सोमवार, 27 सितंबर 2021

राष्ट्र के लिए

 समकालीन चर्चा ... 

विनम्र आग्रह , इसे राजनीतिक चर्चा न माना जाए, राष्ट्र के पुनःनिर्माण में लगे वे सब लोग हमारे लिए आराध्य हैं, जो कर्मशील हैं । भारत भूमि में जन्मना ही गर्व की बात है, वही अंतिम सत्य बने !! अमित जी सिंहल के शब्द ..

प्रधानमंत्री मोदी का रविवार रात्रि को बिना किसी सूचना के नए संसद भवन एवं सेंट्रल विस्टा के निर्माण कार्य देखने गए। 


अधिकतर लोगो को प्रधानमंत्री की कार्य शैली, अमेरिका से आने के बाद बिना विश्राम किये राष्ट्र के लिए समर्पण दिखाई दिया होगा।  सहमत !


लेकिन मुझे तेज लाइट एवं दर्ज़नो लेबर दिखी जो पूरे दम-खम के साथ कार्य कर रहे थे, पसीना बहा रहे थे। 


कैसे पता की वह लेबर कार्य कर रही थी?


क्योकि उन्होंने पीला, नीला एवं सफ़ेद हेलमेट पहना था; सभी श्रमिकों ने फ्लुरोसेंट लाइन वाली जैकेट पहनी है जिससे वे अँधेरे में भी दूर से दिखाई दे। 


निर्माण साइट पर पीला हेलमेट लेबर, भरी मशीन एवं JCB चलाने वाले पहनते है। नीला हेलमेट बढ़ई, बिजली तथा तकनीकी कार्य करने वाली लेबल पहनती है।  सफ़ेद हेलमेट आर्किटेक्ट, इंजीनियर, मैनेजर तथा सुपरवाइजर पहनते है। 


प्रधानमंत्री जी ने सफ़ेद हेलमेट पहना था। एक-दो अन्य लोग भी सफ़ेद हेलमेट पहन कर कार्य कर रहे थे। 


अगर इस विजिट की पूर्व सूचना होती तो शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पूरी भी फोटो में दिखाई देते। 


इससे कुछ बाते पता चलती है। 


प्रथम, हमारे श्रमिक दिन-रात कार्य कर रहे है। 


द्वितीय, इंजीनियर, आर्किटेक्ट, मैनेजर तथा सुपरवाइजर भी धूल-मिटटी में दिन-रात खप रहे है; श्रमिकों के साथ कंधा मिलाकर कार्य कर आरहे है।  


तृतीय, निर्माण साइट पर सेफ्टी का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। एकाएक सभी लोगो के सर पर सुरक्षा हेलमेट और बदन पर फ्लुरोसेंट लाइन वाली जैकेट फोटो खींचने के लिए नहीं रखा जा सकता।  


चतुर्थ, जब हम सोते है, राष्ट्र उस समय भी कार्य कर रहा है; प्रगति कर रहा है। 


पंचम, यह नया भारत है जो आगे बढ़ने के लिए तत्पर है, बेचैन है; साथ ही आश्वस्त भी की उसे एक ऐसा नेतृत्व मिला है जो ना सोता है, ना खाता है; लेकिन सुहृदयी है, राष्ट्र की प्रगति ही उसका एकमात्र लक्ष्य है। 

भारत माता की जय हो, सदा जय हो !!


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बात सोचने वाली

 सोमवारिय चिंतन...

बात तो सोचने वाली है...

 हमारी या आपकी दादी मां ने कहीं से MBA नहीं किया था लेकिन संयुक्त परिवार का संयोजन और अर्थ प्रबंधन वो सबसे सुंदर ढंग से करतीं थीं।


 उन्होंने कोई समाज शास्त्र या राजनीतिशास्त्र नहीं पढ़ा था पर अपने आसपास के समाज से, पूरे गांव से उनके मधुर संबंध होते थे और अपने व्यवहार से उन्होंने पूरे गांव को आत्मीय रिश्तों से जोड़ कर रखा था।


 उन्होंने कोई मेडिकल साइंस नहीं पढ़ी थी पर सर्दी, जुकाम, बदन दर्द, मोच, चेचक और बुखार जैसी बीमारियों को ठीक कर देने का सामर्थ्य रखतीं थी।


 उन्होंने कहीं से स्ट्रेस मैनेजमेंट या इंस्प्रेशनल वीडियो नहीं देखे थे पर परिवार के हर हतोत्साहित में उत्साह का संचार कर देती थी।


  वो  पेटा "यूया* किसी और ऐसे संगठन की मेंबर नहीं थीं पर सुबह गाय को पहली रोटी डालने से लेकर दरवाजे पर बैठने वाले कुत्ते, बिल्लियों, बैल और चिड़ियों और चींटियों तक के लिए खाने पानी की व्यवस्था करती थी।


  उसे वोट लेना नहीं था, न ही अपने कामों के फोटो फेसबुक या व्हाट्सएप पर अपलोड करना था पर तब भी वो दरवाजे पर आने वाले हर सामान बेचने वाले, मांगने वाले, भांट, नट इत्यादि को अन्न, पैसे और भोजन देती थी और उनके नाम तक जानती थी।


