रविवार, 29 अक्टूबर 2023

कहानी दाई मां की

 

कहानी

कानी दाई माँ

मिस्टर मेहरा बहुत बड़े बिजनिस मैन थे। उनका एक एक मिनिट कीमती था। वो इस वक्त बहुत इरिटेड हो रहे थे और झूंझल खा रहे थे। वो कैसी भी परिस्थिति में पेरिस से इंडिया नहीँ आना चाहते थे। एक तो पेरिस में उनकी बिजनिस मीटिंग्स का शिड्यूल इतना टाइट था कि उनके बीच में समय निकालने का मतलब था अपना ढेर सारा नुकसान करना। दूसरा कोई ऐसा कारण भी नहीँ था कि जिसके लिए इंडिया आया जाए। अब उनकी दाई माँ बीमार पड़ गयीं तो वो क्या करें ? कितने ही डॉक्टर हैं इंडिया में। अपना इलाज करवा लें। उनका फेमिली डॉक्टर ही बहुत काबिल है। उन्हें इंडिया बुलाने की क्या ज़रूरत है ? दाई माँ पिछले पंद्रह सालों में उन्हें पच्चीस बार इंडिया बुला चुकी, मगर व्यस्तता के कारण वो एक बार भी नहीं गए।

मिस्टर मेहरा को याद आया कि जब वो छह या सात साल के थे तब एक कार एक्सीडेंट में उनकी माँ और पिताजी दोनों की डेथ हो गयी थी। वो खुद भी बुरी तरह जख्मी हो गये थे। उनकी दाई माँ, जो उनके जन्म लेने के वक्त से ही उनकी देखभाल करती थीं, और कार में साथ थीं, की एक आंख पूरी खराब हो गयी थी। उनके मम्मी पापा के गुज़र जाने के बाद दाई माँ ने ही उन्हें पाला था। मगर एक आंख वाली दाई माँ से मिस्टर मेहरा को हमेशा डर लगता था। वो उसे देख कर चीख पड़ते थे और उससे दूर दूर ही रहते थे। एक बार स्कूल में किसी दिन दाई माँ उन्हें लेने गयी तो क्लास के और बच्चे भी उन्हें देख कर डर गये। तब मिस्टर मेहरा ने उन्हें कह दिया था कि वो उनके सामने कभी न आएं। एक आँख वाली दाई माँ उसके बाद उनके सामने कभी आयी भी नहीँ। वो दूर दूर से ही उनके सारे काम करती थी। टिफिन बनाना, स्कूल ड्रेस रखना, नहाने का पानी रखना, खाना बनाना, बना कर रखना ये सारे काम वो मिस्टर मेहरा को अपना चेहरा दिखाए बिना करती थीं। कभी अपने हाथों में पाले गए बच्चे से उन्हें प्यार करना होता था तो वो मिस्टर मेहरा की फोटो को ही कर लिया करती थी। मिस्टर मेहरा के मम्मी पापा के गुज़र जाने के 12 साल तक मिस्टर मेहरा को उनकी दाई माँ ने ऐसे ही पाला। मिस्टर मेहरा उन्हें कानी दाई माँ कहते थे। जब कभी भी गलती से वो कानी दाई माँ का चेहरा देख लेते थे तो चार पांच रातें डर के मारे उन्हें नींद नहीं आती थी।
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पापा के बैंक में छोड़े हुए पैसे से मिस्टर मेहरा बीस साल की उम्र में विदेश आ गए और एक सफल बिजनिस मैन बन गए। 20 साल की उम्र अब 35 साल हो गयी। इन पंद्रह सालों में पच्चीस बार कानी दाई माँ को मना करने वाले मिस्टर मेहरा आज भी इंडिया जाने के लिए मना करने वाले थे मगर उनके फैमिली डॉक्टर का फोन आया। उसने कहा, 'इस बार कुछ अर्जेंट है। इंडिया आना ही पड़ेगा।'

