रविवार, 27 फ़रवरी 2022

इधर उधर बिखरी कहानियां

 

बार बार पढ़ने सी है ये कहानी...


पिताजी ने मेरे लिये किया क्या है :-

"अजी सुनते हो? राहूल को कम्पनी में जाकर टिफ़िन दे आओगे क्या?"

"क्यों आज राहूल टिफ़िन लेकर नहीं गया।?" शरद राव ने पुछा।

आज राहूल की कम्पनी के चेयरमैन आ रहे हैं, इसलिये राहूल सुबह 7 बजे ही निकल गया और इतनी सुबह खाना नहीं बन पाया था।"

"ठीक हैं। दे आता हूँ मैं।"

शरद राव ने हाथ का पेपर रख दिया और वो कपडे बदलने के लिये कमरे में चले गये। पुष्पाबाई ने  राहत की साँस ली।

शरद राव तैयार हुए मतलब उसके और राहूल के बीच हुआ विवाद उन्होंने नहीं सुना था।

विवाद भी कैसा ? हमेशा की तरह राहूल का अपने पिताजी पर दोषारोपण करना और
पुष्पाबाई का अपनी पति के पक्ष में बोलना।

विषय भी वही! हमारे पिताजी ने हमारे लिये क्या किया? मेरे लिये क्या किया हैं मेरे बाप ने ?

"माँ! मेरे मित्र के पिताजी भी शिक्षक थे, पर देखो उन्होंने कितना बडा बंगला बना लिया। नहीं तो एक ये हमारे पापा   (पिताजी)। अभी भी हम किराये के मकान में ही रह रहे हैं।"

"राहूल, तुझे मालूम हैं कि तुम्हारे पापा  घर में बडे हैं। और दो बहनों और दो भाईयों की शादी का खर्चा भी उन्होंने उठाया था। सिवाय इसके तुम्हारी बहन की शादी का भी खर्चा उन्होंने ने ही किया था। अपने गांव की जमीन की कोर्ट कचेरी भी लगी ही रही। ये सारी जवाबदारियाँ किसने उठाई?"

"क्या उपयोग हुआ उसका? उनके भाई - बहन बंगलों में रहते हैं। कभी भी उन्होंने सोचा कि हमारे लिये जिस भाई ने इतने कष्ट उठाये उसने एक छोटा सा मकान भी नहीं बनाया, तो हम ही उन्हें एक मकान बना कर दे दें ?"

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एक क्षण के लिए पुष्पाबाई की आँखें भर आईं।

क्या बतायें अपने जन्म दिये पुत्र को "बाप ने क्या किया मेरे लिये" पुछ रहा है ?

फिर बोली  .... "तुम्हारे पापा  ने अपना कर्तव्य निभाया। भाई-बहनों से कभी कोई आशा नहीं रखी। "

राहूल मूर्खों जैसी बात करते हुए बोला — "अच्छा वो ठीक हैं। उन्होंने हजारों बच्चों की ट्यूशन्स ली। यदि उनसे फीस ले लेते तो आज पैसो में खेल रहे होते।"

"आजकल के क्लासेस वालों को देखो। इंपोर्टेड गाड़ियों में घुमते हैं।"

"यह तुम सच बोल रहे हो। परन्तु, तुम्हारे पापा ( पिताजी) का तत्व था, ज्ञान दान का पैसा नहीं लेना"

"उनके इन्हीं तत्वों के कारण उनकी कितनी प्रसिद्धि हुई। और कितने पुरस्कार मिलें। उसकी कल्पना हैं तुझे।"

ये सुनते ही राहूल एकदम नाराज हो गया।

"क्या चाटना हैं उन पुरस्कारों को? उन पुरस्कारों से घर थोडे ही बनते आयेगा। पडे ही धूल खाते हुए। कोई नहीं पुछता उनको।"

इतने में दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। राहूल ने दरवाजा खोला तो शरदराव खडे थे।

पापा  ने उनका  बोलना तो नहीं सुना इस डर से राहूल का चेहरा उतर गया। परन्तु, शरद राव बिना कुछ बोले अन्दर चले गये। और वह वाद वहीं खत्म हो गया।

ये था पुष्पाबाई और राहूल का कल का झगड़ा, पर आज ....

शरद राव ने टिफ़िन साईकिल को अटकाया और तपती धूप में औद्योगिक क्षेत्र की राहूल की कम्पनी के लिये निकल पडे।

7 किलोमीटर दूर कंपनी तक पहुचते - पहुंचते उनका दम फूल गया था। कम्पनी के गेट पर सिक्युरिटी गार्ड ने उन्हें रोक दिया।

"राहूल पाटील साहब का टिफ़िन देना हैं। अन्दर जाँऊ क्या?"

"अभी नहीं सहाब आये हुए है ।" गार्ड बोला।

"चेयरमैन साहब आये हुए हैं। उनके साथ मिटिंग चल रही हैं। किसी भी क्षण वो मिटिंग खत्म कर आ सकते हैं। तुम बाजू में ही रहिये। चेयरमैन साहब को आप दिखना नहीं चाहिये।"

शरद राव थोडी दूरी पर धूप में ही खडे रहे। आसपास कहीं भी छांव नहीं थी।

थोडी देर बोलते बोलते एक घंटा निकल गया। पांवों में दर्द उठने लगा था।

इसलिये शरद राव वहीं एक तप्त पत्थर पर बैठने लगे, तभी गेट की आवाज आई। शायद मिटिंग खत्म हो गई होगी।

चेयरमैन साहेब के पीछे पीछे कई   अधिकारी और उनके साथ राहूल भी बाहर आया।

उसने अपने पिताजी को वहाँ खडे देखा तो मन ही मन नाराज हो गया।

   चेयरमैन साहब कार का दरवाजा खोलकर बैठने ही वाले थे तो उनकी नजर शरद राव की ओर उठ गई।

कार में न बैठते हुए वो वैसे ही बाहर खडे रहे।

"वो सामने कौन खडा हैं?" उन्होंने सिक्युरिटी गार्ड से पुछा।

"अपने राहूल सर के पिताजी हैं। उनके लिये खाने का टिफ़िन लेकर आये हैं।"
गार्ड ने कंपकंपाती आवाज में कहा।

"बुलवाइये उनको।"

जो नहीं होना था वह हुआ।

राहूल के तन से पसीने की धाराऐं बहने लगी। क्रोध और डर से उसका दिमाग सुन्न हुआ जान पडने लगा।

गार्ड के आवाज देने पर शरद राव पास आये।

चेयरमैन साहब आगे बढे और उनके समीप गये।

"आप पाटील सर हैं ना? डी. एन. हाई स्कूल में शिक्षक थे।"

"हाँ। आप कैसे पहचानते हो मुझे?"