  उसे अपनी स्थानिक बोली को छोड़कर ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता था पर वो भारत के सारे तीर्थस्थानों का भ्रमण कर लेती थीं।


  उसने रामायण, महाभारत या पुराण नहीं पढ़े थे पर उसे दर्जनों पौराणिक आख्यान स्मरण थे।


   वो कोई पर्यावरणविद नहीं थीं लेकिन गंगा को गंगा जी, यमुना को यमुना जी कहतीं थीं और पेड़ के पत्ते को भी बिना जरूरत तोड़ने से मना करतीं थीं। 


  उन्होंने जैव विविधता पर कोई कोर्स नहीं किया था लेकिन हमें कहती थीं कि जीव हत्या पाप है।


हमारी/आपकी दादी-नानी को नमन!!

काश हम उन संस्कारों को यथावत अगली पीढ़ी को सौंप सकें... 


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आँखो देखी और कानों सुनी

 एक बार समुद्र के बीच में एक बड़े जहाज पर बड़ी दुर्घटना हो गयी। कप्तान ने जहाज खाली करने का आदेश दिया।जहाज पर एक युवा दम्पति थे।


जब लाइफबोट पर चढ़ने का उनका नम्बर आया तो देखा गया नाव पर केवल एक व्यक्ति के लिए ही जगह है।इस मौके पर आदमी ने अपनी पत्नी को अपने आगे से हटाया और नाव पर कूद गया।जहाज डूबने लगा।


डूबते हुए जहाज पर खड़ी औरत ने जाते हुए अपने पति से चिल्लाकर एक वाक्य कहा।


अब प्रोफेसर ने रुककर स्टूडेंट्स से पूछा – तुम लोगों को क्या लगता है, उस स्त्री ने अपने पति से क्या कहा होगा ?


ज्यादातर विद्यार्थी फ़ौरन चिल्लाये – स्त्री ने कहा – मैं तुमसे नफरत करती हूँ ! I hate you !


प्रोफेसर ने देखा एक स्टूडेंट एकदम शांत बैठा हुआ था, प्रोफेसर ने उससे पूछा कि तुम बताओ तुम्हे क्या लगता है ?


वो लड़का बोला – मुझे लगता है, औरत ने कहा होगा – हमारे बच्चे का ख्याल रखना !


प्रोफेसर को आश्चर्य हुआ, उन्होंने लडके से पूछा – क्या तुमने यह कहानी पहले सुन रखी थी ?


लड़का बोला- जी नहीं,लेकिन यही बात बीमारी से मरती हुई मेरी माँ ने मेरे पिता से कही थी।


प्रोफेसर ने दुखपूर्वक कहा – तुम्हारा उत्तर सही है !


प्रोफेसर ने कहानी आगे बढ़ाई – जहाज डूब गया,स्त्री मर गयी,पति किनारे पहुंचा और उसने अपना बाकी जीवन अपनी एकमात्र पुत्री,जो नानी के पास थी,उसके समुचित लालन-पालन में लगा दिया।कई सालों बाद जब वो व्यक्ति मर गया तो एक दिन सफाई करते हुए उसकी लड़की को अपने पिता की एक डायरी मिली।


डायरी से उसे पता चला कि जिस समय उसके माता-पिता उस जहाज पर सफर कर रहे थे तो उसकी माँ एक जानलेवा बीमारी से ग्रस्त थी और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष थे।


ऐसे कठिन मौके पर उसके पिता ने एक कड़ा निर्णय लिया और लाइफबोट पर कूद गया।उसके पिता ने डायरी में लिखा था – तुम्हारे बिना मेरे जीवन का कोई मतलब नहीं, मैं तो तुम्हारे साथ ही समंदर में समा जाना चाहता था. लेकिन अपनी संतान का ख्याल आने पर मुझे तुमको अकेले छोड़कर जाना पड़ा।


जब प्रोफेसर ने कहानी समाप्त की तो, पूरी क्लास में शांति थी।


इस संसार में कई सही गलत बातें और कई जटिलतायें हैं,जिन्हें समझना आसान नहीं।इसीलिए ऊपरी सतह से देखकर बिना गहराई को जाने-समझे हर परिस्थिति का एकदम सही आकलन नहीं किया जा सकता।


●कलह होने पर जो पहले माफ़ी मांगे,जरुरी नहीं उसी की गलती हो। हो सकता है वो रिश्ते को बनाये रखना ज्यादा महत्वपूर्ण समझता हो।


●दोस्तों के साथ खाते-पीते,पार्टी करते समय जो दोस्त बिल अदा करता है,जरुरी नहीं उसकी जेब नोटों से ठसाठस भरी हो।हो सकता है उसके लिए दोस्ती के सामने पैसों की अहमियत कम हो।


●जो लोग आपकी मदद करते हैं,जरुरी नहीं वो आपके एहसानों के बोझ तले दबे हों।वो आपकी मदद करते हैं क्योंकि उनके दिलों में दयालुता और करुणा का निवास है।


