ता था इन परिस्थितयों में. उनके इस केस को और उस suicide नोट को California Institute of Clinical Psychology ने ‘What went wrong?‘ जानने के लिए study किया .

पहले कारण क्या था , suicide नोट से और मित्रों से पता किया। अमेरिका की आर्थिक मंदी में उसकी नौकरी चली गयी. बहुत दिन खाली बैठे रहे. नौकरियां ढूंढते रहे. फिर अपनी तनख्वाह कम करते गए और फिर भी जब नौकरी न मिली, मकान की किश्त जब टूट गयी, तो सड़क पर आने की नौबत आ गयी. कुछ दिन किसी पेट्रोल पम्प पर तेल भरा बताते हैं. साल भर ये सब बर्दाश्त किया और फिर पति पत्नी ने अंत में ख़ुदकुशी कर ली...

इस case study को ऐसे conclude किया है experts ने : This man was programmed for success but he was not trained,how to handle failure. यह व्यक्ति सफलता के लिए तो तैयार था, पर इसे जीवन में ये नहीं सिखाया गया कि असफलता का सामना कैसे किया जाए.

अब उसके जीवन पर शुरू से नज़र डालते हैं. पढने में बहुत तेज़ था, हमेशा फर्स्ट ही आया. ऐसे बहुत से Parents को मैं जानता हूँ जो यही चाहते हैं कि बस उनका बच्चा हमेशा फर्स्ट ही आये, कोई गलती न हो उस से. गलती करना तो यूँ मानो कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया और इसके लिए वो सब कुछ करते हैं, हमेशा फर्स्ट आने के लिए. फिर ऐसे बच्चे चूंकि पढ़ाकू कुछ ज्यादा होते हैं सो खेल कूद, घूमना फिरना, लड़ाई झगडा, मार पीट, ऐसे पंगों का मौका कम मिलता है बेचारों को,12 th कर के निकले तो इंजीनियरिंग कॉलेज का बोझ लद गया बेचारे पर, वहां से निकले तो MBA और अभी पढ़ ही रहे थे की मोटी तनख्वाह की नौकरी. अब मोटी तनख्वाह तो बड़ी जिम्मेवारी, यानी बड़े बड़े targets.
.
कमबख्त ये दुनिया , बड़ी कठोर है और ये ज़िदगी, अलग से इम्तहान लेती है. आपकी कॉलेज की डिग्री और मार्कशीट से कोई मतलब नहीं उसे. वहां कितने नंबर लिए कोई फर्क नहीं पड़ता. ये ज़िदगी अपना अलग question paper सेट करती है. और सवाल ,सब out ऑफ़ syllabus होते हैं, टेढ़े मेढ़े, ऊट पटाँग और रोज़ इम्तहान लेती है. कोई डेट sheet नहीं.
.
एक अंग्रेजी उपन्यास में एक किस्सा पढ़ा था. एक मेमना अपनी माँ से दूर निकल गया. आगे जा कर पहले तो भैंसों के झुण्ड से घिर गया. उनके पैरों तले कुचले जाने से बचा किसी तरह. अभी थोडा ही आगे बढ़ा था कि एक सियार उसकी तरफ झपटा. किसी तरह झाड़ियों में घुस के जान बचाई तो सामने से भेड़िये आते दिखे. बहुत देर वहीं झाड़ियों में दुबका रहा, किसी तरह माँ के पास वापस पहुंचा तो बोला, माँ, वहां तो बहुत खतरनाक जंगल है. Mom, there is a jungle out there.
.
*इस खतरनाक जंगल में जिंदा बचे रहने की ट्रेनिंग बच्चों को अवश्य दीजिये*.।
बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ संस्कार भी देना जरूरी है  ,हर परिस्थिति को ख़ुशी ख़ुशी धैर्य के साथ झेलने की क्षमता, और उससे उबरने का ज्ञान और विवेक बच्चों में होना ज़रूरी है।माता पिता सफल जीवन के लिए तितिक्षा की शिक्षा अवश्य दें ।

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शनिवार, 23 जुलाई 2022

परीक्षा का भूत

 

परीक्षा परिणाम के बहाने चर्चा...
82% नम्बर
★★★★

तीन वर्ष पूर्व जब बेटा बारहवीं में 82% नम्बर लाया था तब मैंने उससे कहा था, "मैं तेरे पेपरस् की रीचेकिंग की एप्लिकेशन लगाऊंगी।", उसने हैरान होते हुए पूछा था, "क्यों?", मैंने सीरियस सा मुंह बनाते हुए उत्तर दिया था कि पेपर चेक करने वाले गलती से तुझे इतने सारे नम्बर दे गए हैं। तेरे इतने नम्बर आ ही नहीं सकते। मैं cbse से अपील करुँगी कि तेरे नम्बर काटकर आधे कर दें।"

मेरी बात सुनकर घर के सभी लोग हँसने लगे थे, और फिर हम सबने मिलकर हफ्तेभर तक उसके रिजल्ट का जश्न मनाया था...

उस समय जिसने भी बेटे का रिजल्ट सुना वह हैरान हुआ कि 95%+ नम्बरों के जमाने में हम 82% पर इतने प्रसन्न कैसे हैं?!

हम लोग प्रसन्न थे क्योंकि हम अपने बच्चे को जानते थे। हम जानते थे कि इन नम्बरों का उसके भविष्य पर ऐसा भी कोई असर नहीं पड़ने वाला। हम जानते थे कि वह पढ़ाई में सदैव एवरेज रहा है, लेकिन काम/जॉब/ऑक्यूपेशन के मामले में वह बहुत ही सिंसियर बच्चा है। उसे जीवन में आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। आजकल इतने फील्ड्स, इतनी ऑप्शन्स उपलब्ध हैं कि अगर एक जगह एडमिशन न भी हो तो कहीं और ट्राई किया जा सकता है। यूँ भी, बेस्ट कॉलेजेस के बच्चे अक्सर जॉब में टॉप पर नहीं दिखते। टॉप जॉब्स में होते हैं एवरेज कॉलेजेस के वे बच्चे जो काम के मामले में अत्याधिक सिंसियर होते हैं और लाइफ में रिस्क लेना जानते हैं। यही सब बातें सोचकर हमने बेटे का पास होना दिनोंदिन तक सेलिब्रेट किया था...

आज बेटे का B.B.A(Logistics) का कोर्स कम्प्लीट होने वाला है। इस सेमेस्टर में उसने टॉप किया है। जब मैंने उससे पूछा कि क्या वह कोर्स में टॉप करने वाला है, तो उसका उत्तर था, "कोर्स टॉप करके अपना बनाबनाया नाम खराब थोड़ी न करना है।", उसकी बात सुनकर मैं मुस्कुरा दी... मेरा टिपिकल बॉयज जैसा बेटा शायद कुछ महीनों में M.B.A करने U.K चला जाये। उसको वहां के कई कॉलेजेस से ऑफर लैटर आ चुके हैं। उसने IELTS एग्जाम भी क्लियर कर लिया है। जबतक जाने का बने तबतक खाली भी नहीं बैठना है, इसलिए यहीं कई कम्पनीज़ में जॉब एप्लिकेशन भर दी थी। जिस भी कम्पनी में उसने इंटरव्यू दिया, वहीं उसे सेलेक्ट कर लिया गया। आज गेंद मेरे इस 82% वाले बच्चे के पाले में है, जिस कम्पनी को चाहे चुन ले...