कुछ समझने के पहले ही चेयरमैन साहब ने शरदराव के चरण छूये। सभी अधिकारी और राहूल वो दृश्य देखकर अचंभित रह गये।

"सर, मैं अतिश अग्रवाल। आपका विद्यार्थी। आप मुझे घर पर पढ़ाने आते थे।"

" हाँ.. हाँ.. याद आया। बाप रे बहुत बडे व्यक्ति बन गये आप तो ..."

चेयरमैन हँस दिये। फिर बोले, "सर आप यहाँ धूप में क्या कर रहे हैं। आईये अंदर चलते हैं। बहुत बातें करनी हैं आपसे।

सिक्युरिटी तुमने इन्हें अन्दर क्यों नहीं बिठाया?"

गार्ड ने शर्म से सिर नीचे झुका लिया।

वो देखकर शरद राव ही बोले — "उनकी कोई गलती नहीं हैं। आपकी मिटिंग चल रही थी। आपको तकलीफ न हो, इसलिये मैं ही बाहर रूक गया।"

"ओके... ओके...!"

चेयरमैन साहब ने शरद राव का हाथ अपने हाथ में लिया और उनको अपने आलीशन चेम्बर में ले गये।

"बैठिये सर। अपनी कुर्सी की ओर इंगित करते हुए बोले।

"नहीं। नहीं। वो कुर्सी आपकी हैं।" शरद राव सकपकाते हुए बोले।

"सर, आपके कारण वो कुर्सी मुझे मिली हैं। इसलिए पहला हक आपका हैं।"

चेयरमैन साहब ने जबरदस्ती से उन्हें अपनी कुर्सी पर बिठाया।

"आपको मालूम नहीं होगा पवार सर.."  जनरल मैनेजर की ओर देखते हुए बोले,"पाटिल सर नहीं होते तो आज ये कम्पनी नहीं होती और मैं मेरे पिताजी की अनाज की दुकान संभालता रहता।"

राहूल और जी. एम. दोनों आश्चर्य से उनकी ओर देखते ही रहे।

"स्कूल समय में मैं बहुत ही डब्बू विद्यार्थी था। जैसे तैसे मुझे नवीं कक्षा तक पहूँचाया गया। शहर की सबसे अच्छी क्लासेस में मुझे एडमिशन दिलाया गया। परन्तु मेरा ध्यान कभी पढाई में नहीं लगा। उस पर अमीर बाप की औलाद। दिन भर स्कूल में मौज मस्ती और मारपीट करना। शाम की क्लासेस से बंक मार कर मुवी देखना यही मेरा शगल था। माँ को वो सहन नहीं होता। उस समय पाटिल सर कडे अनुशासन और उत्कृष्ट शिक्षक के रूप में प्रसिद्ध थे। माँ ने उनके पास मुझे पढ़ाने की विनती की। परन्तु सर के छोटे से घर में बैठने के लिए जगह ही नहीं थी। इसलिये सर ने पढ़ाने में असमर्थता दर्शाई। "

"माँ ने उनसे बहुत विनती की।और हमारे घर आकर पढ़ाने के लिये मुँह मांगी फीस का बोला। सर ने फीस के लिये तो मना कर दिया। परन्तु अनेक प्रकार की विनती करने पर घर आकर पढ़ाने को तैयार हो गये। पहिले दिन सर आये। हमेशा की तरह मैं शैतानी करने लगा। सर ने मेरी अच्छी तरह से धुनाई कर दी। उस धुनाई का असर ऐसा हुआ कि मैं चुपचाप बैठने लगा। तुम्हें कहता हूँ राहूल, पहले हफ्ते में ही मुझे पढ़ने में रूचि जागृत हो गई। तत्पश्चात मुझे पढ़ाई के अतिरिक्त कुछ भी सुझाई नहीं देता था। सर इतना अच्छा पढ़ाते थे, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान जैसे विषय जो मुझे कठिन लगते थे वो अब सरल लगने लगे थे। सर कभी आते नहीं थे तो मैं व्यग्र हो जाता था। नवीं कक्षा में मैं दुसरे नम्बर पर आया। माँ-पिताजी को खुब खुशी हुई। मैं तो, जैसे हवा में उडने लगा था। दसवीं में मैंने सारी क्लासेस छोड दी और सिर्फ पाटिल सर से ही पढ़ने लगा था। और दसवीं में मेरीट में आकर मैंने सबको चौंका दिया था।"

"माय गुडनेस...! पर सर फिर भी आपने सर को फीस नहीं दी?" जनरल मैनेजर ने पुछा। 
        
"मेरे माँ - पिताजी के साथ मैं सर के घर पेडे लेकर गया। पिताजी ने सर को एक लाख रूपये का चेक दिया। सर ने वो नहीं लिया। उस समय सर क्या बोले वो मुझे आज भी याद हैं।

सर बोले — "मैंने कुछ भी नहीं किया। आपका लडका ही बुद्धिमान हैं। मैंने सिर्फ़ उसे रास्ता बताया। और मैं ज्ञान नहीं बेचता। मैं वो दान देता हूँ। बाद में मैं सर के मार्गदर्शन में ही बारहवीं मे पुनः मेरीट में आया। बाद में बी. ई. करने के बाद अमेरिका जाकर एम. एस. किया। और अपने शहर में ही यह कम्पनी शुरु की। एक पत्थर को तराशकर सर ने हीरा बना दिया। और मैं ही नहीं तो सर ने ऐसे अनेक असंख्य हीरे बनाये हैं। सर आपको कोटि कोटि प्रणाम...!!" चेयरमैन साहब ने अपनी आँखों में आये अश्रु रूमाल से पोंछे।

"परन्तु यह बात तो अदभूत ही हैं कि, बाहर शिक्षा का और ज्ञानदान का बाजार भरा पडा होकर भी सर ने एक रूपया भी न लेते हुए हजारों विद्यार्थियों को पढ़ाया, न केवल पढ़ाये पर उनमें पढ़ने की रूचि भी जगाई। वाह सर मान गये आपको और आपके आदर्श को।"
शरद राव की ओर देखकर जी. एम ने कहा।

"अरे सर! ये व्यक्ति तत्त्वनिष्ठ हैं। पैसों, और मान सम्मान के भूखे भी नहीं हैं। विद्यार्थी का भला हो यही एक मात्र उद्देश्य था।" चेयरमैन बोले।

"मेरे पिताजी भी उन्हीं मे से एक। एक समय भूखे रह लेंगे, पर अनाज में मिलावट करके बेचेंगे नहीं।"

ये उनके तत्व थे। जिन्दगी भर उसका पालन किया।ईमानदारी से व्यापार किया। उसका फायदा आज मेरे भाईयों को हो रहा हैं।"

बहुत देर तक कोई कुछ भी नहीं बोला।

फिर चेयरमैन ने शरद राव से पुछा, - "सर आपने मकान बदल लिया या उसी मकान में हैं रहते हैं।"

"उसी पुराने मकान में रहते हैं सर! "
शरदराव के बदले में राहूल ने ही उत्तर दिया।
   
उस उत्तर में पिताजी के प्रति छिपी नाराजगी तत्पर चेयरमैन साहब की समझ में आ गई ।

‌"तय रहा फिर। सर आज मैं आपको गुरू दक्षिणा दे रहा हूँ। इसी शहर में मैंने कुछ फ्लैट्स ले रखे हैं। उसमें का एक थ्री बी. एच. के. का मकान आपके नाम कर रहा हूँ....."

