रविवार, 24 सितंबर 2023

कहानी - पता बेटे का

 

कहानी
.
रमाशंकर की कार जैसे ही सोसायटी के गेट में घुसी, गार्ड ने उन्हें रोक कर कहा..
.
“साहब, यह महाशय आपके  पते की चिट्ठी ले कर न जाने कब से भटक रहे हैं।”
.
रमाशंकर ने चिट्ठी ले कर देखा,  पता तो उन्हीं का था, पर जब उन्होंने चिट्ठी लाने वाले की ओर देखा तो उसे पहचान नहीं पाए।
.
चिट्ठी एक बहुत थके से बुज़ुर्ग ले कर आए थे। उनके साथ बीमार सा एक लड़का भी था।
.
उन्हें देख कर रमाशंकर को तरस आ गया। शायद बहुत देर से वे घर तलाश रहे थे।
.
उन्हें अपने घर ला कर कहा, “पहले तो आप बैठ जाइए।” इसके बाद नौकर को आवाज़ लगाई, “रामू इन्हें पानी ला कर दो।”
.
पानी पी कर बुज़ुर्ग ने थोड़ी राहत महसूस की तो रमाशंकर ने पूछा, “अब बताइए किससे मिलना है?”
.
“तुम्हारे बाबा देवकुमार जी ने भेजा है। बहुत दयालु हैं वह। मेरे इस बच्चे की हालत बहुत ख़राब है।
.
गाँव में इलाज नहीं हो पा रहा था। किसी सरकारी अस्पताल में इसे भर्ती करवा दो बेटा, जान बच जाए इसकी।
.
इकलौता बच्चा है,” इतना कहते कहते बुज़ुर्ग का गला रुँध गया।
.
रमाशंकर ने उन्हें गेस्टरूम में ठहराया। पत्नी से कह कर खाने का इंतज़ाम कराया।
.
अगले दिन फ़ैमिली डॉक्टर को बुलाकर सारी जाँच करवा कर इलाज शुरू करवा दिया।
.
बुज़ुर्ग कहते रहे कि किसी सरकारी अस्पताल में करवा कर दो, पर रमाशंकर ने उसकी एक नहीं सुनी। बच्चे का पूरा इलाज अच्छी तरह करवा दिया।
.
बच्चे के ठीक होने पर बुज़ुर्ग गाँव जाने लगे तो रमाशंकर को तमाम दुआएँ दीं।
.
रमाशंकर ने दिलासा देते हुए एक चिट्ठी दे कर कहा, “इसे पिताजी को दे दीजिएगा।”
.
गाँव पहुँच कर देवकुमारजी को वह चिट्ठी दे कर बुज़ुर्ग बहुत तारीफ़ करने लगा..
.
“आप का बेटा तो देवता है। कितना ध्यान रखा हमारा! अपने घर में रख कर इलाज करवाया।”
.
देवकुमार चिट्ठी पढ़ कर दंग रह गए...
.
उसमें लिखा था, “अब आप का बेटा इस पते पर नहीं रहता ... कुछ समय पहले ही मैं यहाँ रहने आया हूँ। पर मुझे भी आप अपना ही बेटा समझें। इनसे कुछ मत कहिएगा।
.
आपकी वजह से मुझे इन अतिथि देवता से जितना आशीर्वाद और दुआएँ मिली हैं, उस उपकार के लिए मैं आपका सदैव आभारी रहूँगा। .. आपका रमाशंकर।”
.
देवकुमार सोचने लगे, आज भी दुनिया में इस तरह के लोग हैं क्या..?
--इधर उधर बिखरी बातें !!
_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
https://chat.whatsapp.com/D9mMAYa5xPE0Mhln4IwZE0
___आप कम्यूनिटी ग्रुप में परिचित को जोड़ सकते हैं ।।

_________🌱__________
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
_________🌱___________

शनिवार, 23 सितंबर 2023

पहले सुनें

 

आओ चिन्तन करें !!

मम्मी... ..मम्मी!  यह सेक्स क्या होता है?"

सात- आठ साल के राहुल ने जब  किचन में  काम करती अपनी  मां से पूछा ....तो एकाएक उसके हाथ रुक।गए ..... दिमाग में अनेकों विचार आने लगे ।

फिर गुस्से में बोली- "क्या बकवास करता है? कैसे बच्चों के संग रहने लगा है?  क्या- क्या देखता रहता है? आने दे अपने बाप को.... आज तेरी कुटाई ना करवाई , तो देखना!"

राहुल मायूस सा.. लैपटॉप पर काम करती  अपनी बड़ी बहन के पास आया -"दीदी! यह सेक्स क्या होता है?
"क्या?  तेरा दिमाग खराब है? पढ़ता लिखता नहीं क्या तू? आने दे पापा को। करती हूं तेरी शिकायत"!

फिर राहुल डरते हुए अपने बड़े भाई के पास पहुंचा- "भैया भैया ! सेक्स क्या होता है?"
"अबे !तेरा दिमाग खराब है। यही पढ़ा रहे क्या स्कूल में आजकल ? चल भाग यहां से"।

शाम को पापा के आने पर सब इकट्ठा हुए......
राहुल की शिकायत जो करनी थी।☹️☹️ 
राहुल ने.... सबका मुंह देखते हुए अपने पापा से पूछा - " पापा पापा ! यह सेक्स क्या होता है?" 

अब तो  पापा जी भी सकपका  गए .....और अचकचाते  हुए बोले -  "क्या बकवास लगा रखी है? आजकल यही सब सीख रहा क्या तू? तेरी शिकायत करता हूं पीटीएम में!"

राहुल चारों का मुंह देखते हुए- "अरे! कोई तो बता दो । मैम ने यह फॉर्म भरने को कहा है ।....इसमें सेक्स के कॉलम के आगे क्या लिखूं?.""......

क्या आपको भी सिर्फ सुनने की आदत है?...
समझने की नहीं । खासतौर से तब.... जब आपके बच्चे आपसे बात करें । तो आपको बच्चे पर नहीं...... स्वयं पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।🤔🤔

_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
https://chat.whatsapp.com/D9mMAYa5xPE0Mhln4IwZE0
_________🌱__________
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
_________🌱__________

बुधवार, 20 सितंबर 2023

प्रेरणा पाथेय

 सूचना


प्रेरणा पाथेय के व्हाट्सएप को meta द्वारा ब्लॉक किया गया है ।।।

रविवार, 17 सितंबर 2023

पात्रता

 कहानी


जंगल में शेर शेरनी शिकार के लिये दूर तक गये अपने बच्चों को अकेला छोडकर।

जब देर तक नही लौटे तो बच्चे भूख से छटपटाने लगे.

उसी समय एक बकरी आई उसे दया आई और उन बच्चों को दूध पिलाया फिर बच्चे मस्ती करने लगे.

