सोमवार, 26 सितंबर 2022

अंतिम सच

 



    एक राजा था जिसने ने अपने राज्य में क्रूरता से बहुत सी दौलत इकट्ठा करके(एकतरह शाही खजाना )आबादी से बाहर जंगल एक सुनसान जगह पर बनाए तहखाने मे सारे खजाने को खुफिया तौर पर छुपा दिया था खजाने की सिर्फ दो चाबियां थी एक चाबी राजा के पास और एक उस के एक खास मंत्री के पास थी इन दोनों के अलावा किसी को भी उस खुफिया खजाने का राज मालूम ना था । एक रोज़ किसी को बताए बगैर राजा अकेले अपने खजाने को देखने निकला,तहखाने का दरवाजा खोल कर अंदर दाखिल हो गया और अपने खजाने को देख देख कर खुश हो रहा था,और खजाने की चमक से सुकून पा रहा था।

उसी वक्त मंत्री भी उस इलाके से निकला और उसने देखा की खजाने का दरवाजा खुला है वो हैरान हो गया और ख्याल किया कि कही कल रात जब मैं खजाना देखने आया तब शायद खजाना का दरवाजा खुला रह गया होगा, उसने जल्दी जल्दी खजाने का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और वहां से चला गया,उधर खजाने को निहारने के बाद राजा जब संतुष्ट हुआ,और दरवाजे के पास आया तो ये क्या...दरवाजा तो बाहर से बंद हो गया था,उसने जोर जोर से दरवाजा पीटना शुरू किया पर वहां उनकी आवाज सुननेवाला उस जंगल में कोई ना था ।
       
राजा चिल्लाता रहा,पर अफसोस कोई ना आया वो थक हार के खजाने को देखता रहा अब राजा भूख और पानी की प्यास से बेहाल हो रहा था , पागलो सा हो गया..वो रेंगता रेंगता हीरो के संदूक के पास गया और बोला ए दुनिया के नायाब हीरो मुझे एक गिलास पानी दे दो..फिर मोती सोने चांदी के पास गया और बोला ए मोती चांदी सोने के खजाने मुझे एक वक़्त का खाना दे दो..राजा को ऐसा लगा की हीरे मोती उसे बोल रहे हो की तेरे सारी ज़िन्दगी की कमाई तुझे एक गिलास पानी और एक समय का खाना नही दे सकती..राजा भूख से बेहोश हो के गिर गया ।
        जब राजा को होश आया तो सारे मोती हीरे बिखेर के दीवार के पास अपना बिस्तर बनाया और उस पर लेट गया,वो दुनिया को एक पैगाम देना चाहता था लेकिन उसके पास कागज़ और कलम नही था ।
       राजा ने पत्थर से अपनी उंगली फोड़ी और बहते हुए खून से दीवार पर कुछ लिख दिया,उधर मंत्री और पूरी सेना लापता राजा को ढूंढते रहे पर बहुत दिनों तक राजा ना मिला तो मंत्री राजा के खजाने को देखने आया,उसने देखा कि राजा हीरे जवाहरात के बिस्तर पर मरा पड़ा है,और उसकी लाश को कीड़े मोकड़े खा रहे थे,राजा ने दीवार पर खून से लिखा हुआ था...ये सारी दौलत एक घूंट पानी ओर एक निवाला नही दे सकी...
  *यही अंतिम सच है |आखिरी समय आपके साथ आपके कर्मो की दौलत जाएगी,चाहे आप कितनी बेईमानी से हीरे पैसा सोना चांदी इकट्ठा कर लो सब यही रह जाएगा |इसीलिए जो जीवन आपको प्रभु ने उपहार स्वरूप दिया है , उसमें अच्छे कर्म लोगों की भलाई के काम कीजिए बिना किसी स्वार्थ के ओर अर्जित कीजिए अच्छे कर्मो की अनमोल दौलत जो आपके सदैव काम आएगी |*

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रविवार, 25 सितंबर 2022

कम्फर्ट जोन

 


एक दार्शनिक अपने एक शिष्य के साथ कहीं से गुजर रहा था। चलते-चलते वे एक खेत के पास पहुंचे। खेत अच्छी जगह स्थित था लेकिन उसकी हालत देखकर लगता था मानो उसका मालिक उस पर जरा भी ध्यान नहीं देता है।

खैर, दोनों को प्यास लगी थी सो वे खेत के बीचो-बीच बने एक टूटे-फूटे घर के सामने पहुंचे और दरवाज़ा खटखटाया।

अन्दर से एक आदमी निकला, उसके साथ उसकी पत्नी और तीन बच्चे भी थे। सभी फटे-पुराने कपड़े पहने हुए थे।

दार्शनिक बोला, “ श्रीमान !  क्या हमें पानी मिल सकता है? बड़ी प्यास लगी है!”

“ज़रूर!”, आदमी उन्हें पानी का जग थमाते हुए बोला।

“मैं देख रहा हूँ कि आपका खेत इतना बड़ा है पर इसमें कोई फसल नहीं बोई गयी है, और न ही यहाँ फलों के वृक्ष दिखायी दे रहे हैं तो आखिर आप लोगों का गुजारा कैसे चलता है?”, दार्शनिक ने प्रश्न किया।

“जी, हमारे पास एक भैंस है, वो काफी दूध देती है उसे पास के गाँव में बेच कर कुछ पैसे मिल जाते हैं और बचे हुए दूध का सेवन कर के हमारा गुजारा चल जाता है।”, आदमी ने समझाया।

दार्शनिक और शिष्य आगे बढ़ने को हुए तभी आदमी बोला, “ शाम काफी हो गयी है, आप लोग चाहें तो आज रात यहीं रुक जाएं!”

दोनों रुकने को तैयार हो गये।

आधी रात के करीब जब सभी गहरी नींद में सो रहे थे तभी दार्शनिक ने शिष्य को उठाया और बोला, “चलो हमें अभी यहाँ से चलना है, और चलने से पहले हम उस आदमी की भैंस को कहीं दूर ले जाकर छोड़ देते हैं।”

शिष्य को अपने गुरु की बात पर यकीन नहीं हो रहा था पर वो उनकी बात काट भी नहीं सकता था।

दोनों भैंस को बहुत दूर छोड़कर रातों-रात गायब हो गये।

यह घटना शिष्य के जेहन में बैठ गयी और करीब 10 साल बाद जब वो एक सफल उद्यमी बन गया तो उसने सोचा क्यों न अपनी गलती का पश्चाताप करने के लिये एक बार फिर उसी आदमी से मिला जाये और उसकी आर्थिक मदद की जाये।

अपनी चमचमाती कार से वह उस खेत के सामने पहुंचा।

शिष्य को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। वह उजाड़ खेत अब फलों के बागीचे में बदल चुका था। टूटे-फूटे घर की जगह एक शानदार बंगला खड़ा था और जहाँ अकेली भैंस बंधी रहती थी वहां अच्छी नस्ल की कई गाएं और भैंस अपना चारा चर रही थीं।

शिष्य ने सोचा कि शायद भैंस के न रहने पर वो परिवार सब बेच-बाच कर कहीं चला गया होगा और वापस लौटने के लिये वो अपनी कार स्टार्ट करने लगा कि तभी उसे वो दस साल पहले वाला आदमी दिखा।

“ शायद आप मुझे पहचान नहीं पाये, सालों पहले मैं आपसे मिला था।”, शिष्य उस आदमी की तरफ बढ़ते हुए बोला।

“नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे अच्छी तरह याद है, आप और आप के गुरु यहाँ आये थे। उस दिन को कैसे भूल सकता हूँ। उस दिन ने तो मेरा जीवन ही बदल कर रख दिया।