जैसे तैसे अपनी बिजनिस मीटिंग्स एडजस्ट करके मिस्टर मेहरा इंडिया आये। पता लगा उनकी कानी दाई माँ अब नहीं रही। शमशान घाट पर मुर्दा फूंकने की रस्म निभा कर वो जल्दी से अपने फेमिली डॉक्टर के पास आये और झल्लाये। 'ये मुर्दा जिस्म को आग देने का काम तो कोई भी कर सकता था फिर मुझे क्यों बुलाया ? मेरा कितना नुकसान हुआ होगा वहां, कुछ अंदाज़ा है आपको ? और जिस चेहरे को मैं देखता नहीँ था, जिससे मुझे डर लगता था उसे भी दिखवा दिया आपने। अब मुझे चार पांच रातों तक डर लगेगा। आप समझते नही हैं।' डॉक्टर मुस्कुराया। बोला, 'चार पांच रातों तक नहीँ मिस्टर मेहरा, अब आपको आजीवन डर लगेगा। आपको कानी दाई माँ से नहीँ, खुद अपने आप से डर लगेगा। आप अपना चेहरा नहीं देख पाएंगे आईने में।' मिस्टर मेहरा गुस्से में फट पड़े, 'ये क्या कह रहे हैं आप ?' फैमिली डॉक्टर ने अपनी टेबल की दराज से एक फाइल निकाली और मिस्टर मेहरा को पकड़ाई। बोले, 'कानी दाई माँ ने मुझे कसम दी थी कि ये फाइल मैं आपको न दिखाऊँ। पर अब वो ही नहीँ रहीं तो उनकी कसम भी नहीं रही। देख लीजिए।' मिस्टर मेहरा असमंजस से भरे फाइल देखने लगे।

फाइल में एक कार एक्सीडेंट की रिपोर्ट दर्ज थी। उस कार एक्सीडेंट में एक पति पत्नी की मृत्यु हो गयी थी और उनके 6 साल के बच्चे की एक आंख इंजर्ड हो गयी थी। बाद में एक जटिल ऑपरेशन कर के बच्चे की आंख लगाई गई और बच्चे को आँख देने वाली उस बच्चे की दाई माँ थी। रिपोर्ट पढ़ते पढ़ते मिस्टर मेहरा के हाथ पैर काँपने लगे। आँखों के आगे अंधेरा छा गया। उनका दिमाग सुन्न हो गया। पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गई। उन्होंने अपना माथा थाम लिया और वहीं एक कुर्सी पर बैठ गए। फैमिली डॉक्टर ने उनके आगे पानी का ग्लास रख दिया। मिस्टर मेहरा कुछ पल यूंही बैठे रहे और फिर एकदम से सरपट शमशान घाट की ओर दौड़ गए।

शमशान घाट पर जहां उनकी कानी दाई माँ जली थीं वहां वो घँटों दाई माँ, दाई माँ चीखते रहे। चिता की राख को हाथों से हटा हटा देखते रहे और उससे लिपट कर रोते रहे। कानी दाई माँ उन्हें नहीं दिखनी थी, सो नहीं दिखीं। मिस्टर मेहरा सुबकते, हिचकियाँ भरते ये सोचते रहे कि दाई माँ कानी थी पर वो खुद इतने साल अंधे रहे, और अब आगे भी वो अंधे ही रहेंगे, क्योंकि जब जब वो आईना देखेंगे तो उस एक आँख से नज़र कैसे मिला पाएंगे जो उनकी नहीं है, कानी दाई माँ की है।
कथा - शोशल मीडिया द्वारा ।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

रावण महान था ????

 

"रावण तो महान था। उसने सीता का अपहरण अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए किया था। और उसने सीता को ससम्मान लंका में रखा, कोई जबरदस्ती नहीं की।"

बस दो-चार दिन में आपको कई जगहों पर ऊपर लिखी बातें पढ़ने को मिलेंगी। और विश्वास जानिए, हममें से अधिकांश ऐसे हैं जो इन बातों पर कहते मिल जाते हैं, बल्कि उनका दृढ़ विश्वास है कि ऐसे लोगों और ऐसे लेखों को इग्नोर कर देना चाहिए।

जबकि होता यह है कि आम जनता जो अपने दैनिक कामों में, रोजमर्रा की जिंदगी में उलझी है, वह इतनी सरल और स्पष्टता से लिखी बात को, इस लॉजिक को सही मान लेती हैं।

पर क्या यह सब सही है? सच में रामायण में ऐसा है?