"क्या.?" शरद राव और राहूल दोनों आश्चर्य चकित रूप से बोलें।

"नहीं नहीं इतनी बडी गुरू दक्षिणा नहीं चाहिये मुझे।" शरद राव आग्रहपूर्वक बोले।

चेयरमैन साहब ने शरदराव के हाथ को अपने हाथ में लिया।  "सर, प्लीज....  ना मत करिये और मुझे माफ करें। काम की अधिकता में आपकी गुरू दक्षिणा देने में पहले ही बहुत देर हो चुकी हैं।"

फिर राहूल की ओर देखते हुए उन्होंने पुछ लिया, राहूल तुम्हारी शादी हो गई क्या?"

‌"नहीं सर, जम गई हैं। और जब तक रहने को अच्छा घर नहीं मिल जाता तब तक शादी नहीं हो सकती। ऐसी शर्त मेरे ससुरजी ने रखी होने से अभी तक शादी की डेट फिक्स नहीं की। तो फिर हाॅल भी बुक नहीं किया।"

चेयरमैन ने फोन उठाया और किसी से बात करने लगे।समाधान कारक चेहरे से फोन रखकर, धीरे से बोले "अब चिंता की कोई बात नहीं। तुम्हारे मेरीज गार्डन का काम हो गया। "सागर लान्स" तो मालूम ही होगा!"

"सर वह तो बहूत महंगा हैं..."

"अरे तुझे कहाँ पैसे चुकाने हैं। सर के सारे विद्यार्थी सर के लिये कुछ भी कर सकते हैं। सर के बस एक आवाज देने की बात हैं।

परन्तु सर तत्वनिष्ठ हैं, वैसा करेंगे भी नहीं। इस लान्स का मालिक भी सर का ही विद्यार्थी हैं। उसे मैंने सिर्फ बताया। सिर्फ हाॅल ही नहीं तो भोजन सहित संपूर्ण शादी का खर्चा भी उठाने की जिम्मेदारियाँ ली हैं उसने... वह भी स्वखुशी से। तुम केवल तारीख बताओ और सामान लेकर जाओ।

"बहूत बहूत धन्यवाद सर।"

राहूल अत्यधिक खुशी से हाथ जोडकर बोला। "धन्यवाद मुझे नहीं, तुम्हारे पिताश्री को दो राहूल!ये उनकी पुण्याई हैं। और मुझे एक वचन दो राहूल! सर के अंतिम सांस तक तुम उन्हें अलग नहीं करोगे और उन्हें कोई दुख भी नहीं होने दोगे।

मुझे जब भी मालूम चला कि, तुम उन्हें दुख दे रहे होतो, न केवल इस कम्पनी से  लात मारकर भगा दुंगा परन्तु पुरे महाराष्ट्र भर के किसी भी स्थान पर नौकरी करने लायक नहीं छोडूंगा। ऐसी व्यवस्था कर दूंगा।"चेयरमैन साहब कठोर शब्दों में बोले।

"नहीं सर। मैं वचन देता हूँ, वैसा कुछ भी नहीं होगा।" राहूल हाथ जोडकर बोला।

शाम को जब राहूल घर आया तब, शरद राव किताब पढ रहे थे। पुष्पाबाई पास ही सब्जी काट रही थी।

राहूल ने बैग रखी और शरद राव के पाँव पकडकर बोला — "पापा , मुझसे गलती हो गई। मैं आपको आज तक गलत समझता रहा। मुझे पता नहीं था पापा  आप इतने बडे व्यक्तित्व लिये हो।"

‌शरद राव ने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया।

अपना लडका क्यों रो रहा हैं, पुष्पाबाई की समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु कुछ अच्छा घटित हुआ हैं।

इसलिये पिता-पुत्र में प्यार उमड रहा हैं। ये देखकर उनके नयनों से भी कुछ बूंदे गाल पर लुढक आई।

सभी को जानना होगा कि अपने माता - पिता से कभी यह न कहे कि "आपने मेरे लिये किया ही क्या हैं?" जो भी कमाना हो वो स्वयं अर्जित करें। जो शिक्षा और संस्कार उन्होंने तुम्हें दिये हैं वही कमाने के लिए पथप्रदर्शक रहेंगे।

मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः

🙏

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

परमात्मा की नज़र

 

पुरानी बात है - कलकत्ते में सर कैलासचन्द्र वसु प्रसिद्ध डॉक्टर हो गये हैं। उनकी माता बीमार थीं। एक दिन श्रीवसु महोदय ने देखा—माता की बीमारी बढ़ गयी है, कब प्राण चले जायँ, कुछ पता नहीं। रात्रि का समय था। कैलास बाबू ने बड़ी नम्रता के साथ माताजी से पूछा- 'माँ, तुम्हारे मन में किसी चीज की इच्छा हो तो बताओ, मैं उसे पूरी कर दूँ।' माता कुछ देर चुप रहकर बोलीं- 'बेटा! उस दिन मैंने बम्बई के अंजीर खाये थे। मेरी इच्छा है अंजीर मिल जायँ तो मैं खा लूँ।' उन दिनों कलकत्ते के बाजार में हरे अंजीर नहीं मिलते थे। बम्बई से मँगाने में समय अपेक्षित था । हवाई जहाज थे नहीं। रेल के मार्ग से भी आजकल की अपेक्षा अधिक लगता था। कैलास बाबू बड़े दुखी हो गये - माँ ने अन्तिम समय में एक चीज माँगी और मैं माँ की उस माँग को पूरी नहीं कर सका, इससे बढ़कर मेरे लिये दु:ख की बात और क्या होगी ? पर कुछ भी उपाय नहीं सूझा । रुपयों से मिलने वाली चीज होती तो कोई बात नहीं थी । कलकत्ते या बंगाल में कहीं अंजीर होते नहीं, बाजार में मिलते नहीं। बम्बई से आने में तीन दिन लगते हैं। टेलीफोन भी नहीं, जो सूचना दे दें। तब तक पता नहीं - माता जी जीवित रहें या नहीं, अथवा जीवित भी रहें तो खा सकें या नहीं। कैलास बाबू निराश होकर पड़ गये और मन-ही-मन रोते हुए कहने लगे—'हे भगवन्! क्या मैं इतना अभागा हूँ कि माँ की अन्तिम चाह को पूरी होते नहीं देखूँगा।'