तभी शेर शेरनी आये. बकरी को देख लाल पीले होकर शेर हमला करता,

उससे पहले बच्चों ने कहा इसने हमें दूध पिलाकर बड़ा उपकार किया है नही तो हम मर जाते।

अब शेर खुश हुआ और कृतज्ञता के भाव से बोला हम तुम्हारा उपकार कभी नही भूलेंगे, जाओ आजादी के साथ जंगल मे घूमो फिरो मौज करो।

अब बकरी जंगल में निर्भयता के साथ रहने लगी यहाँ तक कि शेर के पीठ पर बैठकर भी कभी कभी पेडो के पत्ते खाती थी।

यह दृश्य चील ने देखा तो हैरानी से बकरी को पूछा तब उसे पता चला कि उपकार का कितना महत्व है।

चील ने यह सोचकर कि एक प्रयोग मैं भी करती हूँ,
चूहों के छोटे छोटे बच्चे दलदल मे फंसे थे निकलने का प्रयास करते पर कोशिश बेकार ।

चील ने उनको पकड पकड कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया.

बच्चे भीगे थे सर्दी से कांप रहे थे तब चील ने अपने पंखों में छुपाया, बच्चों को बेहद राहत मिली.

काफी समय बाद चील उडकर जाने लगी तो हैरान हो उठी चूहों के बच्चों ने उसके पंख कुतर डाले थे।

चील ने यह घटना बकरी को सुनाई तुमने भी उपकार किया और मैंने भी फिर यह फल अलग क्यों? ?

बकरी हंसी फिर गंभीरता से कहा....
उपकार करो,
तो शेरों पर  करो
चूहों पर नही।
क्योंकि कायर कभी उपकार को याद नही रखते और बहादुर  कभी उपकार नही भूलते ।  (बहुत ही गहरी बात है.....  )
___🌱___
___🌱___
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼 https://chat.whatsapp.com/CZaRSssL1Wd4CEIOUwUnrf

___🌱____
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
___🌱____

सोमवार, 11 सितंबर 2023

छुपा सच

 

चिन्तन की धारा...
-------
   पिछले दो हजार साल से तुम गुलाम रहे । तुम्हारी गुलामी और तुम्हारी गरीबी ने पश्चिम को यह खयाल दे दिया है कि तुम किसी कीमत के नहीं हो। तुम जिंदा भी नहीं हो। तुम मुर्दों की एक जमात हो। और जो लोग मुझसे पहले पश्चिम गए—विवेकानंद, रामतीर्थ, योगानंद और दूसरे हिंदू संन्यासी—उनमें से किसी का अपमान पश्चिम में नहीं हुआ। कोई दरवाजे उनके लिए बंद नहीं हुए। क्योंकि उन्होंने झूठ का सहारा लिया। उन्होंने बुद्ध के साथ जीसस की तुलना की, उन्होंने उपनिषद के साथ गीता की तुलना की, गीता के साथ बाइबिल की तुलना की। पश्चिम के लोगों को और भी गौरवमंडित किया। गुलाम तुम थे, गरीब तुम थे। तुम्हारे संन्यासियों ने तुम्हें आध्यात्मिक रूप में भी दरिद्र साबित किया। क्योंकि उन्होंने तुम्हारी ऊंचाइयों को भी पश्चिम की साधारण नीचाइयों तक खींच कर खड़ा कर दिया।

मेरी स्थिति एकदम अलग थी। मैंने पश्चिम से कहा कि भारत आज गरीब है, हमेशा गरीब नहीं था। एक दिन था कि सोने की चिड़िया था। और भारत ने जो ऊंचाइया पायी हैं, उनके तुमने सपने भी नहीं देखे। और तुम जिसको धर्म कहते हो उसको भार की ऊंचाइयों के समक्ष धर्म भी नहीं कहा जा सकता। जीसस मांसाहारी हैं, शराब पीते हैं। भारत का कोई धर्म यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसका परम श्रेष्ठ पुरुष मांसाहारी हो, शराब पीता हो; जिसमें इतनी भी करुणा न हो कि अपने खाने के लिए जीवन को बर्बाद करता हो; जो अपने भोजन के लिए इतना अनादर करता हो जीवन का और जो व्यक्ति शराब पीता हो उसे ध्यान की ऊंचाइयों को तो पाने का सवाल ही नहीं उठता। शराब तो दुखी लोग पीते हैं, परेशान लोग पीते हैं, तनाव से भरे लोग पीते हैं। क्योंकि शराब का गुण तुम जिस हालत में हो उसे भुला देने का है। अगर तुम परेशान हो, पीड़ित हो, शराब पीकर थोड़ी देर को तुम भूल जाते हो। दूसरे दिन फिर दुख वापिस खड़े हो जाएंगे। शराब दुखों को मिटाती नहीं, सिर्फ भुलाती है। ध्यान दुखों को मिटाता है, भुलाता नहीं है। और ध्यान और शराब विरोधी हैं।

ईसाइयत में ध्यान के लिए कोई जगह नहीं है।
_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼 https://chat.whatsapp.com/D8zUuGbgX7yHUOiN9IvyfP

_________🌱__________
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
_________🌱__________

    लेकिन  विवेकानंद और योगानंद और रामतीर्थ सिर्फ, प्रशंसा पाने के लिए पश्चिम को यह समझाने की कोशिश करते रहे कि जीसस उसी कोटि में आते हैं, जिसमें बुद्ध आते हैं। जिसमें महावीर आते हैं। यह झूठ था। और चूंकि मैंने वही कहा जो सच था, स्वभावतः मेरे लिए द्वार पर द्वार बंद होते चले गए। मैंने नहीं स्वीकार करता हूं कि जीसस के कोई भी वचनों में वैसी ऊंचाई है जो उपनिषद में है या उनके जिन में कोई ऐसी खूबी है जो बुद्ध के जीवी में है। उनकी खूबियां साधारण हैं। कोई आदमी पानी पर चल भी सके तो ज्यादा से ज्यादा जादूगर हो सकता है। और पहली तो बात यह है कि वे कभी पानी पर चले इसका कोई उल्लेख सिवाय ईसाइयों की खुद की किताब को छोड़कर किसी और किताब मैं नहीं है। अगर जीसस पानी पर चले तो इसमें कौन सा अध्यात्म है? पहली बात तो चले नहीं। अगर चले तो हो तो पोप को कम से कम किसी स्वीमिंग पूल पर ही चल कर बता देना चाहिए। स्वीमिंग पूल भी छोड़ो—बाथ टब। उतना भी प्रमाण काफी होगा क्योंकि वे प्रतिनिधि हैं और इन्फालिबल—उनसे कोई भूल नहीं होती। और अगर कोई आदमी पानी पर चला भी हो तो इससे अध्यात्म का क्या संबंध है?

