रविवार, 27 अगस्त 2023

कहानी

 

   कहानी
     आज बाबूजी की तेरहवीं है। नाते-रिश्तेदार इकट्ठे हो रहे हैं पर उनकी बातचीत, हँसी मज़ाक देख-सुनकर उसका मन दुखी हो रहा है.."कोई किसी के दुख में भी कैसे हँसी मज़ाक कर सकता है? पर किससे कहे,किसे मना करे" इसीलिये वह बाबूजी की तस्वीर के सामने जाकर आँख बंद करके चुपचाप बैठ गई।

अभी बीस दिन पहले ही की तो बात है.. वह रक्षाबंधन पर मायके आई थी। तब बाबूजी कितने कमजोर लग रहे थे। सबके बीच होने के बावजूद उसे लगा कि जैसे वह कुछ कहना चाहते हों फिर मौका मिलते ही फुसफुसा कर धीरे से बोले भी थे .."बिट्टू... रमा तुम्हारी भाभी हमको भूखा मार देगी। आधा पेट ही खाना देती है, दोबारा माँगने पर कहती है कि परेशान ना करो ,जितना देते हैं उतना ही खा लिया करो। ज़्यादा खाओगे तो नुकसान करेगा फिर परेशान हम लोगों को करोगे " कहते-कहते उनका गला भर आया।
" पर कभी आपने बताया क्यों नही बाबूजी?"  सुनकर सन्न रह गई वह और तुरंत अपने साथ लाई मिठाई से चार पीस बर्फी के निकाल कर बाबूजी को दे दिये। वह लगभग झपट पड़े..और जल्दी-जल्दी खाने लगे.. ऐसा लग रहा था मानों बरसों से उन्होंने कुछ खाया ही ना हो।

"अरे,अरे,,,,इतना मत खिलाओ बिट्टू। तुम तो चली जाओगी पर अभी पेट ख़राब हो जायेगा तो हमको ही भुगतना पड़ेगा" तभी भाभी ने आकर ताना दिया।
तब मन मसोस कर वह रह गई थी और चलते-चलते दबे शब्दों में उसने भाभी से कुछ दिनों के लिए बाबूजी को अपने साथ ले जाने की बात कही तो भाभी तो कुछ न बोलीं पर भइया भड़क गये.."सारी उम्र किया है..तो अब भी कर लेंगें। वैसे तूने ये बात क्यों कही? कुछ कहा क्या बाबूजी ने ?"

"नही भइया, नही.." वह हड़बड़ा गई और बाकी के शब्द उसके मन में ही रह गए। बड़े भाई से जवाब-सवाल कर भी कैसे सकती थी ? बचपन से ही बेटियों को भाइयों से दबकर रहने का संस्कार जो कूट कूट कर भरा जाता है..पर जाते-जाते उसने एक बार पलटकर देखा तो उसके जन्मदाता तरसी निगाहों से उसे ही देख रहे थे। तब क्या पता था कि ये उनकी आख़िरी मुलाकात है।

इसके पाँच दिन बाद ही खब़र मिली कि "बाबूजी की हालत ठीक नहीं है,वो अस्पताल में हैं ..आकर मिल जाओ" सुनकर छटपटा उठी वह और दूसरे दिन ही उनके पास पहुँच गई।

बाबूजी अर्धमूर्छित से थे,उसको पहचान भी नही पाये! वह उनके कान में फुसफुसाई "बाबूजी, देखिये मैं आपकी बिट्टू"
कई बार आवाज़ देने पर बामुश्किल उनकी आँखें हिली.. "बि..ट्टू.. भू..ख.." उनकी अस्फुट सी आवाज़ सुनकर वह यूँ खुश हो गई मानो बरसों के प्यासे को जी भर के पानी पीने को मिल गया हो ..."बताइये,क्या खाना है बाबूजी..?" पूछते हुए उसकी आँखे भर आईं।

"आ,,लू  टमाटर की स,,ब्ज़ी रो,,टी .." लड़खड़ाती आवाज़ में उनके मुँह से बोल निकले। जल्दी से उसने इंतज़ाम भी किया..पर देर हो चुकी थी! बाबूजी बगैर खाये पिये,भूखे ही इस सँसार से चले गये।

"बिट्टू,,बिट्टू ,,,,चलो,खाना खा लो" अचानक भइया की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ी।
"खाना?" वह धीरे से बोली "भूख नही है भइया"
बिट्टू थोड़ा सा खा लो भइया ने फिर कहा वह कुछ न बोली !

चुपचाप उठकर घरबालों वाले बिछे आसन पर बैठ गई। थाली में तरह-तरह के पकवान परोसे जा रहे थे। उसकी आँखों से आँसू बह निकले! कानों में बाबूजी के आख़िरी शब्द गूँज रहे थे..."आलू टमाटर की सब्जी,रोटी"

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गौरवशाली इतिहास

हमारा इतिहास - गौरवशाली इतिहास
   आज अगर कोई कहे कि घर में पूजा है, तो ये माना जा सकता है कि #सत्यनारायण_कथा होने वाली है। ऐसा हमेशा से नहीं था। दो सौ साल पहले के दौर में घरों में होने वाली पूजा में सत्यनारायण कथा सुनाया जाना उतना आम नहीं था। हरि विनायक ने कभी 1890 के आस पास #स्कन्द_पुराण में मौजूद इस संस्कृत कहानी का जिस रूप में अनुवाद किया, हमलोग लगभग वही सुनते हैं। हरि विनायक की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत नहीं थी। वो दरबारों और दूसरी जगहों पर कीर्तन गाकर आजीविका चलाते थे।

कुछ तो आर्थिक कारणों से और कुछ अपने बेटों को अपना काम सिखाने के लिए उन्होंने अपनी कीर्तन मंडली में अलग से कोई संगीत बजाने वाले नहीं रखे। उन्होंने अपने तीनों बेटों को इसी काम में लगा रखा था। दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव को इसी कारण कोई ख़ास स्कूल की शिक्षा नहीं मिली। हाँ ये कहा जा सकता है कि संस्कृत और मराठी जैसी भाषाएँ इनके लिए परिवार में ही सीख लेना बिलकुल आसान था। ऊपर से लगातार दरबार जैसी जगहों पर आने जाने के कारण अपने समय के बड़े पंडितों के साथ उनका उठना बैठना था। दामोदर हरि अपनी आत्मकथा में भी यही लिखते हैं कि दो चार परीक्षाएं पास करने से बेहतर शिक्षा उन्हें ज्ञानियों के साथ उठने बैठने के कारण मिल गयी थी।

आज अगर पूछा जाए तो हरि विनायक को उनके सत्यनारायण कथा के अनुवाद के लिए तो नहीं ही याद किया जाता। उन्हें उनके बेटों की वजह से याद किया जाता है। सर्टिफिकेट के आधार पर जो तीनों कम पढ़े-लिखे बेटे थे। अपनी पत्नी के साथ हरि विनायक पुणे के पास रहते थे। आज जिसे इंडस्ट्रियल एरिया माना जाता है, वो चिंचवाड़ उस दौर में पूरा ही गाँव हुआ करता था। 1896 के अंत में पुणे में प्लेग फैला और 1897 की फ़रवरी तक इस बीमारी ने भयावह रूप धारण कर लिया। ब्युबोनिक प्लेग से जितनी मौतें होती हैं, पुणे के उस प्लेग में उससे दोगुनी दर से मौतें हो रही थीं। तबतक भारत के अंतिम बड़े स्वतंत्रता संग्राम को चालीस साल हो चुके थे और फिरंगियों ने पूरे भारत पर अपना शिकंजा कस रखा था।