आज बारहवीं का रिजल्ट आया है, तो मैंने सोचा यह किस्सा सुना दूँ। क्योंकि, बहुत से अभिभावक व बच्चे 95%+ नम्बर न आने को लेकर दुखी होंगे। इस लेख को पढ़कर शायद वे समझ सकें कि 95%+ या टॉप कॉलेज में एडमिशन भविष्य में सक्सेसफुल होने की गारंटी नहीं होते। अतः, बच्चे जितने भी नम्बर लाएं, उनके साथ मिलकर उन नम्बरों को व बच्चे की सफलता को सेलिब्रेट कीजिये। बच्चे खुश रहेंगे तभी उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा और वे जीवन में खूब तरक्की भी करेंगे।

धन्यवाद😊

✍️ एक मित्र ने लिखा, अच्छा लगा । उधर देवेंद्र जी ने लिखा है  - बढ़ते_अंक_प्रतिशत_का_राज

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बिना किसी पूर्व भूमिका के सीधे-सीधे बता देता हूँ कि इसका असली राज सुपरफीशियल सिलेबस और प्रश्नों के घटिया स्तर में है।

ज्यादा नहीं बस कुछ समय पहले की बात है जब प्रश्नपत्रों के स्तर के कारण एआईपीएमटी के प्रि और मेन्स का कट ऑफ क्रमशः 60 और 55% तक ठहरा होता था।

मेरे एक छात्र ने एआईपीएमटी के प्रिलिम्स एग्जाम में बायलॉजी सेक्शन के प्रश्न छुए ही नहीं और जब मैंने उससे कारण पूछा तो उसका उत्तर ऐसा था कि मेरी हँसी छूट पड़ी-

"सर, मुझे पता था कि इतने सही प्रश्नों से मेरा प्रि में हो ही जायेगा और ज्यादा करने से मेन्स पर कोई फर्क पड़ना नहीं क्योंकि मुझे पता है उसमें मेरा होना नहीं तो बेकार में दिमाग पर लोड क्यों डालूँ, बस यही सोचकर आराम करता रहा।"

एम्स और जिपमेर भी अपने कठिन प्रश्नों के कारण अभेद्य किले माने जाते थे और उनको क्रैक करने वाले विद्यार्थी असामान्य प्रतिभावान होते भी थे।

फिर 2012-13 में नीट शुरू हुई और प्रश्नों को NCERT के अलावा बाहर से लेने पर रोक लगा दी गई।

'रोक' मतलब अगर NCERT की पुस्तक में अगर उसका उल्लेख नहीं तो वह प्रश्न व तथ्य आउट ऑफ सिलेबस माना गया।

नतीजा यह हुआ कि शिक्षक व छात्र दोंनों NCERT की किताबों को रटने लगे और कॉन्सेप्ट को एक ओर फेंक दिया गया।

इसका नतीजा हुआ कोचिंग्स में, स्कूलों में रट्टू लेकिन एंटरटेनर शिक्षकों व रट्टू छात्रों की भरमार।

तथ्य समझ आये न आये लेकिन एनसीआरटी की लाइन रटी हुई होनी चाहिए, यही मूलमंत्र बन गया जिसका नतीजा है कि अंक प्रतिशत बढ़ गए।

अब प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हुआ और क्यों किया गया?

इसके पीछे दो कारण हैं-

1)आरक्षण में एस सी और एस टी का छात्रों के माइनस में नंबर आने के कारण न्यूनतम पात्रता से वंचित रहना। हालांकि बाद में न्यूनतम पात्रता का नियम भी हटा लिया गया लेकिन कॉलेजों में उन छात्रों को जाहिर तौर पर अच्छी नजरों से नहीं देखा गया।

2)भारत के संस्थानों की तबाही के अभियान में लगी सोनिया एंड कंपनी भला शिक्षा व्यवस्था को कैसे छोड़ देती? इतिहास को बर्बाद करके राष्ट्रीय मूल पर प्रहार तो पहले ही किया जा चुका था और फिर अब शिक्षा की गुणवत्ता को गिराने से बेहतर राष्ट्र की बरबादी भला और कैसे होती?

ये जो सौ प्रतिशत, 300 में से 300 अंक प्राप्त करके भी असंतुष्टि दिखाने का स्यापा कर रहें हैं ना, अगर अभी ठीक से पेपर बना दिया जाए तो इनकी बुद्धिमत्ता और इंटेलीजेंसी का किला खड़े-खड़े भरभराकर गिर जाएगा।

प्रश्नों की घटिया क्वालिटी ही इन उच्च प्राप्तांकों के मूल में है जो इन बच्चों में सफलता के घमंड और वास्तविक जीवन में दो असफलताएं मिलने पर आत्महत्या तक ले जाने वाले अवसाद  के लिए उत्तरदायी है।

धरती का लाल

 

23 जुलाई 1906 को जन्मे उस पुत्र की बात...
साँझ की बेला में दुआर बुहारती जगरानी के आसपास जब लोगों की भीड़ खड़ी होने लगी तो अशुभ की आशंका से उनका हृदय काँप उठा। उन्होंने सर उठा कर कुछ लोगों का मुँह निहारा, सबके मुखड़े जैसे रो रहे थे। एकाएक सन्न हो उठे कलेजे को थाम कर उन्होंने पूछा- क्या चन्दू को पुलिस ने पकड़...?
कहीं से कोई उत्तर नहीं मिला। जगरानी जैसे काँप उठीं... उनके मुह से आह फूटी-" तो चन्दू की प्रतिज्ञा टूट गयी?"
पीछे से किसी उत्साहित युवक ने कहा- "नहीं माँ! चन्दू भइया की प्रतिज्ञा तोड़ दे इतनी सामर्थ्य तो यमराज में भी नहीं।"
जगरानी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उस युवक की ओर देखा जिसने आज उन्हें माँ कहा था। उनके हाथ से कूँची छूट गयी। उन्होंने काँपते हुए पूछा- "तो क्या..."
युवक ने रोते हुए कहा- "चन्दू भइया अमर हो गए माँ! प्रयाग में जब पुलिस ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया तो वे देर तक अकेले ही लड़ते रहे। जब अंत में उनके पास एक ही गोली बची तो उन्होंने स्वयं को गोली मार ली, अंग्रेजों की गोली तो उन्हें छू भी नहीं पायी..."
जगरानी ने अपना बेटा खो दिया था। वे जैसे जड़ हो गयी थीं। आँखों से धार बहने लगी थी। बढ़ती हुई भीड़ चुपचाप उनका मुँह निहार रही थी। कुछ पल की चुप्पी के बाद उनके स्वर फूटे- "तो चन्दू की टेक रह गयी!"
युवक ने उत्साहित हो कर कहा, "चन्दू भइया के मरने के आधे घण्टे बाद तक कोई सिपाही उनके पास जाने का साहस न कर सका माँ!"
जगरानी कराह उठीं।
युवक ने उन्हें ढाढ़स देने के लिए कहा- "लोग कह रहे हैं कि प्रयाग के पार्क में जितनी भीड़ थी उतनी आज तक कभी नहीं हुई होगी। पूरा देश 'चंद्रशेखर आजाद अमर रहें' के नारे लगा रहा है माँ!"
जगरानी भूमि पर पसर गयी थीं। दूर स्तब्ध से खड़े लोग कुछ क्षण बाद उनके निकट आने लगे। महिलाओं ने रोती माँ को ढाढ़स देने का प्रयास किया। अचानक रोती जगरानी के मुँह पर एक अजीब मुस्कान फैल उठी, उन्होंने अजीब से गर्व के साथ कहा- "ऐसी टेक तो भीष्म ने भी न निभाई थी..."
भीड़ जैसे उत्साह से उबल पड़ी थी। किसी ने कहा- "हमारा चन्दू राजा था काकी! ऐसी मृत्यु कहाँ किसी को मिलती है!  वह विश्व के सभी बलिदानियों का सिरमौर बन गया है..."
जगरानी ने उसी अजीब से स्वर में कहा- "मैं जीवन भर सोचती रही कि मुझ दरिद्र का नाम 'जगरानी' क्यों है, आज वह सच में मुझे जगरानी बना कर चला गया।"
कुछ पल बाद उन्होंने पूछा- "किसी ने चन्दू का शव देखा?"
उत्तर मिला- "नहीं! अज्जू भइया की देह पुलिस उठा ले गयी। पर देखने वाले बता रहे थे उनके मुख पर वही सदैव सी मुस्कान फैली हुई थी। लगता था जैसे मूछ उमेठ कर मुस्कुरा रहे हों..."
बूढ़ी फफक पड़ी- "मुस्कुराएगा क्यों नहीं? जो चाहता था वह तो कर ही लिया..."
"पर माँ! पुलिस हमें चन्दू भइया का शव नहीं देगी, लोग जुलूस निकाल रहे हैं पर पुलिस नहीं मानेगी। ईश्वर ने हमें अंतिम बार देखने भी नहीं दिया..."
जगरानी में जाने कहाँ का बल, कहाँ का सन्तोष आ गया था। बोलीं- अरे जाने दे! वो हमारा था कहाँ? उसकी माँ तो यह धरती थी, उसने तो देखा न उसे अंतिम बार! उसी की गोद में ही न उसने अंतिम सांस ली! भले मेरा बेटा छिन गया, पर उसे तो उसकी माँ मिल गयी... जाने दे!"
भीड़ खड़ी थी पर सन्नाटा पसरा था। कुछ लोगों ने उत्साह में नारे लगाए। माँ निःशब्द पड़ी थी। किसी ने एक लंबी आह भर कर कहा- आजाद जैसे बीर ऐसी ही माँओं की कोख से जन्मते हैं। एक आजाद बनाने के लिए जाने कितनी बार ईश्वर सर पटकता होगा। (सर्वेश तिवारी श्रीमुख के शब्द मिले )