रामकृष्ण के पास एक आदमी पहुंचा। वह एक पुराना योगी था। रामकृष्ण से उम्र में ज्यादा था। रामकृष्ण गंगा के तट पर बैठे थे और उस आदमी ने आकर कहा कि मैंने सुना है तुम्हें लोग पूजते हैं। लेकिन अगर सच में तुम्हारे जीवन में अध्यात्म है तो आओ, मेरे साथ गंगा पर चलो।

रामकृष्ण ने कहा, थके—मांदे हो थोड़ा बैठ जाओ, फिर चल लेंगे। अभी कहीं जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। और तब तक कुछ थोड़ा परिचय भी हो ले। परिचय भी नहीं है। पानी पर चलने में तुम्हें कितना समय लगा सीखने में?

उस आदमी ने कहा, अठारह वर्ष। रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मैं तो पानी पर नहीं चला। क्योंकि दो पैसे में गंगा पार कर जाता हूं। दो पैसे का काम अठारह वर्ष में समझना मैं मूर्खता समझता हूं, अध्यात्म नहीं। और इसमें कौन सा अध्यात्म है कि तुम पानी पर चल लेते हो? इससे तुमने जीवन का कौन सा रहस्य पा लिया है?

एक घटना मुझे स्मरण आती है जो तुम्हें फर्क को समझाएगी। जीसस के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने एक मुर्दे आदमी को जिंदा किया। जरा सोचने की बात है कि मुर्दे रोज मरते हैं। एक को ही जिंदा किया! जो आदमी मुर्दों को जिंदा कर सकता था, वह थोड़ा आश्चर्यजनक है कि उसके एक को ही जिंदा किया और वह भी उसका अपना मित्र था—लजारस। मामला बिलकुल बनाया हुआ है। लजारस एक गुफा में लेटा हुआ है और जीसस बाहर आकर आवाज देते हैं: लजारस, उठो, मृत्यु से बाहर जीवन में आओ! और लजारस तत्काल गुफा के बाहर आ जाते हैं। अब बहुत सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात, यह आदमी जीसस का बचपन का मित्र था। दूसरी बात, जो आदमी मर जाने के बाद वापस लौटा हो उसके जीवन में कोई क्रांति घटनी चाहिए। लजारस के जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी। इस घटना के अलावा लजारस की बाबत कहीं कोई उल्लेख नहीं है। क्या तुम सोचते हो एक आदमी मर जाए, मृत्यु के पार के जगत को देखकर वापस लौटे और वैसा का वैसा ही बना रहे? और जब एक आदमी को जीसस जिंदा कर सकते थे तो फिर किसी को भी मरने की जूदियों में जरूरत क्या थीं?

इस घटना को मैं इसलिए ले रहा हूं कि ठीक ऐसी ही घटना बुद्ध के जीवन में घटी। वे एक गांव में आए हैं, वहां एक स्त्री का इकलौता बेटा—उसका पति मर चुका है, उसके अन्य बच्चे मरे चुके हैं—एक बेटा जिसके सहारे वह जी रही है वह भी मर गया। तुम सोच सकते हो उसकी स्थिति। वह बिलकुल पागल हो उठी। गांव के लोगों ने कहा कि पागल होने से कुछ भी न होगा। बुद्ध का आगमन हुआ है। ले चलो अपने बेटे को। रख दो बुद्ध के चरण में और कहो उनसे कि तुम तो परम ज्ञानी हो, जिला दो इसे। मेरा सब कुछ छिन गया। इसी एक बेटे के सहारे मैं जी रही थी, अब यह भी छीन गया। अब तो मेरे जीवन में कुछ भी न बचा।

बुद्ध ने उस स्त्री से कहा, निश्चित ही तुम्हारे बेटे को सांझ तक जिला दूंगा। लेकिन उससे पहले तुम्हें एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। तुम अपने गांव में जाओ और किसी घर से थोड़े से तिल के बीज ले जाओ—ऐसे घर से जहां कोई मरा न हो। बस वे बीज तुम ले आओ, मैं तुम्हारे बेटे को जिला दूंगा।

वह पागल औरत स्वभावतः पागल होने की स्थिति में थी, भागी। इस घर में गई, उस घर में गई। लोगों ने कहा तुम कहती हो एक मुट्ठी बीज, हम बैलगाड़ियां भर कर तिल के ढेर लगा सकते हैं मगर हमारे बीज काम न आएंगे। हमारे घर में तो न जाने कितने लोगों की मृत्यु हो चुकी हैं। सांझ होते—होते सारे गांव ने उसे एक ही जवाब दिया कि हमारा बीज तुम जितना चाहो उतना ले लो, लेकिन ये बीज कान न आएंगे। बुद्ध ने बड़ी उलटी शर्त लगा दी। ऐसा कौन सा घर है जिसमें कोई मरा न हो?

दिनभर का अनुभव उस स्त्री के जीवने में क्रांति बन गया, वह वापस आई, उसने बुद्ध के चरण को छुआ और कहा कि भूलें, छोड़ें इस बात को कि लड़का मर गया। यहां जो भी आया है उसको मरना पड़ेगा। तुमने मुझे ठीक शिक्षा दी। अब मैं तुमसे यह चाहती हूं कि इसके पहले मैं मरु, मैं जानना चाहती हूं वह कौन है मेरे भीतर जो जीवन है। मुझे दीक्षा दो।

जो लड़के की जिंदगी मांगने आयी थी। वह अपने जीवन से परिचित होने की प्रार्थना लेकर खड़ी हो गयी। वह संन्यासिनी हो गयी और बुद्ध के जो शिष्य परम अवस्था को उपलब्ध हुए उनमें अग्रणी थी। इसको मैं क्रांति कहता हूं। बुद्ध अगर उस लड़के को जिंदा कर देते तो भी क्या था? एक दिन तो वह मरता ही। लजारस भी एक दिन मरा होगा। लेकिन बुद्ध ने उसे स्थिति का एक आध्यात्मिक रुख, एक नया आयाम ले लिया।

हम हर चीज को ऊपरी और बाहरी तल से देखने के आदी हैं। मैं मानता हूं बुद्ध ने जो किया वह महान है और जो जीसस ने किया वह साधारण है, उसका कोई मूल्य नहीं है। मेरी इन बातों ने पश्चिम को घबड़ा दिया। घबड़ा देने का कारण यह था कि पश्चिम आदी हो गया है एक बात का कि पूरब गरीब है, भेजो ईसाई मिशनरी और गरीबों को ईसाई बना लो। और करोड़ों लोग ईसाई बन रहे हैं। लेकिन जो लोग ईसाई बन रहे हैं पूरब में वे सब गरीब हैं, भिखारी हैं, अनाथ हैं, आदिवासी हैं, भूखे हैं, नंगे हैं। उन्हें धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन्हें स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, दवाइयां चाहिए, उनके बच्चों के लिए शिक्षा चाहिए, कपड़े चाहिए, भोजन चाहिए। ईसाइयत कपड़े और रोटी से उनका धर्म खरीद रही है।