अंग्रेजों को दहेज़ में मिले मुंबई (तब बॉम्बे) के इतने पास प्लेग के भयावह स्वरूप को देखते हुए आईसीएस अधिकारी वाल्टर चार्ल्स रैंड को नियुक्त किया गया। उसे प्लेग के नियंत्रण के तरीके दमनकारी थे। उसके साथ के फौजी अफसर घरों में जबरन घुसकर लोगों में प्लेग के लक्षण ढूँढ़ते और उन्हें अलग कैंप में ले जाते। इस काम के लिए वो घरों में घुसकर औरतों-मर्दों सभी को नंगा करके जांच करते। तीनों भाइयों को साफ़ समझ में आ रहा था कि महिलाओं के साथ होते इस दुर्व्यवहार के लिए वाल्टर रैंड ही जिम्मेदार है। उन्होंने देशवासियों के साथ हो रहे इस दमन के विरोध में वाल्टर रैंड का वध करने की ठान ली।

थोड़े समय बाद (22 जून 1887 को) रानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक की डायमंड जुबली मनाई जाने वाली थी। दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव ने इसी दिन वाल्टर रैंड का वध करने की ठानी। हरेक भाई एक तलवार और एक बन्दूक/पिस्तौल से लैस होकर निकले। आज जिसे सेनापति बापत मार्ग कहा जाता है, वो वहीँ वाल्टर रैंड का इन्तजार करने वाले थे मगर ढकी हुई सवारी की वजह से वो जाते वक्त वाल्टर रैंड की सवारी पहचान नहीं पाए। लिहाजा अपने हथियार छुपाकर दामोदर हरि ने लौटते वक्त वाल्टर रैंड का इंतजार किया। जैसे ही वाल्टर रवाना हुआ, दामोदर हरि उसकी सवारी के पीछे दौड़े और चिल्लाकर अपने भाइयों से कहा “गुंडया आला रे!”
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सवारी का पर्दा खींचकर दामोदर हरि ने गोली दाग दी। उसके ठीक पीछे की सवारी में आय्रेस्ट नाम का वाल्टर का ही फौजी एस्कॉर्ट था। बालकृष्ण हरि ने उसके सर में गोली मार दी, उसकी फ़ौरन मौत हो गयी। वाल्टर फ़ौरन नहीं मरा था, उसे ससून हॉस्पिटल ले जाया गया, 3 जुलाई 1897 को उसकी मौत हुई। इस घटना की गवाही द्रविड़ बंधुओं ने दी थी। उनकी पहचान पर दामोदर हरि गिरफ्तार हुए और उन्हें 18 अप्रैल 1898 को फांसी दी गयी। बालकृष्ण हरि भागने में कामयाब तो हुए मगर जनवरी 1899 को किसी साथी की गद्दारी की वजह से पकड़े गए। बालकृष्ण हरि को 12 मई 1899 को फांसी दी गयी।

भाई के खिलाफ गवाही देने वाले द्रविड़ बंधुओं का वासुदेव हरि ने वध कर दिया था। अपने साथियों महादेव विनायक रानाडे और खांडो विष्णु साठे के साथ उन्होंने उसी शाम (9 फ़रवरी 1899) को पुलिस के चीफ कांस्टेबल रामा पांडू को भी मारने की कोशिश की मगर पकड़े गए। वासुदेव हरि को 8 मई 1899 और महादेव रानाडे को 10 मई 1899 को फांसी दी गयी। खांडो विष्णु साठे उस वक्त नाबालिग थे इसलिए उन्हें दस साल कैद-ए-बामुशक्कत सुनाई गयी।

मैंने स्कूल के इतिहास में भारत का स्वतंत्रता संग्राम पढ़ते वक्त दामोदर चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर की कहानी नहीं पढ़ी थी। जैसे पटना में सात शहीदों की प्रतिमा दिखती है वैसे ही चापेकर बंधुओं की मूर्तियाँ पुणे के चिंचवाड में लगी हैं। उनकी पुरानी किस्म की बंदूकें देखकर जब हमने पूछा कि ये क्या 1857 के सेनानी थे? तब चापेकर बंधुओं का नाम और उनकी कहानी मालूम पड़ी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम को अहिंसक साबित करने की जिद में शायद इनका नाम किताबों में शामिल करना उपन्यासकारों को जरूरी नहीं लगा होगा। काफी बाद में (2018) भारत सरकार ने दामोदर हरि चापेकर का डाक टिकट जारी किया है।

बाकी इतिहास खंगालियेगा तो चापेकर के किये अनुवाद से पहले, सत्यनारायण कथा के पूरे भारत में प्रचलित होने का कोई पुराना इतिहास नहीं निकलेगा। चापेकर बंधुओं को किताबों और फिल्मों आदि में भले कम जगह मिली हो, धर्म अपने बलिदानियों को कैसे याद रखता है, ये अगली बार सत्यनारायण की कथा सुनते वक्त जरूर याद कर लीजियेगा। धर्म है, तो राष्ट्र भी है!
।।।

रविवार, 20 अगस्त 2023

कहानी मां का आशीर्वाद

 

कहानी

माँ का आशीर्वाद
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दुकान बंद करने का समय हो आया था। तभी दो औरतें और आ गईं। तभी उनमें से एक बोली "भैया साड़ियां दिखाना कॉटन की, चुनरी प्रिंट में"

आज मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। आज पाँच महीने हो गए हैं, अपनी ये छोटी सी दुकान खोले, आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। आज सुबह से दस पंद्रह कस्टमर आ चुके हैं। और बिक्री भी ठीक ठाक हो गई है। सच बोलूं तो इस दुकान का किराया निकालना भी बहुत मुश्किल हो रहा था। रोज एक या दो साड़ी तो कभी एक सूट ही बेच पाता था। या कभी सिर्फ एक दो दुपट्टे ही।

मैंने माँ की सारी जमा पूंजी लगा दिया है। सोचा था, माल ठीक रखूंगा तो लोग आएंगे ही। लेकिन लोग आते ही नहीं थे। दुकान भी मेन रोड से सटे एक पतली सी गली में मिली है। लोगों को तो ठीक से दिखता भी नहीं होगा। पर एक बोर्ड मेन रोड पर लगा रखा है मैंने।

सामने मेन रोड पर ही एक सरदार जी की साड़ियों की दुकान है। इस छोटे शहर के ज्यादातर लोग उन्हीं की बड़ी दुकान से कपड़े लेते हैं। रोज सैकड़ों कस्टमर उनके दुकान पर आते हैं। पर लगता है, माँ के आशीर्वाद से उनके दुकान की रौनक मैं अब कुछ कम कर दूँगा।

आज खुशी के साथ हैरानी भी हो रही है। कल ही तो माँ से मैं फोन पर दुकान बंद कर गली से निकलते हुए बातें कर रहा था।

"माँ चाचा ने ठीक ही कहा था कोई छोटी मोटी नौकरी कर ले। दुकान चलाना तेरे बस की बात नहीं। और इतनी पगड़ी देकर दुकान भी मिली तो एक गली में जहां ग्राहक ही नहीं पहुंच पाते। सारे ग्राहक तो मेन रोड पर बड़ी दुकान पर चले जाते हैं। किराया निकालना भी मुश्किल हो रहा है। परिवार कैसे चलेगा माँ, और बच्चों को कहां से पढ़ा पाऊंगा" 

मैं कल बहुत मायूस था। और परेशान भी। सच बताऊँ तो कल मैं रो पड़ा था माँ से ये सब कहते हुए।

"कोई नहीं बेटा। अब दुकान खोल ही लिया है तो धैर्य रख। किसी चीज़ में सफलता अचानक नहीं मिलती। देखना भगवान सब ठीक करेंगे"

माँ का आशीर्वाद ही है। कल ही उन्होंने कहा और आज दुकान पर थोड़ी रौनक हो आई है।

"ये दोनों पैक कर दीजिए"

उन्हें साड़ियां पसंद आ गई थीं। मैं उनका बिल बनाने लगा। तभी एक औरत बोल पड़ी "सरदार जी ने ठीक ही कहा था कि कॉटन की साड़ियां भी अच्छी मिल जाएगी यहां पर और दाम भी ठीक लगाते हैं"

"जी कौन सरदार जी?" मैं पूछ पड़ा।

"यही अपने बूटा जी साड़ी वाले। उनके पास चुनरी प्रिंट की साड़ियां नहीं थीं।"

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बूटा जी अपने कस्टमर यहां क्यों भेज रहे हैं। उनके यहां तो खुद सारे कलेक्शन होते हैं। मैंने पैसे लेकर गल्ले में रख लिया। दुकान को बंद करके सरदार जी के दुकान पर पहुंचा। वे भी दुकान बंद ही कर रहे थे।

"बूटा सिंह जी, आपने अपने ग्राहकों को मेरी दुकान पर भेजा?"