आप लोग तो बिना बताये चले गये पर उसी दिन ना जाने कैसे हमारी भैंस भी ग़ायब हो गयी।

कुछ दिन तो समझ ही नहीं आया कि क्या करें, पर जीने के लिये कुछ तो करना था, सो लकड़ियाँ काट कर बेचने लगा। उससे कुछ पैसे हुए तो खेत में बोवाई कर दी। सौभाग्य से फसल अच्छी हो गयी, बेचने पर जो पैसे मिले उससे फलों के बागीचे लगवा दिये और यह काम अच्छा चल पड़ा और इस समय मैं आस-पास के हज़ार गाँव में सबसे बड़ा फल व्यापारी हूँ। सचमुच, ये सब कुछ ना होता अगर उस भैंस की गायब ना हुई होती ।

“लेकिन यही काम आप पहले भी कर सकते थे?”, शिष्य ने आश्चर्य से पूछा।

आदमी बोला, “ बिलकुल कर सकता था। पर तब ज़िन्दगी बिना उतनी मेहनत के आराम से चल रही थी। कभी लगा ही नहीं कि मेरे अन्दर इतना कुछ करने की क्षमता है सो कोशिश ही नहीं की , पर जब भैंस गायब हो गयी तब हाथ-पाँव मारने पड़े और मुझ जैसा गरीब-बेहाल इंसान भी इस मुकाम तक पहुँच पाया।”

आज शिष्य अपने गुरु के उस निर्देश का असली मतलब समझ चुका था और बिना किसी पश्चाताप के वापस लौट गया।

आदी जिंदगी यानि 'कम्फर्ट जोन' से बाहर आना जरूरी ।

कई बार हम अपनी परिस्थितियों के इतने आदी हो जाते हैं कि बस उसी में जीना सीख लेते हैं,और नये काम या व्यापार के बारे में सोचते ही नहीं। इस तरह की आदी ज़िंदगी यानी 'कम्फर्ट जोन' में हम कभी भी अपने क्षमता को महसूस ही नहीं कर पाते और बहुत सी ऐसी चीजें करने से चूक जाते हैं जिन्हें करने के लिये हमारे अन्दर अदृश्य आंतरिक क्षमता विद्यमान है और जो हमारी जिंदगी को बहुत ही बेहतर बना सकती है।

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शनिवार, 24 सितंबर 2022

माया ईश्वर की

 

एक राजा, वह जब भी मंदिर जाता, तो 2 भिखारी उस मंदिर के दरवाज़े के दाएं और बाएं बैठा करते...
    
दाईं तरफ़ वाला कहता: "हे ईश्वर, तूने राजा को बहुत कुछ दिया है, मुझे भी दे दो.!"
   
बाईं तरफ़ वाला कहता: "हे राजन.! ईश्वर ने तुझे बहुत कुछ दिया है, मुझे भी कुछ दे दो.!"

दाईं तरफ़ वाला भिखारी बाईं तरफ़ वाले से कहता: ईश्वर से माँग वह सबकी सुनने वाला है..... बाईं तरफ़ वाला जवाब देता: "चुप कर मूर्ख"
    
एक बार राजा ने अपने मंत्री को बुलाया और कहा, "कि मंदिर में दाईं तरफ जो भिखारी बैठता है वह हमेशा ईश्वर से मांगता है तो अवश्य ईश्वर उसकी जरूर सुनेगा..... लेकिन जो बाईं तरफ बैठता है वह हमेशा मुझसे विनती करता रहता है, तो तुम ऐसा करो, कि एक बड़े से बर्तन में खीर भर कर उसमें स्वर्ण मुद्राएं डाल दो और वह उसको दे आओ....
     
मंत्री ने ऐसा ही किया.. अब वह भिखारी मज़े से खीर खाते-खाते दूसरे भिखारी को चिड़ाता हुआ बोला: "हुह... बड़ा आया ईश्वर देगा..', यह देख राजा से माँगा, मिल गया ना.?"
    
खाते खाते जब इसका पेट भर गया, तो उसने बची हुई खीर का बर्तन दूसरे भिखारी को दे दिया और कहा: "ले पकड़... तू भी खाले, मूर्ख.."
     
अगले दिन जब राजा आया तो देखा कि बाईं तरफ वाला भिखारी तो आज भी वैसे ही बैठा है लेकिन दाईं तरफ वाला ग़ायब है....
     
राजा ने चौंक कर उससे पूछा: "क्या तुझे खीर से भरा बर्तन नहीं मिला...???"
   
भिखारी: "जी बर्तन मिला था राजा जी, क्या स्वादिस्ट खीर थी, मैंने ख़ूब पेट भर कर खायी.!"
  
राजा: "फिर....???"
    
भिखारी: "फ़िर जब मेरा पेट भर गया तो वह जो दूसरा भिखारी यहाँ बैठता है मैंने उसको दे दी, मुर्ख हमेशा कहता रहता था: ' ईश्वर देगा, ईश्वर देगा तो मैंने कहा, "ले बाकी की बची हुई तू खा लेना---"
      
राजा मुस्कुरा कर बोला: "अवश्य ही, ईश्वर ने उसे... दे ही दिया.!"

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सोमवार, 19 सितंबर 2022

मंत्र सिद्धि का मंत्र

 

नवरात्रि नज़दीक है । कहीं पढ़ी ये चर्चा ध्यान में आई -
*मंत्र क्यों सिद्ध नहीं होते*

माधवाचार्य गायत्री के घोर उपासक थे। वृंदावन मे उन्होंने तेरह वर्ष तक गायत्री के समस्त अनुष्ठान विधिपूर्वक किये। लेकिन उन्हे इस से न भौतिक न आध्यायत्मिकता  लाभ दिखा। वो निराश हो कर काशी गये। वहां उन्हें एक आवधूत मिला जिसने उन्हें एक वर्ष तक काल भैरव की उपासना करने को कहा।

उन्होंने एक वर्ष से अधिक ही कालभैरव की आराधना की। एक दिन उन्होंने आवाज सुनी "मै प्रस्ंन्न हूं वरदान मांगो"। उन्हें लगा कि ये उनका भ्रम है। क्योंकि सिर्फ आवाज सुनायी दे रही थी कोइ दिखाई नहीं दे रहा था।
उन्होंने सुना अनसुना कर दिया। लेकिन वही आवाज फिर से उन्हें तीन बार सुनायी दी। तब माधवाचार्य जी ने कहा
आप सामने आ कर अपना परिचय दे मै अभी काल भैरव की उपासना मे व्यस्त हूं।

सामने से आवाज आयी "तूं जिसकी उपासना कर रहा है वो मै ही काल भैरव हूँ"।

माधवाचार्य जी ने कहा "तो फिर सामने क्यो नहीं आते?"

काल भैरव जी ने कहा "माधवा  तुमने तेरह साल तक जिन गायत्री मंत्रों का अखंड जाप किया है। उसका तेज तुम्हारे सर्वत्र चारो ओर व्याप्त है। मनुष्य रूप मै उसे मै सहन नहीं कर सकता, इसीलिए सामने नहीं आ सकता हूँ।"

माध्वाचार्य ने कहा "जब आप उस तेज का सामना नहीं कर सकते है तब आप मेरे किसी काम के नहीं। आप वापस जा सकते है।"

काल भैरव जी ने कहा "लेकिन मै तुम्हारा समाधान किये बिना नहीं जा सकता हूं।"

"तब फिर ये बताइये कि मेने पिछले तेरह वर्षों से किया गायत्री अनुष्ठान मुझे क्यों नहीं फला?"