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सोमवार, 18 जुलाई 2022

अपनों से क्या प्रतिस्पर्धा

 

चिंतन की धारा -  अपनों से कैसी होड़  ?

पंजाब की किसी ने मुझसे पूछा कि हम लोग अपने धर्म की मार्केटिंग क्यों नहीं करते?

मैंने पूछा- कैसी मार्केटिंग?

उन्होंने कहा- जैसा सिख अपने लंगर का, बौद्ध बुद्ध के शांति उपदेश का और जैन अपने भगवान महावीर स्वामी के अहिंसा की शिक्षाओं का करते हैं।

मैं- मतलब आप ये कहना चाहती हैं कि जिस तरह सिख अपने लंगर का, बौद्ध बुद्ध के शांति उपदेश का और जैन भगवान महावीर की अहिंसा वाली शिक्षाओं के बारे में दुनिया को बताते हैं या दुनिया को अलग से उनकी ये विशेषताएँ दिखाई देतीं हैं, उनकी ही तरह हम हिन्दू भी अपनी इन्हीं चीज़ों को लेकर क्यों आगे नहीं आते? क्यों नहीं दुनिया को दिखाते कि ये सब किसी की कोई uniqueness नहीं है। ‘लंगर प्रथा’ अगर सिखों के यहाँ है तो हमारे यहाँ भी मंदिरों में भंडारे की प्रथा है, करुणा और शांति का उपदेश हमारे ऋषियों ने भी दिया है। यही न?

उन्होंने कहा- हाँ ! समझिये तो मेरा आशय यही है।

मैंने उनसे कहा- प्रतिस्पर्धा तो उनसे की जाती है जो पराये हों पर अपनों से कैसी प्रतिस्पर्धा और कैसी होड़? मध्यकाल में भारत के पंजाब क्षेत्र में गुरु नानक देव जी का प्राकट्य हुआ और उनके साथ गुरु सिखों के द्वारा लंगर प्रथा शुरू हुई। हम ये जानते थे कि हमारी वैदिक संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरुपित किया गया है। वेद में कहा गया है- 'शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर’ यानि ‘सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से दान करो।’ हमारे ग्रंथों में अनेक राजाओं के द्वारा अलग-अलग स्थानों पर ‘अन्नक्षेत्र’ चलाने का वर्णन मिलता है। हमारे वेदों और दूसरे ग्रंथों में हमें जो आदेश दिया गया था, उसे मध्यकाल तक आते-आते हम क्षेत्र में हम विस्मृत कर चुके थे। इसलिए जब हमारे गुरुओं ने उस त्याग और दान की परंपरा को लंगर के जरिये से आगे बढ़ाया तो हमें लगा कि हमारे गुरुओं ने तो हमारी उन शिक्षाओं को पुनर्जीवन दिया है जिसे संजो कर रखने की आवश्यकता थी। तो आप बताइए कि गुरु नानक देव जी के द्वारा शुरू की गई लंगर प्रथा के मुकाबले पर हम क्या ये बताने लग जायें कि अब हमारे फलाने मंदिर में चौबीसों घंटे और बारहों मास भंडारा चलता है या फिर ये कहें कि हमारे यहाँ भी एक से बढ़कर एक दान के उदाहरण हैं? ये चाहतीं हैं आप?

आपने भगवान बुद्ध के करुणा की बात की, भगवान महावीर के अहिंसा की बात की तो मैं एक संकीर्ण हिन्दू बनकर सोचूँ तो अवश्य मैं इसके तुलना में अपने ग्रंथों से करुणा, शांति और मैत्री भाव सिखाने वाले उपदेश खोज कर दिखाने लगूंगा।पर क्यों? जब बुद्ध के करूणामय उपदेश लिए उनके शिष्य भारत से निकल कर चारों दिशाओं में दुनिया भर में फैल गए थे तो क्या दुनिया वाले बुद्ध को हिन्दू धारा से कुछ अलग करके देख रहे थे? भारत के बाहर के देशों के लोगों ने तो करुणावतार बुद्ध के उपदेशों का केवल अनुसरण किया, जबकि हमने उन्हें अवतार रूप में प्रतिष्ठित कर रखा है। बामियान में खड़ी बुद्ध की विशाल प्रस्तर प्रतिमाएं जब पश्चिम से आने वाले व्यापारिक काफिलों की रहनुमाई कर रही थी तो क्या बुद्ध वहां खड़े होकर ये नहीं कह रहे थे कि मेरे पीछे हिन्दू धर्म की आदि भूमि भारत है? इसी बुद्ध के बारे में शिकागो धर्म सभा में स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “मैं यह बात फिर से दोहराना चाहता हूँ कि शाक्यमुनि ध्वंस करने नहीं आये थे, वरन वे हिन्दू धर्म की पूर्णता के संपादक थे, उसकी स्वाभाविक परिणति थे, उसके युक्तिसंगत विकास थे।”

तो आप बताओ हम अपने धर्म की पूर्णता के संपादक बुद्ध के उपदेशों की तुलना में अपने दूसरे महापुरुषों के उपदेश आगे लेकर आयें तो क्या ये युक्तिसंगत है?