"ओए नहीं जी! बस उन्हें जो चाहिए था वो मेरी दुकान पर नहीं था तो आपकी दुकान बता दिया।"

मैं जानता हूँ। इनके दुकान पर सब सामान होता है। उनके वर्कर साड़ियां समेट रहे थे। उनमें कुछ वैसी ही साड़ियां भी थी जैसी साड़ियां मैंने अभी अभी बेची थी। मैं ये देख फिर उनकी तरफ देखा।

"इसमें आपका नुकसान नहीं होगा बूटा सिंह जी?"

"नुकसान की क्या बात है जी, सबकी गृहस्थी चलनी चाहिए। तुम्हारा भी तो परिवार है।"

शायद इन्होंने कल फोन पर माँ से मेरी बात सुन ली थी।

"मैं इस बात पर खुश हो रहा था कि ये सब माँ के आशीर्वाद से हो रहा है पर ये सब तो आप..?"

"ओए नहीं पुत्तर! ये सब माँ का ही आशीर्वाद है, हम सब की माएँ तो एक सी ही होती हैं ना!"

उन्हें देख, मैं खुद अपनी सोच पर शर्मिंदा था। मेरी आँखें नम हो आईं। वे मेरे कंधे पर हाथ रख ये कहते हुए निकल गए।

"मेरी माँ ने मुझसे ये कहा था, अपने साथ साथ दूसरों के पेट का भी थोड़ा ख्याल रखना।"

मुझे इस कॉम्पटीशन के दौर में ऐसी बातों की, कतई उम्मीद नहीं थी।
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शनिवार, 12 अगस्त 2023

बात गौरवशाली इतिहास की - हमारे आसपास की

 

मुग़ल बादशाह शाहजहाँ लाल किले में तख्त-ए-ताऊस पर बैठा हुआ था ।

दरबार का अपना सम्मोहन होता है और इस सम्मोहन को राजपूत वीर अमर सिंह राठौर ने अपनी पद चापों से भंग कर दिया । अमर सिंह राठौर शाहजहां के तख्त की तरफ आगे बढ़ रहे थे । तभी मुगलों के सेनापति सलावत खां ने उन्हें रोक दिया ।

सलावत खां - ठहर जाओ अमर सिंह जी, आप 8 दिन की छुट्टी पर गए थे और आज 16वें दिन तशरीफ़ लाए हैं ।

अमर सिंह - मैं राजा हूँ । मेरे पास रियासत है फौज है, मैं किसी का गुलाम नहीं ।

सलावत खां - आप राजा थे ।अब सिर्फ आप हमारे सेनापति हैं, आप मेरे मातहत हैं । आप पर जुर्माना लगाया जाता है । शाम तक जुर्माने के सात लाख रुपए भिजवा दीजिएगा ।

अमर सिंह - अगर मैं जुर्माना ना दूँ ।

सलावत खां- (तख्त की तरफ देखते हुए) हुज़ूर, ये काफि़र आपके सामने हुकूम उदूली कर रहा है ।

अमर सिंह के कानों ने काफि़र शब्द सुना । उनका हाथ तलवार की मूंठ पर गया, तलवार बिजली की तरह निकली और सलावत खां की गर्दन पर गिरी ।

मुगलों के सेनापति सलावत खां का सिर जमीन पर आ गिरा । अकड़ कर बैठा सलावत खां का धड़ धम्म से नीचे गिर गया । दरबार में हड़कंप मच गया । वज़ीर फ़ौरन हरकत में आया और शाहजहां का हाथ पकड़कर उन्हें सीधे तख्त-ए-ताऊस के पीछे मौजूद कोठरीनुमा कमरे में ले गया । उसी कमरे में दुबक कर वहां मौजूद खिड़की की दरार से वज़ीर और बादशाह दरबार का मंज़र देखने लगे ।

दरबार की हिफ़ाज़त में तैनात ढाई सौ सिपाहियों का पूरा दस्ता अमर सिंह पर टूट पड़ा था । देखते ही देखते अमर सिंह ने शेर की तरह सारे भेड़ियों का सफ़ाया कर दिया ।

बादशाह - हमारी 300 की फौज का सफ़ाया हो गया्, या खुदा ।

वज़ीर - जी जहाँपनाह ।

बादशाह - अमर सिंह बहुत बहादुर है, उसे किसी तरह समझा बुझाकर ले आओ । कहना, हमने माफ किया ।

वज़ीर - जी जहाँपनाह ।

हुजूर, लेकिन आँखों पर यक़ीन नहीं होता । समझ में नहीं आता, अगर हिंदू इतना बहादुर है तो फिर गुलाम कैसे हो गया ?

बादशाह - सवाल वाजिब है, जवाब कल पता चल जाएगा ।

अगले दिन फिर बादशाह का दरबार सजा ।

शाहजहां - अमर सिंह का कुछ पता चला ।

वजीर- नहीं जहाँपनाह, अमर सिंह के पास जाने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता है।

शाहजहां - क्या कोई नहीं है जो अमर सिंह को यहां ला सके ?

दरबार में अफ़ग़ानी, ईरानी, तुर्की, बड़े बड़े रुस्तम -ए- जमां मौजूद थे, लेकिन कल अमर सिंह के शौर्य को देखकर सबकी हिम्मत जवाब दे रही थी।

आखिर में एक राजपूत वीर आगे बढ़ा, नाम था अर्जुन सिंह।

अर्जुन सिंह - हुज़ूर आप हुक्म दें, मैं अभी अमर सिंह को ले आता हूँ।

बादशाह ने वज़ीर को अपने पास बुलाया और कान में कहा, यही तुम्हारे कल के सवाल का जवाब है।

हिंदू बहादुर है लेकिन वह इसीलिए गुलाम हुआ। देखो, यही वजह है।

अर्जुन सिंह अमर सिंह के रिश्तेदार थे। अर्जुन सिंह ने अमर सिंह को धोखा देकर उनकी हत्या कर दी। अमर सिंह नहीं रहे लेकिन उनका स्वाभिमान इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में प्रकाशित है। इतिहास में ऐसी बहुत सी कथाएँ हैं जिनसे सबक़ लेना आज भी बाकी है ।

*~शाहजहाँ के दरबारी, इतिहासकार और यात्री अब्दुल हमीद लाहौरी की किताब बादशाहनामा से ली गईं ऐतिहासिक कथा।*
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सोमवार, 7 अगस्त 2023

सब भगवान का

 

चिन्तन की धारा - राजशेखर जी तिवारी द्वारा ....