काल भैरव ने कहा "वो अनुष्ठान निष्फल नहीं हुए है।
उससे तुम्हारे जन्म जन्मांतरो के पाप नष्ट हुए है।"

तो अब मै क्या करू "फिर से वृंदावन जा कर ओर एक वर्ष गायत्री का अनुष्ठान कर। इस से तेरे इस जन्म के भी पाप नष्ट हो जायेंगे फिर गायत्री मां प्रसन्न होगी।"

काल भैरव ने कहा "*आप या गायत्री कहां होते है हम यहीं रहते है पर अलग रुपों मे ये मंत्र जप जाप और कर्म कांड तुम्हें हमे देखने की शक्ति, सिध्दि देते है जिन्हें तुम साक्षात्कार कहते हो।"*

माधवाचार्य वृंदावन लौट आये। अनुष्ठान शुरु किया। एक दिन बृह्म मूहुर्त मे अनुष्ठान मे बैठने ही वाले थे कि उन्होंने आवाज सुनी "मै आ गयी हूँ माधव, वरदान मांगो"

"माँ" माधवाचार्य फूटफूटकर रोने लगे।

"माँ, पहले बहुत लालसा थी कि वरदान मांगू लेकिन
अब् कुछ मांगने की इच्छा  रही नही, माँ, आप जो मिल गयी हो"

"माधव तुम्हें मांगना तो पडेगा ही।"

"माँ ये देह, शरीर भले ही नष्ट हो जाये लेकिन इस शरीर से की गयी भक्ति अमर रहे।  इस भक्ति की आप सदैव साक्षी रहो। यही वरदान दो।"

"तथास्तू"

आगे तीन वर्षों मै माधवाचार्य जी नै माधवनियम नाम का आलौकिक ग्रंथ लिखा।

*याद रखिये आपके द्वारा शुरू किये गये मंत्र जाप पहले दिन से ही काम करना शुरू कर देतै है। लेकिन सबसे पहले प्रारब्ध के पापों को नष्ट करते है। देवताओं की शक्ति इन्हीं पापों को नष्ट करने मे खर्च हो जाती है और आप अपने जप, जाप या साधना को निष्फल जान हताश हो जाते हो। जैसे ही ये पाप नष्ट होते है आपको एक आलौकिक तेज, एक आध्यायात्मिक शक्ति और सिध्दि प्राप्त होने लगती है। अतः निराश न हो कर अनुष्ठान चालू रखे।*

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रविवार, 18 सितंबर 2022

भगिनी भाव

 

प्रासंगिक
   हम बहुधा माताओं को सार्वजनिक स्थानों पर अपनी संतान को स्तनपान करवाते देखते है और उस दृश्य को देखकर या तो  अपना शिशुकाल स्मरण कर भावविभोर हो जाते है अथवा चुपचाप अपनी दृष्टि वहाँ से हटा लेते हैं ,जबकि ऐसा कोई कानून नही है ,कोई घोषित नियम नही है ,किन्तु हमारी मानवता हमे यह  स्वतः सिखा देती है कि क्या देखना है और क्या नही ।

   पहले जब इतनी व्यवस्थाएं नही थी तब कई बार प्रसूताएं सार्वजनिक स्थानों पर प्रसव हेतु बाध्य होती थी तब वहाँ उपस्थित पुरुषो को समझाना नही पड़ता था कि उन्हें क्या करना चाहिए तब ,वे समझते थे कि क्या करना है । समाज आपको यह सब स्वतः सिखाता आया है ।

   शस्त्रों में ऐसे कई प्रसंग है जिसमे साधु संत ऋषि आदि वनगमन के समय यक्ष,गंधर्व ,मनुष्यो सहित अन्य जातियों को प्रणयरत अवस्था मे देख लेते थे ,ध्वनि से समझ जाते थे कि आगे क्या चल रहा है तब वे चुपचाप वहाँ से अन्यत्र मुड़ जाते थे।आज भी हम लोग पशुओं को गुह्य अवस्थाओं में देखते है तब भी नजरे फिरा कर ऐसे सभी कृत्यों को अनदेखा कर देते है ।
  यही सभ्य मानव समाज की शिष्टता है ।

आज फिर से इसकी अत्यंत आवश्यकता है । चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में जो कुछ हुआ है वहाँ से जो कुछ भी इंटरनेट पर बह रहा है उसे स्थिरप्रज्ञ शिष्ट मनुष्य की तरह अनदेखा करें ,डिलीट करें और उन बच्चियों के सम्मान एवं जीवन की रक्षा करें।

   यही भारतीय पुरुषार्थ है ,यही श्रेष्ठ है ।

बच्चियों ! जीवन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ! हमारा धर्म ,हमारे शास्त्र ऐसी किसी भी घटना पर आपके साथ खड़े है वे स्पष्ट कहते है कि ऐसे कृत्य जो धोखे ,दबाव ,छल एवं बलपूर्वक किये जाते है उसके लिए स्त्रियां दोषी नही है बल्कि दोषी वे नराधम है जो ऐसा करते है या उसमें सहयोग करते है ।ऐसे प्रकरणों में स्त्रियां स्वर्ण के समान शुद्ध मानी गई है । यह सब शास्त्रोक्त है ,पुष्ट है ,सिद्ध है ।
आप लोग आत्महत्या जैसा पाप न करें ,हम सभी आप के साथ खड़े है जो दोषियों को दंडित करने के ये कटिबद्ध है ।
आप सशक्त होकर बिना किसी ग्लानि के आगे खड़े रहे ,हम आपके साथ है बिल्कुल हमारे घर के बच्चे -बच्चियों के समान ही !
वंदे भारत माता !! जगतजननी जगदायिनी जगदम्बा !!!
गोविंद जी ने लिखा, तो मन बन गया चर्चा आप तक पहुंचे ।

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भला आदमी

 

एक बार एक धनी पुरुष ने एक मंदिर बनवाया | मंदिर में भगवान की पूजा करने के लिए एक पुजारी रखा।  मंदिर के खर्च के लिए बहुत सी भूमि, खेत और बगीचे मंदिर के नाम से लगाएं | उन्होंने ऐसा प्रबंध किया था कि मंदिर में जो भूखे, दीन दुखी या साधु-संत आवें, वे वहां दो-चार दिन ठहर सकें और उनको भोजन के लिए भगवान का प्रसाद मंदिर से मिल जाया करे। अब उन्हें एक ऐसे मनुष्य की आवश्यकता हुई जो मंदिर की संपत्ति का प्रबंध करें और मंदिर के सब कामों को ठीक-ठीक चलाता रहे ।

बहुत से लोग उस धनी पुरुष के पास आए।  वे लोग जानते थे कि यदि मंदिर की व्यवस्था का काम मिल जाए तो वेतन अच्छा मिलेगा। लेकिन उस धनी पुरुष ने सबको लौटा दिया। वह सब से कहता था – ‘मुझे एक भला आदमी चाहिए, मैं उसको अपने आप छाट लूंगा।’

बहुत से लोग मन ही मन में उस धनी पुरुष को गालियां देते थे। बहुत लोग उसे मूर्ख या पागल बतलाते थे। लेकिन वह धनी पुरुष किसी की बात पर ध्यान नहीं देता था। जब मंदिर के पट खुलते थे और लोग भगवान के दर्शन के लिए आने लगते थे तब वह धनी पुरुष अपने मकान की छत पर बैठकर मंदिर में आने वाले लोगों को चुपचाप देखता रहता था।

एक दिन में एक मनुष्य मंदिर में दर्शन करने आया। उसके कपड़े मैले और फटे हुए थे वह बहुत पढ़ा लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान का दर्शन करके जाने लगा तब धनी पुरूष ने उसे अपने पास बुलाया और कहा – ‘क्या आप इस मंदिर की व्यवस्था संभालने का काम करेंगे ?’
वह मनुष्य बड़े आश्चर्य में पड़ गया।  उसने कहा – ‘मैं तो बहुत पढ़ा लिखा भी नहीं हूं, मैं इतने बड़े मंदिर का प्रबंध कैसे कर सकूंगा ?’