रात के लगभग ग्यारह बजे किसी ने दरवाजा खोलने के लिये बाहर से आवाज दी। डॉक्टर वसु ने समझा, किसी रोगी के यहाँ से बुलावा आया होगा। उनका चित्त बहुत खिन्न था। उन्होंने कह दिया-'इस समय मैं नहीं जा सकूँगा।' बाहर खड़े आदमी ने कहा- 'मैं बुलाने नहीं आया हूँ, एक चीज लेकर आया हूँ-दरवाजा खोलिये।' दरवाजा खोला गया। सुन्दर टोकरी हाथ में लिये एक दरवान ने भीतर आकर कहा-'डॉक्टर साहब! हमारे बाबूजी अभी बम्बई से आये हैं, वे सबेरे ही रंगून चले जायँगे, उन्होंने यह अंजीर की टोकरी भेजी है, वे बम्बई से लाये हैं। मुझसे कहा है कि मैं सबेरे चला जाऊँगा अभी अंजीर दे आओ । इसीलिये मैं अभी लेकर आ गया। कष्ट के लिये क्षमा कीजियेगा ।'

कैलास बाबू अंजीर का नाम सुनते ही उछल पड़े। उन्हें उस समय कितना और कैसा अभूतपूर्व आनन्द हुआ, इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता। उनकी आँखों में हर्षके आँसू आ गये, शरीर में आनन्द से रोमांच हो आया। अंजीर की टोकरी को लेकर वे माताजी के पास पहुँचे और बोले—‘माँ! लो - भगवान् ने अंजीर तुम्हारे लिये भेजे हैं।' उस समय माता का प्रसन्न मुख देखकर कैलास बाबू इतने प्रसन्न हुए, मानो उन्हें जीवन का परम दुर्लभ महान् फल प्राप्त हो गया हो ।

बात यह थी, एक गुजराती सज्जन, जिनका फार्म कलकत्ते और रंगून में भी था, डॉक्टर कैलास बाबू के बड़े प्रेमी थे। वे जब-जब बम्बई से आते, तब अंजीर लाया करते थे। भगवान्‌ के मंगल विधान का आश्चर्य देखिये, कैलास बाबू की मरणासन्न माता आज रात को अंजीर चाहती है और उसकी चाह को पूर्ण करने की व्यवस्था बम्बईमें चार दिन पहले ही हो जाती है और ठीक समय पर में अंजीर कलकत्ते उनके पास आ पहुँचते हैं! एक दिन पीछे भी नहीं, पहले भी नहीं।
           ~~
*इसे कहते हैं कि परमात्मा जिसको जो चीज देना चाहते हैं उसके लिए किसी न किसी को निमित्त बना ही देते हैं।*
*इसलिए यदि कभी किसी की मदद करने को मिल जाये तो अहंकार न कीजियेगा। बस इतना समझ लीजियेगा कि परमात्मा आपको निमित्त बनाकर किसी की सहायता करना चाह रहे हैं।*
*इसका अर्थ ये हुआ कि आप परमात्मा की नजर में हैं।*

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सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

चिल्लाओ खुलकर


चिन्तन के पल...
आक्रोश निकाल लो...
शेर को देखिये, आराम से बैठा है लेकिन अचानक ही दहाड़ उठता है। हाथी भी कब चिंघाड़ उठे, पता नहीं चलता। यहाँ तक की कुत्ता भी सोता-सोता भौंकने लगता है! कहने का तात्पर्य यह है कि दुनिया का प्रत्येक प्राणी अपने अन्दर के आक्रोश को प्रतिदिन बाहर निकालता है। लेकिन मनुष्य को हमने सभ्यता का ऐसा पाठ पढ़ाया है कि वह शान्त हो गया है। उसका आक्रोश स्वाभाविक रूप से बाहर निकलना चाहिये था लेकिन उसका दम घोट दिया गया है।

पुरुष तो फिर भी यदा-कदा आक्रोश बाहर निकाल लेता है लेकिन महिला को तो इजाज़त नहीं है। वह तो एक बात अच्छी है कि पति-पत्नी के रिश्ते में यह सहूलियत है कि वह बिना बात के भी झगड़ा कर ले और अपना आक्रोश निकाल ले। श्रीमति अजित गुप्ता के शब्दों में - मैं अक्सर कहती हूँ कि वह पीढ़ी ज़्यादा खुश थी जिसमें मनुष्य बीच चौराहे पर खड़ा होकर ताण्डव कर लेता था। महिला भी गाँव-क़स्बों में पनघट पर झगड़ती हुई मिल ही जाती थी। अब तो सभ्य बनो और मौन रहो। फिर दिल पकड़कर बैठ जाओ।

सभ्यता ने मनुष्य को कुछ भी खुलकर करने की आज़ादी नहीं दी है। वह प्रकृति के विरूद्ध आचरण कर रहा है। प्रकृति में झंझावात भी है, गर्जन-तर्जन भी है, तभी शान्ति आती है। आज मनुष्य दम घोंटे बैठा है, यहाँ तक की बच्चों के सामने भी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। टीवी का रिमोट तक वह बच्चों से नहीं ले सकता। पहले बड़े-बूढ़े चिल्लाते ही रहते थे और आज दम साधे चुप बैठे हैं।

कभी हम चिल्ला नहीं पाते और कभी खुलकर हँस भी नहीं सकते! अजीब दुनिया बना डाली है हमने! माना कि प्रकृति भी नियमों से बँधी है लेकिन स्वाभाविक क्रियाएँ कभी रुकती नहीं। हम केवल नियमों से बँधते चले गये और हमने स्वाभाविक क्रियाएँ भी छोड़ दी है। केवल आक्रोश को बाहर नहीं निकाल पाए और कितने रोग अपने अंदर समाहित कर लिये! मेरा मन करता है कि मैं भी शेर की तरह दहाड़ सकूँ या हाथी की तरह चिंघाड़ लूँ। ज्यादा भी नहीं कर सकूँ तो कुत्ते की तरह गुर्रा ही लूँ!
कभी कर के देखिये शायद दिल को थोड़ा आराम मिले।

लेकिन नहीं कर पाते हैं हम! एक मिनट में लड़ाका घोषित हो जाएंगे। सभ्य समाज धिक्कार करेगा। अपनी साख बचाने के लिये सभ्यता का झूठा खोल पहनकर रखना ही पड़ेगा। बस पति-पत्नी कभी एक दूसरे पर गुर्रा लेते हैं, यही अच्छी बात है। यहाँ पर ही थोड़ा मन का गुबार बाहर निकलता है और मन को कुछ राहत मिलती है नहीं तो सारे ही रिश्तों को सभ्यता की आड़ में मौन कहना सिखा दिया है। कभी-कभी लड़ लिया करो मित्रों, मन के द्वार खुल जाते हैं, नहीं तो हम घुटकर रह जाएंगे।

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रविवार, 20 फ़रवरी 2022

दो घड़ी

 

एक नगर में एक धनवान सेठ रहता था। अपने व्यापार के सिलसिले में उसका बाहर आना-जाना लगा रहता था।