टैन्जेबल_बेनेफिट्स
एक अंग्रेज सज्जन हैं जो कई वर्षों तक मेरे साथ मेरे कार्यालय में काम करते थे । आजकल वे फुटबॉल की कोचिंग करते हैं और पूरे विश्व में अलग अलग देशों में साइकिल भी चलाते हैं , किसी चैरिटी के लिये ।

जब वे युवा थे तो स्वयम् भी उन्नत शील फुटबॉल प्लेयर थे ।

भारत में वे राजस्थान तथा मुंबई से गोवा तक की साइक्लिंग कर चुके हैं । उनका साइंस का बैकग्राऊंड भी अतः हर वस्तु में उन्हें टैंजेबल बेनेफिट चाहिये होता है ।

साइकिल चलाने में स्थान स्थान पर पड़ाव होता है और कई पड़ाव उन्होंने भारत के छोटे गावों में भी किया और लगभग हर गाँवों में उन्हें मंदिर मिले और पूजा पाठ करते हुये लोग दिखे ।

बहुत दिनों बाद जब वे पुनः मुझसे मिले जो पूछने लगे कि यह गाँव गाँव में हिन्दु लोग जो मंदिर में फूल माला कीर्तन इत्यादि कर रहे होते हैं उसका “ टैंजिबिल बेनेफिट” क्या है ।

मैंने कहा कि आप फुटबॉल खेलते हो और यदि मैं आपके साथ खेलूँ तो आप सहजता से मुझसे बॉल छीन लोगे और ड्रिबल करके निकल जाओगे ?

तो उन्होंने कहा हाँ यह तो है । तो मैंने समझाया यह ड्रिबल पास करके निकल जाना आपकी टैंजेबल बेनेफिट हुयी ।

फिर जैसे आप एक क्लब में बच्चों को कोचिंग देते हैं तो बच्चों को नयी नयी स्किल सिखाते हैं । तो, वे बोले हाँ ।

मैंने पूछा उस समय आपको कैसा लगता है जब आप बच्चों को कुछ नया सिखा रहे होते हैं । ही सेड, आई फील प्राऊड । मुझे गर्व का अनुभव होता है ।

फिर मैंने पूछा यदि आप, लियोनल मेसी के सामने जायें तो क्या आपको अपनी स्किल पर गर्व का अनुभव होगा । अब उनकी घिग्घी बंद हो गयी !

मैंने उनको उसके बाद समझाया ..

कि मनुष्य के अंदर का गर्व बहुत शीघ्र ही अहंकार में बदल जाता है और अहंकारी व्यक्ति जीवन में फिर अपमानित होने लगता है क्योंकि वास्तविक चोट , अहंकार पर ही लगती है ।

व्यक्ति को धन का अहंकार , ज्ञान का अहंकार , रूप सौंदर्य का अहंकार , मैं फलनवे नेता जी को जानता हूँ का अहंकार , मैं ढिमकवा लेखक हूँ और फ़ेसबुक के द्वारा मैंने पचास हज़ार पुस्तकें बेंच दी हैं अर्थात् मैं बड़का लेखक हूँ का अहंकार हो जाता है ।

अब जैसे आपके फुटबॉल का अहंकार जैसे ही लियोनल मेसी का नाम आया और टूट गया उसका कारण आपकी रेखा के सामने एक बड़ी रेखा आ गयी ।

भारत में सनातन हिन्दू धर्मी जब मंदिर में जाता है
तो देखता है कि
संसार के सारा धन , सारा रूप , सारा सौदर्य , सारा ज्ञान और कृपा सब तो हमारे ईश्वर के अधीन है ।

वह एक ऐसी बड़ी रेखा के समक्ष जाता है कि अन्य सभी रेखायें छोटी पड़ जाती हैं ।

अपने अहंकार पर चोंट मारकर हम ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं और जैसे ही हमारा अहंकार छोटा होता है जीवन उन्नत दिखने लग जाता है और यही टैंजेबल बेनेफिट है ।

हमारी “रेखा” सीताराम हैं ।
हमारी “रेखा” राधाकृष्ण हैं ।
हमारी “रेखा” पार्वतीशंकर हैं ।

और जब तक हम स्वयम को इन अनंत रेखाओं के समक्ष रखेंगे जीवन उन्नत बनता जायेगा ।
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रविवार, 6 अगस्त 2023

कथा महाभारत की

 सुबह होने वाली थी। शैया पर लेटे-लेटे ही पारंसवी ने हमेशा की तरह अपने पति को छूने के लिए हाथ बढ़ाया, पर वहाँ कोई नहीं था। अचकचा कर उठ गई वो, हाय, यह क्या हुआ। पति उठ गए और वो सोती ही रह गई। फटाफट हाथ-मुँह धोकर बाहर निकली तो पति को घर के आगे बहने वाली एक छोटी धारा के किनारे टहलता हुआ पाया। 


"क्या हुआ पतिदेव? आज बड़ी जल्दी उठ गए।"


पूरे नगर में ये पति-पत्नी कुछ अलग ही प्रकार के थे। परस्पर सम्मान और प्रेम से परिपूर्ण, और गहरे मित्र। कोई और दिन होता तो पति ने भी पलटकर ऐसा ही कोई चुटीला उत्तर दिया होता। पर आज कुछ तो विशेष बात थी जो वह एक क्षण पत्नी को देख पूर्व की भांति ही चहलकदमी करता रहा। 


पत्नी पुनः बोली, "अरे प्रधानमंत्री महोदय, क्यों वामनावतार बने हुए हो? और उठ गए थे तो मुझे क्यों नहीं उठाया? लो, यह दूध गर्म कर लाई हूँ। पी लो।"


पति बोला, "काहे का प्रधानमंत्री! एक दासी तक तो दे नहीं सका तुम्हें जो तुम्हारी सहायता कर सके। दो कक्षों के इस घर को देख कौन कहेगा कि यह हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री का निवास है!"


"क्या करना है दास-दासियों का और ढेर सारे कक्षों का? हम दो लोग ही तो हैं, बाल-बच्चे हैं नहीं। थोड़ा सा खाना, और जरा से काम के लिए क्यों अनावश्यक सेवकों को रखना। अस्तु, यह बताओ कि तुम दामोदर को आज खाने पर ला रहे हो न?"


"तुम्हारे दामोदर कह देने से उसके पेट में रस्सी नहीं बंध जाती कि उसे खींचकर यहाँ तेरे सामने ले आऊं। बच्चे नहीं हैं वे। उनसे प्रथम दिन ही निवेदन किया था। पर मुझे नहीं लगता कि वे तुम्हारे घर खाने पर आ पाएंगे। स्थिति असामान्य है।"


"क्या असमान्य है? भोजन तो वे कहीं न कहीं करते ही होंगे। आज यहाँ कर लेंगे।"


"अरे, तुम समझती तो हो नहीं कुछ। आज वे पांडवों का पक्ष रखने वाले हैं राजसभा में। उस सभा में, जिसमें वर्षों पूर्व से ही दुर्योधन और उसकी कपट मंडली का राज है। मुझे सूचना मिली है कि आज दुर्योधन कुछ न कुछ अनुचित अवश्य करेगा।"


"हाय, हाय, तो क्या दामोदर के प्राण संकट में हैं?"


"हह, मुझे नहीं लगता कि उनके प्राण को संकट में डालने वाला अभी तक कोई जन्मा है। मुझे मधुसूदन की चिंता नहीं है। एक तो वे स्वयं समर्थ हैं, तिसपर उनके अंगरक्षकों के रूप में सात्यकि और कृतवर्मा जैसे महारथी भी हैं।"


यह सुन पारंसवी पुनः सहज हो गई, "जब उन पर कोई संकट ही नहीं है तो तुम क्यों दुबले हुए जा रहे हो?"


