रविवार, 30 अप्रैल 2023

वृद्धाश्रम

 

कहानी

डोरबेल बजी जा रही थी। रामसिंह भुनभुनाए
'इस बुढ़ापे में यह डोरबेल भी बड़ी तकलीफ देती है।'
दरवाजा खोलते ही डाकिया पोस्टकार्ड और एक लिफाफा पकड़ा गया।

लिफाफे पर बड़े अक्षरों में लिखा था वृद्धाश्रम।
रुंधे गले से आवाज दी-
'सुनती हो बब्बू की अम्मा, देख तेरे लाडले ने क्या हसीन तोहफा भेजा है!'

रसोई से आंचल से हाथ पोछती हुई दौड़ी आई - 'ऐसा क्या भेजा मेरे बच्चे ने जो तुम्हारी आवाज भर्रा रही है। दादी बनने की खबर है क्या?'

'नहीं, अनाथ!'

'क्या बकबक करते हो, लाओ मुझे दो। तुम कभी उससे खुश रहे क्या!'

"वृद्धाश्रम" शब्द पढ़ते ही कटी हुई डाल की तरह पास पड़ी मूविंग चेयर पर गिर पड़ी।

'कैसे तकलीफों को सहकर पाला-पोसा, महंगे से महंगे स्कूल में पढ़ाया। खुद का जीवन इस एक कमरे में बिता दिया।' कहकर रोने लगी
 
दोनों के बीते जीवन के घाव उभर आए और बेटे ने इतना बड़ा लिफाफा भेजकर उन रिसते घावों पर अपने हाथों से जैसे नमक रगड़ दिया हो।

दरवाजे की घंटी फिर बजी। खोलकर देखा तो पड़ोसी थे।
'क्या हुआ भाभी जी? फोन नहीं उठा रहीं हैं। आपके बेटे का फोन था। कह रहा था अंकल जाकर देखिए जरा।

उसे चिंता करने की जरूरत है! चेहरे की झाुर्रियां गहरी हो गई।'
'अरे इतना घबराया था वह, और आप इस तरह। आंखें भी सूजी हुई हैं। क्या हुआ?'

'क्या बोलू श्याम, देखो बेटे ने..' मेज पर पड़ा लिफाफा और पत्र की ओर इशारा कर दिया।'

श्याम पोस्टकार्ड बोलकर पढऩे लगा। लिफाफे में पता और टिकट दोनों भेज रहा हूं। जल्दी आ जाइये। हमने उस घर का सौदा कर दिया है।

सुनकर झर-झर आंसू बहें जा रहें थे। पढ़ते हुए श्याम की भी आंखें नम हो गई। बुदबुदाये 'नालायक तो नहीं था बब्बू!'

रामसिंह के कंधे पर हाथ रख दिलासा देते हुए बोले- 'तेरे दोस्त का घर भी तेरा ही है। हम दोनों अकेले बोर हो जाते हैं। साथ मिल जाएगा हम दोनों को भी।'
कहते-कहते लिफाफा उठाकर खोल लिया।

खोलते ही देखा - रिहाइशी एरिया में खूबसूरत विला का चित्र था, कई तस्वीरों में एक फोटो को देख रुक गए। दरवाजे पर नेमप्लेट थी सिंहसरोजा विला।
हा! हा! जोर से हंस पड़े।

'श्याम तू मेरी बेबसी पर हंस रहा है!'
'हंसते हुए श्याम बोले- 'नहीं यारा, तेरे बेटे के मजाक पर। शुरू से शरारती है वह।'

'मजाक..!'

देख जवानी में भी उसकी शरारत नहीं गई।' कहते हुए दरवाजे वाला चित्र रामसिंह के हाथ में दे दिया।

  नीचे नोट में लिखा था- *'बाबा, आप अपने वृद्धाश्रम में अपने बेटे-बहू को भी आश्रय देंगे न।'*  पढ़कर रामसिंह और सरोजा के आंखें डबडबा गई।   -संकलित

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शनिवार, 29 अप्रैल 2023

उर्मिला 21

 

उर्मिला 21

      भरत के साथ चल रही भीड़ के मध्य में राजकुल की स्त्रियां चल रही थीं। उन्हीं स्त्रियों के मध्य शीश झुकाए चल रही थी वह स्त्री भी, जिसकी आंखों में अश्रु थे और मन में चल रहा था भीषण द्वंद! कभी मन कहता था कि उसे अवश्य जाना चाहिये, क्योंकि भइया राम को वन से अयोध्या लाना कुल और राज्य दोनों के हित में है। वनवासी राम को राजा राम बनाने के लिए निकली इस यात्रा से वह स्वयं को कैसे दूर कर सकती थी? रामराज्य तो उसका भी स्वप्न था! पर कभी मन कहता, उसे नहीं जाना चाहिये! पति को चौदह वर्ष के लिए मुक्त कर दिया है ताकि वे केवल और केवल भइया की सोचें...
     उर्मिला ने स्वयं तय किया था कि इन चौदह वर्षों तक लखन के जीवन में उसका कोई हिस्सा नहीं होगा। फिर इसी बीच लक्ष्मण के समक्ष कैसे जा सकती थी वह? प्रेम तो हृदय में उसी तरह भरा हुआ है, बस प्रतिज्ञा की बांध से उसे रोक रखा है। यदि बांध टूट गया तो? मोह भरी एक दृष्टि भी उनपर पड़ी तो धर्म जाएगा... पर उनके समक्ष जा कर भी उनपर दृष्टि न डाले, ऐसा कैसे हो सकता है? दृष्टि पड़े और उसमें मोह न हो, ऐसा भी तो नहीं हो सकता न...
      "अयोध्या के दुर्भाग्य के चौदह वर्ष सिया-राम के लिए वनवास के वर्ष हैं, पर उर्मिला-लखन के लिए तप के वर्ष हैं। इन दोनों जोड़ों की नियति में अंतर यह है कि सिया-राम अपना वनवास एक साथ निभाएंगे, पर उर्मिला-लखन को अपना तप अलग रह कर ही करना होगा।" उर्मिला नियति की इस योजना के विरुद्ध जाना नहीं चाहती थी, पर... धीरे धीरे वह भी बढ़ी ही जा रही थी।
      उधर वन में अपनी कुटिया में बैठे राम की आंखे अनायास ही बार बार भर आती थीं। वे आश्चर्य में डूब जाते कि ऐसा हो क्यों रहा है। सिया ने टोका तो बोले- "जाने क्यों लग रहा है कि कुछ अशुभ हुआ है सिया! मन बहुत ब्याकुल हो उठा है। कहीं मेरी मातृभूमि पर कोई सङ्कट तो नहीं..."
      "ऐसा न सोचिये भइया! पिताश्री बृद्ध हुए तो क्या हुआ, वे अपने युग में संसार के सर्वश्रेष्ठ योद्धा रहे हैं। उनके होते हुए अयोध्या पर कोई संकट आ ही नहीं सकता! फिर भइया भरत और शत्रुघ्न भी तो वहीं हैं न! आप विह्वल न होइये, सब ठीक होगा।" लखन ने सांत्वना दी।
      राम ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर उनकी दशा न बदली। कुछ समय बाद लखन भोजन बनाने के लिए सूखी लकड़ियां लेने निकले। इन दिनों उनकी वनवासी बालकों से मित्रता हो गयी थी। वे उन्हें धनुर्विद्या और भाषा सिखाते थे और बच्चे शिष्य भाव से उनकी सेवा किया करते थे।
      लखन कुटिया से निकले और शीघ्र ही असँख्य बालक उनके साथ हो लिए। लखन से सोचा लकड़ियों के साथ साथ थोड़े फल भी ले लेते हैं, सो वे लोग कुछ दूर निकल आये। आपस में सहज परिहास करती हुई इस टोली को धीरे धीरे कोलाहल सुनाई देने लगा। लगता था जैसे कोई बड़ी सेना चली आ रही हो। वन के पंछी भी व्यग्र हो कर उड़ने-चहचहाने लगे थे, धूल आकाश में उड़ने लगी थी।
      लखन ने मुड़ कर देखा लड़कों की ओर, उनमें से दो शीघ्र दौड़ पड़े। कुछ समय बाद लौट कर आये और भयभीत स्वर में कहा, "कोई बड़ी सेना है गुरुदेव! पर उनके साथ नगरजन भी हैं। स्त्रियां भी हैं। अब तो बहुत निकट आ गए हैं, आप यदि इस ऊँचे बृक्ष पर चढ़ कर देखें तो उन्हें देख सकेंगे।
      लखन तीव्र गति से उस विशाल बृक्ष की ऊपरी डाल तक चढ़ गए। वे उस बड़ी भीड़ का कोई चेहरा तो नहीं पहचान सके, पहचाने तो अयोध्या का ध्वज! वे शीघ्र उतर आए।
     लखन के पास कुछ भी सोचने-समझने का समय नहीं था। अयोध्या की सेना वन में क्यों आयी है, इसका सटीक उत्तर नहीं समझ पा रहे थे वे। पर उन्हें शीघ्र ही निर्णय लेना था। उन्होंने कुछ पल सोचा और फिर अपने बनवासी शिष्यों के साथ उस ओर बढ़ने लगे जिस ओर से अयोध्या की सेना आ रही थी।
       बस कुछ ही पल बाद! एक और सेना सहित समूची अयोध्या और दूसरी ओर अपने बीस शिष्य बालकों के साथ खड़े लक्ष्मण। धनुष को कंधे पर ही रहने दिया और हाथ में पकड़ी सुखी डाल को हवा में उठा कर अयोध्या के उस निर्वासित राजकुमार ने गरज कर कहा, "सावधान राजकुमार! वन में आने का अपना प्रयोजन बताइये, अन्यथा आप जौ बराबर भी आगे न बढ़ सकेंगे।"
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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*शनि-रवि-सोम प्रेरक प्रसंग । यदा कदा तत्कालीन प्रसंग - स्वास्थ्य - हास्य ...*    👉🏼
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सोमवार, 24 अप्रैल 2023

पंथ

 

वाह क्या जिज्ञासा है,,,

कल इंदौर से तीन जन आए थे धाम पर,,कहने लगे कि मत या पंथ और धर्म में क्या अंतर है और कौन सत्य है??