धनी पुरुष ने कहा – ‘मुझे बहुत विद्वान नहीं चाहिए, मैं तो एक भले आदमी को मंदिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूं।’

उस मनुष्य ने कहा – ‘आपने इतने मनुष्य में मुझे ही क्यों भला आदमी माना।’

धनी पुरुष बोला – ‘मैं जानता हूं कि आप भले आदमी हैं।  मंदिर के रास्ते में एक ईंट का टुकड़ा गड़ा रह गया था और उसका एक कोना ऊपर निकला हुआ था, मैं उधर बहुत दिनों से देख रहा था कि उस मंदिर की ईंट के टुकड़े की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी, लोग गिरते थे लुढ़कते थे और उठ कर चलते थे।  आपको उस टुकड़े से ठोकर नहीं लगी किंतु फिर भी आपने उसे देखते ही उखाड़ देने का यतन किया।  मैं देख रहा था कि आप मेरे मजदूर से फावड़ा मांगकर ले गए और उस टुकड़े को खोद कर आपने वहां की भूमि भी बराबर कर दी।’

उस व्यक्ति ने कहा – “यह तो कोई बात नहीं है, रास्ते में पड़े कांटे, कंकड़ और पत्थर लगने योग्य पत्थर, ईटों को हटा देना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।’

धनी पुरुष ने कहा – ‘अपने कर्तव्यों को जानने और पालन करने वाले लोग ही भले आदमी होते हैं।’

वह व्यक्ति मंदिर का प्रबंधक बन गया उसने मंदिर का बड़ा सुंदर प्रबंध किया।

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शनिवार, 17 सितंबर 2022

पितृ पक्ष

 

'सर! मुझे चार दिनों की छुट्टी चाहिए, गांव जाना है!'-बॉस के सामने अपना आवेदन रखते हुए मृगेन्द्र ने कहा।

'चार दिन! इकट्ठे! कोई खास बात है क्या?'--बॉस ने उत्सुकता वश पूछा।

'जी सर! पितृपक्ष चल रहा है ना, पिता को पिंडदान करना है!'

'क्या मृगेन्द्र! कॉरपोरेट वर्ल्ड में काम करते हुए भी तुम्हारी सोच पिछड़ी की पिछड़ी रह गयी!'

'मैं समझा नहीं सर!'

'कहाँ पड़े हो इन झमेलों में! जानता हूँ, जीते जी खूब सेवा की है पिता की, माँ की सेवा के लिए अब तक बीवी-बच्चों को गांव में रख छोड़ा है! आखिर हासिल क्या होगा इनसे जीवन में!'

'एक पुत्र का जीवन उसके माँ-बाप का ही तो दिया होता है सर, उनकी सेवा में कुछ हासिल होने का कैसा लोभ!'

'मतलब नि:स्वार्थ!'

'पुत्रधर्म के पालन करने का आत्मसंतोष सर!'

चलो मान लिया! पर जो तुम ये इतना सब करते हो, क्या गारंटी है कि तुम्हारे पुत्र भी तुम्हारे लिए करेंगे!'

'गारंटी भौतिक चीजों के मामले में देखी जाती है सर! मैं स्वयं के धर्म के प्रति उत्तरदायी हूँ, उनका उन पर ही छोड़ देता हूँ! वैसे मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे नहीं भटकेंगे!'

'इस विश्वास की वजह! ये चीजें सिखाते हो क्या उनको?'

'सिखाता नहीं, कर के दिखाता हूँ सर, इसलिए विश्वास है!'

'फिर भी मान लो, वो तुम्हारी तरह ना निकलें, जमाने की हवा लग जाय! फिर...!'

'ये भी स्वीकार है सर! ना मान से आह्लादित होना है और ना अपमान से दु:खी! जीवन की झोली में नियति जो डाल देगी, खुशी से स्वीकार कर लूंगा!'

'कहना आसान है, पर जीवन में ये उतरता कहाँ है!'

*'उतरता है सर, अगर हम सच में प्रयास करें! जीवन में ढेर सारी चाह होती है, थोड़ा सा उन्हें त्याग दें तो राह सूझ जाती है! जीवन को बुलबुले की तरह मानकर जीना शुरु कर दीजिये, बनने-बिगड़ने के डर से मुक्त हो जायेंगे!'*
कृपा शंकर मिश्र कहिन ।

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रविवार, 11 सितंबर 2022

मानवता की मिशाल 'दिग्विजय दिवस'

 

शोशल मीडिया पर अभिजीत सिंह जी को नीदरलैंडस की एक लड़की मिली थी। उनकी चर्चा ग्रहणीय लगी, उन्होने आगे बताया कि -

मातृपक्ष से सिख और पितृपक्ष से डच थी वो । उससे अक्सर संवाद हुआ था जिसमें एक बार उसने सैमुएल हंटिंगटन की पुस्तक "सभ्यताओं का संघर्ष" या "क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन्स" को लेकर मुझसे कहा कि इस पुस्तक के बारे में अपनी राय बताओ।

उसकी इस बात पर मैंने कहा कि मैंने ये पुस्तक पढ़ी ही नहीं क्योंकि मेरे हिसाब से इस पुस्तक का शीर्षक उचित नहीं है, इसलिए मेरी रूचि ही इसे पढ़ने में नहीं हुई। उसने कहा- क्यों इस पुस्तक के शीर्षक में क्या दिक्कत है?

मैंने उससे कहा- दिक्कत ये है कि संघर्ष कभी भी सभ्यताओं के मध्य नहीं हो सकता क्योंकि संघर्ष सभ्यता और असभ्यता, मानवता और दानवता, धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य के बीच होता है। इसके उदाहरण कई हो सकते हैं पर मैं केवल एक उदाहरण दूंगा जो 11 सितंबर का है; क्योंकि इस दिन ने सभ्यता और असभ्यता दोनों के चेहरे को देखा है।

ये वो घटना थी जिसके बाद दुनिया भर के एयरपोर्ट्स सुरक्षा जांच को लेकर बड़े सजग हो गए। रोचक ये है कि इस सजगता के बीच भी हिंदुओं को अपने यहाँ आने देने या अपने देश की नागरिकता देने में दुनिया का कोई भी देश अधिक नहीं सोचता और तो और हिंदुओं को लेकर यूरोप अमेरिका या अन्य महाद्वीपों के देशों की सरकारें नागरिकता मामलों में लिबरल हो जाती है जबकि बाकियों के साथ वो ऐसा नहीं करते।

उस लड़की ने पूछा :- ऐसा क्यों है?

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मैंने कहा- ये आज के हमारे व्यवहार के कारण तो है ही है साथ ही दुनिया की नज़रों में ये विश्वास लंबे समय से है कि अगर कोई हिन्दू है तो वो कभी गलत नहीं करेगा, अराजकता नहीं फैलाएगा, हिंसा नहीं करेगा और मेरे देश के नियम-क़ानूनों और मान्यताओं का सम्मान करेगा। सभ्यों की तरह व्यवहार करेगा।

इसके बाद मैंने उससे कहा- दुनिया में जब भारत के अलावा कहीं सभ्यता और ज्ञान नहीं था तो ऋषियों ने हमारे पूर्वजों को आदेश देते हुये कहा था- 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' यानि जाओ और जाकर दुनिया को भद्र बनाओ, श्रेष्ठ बनाओ, उन्हें सुसंकृत करो और जाकर उनका हृदय जीतो।

तुम उस ज़माने की कल्पना करो जब हवाई जहाज, पानी के यांत्रिक जहाज, ट्रेन, बस और कार तो दूर यातायात के सामान्य सुलभ साधन नहीं थे, सड़कें नहीं थी, गूगल मैप तो दूर कोई नक्शा भी नहीं था, तब भी हमारे पूर्वज उस आदेश का अनुपालन करने निकल गये। वो जहाँ जा रहे थे वहां और भी कई तरह की कठिनाइयाँ थीं। कहीं की भाषा भिन्न थी, कहीं का समाज बर्बर और हिंसक था, कहीं के समाज में आसुरी शक्तियों का प्राबल्य था और कहीं-कहीं का समाज तो बाहरी लोगों को देखना तक पसंद नहीं करता था। प्रश्न है कि किसने प्रेरित किया उन्हें अगम्य और दुर्गम यात्राएं करने के लिए सिवाय मानव जाति के प्रति करुणा और उन्हें श्रेष्ठ और सुसंस्कृत बनाने के भाव के?