"क्योंकि मैं यादवों का नहीं, हस्तिनापुर का प्रधानमंत्री हूँ। कृष्ण पर कोई संकट नहीं, परन्तु इतिहास साक्षी है कि कृष्ण के लिए जिसने भी संकट बनने का प्रयास किया, उसका नाश ही हुआ है। भरी रंगशाला में उन्होंने कंस की ग्रीवा अपने खड्ग से उतार ली थी, और संसार भर के राजाओं की उपस्थिति में चेदि के राजा शिशुपाल का शीश अपने सुदर्शन से लुढ़का दिया था। तनिक विचारों, आज भी वैसी ही परिस्थिति निर्मित होने वाली है। आज भी एक सभा बैठेगी, और मेरा अनुमान है कि आज दुर्योधन कोई न कोई दुष्टता अवश्य करेगा। यदि मधुसूदन ने पूर्व की भाँति ही अपने खड्ग या सुदर्शन का प्रयोग किया तो?"


विदुर की बातें सुन पारंसवी बहुत देर तक विचार करती रही, फिर बोली, "देखो, यद्यपि दुर्योधन मेरा भी पुत्र ही है। परन्तु मुझे लगता है कि यदि आज ऐसा कुछ हो जाये तो यह शुभ ही होगा। यदि दुर्योधन न रहे तो कोई समस्या ही न रहे। है न?"


"है न! कुछ भी न बोला करो। हम युद्धभूमि में होने जा रहे एक महायुद्ध को रोकने का प्रयास कर रहे हैं और तुम चाहती हो कि वह युद्ध इस नगर में, इसकी गलियों में होने लगे? तुम्हें पता भी है कि यदि दुर्योधन ने कृष्ण को या कृष्ण ने दुर्योधन को तनिक भी हानि पहुंचाई तो क्या होगा? कृष्ण के साथ जो दो यादव नायक आये हैं न, वे अपनी एक-एक अक्षोहिणी सेना के साथ आये हैं। और इधर हस्तिनापुर की सेना तो है ही, साथ ही राजसभा में कई नरेश भी हैं जो दुर्योधन के पक्षपाती हैं। गांधार का शकुनि है, अंग का कर्ण है, अहिच्छत्र का अश्वत्थामा है और सिंधु का जयद्रथ है। कौरवों और पाण्डवों में युद्ध होगा या नहीं, यह तो निश्चित नहीं, पर आज कुछ अनहोनी हो गई तो कौरवों और यादवों में अवश्य ही युद्ध हो जाएगा।"


विदुर इतना कहकर चुप हो गए और पारंसवी के बोलने की प्रतीक्षा करने लगे। उधर पारंसवी ने अपने पति की चिंतित मुखमुद्रा को एकटक देखा और खिलखिलाकर हँस पड़ी। विदुर चिढ़ गए, उठकर जाने लगे तो उस प्रौढ़ा ने किसी युवती की भांति दोनों हाथ फैलाकर उनका मार्ग रोक लिया और उसी तरह खिलखिलाते हुए बोली, "अरे महाविद्वान विदुर जी, अच्युत है वो, उसे क्या हो सकता है? होगा तो वही, जो वो चाहेगा।"


पिछले कई घण्टों से विदुर जाने क्या-क्या सोचकर व्यथित हो रहे थे, पर पारंसवी की यह बात सुन उन्हें भी लगा कि सच ही तो है। कृष्ण अच्युत हो या न हो, पर होनी को कौन टाल सकता है। विदुर सहज हुए और राजसभा जाने की तैयारी करने लगे।पारंसवी पुनः बोली, "भूलना मत। उन्हें साथ ले आना खाने पर।"


"मैं बोल दूंगा। पर तुम यह मानकर चलो कि कदाचित वे आज न आ पाए।" इतना बोल विदुर चले गए। 

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पारंसवी नहा रही थी। सुबह के काम-धाम निपट चुके थे और दोपहर का भोजन बनाना था। क्या पता दामोदर आ ही जाएं। तो उनके लिए भोजन बनाने से पहले एक बार नहा लेना उचित समझा था उस प्रौढ़ा ने। तभी उसे एक बड़े भारी रथ की आवाज सुनाई दी, और एक पुकार, "काकी, ओ काकी। कहाँ मर गई? बड़ी भूख लगी है। फटाफट कुछ खिला दो, मुझे शीघ्र ही निकलना है।"


स्नानागार से ही चिल्लाई पारंसवी, "कौन है?"


"कौन हैं? अरे मैं हूँ, तेरा दामोदर।"


कृष्ण आया है! द्वार पर कान्हा खड़ा है!! मोहन भूखा है!!! पारंसवी झट से बाहर आई और देखा कि उसका दामोदर चौखट का सहारा लिए एक पैर पर बल दिए, टेढ़ा खड़ा है। उसके मुकुट पर लगा मोरपंख भी टेढ़ा है, मुकुट से एक टेढ़ी लट निकली हुई है और उसकी मुस्कान भी टेढ़ी है। 


वह चरण स्पर्श करने झुका ही था कि प्रौढ़ा ने उसके हाथ पकड़ लिए और उन हाथों को अपने माथे पर लगा लिया। कृष्ण ने चाहा कि उसके नेत्रों से निकलते अश्रुओं को अपने हाथ से पोंछ दें, पर वो हाथ छोड़े तब न। उसी तरह हाथ पकड़े-पकड़े कृष्ण को अंदर ले गई और एक जगह उसे बिठाकर स्वयं भी बैठ गई। बस उन्हें देखे जा रही थी, और नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। कृष्ण भी बस उसे देखे जा रहे थे और होंठों की मुस्कान यथावत बनी हुई थी। 


कुछ देर बाद कृष्ण बोले, "काकी, बस देखती रहेगी या कुछ खिलाएगी भी।"


झटका सा लगा उसे, बोली, "हं? ह, ह। अभी खिलाती हूँ। बस आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। तब तक यह फल खाएं।" और उसने केले छीलकर उसके छिलके परोस दिए। कृष्ण भी मुस्कुराते हुए छिलके ही खाने लगे। 


उधर पारंसवी रसोई में गई, इधर विदुर ने हड़बड़ाते हुए कक्ष में प्रवेश किया। आज राजसभा ने कृष्ण का बहुत अपमान हुआ था। पूर्वकाल में एक दूत का अपमान किया गया था तो उसने पूरा नगर फूँक दिया था। कृष्ण भी दूत बनकर आये थे। वे चाहते तो कुछ भी कर सकते थे। विदुर को लगा था कि सात्यकि और कृतवर्मा उन्हें निकालकर अपने शिविर में ले गए होंगे और तत्काल ही हस्तिनापुर पर आक्रमण करने की योजना बन रही होगी। इधर दुर्योधन के पक्ष वाले भी अपने शस्त्र तेज कर रहे थे। 


वे तो कृष्ण को खोजने निकले थे कि उन्हें मना कर, उनके क्रोध को शांत करने का प्रयास करेंगे, पर वे तो उनके अपने घर में बैठे थे। प्रसन्नचित, केले के छिलके खाते हुए! कृष्ण ने उन्हें देखा तो हँसते हुए बोले, "आओ, आओ काका। तुम्हारे ही घर में तुम्हारा स्वागत है। लो, फल खाओ।" और छिलका बढ़ा दिया। 


विदुर हाथ जोड़कर बोले, "क्षमा द्वारकाधीश, क्षमा। दुर्योधन के कृत्य के लिए भी और इस आतिथ्य के लिए भी। मैं अभी ताजे फल ले आता हूँ।"


कृष्ण उन्हें रोकते और अपने निकट बैठाते हुए बोले, "काका, पहली बात कि मैं द्वारिकाधीश नहीं। वह तो मातामह उग्रसेन हैं। और दूजी बात, मैं यहाँ आपके घर में यादव नायक बनकर नहीं, बल्कि आपके पुत्रों, पांडवों का भाई बनकर आया हूँ। तो मैं भी आपका पुत्र ही हुआ न? अतः यह औपचारिकता छोड़िये। राजनीति फिर कभी कर लेंगे।" विदुर मुस्कुराकर रह गए। तभी कृष्ण तनिक ऊँची आवाज में बोले, "अरी काकी! आज मुझे भूखा ही मार दोगी क्या? जल्दी कुछ लाओ, नहीं तो मैं चला कहीं और। भैया भीम बता रहे थे कि माता गांधारी की रसोई बड़ी स्वादिष्ट होती है।"