●आजकल जीवन कठिन इसीलिए हो गया है क्योंकि हमने लोगो को समझना कम कर दिया और ऊपरी तौर पर judge करना शुरू कर दिया है।थोड़ी सी समझ और थोड़ी सी मानवता ही आपको सही रास्ता दिखा सकती है।


जीवन में निर्णय लेने के कई ऐसे पल आयेंगे,सो अगली बार किसी पर भी अपने #पूर्वाग्रह का ठप्पा लगाने से पहले विचार अवश्य करे। 


क्योंकि :"हर आँखो देखी और कानों सुनी बात सच्ची नहीं होती।"


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शनिवार, 25 सितंबर 2021

ख़ुद की संतुष्टि

 

एक महिला की जुबानी-

मैं ऑफिस बस से ही आती जाती हूँ । ये मेरी दिनचर्या का हिस्सा हैं । उस दिन भी बस काफ़ी देर से आई, लगभग आधे-पौन घंटे बाद । खड़े-खड़े पैर दुखने लगे थे । पर चलो शुक्र था कि बस मिल गई । देर से आने के कारण भी और पहले से ही बस काफी भरी हुई थी ।

बस में चढ़ कर मैंनें चारों तरफ नज़र दौडाई तो पाया कि सभी सीटें भर चुकी थी । उम्मीद की कोई किरण नज़र नही आई ।

तभी एक मजदूरन ने मुझे आवाज़ लगाकर अपनी सीट देते हुए कहा, "मैडम आप यहां बैठ जाये ।" मैंनें उसे धन्यवाद देते हुए उस सीट पर बैठकर राहत को सांस ली । वो महिला मेरे साथ बस स्टांप पर खड़ी थी तब मैंने उस पर ध्यान नही दिया था ।

कुछ देर बाद मेरे पास वाली सीट खाली हुई, तो मैंने उसे बैठने का इशारा किया । तब उसने एक महिला को उस सीट पर बिठा दिया जिसकी गोद में एक छोटा बच्चा था ।

वो मजदूरन भीड़ की धक्का-मुक्की सहते हुए एक पोल को पकड़कर खड़ी थी । थोड़ी देर बाद बच्चे वाली औरत अपने गन्तव्य पर उतर गई ।

इस बार वही सीट एक बुजुर्ग को दे दी, जो लम्बे समय से बस में खड़े थे । मुझे आश्चर्य हुआ कि हम दिन-रात बस की सीट के लिये लड़ते है और ये सीट मिलती है और दूसरे को दे देती हैं ।

कुछ देर बाद वो बुजुर्ग भी अपने स्टांप पर उतर गए, तब वो सीट पर बैठी । मुझसे रहा नही गया, तो उससे पूछ बैठी,

"तुम्हें तो सीट मिल गई थी एक या दो बार नही, बल्कि तीन बार, फिर भी तुमने सीट क्यों छोड़ी ? तुम दिन भर ईट-गारा ढोती हो, आराम की जरूरत तो तुम्हें भी होगी, फिर क्यो नही बैठी ?

मेरी इस बात का जवाब उसने दिया उसकी उम्मीद मैंने कभी नही की थी । उसने कहा, *"मैं भी थकती हूँ । आप से पहले से स्टांप पर खड़ी थी, मेरे भी पैरों में दर्द होने लगा था । जब मैं बस में चढ़ी थी तब यही सीट खाली थी । मैंने देखा आपके पैरों में तकलीफ होने के कारण आप धीरे-धीरे बस में चढ़ी । ऐसे में आप कैसे खड़ी रहती इसलिये मैंने आपको सीट दी । उस बच्चे वाली महिला को सीट इसलिये दी उसकी गोद में छोटा बच्चा था जो बहुत देर से रो रहा था । उसने सीट पर बैठते ही सुकून महसूस किया । बुजुर्ग के खड़े रहते मैं कैसे बैठती, सो उन्हें दे दी । मैंने उन्हें सीट देकर ढेरों आशर्वाद पाए । कुछ देर का सफर है मैडम जी, सीट के लिये क्या लड़ना । वैसे भी सीट को बस में ही छोड़ कर जाना हैं, घर तो नहीं ले जाना ना । मैं ठहरी ईट-गारा ढोने वाली, मेरे पास क्या हैं, न दान करने लायक धन हैं, न कोई पुण्य कमाने लायक करने को कुछ । रास्ते से कचरा हटा देती हूं, रास्ते के पत्थर बटोर देती हूं, कभी कोई पौधा लगा देती हूं । यहां बस में अपनी सीट दे देती हूं । यही है मेंरे पास, यही करना मुझे आता है ।"* वो तो मुस्करा कर चली गई पर मुझे आत्ममंथन करने को मजबूर कर गई ।

मुझे उसकी बातों से एक सीख मिली कि *हम बड़ा कुछ नही कर सकते  तो समाज में एक छोटा सा, नगण्य दिखने वाला कार्य तो कर सकते हैं ।*