और जब लोग मानव जाति के लिए अपनी करुणा लिए निकले तो अपने साथ क्या लेकर गये? क्या वो अपने साथ हथियार लेकर गये? नहीं ! बल्कि वो साथ लेकर गये स्थापत्य, सभ्यता, दर्शन, नीतिशास्त्र, तुलसी रामायण, चिकित्सा शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, खगोल विज्ञान, ज्योतिष, नाट्य शास्त्र और मानव-जाति के त्राण के लिए असीमित करुणा।

भारत के दक्षिण-पूर्व में एक देश है कम्बोडिया, वहां की एक राजकन्या थी सोमा। उसको खबर मिली कि भारत देश की तरफ से जलपोतों पर सवार एक दल उसकी भूमि उतरा है तो अपनी भूमि की रक्षा करने के लिए वो अपने सेना के साथ निकल पड़ी। जब उस दल के अगुआ युवक के सामने पहुँची तो उस समय वो और उसकी पूरी सेना नग्न अवस्था में थे। उन सबको पता ही नहीं था कि वस्त्र क्या होते हैं। भारत से आने वाले जलपोत के नायक ‘शैलराज कौन्डिल्य’ के लिए ये दृश्य बड़ा विस्मयकारी था कि एक स्त्री बिलकुल नग्न भी किसी के सामने आ सकती है। प्रखर मेघा के स्वामी कौन्डिल्य समझ गए कि मामला क्या है और उन्होंने एक कपड़े को तीर में लपेटा और सोमा की तरफ छोड़ दिया। सोमा समझ नहीं पाई कि इसका क्या करना है तो कौन्डिल्य ने इशारे से उसे समझाया कि इस वस्त्र को अपने शरीर पर लपेट लो और उनके समझाने के बाद सोमा ने वही किया। उसने बाद सोमा को समझ में आया कि जिनको वो आक्रांता समझ रहे हैं वो तो दरअसल सभ्यता सिखाने वाले लोग हैं।

एक ‘हिन्दू’ जब कौन्डिल्य बनकर कंबोडिया पहुँचा तो तो उसने नग्न रहने वाले कम्बुज लोगों की हँसी नहीं उड़ाई बल्कि उसने उनको वस्त्र पहनना सिखाया। सु-संस्कृत करने का ये प्रयास और भी आगे जाए इसके लिए कौन्डिल्य ने उस कन्या सोमा से विवाह कर लिया और उसके बाद कंबोडिया उत्कृष्ट सभ्यता की गवाह बन गई। वहां संस्कृत भाषा पहुँची, उन्होंने रोज स्नान करना, साफ तथा स्वच्छ रहना सीखा, वहां धान की खेती पहुँची, नहरों का जाल बिछाया गया, कौन्डिल्य ने बर्बर और जंगली लोगों को कुशल व्यापारी बना दिया। जंगलों और गुफाओं में रहने वाले कम्बोज लोगों को हमारे पूर्वजों ने स्थापत्य सिखाई और इसमें वो लोग इतने आगे पहुँचे कि 12वीं सदी में वहां बने अंकोरवाट के मंदिर आज भी आधुनिक दुनिया के लिए कौतूहल का विषय है।

प्रश्न है हम हिन्दू ये सब क्यों करते हैं ?

इसलिए क्योंकि हमारे पूर्वजों ने हमें निर्देशित किया था कि दुनिया में जहाँ-जहाँ मानव समाज कुरीतियों से ग्रस्त होकर अज्ञान और अशिक्षा के दलदल में दिखे, वहां-वहां जाओ और उन सबका उद्धार करो, उनको "आर्य" बनाओ। उनको भद्र बनाओ पर कभी भी कुछ ऐसा मत करना कि उन्हें उस दिन को कोसना पड़े जब तुम उनके वहां पहुँचे थे। अटल जी के इसी को लिखा है- भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।

हृदय जीतने के इसी निश्चय को पूरा करने महर्षि कण्व मिश्र देश गये थे और वहां जाकर वहां के लोगों को देवभाषा संस्कृत पढ़ाकर सुसंस्कृत किया था। इसी निश्चय को लेकर उद्दालक मुनि पाताल देश अमेरिका और कश्यप तथा मातंग मुनि चीन गये थे, इसी निश्चय को लेकर अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था और न जाने कितने ही बौद्ध भिक्षुओं ने श्रमसाध्य यात्रायें करते हुए पूरी धरती को अपने क़दमों से नाप दिया था ताकि इस निश्चय की पूर्ति हो सके। इसी निश्चय को पूरा करते हुए गुरु नानक देव जी की उदासियाँ हुई थी जिसमें उन्होंने मक्का, मदीना, बग़दाद, सीलोन, बुखारा, बल्ख तक की यात्राएँ करते हुए वहां के लोगों को धर्म का सच्चा स्वरूप सिखाया था। इसी निश्चय को लेकर स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानंद मज़हब के नाम पर हो रहे झगड़े और पांथिक मतभेदों के कोढ़ से शापित दुनिया को सहिष्णुता और समादर का ज्ञान देने निकले थे; जबकि उनकी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। इसी निश्चय को लिए भक्ति-वेदांत प्रभुपाद निकले जिन्होंने ईश्वर से विमुख हो रहे पश्चिमी जगत को ईश्वर से प्रेम करना सिखाया और इसी निश्चय के साथ परमहंस योगानंद और बाबा रामदेव पूरी दुनिया में अध्यात्म और योग का ज्ञान लेकर गये।

और जानती हो, न तो महर्षि कण्व के समय और न आज ही हम कहीं गये तो हमने कभी वहां की मूल संस्कृति का उच्छेद नहीं किया। अमेरिकी महाद्वीप का मय, इंका और अजोक संस्कृतियों में सबसे पहले हमारे कदम पड़े थे पर उनकी संस्कृति को नष्ट करने का कोई प्रयास हमने नहीं किया बल्कि हमने उनसे केवल ये कहा कि तुम बस सभ्यता के सूत्र हमसे लो और अपनी संस्कृति के आधार पर अपना उन्नयन करो। और इसलिए दुनिया में कहीं भी एक उदाहरण नहीं मिलता जब हमारे ऊपर अथवा हमारे पूर्वजों के ऊपर किसी ने ये आरोप लगाया कि हिन्दू हमारे यहाँ का शांतिप्रिय समुदाय नहीं है अथवा ये हिन्दू हमारे यहाँ के किसी कानून का पालन नहीं करता। इसलिए हिंदुओं को अपने यहाँ आने देने या अपने देश की नागरिकता देने में दुनिया का कोई भी देश क्यों अधिक नहीं सोचता, इसकी वजह क्या है तो इसकी वजह हमारा यही गुण है जो केवल देना जानती है छीनना नहीं। कोई सभ्य और संस्कारित नहीं है तो उसे हम सभ्यता और संस्कार सिखाते हैं न कि उसका उपहास करती है। हम किसी के लिए कभी संकट या असहजता का कारण नहीं बनते। दुनिया आज हमें जो फूल दे रही है उसके मूल में काँटों भरा पथ है जिस पर चलकर हमारे अनगिनत पूर्वजों और ऋषियों ने यात्रायें की और उसके जरिये हमेशा दुनिया को शांति का मार्ग दिखाया, उनकी विविधताओं का रक्षण और सम्मान किया, उन्हें ज्ञान दिया, उन्हें सभ्य और सुसंकृत किया और बदले में कोई कीमत वसूल नहीं की।

ये वही बातें हैं जिसे  *11 सितंबर के दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की धर्म-सभा और उसके बाद अलग-अलग तरह से कही थी और दुनिया को स्तंभित कर दिया था कि क्या कोई ऐसी संस्कृति भी हो सकती है जहां इस धरती को, समूची मानव जाति को लेकर ऐसे उद्दात विचार हो?*

विवेकानंद ने उस धर्मसभा में तलवार नहीं निकाली थी, बम नहीं फोड़े थे पर जो "शाब्दिक विस्फोट" किया था उसकी गूंज पूरी दुनिया में गुंजायमान हो गई थी।

क्या हम इस 11 सितंबर के दिन को *सांस्कृतिक दिग्विजय दिवस*  के रूप में घोषित करने की मांग नहीं कर सकते?