जैसे वैदिक परंपरा हमारी है, उसी तरह गुरमत परंपरा और श्रमण परंपरा भी हमारी है। शरीर का कोई भी अंग सजता- सँवरता है, सुंदरता के किसी प्रतीक को धारण करता है तो वह पूरे शरीर को ही सुंदर बनाता है। इसी तरह वृक्ष पर जब कोई फूल खिलता है या उसकी कोई शाख विकसित होती है तो संपूर्ण वृक्ष सुंदर लगने लगता है और मजबूत होता है, यही दृष्टि एक हिन्दू के नाते मेरी है और संभवतः सारे हिंदुओं की है। यही सांस्कृतिक विकासशील चेतना हमें विरासत में मिली है और इसी का नाम हिन्दू धर्म है। इसलिए एक हिन्दू होते हुए मैं कभी भी मेरे अपनों से होड़ और प्रतिस्पर्धा करने की क्षुद्रता नहीं कर सकता।

(अभिजीत सिंह की पुस्तक #इनसाइड_द_हिंदू_मॉल से)

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रविवार, 17 जुलाई 2022

मा सब जानती है

 


दो दोस्त एक साथ कॉलेज में पढ़ा करते थे, और उनके  साथ ऐसा हुआ कि एक दोस्त आई ए एस बना और दूसरा दोस्त पी सी एस। कुछ समय बाद दोनों दोस्त एक ही ऑफिस के अंदर मिले जहाँ वे साथ-साथ काम करते थे । एक रोज पी सी एस  दोस्त ने कहा-
"अरे दोस्त! आज शाम को हम लोगों ने पार्टी रखी है,  आज तुम भी हमारे साथ रहो,  कुछ मजे करो।"
"नहीं यार, मेरे लिए ऐसा करना मुश्किल है।"  आई ए एस दोस्त ने कहा।
"अरे यार, तेरे तो पापा भी नहीं है,  तेरी अभी शादी भी नहीं हुई है, फिर किस बात का डर है तुझे?"   पी सी एस दोस्त ने पूछा।
"मुझे मेरी माँ का डर है। ऑफिस से निकलने से पहले मैं माँ से फोन पर बात करता हूँ । मेरी माँ को अच्छी तरह से मालूम है कि मुझे घर पहुंचने में आधा घंटा से पौने घंटे का समय लगता है। उसी हिसाब से वह गरम खाना बनती है और हम मिलकर खाते हैं।" आई ए एस दोस्त ने कहा।
"यारों के लिए एक दिन माँ से झूठ नहीं बोल सकता।"   दोस्त ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
"नहीं यार,   अपनी माँ से मैं झूठ नहीं बोल सकता । मेरी माँ से अच्छा झूठ कोई बोलना नहीं जानता।"
"क्या बात करता है यार.... तेरी माँ भी झूठ बोलती है,  और तुझे झूठ बोलने में शर्म आएगी?"  पी सी एस दोस्त ने चौंकते हुए कहा।
"हाँ,  मेरी माँ ने मुझसे बहुत अच्छे -अच्छे झूठ बोले हैं। मुझे सात बजे जाना होता था , मगर माँ पाँच बजे की कहती कि छह बज गए हैं। मैं जल्दी से उठ जाता, और वह मुझे इत्मीनान से खाना खिलाकर कहती, समय सबसे कीमती है, समय की इज्जत किया करो।" आई ए एस दोस्त ने बताया।
"अरे यार, ऐसे झूठ तो बचपने में मेरे साथ भी बोले गए हैं, इसमें ऐसी क्या खास बात है भला।" दोस्त ने हँसते हुए कहा।
"मेरा जिस दिन इंटरव्यू था, मैंने माँ को फोन किया कि मुझे पापा से बात करनी है, लेकिन माँ ने कहा कि जब तू आई ए एस बन जाएगा तो ही पापा बात करेंगे। मैंने बहुत अच्छे से इंटरव्यू दिया। मैंने माँ को फोन मिलाया कि मेरा इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है, मैं पक्का आई ए एस बन जाऊंगा। तब माँ ने बताया कि मेरे पापा की तबीयत बहुत खराब है, जल्दी से आ जाओ। मैं जब घर पहुंचा तो मेरे पिता नहीं बल्कि  उनकी लाश मेरा इंतजार कर रही थी। मैंने माँ से पूछा कि उन्होने सच पहले ही क्यों नहीं बताया ? तब माँ ने कहा कि अगर मैं तुझे पहले सच बता देती तो तेरी मेहनत पर पानी फिर जाता। तेरे पिता जी का और तेरा सपना टूट जाता। मेरी माँ भले अनपढ़ है, मगर मेरे जन्म से नौ महीने पहले से मुझे जानती है.... मेरी माँ से मैं झूठ नहीं बोल सकता ...सॉरी दोस्त।“ आई ए एस दोस्त ने कहा।
"सर ! आज समझ गया कि आपकी कामयाबी के पीछे माँ है। माँ से अच्छा झूठ कोई नहीं बोल सकता।" उसने सेल्यूट किया और कमरे से बाहर निकल गया।

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शनिवार, 16 जुलाई 2022

समय चक्र

 

एक दिन स्कूल में हम बच्चे ईंट ढो रहे थे। पता नहीं कैसे हमारे हाथ से ईंट छूटी उसके कपड़ो पर गिर गई। चोट तो नहीं लगी, लेकिन वह बोला जितने के सारा कपड़ा है तुम्हारा, उतने का मेरा यह सूट है। संभव है कि वह अगर मुझे  जानता,  तो न कहता , क्योंकि जिस पिता के हम पुत्र थे उनकी सामाजिक  - आर्थिक रूप से प्रतिष्ठा थी।

हम घर आये तो बहुत गुस्से में थे। कल जायेंगें तो बुलाकर बतायेगें की हम कौन है। दीदी , भाई सब ने बोला ,  हा एकाध झापड़ रख भी देना। पिताजी सुन रहे थे , कुछ बोले नहीं।
सुबह जब मैं जाने लगा तो पिताजी ने कहा  आज काम है। स्कूल मत जाओ , हम बोले -  नहीं , उस मैक्स को कहकर आ जायेंगें।

वह बोले यदि इसका उत्तर देने तुम जा रहे हो तो एक और कर्म पैदा कर रहे हो। एक दिन वह आयेगा तुम्हारे पास , तभी कह देना।
हम बोले वह मेरे पास क्यों आयेगा ? इतना धनी आदमी है, मेरी उसको क्या जरूरत है।
वह बोले इस जगत का एक ही शास्वत सिद्धांत है। वह है  कर्म का सिद्धांत। उसने जो कहा है , वही तुम्हारे पास लेकर आयेगा।