रामायण के अनुसार, शूर्पणखा बहुत ही गंदी, घिनौनी दिखने वाली, गंदी सोच और व्यवहार वाली स्त्री है। वह वन में सुंदर शरीर के स्वामी राम को देखती है तो उनपर मोहित हो जाती है। माया से (मतलब मेकअप वगैरह करके) राम के पास आती है और उन्हें प्रपोज करती है। यहाँ तक कोई बुराई नहीं है। किसी को कोई पसन्द आ जाये तो प्रपोज करना गलत नहीं है। पर राम द्वारा यह बताने पर कि वे अयोध्या के राजकुमार हैं और वनवास मिलने के कारण अपनी पत्नी और भाई के साथ वन में आए हैं, शूर्पणखा सीता और लक्ष्मण को मार देने की बात कहती है, ताकि राम इत्मीनान से उसके साथ मौज कर सकें। वो सीता को चिपके पेट वाली, कमजोर, बदसूरत वगैरह भी कहती है।
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ऐसी बातों को सुनकर, मतलब कोई आपकी पत्नी की बेइज्जती करे, उसे और आपके भाई को मारने की बात करे, तो किसी को भी गुस्सा आएगा। पर समझदार लोग इन बातों को किसी पागल का प्रलाप मानकर हँसी में उड़ा देते हैं।

ऐसी बातों को सुनकर राम परिहास में कहते हैं कि वे तो अपनी पत्नी के साथ हैं, लक्ष्मण नहीं हैं, अतः वो लक्ष्मण से पूछ ले। लक्ष्मण की सहमति हो तो उनसे विवाह कर लें। फिर वो लक्ष्मण के पास जाती है और उन्हें प्रपोज करती है। लक्ष्मण उत्तर देते हैं कि वे तो राम और सीता की सेवा करते हैं, अगर शूर्पणखा को अपना लेंगे तो उसे भी राम और सीता की सेवा करनी पड़ेगी।

दोनों पुरुषों द्वारा नकारे जाने पर वह गुस्से में आकर सीता को मारने दौड़ती है, जिसपर राम शूर्पणखा को दंड देने के लिए लक्ष्मण को आदेश देते हैं और लक्ष्मण उसके कान और नाक काट लेते हैं।  (अरण्यकाण्ड, 17वाँ और 18वाँ सर्ग)

बताइए। प्रपोजल पर कोई दिक्कत नहीं थी किसी को, धमकी तक तो बर्दाश्त कर लिया, पर अटेम्प टू मर्डर पर सजा तो मिलेगी न?

फिर शूर्पणखा दंडकारण्य के गवर्नर (रावण के ऑक्युपाइड साम्राज्य के उस क्षेत्र के गवर्नर) खर के पास जाती है। खर अपने सेनापतियों दूषण और त्रिशरा तथा चौदह हजार सेना के साथ राम-लक्ष्मण को मारने आता है, जिन्हें अकेले राम लगभग सवा घण्टे (तीन घड़ी) में निपटा देते हैं। [एक मुहूर्त = दो घड़ी, एक घड़ी = 24 मिनट]

उन राक्षसों में से एक अकम्पन जान बचाकर निकल जाता है और लंका पहुँचकर इस युद्ध के बारे में रावण को बताता है। रावण राम-लक्ष्मण को मारने और सीता को उठा लाने की तैयारी करता है। वह मारीच के पास जाता है। मारीच उसे राम की ताकत बताता है, बताता है कि राम से लड़कर क्यों अपनी जान खामख्वाह गंवाना चाहते हो, बेमौत मरोगे, इत्यादि। यह सब सुनकर रावण ठंडा हो जाता है और अपने महल लौट जाता है। (अरण्यकाण्ड, 31वाँ सर्ग)

कुछ समय (दिन, या हफ्ते) बाद शूर्पणखा रावण के पास आती है और सीता जी के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन करती है। ऐसा वर्णन कि मैं उसे यहाँ लिख नहीं सकता। कहती है कि उसने सोचा कि ऐसी सुंदर स्त्री तो उसके भाई रावण के पास होनी चाहिए, तो वह अपने भाई के लिए उस स्त्री को उठाने गई, और दुष्ट लक्ष्मण ने इस बात पर उसके कान-नाक काट लिए। (अरण्यकाण्ड, सर्ग 34, श्लोक 21)