मैंने उन्हें सिर्फ इतना कहा कि आयुर्वेद में आयु को बढ़ाने वाली अनेकों बातें बताई हैं,, शिष्यों ने महर्षि चरक से पूछा कि आपने घृत का नाम नहीं लिया इनमें??  ऋषि ने कहा कि बाकी चीजें आयु को बढ़ाने वाली हैं लेकिन घृत तो स्वयं ही आयु है--आयुर्वै घृतम--घृत आयु का ही दूसरा नाम है,,
अब कोई अजीर्ण का या फैटी लिवर का या हार्ट का रोगी है,, वह कहने लगे कि झूठ,, बिल्कुल झूठ,, घृत आयु नहीं मृत्यु है,,खाया कि मरे,,

तो बात इतनी ही है बन्धु की घृत आयु है यह है धर्म,, पृथ्वी पर आप किसी को भी यह खिलाओ वह पुष्ट ही होगा,, यह सनातन सत्य है, यह ध्रुव सत्य है,,यह जागतिक सत्य है,,लेकिन जो अजीर्ण या फैटी लिवर या हार्ट रोगी है उसे मार डालेगा यह उसका व्यक्तिगत सत्य है,,तो व्यक्तिगत मान्यताएं जो होती हैं वह मत या पंथ होता है,,जागतिक सत्य जो होता है वह धर्म होता है जो मनुष्य मात्र पर लागू होता है,,

तो उन्होंने पूछा कि व्यक्ति पंथ में जुड़ते ही धर्म का बैरी क्यों हो जाता है?? मैंने उन्हें कहा कि अज्ञानता के कारण,, यही तो पंथ की शक्ति है,,मान लो अजीर्ण या फैटी लिवर के व्यक्ति ने घृत का विरोध किया तो दुनिया में जितने लोग अजीर्ण  फैटी लिवर हैं वे उसके समर्थन में आ जाएंगे,, कहेंगे यह व्यक्ति सत्य कह रहा है हम भी इसकी पुष्टि करते हैं,, बस यही उनकी धूर्तता है, यहीं उसका छल है जो सामान्य व्यक्ति समझ नहीं सकता,,

छल या धूर्तता यह है कि वे घृत पर दोषारोपण कर रहे हैं कि यह तो मार डालेगा,, जबकि स्वयं के बारे में यह नहीं बता रहे हैं कि घृत तो अमृत ही है, यह तो वास्तव में आयु ही है लेकिन हम अजीर्ण के रोगी हैं हम फैटी लिवर हैं हम  अयोग्य हैं इस महाताकतवर चीज को पचाने में,, हममें शक्ति नही रही शुद्धता या सही चीज को पचाने की,,

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बस इतनी सी बात है,, घी को कोसने लगते हैं अपना अजीर्ण या फैटी लिवर नहीं दिखता अपनी अयोग्यता अपनी  अपच नहीं दिखती,, ठीक यही पंथ या मत का फंडा होता है,, वह यह नहीं कहेगा कि धर्म जैसी अमूल्य मणि धारण करने की हममें सामर्थ्य नहीं रही, अब ऊर्ध्वारोहण की हममें शक्ति नहीं रही,, उल्टे कोसने लगेंगे की यह कोई धर्म है यह तो मार डालेगा,, और उनकी हां में हां मिलाने वाले रोगी जुड़ते और बढ़ते जाएंगे,, यही मत या पंथ के विस्तार का सीक्रेट है,, मत या पंथ शुद्धता पर नहीं रोग पर टिके होते हैं ।।
ॐ श्री परमात्मने नमः।             
  - *स्वामी सूर्यदेव*

रविवार, 23 अप्रैल 2023

आखा तीज

 अक्षय तृतीया: परशुराम जी का अवतार दिवस


सबसे प्रचण्ड अवतार है परशुरामजी का..

झूठी है उनके क्रोधी होने और क्षत्रिय क्षय की बातें...


पृथ्वी पर सत्य, धर्म और न्याय की स्थापना के लिये भगवान् नारायण ने अनेक अवतार लिये हैं।  इनमें परशुरामजी का अवतार पहला पूर्ण अवतार है । जो सर्वाधिक व्यापक है । 

संसार का ऐसा कोई कोना, कोई क्षेत्र या कोई देश ऐसा नहीं जहाँ भगवान् परशुरामजी की स्मृति या चिन्ह नहीं मिलते हों । उन्होंने संसार में शाँति और मानवता की स्थापना के लिये पूरी पृथ्वी की सतत यात्राएँ की । यदि यह कहा जाय कि विश्व में आर्यत्व की स्थापना भगवान् परशुरामजी ने की तो यह सच्चाई का महत्वपूर्ण तथ्य होगा । 

भगवान् परशुरामजी का चरित्र वैदिक और पौराणिक इतिहास में सबसे प्रचण्ड और व्यापक है । उन्हे नारायण के दशावतार में छठे क्रम पर माना गया । वे पहले पूर्ण अवतार हैं । उन्हे चिरंजीवी माना गया इसीलिए उनकी उपस्थिति हरेक युग में मिलती है । उनका अवतार सतयुग के समापन और त्रेता युग आरंभ के संधि क्षण में हुआ । वह वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया थी । चूँकि उनका अवतार अक्षय है,  इसलिये यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाई । इस तिथि का प्रत्येक पल शुभ होता है । उनका अवतार एक प्रहर रात्रि के शेष रहते हुआ,  इसलिये यह ब्रह्म मुहूर्त कहलाया । उनकी उपस्थिति सतयुग के समापन से आरंभ होकर कलियुग के अंत तक रहने वाली है । इतना व्यापक और कालजयी चरित्र किसी देवता, ऋषि अथवा अवतार का नहीं मिलता । उन्होंने ही वह शिव धनुष राजा जनक को दिया था जिसे भंग करके रामजी ने माता सीता का वरण् किया ।  परशुराम जी ने ही वह विष्णुधनुष रामजी को दिया था जिससे लंकापति रावण का उद्धार हुआ ।  इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान भी देने वाले भी परशुरामजी ही हैं। पुराणों यह भी उल्लेख है कि धर्म रक्षा के लिये कलयुग में कल्कि अवतार होगा तब उन्हें शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान देने के निमित्त भी भगवान परशुराम जी ही होंगे । 

भगवान् परशुरामजी का अवतार ऋषिकुल में हुआ हैं । भगवान परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि हैं और माता रेणुका  सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट राजा रेणु की पुत्री हैं । भगवान् परशुरामजी पांच भाई और एक बहन हैं । भगवान् परशुरामजी के सात गुरू हैं । पहली गुरू माता रेणुका हैं, दूसरे गुरु पिता महर्षि जमदग्नि । तीसरे गुरू महर्षि चायमान, चौथे गुरु महर्षि विश्वामित्र, पाँचवे गुरु महर्षि वशिष्ठ,  छठें गुरु भगवान् शिव और सातवें गुरु भगवान् दत्तात्रेय हैं । भगवान् शिव की भक्ति तो पूरा संसार करता है पर उनके एक मात्र शिष्य भगवान् परशुरामजी ही हैं । वे मन की गति से भ्रमण करते हैं । इसे मन व्यापक गति कहते हैं । उन्हे चिर यौवन का वरदान है अर्थात वे कभी वृद्ध नहीं होंगे । संसार को "श्रीविद्या" का ज्ञान भगवान् परशुरामजी ने दिया । शक्ति की उपासना भी भगवान परशुराम जी से आरंभ हुई । भगवान परशुराम जी ने ही शक्ति आराधना का महर्षि सुमेधा को दिया । महर्षि सुमेधा ने ही आगे शक्तिसाधना के ग्रंथ रचे । परशुराम जी के ज्ञान, साधना, ओजस्विता और तेजस्विता के आगे कोई नहीं ठहर  पाया । उनके आगे चारों वेद चलते हैं । पीठ पर अक्षय तीरों से भरा तूणीर रहता है । एक हाथ में शास्त्र हैं तो दूसरे में शस्त्र । वे श्राप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं । यह क्षमता किसी और अवतार में या ॠषि में नहीं । उन्होंने यदि प्रत्यक्ष युद्ध करके आतताइयों का हनन् किया है तो तप करके शिवजी को प्रसन्न भी किया है । उन्होंने समाज निर्माण केलिये दो बार विश्व की यात्रा की है । ऋषि रूप वेद ऋचाओं का सृजन भी किया है । ऋग्वेद के दसवें मंडल का एकसौ दसवां सूक्त भगवान् परशुरामजी द्वारा ही सृजित है । लेकिन मध्यकाल में जिस भारत के मानविन्दुओं को कलंकित किया गया उसी प्रकार भारत के आदर्श चरित्र गाथा में अनेक कूटरचित कथाएँ जोड़कर विवादास्पद बनाने का कुचक्र चला । आक्रमणकारियों का घोषित नारा था "बाँटो और राज करो" इसके अंतर्गत ही भगवान परशुराम जी की गाथा में कुछ प्रसंग जोड़े , जो पूरी तरह असत्य और भ्रामक हैं ।