एक बार वह परदेस से लौट रहा था। साथ में धन था, इसलिए तीन-चार पहरेदार भी साथ ले लिए।

लेकिन जब वह अपने नगर के नजदीक पहुंचा, तो सोचा कि अब क्या डर। इन पहरेदारों को यदि घर ले जाऊंगा तो भोजन कराना पड़ेगा।

अच्छा होगा, यहीं से विदा कर दूं। उसने पहरेदारों को वापस भेज दिया।

दुर्भाग्य देखिए कि वह कुछ ही कदम आगे बढ़ा कि अचानक डाकुओं ने उसे घेर लिया।

डाकुओं को देखकर सेठ का कलेजा हाथ में आ गया। सोचने लगा, ऐसा अंदेशा होता तो पहरेदारों को क्यों छोड़ता? आज तो बिना मौत मरना पड़ेगा।

डाकू सेठ से उसका धन आदि छीनने लगे।

तभी उन डाकुओं में से दो को सेठ ने पहचान लिया। वे दोनों कभी सेठ की दुकान पर काम कर चुके थे।

उनका नाम लेकर सेठ बोला, अरे! तुम फलां-फलां हो क्या?

अपना नाम सुन कर उन दोनों ने भी सेठ को ध्यानपूर्वक देखा। उन्होंने भी सेठ को पहचान लिया।

उन्हें लगा, इनके यहां पहले नौकरी की थी, इनका नमक खाया है। इनको लूटना ठीक नहीं है।

उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा, भाई इन्हें मत लूटो, ये हमारे पुराने सेठ जी हैं।

यह सुनकर डाकुओं ने सेठ को लूटना बंद कर दिया।

दोनों डाकुओं ने कहा, सेठ जी, अब आप आराम से घर जाइए, आप पर कोई हाथ नहीं डालेगा।

सेठ सुरक्षित घर पहुंच गया। लेकिन मन ही मन सोचने लगा, दो लोगों की पहचान से साठ डाकुओं का खतरा टल गया। धन भी बच गया, जान भी बच गई।
.
इस रात और दिन में भी साठ घड़ी होती हैं, अगर दो घड़ी भी अच्छे काम किए जाएं, तो अठावन घड़ियों का दुष्प्रभाव दूर हो सकता है।

इसलिए अठावन घड़ी कर्म की और दो घड़ी धर्म की..!!

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शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

बदलता मन

 

एक संत एक छोटे से आश्रम का संचालन करते थे। एक दिन पास के रास्ते से एक राहगीर को पकड़कर अंदर ले आए और शिष्यों के सामने उससे प्रश्न किया कि यदि तुम्हें सोने की अशर्फियों की थैली रास्ते में पड़ी मिल जाए तो तुम क्या करोगे
वह आदमी बोला - "तत्क्षण उसके मालिक का पता लगाकर उसे वापस कर दूंगा अन्यथा राजकोष में जमा करा दूंगा।"

संत हंसे और राहगीर को विदा कर शिष्यों से बोले -" यह आदमी मूर्ख है।"

शिष्य बड़े हैरान कि गुरुजी क्या कह रहे हैं ? इस आदमी ने ठीक ही तो कहा है तथा सभी को ही यह सिखाया गया है कि ऐसे किसी परायी वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
          
थोड़ी देर बाद फिर संत किसी दूसरे को अंदर ले आए और उससे भी वही प्रश्न दोहरा दिया।

उस दूसरे राहगीर ने उत्तर दिया कि क्या मुझे निरा मूर्ख समझ रखा है ?, जो स्वर्ण मुद्राएं पड़ी मिलें और मैं लौटाने के लिए मालिक को खोजता फिरूं? तुमने मुझे समझा क्या है ?
          
वह राहगीर जब चला गया तो संत ने कहा -" यह व्यक्ति शैतान है।

शिष्य बड़े हैरान हुए कि पहला मूर्ख और दूसरा शैतान, फिर गुरुजी चाहते क्या हैं ?
          
अबकी बार संत तीसरे राहगीर को पकड़कर अंदर ले आए और वही प्रश्न दोहराया।
          
राहगीर ने बड़ी सज्जनता से उत्तर दिया--" महाराज! अभी तो कहना बड़ा मुश्किल है।इस  *चाण्डाल मन का क्या भरोसा,* कब धोखा दे जाए ? एक क्षण की खबर नहीं। यदि परमात्मा की कृपा रही और सद्बुद्धि बनी रही तो लौटा दूंगा।"

             संत बोले -

*"यह आदमी सच्चा है। इसने अपनी डोर परमात्मा को सौंप रखी है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा कभी गलत निर्णय नहीं होता।*

*ज्येष्ठ पांडव, सूर्यपुत्र कर्ण कर्म, धर्म का ज्ञाता, क्या कारण था की अपने छोटे भाई अर्जुन से हार गया जबकि कर्म और धर्म दोनों में वो अर्जुन से श्रेष्ठ था। कारण था कि अर्जुन ने  पहले से ही अपनी जीवन रथ की डोरी,भगवान श्री कृष्ण के हाथ में सौंप दी..!!*
 
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सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

समता का भाव

 

चिन्तन के पल

गुरुकुल में अध्ययनरत विद्यार्थियों में संपन्न घरों से आए बालकों ने गुरुकुल संचालक से पूछा-"आचार्य जो अपने घरों से अच्छा भोजन और वस्त्र मँगा सकते हैं, वे उनका उपयोग क्यों न करें? वे भी क्यों दूसरे निर्धनों की तरह असुविधाएँ भुगतें?"

आचार्य निर्दोष विद्यार्थियों को स्नेहपूर्वक समझाते हुए कहने लगे-"विद्यार्थियो! उत्तम मनुष्य जिस समुदाय में रहते हैं, उसी की तरह जीवनयापन करते हैं। यह समता ही अपने और दूसरों के लिए सौजन्य उत्पन्न करती है। संपन्नता का प्रदर्शन ईर्ष्या और अहंकार उत्पन्न करता है, इससे विग्रह खड़े होते हैं और सहयोग का आधार टूट जाता है। विषमता ने ही समाज में अनेक विग्रह खड़े किए हैं और अपराधों-अनाचारों को जन्म दिया है। यहाँ समानता का जीवन जीने की दिशा दी जाती है। समाज के अन्य लोगों की तरह ही जीना सिखाया जाता है। धनी अपना धन निर्धनों को ऊँचा उठाने में लगाएँ, न कि निजी सुविधा संवर्द्धन में।"

विद्यार्थियों ने समता के दूरगामी सत्परिणाम समझे और संपन्नों के मन में जो अधिक उपयोग का भाव उठा था, वह भी समाप्त हो गया।
धार्मिक पहनावा भी असमता का जनक बन जाता है विद्या के घर में । वहाँ मात्र और मात्र शिक्षा , ज्ञान की बात ही होनी चाहिए।