मेरा दामोदर मेरे घर से भूखा चला जाये और कहीं और भोजन करें, यह बड़ी पीड़ाजनक बात थी। पारंसवी ने फटाफट कुछ बनाया और थाली सजाकर लाई। 


विदुर चौंक पड़े। नाममात्र के वस्त्र पहने थी वो। थाली में सूखा साग और बाजरे की मोटी-मोटी रोटी। 


कृष्ण उत्साह से उछल पड़े, जैसे कई दिनों के भूखे को खाना दिख गया हो, और लपक-लपक कर वे सूखा साग और मोटी रोटी खाने लगे। 


पारंसवी रह-रह कर भोजन करते कृष्ण का सिर सहला रही थी। ऐसा करने से माधव के बाल बिखर रहे थे।


यह दृश्य देख कृष्ण के निकट ही रखे मुकुट पर लगा मोरपंख मुस्कुरा उठा और विदुर त्रेता के राम-शबरी को देख हाथ जोड़े अश्रु बहाते बैठे रहे। 

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साभार

-अजीत प्रताप सिंह 

कहानी -अनंत इच्छा

 

कहानी
एक बार रूस में दो बहनें रहती थीं। बड़ी बहन की शादी शहर में रहने वाले एक अमीर व्यापारी से हुई थी जबकि छोटी बहन की शादी गाँव में रहने वाले एक किसान से हुई थी।

एक बार बड़ी बहन अपनी छोटी बहन से मिलने उसके गाँव आई। फुर्सत के पलों में जब दोनों बहनें बतियाने बैठीं तो बड़ी बहिन अपनी अमीरी की शेखी बघारते हुए कहने लगी - "शहर में हम बड़े ठाठ से रहते हैं। बड़ा सा घर, बाग़ बगीचे, सुन्दर नए नए फैशन के कपड़े, खाने को ढेरों नए नए स्वाद वाली वस्तुएं, तमाशे, थिएटर, घूमने को बहुत सारी जगहें ! सच में बहुत आनंद आता है!! मैं तो कहती हूँ हमारा जीवन तुम्हारे इस गाँव के जीवन से बहुत बेहतर है।"

गाँव में रहने वाली छोटी बहन को बड़ी बहन की बात चुभ गई।वह भी अपने ग्रामीण जीवन की तारीफ करते हुए बोली - "ये सच है कि गाँव का जीवन उतना सुन्दर और स्वच्छ नहीं है जितना आपका शहर में है। हमें कहीं अधिक मेहनत करनी पड़ती है लेकिन हमारा जीवन शांत और सुरक्षित है। जमीन हमें हमेशा खाने को पर्याप्त दे देती है जबकि शहर में अमीर से गरीब होने में वक़्त नहीं लगता है।तुम्हारे पति को जुए और शराब की लत लग सकती है। उसे कोई प्रेमिका मिल सकती है।लेकिन गाँव में ऐसा कोई प्रलोभन नहीं है।मेरे पति मेहनतकश इंसान हैं और बुरी चीज़ों से दूर हैं।"

छोटी बहन का पति, जिसका नाम पखोम था, वहीं पास ही में ओसारे में लेटा हुआ था और दोनों बहनों की बातें सुन रहा था। वह अपनी पत्नी की बात सुनकर सोचने लगा कि उसकी पत्नी कुछ गलत नहीं कह रही है। गाँव का जीवन सचमुच शहर की तुलना में बेहतर है लेकिन उसके पास बस एक ही कमी है और वह है जमीन।अगर उसके पास थोड़ी और जमीन होती तो उसका जीवन और भी सुख शान्ति से भरा होता।

फिर एक दिन उसने सुना कि उसके इलाके का जमींदार अपनी जमीन किसानों को बेच रहा है।खुद उसका पड़ोसी पचास एकड़ जमीन का सौदा करके आया था। पखोम ने अपनी पत्नी से कहा - "देखो हमारा पड़ोसी जमींदार से जमीन खरीद रहा है। हमें भी कुछ जमीन खरीदनी चाहिए।"

अब उसने जमीन के लिए पैसों का इंतजाम शुरू किया। कुछ पैसे अपने साले से उधार लिए।अपने बेटे को दूसरे किसानों के यहाँ काम पर लगाकर वहां से पेशगी रुपये लिए और पच्चीस एकड़ जमीन का टुकड़ा खरीदने में कामयाब रहा जिसपर भोजपत्र के पेड़ों का एक छोटा सा झुरमुट था।

अब पखोम बहुत खुश था। इस बार उसके यहाँ भरपूर फसल हुई जिससे उसने अपना सारा कर्जा चुका दिया। अब उसके घर में शान्ति और ख़ुशी का माहौल था।

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लेकिन ये माहौल ज्यादा दिन नहीं टिक सका।अक्सर पड़ोसियों की गायें उसके खेतों में आ जाती थीं और फसलों को नुक्सान पहुंचाती थीं।उसने किसानों से अपने मवेशियों को रोकने के लिए कहा लेकिन ज्यादातर ने सुना-अनसुना कर दिया।एक दिन वह जुर्माना भरने के लिए अपने दो पड़ोसियों को अदालत में खींच ले गया। नतीजा ये हुआ कि पडोसी नाराज हो गए।

एक दिन सुबह पखोम ने पाया कि किसी नाराज़ पड़ोसी ने उसके प्यारे भोजपत्र के पेड़ों को काट डाला है।इस घटना ने उसे बहुत दुखी कर दिया।उसका शक़ अपने एक पडोसी साइमन पर गया और वह उसके खिलाफ अदालत में पहुँच गया। लेकिन उसके पास कोई पुख्ता सबूत नहीं था इसलिए जजों ने साइमन को छोड़ दिया। इससे पखोम को इतना गुस्सा आया कि वह जजों को ही भला बुरा कहने लगा। कुल मिलाकर पखोम के लिए गाँव में रहना काफी अप्रिय और दूभर हो गया।

एक रोज, एक यात्री किसान ने रात बिताने के लिए पखोम के घर में जगह मांगी। पखोम ने उसका स्वागत किया। रात्रि-भोजन के दौरान किसान ने पखोम से कहा - "मैं लोअर वोल्गा से आया हूँ।वहाँ बहुत अच्छी जमीन है और सस्ती भी।मेरे गाँव के बहुत से लोग वहीं जाकर बस गए हैं और अमीर हो गए हैं।"

किसान की बात सुनकर पखोम ने सोचा कि मैं यहाँ गरीबी में क्यों रहूं। क्यों न वोल्गा में बसकर मैं भी अपनी स्थिति बेहतर कर लूं। और उसने एक बार वोल्गा जाकर वस्तुस्थिति का पता लगाने का निश्चय कर लिया।

अगले पतझड़ में पखोम वोल्गा में था। उसके घर रुकने वाले अजनबी किसान ने जैसा बताया था, वहाँ सब वैसा ही था।बहुत अच्छी और सस्ती जमीन थी।

पखोम ख़ुशी ख़ुशी घर लौटा।आकर अपनी सारी जमीन और संपत्ति बेचीं और बसंत ऋतु के आते आते अपने परिवार को लेकर हमेशा के लिए वोल्गा चला गया।

वोल्गा के किसानों की पंचायत ने पखोम का जोरदार स्वागत किया। जितने पैसे वह लाया था उतने में उसे पहले के मुकाबले पांच गुना अधिक जमीन मिल गयी। अर्थात अब वह 125 एकड़ जमीन का मालिक बन गया था।उसने वहीं अपना घर बनाया, बैल खरीदे और खेती करना शुरू कर दिया।