 असत्य और भ्रामक आक्षेप -

भगवान् परशुरामजी पर दो आक्षेप लगाये जाते हैं एक तो यह कि उन्होंने क्षत्रियों का क्षय किया दूसरा यह कि वे बहुत क्रोधी थे । ये दोनों आक्षेप असत्य हैं और समाज में भेद पैदा करने के लिये कुछ विदेशी षडयंत्रकारियों द्वारा रचित हैं । ताकि भारतीय समाज को विभाजित कर भारत को दास बना सकें । वे अपने षडयंत्र में सफल भी हुये । लेकिन अब हमें स्वयं अध्ययन करके समस्त भ्रांतियों का निवारण करना चाहिए । इन दोनों प्रश्नों पर शास्त्रों में पर्याप्त प्रमाण है । श्रीमद्भागवत में स्पष्ट है कि "दुष्टं क्षत्रम्" शब्द आया है । अर्थात "दुष्ट राज्य" । पुराण कथाओं में तीन शब्द आतें हैं क्षत्र, क्षत्रप और क्षत्रिय । इन तीनों शब्दों में अंतर होता है । क्षत्र यनि राज्य, क्षत्रप यनि राजा और क्षत्रिय यनि राज्य के लिये समर्पित । यदि शब्द दुष्ट क्षत्रम् है तो उसका अर्थ हुआ ऐसे राज्य जो दुष्टता करते थे । महाभारत के एक प्रसंग में भगवान् शिव ने आदेश दिया कि "तुम मेरे समस्त शत्रुओं का वध करो"। संस्कृत में शब्द चाहे "क्षत्र" आया हो या "क्षत्रप" लेकिन हिन्दी अनुवाद में सीधा क्षत्रिय ही करके भ्रम  फैलाया गया। परशुराम जी के संदर्भ में क्षत्रिय शब्द का पहली बार कालिदास के रघुवंश में हुआ और यहीं से ने क्षत्रिय विनाश के किस्से चल पड़े । इसके बाद जो साहित्य रचा गया उसमें इसके वर्णन में विस्तार होता गया । भला बताइये भगवान् परशुरामजी नारायण के अवतार हैं क्षत्रिय की उत्पत्ति नारायण के बाहुओं से हुई तो क्या नारायण स्वयं अपनी बाहुओं का विनाश करने के लिये अवतार लेंगे? इसके अतिरिक्त उनकी माता देवी रेणुका क्षत्रिय, उनकी दादी देवी सत्यवती क्षत्रिय, भृगु वंश की अनेक ऋषि कन्याएं क्षत्रियों को ब्याहीं तब भला कैसे वे क्षत्रिय विरोधी अभियान छेड़ सकते हैं । इसके अतिरिक्त एक बात और नारायण जब भी अवतार लेते हैं । उनके अवतार के जीवन की प्रत्येक कार्य का कहीं न कहीं निमित्त होता है । यदि किसी अवतार में पत्नि वियोग होना है, वानरों का साथ लेना है, एक ही विवाह करना या एक से अधिक विवाह करना या रणछोड़ का आक्षेप लगना सब निर्धारित होता है । इसीलिए नारायण के अवतार के कार्यों को कर्म नहीं लीला कहा जाता है । नारायण के किसी प्रसंग में किसी शास्र में यह उल्लेख नहीं आया कि कभी वे क्षत्रिय हंता बनेंगे । अतएव यह भ्रामक बात समाज को मन से निकालनी होगी । समाज को बाँटने के यूँ भी कम षडयंत्र नहीं हो रहे । अतएव हमें जागृति के साथ सत्य को समझाना चाहिए ।

उन पर दूसरा आक्षेप लगता है क्रोधी होने का । 

लोग कहते हैं कि भगवान परशुरामजी बहुत क्रोधी हैं । यह आक्षेप भी तथ्य हीन है । क्रोध राक्षसों को आता है, दैत्यों को आता है । क्रोध तमोगुण है । हमारे प्रत्येक शास्त्र में क्रोध से दूर रहने को कहा गया है । क्रोध को अग्नि कहा गया है । जिस प्रकार अग्नि सबसे पहले अपने ही केन्द्र को जलाती है ठीक उसी प्रकार क्रोध भी उसी व्यक्ति को पहले नष्ट करता है जो क्रोध करता है । परशुरामजी नारायण का अवतार हैं । नारायण तो सदैव मुस्कुराते हैं कभी क्रोध नहीं करते । तब नारायण का कोई अवतार क्रोध करेगा ? वह शब्द रोष है । रोष में भरकर उन्होंने दुष्टों का नाश किया । गुस्सा तीन प्रकार का । माता का और गूरू का गुस्सा सतोगुणी होता है जिसे रोष कहते हैं । पिता और राजा का गुस्सा रजोगुणी होता है जिसे कोप कहते हैं । जबकि दुष्टों और दानवों का गुस्सा अहंकार से उत्पन्न होता है यह तमोगुणी होता है इसे क्रोध कहते है । भगवान् परशुरामजी नारायण का अवतार हैं, ऋषि हैं गुरू हैं उनका गुस्सा रोष है । संस्कृत में रोष शब्द ही आया है जिसका हिन्दी अनुवाद क्रोध के रूप में हुआ और भ्रान्तियाँ फैली । जिन्हे समाज को बाँटने के लिये योजना पूर्वक प्रचारित किया गया । 

पूरे विश्व में चिन्ह --

भगवान परशुराम जी से संबंधित प्रसंग पूरे विश्व में मिलते हैं। उनके विभिन्न नामों में एक नाम भृगुराम भी है । यह शब्द अपभ्रंश होगा बगराम बना । अफगानिस्तान में भी बगराम नामक स्थान है यहां विमानतल भी बना है । एक बगराम नगर ईराक में भी है । लैटिन अमेरिका की खुदाई में श्रीयंत्र जैसी आकृति निकली है । भगवान परशुराम जी के कहने पर मय दानव पाताल गया था । संभवतः मय दानव से ही लैटिन अमेरिका की "मायन सभ्यता" विकसित हुई होगी । रोम की खुदाई में पत्थर पर उकेरी गई एक ऐसी आकृति निकली जिसके कंधे पर धनुष बाण है और परशु जैसा शस्त्र भी । यद्यपि इस आकृति के सिर पर टोप तो रोमन ही पर परशु और धनुष बाण धारण करने वाले एक मात्र परशुराम जी हैं। संभव है कि रूस नाम ऋषिका का अपभ्रंश हो । पर इसपर व्यापक शोध की आवश्यकता है । मैक्समूलर की एक पुस्तक है "हम भारत से क्या सीखें" इस पुस्तक के अनुसार संसार का ज्ञान भारत से ईरान पहुँचा और ईरान से पूरे विश्व में।  इस कथन से भी यह धारणा प्रबल होती है कि विश्व में जो परशुराम जी से मिलते जुलते शब्द या चिन्ह मिलते हैं वे सब परशुराम जी से ही संबंधित हो सकते हैं। 

इस प्रकार भगवान परशुराम जी अवतार विश्व व्यापक है, सबसे प्रचण्ड है ।और संसार में अधर्म का नाश करके सत्य की स्थापना करने वाला है । -- रमेश शर्मा

शनिवार, 22 अप्रैल 2023

उर्मिला 20

 