बताइए, वह अपनी बात, अपनी कामपिपासा छुपा ले गई, सीता को मारने चली थी, और रावण को बता रही है कि वो तो रावण के लिए सीता को उठा रही थी। ऐसी तो सत्यवादी बहन थी वह।

रावण शूर्पणखा का बदला लेने के लिए नहीं, बल्कि स्त्रियों के प्रति अपनी भूख के कारण सीता को किडनैप करने गया था।

वह पहले भी कई स्त्रियों का हरण कर चुका था। वो यह बात खुद कहता है कि मैं इधर-उधर से बहुत सारी सुंदर स्त्रियों को हर लाया हूँ (अरण्यकाण्ड, 48वां सर्ग, श्लोक 28)। क्या इन बहुत सारी सुंदर स्त्रियों के पतियों ने भी उसकी बहन का अपमान किया था?

उसने भोगवती नगरी में नागराज वासुकी को हराया था। तक्षक को हराकर उसकी पत्नी को उठा लाया था। पर सीता के मामले में, अपने समान बलशाली खर, दूषण और त्रिशरा, और चौदह हजार राक्षसों का राम द्वारा बस सवा घण्टे में वध कर दिए जाने के कारण, फिर मारीच के समझाने के कारण उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह राम से लड़कर सीता को उठा सके। तो उस तथाकथित महान रावण ने चोरों की भाँति सीता का हरण किया। बेचारे मारीच की बलि चढ़ा दी, जो पहले भी राम से दो बार पिट चुका था।

किडनैप कर लिया, फिर भी सीता के साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, तो इसपर भी सुन लीजिए।

जब रावण सीता जी का हरण कर लंका लाया और अपने महल के ऐश्वर्य को दिखा-दिखाकर उन्हें ललचाने का, बात मान जाने का प्रलोभन दे रहा था, तब माता सीता उसे खूब खरीखोटी सुनाने के बाद कहती हैं कि तू इस संज्ञाशून्य शरीर को बांधकर रख या काट, मैं खुद ही इस शरीर और जीवन को नहीं रखना चाहती। (अरण्यकाण्ड, 56वां सर्ग, श्लोक 21)

मतलब क्या हुआ इस बात का? यही न कि तू मेरे निकट आएगा उससे पहले ही मैं मर जाऊंगी।

इसपर 'स्त्री को ससम्मान रखने वाला महान रावण' कहता है कि ठीक है, मैं तुझे 12 महीने का समय देता हूँ। इतने समय में तू अपनी मर्जी से मेरे पास आ जाना। और अगर 12 महीने बाद भी तू मेरे पास नहीं आई तो मेरे सुबह के भोजन के लिए रसोइए तुझे काटकर पका देंगे। (अरण्यकाण्ड, 56वां सर्ग, श्लोक 24, 25)

कितना महान था न रावण?
----------अजीत प्रताप सिंह जी का लेखन

सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

चिन्तन

 

चिन्तन मनन की बातें

संस्कार का निर्माण कैसे हो ?

लंदन में ही एक बहन हैं फ़ेसबुक मित्र उन्होंने यह प्रश्न किया है । उनके दो बच्चे बड़े हो रहे हैं और वे चाहती हैं कि पश्चिमी नंगेपन का उनके बच्चों पर कम से कम प्रभाव पड़े ।

प्रसन्नता यह है कि वे बहन स्वयम् भी पढ़ी लिखी हैं और इससे बड़ी प्रसन्नता यह है कि वे लंदन तथा पश्चिमी नंगेपन की भयावहता को समझ रही हैं । तीसरी प्रसन्नता यह है कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा कि प्रश्न पूछा ।

मित्रों , सनातन हिन्दू धर्म के एक एक शब्द पारिभाषिक हैं । एक एक शब्दों पर हमारे महात्माओं विद्वानों ऋषियों ने मंथन किया है और एक एक परिभाषा आधुनिक विज्ञान चकित होकर देख रहा है ।

तो संस्कार ( अथवा विकार ) का निर्माण कैसे होता है ?