मुझे दुश्मन की तरह देखने का कारण यह था कि मैंने कोई पश्चिम के गरीब को या अनाथ को या भिखमंगे को…और वहां कोई भिखमंगों की कमी नहीं है, सिर्फ अमरीका में तीस मिलियन भिखारी हैं! जो दुनिया के दूसरे भिखारी को ईसाई बनाने में लगे हैं वे अपने भिखारियों के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे ईसाई हैं ही। मैंने जिन लोगों को प्रभावित किया उनमें प्रोफेसर्स थे, लेखक थे, कवि थे, चित्रकार थे, मूर्तिकार थे, वैज्ञानिक थे, आर्किटेक्ट थे, प्रतिभा—संपन्न लोग थे। और यह बात घबराहट की थी कि अगर देश के प्रतिभा—संपन्न लोग मुझसे प्रभावित हो रहे हैं तो यह बड़े खतरे की सूचना है। क्योंकि यही लोग हैं जो रास्ता तय करते हैं दूसरे लोगों के लिए। इनको देखकर दूसरे लोग उन रास्तों पर चलते हैं। इनके पदचिन्ह दूसरों को भी इन्हीं रास्तों पर ले जाएंगे।

और मैंने किसी को भी नहीं कहा कि तुम अपना धर्म छोड़ दो। मैंने किसी को भी हनीं कहा कि तुम कोई नया धर्म स्वीकार कर लो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहा कि तुम समझने की कोशिश करो क्या धर्म है और क्या अधर्म है। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम बुद्धिमान हो और विचारशील हो।

मैंने उन देशों में पहली बार यह जिज्ञासा पैदा की कि जिस पूरब के लोगों को हम ईसाई बनाने के लिए हजारों मिशनरियों को भेज रहे हैं उस पूरब ने आकाश की बहुत ऊंचाइयां छुई हैं। हम अभी जमीन पर घसीटने के योग्य नहीं हैं। उन ऊंचाइयों के सामने उनकी बाइबिल, उनके प्रोफेट, उनके मसीहा, बहुत बचकाने, बहुत अदना, अप्रौढ़ अपरिपक्व सिद्ध होते हैं। इससे एक घबराहट और एक बेचैनी पैदा हो गई।
मेरे एक भी बात का जवाब पश्चिम में नहीं है। मैं तैयार था प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन से व्हाइट हाऊस में डिस्कस करने को, खुले मंच पर, क्योंकि वह फंडामैंटलिस्ट ईसाई हैं। वह मानते हैं कि ईसाई धर्म ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब धर्म थोथे हैं। पोप को मैंने कई बार निमंत्रण दिया कि मैं वेटिकन आने को तैयार हूं, तुम्हारे लोगों के बीच तुम्हारे धर्म के संबंध में चर्चा करना चाहता हूं और तुम्हें चेतावनी देना चाहता हूं कि जिसे तुम धर्म कह रहे हो वह धर्म नहीं है और जो धर्म है तुम्हें उसका पता भी नहीं है। -ओशो रजनीश के उद्गार , कोपले फिर फूट आईं (प्रवचन–01)

शनिवार, 9 सितंबर 2023

ब्रह्मा की आयु

 

वसुधैव कुटुम्बकम की धरती में कण कण में फैला ज्ञान

ब्रह्मा की आयु -
    हिन्दू धर्म में चतुर्युगी व्यवस्था है जिनमे चार युग होते हैं - सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग। हिन्दू धर्म की काल गणना हमारे ग्रंथों की सबसे रोचक जानकारियों में से एक है। इसके विषय में जितना भी जाना जाये वो कम है। इसके अतिरिक्त आश्चर्यजनक रूप से हमारी सहस्त्रों वर्षों पुरानी गणना वैज्ञानिक रूप से बिलकुल सटीक बैठती है।

आइये इस महत्वपूर्ण विषय को जानते हैं।
💠 ६ श्वास से एक विनाड़ी बनती है।
💠 १० विनाडियों से एक नाड़ी बनती है।
💠 ६० नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं।
💠 ३० दिवसों से एक मास (महीना) बनता है।
💠 ६ मास का एक अयन होता है।

🔶  २ अयन का एक मानव वर्ष (मनुष्यों का वर्ष) होता है। हिन्दू धर्म के अनुसार १ मानव वर्ष में ३६० दिवस होते हैं। यहाँ ३६५ वाली गणना नहीं चलती।

🔶 १५ मानव वर्ष के बराबर पित्तरों का १ वर्ष होता है जिसे पितृवर्ष कहते है।

🔶 ३६० मानव वर्षों का एक दिव्य वर्ष होता है। दिव्य वर्ष देवताओं के एक वर्ष को कहते हैं। दैत्यों का एक वर्ष भी इतना ही होता है। बस अंतर ये है कि देवताओं का दिन दैत्यों की रात्रि और देवताओं की रात्रि दैत्यों का दिन होती है। अर्थात देवों और दैत्यों की आयु समान ही होती है बस उसका क्रम उल्टा होता है।

🔶 देवों और दैत्यों की औसत आयु १०० दिव्य वर्ष मानी गयी है, अर्थात मनुष्यों के हिसाब से ३६००० वर्ष।

🔶 १२०० दिव्य वर्षों का एक चरण होता है, अर्थात ४३२००० मानव वर्ष।

💠  सतयुग ४८०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात १७२८००० मानव वर्ष। सतयुग में ४ चरण और भगवान विष्णु के ४ अवतार होते हैं - मत्स्य, कूर्म, वराह एवं नृसिंह।

💠 त्रेतायुग ३६०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात १२९६००० मानव वर्ष। त्रेतायुग में ३ चरण और भगवान विष्णु के ३ अवतार होते हैं - वामन, परशुराम एवं श्रीराम।

💠 द्वापर युग २४०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात ८६४००० मानव वर्ष। द्वापर युग में २ चरण और भगवान विष्णु के २ अवतार होते हैं - बलराम एवं श्रीकृष्ण।

💠 कलियुग १२०० दिव्य वर्षों का होता है, अर्थात ४३२००० मानव वर्ष। कलियुग केवल १ चरण का होता है और भगवान विष्णु केवल १ अवतार इस युग में लेंगे - कल्कि।
_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼 https://chat.whatsapp.com/D8zUuGbgX7yHUOiN9IvyfP

_________🌱__________
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
_________🌱__________
चारों युगों को मिला कर एक महायुग (चतुर्युग) बनता है जो कुल १२००० दिव्य वर्षों, अर्थात ४३२०००० मानव वर्षों का होता है। एक चतुर्युग में कुल १० चरण और १० ही श्रीहरि के अवतार होते हैं। अर्थात जिस युग में जितने चरण होते हैं, श्रीहरि उतने ही अवतार लेते हैं।