सबकुछ पहले के मुकाबले अच्छा चल रहा था लेकिन कुछ ही समय बाद पखोम एक बार फिर से खुद को असंतुष्ट अनुभव करने लगा।

बात दरअसल यह थी कि पखोम के खेत इकट्ठे नहीं थे वे दूर दूर फैले हुए थे। उसे एक खेत से दूसरे खेत जाने में कठिनाई होती थी। उसने दूसरे अमीर किसानों को देखा था जिनके खेत इकट्ठे थे और वे अपने खेतों के बीच मकान बनाकर आराम से रहते थे और खेती करते थे।

उसने सोचा कि अगर मैं भी ऐसी ही इकट्ठी जमीन खरीद सकूँ और उसमें अपना मकान बनाकर रह सकूँ तो जीवन में चैन आये।संयोग से उसे एक किसान मिल गया जो अपनी बारह सौ एकड़ जमीन एक हजार रूबल में बेचने को तैयार था।पखोम ने उस किसान से जमीन की बात कर ली और रुपयों का इंतजाम भी कर लिया लेकिन इससे पहले कि सौदा हो पाता, एक अजनबी व्यापारी रात बिताने के लिए पखोम के घर रुकने आ गया।

रात को बातचीत के दौरान व्यापारी ने बताया - "मैं बहुत दूर बश्किर प्रदेश से आया हूँ। वहाँ के लोग बहुत ही अच्छे और मिलनसार हैं। उनके पास इतनी जमीनें हैं कि उन्होंने मुझे मात्र एक हजार रूबल में बारह हजार एकड़ जमीन बेच दी।इतनी सस्ती जमीन धरती पर शायद ही कहीं मिले। और जमीन भी कैसी, एकदम सोना उगलने वाली उपजाऊ, जिसके बगल में ही नदी बहती है।"

व्यापारी की बात सुनकर पखोम ने सोचा कि मैं यहाँ बारह सौ एकड़ के लिए एक हजार रूबल क्यों दूँ जब मुझे इतने ही पैसों में दस गुना ज्यादा जमीन मिल सकती है। उसने जमीन का सौदा स्थगित किया और व्यापारी की बातों की सच्चाई पता लगाने के लिए बश्किर देश जाने का निश्चय कर लिया।

अपने परिवार को वहीं छोड़ और एक विश्वस्त नौकर को साथ लेकर पखोम बश्किर देश की ओर निकल पड़ा। रास्ते में पड़ने वाले एक शहर से उसने बश्किर वासियों के लिए कुछ उपहार खरीदे और कुछ दिनों में वहाँ पहुँच गया।

व्यापारी ने जैसा बताया था, बश्किर को उसने उससे बढ़कर ही पाया। वहाँ के लोग बड़े खुशमिजाज और लापरवाह किस्म के थे।उन्होंने पखोम का बड़े ही दोस्ताना ढंग से स्वागत किया।पखोम ने भी साथ लाये उपहार उन लोगों को बांटे।

रात में उन लोगों ने पखोम को एक आरामदायक तम्बू में ठहराया और पूछा - "आप इतनी दूर से आये हैं, बताइये हम आपके लिए क्या कर सकते हैं ?"

पखोम ने कहा - "मैं यहाँ आप लोगों से जमीन खरीदना चाहता हूँ। मेरे गाँव की मिटटी खराब हो गई है अब उपजाऊ नहीं रही।और जमीन भी मेरे हिसाब से बहुत कम है।"

बश्किरों ने कहा - "हम आपको जितनी चाहिए उतनी जमीन दे देंगे लेकिन इसके लिए हमारे सरदार की अनुमति आवश्यक होगी। वो आते ही होंगे, उनसे पूछकर ही हम कोई जवाब दे सकते हैं।"

तभी सिर पर फर की टोपी पहने एक बुजुर्ग व्यक्ति वहाँ पहुंचा। वही सरदार था।उसने कहा - "अगर आपको जमीन चाहिए तो जितनी चाहिए ले सकते हैं। हमारे पास काफी जमीन है।"

पखोम ने खुश होते हुए सरदार को धन्यवाद दिया और कीमत के बारे में पूछा। सरदार ने कहा - "हमारी एक ही कीमत है। एक दिन का एक हजार रूबल."

पखोम को कुछ समझ में नहीं आया।उसने पूछा - "एक दिन का एक हजार रूबल ? भला दिन का जमीन की कीमत से क्या ताल्लुक ?"

सरदार ने समझाया - "तुम्हारे पास वो सारी जमीन हो सकती हो जितनी तुम एक दिन में पैदल चलकर घेर सकते हो।उसकी कीमत होगी एक हजार रूबल।"

इस अजीबोगरीब बात से हैरान पखोम ने कहा - "लेकिन एक दिन में तो मैं जमीन के बहुत बड़े टुकड़े पर घूम सकता हूँ।तो क्या वो सारी मेरी हो जायेगी।"

"बिलकुल, सरदार ने कहा। "लेकिन शर्त ये होगी कि जहां से तुम चलना शुरू करोगे, तुम्हें शाम होने से पहले उसी स्थान पर वापस आना होगा। अगर नहीं आ सके तो तुम्हारे एक हजार रूबल जप्त हो जायेंगे और जमीन भी नहीं मिलेगी।"

पखोम को लगा कि जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई हो। उसने तुरंत सौदे के लिए हामी भर दी और तय किया कि वह अगली सुबह जमीन पर घूमने के लिए निकलेगा।

उस रात पखोम सो नहीं सका।वह हिसाब लगाता रहा कि गर्मी के एक लम्बे दिन वह पचास मील तो चल ही सकता है।फिर वह सोचने लगा कि इतनी बड़ी जमीन में कुछ खराब जमीन भी हो सकती है।ऐसी जमीन को वह बटाई पर दे देगा और अच्छी जमीन पर खुद खेती करेगा।खेती के लिए कितने जोड़ी बैल लगेंगे कितने नौकर रखने होंगे आदि सोचते हुए भोर के ठीक पहले उसकी आँख झपक गई।

नींद में उसने सपना देखा।उसने देखा कि बश्किरों का सरदार तम्बू के बाहर बैठा जोर जोर से हंस रहा था। पखोम उसके पास जाकर पूछता है - "आप किस पर हंस रहे हैं ?" तभी पखोम को वहाँ एक व्यापारी बैठा दिखाई देता है।वह व्यापारी के पास जाकर पूछता है - "आप यहाँ कब से हैं ?" तभी व्यापारी वोल्गा के किसान में बदल जाता है.

पखोम इधर - उधर देखता है तो उसे एक लाश पड़ी दिखाई देती है।वो डरते-डरते उस लाश के पास जाता है। देखता है कि ये लाश तो उसी की है।पखोम की। और उसकी आँख खुल जाती है।वह तुरंत खड़ा हुआ और अपने दुःस्वप्न को भूलने की कोशिश करते हुए उसने अपने नौकर और बश्किरों को जगाया और कहा - "चलो, चलते हैं।अब मेरे जमीन पर घूमने का समय हो गया। सूरज जल्द ही उगने वाला है।"

बश्किर लोग पखोम को लेकर एक पहाड़ी के पास गए. बुजुर्ग सरदार ने कहा - "यह सारी जमीन हमारी है।आप इसमें से जितना बड़ा टुकड़ा चाहें उतना ले सकते हैं। "

फिर उसने अपनी फर की टोपी उतार कर जमीन पर रख दी और बोला - "यह आपका निशान है।आपको यहाँ से चलना आरम्भ करना है और शाम होने तक यहीं वापस आना है।जितनी जमीन पर आप चलेंगे वो जमीन आपकी होगी। याद रखिये, यदि आप सूर्यास्त तक इस जगह पर वापस नहीं लौटे तो आप सौदा खो देंगे।"