क्या आँख से किसी वस्तु को देखने से संस्कार का निर्माण हो सकता है ? उत्तर है “ नहीं “ । हमारे दिनेश चन्द्र सरोज जी दिल्ली में हैं और उन्होंने भी स्वयम् सैकड़ों बार देखा होगा कि एक विशेष समुदाय फल सब्ज़ियों भोजन इत्यादि में “ थू+क” देता है ।

क्या ऐसा देखने से सरोज जी में वैसा संस्कार पड़ गया ? नहीं न !

अब आते हैं , मन पर । क्या मन के उपर बार बार देखने से संस्कार पड़ता है ? उत्तर है कि नहीं । जैसे आँखें क्षणिक हैं वैसे ही मन भी क्षणिक है । यह बात बौद्ध भी मानते हैं कि मन के द्वारा संस्कार ( अथवा विकार ) का निर्माण नहीं होता ।

तब कैसे होता है ?

तो इसका उत्तर है कि यह बुद्धि के द्वारा होता है ।

अब प्रश्न उठता है कि तब सभी फल सब्ज़ी अथवा भोजनालय चलाने वालों पर ऐसा संस्कार ( अथवा विकार ) पड़ चुका होता ।

इसको समझने के लिये और अंतरंग चलना पड़ेगा । बुद्धि के दो अवयव होते हैं ।

अपेक्षा बुद्धि
उपेक्षा बुद्धि..

अर्थात् कोई घटना आपके सामने घट रही है अथवा आप कोई वृतांत सुन रहे हैं । यदि आपने उसमें अपेक्षा कर दी तो संस्कार पड़ने लगेंगे और यदि उपेक्षा कर दी तो संस्कार नहीं पड़ेंगे ।

जब कोई सनातन हिन्दू धर्मी फल विक्रेता उन लोगों को क्रिया विशेष करता हुआ देखता है और उपेक्षा कर देता है तो उस पर वह संस्कार नहीं पड़ता ।

अब ठीक यही फ़ॉर्मूला..

बलात्कार
लड़की का दुपट्टा छीनना
राहजनी
चोरी चकारी
लव छेहाद

इत्यादि में लगा लें
और देख लें कि
इन सब बुराइयों में अपेक्षा बुद्धि होने के कारण
समुदाय विशेष
भारत के हर शहर गाँव में ही नहीं
इंग्लैंड अमेरिका में भी उपद्रव मचाये हुये हैं ।

उन बहन को यही समझाया कि बच्चों को बुराइयों के प्रति उपेक्षा करना सिखायें और उचित क्रियाओं के प्रति अपेक्षा । संस्कार का निर्माण होता चला जायेगा । -राजशेखर जी कहिन
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शनिवार, 14 अक्टूबर 2023

उर्मिला 32

 