७१ महायुगों का एक मन्वन्तर होता है जिसमे १ मनु शासन करते हैं। अर्थात ३०६७२०००० (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार) मानव वर्ष।

१००० महायुगों या १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है जो परमपिता ब्रह्मा का आधा दिन माना जाता है। १ कल्प (ब्रह्मा के आधे दिन) में १४ मनु शासन करते हैं और प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि भी अलग-अलग होते हैं। ये १४ मनु हैं:
1. स्वयंभू
2. स्वरोचिष
3. उत्तम
4. तामस
5. रैवत
6. चाक्षुष
7. वैवस्वत - ये अभी वर्तमान के मनु हैं, अर्थात हम अपना जीवन वैवस्वत मनु के शासनकाल में जी रहे हैं। कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं भारद्वाज इस मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं।
8. सावर्णि
9. दक्ष  सावर्णि
10. ब्रम्हा  सावर्णि
11. धर्म  सावर्णि
12. रूद्र  सावर्णि
13. देव  सावर्णि
14. इन्द्र सावर्णि

एक कल्प में ४३२००००००० (चार अरब बत्तीस करोड़) मानव वर्ष होते हैं। एक कल्प में चतुर्युग १००० बार अपने आप को दोहराता है। अर्थात एक कल्प में श्रीराम, श्रीकृष्ण इत्यादि १००० बार जन्म लेते हैं। ये घटनाएं बिलकुल एक समान नहीं होती किन्तु परिणाम सदा समान ही होता है। अर्थात एक कल्प में होने वाला श्रीराम और रावण का प्रत्येक युद्ध बिलकुल एक सा नहीं होगा किन्तु विजय सदैव श्रीराम की ही होगी। एक कल्प के बाद महाप्रलय होता है और भगवान शिव सृष्टि का नाश कर देते हैं। उसके पश्चात ब्रह्मा पुनः सृष्टि की रचना करते हैं।

वैज्ञानिक तथ्य: हिन्दू धर्म के अनुसार एक कल्प में लगभग ४.३ अरब मानव वर्ष होते हैं जिसके बाद सृष्टि का अंत होता है। क्या आपको पता है कि नासा और वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी एवं सूर्य की आयु कितनी है? वो भी बिलकुल ४.३ अरब मानव वर्ष ही है। है ना आश्चर्यजनक?

दो कल्पों, अर्थात २००० महायुगों का ब्रह्मा का पूरा दिन होता है (दिन एवं रात्रि)। अर्थात ८६४००००००० (आठ अरब चौसठ करोड़) मानव वर्ष।

३० ब्रह्मा के दिन १ ब्रह्म मास के बराबर होते हैं, अर्थात २५९२०००००००० (२ खरब उनसठ अरब बीस करोड़) मानव वर्ष।

१२ ब्रह्मा के मास १ ब्रह्मवर्ष कहलाता है, अर्थात ३११०४०००००००० (इकतीस खरब दस अरब चालीस करोड़ मानव वर्ष)।

५० ब्रह्मवर्ष को १ परार्ध कहते हैं, अर्थात १५५५२०००००००००० (पंद्रह नील पचपन खरब बीस अरब) मानव वर्ष।

२ परार्ध ब्रह्मा के १०० वर्ष होते हैं जिसे १ महाकल्प कहते हैं। ये ब्रह्मदेव का पूर्ण जीवनकाल होता है। इसके बाद ब्रह्मा भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ये समय काल ३११०४०००००००००० (इकतीस नील दस खरब चालीस अरब) मानव वर्षों के बराबर है।

हम वर्तमान में वर्तमान ब्रह्मा के ५१ वें वर्ष में, सातवें (वैवस्वत) मनु के शासन में, श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत २०७६ में हैं। इस प्रकार अब तक १५५५२१९७१९६१६३२ (पंद्रह नील पचपन खरब इक्कीस अरब सत्तानवे करोड़ उन्नीस लाख इकसठ हजार छः सौ बत्तीस) वर्ष वर्तमान ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।

ब्रह्मा के १००० दिनों का भगवान विष्णु की एक घटी होती है।

भगवान विष्णु की १२००००० (बारह लाख) घाटियों की भगवान शिव की अर्धकला होती है।

महादेव की १००००००००० (एक अरब) अर्ध्कला व्यतीत होने पर १ ब्रह्माक्ष होता है।

इसके अतिरिक्त पाल्या नामक समय की एक इकाई का वर्णन आता है जो जैन धर्म में मुख्यतः उपयोग में लायी जाती है। एक पल्या भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन बनाने में लगे समय के बराबर होती है, यदि भेंड़ की ऊन का एक रेशा १०० वर्षों में चढ़ाया गया हो। दूसरी परिभाषा के अनुसार पल्या एक छोटी चिड़िया द्वारा किसी एक वर्ग मील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुंए को रिक्त करने में लगे समय के बराबर है, यदि वह प्रत्येक रेशे १०० वर्ष में उठाती है। यह इकाई भगवान आदिनाथ (भगवान शंकर के अवतार) के अवतरण के समय की है, जो जैन मान्यताओं के अनुसार १०००००००००००००० (दस नील) पल्या पहले था। 🙏🏼साभार🙏🏼 --राज सिंह---

गुरुवार, 7 सितंबर 2023

नन्द के आनंद भयो

 

उस स्त्री के लिए आज की भोर कुछ विचित्र, कुछ नवीन, और आशंकाओं से युक्त थी।

जब तक उसका विवाह नहीं हुआ था, वह स्वतंत्र थी। विवाह होते ही वह बंदिनी हो गई। और विडंबना यह कि उसे उसके पति ने नहीं, अपितु उसके भाई ने बंदी बनाया था। आज उसे कुल पच्चीस वर्ष बाद बाहर निकलने की अनुमति मिली थी। उसके भाई, मथुराधीश कंस ने विजयोत्सव का आयोजन किया था। कंस अपने श्वसुर मगधराज सम्राट जरासंध का दाहिना हाथ था। जरासंध के गुट में विदर्भ के राजा भीष्मक, और चेदि के राजा दामघोष भी थे, परन्तु कंस का स्थान इन दोनों से कहीं ऊपर था। भीष्मक पुत्र रुक्मी और दामघोष पुत्र शिशुपाल कंस को अपना आदर्श मानते थे। जरांसन्ध की आज्ञा से, कंस देश-विदेश में जययात्राएं करता रहता था, परन्तु यह प्रथम अवसर था जब वह विजयोत्सव भी मना रहा था। उस स्त्री ने सुना था कि कोई धनुषयज्ञ का आयोजन भी किया जाने वाला था परन्तु पिछले सप्ताह किसी दुष्ट ग्वाले ने समस्त जनता के सम्मुख उस धनुष को तोड़ दिया था। अवश्य ही उसके क्रूर भाई ने उस ग्वाले की हत्या करवा दी होगी।