मुझे लगा ये मज़दूर महिला उन लोगों के लिये सबक हैं जो आयकर बचाने के लिए अपनी काली कमाई को दान के नाम पर खपाते हैं, या फिर वो लोग जिनके पास पर्याप्त पैसा होते हुए भी गरीबी का रोना रोते हैं । इस समाजसेवा के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं परन्तु इन छोटी-छोटी बातों पर कभी ध्यान नहीं देते ।

मैंने मन ही मन उस महिला को नमन किया तथा उससे सीख ली *यदि हमें समाज के लिए कुछ करना हो, तो वो दिखावे के लिए न किया जाए बल्कि खुद की संतुष्टि के लिए हो ।*

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सोमवार, 20 सितंबर 2021

नजरअंदाज

 एक महात्मा एक गांव से थोड़ी दूर, एक शांत इलाके में अपनी कुटिया में अपने एक शिष्य के साथ रहते थे।


दो शहरी नौजवान उनके पास अपनी समस्या लेकर आये “महात्मा जी, हमने सुना है,आप हर समस्या का समाधान जानते हैं


“तुम निश्चिन्त होकर मुझे अपनी समस्या बताओ,”


“बात ऐसी है,हम लोग इस शहर में नए आये है,यहाँ दहशत का माहौल है, यहाँ आवारा लोगों का बसेरा है। सड़कों पर गुज़रते हुए लोगों  से बदतमीज़ी की जाती है, आते जाते लोगों को गालियाँ दी जाती है। कुछ दबंग लोग शराब पीकर सड़क किनारे खड़े हो जाते हैं और सामने से गुज़रते हुए लोगों के साथ बदसुलूकी करते हैं, उन्हें गालियाँ देते हैं, हाथापाई पर उतर आते हैं !


पहला नौजवान बोला, “हम परेशान हो गए, भला ऐसे समाज में कौन रहना चाहेगा, आप ही बताएं..??


दोनों नौजवान की बात सुनकर महात्मा जी चारपाई से उठे और यह बडबडाते हुए कि “यह समस्या बहुत गंभीर है,” कुटिया के बाहर चल दिए | नौजवान ने बाहर जाकर देखा, वो शांत खड़े अपने कुटिया के सामने वाली सड़क को देख रहे थे।


अगले ही पल वो मुड़कर दोनों नौजवाओं से बोले, “बेटा एक काम करोगे,” महात्मा दूर इशारा करते हुए बोले, “ये सड़क देखो.. जहां ये सड़क मुड़ती है, वही सामने एक नीम का बड़ा पेड़ है, ज़रा मेरे लिए वहाँ से कुछ नीम के पत्ते तोड़ लाओगे |”


“ज़रूर महात्मा जी, जैसा आप कहे,” कहकर दोनों नौजवान ने कदम बढ़ा दिए, परन्तु महात्मा उन्हें रोकते हुए बोले, “ठहरो बेटा….जाने से पहले मैं तुम्हें बता दूँ, रास्ते में कई आवारा कुत्ते हैं, जो तुम्हें अपना शिकार बना सकते हैं, वो बहुत खूंखार हैं, तुम्हारी जान भी जा सकती है, क्या तुम वो पत्ते ला पाओगे..??”


नौजवानों ने एक दूसरे को देखा, और उनके चेहरे के हाव भाव देखकर महात्मा समझ गए कि वे डरे हुए तो थे, परन्तु वहाँ जाने के लिए तैयार थे | दोनों नौजवान उस सड़क पर चल दिए, वो सड़क पर से गुज़रे | रास्ते में उन्हें काफी आवारा कुत्ते सड़क किनारे बैठे मिले |


उन्होंने कोशिश कि वो उन्हें पार कर जायें, परन्तु यह करना आसान नहीं था | जैसे ही वो एक कुत्ते के करीब से गुज़रे, कुत्ते ने उन्हें काट खाने वाली भूखी निगाहों से घूरा| वो कोशिश करते उन्हें पार करने की, परन्तु यह करना जान जोखिम में डालने के बराबर था |


काफी देर इंतज़ार करने के बाद जब वे लौटे तब महात्मा ने देखा, उनके हाथ खाली थे, और वो काफी डरे हुए थे|


वो महात्मा के करीब आये और बोले – “हमे माफ़ कर दीजिये,” पहला नौजवान बोला, “ये रास्ता बहुत खतरनाक है, रास्ते में बहुत खूंखार कुत्ते थे, हम ये काम नहीं कर पाए |”


दूसरा नौजवान बोला, “हमने दो चार कुत्तों को झेल लिया परन्तु आगे जाने पर कुत्तों ने हम पर हमला कर दिया, हम जैसे तैसे करके अपनी जान बचाकर वापिस आये हैं|”


महात्मा बिना कुछ बोले कुटिया के अन्दर चलते गए, और अपने शिष्य को साथ लेकर बाहर आये | उन्होंने शिष्य से वो पत्ते तोड़ने के लिए कहा | नौकर उसी सड़क से गया | वह कुत्तों के बीच से गुज़रा | परन्तु जब काफी देर बाद, दोनों नौजवानों ने उस शिष्य  को सड़क से वापिस अपनी ओर आते देखा, तब देखा उसके हाथ नीम के पत्तों से भरे थे |


ये देखकर दोनों नौजवान भौचक्के रह गए | महात्मा बोले, “बेटा ये मेरा शिष्य है, ये अँधा है… हालांकि ये देख नहीं सकता, परन्तु कौन सी चीज़ कहाँ पर है,इसे पूरा ज्ञान है। ये रोज़ मुझे नीम के पत्ते लाकर देता है.. और जानते हो क्यों इसे आवारा कुत्ते नहीं काटते,   क्योंकि ये उनकी तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं देता !”