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रविवार, 13 फ़रवरी 2022

बंधन

 

बहुत समय पहले की बात है, एक राजा को उपहार में किसी ने बाज के दो बच्चे भेंट किये । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे और राजा ने कभी इससे पहले इतने शानदार बाज नहीं देखे थे। राजा ने उनकी देखभाल के लिए एक अनुभवी आदमी को नियुक्त कर दिया। कुछ समय पश्चात राजा ने देखा कि दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे और अब पहले से भी शानदार लग रहे हैं । राजा ने बाजों की देखभाल कर रहे आदमी से कहा, ” मैं इनकी उड़ान देखना चाहता हूँ। तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो। आदमी ने ऐसा ही किया। इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे पर जहाँ एक बाज आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा था वहीँ दूसरा , कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर बैठ गया जिससे वो उड़ा था।
ये देख , राजा को कुछ अजीब लगा। “क्या बात है जहाँ एक बाज इतनी अच्छी उड़ान भर रहा है वहीँ ये दूसरा बाज उड़ना ही नहीं चाह रहा ?”, राजा ने सवाल किया। सेवक बोला, “ जी हुजूर , इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है , वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं।”
राजा को दोनों ही बाज प्रिय थे , और वो दूसरे बाज को भी उसी तरह उड़ता देखना चाहते थे। अगले दिन पूरे राज्य में ऐलान करा दिया गया कि जो व्यक्ति इस बाज को ऊँचा उड़ाने में कामयाब होगा उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा। फिर क्या था , एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे , पर हफ़्तों बीत जाने के बाद भी बाज का वही हाल था। वो थोडा सा उड़ता और वापस डाल पर आकर बैठ जाता।
फिर एक दिन कुछ अनोखा हुआ , राजा ने देखा कि उसके दोनों बाज आसमान में उड़ रहे हैं। उन्हें अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने तुरंत उस व्यक्ति का पता लगाने को कहा जिसने ये कारनामा कर दिखाया था। वह व्यक्ति एक किसान था। अगले दिन वह दरबार में हाजिर हुआ। उसे इनाम में स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा , ” मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ , बस तुम इतना बताओ कि जो काम बड़े-बड़े विद्वान् नहीं कर पाये वो तुमने कैसे कर दिखाया।“ “मालिक ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ , मैं ज्ञान की ज्यादा बातें नहीं जानता , मैंने तो बस वो डाल काट दी जिस पर बैठने का आदि हो चुका था, और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा।
हम सभी ऊँची उड़ान भरने के लिए ही बने हैं। लेकिन कई बार हम जो कर रहे होते है उसके इतने आदि हो जाते हैं कि अपनी ऊँची उड़ान भरने की क्षमता को भूल जाते हैं। जन्म जन्म हम वासनाओं की डाल पर बैठते आए हैं और अज्ञानवश ये भी हमें ज्ञात नहीं कि जो हम आज कर रहे हैं वहीं हमने जन्मों जन्मों में किया है और ये हम भूल ही गए हैं कि हम उड़ान भर सकते हैं।

अतृप्त वासनाओं की डाल पर बैठे बैठे हमें विस्मृत हो गया है कि ध्यानरूपी पंख भी हैं हमारे पास,  जिससे हम उड़ान भर सकते हैं पदार्थ से परमात्मा तक की, व्यर्थ से सार्थक की।

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शनिवार, 12 फ़रवरी 2022

देना ही सीखना है

 

एक बार पचास लोगों का ग्रुप  किसी मीटिंग में हिस्सा ले रहा था।
मीटिंग शुरू हुए अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि  स्पीकर अचानक ही रुका और सभी पार्टिसिपेंट्स को गुब्बारे देते हुए बोला, ” आप सभी को गुब्बारे पर इस मार्कर से अपना नाम लिखना है। ” सभी ने ऐसा ही किया।
अब गुब्बारों को एक दुसरे कमरे में रख दिया गया।
स्पीकर ने अब सभी को एक साथ कमरे में जाकर पांच मिनट के अंदर अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने के लिए कहा।
सारे पार्टिसिपेंट्स तेजी से रूम में घुसे और पागलों की तरह अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने लगे।
पर इस अफरा-तफरी में किसी को भी अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिल पा रहा था…
5 पांच मिनट बाद सभी को बाहर बुला लिया गया।
स्पीकर बोला , ” अरे! क्या हुआ, आप सभी खाली हाथ क्यों हैं ? क्या किसी को अपने नाम
वाला गुब्बारा नहीं मिला ?”  ”नहीं ! हमने बहुत ढूंढा पर हमेशा किसी और के नाम का ही गुब्बारा हाथ आया…”, एक
पार्टिसिपेंट कुछ मायूस होते हुए बोला।

“कोई बात नहीं , आप लोग एक बार फिर कमरे में जाइये, पर इस बार जिसे जो भी गुब्बारा मिले उसे अपने हाथ में ले और उस व्यक्ति का नाम पुकारे जिसका नाम उसपर लिखा हुआ है।“  स्पीकर ने निर्दश दिया।

एक बार फिर सभी पार्टिसिपेंट्स कमरे में गए, पर इस बार सब शांत थे , और कमरे में किसी तरह की अफरा- तफरी नहीं मची हुई थी। सभी ने एक दुसरे को उनके नाम के गुब्बारे दिए और तीन मिनट में ही बाहर निकले आये।
स्पीकर ने गम्भीर होते हुए कहा,” बिलकुल यही चीज हमारे जीवन में भी हो रही है।
हर कोई अपने लिए ही जी रहा है , उसे इससे कोई
मतलब नहीं कि वह किस तरह औरों की मदद कर सकता है , वह तो बस पागलों की तरह अपनी ही खुशियां ढूंढ रहा है , पर बहुत ढूंढने के बाद भी उसे कुछ नहीं मिलता,  हमारी ख़ुशी दूसरों की ख़ुशी में छिपी हुई है।

जब तुम औरों को उनकी खुशियां देना सीख जाओगे तो अपने आप ही तुम्हे तुम्हारी खुशियां मिल जाएँगी।

और यही मानव- जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ।

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सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

उलटा रास्ता

 

*चिन्तन के पल...*

एक पुराना सा किस्सा है जिसे रूसी किम्वदंती बताया जाता है। संभवतः उस दौर की कहानी होगी जब कम्युनिस्ट शासन आम किसानों की जमीनें छीनने के लिए उन्हें पकड़-पकड़ कर जेल में बंद कर रहा था। अपनी जमीनों पर से अधिकार न छोड़ने वाले कई ऐसे किसानों की साइबेरिया जैसी जगहों पर नाज़ियों जैसे कंसंट्रेशन कैंप में भेजे जाने से मौत भी हुई थी। ऐसी ही एक जेल में एक युवक बंद था जब उसके पास उसके पिता की चिट्ठी आई। उसमें लिखा था कि आलू बोने का मौसम हो चला है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ, उतना काम नहीं कर पाता। अगर तुम जेल में न डाल दिए गए होते, तो तुम भी मेरी मदद करते, लेकिन मैं अकेला ही काम पूरा करने की कोशिश करूँगा।