अपने पिता, शूर नेता देवक के नाम पर उसे देवकी कहा जाता था। दासियों की सहायता से उसे उसके निर्दिष्ट आसन पर बिठा दिया गया। अभी तक आसपास के वातावरण से निर्लिप्त देवकी की तन्द्रा उसके चरणों पर पड़े करस्पर्शों से टूटी। कुछ नवयुवक उसके पैर छू रहे थे। देवकी कुछ न समझने के भाव से  उनकी ओर देख ही रही थी कि उसके कंधे पर एक नारी ने अपनी हथेली रखते हुए कहा, "देवकी, यह हमारे पुत्र हैं, हमारे पति वसुदेव के पुत्र। गद, सारण और सुभद्र।" देवकी अब भी असमंजस में थी। उसके नेत्रों में उस नारी के प्रति भी कोई पहचान के चिह्न नहीं दिख रहे थे। बलवान देहयष्टि की उस नारी ने प्रेम से देवकी का चुबक उठाकर कहा, "मुझे भी नहीं पहचाना देवकी? कैसे पहचानोगी! तुम्हारे और आर्यपुत्र के विवाह के अवसर पर हम तो तुम्हारी राह ही देखते रह गए, और दुष्ट कंस ने तुम्हें मार्ग में ही बंदी बना लिया था। मैं तुम्हारी सपत्नी, आर्यपुत्र वसुदेव की पत्नी रोहिणी हूँ।"
_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼 https://chat.whatsapp.com/D8zUuGbgX7yHUOiN9IvyfP

_________🌱__________
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
_________🌱__________

देवकी ने झट से अपनी धोती का छोर अपने दाँतों तले दबाया और रोहिणी के चरणों में झुकने को हुई, कि रोहिणी ने उसे अपने गले से लगा लिया। फिर रोहिणी बोली, "बहन, तेरा-मेरा नाता कुछ विचित्र ही प्रकार का है। यद्यपि पति के पुत्र सभी पत्नियों के साझे होते हैं, जैसे ये गद है, सुभद्र है, परन्तु तेरे गर्भ में अंकुरित बीज का पोषण मेरे गर्भ में हुआ है। तुझे पता है, तेरे सातवें पुत्र राम की माता हूँ मैं?"

जिस स्त्री ने अपने जीवन के पच्चीस वर्ष, पच्चीस वैवाहिक वर्ष, सन्तानमती होने के पश्चात भी संतानहीन होकर व्यतीत किए हों, अनुमान लगाना कठिन है कि यह सब सुनकर उसकी मनःस्थिति कैसी हो रही होगी। देवकी रोहिणी के गले लगकर रोने लगी। जैसे कोई माता अपनी पुत्री को चुप कराती है, वैसे रोहिणी ने देवकी को चुप कराया और कहा, "चुप कर बहन। अब तेरे दुख के दिन समाप्त हुए। मेरा अंतर्मन जानता है कि आज कुछ विशेष होने वाला है। तेरे पुत्र राम और कृष्ण मथुरा में हैं। वे शीघ्र ही यहां उपस्थित होंगे।"

'यहां उपस्थित होंगे', यह सुनकर देवकी ने अपने चारों ओर देखा। अब तक तो वह जैसे खुले नेत्रों से निद्रामग्न थी। अब उसके नेत्र खुले। उसने देखा कि वह एक गोलाकार क्रीड़ास्थल के चारो ओर बनी विशाल संरचना में स्थित एक आसन पर बैठी है। सहस्त्रों दर्शकों से युक्त उस संरचना में देवकी के आसन के ठीक सामने मथुराधीश कंस अपने मागधी अंगरक्षकों के साथ बैठा हुआ है। नीचे क्रीड़ास्थल पर अनेक मल्ल अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। अचानक ही प्रवेशद्वार पर शोर सा उठा। रोहिणी ने देवकी के कंधे झंकझोरते हुए हुए कहा, "देख बहन, वह हमारा राम चला आ रहा है!"

देवकी ने देखा, एक अत्यंत लम्बा-चौड़ा बलिष्ठ युवा जिसके चेहरे पर अभी मूंछों ने आना आरम्भ ही किया है, एक हाथ में ठोस इस्पात की बनी गदा लिए तनिक क्रोधित भाव से सबके सम्मुख उपस्थित हो गया। नीलाम्बर धारी उस युवक ने चारों ओर अपनी सिंहदृष्टि फिराई। दर्शकदीर्घा में उसने गोपों के बीच बैठे नन्द को प्रणाम किया, विशिष्टि पुरुषों की दीर्घा में उसने अक्रूर को पहचाना और प्रणाम किया। स्त्रियों की दीर्घा में उसने अपनी माता रोहिणी को प्रणाम किया। उसने देखा कि उसकी माता अपने निकट खड़ी एक अतिशय दुर्बल स्त्री को प्रणाम करने का संकेत दे रही हैं। राम ने उसे भी प्रणाम किया और अनन्तर अपनी क्रुद्धदृष्टि कंस पर स्थिर कर ली।

देवकी की अवस्था विचित्र हो गई थी। राम से पहले छह नवजात पुत्र उसने अपने हाथों में उठाए थे, और उन्हें मरते देखा था, आँठवें पुत्र को भी उसने देखा था, और स्वयं से दूर कर दिया था। परन्तु इस पुत्र को तो वह जन भी नहीं पाई थी। क्या वह वास्तव में इसकी जननी थी भी? राम के बाद निश्चित ही कृष्ण भी आएगा। वह कृष्ण जिसे देखने की आशा में उसने अपने नारकीय जीवन को भी सहर्ष काट लिया था। पूरे सोलह वर्षों से वह एक काठ की प्रतिमा को कृष्ण का रूप देकर कृष्ण मानते आई थी। उसी काष्ठ प्रतिमा को नहलाती, शृंगार करती, झूले पर झुलाती। उसकी ममता ने तो सोहल वर्ष से कृष्ण को बालक रूप में ही निरूपित किया हुआ था, परन्तु क्या वह मेघवर्णी बालक, अब तक बालक ही रहा होगा। माता के आतुर नेत्र द्वार पर चिपक गए थे।

सहसा गगनभेदी स्वर हुआ। गोपों की मंडली ने समस्त मथुरा को बता दिया कि उनका गोपेश्वर आ रहा है। लंबा-चौड़ा, परन्तु कमनीय। विचित्र भूषा थी उस युवक की। ग्रीवा में तुलसी की माला और माथे पर मोरपंख। हाथ में कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं, अपितु गोपों की भांति बाँस की मात्र एक छड़ी। कृष्ण अपने भाई राम के निकट खड़ा हो गया। जैसे कोई चित्र पूरा हो गया हो। पीत वर्ण के राम और नील वर्ण के कृष्ण। नीलाम्बर राम, पीताम्बर कृष्ण।