उर्मिला 20

    उस दिन जाने क्यों सरयू का जल उतर गया था। इतना कि पैदल ही पार किया जा सके। जैसे समूची प्रकृति टकटकी लगाए देख रही हो, कि दो साधुजनों के मध्य छिड़े धर्मसंकट के द्वंद में कौन विजयी होता है। सबकुछ जैसे ठहर गया था। पशु, पक्षी, हवा, नदी, धूप... सत्ता नदियों को पार करने के लिए पुल बांधती है, प्रेम नदी को ही बांध देता है।
    यह सामान्य आंखों से दिखने वाली वस्तु नहीं थी, पर जो देख सकते थे वे देख रहे थे कि भरत अपनी यात्रा के हर डेग पर अपना कद बढ़ाते जा रहे थे। साथ चल रहे लोगों का हृदय भरा हुआ था, आंखें बरस रही थीं, प्रेम उमड़ पड़ा था। लोग जा रहे थे राम के लिए, पर भरत की साधुता को जी रहे थे। समूची प्रकृति जैसे नतमस्तक हो गयी थी उस गृहस्थ सन्यासी के लिए...
     भरत के साथ निकले तीर्थयात्रियों का विशाल दल सरयू पार गया था। राम सौभाग्यशाली थे, उनकी यात्रा में उनके आगे उनकी कीर्ति चल रही थी। भरत की यात्रा में उनके आगे आगे चल रहा था उनका दुर्भाग्य, उनकी अपकीर्ति...
     भरत की इसी अपकीर्ति ने विचलित कर दिया सरयू पार बसे उस संत को भी, जिसे राम के मित्र होने का सौभाग्य प्राप्त था। उन्हें लगा, भरत राम का अहित करने निकले हैं। वह भोला बनवासी अपने लोगों के बीच गरजा, " हम जानते हैं कि हम महाराज भरत की विशाल सेना से जीत नहीं सकते, पर यदि अपने प्रिय के लिए प्राण भी नहीं दे सके तो धिक्कार है मित्रता पर... अच्छा भी है, अयोध्या देख ले कि प्रजा राम के साथ जीना चाहती है और राम के लिए मरने को भी उत्सुक है। धनुही उठा लो साथियों, युग-युगांतर की सत्ता को याद रहे कि राम के लिए यह धरा अनन्त काल तक लड़ती रहेगी, जीतती रहेगी।"
     निषाद कुल के किसी बुजुर्ग ने कहा, "अरे रुक जा रे बावले! भरत राम के भाई हैं, तुम्हारे राम के भाई... क्षण भर के लिए उस देवता का संगत पा कर हम जैसे गंवारों को धर्म का ज्ञान हो गया, फेर वे तो उनके साथ ही पले बढ़े हैं। एक बार उनसे मिल कर तो देख..."
     भक्त का क्रोध तनिक शांत हुआ। शीश झुका कर बोले, " हो सकता है काका! मैं सहज देहाती मानुस, इतनी बुद्धि नहीं है। चलो, मैं पहले उनसे मिल कर आता हूँ..."
     गुह आगे बढ़े। अकेले, निहत्थे... आगे से अयोध्या के कार्यकारी सम्राट भरत का रथ आ रहा था। उनके साथ असँख्य रथ थे, विशाल सेना थी, समूची प्रजा थी... और उनके सामने चुपचाप खड़े हो गए निषादों के उस छोटे गाँव के मुखिया गुह!
     भरत ने साथ चल रहे जानकार सैनिक से पूछा, "कौन हैं ये?" सैनिक ने बताया- राजकुमार राम के परम मित्र निषादराज गुह!"
      भरत की पलकें झपकीं, उन्हें लगा जैसे गुह नहीं स्वयं राम खड़े हैं। भरत विह्वल हो कर कूद गए रथ से और दौड़ पड़े गुह की ओर... पूरी प्रजा आश्चर्य से देख रही थी। अयोध्या का सम्राट दौड़ कर लिपट गया उस बनवासी से...
      निषादराज के मन में बैठा मैल छन भर में बह गया और बिलख कर रो पड़ा वह भलामानुष! इधर भरत ऐसे रो रहे थे जैसे भइया राम से लिपट कर रो रहे हों... लोग देख रहे थे, कहाँ अयोध्या के सम्राट और कहाँ एक गाँव का प्रधान! धर्म ने दोनों को एक कर दिया था, समान कर दिया था।
     देर तक यूँ ही रोते रहे भरत ने कहा, "तुम भी हमारे साथ चलो भइया! भइया को वापस अयोध्या लाना ही होगा..."
     गुह ने उत्साहित हो कर कहा, "अवश्य चलेंगे भइया। उनके चरणों में गिर पड़ेंगे, और तबतक न उठेंगे जबतक वे वापस लौटने को तैयार न हो जाएं।"
क्रमशः
(पौराणिक पात्रों व कथानक लेखनी के धनी श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख द्वारा लिखित ये कथा इतनी प्यारी व आकर्षण भरी लगी, कि शेयर करने के लोभ को रोक न पाया )

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गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

महावीर - वीरों के वीर

 

आज महावीर हनुमान जन्मोत्सव है, घर घर उत्सव है , अपार अथाह श्रद्धा के स्वामी वीर हनुमान को जितना मनन करें, धारण करें, उतना कम है ।। उसी श्रद्धा से ओतप्रोत जब अजित प्रताप जी ने अपनी कलम चलाई , तो आप तक पहुंचाने के भावों को रोकना मुश्किल ।।
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सोने के रंग वाला एक विशाल देह का स्वामी पुरुष गरुड़ की गति से पर्वत पर चढ़ता चला जा रहा था। कंधे पर धनुष, तूणीर में तीक्ष्ण बाण और हाथ में विशाल गदा देख किसी भी सामान्य व्यक्ति को उससे भय हो सकता था, परन्तु उसके ओंठों पर मधुर मुस्कान देख शंकालु मन को अभय की प्राप्ति होने की संभावना भी थी।

पर्वत की चढ़ाई पार करते हुए उसके मन में यही बात चल रही थी कि अपनी पत्नी की इच्छा अतिशीघ्र पूरी कर उसके प्रसन्नमुख के दर्शन करे। चढ़ाई समाप्त हुई तो सामने मनमोहन वन के दर्शन हुए। इधर-उधर भयमुक्त विचरण करते खरगोश, मुँह को घास में लगाए मृग, कूकती कोयल, नाचते मोर, अतीव मोहक पुष्प, फलों से लदे वृक्ष देख युवक का मन प्रसन्न हो उठा। परन्तु वह जिस वस्तु को खोजते हुए यहां तक आया था, वह सहस्त्रदल कमल कहीं नहीं दिखा। वह तनिक और आगे बढ़ा तो कितने ही किन्नर, गन्धर्व और यक्ष दिखे। गन्धर्वों और यक्षों की स्त्रियों की दृष्टि उसके विशाल पुष्ट शरीर पर लगी हुई थी, पर वह तो बस एक सुगंध के पीछे चलता चला जा रहा था।

रमणीय वन तनिक आगे जाते ही भयंकर वन में परिवर्तित हो गया। वृक्षों और लताओं की सघनता के कारण आगे बढ़ना कठिन था। पर वह पुरुष हाथी की भांति उस जंगल में घुस गया। लताएं उसके शरीर के धक्के से टूटती चली जाती। जो लताएं पूरी दृढ़ता से वृक्षों पर लगी हुई थी, वे स्वयं तो टूटती ही, वृक्ष भी चटक जाते। वन की सघनता भी उसकी गति को रोकने में असमर्थ सिद्ध हुई। मार्ग की ऐसी रुकावटों से उस महावीर का मन खिन्न हो गया था। वह और तीव्रता से आगे बढ़ा।

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आगे वन तनिक कम दुर्गम था और वहां हाथियों के साथ हिंस्र पशुओं की बहुलता थी। इतने बड़े मांसपिंड को आता देख भेड़ियों ने उसपर आक्रमण किया, जिन्हें उसने बड़ी सुगमता से अपने बाणों से मार भगाया। सिंहों ने अपने क्षेत्र में जब अनिधिकृत प्रवेश होता देखा, तो वे भी इस पुरुषसिंह से टक्कर लेने आ गए। उन्हें एक-एक कर अपने मुष्टिप्रहारों से धराशायी करता वह हाथियों के क्षेत्र घुसा और उनके पैरों और मस्तकों की अस्थियों को गदा से चूर कर उस सुगंध के पीछे चलता चला गया।

दुर्गम वन समाप्त हुआ और कदलीवन आरम्भ हुआ। विशाल तनों वाले केले के पेड़ों से आच्छादित उस स्थल को देख किसी का भी मन प्रसन्न हो उठता, परन्तु मार्ग में इतनी रुकावटों और अतिशय हिंसा से उस पुरुष को क्रोध चढ़ आया था। वह निर्दोष केले के पेड़ों को तोड़ता आगे बढ़ा कि अचकचा कर खड़ा रह गया।

मार्ग पर एक विशाल पूँछ पड़ी हुई थी, जिसका सिरा सतत रूप से ऊपर-नीचे हो रहा था।

मार्ग से लगे पत्थर पर एक पिंगल वर्णी वानर सोया हुआ था। चौड़े कंधों, पतले कटिप्रदेश और घनी रोमावली वाले उस वानर को भी अन्य पशुओं की भांति मार्ग का अवरोधक समझ उसे पुनः क्रोध चढ़ आया, परन्तु सोए हुए वानर पर प्रहार करना अनुचित मान वह बोला, "हे वानर, मुझे अतिशीघ्र आगे जाना है और तेरी यह पूँछ मेरे मार्ग को रोक रही है। इसे हटा, ताकि मैं आगे जा सकूँ।"

सिंह के गर्जन जैसी वाणी सुन वृक्षों के पक्षी भय से उड़ गए, पर वानर टस से मस नहीं हुआ। लगा कि उसने कुछ सुना ही नहीं। अबकी और अधिक तीव्रता से जब अपनी बातें दुहराई, तब उस वानर के अपने नेत्र खोले। उसके नेत्र मधु के जैसे पीले थे। छोटे ओठ, ताँबे के रंग का मुख, लाल कान वाले उस वानर ने जब अपना मुख खोला तो श्वेत दाँत और दाढ़ दिखाई दिए। वानर बोला, "क्या है भाई? क्यों मेरे विश्राम में बाधा डालते हो?"