महात्मा आगे बोले, “जीवन में एक बात हमेशा याद रखना बेटा, जिस व्यर्थ की चीज़ पर तुम सबसे ज्यादा ध्यान दोगे, वह चीज़ तुम्हें उतनी ही काटेगी। इसलिए अच्छा होगा, तुम अपना ध्यान अपने लक्ष्य पर रखो !!


इन दो नौजवानों की तरह हम भी अपने जीवन में कुछ ऐसा ही अनुभव करते हैं | हमारा जीवन भी खूंखार मोड़ो से भरा होता है |


नकरात्मक वातावरण में अनेको रोते हुए,बहाने बनाते हुए तथा दूसरों को कोस कोस के कामचोर बने रहने वाले आसपास के सभी नकारात्मक लोगो को आप नजरअंदाज करके आत्मनिर्भर बनने के लिए लक्ष्य की दिशा में निरन्तर बढ़ते रहियेगा🙏



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शनिवार, 18 सितंबर 2021

सेवा भावना

 



एक संत ने एक विश्व- विद्यालय का आरंभ किया, इस विद्यालय का प्रमुख उद्देश्य था ऐसे संस्कारी युवक-युवतियों का निर्माण करना था जो समाज के विकास में सहभागी बन सकें।

एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसका विषय था - "जीवों पर दया एवं प्राणिमात्र की सेवा।"

निर्धारित तिथि को तयशुदा वक्त पर विद्यालय के कॉन्फ्रेंस हॉल में प्रतियोगिता आरंभ हुई।

किसी छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि- हम दूसरों की तभी सेवा कर सकते हैं, जब हमारे पास उसके लिए पर्याप्त संसाधन हों।

वहीं कुछ छात्रों की यह भी राय थी कि सेवा के लिए संसाधन नहीं, भावना का होना जरूरी है।

इस तरह तमाम प्रतिभागियों ने सेवा के विषय में शानदार भाषण दिए।

आखिर में जब पुरस्कार देने का समय आया तो संत ने एक ऐसे विद्यार्थी को चुना, जो मंच पर बोलने के लिए ही नहीं आया था।

यह देखकर अन्य विद्यार्थियों और कुछ शैक्षिक सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे।

संत ने सबको शांत कराते हुए बोले:- 'प्यारे मित्रो व विद्यार्थियो, आप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसे विद्यार्थी को क्यों चुना, जो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था।
दरअसल, मैं जानना चाहता था कि हमारे विद्यार्थियों में कौन सेवाभाव को सबसे बेहतर ढंग से समझता है।

इसीलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली को रख दिया था।
आप सब उसी द्वार से अंदर आए, पर किसी ने भी उस बिल्ली की ओर आंख उठाकर नहीं देखा।

यह अकेला प्रतिभागी था, जिसने वहां रुक कर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आया।

सेवा-सहायता डिबेट का विषय नहीं, जीवन जीने की कला है।
जो अपने आचरण से शिक्षा देने का साहस न रखता हो, उसके वक्तव्य कितने भी प्रभावी क्यों न हों, वह पुरस्कार पाने के योग्य नहीं है।'

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सोमवार, 13 सितंबर 2021

स्टीकर

 

मेरे आगे वाली कार कछुए की तरह चल रही थी और मेरे बार-बार हॉर्न देने पर भी रास्ता नहीं दे रही थी .

मैं अपना आपा खो कर चिल्लाने ही वाला था कि मैंने कार के पीछे लगा एक छोटा सा स्टिकर देखा जिस पर लिखा था _"शारीरिक विकलांग ; कृपया धैर्य रखें" ! और यह पढ़ते ही जैसे सब-कुछ बदल गया !!

मैं तुरंत ही शांत हो गया और कार को धीमा कर लिया . यहाँ तक की मैं उस कार और उसके ड्राईवर का विशेष खयाल रखते हुए चलने लगा कि कहीं उसे कोई तक़लीफ न हो . मैं ऑफिस कुछ मिनट देर से ज़रुर पहुँचा मगर मन में एक संतोष था।

इस घटना ने दिमाग को हिला दिया . क्या मुझे हर बार शांत करने और धैर्य रखने के लिए किसी स्टिकर की ही ज़रुरत पड़ेगी ? हमें लोगों के साथ धैर्यपूर्वक व्यवहार करने के लिए हर बार किसी स्टिकर की ज़रुरत क्यों पड़ती है ?

क्या हम लोगों से धैर्यपूर्वक अच्छा व्यवहार सिर्फ तब ही करेंगे जब वे अपने माथे पर कुछ ऐसे स्टिकर्स चिपकाए घूम रहे होंगे कि.......