देवकी उन दोनों को देखती ही रह गई। न जाने कितने क्षण बीत गए। फिर जाने क्या हुआ, कि एक मल्ल राम से और दूसरा मल्ल कृष्ण से भिड़ने के लिए आगे बढ़े।

मुष्टिक और चाणूर, राम और कृष्ण। मुष्टिक और राम बाहुयुद्ध करने लगे। मुष्टिक जो अपने धक्के से हाथी को भी गिरा देता था, वह राम को एक पग भी पीछे धकेल न सका। उसने राम के पंजों से स्वयं को मुक्त किया और उस पर मुष्टि प्रहार करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति किसी सुकोमल बालक के कोमल प्रहारों को सहता रहता है, राम भी सहता रहा। और एकाएक ही उसने अपने से एक हाथ ऊँचे मुष्टिक को अपने हाथों पर उठा लिया और जोर से पटक दिया। उसने फिर उसके पैर पकड़े और बालकों के खेल की तरह मुष्टिक को हवा में घुमाने लगा, बीच-बीच में वह उसका सिर किसी न किसी वस्तु से भिड़ा देता। कुछ ही समय में मुष्टिक मृत्यु को प्राप्त हो गया।

इधर कृष्ण की शैली ही विचित्र थी। वह कमनीय युवक अपने लोचदार शरीर का भरपूर प्रयोग कर रहा था। चाणूर के लिए यह नितांत विचित्र बात थी कि प्रतिद्वंद्वी उस पर प्रहार ही नहीं कर रहा, न प्रतिउत्तर दे रहा है, अपितु मात्र स्वयं को बचा रहा है। इतनी देर हो गई, चाणूर की सांस फूल गई, पर वह अब तक कृष्ण को सही से छू भी नहीं पाया था। चाणूर के फेफड़े द्रुतगति से चल रहे थे। अब उसमें तनिक भी शक्ति नहीं बची थी। अंततः वह एक स्थान पर कीलित सा होकर कृष्ण की ओर हाथ भर हिला रहा था, जैसे ऐसा करने से कृष्ण उसकी पकड़ में आ जायेगा। अंततः कृष्ण मुस्कुराते हुए उसके सम्मुख खड़े हुए। चाणूर ने अवसर जान अपनी मुष्टि का भरपूर प्रहार किया। ऊपर से देख रही देवकी का हृदय भयभीत हो गया। उसके कोमल से पुत्र पर चाणूर का प्रहार!

परन्तु कृष्ण तो उसी प्रकार मुस्कुरा रहा था। फिर एकाएक ही उसने अपनी मुष्टि का प्रहार किया, और लोगों को सहसा विश्वास न हुआ कि चाणूर का सिर फट गया था।

गोपों ने पुनः उल्लासपूर्ण चीत्कार किया। कृष्ण की सावधान दृष्टि ने देखा कि कंस ने क्रोधित होकर कोई मूक आदेश दिया है, और उसके मागधी सैनिक क्रीड़ास्थल को घेरने लगे हैं। बस कुछ ही पल की बात थी कि कंस के सैनिक राम, कृष्ण और उनके मित्रों को घेर लेते, और सामूहिक हत्याकांड का आयोजन हो जाता।

कृष्ण ने क्षण भर में निर्णय कर लिया। गाँव का वह छोरा, जैसे पेड़ों पर पलक मारते चढ़ जाता था, एक के बाद एक दीर्घाओं को पार करता चला गया, और लोगों के देखते ही देखते दीर्घाओं के कई तलों को पार करते हुए कंस के सम्मुख खड़ा हो गया।

कंस कुछ समझ पाता, उससे पूर्व ही कृष्ण ने उसकी कमर से खड्ग निकाल लिया। निकट खड़े अंगरक्षकों के कुछ करने से पहले ही, कृष्ण ने कंस के लंबे केशों को अपने बाएँ हाथ में पकड़कर दाहिने हाथ से बलिपशु की भांति उसकी ग्रीवा उतार दी। समस्त जनता मूढ़ों की भांति देखती रह गई। वह तो जब कृष्ण ने कंस के शीश को अपने हाथ में पकड़कर ऊँचा उठाया, जनता पागल हो उठी। तारणहार आया, भविष्यवाणी सत्य हुई, शोर मचाती जनता कृष्ण की ओर लपकने लगी।

क्षत्राणी देवकी यह दृश्य देख आह्लाद से मूर्छित हो गई। वह देख नहीं पाई कि उसका बाल गोपाल किस प्रकार एक शक्तिशाली पुरुष के रूप में जनता के समुद्र को चीरता हुआ उसके निकट आ खड़ा हुआ था। देवकी की मूर्छा टूटी, उसने देखा जनार्दन उसके पैरों में झुके हुए थे, कंस के रक्त से उसके चरण धो रहे थे, और वर्षों के विलंब के लिए क्षमा मांग रहे थे।

----------- साभार अजीत प्रताप सिंह

बुधवार, 6 सितंबर 2023

जय कन्हैया लाल की

 

नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की !!

जन्माष्टमी ..या रामनवमी

हम आप ( केवल पचास साठ वर्ष पूर्व तक) अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे अब मनाने लग गये हैं और उससे सनातन हिन्दू धर्म को कोई समस्या नहीं है बस अपने जन्मदिन को भी हम ईश्वर का श्रवण करें और उसका ही मनन  ।

क्या कारण था हमारे आपके मां पिताजी के समय तक जन्माष्टमी रामनवमी ( तथा अन्य देवताओं) की तिथियाँ ही धूम धाम से मनायी जाती थी ?

इसका कारण था कि हमारे मां  पिताजी के समय तक सभी सनातन हिन्दू धर्मी को यह पता था कि हम मनुष्यों का जन्म कर्म वासना के आधार पर होता है ॥ अतः कोई बड़ी घटना नहीं क्योंकि जब तक कर्म वासना बनी रहेगी जन्म मरण का खेल चलता रहेगा ।

वहीं श्री हरि नारायण स्व इच्छा से अवतरित होते हैं । जन्माष्टमी और रामनवमी श्री हरि के कर्म वासना के कारण नहीं बल्कि उनकी स्व इच्छा से शरीर धारण के पीछे होती है अतः हमारे लिये परम उत्साह का समय ।

जन्माष्टमी का आध्यात्मिक पक्ष :

द्वापर अर्थात् दो नाव पर पैर रखना और संकंट मोल लेना ।
द्वापर अर्थात् संशय ।
द्वापर अर्थात् जब सनातन धर्म पर संशय । ईश्वर पर संशय । आत्मा ब्रह्म की एकता पर संशय । संत महात्माओं पर संशय ।
द्वापरांत अर्थात् संशय के अन्त का समय ।
और वही जन्माष्टमी आती है जब द्वापर का अंत होने वाला ही होता है ।