सच्चा गुरु

 

एक पंडित रोजाना एक रानी के पास कथा करता था। कथा के अंत में सबको कहता कि ‘राम कहे तो बंधन टूटे’। तभी पिंजरे में बंद तोता बोलता, ‘यूं मत कहो रे पंडित झूठे’। पंडित को क्रोध आता कि ये सब क्या सोचेंगे, रानी क्या सोचेगी। पंडित अपने गुरु के पास गया, गुरु को सब हाल बताया। गुरु तोते के पास गया और पूछा तुम ऐसा क्यों कहते हो?

तोते ने कहा- ‘मैं पहले खुले आकाश में उड़ता था। एक बार मैं एक आश्रम में जहां सब साधू-संत राम-राम-राम बोल रहे थे, वहां बैठा तो मैंने भी राम-राम बोलना शुरू कर दिया। एक दिन मैं उसी आश्रम में राम-राम बोल रहा था, तभी एक संत ने मुझे पकड़ कर पिंजरे में बंद कर लिया, फिर मुझे एक-दो श्लोक सिखाये।

आश्रम में एक सेठ ने मुझे संत को कुछ पैसे देकर खरीद लिया। अब सेठ ने मुझे चांदी के पिंजरे में रखा, मेरा बंधन बढ़ता गया। निकलने की कोई संभावना न रही। एक दिन उस सेठ ने राजा से अपना काम निकलवाने के लिए मुझे राजा को गिफ्ट कर दिया, राजा ने खुशी-खुशी मुझे ले लिया, क्योंकि मैं राम-राम बोलता था। रानी धार्मिक प्रवृत्ति की थी तो राजा ने रानी को दे दिया। अब मैं कैसे कहूं कि ‘राम-राम कहे तो बंधन छूटे’।

तोते ने गुरु से कहा आप ही कोई युक्ति बताएं, जिससे मेरा बंधन छूट जाए।

गुरु बोले- आज तुम चुपचाप सो जाओ, हिलना भी नहीं। रानी समझेगी मर गया और छोड़ देगी।

ऐसा ही हुआ। दूसरे दिन कथा के बाद जब तोता नहीं बोला, तब संत ने आराम की सांस ली। रानी ने सोचा तोता तो गुमसुम पढ़ा है, शायद मर गया। रानी ने पिंजरा खोल दिया, तभी तोता पिंजरे से निकलकर आकाश में उड़ते हुए बोलने लगा ‘गुरु मिले तो बंधन छूटे’।

अतः शास्त्र कितना भी पढ़ लो, कितना भी जाप कर लो, लेकिन सच्चे गुरु के बिना बंधन नहीं छूटता।

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शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

महत्व

 

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’

यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो,तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’

उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए।गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’

वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- "जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’'

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।

गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’ 

तीनों ने सर झुका लिया।

गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा-  ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।"  

गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’

तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।
      
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’

गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें

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सोमवार, 5 सितंबर 2022

5 सितम्बर की कहानी

 

पर्दे तो उठेंगे !! सत्य कभी दबा नहीं रह सकता... हाँ, चर्चाओं का समय है , तो जानना जरूरी है!!!

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन,,

आज बहुत मित्रों के मैसेज में इनका चित्र दिखा तो सालों पहले की एक पोस्ट याद आ गई,,

इन्हें भारतरत्न भी मिला है,,

वैसे ये अलग बात है कि भारतरत्न तो और भी बहुत लोगों ने खुद को ही दे लिया था,,यह सब चलता रहता है,,

आजादी के बाद आने वाली पीढ़ियों को गुमराह करने के लिए तमाम झूठे प्रतीक गढे गये हैं..चरखे से मिली आजादी से लेकर नेहरू के बलिदान और महान दार्शनिक राधाकृष्णन तक,,

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शिक्षक_दिवस भी इसी का हिस्सा है,,जैसे आजादी के लिए गांधी परिवार के बलिदान जगत प्रसिद्ध हैं उसी तरह कुछ बातें ये भी जान लेंगे तो हर्ज नहीं,,

*सर्वपल्ली जी का एक कारनामा ये है कि जहां अंग्रेजो ने लाखों क्रांतिकारियों की हत्या की वहीं इन जनाब को सर की उपाधि जरूर दी,,आप समझ सकते हैं अंग्रेजो से कैसी खूनी जंग करनी पड़ी होगी सर की उपाधि के लिए,, कितने अंग्रेजो के सर उड़ाए होंगे,,*

*दूसरा कारनामा ये है कि जैसे नेहरू ने खुद को भारतरत्न दे लिया था ठीक ऐसे ही राष्ट्रपति पद पर रहते हुए इन्होंने भी खुद के नाम पर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस घोषित कर लिया था,,*

*तीसरा कारनामा ये है महान दार्शनिक और पूर्व राष्ट्रपति जी का की जब ये कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे उस समय इनका एक शिष्य  जदुनाथ_सिन्हा भी था,, एक होनहार काबिल मेधावी छात्र,,*
*उन्होंने पीएचडी के लिए अपनी थीसिस जमा करवा दी और सर्वपल्ली जी ने वह थीसिस चुराकर {इंडियन फिलॉसॉफी} नामक पुस्तक अपने नाम से छाप ली जिसने राधाकृष्णन को काफी प्रसिद्ध कर दिया था उन दिनों,,*

हुआ यूं की जदुनाथ सिन्हा की थीसिस इनके पास चेक होने आई थी, जिसको चेक करने मे  इन सर ने पूरे 2 साल लगा दिए,,
इन्हीं दो सालों में ईन्होंने इंग्लैंड में अपनी किताब “इंडियन फिलॉसॉफी” प्रकाशित करवाई, जो कि जदुनाथ सिन्हा की थीसिस थी।

पूरी की पूरी थीसिस राधाकृष्णन ने छपवा दी बिलकुल हूबहू ...एक कोमा तक का अंतर नहीं है।असल में कोमा का अंतर करने के लिए भी बुद्धि चाहिए जो कि ऐसे लोगों के पास नहीं होती,, दरअसल इन्हें डर ही नहीं था पकड़े जाने का ।

जब किताब छप गई तब उस छात्र को  पीएचडी की डिग्री दे दी। मतलब किताब पहले छपी... थीसिस बाद में पब्लिश हुई फिर पीएचडी की डिग्री मिली। अब कोई यह भी नहीं कह सकता था कि इन्होंने चोरी की है,,

गरीब जदुनाथ सिन्हा क्या करता मगर उसने हार नहीं मानी। कलकत्ता हाईकोर्ट में केस कर दिया गया,,
छात्र का कहना था, “मैंने दो साल पहले विश्वविद्यालय में थीसिस जमा करा दी थी। विश्वविद्यालय में इसका प्रमाण है। अन्य प्रोफेसर भी गवाह हैं क्योंकि वह थीसिस #तीन प्रोफेसरों से चेक होनी थी – दो अन्य एक्जामिनर भी गवाह हैं। वह थीसिस मेरी थी और इसलिए यह किताब भी मेरी है। मामला एकदम साफ है...इसे पढ़कर देखिए...."