“मेरी नौकरी छूट गई है",
“मैं कैंसर से संघर्ष कर रहा हूँ",
“मेरी शादी टूट गई है",
“मैं भावनात्मक रुप से टूट गया हूँ",
“मुझे प्यार में धोखा मिला है",
“मेरे प्यारे दोस्त की अचानक ही मौत हो गई",
“लगता है इस दुनिया को मेरी ज़रुरत ही नहीं",
“मुझे व्यापार में बहुत घाटा हो गया है"......आदि !

दोस्तों , हर इंसान अपनी ज़िंदगी में कोई न कोई ऐसी जंग लड़ रहा है जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते . बस हम यही कर सकते हैं कि लोगों से धैर्य और प्रेम से बात करें .

आइए हम इन अदृश्य स्टिकर्स को सम्मान दें ।
🙏

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रविवार, 12 सितंबर 2021

ज्यादा इंसान

 

एक फ्रीजर की प्लांट में काम करने वाले इंजिनियर का किस्सा है। होता यूँ है की जब भी कभी कोई पुर्जा ख़राब होता है तभी इंजिनियर का काम शुरू होता है। ऐसे में मैकेनिकल इंजिनियर का काम अक्सर शाम में ही शुरू होता है। करीब पचास लोग इस प्लांट में काम करते थे और शाम के वक्त एक दिन कुछ ख़राब हो गया। इंजिनियर ठीक करने में जुटा, थोड़ी ही देर में बता दिया की जो पुर्जा टूटा है वो कोई दो तीन घंटे में ठीक होगा। इंजिनियर पुर्जे को ठीक करने मशीनों के बीच कहीं जा घुसा।

लोगों को पता था की शाम हो चुकी है और काफी वक्त लगने वाला है मरम्मत में, एक एक करके लोग घर की तरफ निकलने लगे। गार्ड अन्दर झाँका, फैक्ट्री बंद करने का समय हो चुका था और कोई भी अन्दर नजर नहीं आया तो वो भी ताला बंद कर के अपनी रात की ड्यूटी पर जा बैठा। इधर अन्दर घुसे हुए इंजिनियर को जैसे ही बाहर आना पड़ा तो उसने देखा की सब लोग तो उसे बंद करके जा चुके है !

रात भर बर्फ़ बनाने की फैक्ट्री में बंद रहने का एक ही मतलब था। निश्चित मौत ! इंजिनियर अक्सर ऐसी स्थिति के लिए प्रशिक्षित होते हैं। इंजिनियर को पता था की शोर मचाने और दौड़ भाग करने पर उसके शरीर की गर्मी ख़त्म होती जाएगी और उस हाल में मौत जल्दी होगी। इंजिनियर चुप चाप बैठकर आने वाली मौत का इंतज़ार करने लगा। उधर दस बजे सिक्यूरिटी गार्ड की ड्यूटी बदलने का वक्त हुआ तो दूसरा गार्ड दिन वाले की जगह आया। जैसे ही उसे चाभी देकर दिन का गार्ड जाने वाला था अचानक उसे कुछ याद आया।

उसने भागकर फैक्ट्री का दरवाजा खोला और जल्दी फ्रीजिंग मशीन की तरफ भागा। टॉर्च जलाते ही वहां बैठा इंजिनियर नजर आ गया। दोनों कर्मचारियों ने मिलकर काफी कमज़ोर हो चुके इंजिनियर को खींचकर बाहर निकाला। थोड़ी देर में जब इंजिनियर की हालत कुछ बेहतर हुई तो उसने पुछा, तुम्हें अंदाजा कैसे हुआ की मैं अन्दर फंसा हूँ ? किसने तुम्हें ढूँढने भेजा ? दिन वाला गार्ड बोला, किसी ने नहीं भेजा साहब ! आप हर रोज़ आते जाते मुझे भी गुड मॉर्निंग, गुड नाईट कहते जाते हो। आज आपने गुड नाईट कहा नहीं था। मैंने रात वाले गार्ड को गुड नाईट कहा तो मुझे याद आया की हर रोज़ गुड नाईट कहने वाले साहब आज निकले नहीं क्या ?

मैंने पता किया,  आये थे? पता चला आये हो ! , तो मैं ढूँढने चला आया।

कुछ साल पहले एक स्पेशल बत्ती वाली कार में बैठे कमिश्नर की गाड़ी से जाते जब उनको हर सिपाही को वापिस सलाम करते देखा था तो उनसे पुछा था। जवाब आया था की वो हम जैसों की सुविधा के लिए सारे दिन धूप में खड़ा है मैं सल्यूट का जवाब भी ना दूं ? फिर उन्होंने ये किस्सा सुनाया था। 

आम तौर पर ऐसे कैब-टैक्सी या एम्बुलेंस के ड्राईवर हों, फल सब्जी बेचने के ठेले लगाने वाले हों, दूध-अख़बार पहुँचाने वाले हों, उन सब पर कोई ध्यान नहीं देता। कम पहचाने जाने वाले लोगों को नमस्ते कर देने में उतना कुछ जाता नहीं। हाँ, आप थोड़े ज्यादा इंसान हो जायेंगे, ऐसा हो सकता है।