वसुदेव अर्थात् शुद्ध अंतःकरण । देवकी अर्थात् पवित्र बुद्धि । अंतःकरण के पेट में नहीं बल्कि पवित्र बुद्धि जो कि अंतरंग है के गर्भ से श्री भगवान का अवतरण होता है ।

पूतना अर्थात् अविद्या । कंस अर्थात् हिंसक । इत्यादि इत्यादि ।

पौराणिक पक्ष:

पृथिवी के उपर पेड़ पहाड़ का बोझ नहीं होता । पेड़ पहाड़ इत्यादि पृथ्वी के अवयव हैं । पृथ्वी के उपर घमंड का बोझ पड़ता है । पृथ्वी घमंड का बोझ नहीं झेल पाती ।

जब घमंड का बोझ पड़ता है तब रजोगुण का चैतन्य तमोगुण का चैतन्य रूद्र , सर्व दैवीय संपदा के राजा इंद्र , श्री हरि नारायण जो कि सत् गुण के सागर क्षीरसागर में रहते हैं के पास जाकर पृथ्वी के उपर विचरण कर रहे घमंडिया गठबंधन कंस जरासंध दुर्योधन इत्यादि के नाश के लिये प्रार्थना करते हैं । श्री हरि नारायण कहते हैं कि ठीक है कुछ उपाय करता हूँ ।

भगवान के द्वारापाल जय विजय भी घमंडी हो गये थे और एक दिन लक्ष्मी जी को ही अंदर जाने से रोकने लगे । बहरहाल श्री भगवान ने कहा कि अभी मैं कुछ नहीं करूँगा क्योंकि यह पक्षपात लगेगा परन्तु इनकी ( जय विजय की ) आदत ख़राब हो चुकी है और यह सब घमंडिया हो चुके हैं अतः संत महात्माओं का भी अपमान करेंगे और मैं संत महात्माओं का अपमान सहन नहीं करूँगा ।

वही हुआ घमंडिया जय विजय एक दिन सनत कुमारों को भी रोक दिये और सनत कुमारों ने शाप दे दिया कि जाकर राक्षस हो जाओ । और उनके प्रार्थना करने पर वरदान दे दिया कि ठीक है श्री हरि नारायण ही कि तुम्हारी मुक्ति करेंगे अतः जन्माष्टमी ।

सनातन हिन्दू धर्म के नाश का दुःस्वप्न देखने वाले घमंडिया गठबंधन के समूल नाश के लिये हम इस जन्माष्टमी को संकल्प लें और हम सब अर्जुन बनकर अपनी बुद्धि को नारायणाकार करके शत्रुओं पर जैसे भी हो सके , जितना भी हो सके प्रहार करें । - राज शेखर जी कहिन

*नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की 🙏🌷🙏*
_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼 https://chat.whatsapp.com/D8zUuGbgX7yHUOiN9IvyfP

_________🌱__________
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
_________🌱__________

सोमवार, 4 सितंबर 2023

चिन्तन के पल

 

चिन्तन की धारा

     एक पुरानी कहानी है कि एक धोबी के पास एक गधा था जिसे वो कपड़े लादकर लाने ले जाने के लिए इस्तेमाल करता था। एक बार धोबी कपड़े धोने के लिए नदी किनारे आया। गधे की पीठ से कपड़े उतारते वक़्त उसे याद आया कि जिस रस्सी से वो गधे को पेड़ से बांध देता था, वो आज उस रस्सी को लाना भूल गया है। धोबी बड़ी चिंता में पड़ गया। वो इस चिंता में घुला ही जा रहा था कि क्या अब फिर से उसे इतनी दूर जाकर रस्सी लानी होगी क्योंकि नहीं तो मेरे कपड़े धोने जाते ही ये गधा तो कहीं रपक (निकल) लेगा।
     वो ये सब सोच ही रहा था कि उधर से एक आदमी गुज़रा जो काफ़ी पढ़ा-लिखा और समझदार दिखता था। धोबी ने अपनी दास्तां उस आदमी से कह डाली और उससे किसी सलाह की आशा करने लगा। उस आदमी ने धोबी की पूरी बात इत्मीनान से सुनी और उससे कहा कि रस्सी लाने की कोई ज़रूरत नहीं है बस जब रस्सी होने पर तुम जिस प्रकार अपने गधे को बांधते आए हो ठीक उसी प्रकार का अभिनय करो। काल्पनिक रस्सी से उसे बांध दो। धोबी ने ठीक वैसा ही किया और बिल्कुल वैसे ही अपने गधे को थपथपाया जैसे वो रस्सी मजबूती से बांधने के बाद थपथपाया करता था।
     धोबी कपड़े धोता जाता और बीच-बीच में दूर बंधे अपने गधे को देखकर आश्चर्यचकित होता जाता कि ये काल्पनिक रस्सी तो ख़ूब काम कर रही है। कई बार अनायास उसके मुंह से ठहाके भी निकल जाते।
_________🌱_________
*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼 https://chat.whatsapp.com/D5Fru9HiQMnDjDppbgYPQj

_________🌱__________
पुराने प्रसंग आप यहाँ देख पाएंगे -
https://dulmera.blogspot.com/?m=1
_________🌱__________
     सारे कपड़े धोने के बाद उसने वो कपड़े गधे पर लाद दिए और फिर उसने गधे को ठहाके लगाते हुए कुछ यूं हांका कि 'तू तो सच में गधा है जो रस्सी थी ही नहीं उससे बंधा पड़ा रहा' लेकिन उसके ठहाके तुरंत रुक गए जब गधा आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं हुआ। धोबी के बहुत हांकने के बाद भी गधा एक पैर भी आगे बढ़ाने के लिए तैयार नहीं था। धोबी घबरा गया, घबराकर उसने इधर-उधर देखा और पाया कि पेड़ की छांव में बैठकर वही समझदार और काफ़ी पढ़ा-लिखा आदमी मुस्कुरा रहा है। वो आदमी भी ये सब तमाशा देखने के लिये बैठ गया था हालांकि वो पढ़ा-लिखा था लेकिन बेरोज़गार था तो अक्सर वो कहीं भी तमाशे देखने रुक जाया करता था। उस आदमी ने कहा कि तुम शायद भूल गए हो कि तुम्हारा गधा बंधा है, उसे ठीक उसी प्रकार खोलो जिस प्रकार रोज़ खोलते आए हो। धोबी एक बार फिर से आश्चर्यचकित हुआ और उसने ठीक उसी प्रकार अपने गधे को खोला जिस प्रकार वो रोज़ उसकी रस्सी खोला करता था और फिर से उसे थपथपाया करता था। ऐसा करते ही गधा अपने रास्ते चल दिया।
    यहां गधे की जगह हम अपने आप को रखकर देख सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि हम तमाम तरह के काल्पनिक पाशों (बंधनों) में बंधे हो और हम ये बात जानते ही न हो।

कुल पेज दृश्य