राधाकृष्णन की किताब में अध्याय पूरे के पूरे वही हैं जो थीसिस में हैं। वे जल्दबाजी में थे, शायद इसलिए थोड़ी बहुत भी हेराफेरी नहीं कर पाए,
किताब भी बहुत बड़ी थी- दो भागों में थी। कम से कम दो हजार पेज। इतनी जल्दी वे बदलाव नहीं कर पाए...अन्यथा समय होता तो वे कुछ तो हेराफेरी कर ही देते।

लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि छात्र जदुनाथ सिन्हा ने कोर्ट के निर्णय से ठीक पहले ही केस वापस ले लिया,,उस समय चर्चा थी कि मामला #वापस लेने के लिए छात्र को 10 हजार रुपए दिए गए थे,,वह बहुत गरीब था और #दस हजार रुपए उसके लिए बहुत मायने रखते थे। दूसरी बात, राधाकृष्णन जैसो लोगो से पंगे लेना कोई समझदारी का काम भी नहीं था। ऐसे में वास्तविक न्याय की उम्मीद जदुनाथ को नहीं रही,,

हां,, ओशो को जब यह पता चला तो उन्होंने समय समय पर अपने व्याख्यानों में यह मुद्दा जोर से उठाया,,ओशो को देश निकाला देने के पीछे जो अनेकों कारण थे उनमें सर्वपल्ली के इस कारनामे को जनता में उठाना भी एक बड़ा कारण था,,

रूस में राजदूत रहते हुए ये किसके लिए कार्य करते रहे यह बच्चा बच्चा जानता ही है,,उसके बाद #राष्ट्रपति बनने के लिए इनके हाथ रूस में कौनसा मोहरा हाथ लगा था जिसके बल पर नेहरू को दबाव में लेकर राष्ट्रपति पद पर बैठे वरना मुँह खोल देते,,वह किस्सा भी काफी दिलचस्प है ही अपने आप में,,आप लोगों को तो खैर पता ही होगा यहां उसकी क्या चर्चा करनी,,

*ऐसे थे हमारे राष्ट्रपति डा. सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन भारतरत्न,,*

एक ऐसा व्यक्ति जो  चौर्य कर्म में लिप्त है उसको शिक्षा का प्रतीक बनाकर आजाद भारत के नीति निर्धारको को क्या मिला? कुछ नहीं बस एक और छोटा सा बेहूदा कदम भारत को नष्ट करने के प्रयास में,,

जिनको ये अच्छे लगते हैं वे इनकी पूजा पाठ करें मुझे कोई ऐतराज नहीं,,
मेरा व्यक्तिगत मानना है कि अगर शिक्षक दिवस मनाए बिना रुका ही नहीं जा रहा है तो अपने किसी भी मास्टर या मास्टरनी का नाम लिख लो या फोटो लगा लो भाई,, कुछ भी हो इनसे तो अच्छा ही निकलेगा,,

साभार ,,,

हम सब एक हैं

 

सतीश जी बता रहे थे कि उनकी  कल  एक बेहद घनिष्ट एवं एक कट्टर हिंदूवादी मित्र से धर्म पर ही चर्चा हो रही थी.

इधर मुझे भी लगा कि ये ज्ञान और विज्ञान कि चर्चा का रसास्वादन हम सब भी लें ।

और, चर्चा के दौरान कुमार सतीश जी ने उन मित्र को  बताया कि... हम सब स्वयंभू मनु की संतान हैं यार..
इसीलिए, हम सब एक हैं.

इस पर वो आश्चर्य से मुँह खोलते हुए बोला कि....
तो, इसका मतलब तो फिर ये हुआ कि हम सब भाई-बहन हुए .

तो, क्या हम सब आपस में भाई-बहन में ही शादी कर लेते हैं ??? 😲

उन्ही के शब्दों में -

उसकी ऐसी मासूमियत को देख मुझे जोर की हंसी आ गई..

लेकिन, ये सवाल सिर्फ मेरे मित्र का ही नहीं है बल्कि बहुत सारे हिन्दू इस बात पर कंफ्यूज होते हैं कि जब हम एक ही ओरिजिन (मनु-सतरूपा) से आये हैं तो इस लिहाज से हम सब आपस में भाई-बहन कैसे नहीं हुए ??

और, अगर ऐसा है तो फिर अपने ही भाई-बहन में शादी कैसे हो सकती है ???

लेकिन, इसका जबाब बहुत ही आसान है एवं इसका जबाब हमारी ही परंपराओं तथा मान्यताओं में छुपा हुआ है.

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जैसा कि हम सभी जानते हैं कि...  हमारे धार्मिक ग्रंथ और हमारी सनातन हिन्दू परंपरा के अनुसार पुत्र (बेटा) को कुलदीपक अथवा वंश को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है.....
अर्थात.... उसे गोत्र का वाहक माना जाता है.

लेकिन, क्या आप जानते हैं कि.... आखिर ऐसा क्यों होता है कि सिर्फ पुत्र को ही वंश का वाहक माना जाता है ????

असल में इसका कारण.... पुरुष प्रधान समाज अथवा पितृसत्तात्मक व्यवस्था नहीं ....
बल्कि, हमारे जन्म लेने की प्रक्रिया में छुपा विज्ञान है.

अगर हम जन्म लेने की प्रक्रिया को सूक्ष्म रूप से देखेंगे तो हम पाते हैं कि......

एक स्त्री में गुणसूत्र XX होते है.... और, पुरुष में XY होते है.

इसका मतलब यह हुआ कि.... अगर पुत्र हुआ (जिसमें XY गुणसूत्र है)... तो, उस पुत्र में Y गुणसूत्र पिता से ही आएगा क्योंकि माता में तो Y गुणसूत्र होता ही नहीं है.

और.... यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) तो यह गुणसूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते है.

XX गुणसूत्र अर्थात पुत्री

अब इस XX गुणसूत्र के जोड़े में एक X गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा X गुणसूत्र माता से आता है.

तथा, इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है... जिसे, Crossover कहा जाता है.

जबकि... पुत्र में XY गुणसूत्र होता है.

अर्थात.... जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि.... पुत्र में Y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में Y गुणसूत्र होता ही नहीं है.

और.... दोनों गुणसूत्र अ-समान होने के कारण.... इन दोनों गुणसूत्र का पूर्ण Crossover नहीं... बल्कि, केवल 5 % तक ही Crossover होता है.

और, 95 % Y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही बना रहता है.

तो, इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण Y गुणसूत्र हुआ.... क्योंकि, Y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है कि.... यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है.

बस..... इसी Y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था.

इस तरह ये बिल्कुल स्पष्ट है कि.... हमारी वैदिक गोत्र प्रणाली, गुणसूत्र पर आधारित है अथवा Y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है.

उदाहरण के लिए .... यदि किसी व्यक्ति का गोत्र शांडिल्य है तो उस व्यक्ति में विद्यमान Y गुणसूत्र शांडिल्य ऋषि से आया है....  या कहें कि शांडिल्य ऋषि उस Y गुणसूत्र के मूल हैं.

अब चूँकि....  Y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता है इसीलिए विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके ""पति के गोत्र से जोड़ दिया"" जाता है.

वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यही है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व् स्त्री भाई-बहन कहलाए क्योंकि उनका पूर्वज (ओरिजिन) एक ही है.....
क्योंकि, एक ही गोत्र होने के कारण...
दोनों के गुणसूत्रों में समानता होगी.

आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार भी.....  यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनके संतान... आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी क्योंकि.... ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता एवं ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है.

विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं.
शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था.

और.... मुल्लों के जन्मजात अज्ञानी अल्पबुद्धि होने का भी यही प्रमुख कारण है.... क्योंकि, वे अपनी माँ, बहन, मौसी और चाची तक से बच्चा पैदा करने में गुरेज नहीं करते.