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शनिवार, 11 सितंबर 2021

क्षमा

 

*💕💖   "क्षमा"   💖💕*
  
एक सेठ जी ने अपने दामाद को तीन लाख रूपये व्यापार के लिये दिये। उसका व्यापार बहुत अच्छा जम गया, लेकिन उसने रूपये ससुर जी को वापस नहीं लौटाये।
आखिर दोनों में झगड़ा हो गया, झगड़ा भी इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों का एक दूसरे के यहाँ आना जाना बिल्कुल बंद हो गया। घृणा व द्वेष का आंतरिक संबंध अत्यंत गहरा हो गया। सेठ जी, हर समय हर संबंधी के सामने अपने दामाद की निंदा-निरादर व आलोचना करने लगे।
        सेठ जी अच्छे साधक भी थे, लेकिन इस कारण उनकी साधना लड़खड़ाने लगी। भजन पूजन के समय भी उन्हें दामाद का चिंतन होने लगा। मानसिक व्यथा का प्रभाव तन पर भी पड़ने लगा। बेचैनी बढ़ गयी। समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर वे एक संत के पास गये और अपनी व्यथा सुनायी।

संतश्री ने कहाः- 'बेटा ! तू चिंता मत कर। ईश्वरकृपा से सब ठीक हो जायेगा। तुम कुछ फल व मिठाइयाँ लेकर दामाद के यहाँ जाना और मिलते ही उससे केवल इतना कहना, 'बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे "क्षमा" कर दो।'
सेठ जी ने कहाः- "महाराज ! मैंने ही उनकी मदद की है और "क्षमा" भी मैं ही माँगू !"

संतश्री ने उत्तर दियाः- "परिवार में ऐसा कोई भी संघर्ष नहीं हो सकता, जिसमें दोनों पक्षों की गलती न हो। चाहे एक पक्ष की भूल एक प्रतिशत हो दूसरे पक्ष की निन्यानवे प्रतिशत, पर भूल दोनों तरफ से होगी।"

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सेठ जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने कहाः- "महाराज ! मुझसे क्या भूल हुई ?
"बेटा ! तुमने मन ही मन अपने दामाद को बुरा समझा– यही है तुम्हारी पहली भूल
   तुमने उसकी निंदा, आलोचना व तिरस्कार किया– यह है तुम्हारी दूसरी भूल।
   क्रोध पूर्ण आँखों से उसके दोषों को देखा– यह है तुम्हारी तीसरी भूल।
   अपने कानों से उसकी निंदा सुनी– यह है तुम्हारी चौथी भूल।
    तुम्हारे हृदय में दामाद के प्रति क्रोध व घृणा है– यह है तुम्हारी आखिरी भूल।
     *अपनी इन भूलों से तुमने अपने दामाद को दुःख दिया है। तुम्हारा दिया दुःख ही कई गुना हो तुम्हारे पास लौटा है। जाओ, अपनी भूलों के लिए "क्षमा" माँगों। नहीं तो तुम न चैन से जी सकोगे, न चैन से मर सकोगे। क्षमा माँगना बहुत बड़ी साधना है। ओर तुम तो एक बहुत अच्छे साधक हो।"*
     *सेठ जी की आँखें खुल गयीं। संतश्री को प्रणाम करके वे दामाद के घर पहुँचे। सब लोग भोजन की तैयारी में थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उनके दोहीते ने खोला। सामने नानाजी को देखकर वह अवाक् सा रह गया और खुशी से झूमकर जोर-जोर से चिल्लाने लगाः "मम्मी ! पापा !! देखो कौन आये ! नानाजी आये हैं, नानाजी आये हैं....।"*
     *माता-पिता ने दरवाजे की तरफ देखा। सोचा, 'कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे !' बेटी हर्ष से पुलकित हो उठी, 'अहा ! पन्द्रह वर्ष के बाद आज पिताजी घर पर आये हैं।' प्रेम से गला रूँध गया, कुछ बोल न सकी। सेठ जी ने फल व मिठाइयाँ टेबल पर रखीं और दोनों हाथ जोड़कर दामाद को कहाः- "बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा करो ।"*
     *"क्षमा" शब्द निकलते ही उनके हृदय का प्रेम अश्रु बनकर बहने लगा। दामाद उनके चरणों में गिर गये और अपनी भूल के लिए रो-रोकर क्षमा याचना करने लगे। ससुरजी के प्रेमाश्रु दामाद की पीठ पर और दामाद के पश्चाताप व प्रेममिश्रित अश्रु ससुरजी के चरणों में गिरने लगे।*
    *पिता-पुत्री से और पुत्री अपने वृद्ध पिता से क्षमा माँगने लगी। क्षमा व प्रेम का अथाह सागर फूट पड़ा। सब शांत, चुप, सबकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। दामाद उठे और रूपये लाकर ससुरजी के सामने रख दिये। ससुरजी कहने लगेः "बेटा ! आज मैं इन कौड़ियों को लेने के लिए नहीं आया हूँ। मैं अपनी भूल मिटाने, अपनी साधना को सजीव बनाने और द्वेष का नाश करके प्रेम की गंगा बहाने आया हूँ ।*
     *मेरा आना सफल हो गया, मेरा दुःख मिट गया। अब मुझे आनंद का एहसास हो रहा है।"*
    *दामाद ने कहाः- "पिताजी ! जब तक आप ये रूपये नहीं लेंगे तब तक मेरे हृदय की तपन नहीं मिटेगी। कृपा करके आप ये रूपये ले लें।*
     *सेठ जी ने दामाद से रूपये लिये और अपनी इच्छानुसार बेटी व नातियों में बाँट दिये । सब कार में बैठे, घर पहुँचे।*
      *पन्द्रह वर्ष बाद उस अर्धरात्रि में जब माँ-बेटी, भाई-बहन, ननद-भाभी व बालकों का मिलन हुआ तो ऐसा लग रहा था कि मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये वहाँ पहुँच गया हो।*
    *सारा परिवार प्रेम के अथाह सागर में मस्त हो रहा था। "क्षमा" माँगने के बाद उस सेठ जी के दुःख, चिंता, तनाव, भय, निराशारूपी मानसिक रोग जड़ से ही मिट गये और साधना सजीव हो उठी।*
     *हमें भी अपने दिल में "क्षमा" रखनी चाहिए अपने सामने छोटा हो या बडा अपनी गलती हो या ना हो क्षमा मांग लेने से सब झगडे समाप्त हो जाते है।*
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सोमवार, 6 सितंबर 2021