उर्मिला 32

    "मेरे एक प्रश्न का उत्तर ढूंढोगी उर्मिला?" लम्बे समय से पसरी शान्ति को भंग करते हुए माता कैकई ने अपने निकट ही बैठी उर्मिला से कहा।
     "कहिये न माँ! वैसे यह आवश्यक नहीं कि हमारे पास हर प्रश्न के उत्तर हों ही..." उर्मिला ने माता की आंखों में अपनी दृष्टि गड़ाई!
      "मैं नहीं जानती कि इसका उत्तर हमें मिलेगा भी या नहीं, पर यह प्रश्न मुझे सदैव पीड़ा देता रहेगा कि नियति ने इस अपराध के लिए मेरा ही चयन क्यों किया? इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि राम को सबसे अधिक प्रेम मैंने किया है। वह महारानी कौशल्या से अधिक मेरे आँचल में पला है। मेरे दुर्भाग्य के उन चार दिनों को निकाल दो तो अब भी राम को मुझसे अधिक प्रेम कोई नहीं करता, कोई कर भी नहीं सकता। फिर मुझसे ही यह अपराध क्यों हुआ उर्मिला? मैं जानती हूँ कि कोई माया ही थी जिसने उन चार दिनों में मेरी मति फेर दी थी, अन्यथा जिस राम के चार दिन के लिए ननिहाल जाने का समाचार सुन कर मैं तड़प उठती थी, उसके लिए मैं चौदह वर्ष का वनवास मांगती? पर ईश्वर ने इस अपराध के लिए मेरा ही चयन क्यों किया?" कैकई ने जैसे पहली बार अपना मन खोल दिया था। उनके भीतर का लावा बाहर निकल रहा था।
      कुछ देर तक सोचने के बाद उर्मिला ने कहा,"इस प्रश्न का कोई एक उत्तर तो नहीं हो सकता माता! कौन जाने, भइया के जिस वनवास को हम अपने कुल के लिए अभिशाप मान रहे हों, वह संसार के लिए वरदान हो? नियति यदि भइया जैसे यशश्वी युवराज को चौदह वर्ष तक के लिए वन में ले गयी है तो उसकी कोई तो योजना होगी न! अप्रत्याशित घटनाओं के परिणाम भी अप्रत्याशित ही होते हैं माता! फिर नियति की योजनाओं को अशुभ मान कर शोक क्यों मनाना?"
      "मेरे प्रश्न को घुमाओ मत उर्मिला! मैंने यह प्रश्न तुमसे इसलिए किया है क्योंकि तुम जनकपुर की बेटी हो। तुम्हारे नगर में आध्यात्मिक विमर्शों की सबसे प्राचीन परम्परा है। तुम्हारा धर्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। मेरे प्रश्न का उत्तर ढूंढो उर्मिला, कि नियति ने मेरा ही चयन क्यों किया?"
       उर्मिला के अधरों पर एक पवित्र मुस्कान तैर गयी। कहा, "यदि मैं कहूँ कि आपके दुर्भाग्य का कारण आपका प्रेम है, तो माता? तनिक सोचिये तो! क्या चक्रवर्ती महाराज दशरथ के प्रिय सुपुत्र को संसार की कोई भी शक्ति राज से हटा कर वन में भेज सकती थी? अपने एक बाण से ताड़का और सुबाहू जैसे विकट राक्षसों का वध करने वाले भइया की आवश्यकता यदि वन में थी, तो नियति किसे माध्यम बनाती? उन्हें बल से अयोध्या से दूर नहीं किया जा सकता था, उनसे यह कार्य 'प्रेम' ही करा सकता था। और इसी लिए नियति ने उसका चुनाव किया, जिसे राम से सर्वाधिक प्रेम था और जिनसे राम को भी सर्वाधिक प्रेम था।"
       माता कैकई की आंखें खुली रह गईं! ऐसा नहीं था कि उर्मिला ने उत्तर ने उन्हें पूरी तरह संतुष्ट कर दिया था, पर वे उनसे सहमत अवश्य दिख रही थीं।

क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )
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सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

चिन्तन

 

चिन्तन मनन की बातें

जिस भूमि में जैसे कर्म किए जाते हैं ,वैसे ही संस्कार वह भूमि भी प्राप्त कर लेती है, इसलिए गृहस्थ को अपना घर सदैव पवित्र रखना चाहिए।

मार्कण्डेय पुराण में एक कथा आती है---
  
राम लक्ष्मण वन में प्रवास कर रहे थे, मार्ग में एक स्थान पर लक्ष्मण का मन कुभाव से भर गया , मति भ्रष्ट हो गयी, वे सोचने लगे - कैकेयी ने तो वनवास राम को दिया है मुझे नहीं, मैं राम की सेवा के लिए कष्ट क्यों उठाऊँ?

