शनिवार, 22 अप्रैल 2023

उर्मिला 20

 

उर्मिला 20

    उस दिन जाने क्यों सरयू का जल उतर गया था। इतना कि पैदल ही पार किया जा सके। जैसे समूची प्रकृति टकटकी लगाए देख रही हो, कि दो साधुजनों के मध्य छिड़े धर्मसंकट के द्वंद में कौन विजयी होता है। सबकुछ जैसे ठहर गया था। पशु, पक्षी, हवा, नदी, धूप... सत्ता नदियों को पार करने के लिए पुल बांधती है, प्रेम नदी को ही बांध देता है।
    यह सामान्य आंखों से दिखने वाली वस्तु नहीं थी, पर जो देख सकते थे वे देख रहे थे कि भरत अपनी यात्रा के हर डेग पर अपना कद बढ़ाते जा रहे थे। साथ चल रहे लोगों का हृदय भरा हुआ था, आंखें बरस रही थीं, प्रेम उमड़ पड़ा था। लोग जा रहे थे राम के लिए, पर भरत की साधुता को जी रहे थे। समूची प्रकृति जैसे नतमस्तक हो गयी थी उस गृहस्थ सन्यासी के लिए...
     भरत के साथ निकले तीर्थयात्रियों का विशाल दल सरयू पार गया था। राम सौभाग्यशाली थे, उनकी यात्रा में उनके आगे उनकी कीर्ति चल रही थी। भरत की यात्रा में उनके आगे आगे चल रहा था उनका दुर्भाग्य, उनकी अपकीर्ति...
     भरत की इसी अपकीर्ति ने विचलित कर दिया सरयू पार बसे उस संत को भी, जिसे राम के मित्र होने का सौभाग्य प्राप्त था। उन्हें लगा, भरत राम का अहित करने निकले हैं। वह भोला बनवासी अपने लोगों के बीच गरजा, " हम जानते हैं कि हम महाराज भरत की विशाल सेना से जीत नहीं सकते, पर यदि अपने प्रिय के लिए प्राण भी नहीं दे सके तो धिक्कार है मित्रता पर... अच्छा भी है, अयोध्या देख ले कि प्रजा राम के साथ जीना चाहती है और राम के लिए मरने को भी उत्सुक है। धनुही उठा लो साथियों, युग-युगांतर की सत्ता को याद रहे कि राम के लिए यह धरा अनन्त काल तक लड़ती रहेगी, जीतती रहेगी।"
     निषाद कुल के किसी बुजुर्ग ने कहा, "अरे रुक जा रे बावले! भरत राम के भाई हैं, तुम्हारे राम के भाई... क्षण भर के लिए उस देवता का संगत पा कर हम जैसे गंवारों को धर्म का ज्ञान हो गया, फेर वे तो उनके साथ ही पले बढ़े हैं। एक बार उनसे मिल कर तो देख..."
     भक्त का क्रोध तनिक शांत हुआ। शीश झुका कर बोले, " हो सकता है काका! मैं सहज देहाती मानुस, इतनी बुद्धि नहीं है। चलो, मैं पहले उनसे मिल कर आता हूँ..."
     गुह आगे बढ़े। अकेले, निहत्थे... आगे से अयोध्या के कार्यकारी सम्राट भरत का रथ आ रहा था। उनके साथ असँख्य रथ थे, विशाल सेना थी, समूची प्रजा थी... और उनके सामने चुपचाप खड़े हो गए निषादों के उस छोटे गाँव के मुखिया गुह!
     भरत ने साथ चल रहे जानकार सैनिक से पूछा, "कौन हैं ये?" सैनिक ने बताया- राजकुमार राम के परम मित्र निषादराज गुह!"
      भरत की पलकें झपकीं, उन्हें लगा जैसे गुह नहीं स्वयं राम खड़े हैं। भरत विह्वल हो कर कूद गए रथ से और दौड़ पड़े गुह की ओर... पूरी प्रजा आश्चर्य से देख रही थी। अयोध्या का सम्राट दौड़ कर लिपट गया उस बनवासी से...
      निषादराज के मन में बैठा मैल छन भर में बह गया और बिलख कर रो पड़ा वह भलामानुष! इधर भरत ऐसे रो रहे थे जैसे भइया राम से लिपट कर रो रहे हों... लोग देख रहे थे, कहाँ अयोध्या के सम्राट और कहाँ एक गाँव का प्रधान! धर्म ने दोनों को एक कर दिया था, समान कर दिया था।
     देर तक यूँ ही रोते रहे भरत ने कहा, "तुम भी हमारे साथ चलो भइया! भइया को वापस अयोध्या लाना ही होगा..."
     गुह ने उत्साहित हो कर कहा, "अवश्य चलेंगे भइया। उनके चरणों में गिर पड़ेंगे, और तबतक न उठेंगे जबतक वे वापस लौटने को तैयार न हो जाएं।"
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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