"मुझे आगे जाना है। मार्ग दो।"

"जाओ न, मैंने कब रोका है तुम्हें?"

"तुमने नहीं रोका तो तुम्हारी यह पूँछ क्या कर रही है? सो रहे हो तो पूँछ को भी सुला लो। यह क्यों नाग की भाँति फुफकारती हुई ऊपर-नीचे हो रही है? हटाओ इसे।"

"ओहो, मैं तो बूढ़ा वानर हूँ। अंगों पर नियंत्रण नहीं है। पर तुम तो मानव हो न? विवेक और विनय का इतना अभाव किसी मानव में कैसे हो सकता है? अस्तु, अपना परिचय तो दो।"

"मुझे विलंब हो रहा है, परन्तु तुम्हारी आयु का सम्मान करते हुए अपना परिचय देता हूँ। मैं कुरु सम्राट पांडु के क्षेत्र से उत्पन्न पवनपुत्र भीम हूँ। बड़े भाई युधिष्ठिर मेरे महाराज एवं स्वामी हैं। अपनी पत्नी द्रौपदी की इच्छापूर्ति हेतु सहस्त्रदल कमल लेने निकला हूँ। महाराज को बहुत देर तक अकेला नहीं छोड़ सकता। यहाँ तक के मार्ग में अनगिनत सिंहों और हाथियों ने मेरा मार्ग रोकने का प्रयास किया था। उनमें से अधिकतर की आत्मा उनका शरीर छोड़ चुकी है। इससे पूर्व भी अनगिनत राक्षसों का अंत मेरी इन भुजाओं के द्वारा हो चुका है। उनके लिए मैं वृकोदर हूँ। अतः तुम्हें परामर्श देता हूँ कि तुम शांति से मेरा मार्ग छोड़ दो।"

"ओहो, तुम भीम हो। पवनपुत्र! असंख्य हाथियों को मसल देने वाले वीर! वृकोदर! तुम तो महाबली प्रतीत होते हो। भाई, तुम उन पशुओं और राक्षसों की भाँति मेरी हत्या मत करना। बूढ़े वानर पर दया करो। मुझसे उठा नहीं जाएगा। ऐसा करो, इस पूँछ को स्वयं ही हटाकर एक ओर कर दो।"

भीम का क्रोध इस अनावश्यक विलंब के कारण बढ़ता चला जा रहा था। उन्होंने हिंसक भाव से पूँछ को बाएँ हाथ से पकड़ लिया, ताकि उसे झटक कर आगे बढ़ जाएं। परन्तु उनका हाथ वहीं पूँछ से चिपका रहा और उनका शरीर अपने ही वेग से असंतुलित होकर डगमगा गया। उनकी भृकुटि तन गई। पुनः जोर लगाया। पूँछ एक सूत न हिली। क्रोध से आंखों में रक्त उतर आया, नथुने फूलने-पिचकने लगे। दोनों हाथों से पूँछ को पकड़ लिया और अपना सारा जोर लगा दिया।

पहले बाहुओं की, फिर ग्रीवा की, फिर मस्तक की नसें उभर आई। मुँह से हुँकार निकलने लगी। अत्यधिक जोर लगाने से चरणों के नीचे की भूमि दब गई, पर पूछ न हिली तो न हिली। धौकनी की भांति श्वास चलने से विशाल वक्ष ऊपर-नीचे होने लगा। एक बार पुनः समस्त बल लगाया भीम ने। इसके सौ गुने कम बल से उन्होंने कितने ही हाथियों को मार डाला था, वृक्षों को उखाड़ चुके थे, राक्षसों को भूलोक से विदा किया था, पर इस वानर की पूँछ हिला तक न सके। जोर लगाते रहे, पूरी देह से स्वेद की नदी बह निकली। अंततः उनके पंजे से पूँछ छूट गई और वे अपने ही बल से पीछे की ओर लुढ़क गए। भूमि पर बाहें फैलाये पसर गए।

सारी शक्ति निचुड़ गई थी। उठ कर बैठने का सामर्थ्य जुटाने में कुछ क्षण लगे उन्हें। धीरे-धीरे उठे और लज्जा से काले पड़ चुके चेहरे से वानर को देखने लगे। जैसे अभी तक कुछ हुआ ही न हो, वानर बोला, "अरे क्या हुआ महावीर? इस बूढ़े वानर की पूँछ तो हटा ली न। अब जाओ अपने रास्ते। बैठे-बैठे क्यों अपना समय व्यर्थ कर रहे हो?" अपनी पूँछ की ओर देखकर वाणी में आश्चर्य घोलते हुए पुनः बोला वह कपि, "अरे, पूँछ तो ये रही, यह तो जस की तस पड़ी है।" भृकुटि को शरारत से ऊपर-नीचे करते हुए आगे बोला, "क्यों भाई, उठा नहीं पाए क्या? हैं! बोलो-बोलो।"

भीम का सारा क्रोध उनके स्वेद के साथ बह चला था। अहंकार गल चुका था। सतत शारीरिक विजयों से उन्हें अभिमान हो चला था कि वे सर्वशक्तिमान हैं। पर आज ज्ञात हुआ कि संसार में उनसे भी अधिक बलवान प्राणी हैं। वे लज्जा से सिर झुकाए हाथ जोड़कर बोले, "अपने अविनय के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ महोदय। अहंकार का मद चढ़ आया था मुझकर। आपका अनन्त धन्यवाद, जो आपने मुझ मूढ़ को सही शिक्षा दी। कृपया मुझपर प्रसन्न हों और अपना वास्तविक परिचय दें। क्या आप कोई देवता हैं, या कोई राक्षस, या स्वयं महादेव हैं?"

"अरे राम, राम, राम, राम। कहाँ मेरे रामेश्वर महादेव और कहां मैं तुच्छ वानर! परन्तु तुम्हारे इस विनय से मैं प्रसन्न हूँ। मेरा परिचय सुनो। मैं वानरश्रेष्ठ केसरी के क्षेत्र से उत्पन्न पनवपुत्र हनुमान हूँ। तुम्हारा भाई हूँ। पर मेरा वास्तविक परिचय यह है कि मैं प्रभु श्रीराम का दास हूँ।"

परिचय सुनकर भीम स्तम्भित रह गए। जब चित्त ठिकाने आये तो दौड़कर हनुमान के चरणों में गिर गए। नेत्रों से अश्रु निकल पड़े। हनुमान ने मुस्कुराते हुए उन्हें उठाया और बोले, "यह अश्रु क्यों अनुज? अच्छा, वानर हूँ फिर भी तुम्हारा अग्रज हूँ, क्या इसलिए दुखी हो?"