राम ने लक्ष्मण से कहा - इस स्थल की मिटटी अच्छी दीखती है , थोड़ी बाँध लो,लक्ष्मण ने एक पोटली बना ली,मार्ग में जब तक लक्ष्मण उस पोटली को लेकर चलते थे तब तक उनके मन में कुभाव भी बना रहता था , किन्तु जैसे ही उस पोटली को नीचे रखते उनका मन राम सीता के लिए ममता और भक्ति से भर जाता था।

लक्ष्मण ने इसका कारण रामजी से पूछा तो श्रीराम ने कारण बताते हुए कहा - भाई! तुम्हारे मन के इस परिवर्तन के लिए दोष तुम्हारा नहीं बल्कि उस मिट्टी का प्रभाव है , जिस भूमि पर जैसे काम किए जाते हैं, उसके अच्छे बुरे परमाणु उस भूमि भाग में और वातावरण में भी छूट जाते हैं।

जिस स्थान की मिटटी इस पोटली में है, वहाँ पर "सुंद और उपसुंद" नामक दो राक्षसों का निवास था, उन्होंने कड़ी तपस्या के द्वारा ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके अमरता का वरदान माँगा।

ब्रह्मा जी उनकी माँग तो पूरी करना चाहा किन्तु कुछ नियन्त्रण के साथ, उन दोनों भाइयो में बड़ा प्रेम था, अतः उन्होंने कहा कि हमारी मृत्यु केवल आपसी विग्रह से ही हो सके,ब्रह्माजी ने वर दे दिया।

वरदान पाकर दोनों ने सोचा कि हम कभी आपस में झगड़ने वाले तो है नहीं, अतः अमरता के अहंकार में देवों को सताना शुरु कर दिया।

जब देवों ने ब्रह्माजी का आश्रय लिया तो ब्रह्माजी ने तिलोत्तमा नाम की अप्सरा का सर्जन करके उन असुरों के पास भेजा।

" सुंद और उपसुंद" ने इस सौन्दर्यवती अप्सरा को देखकर कामांध हो गये और अपनी अपनी कहने लगे तब तिलोत्तमा ने कहा कि मैं तो विजेता के साथ विवाह करुँगी , तब दोनों भाईयों ने विजेता बनने के लिए ऐसा घोर युद्ध किया कि दोनो मर गये।

वे दोनों असुर जिस स्थान पर झगड़ते हुए मरे थे , उसी स्थान की यह मिटटी है, अतः इस मिटटी में भी द्वेष , तिरस्कार , और वैर के सिंचन हो गया है।
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रविवार, 8 अक्टूबर 2023

कहानी बेटा

 

कहानी

" माँ, मुझे कुछ महीने के लिये विदेश जाना पड़ रहा है।

तेरे रहने का इन्तजाम मैंने करा दिया है

तक़रीबन 32 साल के , अविवाहित डॉक्टर सुदीप ने देर रात घर में घुसते ही कहा...

" बेटा, तेरा विदेश जाना ज़रूरी है क्या ?"

माँ की आवाज़ में चिन्ता और घबराहट झलक रही थी।

" माँ, मुझे इंग्लैंड जाकर कुछ रिसर्च करनी है। वैसे भी कुछ ही महीनों की तो बात है।

" सुदीप ने कहा।

" जैसी तेरी इच्छा।

" मरी से आवाज़ में माँ बोली।

और छोड़ आया सुदीप अपनी माँ 'प्रभा देवी' को पड़ोस वाले शहर में स्थित एक वृद्धा-आश्रम में।

वृद्धा-आश्रम में आने पर शुरू-शुरू में हर बुजुर्ग के चेहरे पर जिन्दगी के प्रति हताशा और निराशा साफ झलकती थी।

पर प्रभा देवी के चेहरे पर वृद्धा-आश्रम में आने के बावजूद कोई शिकन तक न थी।

एक दिन आश्रम में बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बात कर रहे थे। उनमें दो-तीन महिलायें भी थीं।

उनमें से एक ने कहा, " डॉक्टर का कोई सगा-सम्बन्धी नहीं था जो अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया।"

तो वहाँ बैठी एक महिला बोली, " प्रभा देवी के पति की मौत जवानी में ही हो गयी थी।

तब सुदीप कुल चार साल का था।

पति की मौत के बाद, प्रभा देवी और उसके बेटे को रहने और खाने के लाले पड़ गये।

तब किसी भी रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की।

प्रभा देवी ने लोगों के कपड़े सिल-सिल कर अपने बेटे को पढ़ाया। बेटा भी पढ़ने में बहुत तेज था, तभी तो वो डॉक्टर बन सका।"

वृद्धा-आश्रम में करीब 6 महीने गुज़र जाने के बाद एक दिन प्रभा देवी ने आश्रम के संचालक राम किशन शर्मा जी के ऑफिस के फोन से अपने बेटे के मोबाईल नम्बर पर फोन किया, और कहा, " सुदीप तुम हिंदुस्तान आ गये हो या अभी इंग्लैंड में ही हो ?"