यह बात हम भी भूल गये।
ध्यान ही नहीं रहा।
अभी कुछ वर्ष पूर्व जब पिताजी थे। हम और जनरल मैनेजर साहब घर गये थे। पिताजी का टेस्ट कराने के लिये SRL में फोन किया।
सैंपल लेने वाला आया।
उसने ब्लड सैंपल लिया। पिताजी का पैर छुआ।
हमसे बोला - डॉक्टर भइया पहचान नहीं रहे होंगे।
हम आपके साथ हाई स्कूल में पढ़े है।
वह मैक्स ही था।
हम पूछे - और बताओ ?
कहा , कोई ठीक ठाक जॉब मिल जाती तो ठीक था। बाबू जी से कई बार मिले थे।
हम पिताजी कि तरफ देखे , वह गम्भीर मुद्रा बैठे थे।
हम कहे यार मेरे पास तो नहीं है जॉब , लेकिन भाई है, इन्हीं से कहते है।
मैनेजर साहब मैक्स से बोले कि ठीक है। अपना बॉयोडाटा भेज देना।

जब वह चला गया तो पिताजी कहे , वह आया था तुमने उस बात का कोई उत्तर नहीं दिया।
हम बोले मैं तो आश्चर्य में हूँ , करोड़पति आदमी कैसे सड़क पर आ गया।

(रविशंकर जी के) पिताजी बोले , कर्म छोटा बड़ा नहीं होता। महत्वपूर्ण यह है कि जीवन चक्र में वह तुमसे मिला।

जिस जगत को तुम लोग अव्यवस्थित समझते हो , वह बहुत व्यवस्थित है। यह शिक्षा तुम सभी के लिये है। अपने कर्मो , वचनों को ऐसा मत बनाओ जो किसी को पीड़ा दे।

तुम्हारे धर्म कि सारी शिक्षा यही है कि :

"अहंकार का परिष्करण करो, अंततः त्याग दो। सारे मानवीय गुण स्वयं आ जायेंगें।।"

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सोमवार, 11 जुलाई 2022

भीतर से

 

       *💠अपने एकमात्र वास्तविक गुरू 'अंतस' की आवाज ऐसे सुनें !*
          

         _अगर महज 90 दिन कोई सिर्फ एक घंटा चुप बैठकर प्रतीक्षा कर सके धैर्य से, तो उसे भीतर की आवाज का पता चलना शुरू हो जाएगा।_
       एक बार भीतर का स्वर पकड़ लिया जाए, तो आपको फिर जिंदगी में किसी से सलाह लेने की जरूरत न पड़ेगी।

   गीता कहती है - स्वधर्में निधनं श्रेय:! स्वधर्म यानी हिन्दू- मुस्लिम नहीं, आपके लिए स्वाभाविक धर्म. रेडीमेड नहीं, मौलिक धर्म.
     _तो जब भी जरूरत हो, आंख बंद करें और भीतर से सलाह ले लें; पूछ लें भीतर से कि क्या करना है।  ऐसा कर के स्वधर्म की यात्रा पर आप चल पड़ेंगे।_
      भीतर से ही स्वधर्म की ही आवाज आती है। भीतर से कभी परधर्म की आवाज नहीं आती। परधर्म की आवाज सदा बाहर से आती है।

      जो व्यक्ति अपने भीतर की इनर वॉइस, अंतर्वाणी को नहीं सुन पाता, वह व्यक्ति कभी स्वधर्म के तप को पूरा नहीं कर पाएगा। यह जो स्वधर्मरूपी यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, यह वही व्यक्ति पूरी कर पाता है, जो अपने भीतर की अंतर्वाणी को सुनने में सक्षम हो जाता है।
   _लेकिन सब हो सकते हैं, सबके पास वह अंतर्वाणी का स्रोत है।_
     जन्म के साथ ही वह स्रोत है, जीवन के साथ ही वह स्रोत है। बस, हमें उसका कोई स्मरण नहीं।

    हमने कभी उसे टैप भी नहीं किया; हमने कभी उसे खटकाया भी नहीं; हमने कभी उसे जगाया भी नहीं।
हमने कभी कानों को प्रशिक्षित भी नहीं किया कि वे सूक्ष्म आवाज को पकड़ लें।
    _जीसस या बुद्ध या महावीर भीतर की आवाज से जीते हैं। भीतर की आवाज जो कह देती है वही…।_
        इसमें एक बात और आपको खयाल दिला दूं कि भीतर की आवाज एक बार सुनाई पड़नी शुरू हो जाए, तो आपको अपना गुरु मिल गया।
    _वह गुरु भीतर बैठा हुआ है। लेकिन हम सब बाहर गुरु को खोजते फिरते हैं। गुरु भीतर बैठा हुआ है।_

परमात्मा ने प्रत्येक को वह विवेक,
वह अंतःकरण,
वह कांसिएंस,
वह अंतर की वाणी दी है, जिससे अगर हम पूछना शुरू कर दें, तो उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं।
   _वे उत्तर कभी भी गलत नहीं होते। फिर वह रास्ता बनाने लगता है भीतर का ही स्वर, और तब हम स्वधर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं।_
     अंतर्वाणी को सुनने की क्षमता ही स्वधर्मरूपी यज्ञ का मूल आधार है।

    कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि मैंने इसके पहले दो यज्ञ कहे, अब यह तीसरा यज्ञ कि स्वधर्मरूपी यज्ञ को भी यदि कोई पूरा कर ले, तो प्रभु के मंदिर में उसकी पहुंच, सुनवाई हो जाती है; द्वार खुल जाते हैं; वह प्रवेश कर जाता है।
    _लेकिन लगेगा कि शायद यह सरल हो, यह स्वधर्मरूपी यज्ञ! कि ब्राह्मण अपनी पोथी पढ़ता रहे; चंदन, तिलक-टीका लगााता रहे; हवन-यज्ञ करवाता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है।_
  कि शूद्र सड़क पर झाडू लगाता रहे, कि गंदगी ढोता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है।
  कि क्षत्रिय युद्ध में लड़ता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है।
     _नहीं; यह बहुत बाहरी और ऊपरी बात है। स्वधर्म की गहरी बात तो तभी पता चलेगी, जब भीतर की आवाज…।_
       कोई भी व्यक्ति अगर तेईस घंटे काम की दुनिया से हटाकर एक घंटा अपने लिए निकाल ले–ज्यादा निकाल सकें, और अच्छा। कभी वर्ष में पंद्रह दिन, तीन सप्ताह निकाल सकें इकट्ठे, तो और भी अच्छा।
      _धीरे-धीरे भीतर की आवाज साफ होने लगे, तो आपकी जिंदगी में भूल-चूक बंद हो जाएगी। क्योंकि तब जिंदगी परमात्मा से चलने लगती है, आपसे नहीं चलती।_
        फिर गुलाब का फूल गुलाब ही होता है, फिर कमल होने की कोई आकांक्षा नहीं होती।
     _जिस दिन भीतर की वाणी से चला हुआ जीवन पूरा खिलता है, उस दिन यज्ञ पूरा हो गया–स्वधर्मरूपी यज्ञ।_
  
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रविवार, 10 जुलाई 2022

सर्वत्र ईश्वर

 



