*💠अपने एकमात्र वास्तविक गुरू 'अंतस' की आवाज ऐसे सुनें !*
_अगर महज 90 दिन कोई सिर्फ एक घंटा चुप बैठकर प्रतीक्षा कर सके धैर्य से, तो उसे भीतर की आवाज का पता चलना शुरू हो जाएगा।_
एक बार भीतर का स्वर पकड़ लिया जाए, तो आपको फिर जिंदगी में किसी से सलाह लेने की जरूरत न पड़ेगी।
गीता कहती है - स्वधर्में निधनं श्रेय:! स्वधर्म यानी हिन्दू- मुस्लिम नहीं, आपके लिए स्वाभाविक धर्म. रेडीमेड नहीं, मौलिक धर्म.
_तो जब भी जरूरत हो, आंख बंद करें और भीतर से सलाह ले लें; पूछ लें भीतर से कि क्या करना है। ऐसा कर के स्वधर्म की यात्रा पर आप चल पड़ेंगे।_
भीतर से ही स्वधर्म की ही आवाज आती है। भीतर से कभी परधर्म की आवाज नहीं आती। परधर्म की आवाज सदा बाहर से आती है।
जो व्यक्ति अपने भीतर की इनर वॉइस, अंतर्वाणी को नहीं सुन पाता, वह व्यक्ति कभी स्वधर्म के तप को पूरा नहीं कर पाएगा। यह जो स्वधर्मरूपी यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, यह वही व्यक्ति पूरी कर पाता है, जो अपने भीतर की अंतर्वाणी को सुनने में सक्षम हो जाता है।
_लेकिन सब हो सकते हैं, सबके पास वह अंतर्वाणी का स्रोत है।_
जन्म के साथ ही वह स्रोत है, जीवन के साथ ही वह स्रोत है। बस, हमें उसका कोई स्मरण नहीं।
हमने कभी उसे टैप भी नहीं किया; हमने कभी उसे खटकाया भी नहीं; हमने कभी उसे जगाया भी नहीं।
हमने कभी कानों को प्रशिक्षित भी नहीं किया कि वे सूक्ष्म आवाज को पकड़ लें।
_जीसस या बुद्ध या महावीर भीतर की आवाज से जीते हैं। भीतर की आवाज जो कह देती है वही…।_
इसमें एक बात और आपको खयाल दिला दूं कि भीतर की आवाज एक बार सुनाई पड़नी शुरू हो जाए, तो आपको अपना गुरु मिल गया।
_वह गुरु भीतर बैठा हुआ है। लेकिन हम सब बाहर गुरु को खोजते फिरते हैं। गुरु भीतर बैठा हुआ है।_
परमात्मा ने प्रत्येक को वह विवेक,
वह अंतःकरण,
वह कांसिएंस,
वह अंतर की वाणी दी है, जिससे अगर हम पूछना शुरू कर दें, तो उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं।
_वे उत्तर कभी भी गलत नहीं होते। फिर वह रास्ता बनाने लगता है भीतर का ही स्वर, और तब हम स्वधर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं।_
अंतर्वाणी को सुनने की क्षमता ही स्वधर्मरूपी यज्ञ का मूल आधार है।
कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि मैंने इसके पहले दो यज्ञ कहे, अब यह तीसरा यज्ञ कि स्वधर्मरूपी यज्ञ को भी यदि कोई पूरा कर ले, तो प्रभु के मंदिर में उसकी पहुंच, सुनवाई हो जाती है; द्वार खुल जाते हैं; वह प्रवेश कर जाता है।
_लेकिन लगेगा कि शायद यह सरल हो, यह स्वधर्मरूपी यज्ञ! कि ब्राह्मण अपनी पोथी पढ़ता रहे; चंदन, तिलक-टीका लगााता रहे; हवन-यज्ञ करवाता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है।_
कि शूद्र सड़क पर झाडू लगाता रहे, कि गंदगी ढोता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है।
कि क्षत्रिय युद्ध में लड़ता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है।
_नहीं; यह बहुत बाहरी और ऊपरी बात है। स्वधर्म की गहरी बात तो तभी पता चलेगी, जब भीतर की आवाज…।_
कोई भी व्यक्ति अगर तेईस घंटे काम की दुनिया से हटाकर एक घंटा अपने लिए निकाल ले–ज्यादा निकाल सकें, और अच्छा। कभी वर्ष में पंद्रह दिन, तीन सप्ताह निकाल सकें इकट्ठे, तो और भी अच्छा।
_धीरे-धीरे भीतर की आवाज साफ होने लगे, तो आपकी जिंदगी में भूल-चूक बंद हो जाएगी। क्योंकि तब जिंदगी परमात्मा से चलने लगती है, आपसे नहीं चलती।_
फिर गुलाब का फूल गुलाब ही होता है, फिर कमल होने की कोई आकांक्षा नहीं होती।
_जिस दिन भीतर की वाणी से चला हुआ जीवन पूरा खिलता है, उस दिन यज्ञ पूरा हो गया–स्वधर्मरूपी यज्ञ।_
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