चिट्ठी बेटे को मिले कुछ ही समय हुआ था कि एक दिन पुलिस पूरे दल-बल के साथ बूढ़े बाप के घर आ धमकी। उन्होंने पूरे इलाके को घेर लिया। बूढ़े से उसके खेतों का रास्ता पूछा और वहां पहुंचकर लगे इधर-उधर खुदाई करने। थोड़ी ही देर में पूरा खेत खोद डाला गया था। आखिर खीजकर पुलिस कप्तान ने बूढ़े को एक चिट्ठी थमाई और कुछ नहीं मिला कहकर चला गया। बूढ़े ने चिट्ठी खोली तो बेटे की चिट्ठी थी जिसमें लिखा था, “खेत हरगिज मत खोदना। विद्रोह के लिए इकठ्ठा किये हथियार मैंने खेतों में दबाये हैं।” थोड़े दिन बाद जेल से बेटे की दूसरी चिट्ठी आई। इस बार लिखा था, “उम्मीद है खेत खोद डाले गए होंगे। जेल से मैं इतनी ही मदद कर सकता था।”
~~
आप इसे “थिंकिंग आउट ऑफ़ द बॉक्स” कह सकते हैं।  जो स्रोत या संसाधन आपके पास नहीं हैं, उनके बारे में सोचकर परेशान होने से बेहतर है कि “जुगाड़ टेक्नोलॉजी” का प्रयोग करें। सुलझ न सके, ऐसी कोई समस्या नहीं होती।

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रविवार, 6 फ़रवरी 2022

दिशा

 

एक दिन एक बुजुर्ग आदमी दनदनाता हुआ शहर के एक नामी, पर सज्जन वकील के दफ़्तर में घुसा।

उसके हाथों में कागज़ो का बंडल, धूप में काला हुआ चेहरा, बढ़ी हुई दाढ़ी औऱ उसके सफेद कपड़े में मिट्टी लगी हुई थी।"

बुजुर्ग ने वकील से कहा - " उसके पूरे फ्लैट पर स्टे लगाना है, बताइए, क्या क्या कागज और चाहिए... क्या लगेगा खर्चा...लेकिन काम जल्दी होना चाहिए  ".....

वकील साहब ने उन्हें बैठने का कहा - "रामू , पानी दे इधर"...वकील ने आवाज़ लगाई

उसके बाद वो बुजुर्ग कुर्सी पर बैठे ।

फ़िर उनके सारे कागजात वकील साहब ने देखे, उनसे सारी जानकारी ली औऱ इस तरह आधा पौना घंटा गुजर गया।

"मै इन कागज़ो को अच्छी तरह देख लेता हूँ, फिर आपके केस पर विचार करेंगे। आप ऐसा कीजिए, अगले शनिवार को मिलिए मुझसे।" वकील साहब ने कहा.....

चार दिन बाद वो बुजुर्ग फिर से वकील के यहाँ आए- वैसे ही कपड़े, बहुत गुस्से में लग रहे थे,वे अपने छोटे भाई पर गुस्सा थे।

वकील ने उन्हें बैठने का कहा ।

वो बैठे ।

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ऑफिस में अजीब सी खामोशी गूंज रही थी।

वकील साहब ने बात की शुरुआत की.... बाबा, मैंने आपके सारे पेपर्स देख लिए.....और आपके परिवार के बारे में और आपकी निजी जिंदगी के बारे में भी मैंने बहुत जानकारी हासिल की।मेरी जानकारी के अनुसार: आप दो भाई है, एक बहन है,आपके माँ-बाप बचपन में ही गुजर गए।बाबा आप नौवीं पास है और आपका छोटा भाई इंजिनियर है। छोटे भाई की पढ़ाई के लिए आपने स्कूल छोड़ा, लोगो के खेतों में दिहाड़ी पर काम किया,
कभी अंग भर कपड़ा और पेट भर खाना आपको नहीं मिला ,फिर भी भाई की पढ़ाई के लिए पैसों की कमी आपने कभी नहीं होने दी। एक बार खेलते खेलते भाई पर किसी बैल ने सींग घुसा दिए, तब भाई लहूलुहान हो गया।
फिर आप उसे अपने कंधे पर उठाकर 5 किलोमीटर पैदल चलकर अस्पताल लेे गए। सही देखा जाए तो आपकी उम्र भी नहीं थी ये करने की, पर भाई में जान बसी थी आपकी। माँ बाप के बाद मै ही इनका माँ-बाप… ये भावना थी आपके मन में, आपका भाई इंजीनियरिंग में अच्छे कॉलेज में एडमिशन ले पाया और आपका दिल खुशी से भरा हुआ था। फिर आपने जी तोड़ मेहनत की।
80,000 की सालाना फीस भरने के लिए आपने रात दिन एक कर दिया यानि बीवी के गहने गिरवी रख के कभी साहूकार से पैसा लेकर आपने उसकी हर जरूरत पूरी की।फिर अचानक उसे किडनी की तकलीफ शुरू हो गई, डॉक्टर ने किडनी बदलने के लिए कहा और
आपने अगले मिनट में अपनी किडनी उसे दे दी , यह कह कर कि कल तुझे अफसर बनना है,नौकरी करनी है, कहाँ कहाँ घूमेगा बीमार शरीर लेे के। मुझे तो गाँव में ही रहना है । फिर भाई मास्टर्स के लिए हॉस्टल पर रहने गया।लड्डू बने, देने जाओ, खेत में मकई तैयार हुई, भाई को देने जाओ, कोई तीज त्योहार हो, भाई को कपड़े दो ।घर से हॉस्टल 25 किलोमीटर तुम उसे डिब्बा देने साइकिल पर गए।हाथ का निवाला पहले भाई को खिलाया तुमने।फिर वो मास्टर्स पास हुआ, तुमने पूरे गाँव को खाना खिलाया।फिर उसने उसी के कॉलेज की लड़की जो दिखने में एकदम सुंदर थी, से शादी कर ली । तुम सिर्फ समय पर ही वहाँ गए।भाई को नौकरी लगी, 3 साल पहले उसकी शादी हुई, अब तुम्हारा बोझ हल्का होने वाला था। पर किसी की नज़र लग गई आपके इस प्यार को। शादी के बाद भाई ने घर आना बंद कर दिया। पूछा तो कहता है मैंने बीवी को वचन दिया है। घर एक भी पैसा वो देता नहीं, पूछा तो कहता है कर्ज़ा सिर पे है।पिछले साल शहर में फ्लैट खरीदा।पैसे कहाँ से आए पूछा तो कहता है कर्ज लिया है। मैंने मना किया तो कहता है भाई, तुझे कुछ नहीं मालूम, तू निरा गंवार ही रह गया। अब तुम्हारा भाई चाहता है कि गाँंव की आधी खेती बेच कर उसे पैसा दे दे।

इतना कह के वकील साहब रुके - रामू की लाई चाय की प्याली उन्होंने अपनी मुँह से लगाई - तुम चाहते हो भाई ने जो मांगा वो उसे ना देकर उसके ही फ्लैट पर स्टे लगाया जाए - क्यों बाबा,यही चाहते हो तुम..."  ????