  उस दिन सवेरे आठ बजे मैं अपने शहर से दूसरे शहर जाने के लिए निकला । मैं रेलवे स्टेशन पँहुचा , पर देरी से पँहुचने के कारण मेरी ट्रेन निकल चुकी थी । मेरे पास दोपहर की ट्रेन के अलावा कोई चारा नही था । मैंने सोचा कही नाश्ता कर लिया जाए ।
बहुत जोर की भूख लगी थी । मैं होटल की ओर जा रहा था । अचानक रास्ते में मेरी नजर फुटपाथ पर बैठे दो बच्चों पर पड़ी । दोनों लगभग 10-12 साल के रहे होंगे ।बच्चों की हालत बहुत खराब थी ।
कमजोरी के कारण अस्थि पिंजर साफ दिखाई दे रहे थे । वे भूखे लग रहे थे । छोटा बच्चा बड़े को खाने के बारे में कह रहा था और बड़ा उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था । मैं अचानक रुक गया । दौड़ती भागती जिंदगी में पैर ठहर से गये ।
जीवन को देख मेरा मन भर आया । सोचा इन्हें कुछ पैसे दे दिए जाएँ । मैं उन्हें दस रु. देकर आगे बढ़ गया ।  तुरंत मेरे मन में एक विचार आया कितना कंजूस हूँ मैं ! दस रु. का क्या मिलेगा ? चाय तक ढंग से न मिलेगी ! स्वयं पर शर्म आयी फिर वापस लौटा । मैंने बच्चों से कहा - कुछ खाओगे ?
बच्चे थोड़े असमंजस में पड़ गए ! जी । मैंने कहा बेटा ! मैं नाश्ता करने जा रहा हूँ , तुम भी कर लो ! वे दोनों भूख के कारण तैयार हो गए । मेरे पीछे पीछे वे होटल में आ गए । उनके कपड़े गंदे होने से होटल वाले ने डांट दिया और भगाने लगा ।
मैंने कहा भाई साहब ! उन्हें जो खाना है वो उन्हें दो , पैसे मैं दूँगा ।होटल वाले ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा..! उसकी आँखों में उसके बर्ताव के लिए शर्म साफ दिखाई दी ।
बच्चों ने नाश्ता मिठाई व लस्सी माँगी । सेल्फ सर्विस के कारण मैंने नाश्ता बच्चों को लेकर दिया । बच्चे जब खाने लगे , उनके चेहरे की ख़ुशी कुछ निराली ही थी । मैंने भी एक अजीब आत्म संतोष महसूस किया । मैंने बच्चों को कहा बेटा ! अब जो मैंने तुम्हे पैसे दिए हैं उसमें एक रु. का शैम्पू ले कर हैण्ड पम्प के पास नहा लेना ।
और फिर दोपहर शाम का खाना पास के मन्दिर में चलने वाले लंगर में खा लेना ।मैं नाश्ते के पैसे चुका कर फिर अपनी दौड़ती दिनचर्या की ओर बढ़ निकला ।
वहाँ आसपास के लोग बड़े सम्मान के साथ देख रहे थे । होटल वाले के शब्द आदर में परिवर्तित हो चुके थे । मैं स्टेशन की ओर निकला , थोडा मन भारी लग रहा था । मन थोडा उनके बारे में सोच कर दु:खी हो रहा था ।
रास्ते में मंदिर आया । मैंने मंदिर की ओर देखा और कहा - हे भगवान ! आप कहाँ हो ? इन बच्चों की ये हालत ! ये भूख आप कैसे चुप बैठ सकते हैं  !
दूसरे ही क्षण मेरे मन में विचार आया , अभी तक जो उन्हें नाश्ता दे रहा था वो कौन था ? क्या तुम्हें लगता है तुमने वह सब अपनी सोच से किया ? मैं स्तब्ध हो गया ! मेरे सारे प्रश्न समाप्त हो गए ।
ऐसा लगा जैसे मैंने ईश्वर से बात की हो ! मुझे समझ आ चुका था हम निमित्त मात्र हैं । उसके कार्य कलाप वो ही जानता है , इसीलिए वो महान है !
भगवान हमें किसी की मदद करने तब ही भेजता है , जब वह हमें उस काम के लायक समझता है ।यह उसी की प्रेरणा होती है । किसी मदद को मना करना वैसा ही है जैसे भगवान के काम को मना करना ।
खुद में ईश्वर को देखना ध्यान है ! दूसरों में ईश्वर को देखना प्रेम है !

ईश्वर को सब में और सब में ईश्वर को देखना ज्ञान है....!!

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शनिवार, 9 जुलाई 2022

दुर्बल को ना सताये

 

बेबस लाचार की बद्दुआ भी लगती है:

"अबे ढोंगी तू काहे का संत है! पाखंडी चल भाग यहाँ से…."

हम सभी परिजन मंदिर के प्रांगण में बैठे अन्नकूट महोत्सव के उपलक्ष्य में आयोजित भंडारा प्रसादी ग्रहण कर रहे थे की तभी ज़ोर से ये वाली आवाज़ आयी।

उस समय पंगत में कोई पैंतीस चालीस श्रद्धालु प्रसाद ग्रहण कर रहे थे, वे सब के सब भोजन करना छोड़कर एकदम से चौंक गए और आवाज़ वाली ओर देखने लगे।

इतने में ही दिखा की एक वृद्ध वैरागी बाबा जिन्होंने भगवा दुपट्टा और धोती धारण कर रखा था, माथे पर तिलक और कांधे पर एक पुराना सा कटा फटा झोला टाँग रखा था, वे बदहवास से भागते हुए भंडारघर से बाहर निकलते हुए आए।

उनके पीछे पीछे ही एक टिपिकल छुटभैया सफेद पेंट शर्ट धारी स्थूलकाय व्यक्ति जिसने दो सोने की चेन तथा अनेक अंगूठियाँ हाथों में पहन रखी थी, वो अपशब्दों का प्रयोग करता हुआ आया और बलपूर्वक वैरागी बाबा का झोला छीनने लगा…

"चल दिखा तेरा झोला पाखंडी! बता कहाँ छुपा रखा है तूने वो एक किलो घी…"

और वो बाबा निरीह आँखों से हाथ जोड़े बस ये कहते रहे:

"सब तलाश ले बाबू सब तलाश ले..मैंने तेरा घी तेल हाथ भी नही लगाया…."

अपने हल्के से दो कौड़ी के राजमद में चूर वो चंदाखोर छुटभैया जैसे ही बाबा के साथ हाथपाई करने पर आमादा हुआ वैसे ही बड़े भैया, मैं और चार पाँच लोग तुरंत उठकर वहाँ गए और उसको खींचकर बाबा से अलग किया।

पाँच छह सौ रुपये मात्र के घी के लिए इतना आक्रोश! शायद असहायों को पीड़ित करने में ही इन छुटभैयों का अहं तुष्ट होता होगा तभी एक संत पर हाथ उठाने तक का दुःसाहस इसने कर लिय
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उन बैरागी बाबा को पास में ही एक कुर्सी पर बैठाया मैंने और पानी पिलाने लगा पर वे निर्दोष लाचार व्यक्ति इतना रो रहे थे कि उनसे पानी तक पीया नही जा रहा था।

"तू देखना ये राक्षस सुखी नही रहेगा! भगत पर बिना कारण आरोप लगाने वाले इसका परिवार समेत नाश होगा!"

सुबक सुबक कर वो बाबा बस यही बोले जा रहे थे, दो मिनट सुस्ताकर पानी पीकर वो एकदम से उठे और उस मंदिर से चले गए। फिर वापस वो कभी दिखाई नही दिए।

अब मैंने ये जो घटना बताई ना आपको ये थी दीवाली के बाद नवम्बर मध्य की।

इस समय तक छुटभैये ने भंडारों के नाम पर चंदाखोरी, नक्शे पास करवाने/काम करवाने के लिए रिश्वत, कब्जे-वसूली कर कर के एक तीन मंजिला भवन, दो फोर व्हीलर, दो दुकानें और अच्छा खासा नगद रुपया बना लिया था।

31 दिसंबर के दिन फोन आया कि छुटभैये की मृत्यु हो गयी!