"तात, क्षमा करें। यूं व्यंग्य तो न करें। ज्ञात इतिहास के सर्वशक्तिमान जीवधारी, निधियों और सिद्धियों के स्वामी, बुद्धि और विद्या के सजीव प्रमाण को अग्रज के रूप में पाकर कौन धन्य नहीं होगा। मेरे अपराध को क्षमा करें प्रभु। आप तो समस्त   गदाधारियों और मल्लों के साक्षात ईश्वर हैं। मैं आपके दर्शन पाकर अभिभूत हूँ। अवश्य ही कोई पुण्य किया होगा, जो ये नेत्र आपको देख पा रहे हैं। हे अतुलित बल के स्वामी, मुझपर प्रसन्न हों।"

हनुमान ने भीम को गले लगा लिया और बोले, "शांत हो जाओ अनुज। तुम भैया लक्ष्मण की भांति अपने बड़े भाई युधिष्ठिर की सेवा करते हो। तुम सारे भाई मेरे प्रभु राम की भाँति वनवास काट रहे हो। तुम लोगों से भूलकर भी अधर्म नहीं होता। और तुम सब मेरे प्रभु के प्रिय हो। भला मैं तुमसे प्रसन्न क्यों नहीं होऊंगा।"

भीम आह्लाद से भरे, कुछ बोल नहीं सके। हनुमान ही बोले, "अनुज, जिस मार्ग पर तुम आगे बढ़ रहे हो, वह स्वर्ग की ओर जाता है। तुम अपने बल से वहां जा सकते हो, पर यह अनुचित है। अतः मैंने तुम्हारा मार्ग रोक लिया है। जिस पुष्प की खोज में तुम निकले हो, वह उस दूसरे मार्ग पर है। अस्तु, यह हमारी पहली भेंट है। मैं अपने छोटे भाई को कुछ देना चाहता हूं। बताओ, मैं तुम्हारा क्या भला करूँ? कहो तो अभी जाकर दुर्योधन सहित सारे कौरवों को पटक-पटक कर मार डालूँ, या हस्तिनापुर को पत्थरों से पाट दूँ? तुम्हारे कहने भर की देर है। तुम सारे भाई पुनः अपना राज्य एक क्षण में पा सकते हो।"

"अनुगृहीत हूँ अग्रज। परन्तु अभी आपने कहा कि आपके प्रभु हम भाइयों पर प्रसन्न हैं। आपका संकेत किसकी ओर है, यह जानता हूँ मैं। यदि जैसा आप कह रहे हैं, वह उचित होता तो क्या वे प्रभु अब तक ऐसा कर न चुके होते? अस्तु, यदि आप प्रसन्न हैं और कुछ देना ही चाहते हैं तो कृपया युद्ध में मेरे अनुज अर्जुन के सहायक बनकर उसकी रक्षा करें। वो परमवीर है, हमारा वास्तविक बल, हमारा सेनापति वो ही है। इस कारण युद्ध में सबसे अधिक संकट भी उसी को होगा। अतः मेरी विनती है कि आप कैसे भी उसकी रक्षा करें।"

"अद्भुत है तुम्हारा भ्रातृप्रेम। यदि तुम यही चाहते हो तो यही सही। युद्ध में मैं अर्जुन की ध्वजा पर विराजमान होऊंगा। मेरे रहते उसके रथ को कुछ नहीं होगा। तुमने स्वयं के लिए कुछ नहीं मांगा, पर मैं तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। युद्ध में जब तुम शत्रुओं की सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे तो तुम्हारी गर्जना में मैं अपनी गर्जना मिला दूंगा। इस तरह तुम शत्रु को द्वन्द्व से पहले ही भयभीत कर सकोगे और सुगमता से उसका वध कर सकोगे।"

भीम विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़े रहे। हनुमान बोले, "आओ भाई, विदा होने से पहले एक बार पुनः गले मिल लो।"

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सिन्दूर

 

महायुद्ध समाप्त हो चुका था। जगत को त्रास देने वाला रावण अपने कुटुंब सहित नष्ट हो चुका था। कौशलाधीश राम के नेतृत्व में चहुँओर शांति थी।

राम का राज्याभिषेक हुआ। राजा राम ने सभी वानर और राक्षस मित्रों को ससम्मान विदा किया। अंगद को विदा करते समय राम रो पड़े थे। हनुमान को विदा करने की शक्ति तो श्रीराम में भी नहीं थी। माता सीता भी उन्हें पुत्रवत मानती थी। हनुमान अयोध्या में ही रह गए।

राम दिन भर दरबार में, शासन व्यवस्था में व्यस्त रहे। संध्या जब शासकीय कार्यों से छूट मिली तो गुरु और माताओं का कुशलक्षेम पूछ अपने कक्ष में आए। हनुमान उनके पीछे-पीछे ही थे। राम के निजी कक्ष में उनके सारे अनुज अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उपस्थित थे। वनवास, युद्ध, और फिर अंनत औपचारिकताओं के पश्चात यह प्रथम अवसर था जब पूरा परिवार एक साथ उपस्थित था। राम, सीता और लक्ष्मण को तो नहीं, कदाचित अन्य वधुओं को एक बाहरी, अर्थात हनुमान का वहाँ होना अनुचित प्रतीत हो रहा था। चूंकि शत्रुघ्न सबसे छोटे थे, अतः वे ही अपनी भाभियों और अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति हेतु संकेतों में ही हनुमान को कक्ष से जाने के लिए कह रहे थे। पर आश्चर्य की बात कि हनुमान जैसा ज्ञाता भी यह मामूली संकेत समझने में असमर्थ हो रहा था।

अस्तु, उनकी उपस्थिति में ही बहुत देर तक सारे परिवार ने जी भर कर बातें की। फिर भरत को ध्यान आया कि भैया-भाभी को भी एकांत मिलना चाहिए। उर्मिला को देख उनके मन में हूक उठती थी। इस पतिव्रता को भी अपने पति का सानिध्य चाहिए। अतः उन्होंने राम से आज्ञा ली, और सबको जाकर विश्राम करने की सलाह दी। सब उठे और राम-जानकी का चरणस्पर्श कर जाने को हुए। परन्तु हनुमान वहीं बैठे रहे। उन्हें देख अन्य सभी उनके उठने की प्रतीक्षा करने लगे कि सब साथ ही निकले बाहर।

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राम ने मुस्कुराते हुए हनुमान से कहा, "क्यों वीर, तुम भी जाओ। तनिक विश्राम कर लो।"

हनुमान बोले, "प्रभु, आप सम्मुख हैं, इससे अधिक विश्रामदायक भला कुछ हो सकता है? मैं तो आपको छोड़कर नहीं जाने वाला।"

शत्रुघ्न तनिक क्रोध से बोले, "परन्तु भैया को विश्राम की आवश्यकता है कपीश्वर! उन्हें एकांत चाहिए।"

"हाँ तो मैं कौन सा प्रभु के विश्राम में बाधा डालता हूँ। मैं तो यहाँ पैताने बैठा हूँ।"

"आपने कदाचित सुना नहीं। भैया को एकांत की आवश्यकता है।"

"पर माता सीता तो यहीं हैं। वे भी तो नहीं जा रही। फिर मुझे ही क्यों निकालना चाहते हैं आप?"

"भाभी को भैया के एकांत में भी साथ रहने का अधिकार प्राप्त है। क्या उनके माथे पर आपको सिंदूर नहीं दिखता?

हनुमान आश्चर्यचकित रह गए। प्रभु श्रीराम से बोले, "प्रभु, क्या यह सिंदूर लगाने से किसी को आपके निकट रहने का अधिकार प्राप्त हो जाता है?"

राम मुस्कुराते हुए बोले, "अवश्य। यह तो सनातन प्रथा है हनुमान।"

यह सुन हनुमान तनिक मायूस होते हुए उठे और राम-जानकी को प्रणाम कर बाहर चले गए।
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प्रातः राजा राम का दरबार लगा था। साधारण औपचारिक कार्य हो रहे थे कि नगर के प्रतिष्ठित व्यापारी न्याय मांगते दरबार में उपस्थित हुए। ज्ञात हुआ कि पूरी अयोध्या में रात भर व्यापारियों के भंडारों को तोड़-तोड़ कर हनुमान उत्पात मचाते रहे थे। राम ने यह सब सुना और सैनिकों को आदेश दिया कि हुनमान को राजसभा में उपस्थित किया जाए। रामाज्ञा का पालन करने सैनिक अभी निकले भी नहीं थे कि केसरिया रंग में रंगे-पुते हनुमान अपनी चौड़ी मुस्कान और हाथी जैसी मस्त चाल से चलते हुए सभा में उपस्थित हुए। उनका पूरा शरीर सिंदूर से पटा हुआ था। एक-एक पग धरने पर उनके शरीर से एक-एक सेर सिंदूर भूमि पर गिर जाता। उनकी चाल के साथ पीछे की ओर वायु के साथ सिंदूर उड़ता रहता।

राम के निकट आकर उन्होंने प्रणाम किया। अभी तक सन्न होकर देखती सभा, एकाएक जोर से हँसने लगी। अंततः बंदर ने बंदरों वाला ही काम किया। अपनी हँसी रोकते हुए सौमित्र लक्ष्मण बोले, "यह क्या किया कपिश्रेष्ठ? यह सिंदूर से स्नान क्यों? क्या यह आप वानरों की कोई प्रथा है?"

हनुमान प्रफुल्लित स्वर में बोले, "अरे नहीं भैया। यह तो आर्यों की प्रथा है। मुझे कल ही पता चला कि अगर एक चुटकी सिंदूर लगा लो तो प्रभु राम के निकट रहने का अधिकार मिल जाता है। तो मैंने सारी अयोध्या का सिंदूर लगा लिया। क्यों प्रभु, अब तो कोई मुझे आपसे दूर नहीं कर पाएगा न?"

सारी सभा हँस रही थी। और भरत हाथ जोड़े अश्रु बहा रहे थे। यह देख शत्रुघ्न बोले, "भैया, सब हँस रहे हैं और आप रो रहे हैं? क्या हुआ?"