पखोम ने अपना पैसा टोपी में रख दिया और जैसे ही सूरज की पहली किरण दिखाई दी, पूरब दिशा की ओर चल पड़ा।उसके कंधे पर एक फावड़ा था जमीन पर अपने घूमने के निशान बनाने के लिए।वह चलता रहा, चलता रहा और जगह जगह पर निशान बनाता रहा।

जितना जितना पखोम आगे बढ़ता जाता था, जमीन और और सुन्दर और अच्छी दिखाई देती जाती थी।पखोम ने सोचा कि अभी लौटने के लिए बहुत जल्दी है। अभी मैं और भी आगे तक जाकर अच्छी अच्छी जमीन अपने लिए सुरक्षित कर सकता हूँ।और वह और भी तेजी से आगे बढ़ने लगा।

सूरज सिर पर झुलसा रहा था और वह पसीने से तरबतर था।उसने पीछे मुड़कर देखा तो वह पहाड़ी, जहां से वह चला था, उसे मिटटी के एक ढेले के समान छोटी सी दिखाई दी। वह मुड़ा ताकि अपनी जमीन को चौकोर कर सके।भूख लगने लगी थी।उसने जल्दी जल्दी थोडा सा खाया और फिर से चल दिया। अब उसका शरीर बुरी तरह थक चुका था लेकिन वह आराम करने की बिलकुल नहीं सोच रहा था।

अब उसे अपनी जमीन की तीसरी भुजा चलकर बनानी थी।लेकिन उसने देखा कि पहली दो भुजाएं वह कुछ ज्यादा ही लम्बी बना चूका है। अब उसे तीसरी भुजा छोटी बनानी होगी नहीं तो वह समय पर वापस नहीं पहुँच पायेगा।

अब सूर्यास्त का समय नजदीक आ रहा था। उसने अपनी चाल तेज कर दी।कुछ दूर तेज चलने के बाद उसने दौड़ना शुरू कर दिया क्योंकि सूर्य बड़ी तेजी से अस्ताचल की ओर जा रहा था।पखोम को घबराहट सी होने लगी।वह जल्दी से चौथी भुजा की ओर मुड़ा। अब उसके और शुरूआती बिंदु के बीच करीब पंद्रह मील की दूरी थी।उसने तेजी से दौड़ना शुरू कर दिया।सीधे पहाड़ी की ओर।

अब वो बेतहाशा दौड़ रहा था।टोपी अभी भी बहुत दूर थी और वो बहुत थक गया था। उसके पैरों में बहुत दर्द हो रहा था और वे छालों और खरोंचों से भर गए थे।

"मुझे और जल्दी करनी चाहिए", उसने खुद से कहा, "मुझे इतनी दूर नहीं जाना चाहिए था अगर मैं समय पर नहीं पहुंचा तो मैं जमीन और पैसे दोनों खो दूंगा।" और एक आखिरी प्रयास के रूप में उसने अपनी पूरी शक्ति दौड़ने में झोंक दी।

अब उसे लगने लगा कि वह समय पर नहीं पहुँच पायेगा। उसे इतनी दूर नहीं जाना चाहिए था। फिर भी वह पूरी शक्ति से दौड़ा जा रहा था। वह पहाड़ी की तलहटी में पहुँच चुका था।सूरज अस्ताचलगामी हो रहा था। टोपी अभी भी दिखाई नहीं दे रही थी।

अब उसे रोना आने लगा था।उसे लगा कि वह पूरी तरह से बर्बाद हो चुका है। उसके हाथ से जमीन भी गई और पैसे भी। सहसा उसे बश्किरों की पुकारें सुनाई देने लगीं। वे टोपी के पास खड़े हाथ लहरा रहे थे और उसे प्रोत्साहित कर रहे थे।

पहाड़ी की छोटी पर सूरज अभी भी पूरी तरह से डूबा नहीं था।उसने एक बार फिर जोर लगाया।अपनी आखिरी ताक़त के साथ।उसने बुजुर्ग सरदार को देखा। वो हंस रहा था।और वो गिर पड़ा।फिर न उठ सका।लेकिन उसका हाथ टोपी तक पहुँचने में कामयाब रहा।

बश्किर लोग जोर से चिल्लाये - "तुमने अच्छा किया ... तुमने बहुत सारी जमीन जीत ली है." लेकिन पखोम को कुछ भी सुनाई नहीं दिया।

पखोम का नौकर दौड़ा दौड़ा आया और उसने मालिक को उठाना चाहा लेकिन वह उठ न सका।उसके मुंह से खून निकल रहा था।वह मर चुका था।

नौकर ने फावड़ा लिया और अपने मालिक के लिए कब्र खोदी। कुल दो गज जमीन उसके लिए काफी हुई।

लियो तॉलस्तॉय

शनिवार, 5 अगस्त 2023

आराम

 

            सड़क के किनारे, मिट्टी के बर्तन व कलाकृतियाँ सजा कर, कुम्हार खाट पर पसरा हुआ था।
एक विदेशी उन कलाकृतियों का तन्मयता से अवलोकन कर रहा था। उसने मोल पूछा और कुम्हार ने लेटे लेटे ही मूल्य बता दिया।
विदेशी उसकी लापरवाही से बड़ा क्षुब्ध हुआ। उसे आश्चर्य हो रहा था। उसने कुम्हार को टोकते हुए कहा, “तुम काम में तत्परता दर्शाने के बजाय आराम फरमा रहे हो?”
कुम्हार ने कहा, "जिसको लेना होगा वह तो खरीद ही लेगा, आतुरता से आखिर क्या होगा?"
“इस तरह आराम से पडे रहने से बेहतर है तुम ग्राहकों को पटाओ, उन्हें अपनी यह सुन्दर वस्तुएं बेचो। तुम्हे शायद मालूम ही नहीं तुम्हारी यह कलाकृतियां विशेष और अभिन्न है। अधिक बेचोगे तो अधिक धन कमाओगे।“, विदेशी ने कहा।
कुम्हार ने पूछा, "और अधिक धन कमाने से क्या होगा?"
विदेशी ने समझाते हुए कहा, “तुम अधिक धन कमाकर, इन वस्तुओं का उत्पादन बढा सकते हो, बडा सा शोरूम खोल सकते हो, अपने अधीन कर्मचारी, कारीगर रख कर और धन कमा सकते हो।“
कुम्हार नें पूछा, “फिर क्या होगा?”
"तुम अपने व्यवसाय को ओर बढा सकते हो, देश विदेश में फैला सकते हो, एक बड़ा बिजनस एम्पायर खड़ा कर सकते हो", विदेशी ने कहा।
“उससे क्या होगा”, कुम्हार ने फिर पूछा।
विदेशी ने जवाब दिया, “तुम्हारी बहुत बडी आय होगी, तुम्हारे पास आलिशान सा घर, आरामदायक गाडियां और बहुत सारी सम्पत्ति होगी।“
कुम्हार ने फिर पूछा, “उसके बाद?”
"उसके बाद क्या, उसके बाद तुम आराम से जीवनयापन करोगे, आराम ही आराम, और क्या?"
कुम्हार ने छूटते ही पूछा, "तो अभी क्या कर रहा हूँ? जब इतना उहापोह, सब आराम के लिए ही करना है तब तो मै पहले से ही आराम कर रहा हूँ।"
             क्या पाना है, यदि लक्ष्य निर्धारित है, अन्तः सुख प्राप्त करना ही ध्येय है, तो भ्रमित करने वाले छोटे छोटे सुख साधन मृगतृष्णा है। वे साधन मार्गभ्रष्ट कर अनावश्यक लक्ष्य को दूर करने वाले और मार्ग की दूरी बढाने वाले होते है। यदि सुख सहज मार्ग से उपलब्ध हो तो सुविधाभोग, भटकन के अतिरिक्त कुछ नहीं।

    
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