बताया गया कि घर से पार्टी कार्यालय जाने के लिए निकले इतने में ही घबराहट हुई भयानक, बस वो सीना पकड़कर घर के दरवाजे पर ही बैठ गए…

और बैठे ही रह गए!

चालीस के दशक में चल रहे निरोगी व्यक्ति का एकदम से हार्ट अटैक आ जाना तो चलो समझ आता है आज की जीवनशैली को देखते हुए, पर पहले अटैक में ही पूरे हो जाना और अस्पताल तक नही पहुँच पाना थोड़ा आश्चर्यजनक लगा।

जनवरी में ही इन छुटभैये के इकलौते लड़के को पुलिस ने सट्टा खेलते हुए धर दबोचा और सलाखों के पीछे भेज दिया।
मार्च में खबर थी कि इनकी एकलौती लड़की को तलाक देने की बात चल रही थी और वो मायके में परमानेंट आ बसी थी, साथ ही इन छुटभैये की धर्मपत्नी को ब्लड कैंसर डाइग्नोसिस हुआ था।
मई में सूचना आयी की छुटभैये के चमचों ने वाहनों, नगद और दुकानों पर कब्जा जमा लिया है और बस ले दे कर वो भवन बचा है परिवार के पास।
नाश ही हुआ उसका वास्तव में और बड़ी जल्दी नाश हुआ!

हाँ किसी निर्दोष भक्त की आत्मा बिना कारण सताई जाए तो उसकी अंतरात्मा की बद्दुआ सच मे लगती है।

निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय….

कर्मों का फ़ल यहीँ भोगना है इसी धरा पर तुरंत।
(कुमार देव द्वारा बताई गई एक घटना )

सोमवार, 4 जुलाई 2022

संकेत का इंतजार क्यों

 

   चिंतन की धारा

    कुछ दिन पहले अख़बार में पढा था कि आस्ट्रेलिया मे कोई  अमीर व्यक्ति थे,काफी आकर्षक और दमदार शख्सियत! हमेशा चकाचौंध से घिरे रहते थे,तडक-भडक और ऐश से भरी जिंदगी जीते थे! महंगे जूते, ब्रांडेड कपडे और महंगी गाड़ियों के शौकीन थे,करोड़ पति थे!
          तीन साल पहले उनको पता चला कि उनको कैंसर है,उनको बहुत दुख हुआ,खुब रोए ! दुनिया फ़ानी है,अब जाकर उनको पता चला, इसी कशमकश में उन्होंने समाज सेवा करने की ठानी,उन्होंने गरीबों के लिए घर बनाएं,उनको बसाया,मरने के बाद अपनी सारी संपत्ति अपने बनाये ट्रस्ट को दान कर गुजर गये !
           कई बार मुझे समझ मे नही आता कि समाज़ सेवा और नेकी के काम करने के लिए हम  ईश्वर के संकेत का इंतजार क्यों करते रहते है ? जब तक ईश्वर हम पर  मजबूत लात नही मारता,तब तक हमारी अक्ल ठिकाने नही आती,ऐसा क्यो ?
          कुछ लोग  संक्रांति में ही दान पूण्य करने की सोचते है,ऐसा क्यो ? भला काम करने और दान देने के लिए हमे संक्रांति - नवरात्रि का इंतजार क्यो करना पडता है ? बिना  नवरात्रि, क्रिसमस, गुरू पर्व के क्या भला काम करना गुनाह है ? भलाई का काम मुहूर्त देखकर थोडी ना होते है।
        हम क्यों इंतजार मे रहते है कि हमे कैंसर हो,डायबीटीस हो,दिल की बिमारी या किडनी खराब हो,जेल जाए या कोई लाइलाज बिमारी हो और हम दान-पूण्य देकर इन बीमारियों से बचें ? अच्छे काम करने के लिए हम मरने का इंतज़ार क्यो करते है ?
     बीमारी या मौत की कगार पर पहुंच हम भला काम कर ईश्वर की नज़रों मे आना चाहते है, अपने डर को छुपाना चाहते हैँ ? इश्वर्  आप के दिखावटी  काम के पीछे छुपे मंसूबों को  पहचानता है! सुधरने के लिए हम लतखोर क्यों बने ?
         हम ऐसा काम करे ही क्यों है कि हमे अपने पाप धोने के लिए समाज सेवा करनी पड़े ?
         आप सबसे इच्छा है कि अच्छा काम करे, भला काम करें,खुल के करें,शौक से करें.... कैंसर,हृदयाघात,किडनी फ़ेल होने का इंतजार न करे,ना कि ख़ास दिन और महिनो की बाट जोहें ! सेवा व मानवता हमारा स्वभाव बनें ।
      मरने के बाद कोई देखने नही आता कि इस धरती पर उनकी तारीफ हो रही है या बुराई ? और स्वर्ग जिसने भी देखा, वो वापस यहा बताने नही आया! मरने के बाद तो अमृत का भी महत्व नही होता!...जीते जी ही अच्छा काम करें !
      
        ईश्वर द्वारा संकेत का इंतजार न करें,क्योंकि उसकी लाठी में भले आवाज नहीं होती लेकिन जब पडती है तो बहुत दर्द होता है !

       
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रविवार, 3 जुलाई 2022

कामदेव का कमाल

 

कामदेव का व्यापार विचित्र है। न जाने कब और कैसे वे दो नितांत अपरिचित व्यक्तियों के मन में कामभाव उत्पन्न कर देते हैं।

वररुचि नामक एक विद्वान युवक नगर भ्रमण के लिए निकला तो चलते-चलते किसी गुरुकुल के आगे से गुजरा। वहां गुरुकुल के अध्यक्ष वर्ष के छोटे भाई उपवर्ष की पुत्री उपकोषा अपनी सखियों के साथ हँसी-ठिठोली कर रही थी। उपकोषा अतीव सुंदरी थी। वररुचि वापस घर लौटा पर रात भर उस सुंदरी के स्वप्नों में ही खोया रहा। अगले दिन वह पुनः उसी स्थान पर गया। वह लगभग रोज ही जाने लगा और चोरी-छिपे उस अप्सराओं से भी सुंदर युवती के दर्शन करने लगा। एक दिन उपकोषा की एक सखी उसके सामने आई और बताया कि उपकोषा भी उससे प्रेम करती है। वररुचि ने इसे अपना सौभाग्य माना, पर यह भी कहा कि यह मिलन अभिभावकों की सम्मति से होना चाहिए। वररुचि की ऐसी इच्छा जान उपकोषा ने अपने माता-पिता को सब कुछ बता दिया। अंततः उन दोनों का विवाह हो गया।

कुछ वर्षों बाद गुरु वर्ष के गुरुकुल में एक शिष्य हुआ, पाणिनि। अत्यंत अल्पबुद्धि पाणिनि को गुरुमाता ने परामर्श दिया कि वह शंकर की तपस्या करे और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करे। पाणिनि ने तपस्या की और प्रज्ञावान होकर वररुचि को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। वररुचि पराजित हुआ और लज्जित होकर हिमालय चला गया, वहां जाकर उसने शंकर की तपस्या आरम्भ कर दी। वररुचि जाते हुए कुछ धन एक वणिक के पास छोड़ गया था, जिससे उसकी पत्नी को कोई समस्या न हो।