वो तुरंत बोला, "हां वकील साहब "

वकील साहब ने कहा - हम स्टे लेे सकते है औऱ भाई के प्रॉपर्टी में हिस्सा भी माँग सकते हैं  पर….

1) तुमने उसके लिए जो खून पसीना एक किया है वो नहीं मिलेगा

2) तुम्हारीे दी हुई किडनी तुम्हें वापस नहीं मिलेगी

3) तुमने उसके लिए जो ज़िन्दगी खर्च की है वो भी वापस नहीं मिलेगी।

मुझे लगता है इन सब चीजों के सामने उस फ्लैट की कीमत शुन्य है। भाई की नीयत फिर गई, वो अपने रास्ते चला गया अब तुम भी उसी कृतघ्न सड़क पर मत जाओ।वो भिखारी निकला, तुम दिलदार थे।दिलदार ही रहो ….. तुम्हारा हाथ ऊपर था, ऊपर ही रखो।कोर्ट कचहरी करने की बजाय बच्चों को पढ़ाओ लिखाओ।पढ़ाई कर के तुम्हारा भाई बिगड़ गया लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारे बच्चे भी ऐसा करेंगे।"

वो बुजुर्ग वकील साहब के मुँह को ताकने लगा।

वकील साहब की पूरी बात सुनकर बुजुर्ग उठ खड़ा हुआ, सब काग़ज़ात उठाए और आँखे पोछते हुए बोला - "चलता हूँ, वकील साहब।"

उसकी रूलाई फुट रही थी और वो किसी को दिख ना जाए, ऐसी कोशिश कर रहा था।

इस बात को अरसा गुजर गया ।कल वो अचानक फिर वकील साहब के ऑफिस में आया।

कलमों में सफेदी झाँक रही थी उसके। साथ में एक नौजवान था और हाथ में थैली।

वकील ने कहा- "बाबा, बैठो"

उसने कहा, "बैठने नहीं आया वकील साहब, मिठाई खिलाने आया हूँ । ये मेरा बेटा, बैंक मैनेजर है, बैंगलोर रहता है, कल आया गाँव।अब तीन मंजिला मकान बना लिया है वहाँ।थोड़ी थोड़ी कर के 10–12 एकड़ खेती खरीद ली अब।"

वकील साहब उसके चेहरे से टपकते हुए खुशी को महसूस कर रहा था

बुजुर्ग ने फ़िर कहा..."वकील साहब, आपने मुझसे बोला था -  कोर्ट कचहरी के चक्कर में मत पड़ो, आपने बहुत नेक सलाह दी और मुझे उलझन से बचा लिया जबकि गाँव में सब लोग मुझे भाई के खिलाफ उकसा रहे थे।मैंने उनकी नहीं, आपकी बात सुन ली और मैंने अपने बच्चों को लाइन से लगाया और भाई के पीछे अपनी ज़िंदगी बरबाद नहीं होने दी। कल भाई और उनकी पत्नी भी घर आए थे। पाँव छू छूकर माफी मांगने लगे। मैंने अपने भाई को गले से लगा लिया और मेरी धर्मपत्नी ने उसकी धर्मपत्नी को गले से लगा लिया। हमारे पूरे परिवार ने बहुत दिनों बाद एक साथ भोजन किया। बस फिर क्या था आनंद की लहर घर में दौड़ने लगी।

वकील साहब के हाथ का पेडा हाथ में ही रह गया औऱ उनके आंसू टपक गए आखिर. .. .अपने गुस्से को सही दिशा में मोड़ा जाए तो जीवन में क़भी पछताने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।हां... दिल थोड़ा बड़ा रखने की जरुरत है .........

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

सब उसके हाथ

 

एक जापानी कथा है। एक युवक विवाहित हुआ। अपनी पत्नी को ले कर—समुराई था, क्षत्रिय था—अपनी पत्नी को लेकर नाव में बैठा। दूसरी तरफ उसका गांव था। बड़ा तूफान आया, अंधड़ उठा, नाव डावाडोल होने लगी, डूबने—डूबने को होने लगी। पत्नी तो बहुत घबरा गई। मगर युवक शांत रहा। उसकी शांति ऐसी थी जैसे बुद्ध की प्रतिमा हो।

उसकी पत्नी ने कहा, तुम शांत बैठे हो, नाव डूबने को हो रही, मौत करीब है!

उस युवक ने झटके से अपनी तलवार बाहर निकाली, पत्नी के गले पर तलवार लगा दी। पत्नी तो हंसने लगी।

उसने कहा : क्या तुम मुझे डराना चाहते हो ?

पति ने कहा : तुझे डर नहीं लगता? तलवार तेरी गर्दन पर रखी, जरा—सा इशारा कि गर्दन इस तरफ हो जाएगी।

उसने कहा : जब तलवार तुम्हारे हाथ में है तो मुझे भय कैसा?

उसने तलवार वापिस रख ली।

उसने कहा : यह मेरा उत्तर है। जब तूफान—आधी उसके हाथ में है तो मैं क्यों परेशान होऊं? डुबाना होगा तो डूबेंगे, बचाना होगा तो बचेंगे। जब तलवार मेंरे हाथ में है तो तू नहीं घबराती। मुझसे तेरा प्रेम है, इसलिए न! कल विवाह न हुआ था, उसके पहले अगर मैंने तलवार तेरे गले पर रखी होती तो? तो तू चीख मारती। आज तू नहीं घबराती, क्योंकि प्रेम का एक सेतु बन गया। ऐसा सेतु मेरे और परमात्मा के बीच है, इसलिए मैं नहीं घबराता।तूफान आए, चलो ठीक, तूफान का मजा लेंगे। डूबेंगे, तो डूबने का मजा लेंगे। क्योंकि सब उसके हाथ में है, हम उसके हाथ के बाहर नहीं हैं। फिर चिंता कैसी?

चितया दुःखं जायते……।

और कोई ढंग से चिंता पैदा नहीं होती, बस चिंता एक ही है कि तुम कर्ता हो। कर्ता हो तो चिंता है, चिंता है तो दुख।

इति निश्चयी सुखी शांत: सर्वत्र गलितस्पृह।

ऐसा जिसने निश्चयपूर्वक जाना, अनुभव से निचोड़ा—वह व्यक्ति सुखी हो जाता है, शांत हो जाता है, उसकी सारी स्पृहा समाप्त हो जाती है।

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