नज़रिया

 

*चिंतन योग्य ..*

यह विश्व अनेक खुबियों से भरा हुआ है। आवश्यकता है देखने की, समझने की, जानने की, उसके परिचय की।
हम उसे सकारात्मक रूप से देखेंगे तो हर वस्तु में गुण, अच्छाई, सुन्दरता और दूसरे की विशेषताएं दिखाई देगी और नकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो उसमें बुराईयां ही बुराईयां नजर आयेगी।
इसलिए सदैव सकारात्मक सोचे, उसकी प्रशंसा करें, उसकी अनुमोदना करें।  इस प्रकार बार बार अभ्यास करने से अपनी सोच भी बदल सकती है।

इस संसार में सबको प्रशंसा अच्छी लगती है। इसलिए सबकी प्रशंसा करें। प्रशंसा करने की आदत डालें।
दूसरों के अच्छे गुणों की प्रशंसा करने  से अपना जीवन सुन्दर और सुगंधित बनता है।

हमें दूसरों के गुण देखने चाहिए। जो दूसरों के गुण देखता है और उनके गुणों की प्रशंसा करता है, वह व्यक्ति सब जगह प्रशंसा पाता है, सबको अच्छा लगता है।

देखने का नज़रिया ही बदल लें, गुण ही देखना शुरू करें...

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रविवार, 5 सितंबर 2021

निरर्थक कुछ भी नहीं

 

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’

यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो,तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’

उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए।गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’

वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- "जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’'

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।

गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’ 

तीनों ने सर झुका लिया।

गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा-  ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।"  

गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं, बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’

तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।
      
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’

गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें।

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शनिवार, 4 सितंबर 2021

निमित्त मात्र


आज हमने गरीबों को भोजन करवाया। आज हमने ये बांटा, आज हमने वो दान किया...

हम अक्सर ऐसा कहते और मानते हैं। इसी से सम्बंधित एक अविस्मरणीय कथा सुनिए...

एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल पाता था।

एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात हो जाए, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।

कुछ दिनों बाद उसे वह साधु फिर मिला।
लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई तो साधु ने कहा कि- "प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं। इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।"

समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने कहा---
"ऋषिवर...!! अब जब भी आपकी प्रभु से बात हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"

अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया।

लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं।
उसने बिना कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर फकीरों और भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।

लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया।
यह सिलसिला रोज-रोज चल पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।

कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे को मिला तो लकड़हारे ने कहा---"ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ जाता हैं।"

साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व भूखों को खिला दिया।
इसीलिए प्रभु अब उन गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।"

कथासार- किसी को भी कुछ भी देने की शक्ति हम में है ही नहीं, हम देते वक्त ये सोचते हैं, की जिसको कुछ दिया तो  ये मैंने दिया !
दान, वस्तु, ज्ञान, यहाँ तक की अपने बच्चों को भी कुछ देते दिलाते हैं, तो कहते हैं मैंने दिलाया ।
वास्तविकता ये है कि वो उनका अपना है आप को सिर्फ परमात्मा ने निमित्त मात्र बनाया हैं। ताकी उन तक उनकी जरूरते पहुचाने के लिये। तो निमित्त होने का घमंड कैसा ??

दान किए से जाए दुःख,दूर होएं सब पाप,
नाथ आकर द्वार पे, दूर करें संताप..!!
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