भरत स्वयं को सम्भालते हुए बोले, "अनुज, तुम देख नहीं रहे! वानरों का एक श्रेष्ठ नेता, वानरराज का सबसे विद्वान मंत्री, कदाचित सम्पूर्ण मानवजाति का सर्वश्रेष्ठ वीर, सभी सिद्धियों, सभी निधियों का स्वामी, वेद पारंगत, शास्त्र मर्मज्ञ यह कपिश्रेष्ठ अपना सारा गर्व, सारा ज्ञान भूल कैसे रामभक्ति में लीन है। राम की निकटता प्राप्त करने की कैसी उत्कंठ इच्छा, जो यह स्वयं को भूल चुका है। ऐसी भक्ति का वरदान कदाचित ब्रह्मा भी किसी को न दे पाएं। मुझ भरत को राम का अनुज मान भले कोई याद कर ले, पर इस भक्त शिरोमणि हनुमान को संसार कभी भूल नहीं पाएगा। हनुमान को बारम्बार प्रणाम।"
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-अजीत प्रताप सिंह लेखनी

सोमवार, 3 अप्रैल 2023

रॉन्ग नम्बर

 

चिन्तन की धारा
एक कथा पढ़ने में आई । वाक़ई वर्तमान परिलक्षित रही, सोचने को भी मजबूर करती सी है । मिलते जुलते हादसों पर नज़रिया बनाती सी ....

एक घर के मोबाइल नम्बर पर “रॉंग नम्बर” से कॉल आई.. घर की एक औरत ने कॉल रिसीव की तो सामने से किसी अनजान शख्स की आवाज़ सुनकर उसने कहा ‘सॉरी रॉंग नम्बर’ और कॉल डिस्कनेक्ट कर दी.. उधर कॉल करने वाले ने जब आवाज़ सुनी तो वो समझ गया कि ये नम्बर किसी लड़की का है, अब तो कॉल करने वाला लगातार रिडाइल करता रहता है पर वो औरत कॉल रिसीव न करती। फिर मैसेज का सिलसिला शुरू हो गया, जानू बात करो न!! मोबाइल क्यूँ रिसीव नहीं करती..?
एक बार बात कर लो यार!

उस औरत की सास बहुत मक्कार और झगड़ालू थी.. इस वाक़ये के अगले दिन जब मोबाइल की रिंग टोन बजी तो सास ने रिसीव कर लिया.. सामने से उस लड़के की आवाज़ सुनकर वो शॉक्ड रह गई, लड़का बार बार कहता रहा कि जानू! मुझसे बात क्यूँ नहीं कर रही, मेरी बात तो सुनो प्लीज़, तुम्हारी आवाज़ ने मुझे पागल कर दिया है, वगैरह वगैरह… सास ने ख़ामोशी से सुनकर मोबाइल बंद कर दिया जब रात को उसका बेटा घर आया तो उसे अकेले में बुलाकर बहू पर बदचलनी और अंजान लड़के से फोन पर बात करने का इलज़ाम लगाया..

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पति ने तुरन्त पत्नी को बुलाकर बुरी तरह मारना शुरू कर दिया, जब वो उसे बुरी तरह पीट चुका तो माँ ने मोबाइल उसके हाथ में दिया और कहा कि इसी में नम्बर है तुम्हारी बीवी के यार का.. पति ने कॉल डिटेल्स चेक की फिर एक एक करके सारे अनरीड मैसेज पढ़े तो वो गुस्से में बौखला गया.. उसने तुरन्त पत्नी को रस्सी से बाँधा और फिर से बेतहाशा पीटने लगा और उधर माँ ने लड़की के भाई को फोन किया और कहा कि हमने तुम्हारी बहन को अपने यार से मोबाइल पर बात करते और मैसेज करते हुवे पकड़ लिया है.. जिसने तुम्हारी इज़्ज़त की धज्जियां बिखेर दीं…

खबर सुनकर तुरन्त उस लड़की का भाई और उसकी माँ भी वहां पहुँच गये.. पति और सास ने इल्जाम लगाये और ताने मारे तो लड़की के भाई ने भी उसे बालों से पकड़कर खूब पीटा.. लड़की कसमें खाती रही, झूठे इलज़ाम के लिये चीखती चिल्लाती रही, अपनी सफाई देती रही जाहिल और शैतान सास और पति के आगे बेबस रही… लड़की की माँ ने अपनी बेटी से कहा कि भारतीय होकर गीता पर हाथ रखकर कसम खाओ, तो उसने नहाकर फ़ौरन सबके सामने गीता पर हाथ रखकर कसम भी खाई, मगर शैतान सास ने इसे भी नकार दिया और कहा कि जो अपने पति से गद्दारी कर सकती है तो उसके लिये गीता की कसम भी कोई मुश्किल काम नहीं है..

इसके साथ पति ने वो सारे मैसेजेस उसके भाई को दिखाये जो लड़के ने लड़की को करने के लिये किये थे.. सास ने मक्कार और चालाक कहकर आग पर घी डाल दिया.. लड़की के भाई को गुस्सा आई और उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा, उसने तुरन्त पिस्तौल निकाली और लड़की के सर में चार गोलियां दाग दी और इस तरह एक “रॉंग नंबर” ने एक खानदान उजाड़ दिया.. 3 बच्चों को अनाथ कर दिया.. जब लड़की के दूसरे भाई को खबर हुई तो उसने अपने भाई भाभी और बहन के पति और सास के साथ उस अनजान नम्बर पर FIR दर्ज कर दी..

पुलिस साइबर ने जब मोबाइल की जांच की तो मालूम हुवा कि लड़की ने सिर्फ एक बार उस रॉंग नम्बर को रिसीव किया था, इसके बाद उस नम्बर से वो कॉल और मैसेजेस के जरिये लड़की को फंसाने के चक्कर में लगा रहा.. सारी बातें साफ़ होने के बाद जब दूसरे भाई को खबर हुई जिसने बहन को गोली मारी थी तो उसने उसी वक़्त जेल में ख़ुदकुशी कर ली और रॉंग नम्बर मिलाने वाले लड़के को पुलिस ने पकड़कर हवालात में डाल दिया और इस तरह एक “रॉंग नम्बर” ने सिर्फ तीन दिनों में एक  औरत को उसके 3 बच्चों से पूरी ज़िन्दगी के लिये दूर कर दिया और अगले 13 दिनों के अन्दर 3 बच्चे अनाथ और 2 खानदान तबाह और बर्बाद हो गये ।।

ज़रा सोचिये कि कसूरवार कौन..??
- रॉंग कॉल वाला../ सास../ शक्की  पति../गैरतमंद भाई..
/मोबाइल  ..

रविवार, 2 अप्रैल 2023

शिष्य

 

*गूरू के पास अज्ञानी बनकर जाना चाहिए !!!*

*👉🏿ज्ञान हमेशा झुककर हासिल किया जा सकता है।*

*🗣एक शिष्य गुरू के पास आया। शिष्य पंडित था और मशहूर भी, गुरू से भी ज्यादा। सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे। समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था। ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की। संयोग से गुरू मिल गए। वह उनकी शरण में पहुंचा।*
*🗣गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, 'तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है। तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।' शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे। वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा। कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया। गुरू ने फिर कहा, 'यह बहुत ज्यादा है। मैं बूढ़ा हो गया। मेरी मृत्यु करीब है। इतना न पढ़ सकूंगा। तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।'*
*🗣पंडित फिर चला गया। तीन महीने लग गए। अब केवल सौ पृष्ठ थे। गुरू ने कहा, मैं 'यह भी ज्यादा है। इसे और संक्षिप्त कर लाओ।' कुछ समय बाद शिष्य लौटा। एक ही पन्ने पर सार-सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे। कहा, 'तुम्हारे लिए ही रूका हूं। तुम्हें समझ कब आएगी? और संक्षिप्त कर लाओ।' शिष्य को होश आया। भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया। गुरू के हाथ में खाली कागज दिया। गुरू ने कहा, 'अब तुम शिष्य हुए। मुझसे तुम्हारा संबंध बना रहेगा।' कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।*
    

*🗣गुरू तो ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख स्त्रोत है, उसे अज्ञानी बनकर ही हासिल किया जा सकता है। पंडित बनने से गुरू नहीं मिलते।।*

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शनिवार, 1 अप्रैल 2023

प्रस्थान

 

सुमंत हाथ जोड़े खड़े थे। यह देख राम ने भी हाथ जोड़ लिए। राम प्रतीक्षा कर रहे थे कि सुमंत रथ पर चढ़कर विदा हो लें तो वे पैदल अपनी यात्रा जारी रखें। पर सुमंत थे कि जैसे सब भूल बस राम-सीता और लक्ष्मण को देखे जा रहे थे। भक्त अपने भगवन को साक्षात देख कैसे मुख फेर कर चला जाये, और भगवान भी कैसे अपने हठीले भक्त से मुँह फेर ले।

पर अंततः राम ही बोले, "तात, अब आप प्रस्थान करें। महाराज आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"

"जैसी आज्ञा कुमार! परन्तु क्या आप, भैया लक्ष्मण और देवी सीता कोई अंतिम संदेश नहीं देना चाहते?"

