चिन्तन के पल
गुरुकुल में अध्ययनरत विद्यार्थियों में संपन्न घरों से आए बालकों ने गुरुकुल संचालक से पूछा-"आचार्य जो अपने घरों से अच्छा भोजन और वस्त्र मँगा सकते हैं, वे उनका उपयोग क्यों न करें? वे भी क्यों दूसरे निर्धनों की तरह असुविधाएँ भुगतें?"
आचार्य निर्दोष विद्यार्थियों को स्नेहपूर्वक समझाते हुए कहने लगे-"विद्यार्थियो! उत्तम मनुष्य जिस समुदाय में रहते हैं, उसी की तरह जीवनयापन करते हैं। यह समता ही अपने और दूसरों के लिए सौजन्य उत्पन्न करती है। संपन्नता का प्रदर्शन ईर्ष्या और अहंकार उत्पन्न करता है, इससे विग्रह खड़े होते हैं और सहयोग का आधार टूट जाता है। विषमता ने ही समाज में अनेक विग्रह खड़े किए हैं और अपराधों-अनाचारों को जन्म दिया है। यहाँ समानता का जीवन जीने की दिशा दी जाती है। समाज के अन्य लोगों की तरह ही जीना सिखाया जाता है। धनी अपना धन निर्धनों को ऊँचा उठाने में लगाएँ, न कि निजी सुविधा संवर्द्धन में।"
विद्यार्थियों ने समता के दूरगामी सत्परिणाम समझे और संपन्नों के मन में जो अधिक उपयोग का भाव उठा था, वह भी समाप्त हो गया। 
धार्मिक पहनावा भी असमता का जनक बन जाता है विद्या के घर में । वहाँ मात्र और मात्र शिक्षा , ज्ञान की बात ही होनी चाहिए।
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