सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

चिल्लाओ खुलकर


चिन्तन के पल...
आक्रोश निकाल लो...
शेर को देखिये, आराम से बैठा है लेकिन अचानक ही दहाड़ उठता है। हाथी भी कब चिंघाड़ उठे, पता नहीं चलता। यहाँ तक की कुत्ता भी सोता-सोता भौंकने लगता है! कहने का तात्पर्य यह है कि दुनिया का प्रत्येक प्राणी अपने अन्दर के आक्रोश को प्रतिदिन बाहर निकालता है। लेकिन मनुष्य को हमने सभ्यता का ऐसा पाठ पढ़ाया है कि वह शान्त हो गया है। उसका आक्रोश स्वाभाविक रूप से बाहर निकलना चाहिये था लेकिन उसका दम घोट दिया गया है।

पुरुष तो फिर भी यदा-कदा आक्रोश बाहर निकाल लेता है लेकिन महिला को तो इजाज़त नहीं है। वह तो एक बात अच्छी है कि पति-पत्नी के रिश्ते में यह सहूलियत है कि वह बिना बात के भी झगड़ा कर ले और अपना आक्रोश निकाल ले। श्रीमति अजित गुप्ता के शब्दों में - मैं अक्सर कहती हूँ कि वह पीढ़ी ज़्यादा खुश थी जिसमें मनुष्य बीच चौराहे पर खड़ा होकर ताण्डव कर लेता था। महिला भी गाँव-क़स्बों में पनघट पर झगड़ती हुई मिल ही जाती थी। अब तो सभ्य बनो और मौन रहो। फिर दिल पकड़कर बैठ जाओ।

सभ्यता ने मनुष्य को कुछ भी खुलकर करने की आज़ादी नहीं दी है। वह प्रकृति के विरूद्ध आचरण कर रहा है। प्रकृति में झंझावात भी है, गर्जन-तर्जन भी है, तभी शान्ति आती है। आज मनुष्य दम घोंटे बैठा है, यहाँ तक की बच्चों के सामने भी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। टीवी का रिमोट तक वह बच्चों से नहीं ले सकता। पहले बड़े-बूढ़े चिल्लाते ही रहते थे और आज दम साधे चुप बैठे हैं।

कभी हम चिल्ला नहीं पाते और कभी खुलकर हँस भी नहीं सकते! अजीब दुनिया बना डाली है हमने! माना कि प्रकृति भी नियमों से बँधी है लेकिन स्वाभाविक क्रियाएँ कभी रुकती नहीं। हम केवल नियमों से बँधते चले गये और हमने स्वाभाविक क्रियाएँ भी छोड़ दी है। केवल आक्रोश को बाहर नहीं निकाल पाए और कितने रोग अपने अंदर समाहित कर लिये! मेरा मन करता है कि मैं भी शेर की तरह दहाड़ सकूँ या हाथी की तरह चिंघाड़ लूँ। ज्यादा भी नहीं कर सकूँ तो कुत्ते की तरह गुर्रा ही लूँ!
कभी कर के देखिये शायद दिल को थोड़ा आराम मिले।

लेकिन नहीं कर पाते हैं हम! एक मिनट में लड़ाका घोषित हो जाएंगे। सभ्य समाज धिक्कार करेगा। अपनी साख बचाने के लिये सभ्यता का झूठा खोल पहनकर रखना ही पड़ेगा। बस पति-पत्नी कभी एक दूसरे पर गुर्रा लेते हैं, यही अच्छी बात है। यहाँ पर ही थोड़ा मन का गुबार बाहर निकलता है और मन को कुछ राहत मिलती है नहीं तो सारे ही रिश्तों को सभ्यता की आड़ में मौन कहना सिखा दिया है। कभी-कभी लड़ लिया करो मित्रों, मन के द्वार खुल जाते हैं, नहीं तो हम घुटकर रह जाएंगे।

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