"अंतिम संदेश जैसी क्या बात है तात! हम सदैव के लिए ही अयोध्या का त्याग तो कर नहीं रहे। अस्तु, आप पूज्य पिता को ढाँढस दीजिएगा। कहिएगा कि वे तो धर्मावतार हैं। ऐसे पुरुषों को अपने व्यक्तिगत सुख-दुख को न देख प्रजाहित में मग्न रहना चाहिए। उनके मात्र दो पुत्र ही तो वन में नहीं हैं! प्रजा राजा की संतान होती है। ये वनवासी भी उनके पुत्र हैं। जिनके साथ उनके दो पुत्र और आ मिले तो इसमें शोक की क्या बात है? पुरुजन भी उनके पुत्र हैं। कृपया सभी को अपना पुत्र मान, इस पुत्रशोक को मन से निकाल दें।

"माता कौशल्या से कहिएगा कि वे पटरानी होने के अहम भाव को मन में न लाएं और माता कैकई के सम्मान में कोई कमी न करें। भैया भरत अब युवराज हैं, कल को राजा होंगें। राजा वय में छोटा हो तो भी उससे सम्मानजनक व्यवहार, राजोचित व्यवहार करना चाहिए।

"भैया भरत से कहिएगा कि मेरा प्रेम सदैव उनके साथ है और मैं अपने युवराज और राजा भरत का अनुगामी हूँ। शत्रुघ्न को कहिएगा कि जैसे लक्ष्मण मेरे बल हैं, वे भरत के बल बनें।"

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राम के चुप हो जाने पर सुमंत ने लक्ष्मण की ओर देखा। लक्ष्मण बोले, "हे तात, मुझे अयोध्यानरेश को कोई भी संदेश नहीं देना। वह अब नरेश कहलाने के योग्य नहीं रहे। जो राजा एक स्त्री के बहकावे में आकर प्रजा की इच्छा की अवहेलना करे, अपने व्यक्तिगत वचन को राष्ट्र से ऊपर मान दे, न्याय को बिसार कर अपनी इच्छा से राज्य किसी को भी दे दे, वह राजा कहलाने के योग्य नहीं है। यदि किसी को यह लगता है कि वनवास देकर वह मेरे बड़े भाई का अधिकार छीन सकता है और चौदह वर्षों में पर्याप्त शक्ति जुटाकर श्रीराम के अधिकार का हनन कर सकता है तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कौशल्यानन्दन के साथ सुमित्रानन्दन लक्ष्मण खड़ा है। वह तो भ्राता ने मेरे हाथ रोक लिए, अन्यथा मैं अकेला ही सभी बाधाओं को पार कर अपने हाथों श्रीराम को अयोध्यापति ही नहीं समस्त भूमिपति बनाने की सामर्थ्य रखता हूँ। मेरे बड़े भाई के साथ ..."। लक्ष्मण अभी न जाने क्या-क्या बोलने वाले थे, पर उनका गला रुध गया था। यह देख श्रीराम ने उनके कंधे पर हाथ रख उन्हें सांत्वना दी और नेत्रों से ही शांत रह जाने का आदेश सुनाया।

सुमंत जब सीता की ओर मुड़े तो सीता कुछ बोल नहीं पाई। पति के भाग्य और देवर के दुख से दुखी बस अश्रु बहाती चुपचाप खड़ी रही। सुमंत ने अंतिम प्रमाण किया और रथ की वल्गा खींच विदा लेकर पीछे लौट चले।

उधर श्रीराम अपनी भार्या और भाई के साथ एक दिन मुनि भारद्वाज के आश्रम में बिताकर चित्रकूट की ओर बढ़े।

मार्ग में यमुना नदी को देख दोनों भाइयों ने जंगल से सूखे काठ जमाकर एक बेड़ा बनाया और नदी में उतार दिया। पहले राम चढ़े और सीता की ओर हाथ बढ़ाया। सीता लजाती हुई अपने पति का हाथ थाम नाव पर चढ़ गई। नदी में घुटनों तक उतर लक्ष्मण ने नाव को धक्का दिया और उचककर चढ़ गए। इस प्रक्रिया में नदी के जल की बौछार राम और सीता के ऊपर आ पड़ी। यह देख लक्ष्मण की जीभ दांतों तले आ गई और यकायक पानी से गीले हो चुके पति-पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़े। गम्भीरता, दुख, क्षोभ पल भर में हवा हो गए।

सीता ने यमुना को प्रणाम किया और सकुशल पार उतार देने की प्रार्थना की। नदी पार कर आगे बढे तो भरद्वाज मुनि के निर्देशानुसार सामने खड़े विशाल पीपल के पेड़ को प्रणाम कर कुछ आगे बढ़ वहीं नदी तट पर रात्रिविश्राम किया।

सुबह राम ने उठकर लक्ष्मण को उठाया और फिर स्नान-ध्यान पश्चात तीनों वन में प्रवेश कर गए। लक्ष्मण और सीता को आगे कर धनुष पर बाण रख श्रीराम चले। दोनों भाई तो पहले भी वन आ चुके थे, वन के सौंदर्य से परिचित थे। परन्तु राजरानी सीता का यह प्रथम ही अवसर था। राजमहलों की मर्यादा के विपरीत यहाँ सब कितना खुला, कितना उन्मुक्त था। विचित्र लताएं, विचित पुष्प। सीता हाथ दिखाकर संकेत करती। लक्ष्मण उसे तोड़कर उनके हाथों में रख देते। फिर सीता बच्चों जैसी उत्सुकता से उस लता अथवा पुष्प को अपने पति को दिखाती, और वे उस लता-पुष्प का विवरण सुनाते।

अहिंसक वन्यपशुओं की क्रीड़ाएं देख सीता मोहित हो उठती और यदि कोई हिंसक पशु आक्रमण की अवस्था में दिख जाता तो उसे सीता तक पहुंचने से पहले ही लक्ष्मण के खड्ग या राम के बाण का भोग बनना पड़ता।

चलते-चलते चित्रकूट आ गया। पर्वत पर वनस्पति और शाकाहारी वन्यजीवों की भरमार देख तीनों के मन प्रसन्न हो उठे। राम ने लक्ष्मण को दिखाते हुए कहा, "देखो भाई, उधर देखो। पेड़ों पर बेल और बेर कैसे फले हैं। कितनी उर्वरा भूमि है कि पग की ठोकर से कंदमूल भूमि से बाहर आ रहे हैं। निकट ही जलस्रोत भी है। हिंसक वन्यपशु कम दिखते हैं। कैसा हो कि हम यहीं कुटी बना लें?"

राम के प्रश्न को ही आज्ञा मान लक्ष्मण झटपट स्थान साफ कर लकड़ी प्राप्त करने वन में घुस गए और प्रहर भर में ही साफ-सुथरी कुटी का निर्माण हो गया। तीनों ने एक साथ कुटी में प्रवेश किया।

संध्या समय जब लक्ष्मण भोजन पकाने में सीता की सहायता कर, नदी में पैर डाले मंद-मंद मुस्कुराते अपने बड़े भाई के पास आ बैठे तो श्रीराम बोले, "तो लक्ष्मण! क्या तुम्हें अब भी अयोध्या के वो महल, वो राजसिंहासन इत्यादि स्मरण हैं? क्या तुम अभी भी मुझे राजा बनाने के हठ पर टिके हुए हो? क्या तुम हमारे पिता और माता कैकई को क्षमा नहीं करोगे? "

लक्ष्मण अपने भाई के पैरों में अठखेलियाँ करती मछलियों को देखते हुए बोले, "भैया, आपका कर्तव्य है राजा बनना। आज नहीं कल, राजा तो आप ही होंगे। रही मेरी बात, तो मेरा कर्तव्य आपकी सेवा है। नगर हो या वन, इहलोक हो या परलोक, मैं सदा ही आपका सेवक हूँ। मैं जानता हूँ कि आप पिता और माता कैकई से कितना प्रेम करते हैं। परन्तु मेरा निश्चित मत जान लें। मुझे इससे अंतर नहीं पड़ता कि आप किससे प्रेम करते हैं, अपितु मेरे मन में उसके प्रति अधिक सम्मान है जो आपको प्रेम करता है। मेरा धर्म आप हैं, मात्र आप। आपके लिए जो स्वयं को, प्राण को, वचन को, स्वार्थ को त्याग दे, वह मुझे प्रिय है, अन्य कोई नहीं।"

राम मुस्कुरा उठे और भोजन हेतु सीता की पुकार सुन लक्ष्मण को साथ लेकर भोजन करने बैठे। सोने-चांदी की थाल के स्थान पर पत्तल पर खाना परोसते हुए सीता की आंखों में अश्रु थे, और विचित्र दिख रहे भोजन को देख लक्ष्मण खिलखिलाकर हँस पड़े।
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रामनवमी पर श्री अजीत प्रताप सिंह का आलेख

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