इधर उपकोषा ने भी व्रत लिया और नित्य गंगास्नान कर शिव की आराधना करने लगी। वणिक ने उसे कभी कोई धन नहीं दिया। वह विपन्न होती जा रही थी, पर व्रत करती रही। एक बार वह नदी में स्नान कर रही थी। निकट ही कहीं राजसचिव, राजपुरोहित और नगरपाल भी थे, जो उसके यौवन को देख कामदग्ध हो गए। वह सुंदरी जब अपने घर को लौट रही थी, तब पहले राजसचिव ने, फिर अगले मोड़ पर राजपुरोहित ने और अगले मोड़ पर नगरपाल ने उससे अपनी इच्छा व्यक्त की।

पति की अनुपस्थिति में वह अबला कुछ कर नहीं सकती थी, और यदि अधिक भाव दिखाती तो उसपर बलात्कार भी हो सकता था अतः उसने उन तीनों को ही दो दिन बाद अलग-अलग समय पर रात में घर पर आने का निमंत्रण दे दिया। इधर वह वणिक भी बहुत दिनों से उसके फेर में था, अतः उसे भी रात्रि के अंतिम पहर में बुला लिया।

तय समय पर राजसचिव आया। उपकोषा ने उसे स्नान कर आने को कहा। स्नानागार में प्रकाश नहीं था, पर दो सखियां थी जिन्होंने राजसचिव को स्नान करवाया और तौलिए से उसे रगड़-रगड़ कर पोछा। तौलिए में अलकतरा लगा था, अतः वह सचिव पूर्णतः काला हो गया।

तभी राजपुरोहित आ गया। राजपुरोहित का भय दिखाकर सखियों ने नग्न राजसचिव को एक बक्से में छुपा दिया। फिर राजपुरोहित को भी उसी भाँति स्नान करवाया गया और नगरपाल के आ जाने पर उसे भी उसी बक्से में बंद कर दिया गया। ठीक समय पर उस वणिक के आ जाने से नगरपाल भी अंततः उसी बक्से में बंद कर दिए गए। बक्से में तीनों पुरुष, पूर्णतः नग्न एक-दूसरे से चिपके हुए पर एक-दूसरे से अनजान, स्वयं का भेद न खुले इसलिए चुपचाप बैठे रहे।

उपकोषा वणिक को उस बक्से के पास ले आई और पूछा कि मैं आपको क्यों स्वीकार करूँ। वणिक ने कहा कि यदि वह भोग हेतु सहमत होती है तो वह उसके पति द्वारा दिये गए समस्त धन को उसे सौंप देगा। उपकोषा ने उसे भी स्नान हेतु भेज दिया। अभी वह स्नान से निपटा ही था कि सुबह हो गई।

उसे धक्के मारकर निकाल दिया गया। पूर्णतः काला और पूर्णतः नग्न वह वणिक लोगों के उपहास का पात्र बनते हुए  जैसे-तैसे अपने घर पहुँचा।

उधर उपकोषा राजा के समक्ष उपस्थित हुई और वणिक पर धन हड़पने का दोष लगाया। वणिक को बुलाया गया, और उसने उपकोषा को झूठा बताया। उपकोषा ने कहा कि इसने मेरे घर के बक्से के सम्मुख अपने मुख से यह स्वीकार किया था। इस बात का साक्षी वह बक्सा है। उसे यहां लाया जाए और पूछा जाए।

बक्से को लाया गया और उससे पूछा गया। अंदर बैठे तीनों जन उपकोषा की धमकी सुन डर गए और सब सच उगल दिया। वणिक को सारा धन वापस करना पड़ा, उसे सजा हुई और तीनों कामदग्ध पुरुषों को राज्य से निष्कासित कर दिया गया।

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शनिवार, 2 जुलाई 2022

लेन देन

 


एक भिखारी था ! रेल सफ़र में भीख़ माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख़ माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा ? 
वह उस सेठ से भीख़ माँगने लगा ?

भिख़ारी को देखकर उस सेठ ने कहा, “तुम हमेशा मांगते ही हो , क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो ?"

भिख़ारी बोला, “साहब मैं तो भिख़ारी हूँ , हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ , मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ ?"

सेठ ने कहा कि "जब तुम किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है ? मैं एक व्यापारी हूँ और लेन-देन में ही विश्वास करता हूँ ?

अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हे बदले में कुछ दे सकता हूँ ?"

तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था। वह सेठ उस ट्रेन से उतरा और चला गया ?

इधर भिख़ारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। सेठ के द्वारा कही गयी बात उस भिख़ारी के दिल में उतर गई ?

वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ ?

लेकिन मैं तो भिखारी हूँ , किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ ? लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिये केवल मांगता ही रहूँगा ?

बहुत सोचने के बाद भिख़ारी ने निर्णय लिया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले में वह भी उस व्यक्ति को कुछ न कुछ जरूर देगा ?

लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिख़ारी है तो भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है ?

इस बात को सोचते हुये उसका पूरा दिन गुजर गया लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला ?

दुसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस-पास के पौधों पर खिल रहे थे , उसने सोचा क्यों न मैं लोगों को भीख़ के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ ?

उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिये। उन फूलों को लेकर वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता ?
उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे ?

अब भिख़ारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था ?

कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं ? वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे ,

लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी ? अब रोज ऐसा ही चलता रहा ?

एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे हैं जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी ?

वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं , आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा।

सेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिये और भिख़ारी ने कुछ फूल उसे दे दिये ? उस सेठ को भिखारी की यह बात बहुत पसंद आयी ?

सेठ ने कहा "वाह क्या बात है..? आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गये हो ?" इतना कहकर सेठ वह फूल लेकर स्टेशन पर उतर गया ?

लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिख़ारी के दिल में उतर गई ? वह बार-बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा ?

अब उसकी आँखे चमकने लगीं थीं। उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है ?

वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला , “मैं भिखारी नहीं हूँ , मैं तो एक व्यापारी हूँ ?

मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ ? मैं भी अमीर बन सकता हूँ ?

लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिख़ारी पागल हो गया है। अगले दिन से वह भिख़ारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा ?

एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उसमें से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा कि

“क्या आपने मुझे पहचाना ?”

सेठ:- “नहीं तो ! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं ?"

भिखारी:- सेठ जी.. आप याद कीजिए , हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं"?

सेठ:- मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे ?"

अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला: हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे। उसने हाथ जोड़कर कहा कि सेठ जी मैं वही भिख़ारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ ?

नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ ?

आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था , जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं ?

लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है , सेठ जी मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है। लेकिन मैं खुद को हमेशा भिख़ारी ही समझता रहा , इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था ?

और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ ? तब मैं समझा कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ ?

भारतीय ऋषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा - सोऽहं शिवोहम !! समझ की ही तो बात है...?

भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी ही रहा ? लेकिन जब उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया , वह व्यापारी बन गया ?

इसी प्रकार जिस दिन हम ठान लेंगे कि हमें उस मंजिल तक पहुंचना है , तो फिर अपनी मनचाही मंजिल तक पहुंचने से आपको कोई नहीं रोक सकता ? आप एक बार खुद से वायदा तो कीजिये ? आप एक बार खुद पर भरोसा तो कीजिये ? कोई भी ऐसा लक्ष्य नहीं जिसे आप पा न सकें...?

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