" माँ, अभी तो मैं इंग्लैंड में ही हूँ।" सुदीप का जवाब था।

तीन-तीन, चार-चार महीने के अंतराल पर प्रभा देवी सुदीप को फ़ोन करती उसका एक ही जवाब होता, " मैं अभी वहीं हूँ, जैसे ही अपने देश आऊँगा तुझे बता दूँगा।"

इस तरह तक़रीबन दो साल गुजर गये। अब तो वृद्धा-आश्रम के लोग भी कहने लगे कि देखो कैसा चालाक बेटा निकला, कितने धोखे से अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया।

आश्रम के ही किसी बुजुर्ग ने कहा, " मुझे तो लगता नहीं कि डॉक्टर विदेश-पिदेश गया होगा, वो तो बुढ़िया से छुटकारा पाना चाह रहा था।"

तभी किसी और बुजुर्ग ने कहा, " मगर वो तो शादी-शुदा भी नहीं था।"

" अरे होगी उसकी कोई 'गर्ल-फ्रेण्ड' , जिसने कहा होगा

पहले माँ के रहने का अलग इंतजाम करो, तभी मैं तुमसे शादी करुँगी।"

दो साल आश्रम में रहने के बाद अब प्रभा देवी को भी अपनी नियति का पता चल गया। बेटे का गम उसे अंदर ही अंदर खाने लगा। वो बुरी तरह टूट गयी।

दो साल आश्रम में और रहने के बाद एक दिन प्रभा देवी की मौत हो गयी। उसकी मौत पर आश्रम के लोगों ने आश्रम के संचालक शर्मा जी से कहा, " इसकी मौत की खबर इसके बेटे को तो दे दो।

हमें तो लगता नहीं कि वो विदेश में होगा, वो होगा यहीं कहीं अपने देश में।"

" इसके बेटे को मैं कैसे खबर करूँ । उसे मरे तो तीन साल हो गये।"

शर्मा जी की यह बात सुन वहाँ पर उपस्थित लोग सनाका खा गये।

उनमें से एक बोला, " अगर उसे मरे तीन साल हो गये तो प्रभा देवी से मोबाईल पर कौन बात करता था।"

" वो मोबाईल तो मेरे पास है, जिसमें उसके बेटे की रिकॉर्डेड आवाज़ है।" शर्मा जी बोले।

"पर ऐसा क्यों ?" किसी ने पूछा।

तब शर्मा जी बोले कि करीब चार साल पहले जब सुदीप अपनी माँ को यहाँ छोड़ने आया तो उसने मुझसे कहा, " शर्मा जी मुझे 'ब्लड कैंसर' हो गया है। और डॉक्टर होने के नाते मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि इसकी आखिरी स्टेज में मुझे बहुत तकलीफ होगी।

मेरे मुँह से और मसूड़ों आदि से खून भी आयेगा। मेरी यह तकलीफ़ माँ से देखी न जा सकेगी।

वो तो जीते जी ही मर जायेगी।

मुझे तो मरना ही है पर मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण मेरे से पहले मेरी माँ मरे। मेरे मरने के बाद दो कमरे का हमारा छोटा सा 'फ्लेट' और जो भी घर का सामान आदि है वो मैं आश्रम को दान कर दूँगा।"

यह दास्ताँ सुन वहाँ पर उपस्थित लोगों की आँखें झलझला आयीं।

प्रभा देवी का अन्तिम संस्कार आश्रम के ही एक हिस्से में कर दिया गया। उनके अन्तिम संस्कार में शर्मा जी ने आश्रम में रहने वाले बुजुर्गों के परिवार वालों को भी बुलाया।

*माँ-बेटे की अनमोल और अटूट प्यार की दास्ताँ का ही असर था कि कुछ बेटे अपने बूढ़े माँ/बाप को वापस अपने घर ले गये...!!*
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