खैर...... मलेछों की चर्चा छोड़कर.... अपने गोत्र सिस्टम को आगे बढ़ाते हैं...

जैसा कि हम जानते हैं कि.... पुत्री में 50% गुणसूत्र माता का और 50% पिता से आता है.

फिर, यदि पुत्री की भी पुत्री हुई तो....  वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा...
और फिर....  यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा.

इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह % घटकर 1% रह जायेगा.

अर्थात.... एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है....
और, यही है "सात जन्मों के साथ का रहस्य".

लेकिन.....  यदि संतान पुत्र है तो .... पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है...
और, यही क्रम अनवरत चलता रहता है.

जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं....
अर्थात, यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है.

अब सबसे महत्वपूर्ण बात कि... फिर, ""कन्यादान का रहस्य"" क्या है ???

तो, कन्यादान का रहस्य ये है कि....
माता पिता यदि कन्यादान करते हैं तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं...

बल्कि, इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि...
दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुल धात्री बनने के लिये, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिए.

पुत्रियां..... आजीवन डीएनए मुक्त हो नहीं सकती क्योंकि उसके भौतिक शरीर में माता के वे डीएनए रहेंगे ही,
इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है.

शायद यही कारण है कि..... विवाह के पश्चात लड़कियों के पिता को घर को ""मायका"" ही कहा जाता है.... "'पिताका"" नहीं.

क्योंकि..... उसने अपने जन्म वाले गोत्र अर्थात पिता के गोत्र का त्याग कर दिया है....!

और चूंकि.....  कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का दान कर मातृत्व को प्राप्त करती है... इसीलिए,  हर विवाहित स्त्री माता समान पूजनीय हो जाती है.

आश्चर्य की बात है कि.... हमारी ये परंपराएं हजारों-लाखों साल से चल रही है जिसका सीधा सा मतलब है कि हजारों लाखों साल पहले.... जब पश्चिमी देशों के लोग नंग-धड़ंग जंगलों में रह रहा करते थे और चूहा ,बिल्ली, कुत्ता वगैरह मारकर खाया करते थे....

उस समय भी हमारे पूर्वज ऋषि मुनि.... इंसानी शरीर में गुणसूत्र के विभक्तिकरण को समझ गए थे.... और, हमें गोत्र सिस्टम में बांध लिया था.

शायद अब आप समझ गए होंगे कि शादी के समय हमारे सनातन हिन्दू धर्म सात पुश्तों तक की बात क्यों की जाती है ???

और, सात पुश्तों के बाद उन्हें अलग क्यों मान लिया जाता है.

सात पुश्तों के बाद अपने रिश्तेदारों को अलग मान लेने का कारण ये कतई नहीं है कि... उतना मानने लगेंगे तो हमारा परिवार इतना बड़ा हो जाएगा कि संभालना मुश्किल हो जाएगा.

बल्कि, सात पुश्तों के बाद उन्हें अलग मान लेने का मतलब ये होता है कि... अब उस परिवार में हमारे परिवार का DNA नहीं बचा है.

और, वे दूसरे DNA के लोग हैं.

इस तरह... सात पुश्तों के बाद हम आपस में भाई-बहन नहीं रह जाते हैं.

और, सात पुश्त मतलब निकल रहा है कि...
अगर किसी को 30 वर्ष की आयु में बच्चे होते हैं..
तो, 30×7 = 210 साल के बाद उनके DNA बदल जाते हैं.

अब अगर मनु-सतरूपा को हम बहुत कम अर्थात मात्र 20-25 हजार साल ही पहले का ही मान लें..

तो, ये कल्पना की जा सकती है कि उसके बाद कितनी पुश्तें गुजर चुकी है.

इसीलिए... धार्मिक ग्रंथों से इतर विज्ञान की दृष्टि से भी हम सभी हिनू आपस में भाई-बहन नहीं हैं..

और, हमारी आपस में शादी भाई-बहन में शादी नहीं है.

असल में लोगों के मन में ये सब फालतू सवाल इसीलिए उपजते हैं क्योंकि अंग्रेजों ने हमलोगों के मन में एक कुंठा बो दी है.....

इसीलिए, हम कुंठित दिमाग से उन्हीं की तरह बात करने लगते हैं.

जबकि, अब जरूरत है हमें उस अंग्रजों द्वारा बोई गई कुंठा से बाहर आकर हमें अपने पुरातन विज्ञान को फिर से समझते हुए उसे अपनी नई पीढियों को बताने और समझाने की.

इसके साथ ही मैं अपनी बात फिर से दुहराता हूँ कि... आधुनिकतम विज्ञान एवं पावरफुल इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के आने के बाद भी जिस DNA और क्रोमोजोम्स के विभक्तिकरण की प्रक्रिया को समझने में वैज्ञानिकों को पसीने आ जाते हैं...

इतने गूढ़ विषय को हमारे ऋषि मुनियों ने आज से हजारों साल पहले न सिर्फ अच्छी तरह समझ लिया था..

बल्कि, उन्होंने अपनी सात पीढ़ियों तक शादी नहीं करने की परंपरा बनाकर उसका समाधान भी बता दिया था कि हम इस प्रॉब्लम से ऐसे निपट सकते हैं.

तो... अब आधुनिकतम विज्ञान द्वारा अपने पूर्वज ऋषि-मुनियों की बातें और हमारे लिए बनाई परंपराओं के सत्यापित हो जाने के बाद आखिर हमें अपने विद्वान पूर्वजों एवं उनके ज्ञान पर गर्व क्यों नहीं होना चाहिए ???
जय सनातन...!!🚩

रविवार, 4 सितंबर 2022

जगत स्वप्न

 

एक किसान था। उसके एक लड़का था। और कोई सन्तान न थी। वह लड़के को बड़ा प्यार करता था और खूब लाड़ से पालन पोषण करता। एक दिन वह खेत पर काम कर रहा था तो उसे लोगों ने खबर दी कि तुम्हारा लड़का बड़ा बीमार है। उसकी हालत बहुत खराब है। किसान घर पर पहुँचा तो देखा लड़का मर चुका है। घर में स्त्रियाँ रोने लगी, पड़ोसिनें भी उस होनहार लड़के के लिए रोती हुई आईं। किन्तु किसान न रोया न दुःखी हुआ। वह शान्त चित्त से उसके अन्तिम संस्कार की व्यवस्था करने लगा। स्त्री कहने लगी “कैसा पत्थर का कलेजा है आपका, एकमात्र बच्चा था वह मर जाने से भी आपका दिल नहीं दुखा? थोड़ी देर बाद में किसान ने स्त्री को बुलाकर कहा देखो रात को मैंने एक स्वप्न देखा था। उसमें मैं राजा बन गया। मेरे सात राजकुमार थे जो बड़े ही सुन्दर और वीर थे। प्रचुर धन सम्पत्ति थी। सुबह आँखें खुलते ही देखा तो सब नष्ट। अब तुम ही बताओ कि उन सात पुत्रों के लिए रोऊं या इसके लिए। यह कहते हुए अपनी स्त्री को भी समझाया।

ज्ञानियों के लिए जैसा स्वप्न है वैसा ही यह दृश्य जगत। यह भी स्वप्नवत है, यह जानकर ज्ञानी लोग इसके हानि लाभ से प्रभावित नहीं होते और अपनी सदा एक रस, सत्य नित्य रहने वाली आत्म स्थिति में स्थिर रहते हैं।

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शनिवार, 3 सितंबर 2022

मनहूस कौन

 

"दूसरों की आलोचना करने वालों को इस घटना को भी स्मरण रखना चाहिए।"

एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा और एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया।

जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,"महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,"हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा,"महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है।

अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है। "राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, "राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है।

आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। उसे सही सलाह मिली।

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